यूरोप में समाजवाद एवं रूसी क्रांति : अध्याय 2

1. सामाजिक परिवर्तन का युग

पिछले अध्याय में आपने फ़्रांसीसी क्रांति के बाद यूरोप में फैलते जा रहे स्वतंत्रता और समानता के शक्तिशाली विचारों के बारे में पढ़ा। फ्रांसीसी क्रांति ने सामाजिक संरचना के क्षेत्र में आमूल परिवर्तन की संभावनाओं का सूत्रपात कर दिया था। जैसा कि आप पढ़ चुके हैं, अठारहवीं सदी से पहले फ्रांस का समाज मोटे तौर पर एस्टेट्स और श्रेणियों में बँटा हुआ था। समाज की आर्थिक और सामाजिक सत्ता पर कुलीन वर्ग और चर्च का नियंत्रण था। लेकिन क्रांति के बाद इस संरचना को बदलना संभव दिखाई देने लगा। यूरोप और एशिया सहित दुनिया के बहुत सारे हिस्सों में व्यक्तिगत अधिकारों के स्वरूप और सामाजिक सत्ता पर किसका नियंत्रण हो इस पर चर्चा छिड़ गई। भारत में भी राजा राममोहन रॉय और डेरोजियो ने फ़्रांसीसी क्रांति के महत्त्व का उल्लेख किया। और भी बहुत सारे लोग क्रांति पश्चात यूरोप की स्थितियों के बारे में चल रही बहस में कूद पड़े। आगे चलकर उपनिवेशों में घटी घटनाओं ने भी इन विचारों को एक नया रूप प्रदान करने में योगदान दिया।

मगर यूरोप में भी सभी लोग आमूल समाज परिवर्तन के पक्ष में नहीं थे। इस सवाल पर सबकी अलग-अलग राय थी। बहुत सारे लोग बदलाव के लिए तो तैयार थे लेकिन वह चाहते थे कि यह बदलाव धीरे-धीरे हो। एक खेमा मानता था कि समाज का आमूल पुनर्गठन ज़रूरी है। कुछ ‘रुढ़िवादी’ (Conservatives) थे तो कुछ ‘उदारवादी’ (Liberals) या ‘आमूल परिवर्तनवादी’ (Radical, रैडिकल) समाधानों के पक्ष में थे। उस समय के संदर्भ में इन शब्दों का क्या मतलब था? राजनीति की इन धाराओं में क्या फ़र्क थे और कौन-कौन सी बातें थीं जो समान थीं? यहाँ हमें ध्यान रखना चाहिए कि इन शब्दों का अर्थ हर काल और परिवेश में एक ही नहीं होता।

इस अध्याय में हम उन्नीसवीं शताब्दी की कुछ महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परंपराओं का अध्ययन करेंगे और देखेंगे कि उन्होंने परिवर्तन के संदर्भ में क्या असर डाला। इसके बाद हम एक ऐसी ऐतिहासिक घटना पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे जिसमें समाज के रैडिकल पुनर्गठन का एक गंभीर प्रयास किया गया। रूस में हुई क्रांति के फलस्वरूप समाजवाद बीसवीं सदी का स्वरूप तय करने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली विचारों की श्रृंखला का हिस्सा बन गया।

1.1 उदारवादी, रैडिकल और रुढ़िवादी

समाज परिवर्तन के समर्थकों में एक समूह उदारवादियों का था। उदारवादी ऐसा राष्ट्र चाहते थे जिसमें सभी धर्मों को बराबर का सम्मान और जगह मिले। शायद आप जानते होंगे कि उस समय यूरोप के देशों में प्रायः किसी एक धर्म को ही ज्यादा महत्व दिया जाता था (ब्रिटेन की सरकार चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का समर्थन करती थी, ऑस्ट्रिया और स्पेन, कैथलिक चर्च के समर्थक थे)। उदारवादी समूह वंश-आधारित शासकों की अनियंत्रित सत्ता के भी विरोधी थे। वे सरकार के समक्ष व्यक्ति मात्र के अधिकारों की रक्षा के पक्षधर थे। उनका कहना था कि सरकार को किसी के अधिकारों का हनन करने या उन्हें छीनने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। यह समूह प्रतिनिधित्व पर आधारित एक ऐसी निर्वाचित सरकार के पक्ष में था जो शासकों और अफ़सरों के प्रभाव से मुक्त और सुप्रशिक्षित न्यायपालिका द्वारा स्थापित किए गए कानूनों के अनुसार शासन कार्य चलाए। पर यह समूह ‘लोकतंत्रवादी’ (Democrat) नहीं था। ये लोग सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार यानी सभी नागरिकों को वोट का अधिकार देने के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि वोट का अधिकार केवल संपत्तिधारियों को ही मिलना चाहिए।

इसके विपरीत रैडिकल समूह के लोग ऐसी सरकार के पक्ष में थे जो देश की आबादी के बहुमत के समर्थन पर आधारित हो। इनमें से बहुत सारे लोग महिला मताधिकार आंदोलन के भी समर्थक थे। उदारवादियों के विपरीत ये लोग बड़े जमींदारों और संपन्न उद्योगपतियों को प्राप्त किसी भी तरह के विशेषाधिकारों के खिलाफ़ थे। वे निजी संपत्ति के विरोधी नहीं थे लेकिन केवल कुछ लोगों के पास संपत्ति के संकेंद्रण का विरोध जरूर करते थे।

कुछ लोगों के पास संपत्ति के संकेंद्रण का विरोध जरूर करते रुढ़िवादी तबका रैडिकल और उदारवादी, दोनों के खिलाफ्क्त था। मगर फ़्रांसीसी क्रांति के बाद तो रुढ़िवादी भी बदलाव की जरूरत को स्वीकार करने लगे थे। पुराने समय में, यानी अठारहवीं शताब्दी में रुढ़िवादी आमतौर पर परिवर्तन के विचारों का विरोध करते थे। लेकिन उन्नीसवीं सदी तक आते आते वे भी मानने लगे थे कि कुछ परिवर्तन आवश्यक हो गया है परंतु वह चाहते थे कि अतीत का सम्मान किया जाए अर्थात् अतीत को पूरी तरह ठुकराया न जाए और बदलाव की प्रक्रिया धीमी हो।

