संघ : कार्डेटा (Chordata)

संघ कार्डेटा की स्थापना बैल्फोर (Balfour) ने किया था। इस संघ के प्राणी जल, थल तथा वायु तीनों में रहते हैं। इनके तीन मूलभूत एवं अद्वितीय लक्षण हैं। यथा-

1. नोटोकार्ड (Notochord) : कार्डेटा समुदाय के समस्त जन्तुओं के शरीर में उनके किसी न किसी अवस्था में मेरूदण्ड अथवा पृष्ठ रज्जु अर्थात नोटोकार्ड अवश्य पाया जाता है। यह भ्रूण की मीसेन्डोडर्म कोशिका से बनी होती है। यह शरीर की मध्य पृष्ठ रेखा पर केन्द्रीय तंत्रिका के नीचे तथा आहारनाल के ऊपर एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैला होता है। यह केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को सहारा देता है। अधिकांश कार्डेट्स में नोटोकार्ड के स्थान पर कशेरूक दण्ड (Vertebral Column) का निर्माण हो जाता है।

2. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (Central nervous system) : मस्तिष्क तथा रीढ़रज्जु (spinal cord)। को केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र कहते हैं। यह एक खोखली नलिका सदृश होती है जो शरीर के मध्य पृष्ठ रेखा पर नोटोकार्ड के ऊपर स्थित होती है। इसकी गुहा को तंत्रिका गुहा (neurocoel) कहते हैं। अधिकांश जन्तुओं में इसका अगला सिरा मस्तिष्क का निर्माण करता है तथा शेष भाग रीढ़रज्जु (spinal cord) कहलाता है।

3. ग्रसनी गिल दरारें (Pharyngeal gill clefts): प्रत्येक कार्डेट्स के जीवन की किसी न किसी अवस्था में ग्रसनी (pharynx) की दीवारों में दरारें या छिद्र पायी जाती है जिन्हें गिल दरारें कहते हैं। ये दरारें श्वसन क्रिया में सहायक होती हैं। जलीय जन्तुओं में दरारें स्थायी होती हैं परन्तु स्थलीय जन्तुओं में ये दरारें केवल भ्रूण अवस्था में ही पायी जाती हैं। काडेंट्स के वे जन्तु जो विकसित होते हैं उन्हें उच्च कार्डेट्स (higher chordate) कहते हैं। इनमें नोटोकार्ड का स्थान कशेरुक दण्ड (vertebral column) ले लेता है। ऐसे जन्तुओं को कशेरुकी (vertebrates) अथवा क्रेनिएटा (craniata) कहते हैं। इनमें कार्डेट के अतिरिक्त कुछ अन्य लक्षण भी होते हैं जो नानकार्डेटा में नहीं पाये जाते हैं। ये लक्षण निम्नलिखित हैं यथा-

1. प्रतिपृष्ठ हृदय (Ventral heart): अधिक विकसित तथा प्रतिपृष्ठ तल (अघर तल स्थित होती है। कशेरुकी जन्तुओं का हृदय ventral heart) की ओर

2. बन्द रुधिर परिसंचरण तंत्र (Closed blood vascular system): कशेरुकी में रुधिर हृदय से सदैव बन्द वाहिनियों (धमनी, शिरा केशिका) में बहता है। रुधिर वाहिनियों द्वारा रुधिर के बहाव को बन्द रुधिर परिसंचरण तंत्र (closed blood vascular system) कहते हैं। नानकार्डेट्स में रुधिर वाहिनियों के अभाव से रुधिर कोटरों (blood sinuses) में बहा करता है। इस प्रकार के रुधिर बहाव को खुला रुधिर परिसंचरण तंत्र (open blood vascular system) कहते हैं। नॉनकॉर्डेटा के विपरीत, कॉर्डेटा में, पृष्ठ रुधिरवाहिनी (dorsal vessel) में रक्त आगे से पीछे की ओर तथा प्रमुख अधर रुधिरवाहिनी (ventral vessel) में पीछे से आगे की ओर बहता है (चित्र देखें)। इसके अतिरिक्त, कॉर्डेटा में आहारनाल से रुधिर लाने वाली शिरा, हृदय में न जाकर, यकृत मे जाती है और इस प्रकार एक यकृती निर्वाहिका तन्त्र (hepatic portal system) बनाती है।

