सामाजिक रूप से हाशिये पर होने का क्या मतलब होता है?
आप कॉपियों के जिन पन्नों पर लिखते हैं उनकी बाई ओर खाली जगह होती है जहाँ आमतौर पर लिखा नहीं जाता है। उसे पन्ने का हाशिया कहा जाता है। कुछ ऐसा ही समाज में भी होता है। हाशियाई का मतलब होता है कि जिसे किनारे या हाशिये पर ढकेल दिया गया हो। ऐसे में वह व्यक्ति चीजों के केंद्र में नहीं रहता। यह एक ऐसी चीज है जिसको आपने अपनी कक्षा या खेल के मैदान में भी कभी न कभी महसूस किया होगा। अगर आप अपनी कक्षा के ज्यादातर बच्चों जैसे नहीं हैं यानी अगर संगीत या फ़िल्मों में आपको रुचि अलग तरह की है, अगर आपका बोलने का ढंग औरों से अलग है. अगर आप औरों की तरह गपशप में ज्यादा मता नहीं लेते, अगर आप वह खेल नहीं खेलते जो ज्यादातर बच्चे खेलना चाहते हैं. अगर आपका पहनावा अलग तरह का है तो इस बात की गुंजाइश बढ़ जाएगी कि आपके संगो साथी आपको ‘अपने बीच का/की’ नहीं मानेंगे। इस तरह आप अकसर यह महसूस करते हैं कि आप ‘औरों से अलग हैं, गोया आपकी कही बात. आपके अहसास, आपकी सोच और आपका व्यवहार सही नहीं है या औरों को पसंद नहीं है।
कक्षा की तरह समाज में भी ऐसे समूह या समुदाय हो सकते हैं जिन्हें इस तरह की बेदखली का अहसास रहता है। उनके हाशियाकरण की वजह यह हो सकती है कि वे एक अलग भाषा बोलते हैं, अलग रीति-रिवाज अपनाते हैं या बहुसंख्यक समुदाय के मुकाबले किसी दूसरे धर्म के हैं। वे अपनी गरीबी के कारण, सामाजिक हैसियत में ‘कमतर’ माने जाने की वजह से और शेष लोगों के मुकाबले कमतर मनुष्य के रूप में देखे जाने की वजह से खुद को हाशिये पर महसूस करते हैं। कई बार हाशियाई समूहों को लोग दुश्मनी और डर के भाव से भी देखते हैं। फ़ासले और अलग-थलग किए जाने का यह अहसास समुदायों को संसाधनों और मौकों का फ़ायदा उठाने से रोक देता है। फलस्वरूप हाशियाई समुदाय अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने में चूक जाते हैं। उन्हें समाज के ऐसे ताकतवर और वर्चस्वशाली तबकों के मुकाबले शक्तिहीनता और पराजय का अहसास रहता है जिनके पास जमीन है. धन-दौलत है, जो ज्यादा पढ़े-लिखे और राजनीतिक रूप से ज्यादा ताकतवर हैं। इसका मतलब यह है कि हाशियाकरण किसी एक ही दायरे में महसूस नहीं होता। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी दायरे समाज के कुछ तबकों को हाशियाई महसूस करने के लिए विवश करते हैं।
इस अध्याय में आप दो ऐसे समुदायों के बारे में पढ़ेंगे जिन्हें आज भारत में सामाजिक रूप से हाशिये पर माना जाता है।
आदिवासी और हाशियाकरण
दिल्ली में एक आदिवासी परिवार सोमा और हेलेन दादाजी के साथ बैठकर टेलीविजन पर गणतंत्र दिवस की परेड देख रही हैं
तभी अचानक हमें बताया गया कि ये जंगल हमारे नहीं है। वन विभाग के अफ़सरों और ठेकेदारों ने बहुत सारा जंगल साफ़ कर डाला। अगर हम जंगलों को बचाते तो वे हमारी पिटाई करते थे। हमें अदालत में घसीटा जाता था। वहाँ न तो हमें वकील मिलता था और न हम अपना मुकदमा खुद लड़ सकते थे।
फिर अफ़सर आए। उन्होंने कहा कि हमारी जमीन के नीचे लोहे के भंडार हैं। वे उसे निकालना चाहते थे। उन्होंने बड़े-बड़े वादे किए। कहते थे कि अगर हम अपनी जमीन उन्हें बेच दें तो वे हमें नौकरी व पैसा देंगे। कुछ गाँव वाले बहुत खुश हुए। कुछ को लगता था कि इससे हमारी जिंदगी तबाह हो जाएगी। कुछ ने तो कागजों पर अँगूठे के निशान भी लगा दिए। उन्हें पता ही नहीं था कि अँगूठे का निशान लगाकर वे अपनी जमीन बेच रहे हैं। मुट्ठी भर लोगों को उन्होंने छोटी-मोटी नौकरी पर रख लिया। लेकिन ज्यादातर लोगों ने अपनी जमीनें नहीं बेचीं।
हममें से बहुत सारे लोगों को अपने घर-बार छोड़ने पड़े। आस-पास के कस्बों में जो काम-धंधे समय-समय पर मिल जाते, हम उन्हें करने लगे।
अभी आपने पढ़ा कि किस तरह दादू को उड़ीसा का अपना गाँव छोड़ना पड़ा। दादू की कहानी हमारे देश के लाखों आदिवासियों की कहानी से मिलती-जुलती है। इस समुदाय के हाशियाकरण के बारे में आप इस अध्याय में और विस्तार से पढ़ेंगे।
आदिवासी कौन लोग हैं?