फ़्रांसीसी क्रांति के बाद पैदा हुई राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान सामाजिक परिवर्तन पर केंद्रित इन विविध विचारों के बीच काफ़ी टकराव हुए। उन्नीसवीं सदी में क्रांति और राष्ट्रीय कायांतरण की विभिन्न कोशिशों ने इन सभी राजनीतिक धाराओं की सीमाओं और संभावनाओं को स्पष्ट कर दिया।

1.2 औद्योगिक समाज और सामाजिक परिवर्तन

ये राजनीतिक रुझान एक नए युग का द्योतक थे। यह दौर गहन सामाजिक एवं आर्थिक बदलावों का था। यह ऐसा समय था जब नए शहर बस रहे थे, नए-नए औद्योगिक क्षेत्र विकसित हो रहे थे, रेलवे का काफी विस्तार हो चुका था और औद्योगिक क्रांति संपन्न हो चुकी थी।

औद्योगीकरण ने औरतों आदमियों और बच्चों, सबको कारखानों में ला दिया। काम के घंटे यानी पाली बहुत लंबी होती थी और मज़दूरी बहुत कम थी। बेरोजगारी आम समस्या थी। औद्योगिक वस्तुओं की माँग में गिरावट आ जाने पर तो बेरोजगारी और बढ़ जाती थी। शहर तेजी से बसते और फैलते जा रहे थे इसलिए आवास और साफ़-सफ़ाई का काम भी मुश्किल होता जा रहा था। उदारवादी और रैडिकल, दोनों ही इन समस्याओं का हल खोजने की कोशिश कर रहे थे।

चित्र 1 – उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में लंदन के गरीबों की दशा उसी समय के एक व्यक्ति की दृष्टि से.
स्त्रोत : हेनरी मेहयू, लंदन लेबर ऐन्ड लंदन पुअर, 1861

लगभग सभी उद्योग व्यक्तिगत स्वामित्व में थी बहुत सारे रैडिकल और उदारवादियों के पास भी काफी संपत्ति थी और उनके यहाँ बहुत सारे लोग नौकरी करते थे। उन्होंने व्यापार या औद्योगिक व्यवसायों के जरिए धन-दौलत इकट्ठा की थी इसलिए वह चाहते थे कि इस तरह के प्रयासों को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जाए। उन्हें लगता था कि अगर मजदूर स्वस्थ हों और नागरिक पढ़े-लिखे हों, तो इस व्यवस्था का भरपूर लाभ लिया जा सकता है। ये लोग जन्मजात मिलने वाले विशेषाधिकारों के विरुद्ध थे। व्यक्तिगत प्रयास, श्रम और उद्यमशीलता में उनका गहरा विश्वास था। उनकी मान्यता थी कि यदि हरेक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता दी जाए, गरीबों को रोजगार मिले, और जिनके पास पूँजी है उन्हें बिना रोक-टोक काम करने का मौका दिया जाए तो समाज तरक्की कर सकता है। इसी कारण उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में समाज परिवर्तन के इच्छुक बहुत सारे कामकाजी स्त्री-पुरुष उदारवादी और रैडिकल समूहों व पार्टियों के इर्द-गिर्द गोलबंद हो गए थे।

यूरोप में 1815 में जिस तरह की सरकारें बनीं उनसे छुटकारा पाने के लिए कुछ राष्ट्रवादी, उदारवादी और रैडिकल आंदोलनकारी क्रांति के पक्ष में थे। फ़्रांस, इटली, जर्मनी और रूस में ऐसे लोग क्रांतिकारी हो गए और राजाओं के तख्तापलट का प्रयास करने लगे। राष्ट्रवादी कार्यकर्ता क्रांति के जरिए ऐसे ‘राष्ट्रों’ की स्थापना करना चाहते थे जिनमें सभी नागरिकों को समान अधिकार प्राप्त हों। 1815 के बाद इटली के राष्ट्रवादी गिसेप्पे मेजिनी ने यही लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने समर्थकों के साथ मिलकर राजा के खिलाफ़ साजिश रची थी। भारत सहित दुनिया भर के राष्ट्रवादी उसकी रचनाओं को पढ़ते थे।

1.3 यूरोप में समाजवाद का आना

समाज के पुनर्गठन की संभवतः सबसे दूरगामी दृष्टि प्रदान करने वाली विचारधारा समाजवाद ही थी। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक यूरोप में समाजवाद एक जाना-पहचाना विचार था। उसकी तरफ़ बहुत सारे लोगों का ध्यान आकर्षित हो रहा था।

समाजवादी निजी संपत्ति के विरोधी थे। यानी, वे संपत्ति पर निजी स्वामित्व को सही नहीं मानते थे। उनका कहना था कि संपत्ति के निजी स्वामित्व की व्यवस्था ही सारी समस्याओं की जड़ है। वे ऐसा क्यों मानते थे? उनका तर्क था कि बहुत सारे लोगों के पास संपत्ति तो है जिससे दूसरों को रोजगार भी मिलता है लेकिन समस्या यह है कि संपत्तिधारी व्यक्ति को सिर्फ़ अपने फ़ायदे से ही मतलब रहता है; वह उनके बारे में नहीं सोचता जो उसकी संपत्ति को उत्पादनशील बनाते हैं। इसलिए, अगर संपत्ति पर किसी एक व्यक्ति के बजाय पूरे समाज का नियंत्रण हो तो साझा सामाजिक हितों पर ज्यादा अच्छी तरह ध्यान दिया जा सकता है। समाजवादी इस तरह का बदलाव चाहते थे और इसके लिए उन्होंने बड़े पैमाने पर अभियान चलाया।

कोई समाज संपत्ति के बिना कैसे चल सकता । सकता है? समाजवादी समाज का आधार क्या होगा?