3. लाल रुधिर कणिकायें : कशेरुकी की लाल रुधिर कणिकाओं (R.B.C.) में हीमोग्लोबिन नामक लाल रंग का पदार्थ पाया जाता है। इसलिए रुधिर का लाल रंग होता हैं नानकार्डेट्स में यदि हीमोग्लोबिन होता भी है तो वह प्लाज्मा में घुला रहता है।*

4. पश्च-गुद पुच्छ (Post and tail): नॉन कार्डेटा में शरीर का पिछला, पूँछ जैसा भाग प्रमुख खोखले शरीर का ही भाग होता है और गुदा इसके छोर पर होती है। कार्डेटा में पूँछ शरीर का गुदा से पीछे का ठोस, पेशीयुक्त, कंकाल युक्त एवं मूलतः खण्डयुक्त (Segmented) भाग होती है।

5. इनमें प्रजनन, उत्सर्जन एवं पाचन के तंत्र पूर्ण विकसित होते हैं।

कार्डेटा संघ के जन्तुओं को दो समूहों में विभाजित किया गया हैः

क) एक्रेनिया (ख) क्रेनिया या वर्टीब्रेटा

कार्डेटा तथा नानकार्डेटा में अन्तर

कार्डेटा नानकार्डेटा
1. इन जन्तुओं में नोटोकार्ड जीवन की किसी न किसी अवस्था में अवश्य पाया जाता है।1. नोटोकार्ड का अभाव पाया जाता है।
2. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र नलिकाकार एवं पृष्ठतल की ओर रहता है।2. यह ठोस तथा अधरतल की ओर होता है।
3. जीवन की किसी न किसी अवस्था में ग्रसनी गिल दरारें उपस्थित होती हैं।3. इसमें इनका पूर्ण अभाव होता है।
4. हृदय अधरतल की ओर आहारनाल के नीचे स्थित होता है।4. हृदय पृष्ठतल की ओर आहार के ऊपर स्थित होता है।
5. रुधिर परिसंचरण तंत्र बन्द (closed) होता है।5. रुधिर परिसंचरण तंत्र खुला (open) होता है।
6. पृष्ठ रुधिर वाहिनी में रुधिर का बहाव आगे से पीछे की ओर होता है।6. पृष्ठ रुधिर वाहिनी में रुधिर का बहाव पीछे से आगे की ओर होता है।
7. हीमोग्लोबिन लाल रुधिर कणिकाओं (R.B.C.) में पाया जाता है।7. हीमोग्लोबिन रुधिर प्लाज्मा में घुला रहता है।
8. यकृती निवाहिका तंत्र (hepatic portal system) पाया जाता है।8. यकृती निवाहिका तंत्र का अभाव होता है।
9. पश्च गुदा पुच्छ (post anal tail) पाई जाती है।9. पश्च गुदा पुच्छ अनुपस्थित होती है।

➤ समूह (क) एक्रेनिया (Acrania)

इसमें निम्नकोटि के प्रारम्भिक कार्डेट्स आते हैं जिन्हें प्रोटोकार्डेट्स (protochordates) भी कहते हैं। इसकी निम्नलिखित विशेषतायें हैं-

1. मस्तिष्क के चारों ओर अस्थि या उपास्थि का बना रक्षात्मक मस्तिष्क खोल या क्रेनियम (brain box or cranium) का अभाव होता है।

2. जन्तुओं में जबड़े (jaws) एवं जोड़ीदार उपांग नहीं पाये जाते हैं।

3. नोटोकार्ड तथा ग्रसनी गिल दरारें पायी जाती हैं। इस समूह को तीन उपसंघों में विभाजित किया गया है-

1. हेमीकार्डेटा : जैसे-बैलेनोग्लासस
2. यूरोफार्डेटा : जैसे-हर्डमानिया
3. सैफैलोकार्डेटा : जैसे-एम्फीऑक्सस

➤ समूह (ख) क्रेनिया या कशेरुकी (Crania or Vertebrata)

इसमें विकसित कार्डेट्स आते हैं जिनके निम्नलिखित लक्षण हैं-

1. मस्तिष्क के चारों ओर अस्थि या उपास्थि का बना रक्षात्मक मस्तिष्क खोल या क्रेनियम (cranium) होता है। इसी कारण इस समूह का नाम क्रेनिएटा पड़ा।