आदिवासी शब्द का मतलब होता है ‘मूल निवासी’। ये ऐसे समुदाय हैं जो जंगलों के साथ जीते आए हैं और आज भी उसी तरह जी रहे हैं। भारत की लगभग 8 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। देश के बहुत सारे महत्त्वपूर्ण खनन एवं औद्योगिक क्षेत्र आदिवासी इलाकों में हैं। जमशेदपुर, राउरकेला, बोकारो और भिलाई का नाम आपने सुना होगा। आदिवासियों की सारी आबादी एक जैसी नहीं है। भारत में 500 से ज्यादा तरह के आदिवासी समूह हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा उत्तर-पूर्व के अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड एवं त्रिपुरा आदि राज्यों में आदिवासियों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है। अकेले उड़ीसा में ही 60 से ज्यादा अलग-अलग जनजातीय समूह रहते हैं। आदिवासी समाज औरों से बिल्कुल अलग दिखाई देते हैं क्योंकि उनके भीतर ऊँच-नीच का फ़र्क बहुत कम होता है। इसी वजह से ये समुदाय जाति-वर्ण पर आधारित समुदायों या राजाओं के शासन में रहने वाले समुदायों से बिल्कुल अलग होते हैं।
आदिवासियों के बहुत सारे जनजातीय धर्म होते हैं। उनके धर्म इस्लाम, हिंदु, ईसाई आदि धर्मों से बिल्कुल अलग हैं। वे अकसर अपने पुरखों की, गाँव और प्रकृति की उपासना करते हैं। प्रकृति से जुड़ी आत्माओं में पर्वत, नदी, पशु आदि की आत्माएँ हैं। ये विभिन्न स्थानों से जुड़ी होती हैं और इनका वहीं निवास माना जाता है। ग्राम आत्माओं की अकसर गाँव की सीमा के भीतर निर्धारित पवित्र लता-कुंजों में पूजा की जाती है जबकि पुरखों की उपासना घर में ही की जाती है। आदिवासी अपने आस-पास के बौद्ध और ईसाई आदि धर्मों व शाक्त, वैष्णव, भक्ति आदि पंथों से भी प्रभावित होते रहे हैं। लेकिन यह भी सच है कि आदिवासियों के धर्मों का आस-पास के साम्राज्यों में प्रचलित प्रभुत्वशाली धर्मों पर भी असर पड़ता रहा है। उड़ीसा का जगन्नाथ पंथ और बंगाल व असम की शक्ति एवं तांत्रिक परंपराएँ इसी के उदाहरण हैं। उन्नीसवीं सदी में बहुत सारे आदिवासियों ने ईसाई धर्म अपनाया जो आधुनिक आदिवासी इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण धर्म बन गया है।
आदिवासियों की अपनी भाषाएँ रही हैं (उनमें से ज्यादातर संस्कृत से बिल्कुल अलग और संभवतः उतनी ही पुरानी हैं)। इन भाषाओं ने बांग्ला जैसी ‘मुख्यधारा’ की भारतीय भाषाओं को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। इनमें संथाली बोलने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। उनकी अपनी पत्र-पत्रिकाएँ निकलती हैं। इंटरनेट पर भी उनकी पत्रिकाएँ मौजूद हैं।
आदिवासी और प्रचलित छवियाँ
हमारे देश में आदिवासियों को एक खास तरह से पेश किया जाता रहा है। स्कूल के उत्सवों, सरकारी कार्यक्रमों या किताबों व फ़िल्मों में उन्हें सदा एक रूप में ही पेश किया जाता है। वे रंग-बिरंगे कपड़े पहने, सिर पर मुकुट लगाए और हमेशा नाचते-गाते दिखाई देते हैं। इसके अलावा हम उनकी जिंदगी की सच्चाइयों के बारे में बहुत कम जानते हैं। इसीलिए बहुत सारे लोग इस गलतफ़हमी का शिकार हो जाते हैं कि उनका जीवन बहुत आकर्षक, पुराने किस्म का और पिछड़ा हुआ है। आदिवासियों पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे आगे नहीं बढ़ना चाहते। बहुत सारे लोग पहले ही मान लेते हैं कि वे बदलाव या नए विचारों से दूर रहना चाहते हैं। कक्षा 6 की किताब में आपने पढ़ा था कि खास समुदायों को बनी-बनाई छवियों में देखते चले जाने की वजह से इस तरह के समुदायों के साथ अक्सर कितना भेदद्भाव होने लगता है।
ये परंपरागत पोशाकों में सजे-धजे जनजातीय समुदायों की तस्वीरें हैं। आमतौर पर आदिवासियों को इन्हीं रूपों में पेश किया जाता है। इसके आधार पर हमें यह गलतफ़हमी हो जाती है कि आदिवासी ‘रंग-बिरंगे’ और ‘पिछड़े’ लोग होते हैं
आदिवासी और विकास
जैसा कि आपने इतिहास की अपनी पाठ्यपुस्तक में पढ़ा है, भारत में तमाम साम्राज्यों और सभ्यताओं के विकास में जंगलों का बहुत गहरा महत्त्व रहा है। लोहे, ताँबे, सोने व चाँदी के अयस्क, कोयले और हीरे, कीमती इमारती लकड़ी, ज्यादातर जड़ी-बूटियाँ और पशु उत्पाद (मोम, लाख, शहद) और स्वयं जानवर (हाथी, जो कि शाही सेनाओं का मुख्य आधार रहा है), ये सभी जंगलों से ही मिलते हैं। इसके अलावा जीवन के आगे बढ़ते रहने में जंगल का बड़ा योगदान रहा है। इन्हीं जंगलों से बहुत सारी नदियों को लगातार पानी मिलता रहा है। अब समझ में आ रहा है कि ये जंगल हमारी हवा और पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता को भी गहरे तौर पर प्रभावित करते हैं। उन्नीसवीं सदी के आखिर तक हमारे देश का बड़ा हिस्सा जंगलों से ढँका हुआ था। और कम से कम उन्नीसवीं सदी के मध्य तक तो इन विशाल भूखंडों का आदिवासियों के पास ज़बरदस्त ज्ञान था। इन इलाकों में उनकी गहरी पैठ थी। उनका जंगलों पर पूरा नियंत्रण भी था। इसीलिए आदिवासी समुदाय बड़ी-बड़ी रियासतों और रजवाड़ों के अधीन नहीं रहे। बल्कि बहुत सारे राज्य वन संसाधनों के लिए आदिवासियों पर निर्भर रहते थे।