समाजवादियों के पास भविष्य की एक बिल्कुल भिन्न दृष्टि थी। कुछ समाजवादियों को कोऑपरेटिव यानी सामूहिक उद्यम के विचार में दिलचस्पी थी। इंग्लैंड के जाने-माने उद्योगपति रॉबर्ट ओवेन (1771-1858) ने इंडियाना (अमेरिका) में नया समन्वय (New Harmony) के नाम से एक नये तरह के समुदाय की रचना का प्रयास किया। कुछ समाजवादी मानते थे कि केवल व्यक्तिगत पहलकदमी से बहुत बड़े सामूहिक खेत नहीं बनाए जा सकते। वह चाहते थे कि सरकार अपनी तरफ़ से सामूहिक खेती को बढ़ावा दे। उदाहरण के लिए, फ़्रांस में लुई ब्लांक (1813-1882) चाहते थे कि सरकार पूँजीवादी उद्यमों की जगह सामूहिक उद्यमों को बढ़ावा दे। कोऑपरेटिव ऐसे लोगों के समूह थे जो मिल कर चीजें बनाते थे और मुनाफ़े को प्रत्येक सदस्य द्वारा किए गए काम के हिसाब से आपस में बाँट लेते थे।

कार्ल मार्क्स (1818-1882) और फ्रेडरिक एंगेल्स (1820-1895) ने इस दिशा में कई नए तर्क पेश किए। मार्क्स का विचार था कि औद्योगिक समाज ‘पूँजीवादी’ समाज है। फ़ैक्ट्रियों में लगी पूँजी पर पूँजीपतियों का स्वामित्व है और पूँजीपतियों का मुनाफ़ा मजदूरों की मेहनत से पैदा होता है। मार्क्स का निष्कर्ष था कि जब तक निजी पूँजीपति इसी तरह मुनाफ़े का संचय करते जाएँगे तब तक मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। अपनी स्थिति में सुधार लाने के लिए मजदूरों को पूँजीवाद व निजी संपत्ति पर आधारित शासन को उखाड़ फेंकना होगा। मार्क्स का विश्वास था कि खुद को पूँजीवादी शोषण से मुक्त कराने के लिए मजदूरों को एक अत्यंत भिन्न किस्म का समाज बनाना होगा जिसमें सारी संपत्ति पर पूरे समाज का यानी सामाजिक नियंत्रण और स्वामित्व रहेगा। उन्होंने भविष्य के इस समाज को साम्यवादी (कम्युनिस्ट) समाज का नाम दिया। मार्क्स को विश्वास था कि पूँजीपतियों के साथ होने वाले संघर्ष में जीत अंततः मजदूरों की ही होगी। उनकी राय में कम्युनिस्ट समाज ही भविष्य का समाज होगा।

1.4 समाजवाद के लिए समर्थन

1870 का दशक आते-आते समाजवादी विचार पूरे यूरोप में फैल चुके थे। अपने प्रयासों में समन्वय लाने के लिए समाजवादियों ने द्वितीय इंटरनैशनल के नाम से एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था भी बना ली थी।

चित्र 2 – यह पेरिस कम्यून, 1871 का एक चित्र है। इस चित्र में मार्च और मई 1871 के बीच हुए जनविद्रोह को दर्शाया गया है। यह ऐसा दौर था जब पेरिस की नगर परिषद् (कम्यून) पर मज्जदूरों, आम लोगो, पेशेवरों, और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लेकर बनाई गई ‘जन सरकार’ ने कब्ज़ा कर लिया था। यह उथल-पुथल फ़्राँसीसी सरकार की नीतियों के प्रति बढ़ते असंतोष के कारण पैदा हुई थी। यद्यपि ‘पेरिस कम्यून’ को अंततः सरकारी टुकड़ियों ने कुचल डाला लेकिन दुनिया भर के समाजवादियों ने समाजवादी क्रांति की पूर्वपीठिका के रूप में इसका जमकर जश्न मनाया। पेरिस कम्यून को दो और चीजों की वजह से आज भी याद रखा जाता है: एक, मजदूरों के लाल झंडे का उदय इसी घटना से हुआ था कम्युनाडौं (क्रांतिकारियो) ने अपने लिए यही झंडा चुना था; दो, ‘मार्सेयेस’ के लिए, जो इस घटना के बाद पेरिस कम्यून और मुक्ति संघर्ष का प्रतीक बन गया। उल्लेखनीय है कि इस गीत को मूलतः 1792 में युद्ध गीत के रूप में लिखा गया था। (सौजन्यः लंदन न्यूज, 1871)

इंग्लैंड और जर्मनी के मजदूरों ने अपनी जीवन और कार्यस्थितियों में सुधार लाने के लिए संगठन बनाना शुरू कर दिया था। संकट के समय अपने सदस्यों को मदद पहुँचाने के लिए इन संगठनों ने कोष स्थापित किए और काम के घंटों में कमी तथा मताधिकार के लिए आवाज उठाना शुरू कर दिया। जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी) के साथ इन संगठनों के काफी गहरे रिश्ते थे और संसदीय चुनावों में वे पार्टी की मदद भी करते थे। 1905 तक ब्रिटेन के समाजवादियों और ट्रेड यूनियन आंदोलनकारियों ने लेबर पार्टी के नाम से अपनी एक अलग पार्टी बना ली थी। फ्रांस में भी सोशलिस्ट पार्टी के नाम से ऐसी ही एक पार्टी का गठन किया गया। लेकिन 1914 तक यूरोप में समाजवादी कहीं भी सरकार बनाने में कामयाब नहीं हो पाए। संसदीय राजनीति में उनके प्रतिनिधि बड़ी संख्या में जीतते रहे, उन्होंने कानून बनवाने में भी अहम भूमिका निभायी, मगर सरकारों में रुढ़िवादियों, उदारवादियों और रैडिकलों का ही दबदबा बना रहा।