2. भ्रूणीय नोटोकार्ड के स्थान पर वयस्क में कशेरुकाओं से बना कशेरुक दण्ड (Vertebral Column) होता है।

3. नालवत केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र आजीवन कशेरुक दण्ड के भीतर सुरक्षित रहता है।

इस समूह को दो उपसंघों (sub-phyla) में विभाजित किया गया है-

(i) एग्नैथा जैसे : पेट्रोमाइजान

(ii) नैथोस्टोमेटा : इस उपमहासंघ दो महावर्गों (super class) में विभाजित किया गया है। यथा-

1. मत्स्य या पिसीज (Pisces)
2. चतुष्पादा (Tetrapoda)

महावर्ग : मत्स्य (Super class: Pisces)

इस महावर्ग में लवणीय (Marine) तथा स्वच्छ जल (fresh water) में रहने वाली मछलियाँ आती हैं। मछलियों का शरीर धारा रेखित (stream lined) तथा नौकाकार होता है। पादों के स्थान पर जोड़ीदार पखने (fins) तैरने के लिए पाये जाते हैं। श्वसन क्लामों (gills) द्वारा होता है।* हृदय में दो चैम्बर होते हैं, जो अशुद्ध रक्त पम्प करते हैं।* रक्त शुद्धिकरण के लिए क्लोमों में जाकर वहाँ से सीधे विभिन्न अंगों में चला जाता है। बाह्य कर्णों का अभाव पाया जाता है। त्वचा पर शल्कों (scales) के रूप में बाह्य-कंकाल पाया जाता है।* इनके शरीर का ताप जल के ताप के साथ घटता-बढ़ता रहता है, अर्थात मछलियाँ असमतापी (cold blooded) होती हैं।*

महावर्ग मत्स्य को तीन वर्गों-प्लेकोडर्मोई (Plancodermi), कान्ड्रिक्थीज (Chondrichthyes) एवं आस्टीक्थीज (Osteichthyes) में विभक्त किया गया हैं। इसमें प्लेकोडर्माई के अन्तर्गत विलुप्त मछलियों को रखा गया है। जैसे : क्लाइमेटिस (Climatius)* कान्ड्रिक्थीज के अन्तर्गत स्कालियोडान (Dog fish) एवं टॉरपीडो (Electric ray) को रखा गया है।

• स्कालियोडान (Scoliodon): यह भारतीय समुद्रों में पायी जाने वाली मांसाहारी शार्क (Shark) मछली है, जो प्रकृति से लड़ाकू एवं शिकारी होती है। इसे Dog fish भी कहते हैं।* यह जरायुज (viviparous) होती हैं अर्थात् मादा बच्चे उत्पन्न करती हैं।*

• टारपीडो (Torpedo): विद्युत मछली* यह समुद्र के तल पर कीचड़ या रेत में पाई जाती है। इसका शरीर प्रतिपृष्ठ तल से चपटा तथा शल्क विहीन होता है। अग्र सिरा चौड़ा तथा गोल होता है। सिर पर नेत्र तथा श्वासरन्ध्र होते हैं। शरीर में एक जोड़ा गुर्देनुमा विद्युत अंग होता है। इससे 50-60 वोल्ट तक विद्युत् उत्पन्न होती है। विद्युत् से ये अपनी रक्षा तथा शिकार को बेहोश करते हैं।

• वर्ग-आस्टीक्थीज के अन्तर्गत समुद्र, नदी, पोखरों एवं तालाबों आदि में पायी जाने वाली मछलियाँ सम्मिलित होती हैं। जैसे : रोहू (Labeo), कतला (Catla), भेटकी (Bhetki), प्रोटोप्टेरस (Protopterus), हिप्पोकैम्पस (Sea horse)*, मांगुर (Magur) अर्थात कैटफिश (Cat fish)* ।

• हिप्पोकैम्पस (Hippocampus): यह भारतीय तथा अन्ध महासागरों की एक अस्थीय (Bony) मछली है, जिसे समुद्री घोड़ा भी कहते हैं। इसका सिर घोड़े के मुख के समान होता है। यह मछली जल में सीधी खड़ी (vertical) तैरती है। इसका शरीर छोटी-छोटी हड्‌डी की प्लेटों से ढका रहता है जिन्हें अस्थिप्लेट कहते हैं। सिर धड़ के साथ समकोण बनाता आगे की ओर निकला रहता है। इसे रॉसट्रम (ros- trum) कहते हैं। नर के प्रतिपृष्ठ तल पर एक थैली सदृश रचना होती है जिसे भ्रूणधानी (brood pouch) कहते हैं। मादा इसी में अण्डे देती है। इसी थैली में अण्डे का निषेचन तथा विकास होता है।