यह तस्वीर आदिवासियों की प्रचलित छवि से बिल्कुल अलग है। आज उन्हें हाशियाई और शक्तिहीन समुदाय के रूप में देखा जाता है। औपनिवेशिक शासन से पहले आदिवासी समुदाय शिकार और चीजें बीनकर आजीविका चलाते थे। वे एक जगह ठहर कर कम रहते थे। वे स्थानांतरित खेती के साथ-साथ लंबे समय तक एक स्थान पर भी खेती करते थे। हालाँकि ये परंपराएँ अभी भी कायम हैं, लेकिन पिछले 200 सालों में आए आर्थिक बदलावों, वन नीतियों और राज्य व निजी उद्योगों के राजनीतिक दवाब की वजह से इन लोगों को बागानों, निर्माण स्थलों, उद्योगों और घरों में नौकरी करने के लिए ढकेला जा रहा है। इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि आज उनका वन क्षेत्रों पर कोई नियंत्रण नहीं है और न ही उन तक सीधी पहुँच है।
झारखंड और आसपास के इलाकों के आदिवासी 1830 के दशक से ही बहुत बड़ी संख्या में भारत और दुनिया के अन्य इलाकों – मॉरिशस, कैरीबियन और यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया में जाते रहे हैं। भारत का चाय उद्योग असम में उनके श्रम के बूते ही अपने पैरों पर खड़ा हो पाया है। आज अकेले असम में 70 लाख आदिवासी हैं। इस विस्थापन की कहानी भीषण कठिनाइयों, यातना, विरह और मौत की कहानी रही है। उन्नीसवीं सदी में ही इन पलायनों के कारण 5 लाख आदिवासी मौत के मुँह में जा चुके थे। नीचे दिया गया गीत आदिवासियों की आकांक्षाओं और असम में उनके वास्तविक हालात की बानगी पेश करता है।
आओ मिनी, असम चलें हमारे देश में तो बहुत कष्ट हैं असम की धरती पर मिनी हरियाली से भरे चाय के बागान हैं… सरदार कहता है काम, काम बाबू कहता है उन्हें पकड़ो और इधर लाओ साहब कहता है मैं तुम्हारी खाल उधेड़ दूंगा हे जादूराम, तुमने हमें असम भेजकर बड़ा छल किया है।
स्त्रोत-बसु, एस. झारखंड मूवमेंट ऐथनीसिटी कल्चर एंड साइलेंस
यह फ़ोटो उड़ीसा के कालाहांडी जिले में स्थित न्यामगिरी पहाड़ी का है। यह डोंगरिया कोंड नामक आदिवासी समुदाय का इलाका है। न्यामगिरी इस समुदाय का पवित्र पर्वत है। एक बड़ी एल्यूमीनियम कंपनी यहाँ खान और शोधक संयंत्र (रिफ़ाइनरी) लगाना चाहती है। यह योजना इस आदिवासी समुदाय को विस्थापित कर देगी। इस समुदाय के लोगों ने इस प्रस्तावित योजना का जमकर विरोध किया है। पर्यावरणवादी भी उनका समर्थन कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय में कंपनी के खिलाफ मुकदमा भी चल रहा है।
इमारती लकड़ी और खेती व उद्योगों के लिए विशाल वनभूमियों को साफ़ किया जा चुका है। आदिवासियों के इलाकों में खनिज पदार्थों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की भी भरमार रही है। इसीलिए इन जमीनों को खनन और अन्य विशाल औद्योगिक परियोजनाओं के लिए बार-बार छीना गया है। जनजातीय भूमि पर कब्ज़ा करने के लिए ताकतवर गुटों ने हमेशा मिलकर काम किया है। काफ़ी बार उनकी जमीन जबरन छीनी गई है और निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन बहुत कम किया गया है। सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि खनन और खनन परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वालों में 50 प्रतिशत से ज्यादा केवल आदिवासी रहे हैं। आदिवासियों के बीच काम करने वाले संगठनों की एक ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट से पता चलता है कि आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड में जो लोग विस्थापित हुए हैं उनमें से 79 प्रतिशत आदिवासी थे। उनकी बहुत सारी जमीन देश भर में बनाए गए सैकड़ों बाँधों के जलाशयों में डूब चुकी है। पूर्वोत्तर भारत में उनकी जमीन लंबे समय से सशस्त्र बलों और उनके बीच चलने वाले टकरावों से बिंधी है। इसके अलावा भारत में 101 राष्ट्रीय पार्क (40.564 वर्ग किलोमीटर) और 543 वन्य जीव अभयारण्य (1,19,776 वर्ग किलोमीटर) हैं। ये ऐसे इलाके हैं जहाँ मूल रूप से आदिवासी रहा करते थे। अब उन्हें वहाँ से उजाड़ दिया गया है। अगर वे इन जंगलों में रहने की कोशिश करते हैं तो उन्हें घुसपैठिया कहा जाता है।