2. रूसी क्रांति

यूरोप के सबसे पिछड़े औद्योगिक देशों में से एक, रूस में यह समीकरण उलट गया। 1917 की अक्तूबर क्रांति के जरिए रूस की सत्ता पर समाजवादियों ने कब्जा कर लिया। फरवरी 1917 में राजशाही के पतन और अक्तूबर की घटनाओं को ही अक्तूबर क्रांति कहा जाता है।

ऐसा कैसे हुआ? क्रांति के समय रूस के सामाजिक और राजनीतिक हालात कैसे थे? इन सवालों का जवाब ढूँढ़ने के लिए, आइए, क्रांति से कुछ साल पहले की स्थितियों पर नजर डालें।

2.1 रूसी साम्राज्य, 1914

1914 में रूस और उसके पूरे साम्राज्य पर जार निकोलस II का शासन था। मास्को के आसपास पड़ने वाले भूक्षेत्र के अलावा आज का फ़िनलैंड, लातविया, लिथुआनिया, एस्तोनिया तथा पोलैंड, यूक्रेन व बेलारूस के कुछ हिस्से रूसी साम्राज्य के अंग थे। यह साम्राज्य प्रशांत महासागर तक फैला हुआ था और आज के मध्य एशियाई राज्यों के साथ-साथ जॉर्जिया, आर्मेनिया व अज़रबैजान भी इसी साम्राज्य के अंतर्गत आते थे। रूस में ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च से उपजी शाखा रूसी ऑर्थोडॉक्स क्रिश्चियैनिटी को मानने वाले बहुमत में थे। लेकिन इस साम्राज्य के तहत रहने वालों में कैथलिक, प्रोटेस्टेंट, मुस्लिम और बौद्ध भी शामिल थे।

चित्र 3 सेंट पीटर्सबर्ग स्थित विंटर पैलेस के व्हाइट हॉल में जार निकोलस II, 1900.
अर्नेस्ट लिपगार्ट (1847-1932) द्वारा चित्रित ।

2.2 अर्थव्यवस्था और समाज

बीसवीं सदी की शुरुआत में रूस की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा खेती-बाड़ी से जुड़ा हुआ था। रूसी साम्राज्य की लगभग 85 प्रतिशत जनता आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर थी। यूरोप के किसी भी देश में खेती पर आश्रित जनता का प्रतिशत इतना नहीं था। उदाहरण के तौर पर, फ्रांस और जर्मनी में खेती पर निर्भर आबादी 40-50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी। रूसी साम्राज्य के किसान अपनी जरूरतों के साथ-साथ बाजार के लिए भी पैदावार करते थे। रूस अनाज का एक बड़ा निर्यातक था।

चित्र 5 – युद्ध से पहले सेंट पीटर्सबर्ग में बेरोजगार किसान.
बहुत सारे लोग धर्मार्थ लंगरों में ‘खाना खाते थे और खस्ताहाल मकानों में रहते थे।

उद्योग बहुत कम थे। सेंट पीटर्सबर्ग और मास्को प्रमुख औद्योगिक इलाके थे। हालाँकि ज्यादातर उत्पादन कारीगर ही करते थे लेकिन कारीगरों की वर्कशॉपों के साथ-साथ बड़े-बड़े कल-कारखाने भी मौजूद थे। बहुत सारे कारखाने 1890 के दशक में चालू हुए थे जब रूस के रेल नेटवर्क को फैलाया जा रहा था। उसी समय रूसी उद्योगों में विदेशी निवेश भी तेजी से बढ़ा था। इन कारकों के चलते कुछ ही सालों में रूस के कोयला उत्पादन में दोगुना और स्टील उत्पादन में चार गुना वृद्धि हुई थी। सन् 1900 तक कुछ इलाकों में तो कारीगरों और कारखाना मजदूरों की संख्या लगभग बराबर हो चुकी थी।

ज्यादातर कारखाने उद्योगपतियों की निजी संपत्ति थे। मज्जदूतका न्यूनतम वेतन मिलता रहे और काम की पाली के घंटे निश्चित हो इस बात का ध्यान रखने के लिए सरकारी विभाग बड़ी फ़ैक्ट्रियों पर नजर रखते थे। लेकिन फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर भी नियमों के उल्लंघन को रोक पाने में नाकामयाब थे। कारीगरों की इकाइयों और वर्कशॉपों में काम की पाली प्रायः 15 घंटे तक खिंच जाती थी जबकि कारखानों में मजदूर आमतौर पर 10-12 घंटे की पालियों में काम करते थे। मज़दूरों के रहने के लिए भी कमरों से लेकर डॉर्मिटरी तक तरह-तरह की व्यवस्था मौजूद थी।

सामाजिक स्तर पर मजदूर बँटे हुए थे। कुछ मजदूर अपने मूल गाँवों के साथ अभी भी गहरे संबंध बनाए हुए थे। बहुत सारे मजदूर स्थायी रूप से शहरों में ही बस चुके थे। उनके बीच योग्यता और दक्षता के स्तर पर भी काफी फ़र्क था। सेंट पीटर्सबर्ग के एक धातु मज़दूर ने कहा था ‘धातुकर्मी मजदूरों में खुद को साहब मानते थे। उनके काम में ज्यादा प्रशिक्षण और निपुणता की जरूरत जो रहती थी…।’ 1914 में फ़ैक्ट्री मज़दूरों में औरतों की संख्या 31 प्रतिशत थी लेकिन उन्हें पुरुष मजदूरों के मुकाबले कम वेतन मिलता था (मर्दों की तनख्वाह के मुकाबले आधे से तीन-चौथाई तक)। मज़दूरों के बीच मौजूद फ़ासला उनके पहनावे और व्यवहार में भी साफ़ दिखाई देता था। यद्यपि कुछ मजदूरों ने बेरोजगारी या आर्थिक संकट के समय एक-दूसरे की मदद करने के लिए संगठन बना लिए थे लेकिन ऐसे संगठन बहुत कम थे।