• महावर्ग : चतुष्पादा (Tetrapoda): इस महावर्ग के जन्तुओं में चार पाद या टांगें होती हैं जिनमें दो अग्रपाद तथा दो पश्चपाद होते हैं।

त्वचा वायु को सहन करने योग्य होती है। वायुवीय श्वसन के लिए फेफड़े होते हैं। अतीत काल में इस महावर्ग के अधिकांश जन्तुओं ने मूलरूप से जलीय जीवन का परित्याग करके स्थलीय जीवन को अपनाया। इसे चार वर्गों में विभाजित किया गया है। यथा-

1 . उभयचर (Amphibia)
2. सरीसृप (Reptillia)
3. पक्षी (Aves)
4. स्तनधारी (Mammalia)

वर्ग : उभयचर (Class: Amphibia)

उभयचर, मत्स्य और सरीसृप वर्ग के मध्य का वर्ग है। इनका उदय डिवोनियनकल्प में हुआ था। * इस वर्ग के प्राणी उभयचर होते हैं अर्थात् इनका शरीर जल और थल दोनों में रहने के लिए अनुकूल होता है। जन्तुओं के शरीर का ताप वातावरण के ताप के साथ-साथ घटता-बढ़ता है अर्थात् ये असमतापी (cold blooded) होते हैं। अतः अधिक ताप या शीत से बचने के लिए इन्हें सुप्तावस्था (Hibernation) का सहारा लेना पड़ता है। त्वचा पर वाह्य कंकाल (जैसे शल्क, रोम आदि) का पूर्ण अभाव रहता है। किन्तु अंतः कंकाल अस्थि का बना होता है। * इनकी त्वचा अधिक ग्रन्थिमय (Glandular) होने के कारण चिकनी होती है। इनमें दो जोड़ी पाद (इक्थियोफिस के अलावा) होते हैं, जिनमें प्रायः पाँच अंगुलियाँ होती हैं। इनमें श्वसन गिल, त्वचा तथा फेफड़ों द्वारा होता है। लार्वा अवस्था में गिल्स (Gills), वयस्क जन्तु में फेफड़ों, त्वचा तथा मुख गुहा द्वारा होता है। सुप्तावस्था में इनमें त्वचीय श्वसन (cutaneous respiration) जीवन के लिए अत्यावश्यक होता है। जन्तुओं के हृदय में तीन वेश्म पाये जाते हैं। दो अलिंद (Auricles) और एक निलय (Ventricles) होते हैं। इनकी लाल रुधिर कणिकाओं में केन्द्रक होता है। जनन छिद्र (genital aperture) तथा गुदा (anus) दोनों एक ही वेश्म में खुलते हैं। जिसे क्लोएका (cloaca) कहते हैं। इन जन्तुओं में अण्डों का निषेचन तथा भ्रूण विकास जल में होता है। जीवन-वृत्त में भेकशिशु (tadpole) प्रावस्था प्रायः उपस्थित होता है। उदाहरण -मेढक, धात्री दादुर (Midwife toad), दादुर (Toad), सैलामेन्डर, इक्थोयोफिस, प्रोटीअस (Proteus), नेक्ट्यूरस (Necturus), साइरेन (Siren) आदि।

वर्ग : सरीसृप (Class: Reptilia)