अपनी जमीन और जंगलों से बिछड़ने पर आदिवासी समुदाय आजीविका और भोजन के अपने मुख्य स्रोतों से वंचित हो जाते हैं। अपने परंपरागत निवास स्थानों के छिनते जाने की वजह से बहुत सारे आदिवासी काम की तलाश में शहरों का रुख कर रहे हैं। वहाँ उन्हें छोटे-मोटे उद्योगों, इमारतों या निर्माण स्थलों पर बहुत मामूली वेतन वाली नौकरियाँ करनी पड़ती हैं। इस तरह वे गरीबी और लाचारी के जाल में फँसते चले जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में 45 प्रतिशत और शहरी इलाकों में 35 प्रतिशत आदिवासी समूह गरीबी की रेखा से नीचे गुजर बसर करते हैं। इसकी वजह से वे कई तरह के अभावों का शिकार हो जाते हैं। उनके बहुत सारे बच्चे कुपोषण के शिकार रहते हैं। आदिवासियों के बीच साक्षरता भी बहुत कम है।
जब आदिवासियों को उनकी ज़मीन से हटाया जाता है तो उनकी आमदनी के स्रोत के अलावा और भी बहुत कुछ है जो हमेशा के लिए नष्ट हो जाता है। वे अपनी परंपराएँ और रीति-रिवाज गँवा देते हैं जो कि उनके जीने और अस्तित्व का स्त्रोत हैं। उड़ीसा में एक रिफ़ाइनरी परियोजना के कारण विस्थापित हुए गोविंद मारन कहते हैं, “उन्होंने हमारी खेती की जमीन छीन ली। बस थोड़े से मकान छोड़ दिए हैं। उन्होंने श्मशान भूमि, मंदिर, कुएँ, तालाब, सब कुछ अपने कब्जे में ले लिया है। अब हम कैसे जिएँगे?”
जैसा कि आप पढ़ चुके हैं, आदिवासी जीवन के आर्थिक और सामाजिक आयाम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक दायरे में होने वाला विनाश दूसरे दायरे को भी प्रभावित करता है। उनके संसाधनों के लिए होने वाली छीनाझपटी और विस्थापन की यह प्रक्रिया अकसर दर्दनाक और हिंसक होती है।
अल्पसंख्यक और हाशियाकरण
इकाई 1 में आपने पढ़ा था कि मौलिक अधिकारों के ज़रिए हमारा संविधान धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करता है। आपकी राय में इन अल्पसंख्यक समुदायों को ये सुरक्षाएँ क्यों मुहैया कराई जा रही हैं? अल्पसंख्यक शब्द आमतौर पर ऐसे समुदायों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो संख्या की दृष्टि से बाकी आबादी के मुकाबले बहुत कम हैं। लेकिन यह अवधारणा केवल संख्या के सवाल तक ही सीमित नहीं है। इसमें न केवल सत्ता और संसाधनों तक पहुँच जैसे मुद्दे जुड़े हुए हैं, बल्कि इसके सामाजिक व सांस्कृतिक आयाम भी होते हैं। जैसा कि आपने इकाई । में पढ़ा था, भारतीय संविधान इस बात को मानता है कि बहुसंख्यक समुदाय की संस्कृति समाज और सरकार की अभिव्यक्ति को प्रभावित कर सकती है। ऐसी सूरत में छोटा आकार घाटे की बात साबित हो सकती है और संभव है कि छोटे समुदाय हाशिये पर खिसकते चले जाएँ। ऐसे में अल्पसंख्यक समुदायों को बहुसंख्यक समुदाय के सांस्कृतिक वर्चस्व की आशंका से बचाने के लिए सुरक्षात्मक प्रावधानों की जरूरत पड़ती है। ये प्रावधान उन्हें भेदभाव और नुकसान की आशंका से भी बचाते हैं। कुछ खास परिस्थितियों में छोटे समुदाय अपने जीवन, संपत्ति और कुशलक्षेम के बारे में असुरक्षित भी महसूस कर सकते हैं। असुरक्षा की यह भावना तब और बढ़ सकती है जब अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदायों के संबंध तनावपूर्ण होते हैं। संविधान में इन सुरक्षाओं की व्यवस्था इसलिए की गई है कि हमारा संविधान भारत की सांस्कृतिक विविधता की सुरक्षा तथा समानता व न्याय की स्थापना के प्रति संकल्पबद्ध है। जैसा कि आप अध्याय 5 में पढ़ चुके हैं, कानून को कायम रखने और मौलिक अधिकारों को साकार करने में न्यायपालिका एक अहम भूमिका निभाती है। अगर किसी भी नागरिक को ऐसा लगता है कि उसके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है तो वह अदालत में जा सकता है। आइए अब इन प्रावधानों की रोशनी में मुसलमानों के संदर्भ में हाशियाकरण को समझें।
मुसलमान और हाशियाकरण
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी में मुसलमानों की संख्या 14.2 प्रतिशत है। उन्हें हाशियाई समुदाय माना जाता है क्योंकि दूसरे समुदायों के मुकाबले उन्हें सामाजिक-आर्थिक विकास के उतने लाभ नहीं मिले हैं। विभिन्न स्रोतों से ली गई निम्नलिखित तीनों सारणियों से पता चलता है कि मूलभूत सुविधाओं, साक्षरता और सरकारी नौकरियों के हिसाब से मुस्लिम समुदाय की स्थिति कैसी है। नीचे दी गई तीनों सारणियों को पढ़ कर बताइए कि वे मुसलिम समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बारे में क्या बताती हैं?