इन विभेदों के बावजूद, जब किसी को नौकरी से निकाल दिया जाता था या उन्हें मालिकों से कोई शिकायत होती थी तो मज्जदूर एकजुट होकर हड़ताल भी कर देते थे। 1896-1897 के बीच कपड़ा उद्योग में और 1902 में धातु उद्योग में ऐसी हड़तालें काफ़ी बड़ी संख्या में आयोजित की गईं।

देहात की ज़्यादातर जमीन पर किसान खेती करते थे। लेकिन विशाल संपत्तियों पर सामंतों, राजशाही और ऑर्थोडॉक्स चर्च का कब्ज़ा था। मज्जदूरों की तरह किसान भी बँटे हुए थे। किसान बहुत धार्मिक स्वभाव के थे। इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो वे सामंतों और नवाबों का बिल्कुल सम्मान नहीं करते थे। नवाबों और सामंतों को जो सत्ता और हैसियत मिली हुई थी वह लोकप्रियता की वजह से नहीं बल्कि जार के प्रति उनकी निष्ठा और सेवाओं के बदले में मिली थी। यहाँ की स्थिति फ्रांस जैसी नहीं थी। मिसाल के तौर पर, फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान ब्रिटनी के किसान न केवल नवाबों का सम्मान करते थे बल्कि उन्होंने नवाबों को बचाने के लिए बाकायदा लड़ाइयाँ भी लड़ीं। इसके विपरीत, रूस के किसान चाहते थे कि नवाबों की जमीन छीनकर किसानों के बीच बाँट दी जाए। बहुधा वह लगान भी नहीं चुकाते थे। कई जगह तो जमींदारों की हत्या भी की जा चुकी थी। 1902 में दक्षिणी रूस में ऐसी घटनाएँ बड़े पैमाने पर घटीं। 1905 में तो पूरे रूस में ही ऐसी घटनाएँ घटने लगीं।

रूसी किसान यूरोप के बाकी किसानों के मुकाबले एक और लिहाज से भी भिन्न थे। यहाँ के किसान समय-समय पर सारी जमीन को अपने कम्यून (मीर) को सौंप देते थे और फिर कम्यून ही प्रत्येक परिवार की जरूरत के हिसाब से किसानों को जमीन बाँटता था।

स्त्रोत क

उस समय के समाजवादी कार्यकर्ता अलेक्जेंडर श्ल्याप्निकोव के वक्तव्य से पता चलता है कि बैठकें कैसे आयोजित की जाती थीं :

‘एक-एक कारखाने और दुकान में जा-जाकर प्रचार किया जाता था। अध्ययन चक्र भी चलाए जाते थे…। संबंधित (अधिकृत मुद्दों के) मामलों पर कानूनी बैठकें भी बुलाई जाती थीं, लेकिन इस गतिविधि को मजदूर वर्ग की मुक्ति के व्यापक संघर्ष में बड़ी निपुणता से पिरो दिया जाता था। गैरकानूनी बैठकें … जरूरत के वक्त फ़ौरन आयोजित कर ली जाती थीं लेकिन लंच के दौरान, शाम को, फाटक के बाहर, यार्ड में या कई मंजिला इमारतों की सीढ़ियों में व्यवस्थित ढंग से बैठकें आयोजित की जाती थीं। सबसे जागरूक मजदूर दरवाजे के पास “प्लग” का काम संभालते थे और मुहाने पर पूरी भीड़ इकट्ठा हो जाती थी। वहाँ सबके सामने एक आंदोलनकारी खड़ा होता था। मालिक टेलिफ़ोन पर पुलिस को इस बारे में जानकारी देते थे लेकिन जब तक पुलिस पहुँचती थी तब तक भाषण पूरे हो चुके होते थे और जरूरी फ़ैसले ले लिए जाते थे…।’

अलेक्जेंडर श्ल्याप्निकोव, ऑन दि ईव ऑफ 1917. रेमिनिसेंसेज फ्रॉम द रेवलूशनरी अंडरग्राउंड।

2.3 रूस में समाजवाद

1914 से पहले रूस में सभी राजनीतिक पार्टियाँ गैरकानूनी थीं। मार्क्स के विचारों को मानने वाले समाजवादियों ने 1898 में रशियन सोशल डेमोक्रैटिक वर्कर्स पार्टी (रूसी सामाजिक लोकतांत्रिक श्रमिक पार्टी) का गठन किया था। सरकारी आतंक के कारण इस पार्टी को गैरकानूनी संगठन के रूप में काम करना पड़ता था। इस पार्टी का एक अखबार निकलता था, उसने मजदूरों को संगठित किया था और हड़ताल आदि कार्यक्रम आयोजित किए थे।

कुछ रूसी समाजवादियों को लगता था कि रूसी किसान जिस तरह समय-समय पर जमीन बाँटते हैं उससे पता चलता है कि वह स्वाभाविक रूप से समाजवादी भावना वाले लोग हैं। इसी आधार पर उनका मानना था कि रूस में मजदूर नहीं बल्कि किसान ही क्रांति की मुख्य शक्ति बनेंगे। वे क्रांति का नेतृत्व करेंगे और रूस बाकी देशों के मुकाबले ज्यादा जल्दी समाजवादी देश बन जाएगा। उन्नीसवीं सदी के आखिर में रूस के ग्रामीण इलाकों में समाजवादी काफी सक्रिय थे। सन् 1900 में उन्होंने सोशलिस्ट रेवलूशनरी पार्टी (समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी) का गठन कर लिया। इस पार्टी ने किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और माँग की कि सामंतों के कब्जे वाली जमीन फौरन किसानों को सौंपी जाए। किसानों के सवाल पर सामाजिक लोकतंत्रवादी (Social Democrats) खेमा समाजवादी क्रांतिकारियों से सहमत नहीं था। लेनिन का मानना था कि किसानों में एकजुटता नहीं है; वे बँटे हुए हैं। कुछ किसान गरीब थे तो कुछ अमीर, कुछ मजदूरी करते थे तो कुछ पूँजीपति थे जो नौकरों से खेती करवाते थे। इन आपसी ‘विभेदों’ के चलते वे सभी समाजवादी आंदोलन का हिस्सा नहीं हो सकते थे।