इस वर्ग के सभी जन्तु जमीन, दीवारों तथा पेड़ आदि पर रेंग (creep) कर चलते हैं, इसलिए इन्हें रेप्टाइल (रेंगने वाले) कहते हैं। इनमें अनेकों प्रकार की छिपकली (Lizard), सर्प (Snake), घड़ियाल (Gavialis) तथा कछुए (Tortoise), अजगर (Python), स्फेनोडॉन आदि आते हैं। जन्तुओं का शरीर स्थलीय जीवन के लिए पूर्णरूपेण अनुकूलित होता है। कुछ जातियाँ जैसे- मगर (Crocodiles), घड़ियाल, एलीगेटर, कछुआ आदि पानी में रहते हैं। जन्तुओं के शरीर का ताप वातावरण के ताप के अनुसार घटता-बढ़ता है अर्थात् ये असमतापी (Cold-blooded) होते हैं। इनकी त्वचा सूखी, खुरदरी तथा हार्नी शल्कों (Hormy scales) से ढकी रहती है। करोटि में केवल एक ही अनुकपाल अस्थिकन्द (monocondylic) होता है। इनमें लाल रक्त कणिकाएँ (R.BC) केन्द्रक युक्त पायी जाती हैं। हृदय लगभग चार वेश्मी होते हैं दो स्पष्ट अलिंन्द (Auricles) और दो अस्पष्ट निलय। श्वसन फेफड़ों द्वारा। ग्रसनीय क्लोम दरारे केवल भ्रूण में पायी जाती हैं। इनमें जनन छिद्र और गुदा दोनों मिलकर अवस्कर (cloaca) बनाते हैं। नर में मैथुन अंग होते हैं। इसलिए गर्भाधान मादा शरीर के अन्दर (internal fertilization) होता है। मादा अण्डे देती है अर्थात् ये अण्डज होते हैं। अण्डा कठोर कवच (shell) से घिरा होता है। इनके जीवन में मेढक की भांति लार्वा (Larval stage) नहीं होता जैसे-कछुआ, छिपकली, सर्प, मगर आदि।

➤ सर्प (Snakes)

सर्पों में पाद स्टर्नम, टिम्पैनम, अंसमेखला तथा मूत्राशय प्रायः अनुपस्थित होता है। निचले जबड़े के अर्धांश आगे एक लचीले स्नायु (ligament) द्वारा जुड़े होते हैं। अतः मुख शिकार को समूचा निगलने के लिए काफी फैल सकता है। मस्तिष्क खोल आगे से बन्द होता है। चल पलकों तथा बाह्य कर्णछिद्रों का अभाव होता है इसीलिए साँप सुन नहीं सकते हैं। ये भूमि गत ध्वनि तरंगों को त्वचा द्वारा ग्रहण करते हैं। प्रायः लम्बी और आगे से कटी हुई जीभ संवेदांग का काम करती है। बायाँ फेफड़ा छोटा या अनुपस्थित होता है। दाँत पतले व नुकीले। उदाहरण-अजगर (Python), काला नाग या कोब्रा (Cobra-Naja), करैत (Bungarus), वाइपर (Viper)।

वर्ग : पक्षी (Class : Aves)

इनके शरीर पर परों (feathers) का वाह्यकंकाल (Exoskeleton) होता है। उड़ने के लिए अगली टांगें पंखों (wings) में परिवर्तित हो जाती हैं। शल्क (scale) केवल पिछली टांगों पर पाये जाते हैं। इनमें 4-4 पंजेदार अँगुलियाँ पायी जाती हैं। मुख पर चोंच (beak) होती है, परन्तु इनमें दाँत नहीं होते। शरीर धारारेखित (Streamlined), सिर छोटा, पूँछ छोटी, हड्डियाँ खोखली, मजबूत एवं हल्की होती हैं जो उड़ने में सहायक हैं। हृदय में चार वेश्म पायी जाती हैं। जनन छिद्र एवं गुदा आपस में मिलकर अवस्कर (cloaca) का निर्माण करती हैं। सरीसृप की भांति पक्षी भी अण्डे (oviparous) देते हैं। अण्डे कठोर कवच (shell) से ढके रहते हैं। इनके रुधिर का ताप हर मौसम में समान होता है अर्थात् ये समतापी (warm blooded) होते हैं।* उड़ने वाले पक्षियों में कबूतर, गौरैया (पैसर डोमेस्टिकस), कौवा, तोता, शुतुरमुर्ग आदि आते हैं जिनमें पंख विकसित होता है। ऐसे पक्षियों में मर्मर पक्षी या शकरखोरा (Humming bird or sunbird) फूलों का रस चूसने के लिए प्रसिद्ध है। कोयल (Cuckoo) अपने अण्डे अन्य चिड़ियों के घोंसलों में रखती है। खंजन चिड़िया (Wagtail) भारतवर्ष में केवल जाड़ों में साइबेरिया से पोषण के लिए आती है, जनन के लिए नहीं।* उड़ने के अयोग्य पक्षियों में पंख कम विकसित होते हैं। जैसे दक्षिणी अमेरिका के र्हिया (Rhea), अफ्रीका का शुतुरमुर्ग (Ostrich-Struthio), आस्ट्रेलिया तथा न्यू गिनी के कैसोवरी (Cassowary)-विश्व का सबसे खतरनाक पक्षी) एवं एमू (Emu), न्यूजीलैण्ड का कीवी (Kiwi), बर्फीले समुद्री तटों के पेंग्विन (Penguins) आदि होते हैं। इसी श्रेणी में कबूतर-जैसे डोडो पक्षी (Dodo) का विशेष महत्व है, क्योंकि 17वीं सदी में मॉरी द्वीप के लोगों ने इसे खा-खाकर समाप्त कर दिया।