इस बात को ध्यान में रखते हुए कि मुसलमान विकास के विभिन्न संकेतकों पर पिछड़े हुए हैं, सरकार ने 2005 में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया। न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में बनाई गई इस समिति ने भारत में मुसलिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति का जायजा लिया। रिपोर्ट में इस समुदाय के हाशियाकरण का विस्तार से अध्ययन किया गया है। समिति की रिपोर्ट से पता चलता है कि विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक संकेतकों के हिसाब से मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे अन्य हाशियाई समुदायों से मिलती-जुलती है। उदाहरण के लिए, 7-16 साल की उम्र के मुसलिम बच्चे अन्य सामाजिक-धार्मिक समुदायों के बच्चों के मुकाबले औसतन काफ़ी कम साल तक ही स्कूली शिक्षा ले पाते हैं (पृष्ठ 56)।
मुसलमानों के आर्थिक व सामाजिक हाशियाकरण के कई पहलू हैं। दूसरे अल्पसंख्यकों की तरह मुसलमानों के भी कई रीति-रिवाज और व्यवहार मुख्यधारा के मुकाबले काफ़ी अलग हैं। सब नहीं, लेकिन कुछ मुसलमानों में बुर्का, लंबी दाढ़ी और फ़ैज़ टोपी का चलन दिखाई देता है। बहुत सारे लोग सभी मुसलमानों को इन्हीं निशानियों से पहचानने की कोशिश करते हैं। इसी कारण अकसर उन्हें अलग नज़र से देखा जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि वे ‘हम बाकी लोगों’ जैसे नहीं हैं। अकसर यही सोच उनके साथ गलत व्यवहार करने और भेदभाव का बहाना बन जाती है। मुसलमानों के इसी सामाजिक हाशियाकरण के कारण कुछ स्थितियों में वे जिन इलाकों में पहले से रहते आए हैं. वहाँ से निकलने लगे हैं जिससे अकसर उनका ‘घेटोआइजेशन’ (ghettoisation) होने लगता है। कभी-कभी यही पूर्वाग्रह घृणा और हिंसा को जन्म देता है।
इस अध्याय के उपरोक्त भाग में हमने देखा कि मुसलमानों के आर्थिक और सामाजिक हाशियाकरण के बीच गहरा संबंध है। इसी अध्याय में पीछे आपने आदिवासियों की स्थिति के बारे में भी पढ़ा। सातवीं कक्षा में आप भारत में औरतों की असमान स्थिति के बारे में पढ़ चुके हैं। इन सारे समूहों के अनुभवों से पता चलता है कि हाशियाकरण एक जटिल परिघटना है जिससे निपटने के लिए कई तरह की रणनीतियों, साधनों और सुरक्षाओं की जरूरत है। इसका मतलब है कि संविधान द्वारा परिभाषित अधिकारों और इन अधिकारों को साकार करने वाले कानूनों व नीतियों की रक्षा में हम सभी की बराबर जिम्मेदारी बनती है। इनके बिना न तो हम उस विविधता की रक्षा कर पाएँगे जो हमारे देश को एक अनूठी छटा देती है और न ही समानता के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को साकार कर पाएँगे।
निष्कर्ष
इस अध्याय में हमने यह समझने का प्रयास किया है कि हाशियाई समुदाय होने का क्या मतलब होता है। हमने विभिन्न हाशियाई समुदायों के अनुभवों के ज़रिए इस बात को समझने का प्रयास किया है। इन समुदायों के हाशिये पर रह जाने के अलग-अलग कारण हैं। प्रत्येक समुदाय इसको अलग-अलग तरह से महसूस भी करता हैं। हमने यह भी देखा है कि हाशियाकरण का संबंध अभाव, पूर्वाग्रह और शक्तिहीनता के अहसास से जुड़ा हुआ है। हमारे देश में कई और भी हाशियाई समुदाय हैं। दलित भी इसी तरह का एक समुदाय है। इस समुदाय के बारे में हम अगले अध्याय में विस्तार से पढ़ेंगे। हाशियाकरण से कमज़ोर सामाजिक हैसियत ही नहीं पैदा होती, बल्कि शिक्षा व अन्य संसाधनों तक पहुँच भी बराबर नहीं मिल पाती है।
सच्चर समिति रिपोर्ट ने मुसलमानों के बारे में प्रचलित दूसरी गलतफहमियों को भी उजागर कर दिया है। आमतौर पर माना जाता है कि मुसलमान अपने बच्चों को सिर्फ मदरसों में भेजना चाहते हैं। आँकड़ों से पता चलता है कि केवल 4 प्रतिशत मुसलमान बच्चे मदरसों में जाते हैं। मुसलमानों के 66 प्रतिशत बच्चे सरकारी और 30 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं।
इसके बावजूद हाशियाई समुदायों का जीवन भी बदला जा सकता है और बदलता है। कोई भी हमेशा एक ही तरह से हाशिये पर नहीं रहता। अगर हम हाशियाकरण के इन उदाहरणों पर ध्यान दें तो पाएँगे कि इन दोनों समुदायों के पास भी संघर्ष और प्रतिरोध का एक लंबा इतिहास रहा है। हाशियाई समुदाय अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता बनाए रखना चाहते हैं और साथ ही अधिकारों, विकास और अन्य अवसरों में बराबर का हिस्सा चाहते हैं। अगले अध्याय में आप जानेंगे कि विभिन्न समूहों ने इस हाशियाकरण का सामना किस तरह किया है।