सांगठनिक रणनीति के सवाल पर पार्टी में गहरे मतभेद थे। व्लादिमीर लेनिन (बोल्शेविक खेमे के मुखिया) सोचते थे कि जार (राजा) शासित रूस जैसे दमनकारी समाज में पार्टी अत्यंत अनुशासित होनी चाहिए और अपने सदस्यों की संख्या व स्तर पर उसका पूरा नियंत्रण होना चाहिए। दूसरा खेमा (मेन्शेविक) मानता था कि पार्टी में सभी को सदस्यता दी जानी चाहिए।

2.4 उथल-पुथल का समय 1905 की क्रांति

रूस एक निरंकुश राजशाही था। अन्य यूरोपीय शासकों के विपरीत बीसवीं सदी की शुरुआत में भी जार राष्ट्रीय संसद के अधीन नहीं था। उदारवादियों ने इस स्थिति को खत्म करने के लिए बड़े पैमाने पर मुहिम चलाई। 1905 की क्रांति के दौरान उन्होंने संविधान की रचना के लिए सोशल डेमोक्रेट और समाजवादी क्रांतिकारियों को साथ लेकर किसानों और मजदूरों के बीच काफी काम किया। रूसी साम्राज्य के तहत उन्हें राष्ट्रवादियों (जैसे पोलैंड में) और इस्लाम के आधुनिकीकरण के समर्थक जदीदियों (मुस्लिम बहुल इलाकों में) का भी समर्थन मिला।

रूसी मजदूरों के लिए 1904 का साल बहुत बुरा रहा। जरूरी चीजों की कीमतें इतनी तेजी से बढ़ीं कि वास्तविक वेतन में 20 प्रतिशत तक की गिरावट आ गई। उसी समय मजदूर संगठनों की सदस्यता में भी तेजी से वृद्धि हुई। जब 1904 में ही गठित की गई असेंबली ऑफ़ रशियन वर्कर्स (रूसी श्रमिक सभा) के चार सदस्यों को प्युतिलोव आयरन वर्क्स में उनकी नौकरी से हटा दिया गया तो मज़दूरों ने आंदोलन छेड़ने का एलान कर दिया। अगले कुछ दिनों के भीतर सेंट पीटर्सबर्ग के 110,000 से ज्यादा मजदूर काम के घंटे घटाकर आठ घंटे किए जाने, वेतन में वृद्धि और कार्यस्थितियों में सुधार की माँग करते हुए हड़ताल पर चले गए।

इसी दौरान जब पादरी गैपॉन के नेतृत्व में मजदूरों का एक जुलूस विंटर पैलेस (जार का महल) के सामने पहुँचा तो पुलिस और कोसैक्स ने मजदूरों पर हमला बोल दिया। इस घटना में 100 से ज्यादा मजदूर मारे गए और लगभग 300 घायल हुए। इतिहास में इस घटना को खूनी रविवार के नाम से याद किया जाता है। 1905 की क्रांति की शुरुआत इसी घटना से हुई थी। सारे देश में हड़तालें होने लगीं। जब नागरिक स्वतंत्रता के अभाव का विरोध करते हुए विद्यार्थी अपनी कक्षाओं का बहिष्कार करने लगे तो विश्वविद्यालय भी बंद कर दिए गए। वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और अन्य मध्यवर्गीय कामगारों ने संविधान सभा के गठन की माँग करते हुए यूनियन ऑफ़ यूनियंस की स्थापना कर दी।

1905 की क्रांति के दौरान जार ने एक निर्वाचित परामर्शदाता संसद या ड्यूमा के गठन पर अपनी सहमति दे दी। क्रांति के समय कुछ दिन तक फ़ैक्ट्री मजदूरों की बहुत सारी ट्रेड यूनियनें और फ़ैक्ट्री कमेटियाँ भी अस्तित्व में रहीं। 1905 के बाद ऐसी ज्यादातर कमेटियाँ और यूनियनें अनधिकृत रूप से काम करने लगीं क्योंकि उन्हें गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था। राजनीतिक गतिविधियों पर भारी पाबंदियाँ लगा दी गईं। जार ने पहली ड्यूमा को मात्र 75 दिन के भीतर और पुनर्निर्वाचित दूसरी ड्यूमा को 3 महीने के भीतर बर्खास्त कर दिया। वह किसी तरह की जवाबदेही या अपनी सत्ता पर किसी तरह का अंकुश नहीं चाहता था। उसने मतदान कानूनों में फेरबदल करके तीसरी ड्यूमा में रुढ़िवादी राजनेताओं को भर डाला। उदारवादियों और क्रांतिकारियों को बाहर रखा गया।

2.5 पहला विश्वयुद्ध और रूसी साम्राज्य

1914 में दो यूरोपीय गठबंधनों के बीच युद्ध छिड़ गया। एक खेमे में जर्मनी, ऑस्ट्रिया और तुर्की (केंद्रीय शक्तियाँ) थे तो दूसरे खेमे में फ्रांस, ब्रिटेन व रूस (बाद में इटली और रूमानिया भी इस खेमे में शमिल हो गए थे। इन सभी देशों के पास विशाल वैश्विक साम्राज्य थे इसलिए यूरोप के साथ-साथ यह युद्ध यूरोप के बाहर भी फैल गया था। इसी युद्ध को पहला विश्वयुद्ध कहा जाता है।