वर्ग : स्तनी (Class : Mammalia)

इस वर्ग के जन्तुओं की त्वचा पर रोम या बाल पाये जाते हैं। कान अधिक विकसित होते हैं तथा बाह्यकर्ण के रूप में बाहर निकले होते हैं, जिन्हें कर्णपल्लव (ear pinna) कहते हैं। नर एवं मादा में स्तन ग्रंथियाँ (mammary glands) पायी जाती है। स्तन ग्रंथियों के कारण ही इस वर्ग को स्तनधारी कहते हैं। मादा में स्तन ग्रंथियाँ अधिक विकसित हो जाती हैं। ये अपने बच्चों को स्तनों से दूध पिलाती हैं। दाँत कई प्रकार के होते हैं। अतः इन्हें विषमदंती (het- erodont) कहते हैं। सभी स्तनियों में आदर्श रूप से 7 ग्रीवा कशेरूकाएँ होती हैं। देहगुहा डायफ्राम (diaphragm) नामक पट्टी द्वारा आगे की ओर वक्षगुहा तथा पीछे की ओर उदर गुहा में विभक्त होती है। इन जन्तुओं में (प्रोटोथीरिया को छोड़कर) वृषण (testis) शरीर के बाहर एक थैली में स्थित होते हैं जिसे वृषण कोष (scrotal sac) कहते हैं।

इस वर्ग में जन्तुओं में अवस्कर (cloaca) नहीं होता है क्योंकि मूत्रोजन छिद्र (urinogenital aperture) तथा गुदा (anus) अलग छिद्रों द्वारा बाहर की ओर खुलते हैं। किन्तु कुछ भिन्न श्रेणी के स्तनियों में अवस्कर मिलता है। हृदय में चार कक्ष होते हैं। शिरा विवर (sinus venosus) नहीं पाया जाता है। RBC गोलाकार केन्द्रक विहीन होता है। वृक्व निवाहिका तंत्र (Renal Portal System) नहीं पाया जाता है। इनमें श्वसन फेफड़ों द्वारा होता है। 12 जोड़ी कपाल तंत्रिकाएँ (cranial nerves) होती हैं।

प्रोटोथीरिया को छोड़कर सभी जन्तु समतापी (warm blooded or stenothermal) होते हैं। सभी जन्तु जरायुज (viviparous) होते हैं अर्थात् मादा सीधे बच्चे पैदा करती है। (प्रोटोथीरिया को छोड़कर) उदाहरण-डकविल प्लेटिपस, कंगारू, चूहा, गाय, बैल, खेल,

बन्दर, मनुष्य, चमगादड़ आदि। स्तनधारी को तीन उपवर्गों (Sub-classes) में विभक्त किया गया है-

(i) प्रोटोथीरिया (Prototheria)
(ii) मेटोथीरिया (Metatheria)
(iii) यूथीरिया (Eutheria)

➤ उपवर्ग – प्रोटोथीरिया (Prototheria)

इसमें प्रारम्भिक स्तनी आते हैं। * चूंकि स्तनधारियों का विकास सरीसृप से हुआ है इसलिए इस समूह के जन्तुओं में सरीसृप के लक्षण भी पाये जाते हैं। जैसे इस उपवर्ग के जन्तु सरीसृप की भाँति अण्डे देते (oviparous) हैं। जन्तुओं के शरीर का ताप असमतापी (cold blooded) होता है। नरों में वृषण उदर गुहा में ही स्थित होता है। प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध में कार्पस केलोसम नहीं पाया जाता है। इनमें कर्णपल्लव (ear pinna) नहीं पाया जाता है। इन जन्तुओं में अवस्कर (cloaca) होता है। स्तनियों की भाँति इस उपवर्ग के जन्तुओं में स्तन ग्रंथियाँ होती हैं परन्तु इनमें स्तनियों की भाँति चूचुक (teats) नहीं होता है। अण्डों से निकलने के बाद बच्चे माँ का दूध पीते हैं। शरीर पर बाल पाये जाते हैं। देहगुहा में डायाफ्रॉम होता है। लाल रुधिर कणिकाओं में केन्द्रक नहीं होता है। जैसे : डकबिल प्लेटिपस (Orinithorhynchus), ऐकिडना (टैकिग्लॉसस) ये दोनों सबसे प्रिमटिव अर्थात् आदि स्तनी हैं।