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शब्द संकलन
ऊँच : नीच व्यक्तियों या चीजों की एक क्रमिक व्यवस्था। आमतौर पर ऊँच-नीच की सीढ़ी के सबसे निचले पायदान पर वे लोग होते ते हैं जिनके पास सबसे कम ताकत है। जाति व्यवस्था ऊँच-नीच की व्यवस्था है जिसमें दलितों को सबसे नीचे माना जाता है।
घेटोआइजेशन : यह शब्द आमतौर पर ऐसे इलाके या बस्ती के लिए इस्तेमाल होता है जिसमें मुख्य रूप से एक ही समुदाय के लोग रहते हैं। घेटोआइजेशन इस स्थिति तक पहुँचने वाली प्रक्रिया को कहा जाता है। यह प्रक्रिया विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कारणों पर आधारित हो सकती है। मय या दुश्मनी भी किसी समुदाय को एकजुट होने के लिए मजबूर कर सकती है क्योंकि अपने समुदाय के लोगों के बीच रहने पर उन्हें ज्यादा राहत मिलती है। इस समुदाय के पास आमतौर पर वहाँ से निकल पाने के ज्यादा विकल्प नहीं होते हैं जिसके कारण वह शेष समाज से करता चला जाता है।
मुख्यधारा : कायदे से किसी नदी या जलधारा के मुख्य वहाव को मुख्यधारा कहा जाता है। इस अध्याय में यह शब्द एक ऐसे सांस्कृतिक संदर्भ के लिए इस्तेमाल हुआ है जिसमें वर्चस्वशाली समुदाय के रीति-रिवाजों और प्रचलनों को ही सही माना जाता है। इसी क्रम में उन लोगों या समुदायों को भी मुख्यधारा कहा जाता है जिन्हें समाज का केंद्र माना जा रहा है. जैसे बहुधा शक्तिशाली या वर्चस्वशाली समूह।
विस्थापित : ऐसे लोग जिन्हें बाँध, खनन आदि विशाल विकास परियोजनाओं की जरूरतों को पूरा करने के लिए जबरन उनके घर-बार से उजाड़ दिया जाता है।
कुपोषित : ऐसा व्यक्ति जिसे पर्याप्त भोजन या पोषण नहीं मिलता।
अभ्यास
1. ‘हाशियाकरण’ शब्द से आप क्या समझते हैं? अपने शब्दों में दो-तीन वाक्य लिखिए।
Ans. हाशियाकरण शब्द से तात्पर्य यह है कि जिसे किनारे या हाशिये पर ढकेल दिया गया हो। ऐसे में वह व्यक्ति चीजों के केंद्र में नहीं रहता। यह एक ऐसी चीज़ है जिसे आपने कभी न कभी कक्षा या खेत के मैदान में कभी ना कभी ज़रूर महसूस किया होगा। कक्षा की तरह समाज में भी ऐसे समूह या समुदाय हो सकते है जिन्हें इस तरह की बेदखली का एहसास रहता है। उनके हाथियाकरण की वजह यह हो सकती है कि वे अलग भाषा बोलते है. अलग रीति-रिवाज अपनाते है या बहुसंख्यक समुदाय के मुकाबले किसी दूसरे धर्म के है। समाज के दबे हुए लोगों को हाशिये पर माना जाता हे।
2. आदिवासी लगातार हाशिये पर क्यों खिसकते जा रहे हैं? दो कारण बताइए।
Ans. (क) कृषि कारणों से एवं उद्योग लगाने के लिए जंगल लगातार काटे जा रहे है।
(ख) खनन आदि जैसी विकास परियोजनाओं को पूरा करने के लिए आदिवासियों को उनके घरों से निकाल दिया जाता है जिसके कारण आदिवासी अपनी आजीविका के मुख्य साधन से वंचित हो जाते है।
3. आप अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक सुरक्षाओं को क्यों महत्त्वपूर्ण मानते हैं? इसका एक कारण बताइए।
Ans. बहुसंख्यक समुदाय के पास धन, संपत्ति, शिक्षा और राजनीतिक प्रभुता होती है। इसका इस्तेमाल करके बहुसंख्यक समुदाय अक्सर अल्पसंख्यकों को हाशिये पर धकेलने की कोशिश करता है। इससे अत्पसंख्यकों के लिए पिछड़ेपन, अशिक्षा और गरीबी का एक अंतहीन चक्र शुरु हो जाता है। इसलिए अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक सुरक्षा बहुत महत्वपूर्ण है।
अथवा
मौलिक अधिकारों के जरिए हमारा संविधान धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा प्रदान करता है। अल्पसंख्यक शब्द आमतौर पर ऐसे समुदायों के लिए इस्तेमाल है जो संख्या की दृष्टि से बाकी आबादी के मुकाबले बहुत कम है। लेकिन यह अवधारणा केवल संख्या के सवाल तक ही सीमित नहीं है। इसमें न केवल सत्ता और संसाधनों तक पहुँच जैसे मुद्दे जुड़े हुए है. बल्कि इसके सामाजिक व सांस्कृतिक आयाम भी होते हैं। भारतीय संविधान इस बात को मानता है कि बहुसंख्यक समुदाय की संस्कृति समाज और सरकार की अभिव्यक्ति को प्रभावित कर सकती है। ऐसी सूरत में छोटा आकार घाटे की बात साबित कर सकती है और संभव है कि छोटे समुदाय हाशिये पर खिसकते चले जाए। ऐसे में अल्पसंख्यक समुदायों को बहुसंख्यक समुदाय के सांस्कृतिक वर्चस्व की आशंका से बचाने के लिए सुरक्षात्मक प्रावधानों की जरूरत है।
4. अल्पसंख्यक और हाशियाकरण वाले हिस्से को दोबारा पढ़िए। अल्पसंख्यक शब्द से आप क्या समझते हैं?