इस युद्ध को शुरू-शुरू में रूसियों का काफ़ी समर्थन मिला। जनता ने जार का साथ दिया। लेकिन जैसे-जैसे युद्ध लंबा खिंचता गया, ज़ार ने ड्यूमा में मौजूद मुख्य पार्टियों से सलाह लेना छोड़ दिया। उसके प्रति जनसमर्थन कम होने लगा। जर्मनी-विरोधी भावनाएँ दिनोंदिन बलवती होने लगीं। जर्मनी विरोधी भावनाओं के कारण ही लोगों ने सेंट पीटर्सबर्ग का नाम बदल कर पेत्रोग्राद रख दिया क्योंकि सेंट पीटर्सबर्ग जर्मन नाम था। जारीना (जार की पत्नी महारानी) अलेक्सांद्रा के जर्मन मूल का होने और उसके घटिया सलाहकारों, खास तौर से रासपुतिन नामक एक संन्यासी ने राजशाही को और अलोकप्रिय बना दिया।

प्रथम विश्वयुद्ध के ‘पूर्वी मोर्चे’ पर चल रही लड़ाई ‘पश्चिमी मोर्चे’ की लड़ाई से भिन्न थी। पश्चिम में सैनिक पूर्वी फ्रांस की सीमा पर बनी खाइयों से लड़ाई लड़ रहे थे जबकि पूर्वी मोर्चे पर सेना ने काफ़ी बड़ा फ़ासला तय कर लिया था। इस मोर्चे पर बहुत सारे सैनिक मौत के मुँह में जा चुके थे। सेना की पराजय ने रूसियों का मनोबल तोड़ दिया। 1914 से 1916 के बीच जर्मनी और ऑस्ट्रिया में रूसी सेनाओं को भारी पराजय झेलनी पड़ी। 1917 तक 70 लाख लोग मारे जा चुके थे। पीछे हटती रूसी सेनाओं ने रास्ते में पड़ने वाली फ़सलों और इमारतों को भी नष्ट कर डाला ताकि दुश्मन की सेना वहाँ टिक ही न सके। फ़सलों और इमारतों के विनाश से रूस में 30 लाख से ज्यादा लोग शरणार्थी हो गए। इन हालात ने सरकार और जार, दोनों को अलोकप्रिय बना दिया। सिपाही भी युद्ध से तंग आ चुके थे। अब वे लड़ना नहीं चाहते थे।

चित्र 7 – पहले विश्वयुद्ध के दौरान रूसी सिपाही.

शाही रूसी सेना को ‘रूसी स्टीमरोलर’ कहा जाता था। यह दुनिया की सबसे बड़ी सशस्त्र सेना थी। जब इस सेना ने अपनी निष्ठा बदल कर क्रांतिकारियों को समर्थन देना शुरू कर दिया तो जार की सत्ता भी ढह गई।

युद्ध से उद्योगों पर भी बुरा असर पड़ा। रूस के अपने उद्योग तो वैसे भी बहुत कम थे, अब तो बाहर से मिलने वाली आपूर्ति भी बंद हो गई क्योंकि बाल्टिक समुद्र में जिस रास्ते से विदेशी औद्योगिक सामान आते थे उस पर जर्मनी का कब्जा हो चुका था। यूरोप के बाकी देशों के मुकाबले रूस के औद्योगिक उपकरण ज्यादा तेजी से बेकार होने लगे। 1916 तक रेलवे लाइनें टूटने लगीं। अच्छी सेहत वाले मर्दों को युद्ध में झोंक दिया गया। देश भर में मजदूरों की कमी पड़ने लगी और जरूरी सामान बनाने वाली छोटी-छोटी वर्कशॉप्स ठप्प होने लगीं। ज्यादातर अनाज सैनिकों का पेट भरने के लिए मोर्चे पर भेजा जाने लगा। शहरों में रहने वालों के लिए रोटी और आटे की किल्लत पैदा हो गई। 1916 की सर्दियों में रोटी की दुकानों पर अकसर दंगे होने लगे।

3. पेत्रोग्राद में फरवरी क्रांति

सन् 1917 की सर्दियों में राजधानी पेत्रोग्राद की हालत बहुत खराब थी। ऐसा लगता था मानो जनता में मौजूद भिन्नताओं को ध्यान में रखकर ही शहर की बनावट तय की गई थी। मज़दूरों के क्वार्टर और कारखाने नेवा नदी के दाएँ तट पर थे। बाएँ किनारे पर फैशनेबल इलाके, विंटर पैलेस और सरकारी इमारतें थीं। जिस महल में ड्यूमा की बैठक होती थी वह भी इसी तरफ़ था। फरवरी में मजदूरों के इलाके में खाद्य पदार्थों की भारी कमी पैदा हो गई। उस साल ठंड भी कुछ ज्यादा पड़ी थी। भीषण कोहरा और बर्फबारी हुई थी। संसदीय प्रतिनिधि चाहते थे कि निर्वाचित सरकार बची रहे इसलिए वह ज़ार द्वारा ड्यूमा को भंग करने के लिए की जा रही कोशिशों का विरोध कर रहे थे।

22 फरवरी को दाएँ तट पर स्थित एक फ़ैक्ट्री में तालाबंदी घोषित कर दी गई। अगले दिन इस फ़ैक्ट्री के मज़दूरों के समर्थन में पचास फ़ैक्ट्रियों के मज़दूरों ने भी हड़ताल का एलान कर दिया। बहुत सारे कारखानों में हड़ताल का नेतृत्व औरतें कर रही थीं। इसी दिन को बाद में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का नाम दिया गया। आंदोलनकारी जनता बस्ती पार करके राजधानी के बीचोंबीच नेव्स्की प्रोस्पेक्ट तक आ गई। इस समय तक कोई राजनीतिक पार्टी आंदोलन को सक्रिय रूप से संगठित और संचालित नहीं कर रही थी। जब फ़ैशनेबल रिहायशी इलाकों और सरकारी इमारतों को मज़दूरों ने घेर लिया तो सरकार ने कर्फ्यू लगा दिया। शाम तक प्रदर्शनकारी तितर-बितर हो गए लेकिन 24 और 25 तारीख को वह फिर इकट्ठा होने लगे। सरकार ने उन पर नज़र रखने के लिए घुड़सवार सैनिकों और पुलिस को तैनात कर दिया।