• डकविल प्लेटिपस या बत्तख चोंचा (Ornithorhynchus)- यह आस्ट्रेलिया और तस्मानिया का मांसाहारी जन्तु है जो पानी के किनारे सुरंग बनाकर रहता है। इसका मुख बत्तख की चोंच की भाँति निकला हुआ होता है। शरीर पर मुलायम बाल होते हैं। पादों में अंगुलियाँ जालवत होती हैं। पूँछ मोटी तथा चपटी होती है जो तैरने में सहायक होती हैं। वयस्क (adult) में दाँत नहीं होते। यह ट्राइएसिक काल से वर्तमान तक पृथ्वी पर विद्यमान है।

• एकिडना (Echidna)

यह ऑस्ट्रेलिया तथा तस्मानिया में पाया जाने वाला स्थलीय एवं रात्रिचर जन्तु है जो चट्टानों के नीचे बिल बनाकर रहता है। इसका शरीर कंटकों एवं बालों से ढका रहता है। इसका प्रोथ लम्बा, नालाकार एवं दन्तरहित होता है। जीभ लम्बी तथा चिपचिपी होती है जिससे ये चींटियों का भक्षण करते हैं इसलिए इसे कंटकमय चींटीखोर (spiny ant eater) भी कहते हैं। इसका नेत्र एवं पूंछ छोटी होती है तथा कर्णपल्लव नहीं पाये जाते हैं। मादा अण्डे देती है तथा अपने बच्चे को दूध पिलाती है।

➤ उपवर्ग – मेटोथीरिया (Metatheria)

इसमें भी प्रारम्भिक स्तनी आते हैं परन्तु ये प्रोटोथीरिया से अधिक विकसित होते हैं। मादा अपरिपक्व बच्चे पैदा करती हैं। ये बच्चे मादा के उदर भाग में स्थित एक शिशुधानी (marsupium) नामक थैली में पलते हैं। इसलिए इस उपवर्ग को मासूपियम भी कहते हैं। शिशुधानी के अन्दर स्तन ग्रंथियाँ होती हैं जिनमें चूचुक (Teats) होते हैं। इनसे बच्चे दूध पीते हैं। इन जन्तुओं में दाँत एकदंती (Monophyodent) होते हैं। इनका रुधिर प्रोटोथीरियन से गर्म होता है। प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध में कार्पस केलोसम का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है।

उदाहरण-कंगारू (आस्ट्रेलिया), डाइडेल्फिस, आपोसम (USA), एवं डैसीयूरस (तस्मानिया)।

➤ उपवर्ग – यूथीरिया (Eutheria)

इसमें पूर्ण विकसित तथा बुद्धिमान स्तनधारी आते हैं। इनमें भ्रूण एवं शिशु का पोषण मादा के गर्भाशय में एक नली द्वारा होता है। जिसे प्लेसेण्टा कहते हैं। पूर्ण विकास के पश्चात् ही बच्चों का जन्म (viviparous) होता है। जन्तुओं में अवस्कर (cloaca) नहीं पाया जाता क्योंकि मूत्रोजनन छिद्र एवं गुदा अलग-अलग छिद्रों द्वारा बाहर खुलते हैं। ये पूर्णरूपेण समतापी होते हैं। प्रमस्तिष्क गोलार्द्ध में कार्पस केलोसम (Carpus Callosum) पूर्ण विकसित होता है। जैसे : डालफिन (गंगा की), छछूदर (Shrew), सेही (Porcupine), बीवर्स, शशक, मनुष्य, बन्दर, भैंस, कुत्ता, चमगादड़, गिलहरी, चूहा, ह्वेल, सील, पैंगोलियन।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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