Ans. अल्पसंख्यक से अभिप्राय यह होता है कि जो संख्या में कम होते है। जैसे भारत में हिंदू, मुस्लिम, क्रिश्वयन, सिक्ख धर्म से जुड़े लोग रहते है। भारत में हिंदू बहुसंख्यक है, जबकि मुस्लिम, क्रिश्वयन, सिक्ख अल्पसंख्यक है।
5. आप एक बहस में हिस्सा ले रहे हैं जहाँ आपको इस बयान के समर्थन में तर्क देने हैं कि ‘मुसलमान एक हाशियाई समुदाय है।’ इस अध्याय में दी गई जानकारियों के आधार पर दो तर्क पेश कौजिए।
Ans. मुस्लिम समुदाय निम्नलिखित तौर से हाशिये पर हे जैसे मुस्लिम समुदाय आर्थिक तौर पर पिछड़े हुए हैं तथा आर्थिक विकास से उपेक्षित रहे हैं। भारत में 63.6% मुस्लिम कच्चे घरों में रहते हैं, जबकि 55.20 हिंदू कच्चे घरों में रहते हैं। भारत में 65% हिंदू साक्षर है, जबकि 59% मुस्लिम साक्षर हैं। मुस्लिम समुदाय में केवल 7 से 16 वर्ष के बच्चे ही स्कूल जा पाते हैं। जो कि अन्य समुदायों से बहुत कम है।
6 कल्पना कीजिए कि आप टेलीविजन पर 26 जनवरी की परेड देख रहे हैं। आपकी एक दोस्त आपके नजदीक बैठी है। वह अचानक कहती है, “इन आदिवासियों को तो देखो, कितने रंग-बिरंगे हैं। लगता है सदा नाचते ही रहते हैं।” उसकी बात सुन कर आप भारत में आदिवासियों के जीवन से संबंधित क्या बातें उसको बताएँगे? उनमें से तीन बातें लिखें।
Ans. अधिकांश आदिवासी घने जंगलों में रहते हैं। जिसके कारण इनका जंगली से एक संबंध बन जाता है। आदिवासी प्रायः अपने कबीले के धार्मिक रीति रिवाजों का पालन करते हैं जिसमें वे अपने पुरखों क गाँव और प्रकृति की पूजा करते हैं। आदिवासी उन स्थानों पर रहते हैं। जो प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर होते हैं।
7. चित्रकथा-पट्ट में आपने देखा कि हेलेन होप आदिवासियों की कहानी पर एक फिल्म बनाना चाहती है। क्या आप आदिवासियों के बारे में एक कहानी बना कर उसकी मदद कर सकते हैं?
Ans. मेरी कहानी का मुख्य पात्र हे एक आदिवासी युवक। उसने अपने गाँव के सरकारी स्कूल से शिक्षा प्राप्त की है। उसके बाद सरकार की आरक्षण नीति के कारण वह एक नामी इंजीनियरिंग कॉलेज से बीटेक की पढ़ाई करता है। उसके बाद वह सिविल सर्विसेज की परिक्षा पास करता है और आइएएस बन जाता है।
अथवा
उड़ीसा के जंगलों में कई आदिवासी कबीले रहते हैं। उनमें से एक कबीला सोन कबीला है जिसकी संख्या लगभग 200 के पास है। इस कबीले के लोगों के पास यद्यपि अधिक धन दौलत नहीं है। परंतु प्राकृतिक संसाधनों के कारण ये अपना गुजर-बसर कर लेते हैं। इनके कबीले के पास से एक नदी गुजरती है जिसमें से ये मछली पकड़ बाज़ार में बेच देते हैं। इससे इन्हें कुछ पैसे मिल जाते हैं। परंतु कुछ समय बाद राज्य सरकार ने उस नदी पर एक बड़ा बाँध बनाने का निर्णय किया। परंतु इस बाँध से आदिवासी बेघर हो जाते, उनकी आजीविका का साधन छिन जाता। अतः उन्होंने राज्य सरकार के विरुद्ध आंदोलन किया, इसमें कुछ समाज सेवी संगठन एवं पर्यावरण से संबंधित संगठन भी शामिल हो गए। इन संगठनों ने राज्य के निर्णय को न्यायालय में चुनौती दी। न्यायालय ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि बांध बनाने से पहले, आदिवासियों के पुनर्वास का प्रबंध करें। राज्य सरकार ने न्यायालय के आदेशानुसार सोन कबीले के तोगों के पुनर्वास एवं आजीविका का प्रबंध किया। तत्पक्षात् उन्होंने बाँध निर्माण का कार्य शुरू किया।
8. क्या आप इस बात से सहमत हैं कि आर्थिक हाशियाकरण और सामाजिक हाशियाकरण आपस में जुड़े हुए हैं? क्यों?
Ans. यह बात सही है कि आर्थिक हाशियाकरण और सामाजिक हाशियाकरण आपस में जुड़े हुए हैं। एक बार कोई समुदाय गरीबी के कुचक्र में फंस जाता है तो वह विकास के मामले में बहुत पीछे चला जाता है। गरीबों के बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं, जिससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास कम हो जाता है। गरीबी के कारण बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं और फिर बड़े होकर उन्हें भी मजदूरी करने को विवश होना पड़ता है। इस अंतहीन चक्र के कारण पूरा का पूरा समुदाय सामाजिक हाशियाकरण का भी शिकार हो जाता है।
पाठ के बीच में पूछे जाने वाले प्रश्न-उत्तर
1. कम से कम तीन कारण बताइए कि विभिन्न समूह हाशिये पर क्यों चले जाते हैं।
Ans. हाशिये पर जाने के तीन कारण निम्नलिखित है:-
(क) जो अलग रीति-रिवाजों को अपनाते है।
(ख) जो अलग भाषा बोलते है।
(ग) बहुसंख्यकों के लिए अलग धर्म से सम्बन्ध रखते है।
2: दादू को उड़ीसा का अपना गांव क्यों छोड़ना पड़ा ?
Ans. गाँव छोड़ने का कारण –
1. उड़ीसा में दादू के गाँव की जमीन के नीचे लोहे के भंडार थे।
2. वन विभाग के अफसरों ने गाँव वालों से जमीन बेचने के लिए कहा और बहुत से लोगों ने अपनी जमीनें बेच दी।
3. जिन लोगों ने अपनी जमीन नहीं बेची तो उन्हें मारा पीटा गया। इसलिए मजबूरी में दादू को अपना गाँव छोड़ना पड़ा।
अथवा
उनके गांव में अफसर आए थे। उन्होंने कहा उनकी जमीन के नीचे लोहे के भंडार है। वे उसे निकालना चाहते थे। उन्होंने बड़े-बड़े वादे किए। कहते थे कि अगर हम अपनी जमीन उन्हें बेच दें तो वे हमें नोकरी व पैसा देंगे। कुछ गाँव वाले बहुत खुश हुए। कुछ को लगता था कि इससे हमारी जिंदगी तबाह हो जाएगी। कुछ ने तो कागज़ों पर अंगूठे के निशान भी लगा दिए। उन्हें पता ही नहीं था कि अँगूठे का निशान लगाकर वे अपनी जमीन बेच रहे हैं। मुट्ठी भर लोगों को उन्होंने छोटी- मोटी नौकरी पर रख लिया। लेकिन ज्यादातर लोगों ने अपनी जमीनें नहीं बेचीं। तब उन्होंने हमारे साथ मार-पीट शुरु कर दी थी। वे अलग अलग तरह से उन्हें धमकाने लगे। आख़िरकार उन्होंने सबको अपने पुरखों की जमीन बेचने और छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इस प्रकार दादू को उड़ीसा का अपना गांव छोड़ना पड़ा।
3: आज के भारत में कौन सी धातुएँ महत्त्वपूर्ण हैं? क्यों? वे धातुएँ कहाँ से हासिल होती हैं? क्या वहाँ आदिवासियों की आबादी है ?
Ans. आज के भारत में लोहे, ताम्बे, सोने व चांदी के अयस्क, कोयले और हरि जैसी महत्वपूर्ण धातुएं मिलती है। ये धातुएं इसलिए महत्वपूर्ण होती है क्योंकि ये हमारे जीवन से जुड़ी प्रत्येक चीज़ों में प्रयोग में लाई जाती है। जिनके बिना जीवन पापन करना असंभव होता है क्योंकि हर एक चीज जिनका हम प्रयोग करते है इन्हीं धातुओं से बनी होती है। ये धातुएं धरती के नीचे से हासिल होती है। ये धातुएं मध्य प्रदेश उड़ीसा, आंध्र प्रदेश ओर झारखंड में पाए जाते है। हां. इन राज्यों में आदिवासियों की आबादी है।
4: ऐसे पाँच उत्पाद बताइए जो जंगल से मिलते हैं और जिनका आप घर में इस्तेमाल करते हैं।
Ans. औषधि बनाने के लिए जड़ी-बूटियां, घर, फर्नीचर, ईंधन और खिलौने बनाने के लिए लकड़ी।
प्रश्न 5: वन भूमि पर निम्नलिखित माँगें किन लोगों से की जा रही हैं?
Ans. वन भूमि पर निम्नलिखित मांग आदिवासियों से की जा रही है।
• मकानों और रेलवे के निर्माण के लिए इमारती लकड़ी
• खनन के लिए वन भूमि
• गैर-जनजातीय लोगों द्वारा कृषि के लिए वनभूमि का उपयोग
• वन्यजीव अभयारण्यों के रूप में सरकार द्वारा आरक्षित जमीन
6: अल्पसंख्यकों के लिए हमें सुरक्षात्मक प्रावधानों की क्यों जरूरत है?
Ans. अल्पसंख्यकों के लिए हमें सुरक्षात्मक प्रावधानों की इसलिए जरूरत पड़ती है क्योंकि ये प्रावधान उन्हें भेदभाव और नुकसान की आशंका से बचाते है। कुछ खास परिस्थितियों में छोटे समुदाय अपने जीवन, संपत्ति और कुशलक्षेम के बारे में असुरक्षित भी महसूस कर सकते है। असुरक्षा की यह भावना और बढ़ सकती है जब अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदायों के सम्बन्ध तनावपूर्ण होते है। संविधान में इन सुरक्षाओं की व्यवस्था इसलिए की गई है कि हमारा संविधान भारत की सांस्कृतिक विविधताओं की सुरक्षा तथा समानता व न्याय की स्थापना के प्रति संकल्पबद्ध है।
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