रविवार, 25 फरवरी को सरकार ने ड्यूमा को बर्खास्त कर दिया। सरकार के इस फ़ैसले के खिलाफ़ राजनीतिज्ञ बयान देने लगे। 26 तारीख को प्रदर्शनकारी बहुत बड़ी संख्या में बाएँ तट के इलाके में इकट्ठा हो गए। 27 को उन्होंने पुलिस मुख्यालयों पर हमला करके उन्हें तहस-नहस कर दिया। रोटी, तनख्वाह, काम के घंटों में कमी और लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में नारे लगाते असंख्य लोग सड़कों पर जमा हो गए। सरकार ने स्थिति पर नियंत्रण कायम करने के लिए एक बार फिर घुड़सवार सैनिकों को तैनात कर दिया। लेकिन घुड़सवार सैनिकों की टुकड़ियों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। गुस्साए सिपाहियों ने एक रेजीमेंट की बैरक में अपने ही एक अफ़सर पर गोली चला दी। तीन दूसरी रेजीमेंटों ने भी बगावत कर दी और हड़ताली मजदूरों के साथ आ मिले। उस शाम को सिपाही और मजदूर एक सोवियत या ‘परिषद्’ का गठन करने के लिए उसी इमारत में जमा हुए जहाँ अब तक ड्यूमा की बैठक हुआ करती थी। यहीं से पेत्रोग्राद सोवियत का जन्म हुआ।

अगले दिन एक प्रतिनिधिमंडल ज़ार से मिलने गया। सैनिक कमांडरों ने उसे सलाह दी कि वह राजगद्दी छोड़ दे। उसने कमांडरों की बात मान ली और 2 मार्च को गद्दी छोड़ दी। सोवियत और ड्यूमा के नेताओं ने देश का शासन चलाने के लिए एक अंतरिम सरकार बना ली। तय किया गया कि रूस के भविष्य के बारे में फ़ैसला लेने की ज़िम्मेदारी संविधान सभा को सौंप दी जाए और उसका चुनाव सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाए। फरवरी 1917 में राजशाही को गद्दी से हटाने वाली क्रांति का झंडा पेत्रोग्राद की जनता के हाथों में था।

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फरवरी क्रांति में महिलाएँ

‘महिला कामगार, अकसर … अपने पुरुष सहकर्मियों को प्रेरित करती रहती थीं। लरिंज टेलीफोन फैक्ट्री में वासीलेवा ने लगभग अकेले ही एक सफल हड़ताल को अंजाम दिया था। उसी दिन सुबह को महिला दिवस समारोह के मौके पर महिला कामगारों ने पुरुष कामगारों को लाल पट्टियाँ बाँधी थीं।… इसके बाद, मिलिंग मशीन ऑपरेटर का काम करने वाली मार्का वासीलेवा ने काम रोक दिया और आनन-फानन हड़ताल का आ‌ह्वान कर डाला। काम पर मौजूद मजदूर उसके समर्थन को पहले ही तैयार थे।… फोरमैन ने इस बारे में प्रबंधकों को सूचित कर दिया और उसके लिए पावरोटी भिजवायी। उसने पावरोटी तो ले ली लेकिन काम पर लौटने से इनकार कर दिया। जब प्रशासक ने उससे पूछा कि वह काम क्यों नहीं करना चाहती तो उसने पलट कर जवाब दिया कि “जब बाकी सारे भूखे हों तो मैं अकेले पेट भरने की नहीं सोच सकती।” मार्का के समर्थन में फैक्ट्री के दूसरे विभाग में काम करने वाली महिलाएँ भी इक‌ट्ठी हो गई और धीरे-धीरे बाकी सारी औरतों ने भी काम रोक दिया। जल्दी ही पुरुषों ने भी औजार जमीन पर डाल दिए और पूरा हुजूम सड़क पर निकल आया।’

3.1 फरवरी के बाद

अंतरिम सरकार में सैनिक अधिकारी, भूस्वामी और उद्योगपति प्रभावशाली थे। उनमें उदारवादी और समाजवादी जल्दी से जल्दी निर्वाचित सरकार का गठन चाहते थे। जन सभा करने और संगठन बनाने पर लगी पाबंदी हटा ली गई। हालाँकि निर्वाचन का तरीका सब जगह एक जैसा नहीं था लेकिन पेत्रोग्राद सोवियत की तर्ज पर सब जगह ‘सोवियतें’ बना ली गईं।

अप्रैल 1917 में बोल्शेविकों के निर्वासित नेता व्लादिमीर लेनिन रूस लौट आए। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक 1914 से ही युद्ध का विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि अब सोवियतों को सत्ता अपने हाथों में ले लेनी चाहिए। लेनिन ने बयान दिया कि युद्ध समाप्त किया जाए, सारी जमीन किसानों के हवाले की जाए और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाए। इन तीन माँगों को लेनिन की ‘अप्रैल थीसिस’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने ये भी सुझाव दिया कि अब अपने रैडिकल उद्देश्यों को स्पष्ट करने के लिए बोल्शेविक पार्टी का नाम कम्युनिस्ट पार्टी रख दिया जाए। बोल्शेविक पार्टी के ज्यादातर लोगों को अप्रैल थीसिस के बारे में सुनकर काफ़ी हैरानी हुई। उन्हें लगता था कि अभी समाजवादी क्रांति के लिए सही वक्त नहीं आया है इसलिए फ़िलहाल अंतरिम सरकार को ही समर्थन दिया जाना चाहिए। लेकिन अगले कुछ महीनों की घटनाओं ने उनकी सोच बदल दी।

चित्र 9-  अप्रैल 1917  में मजदूरों की एक बोल्शेविक छवि

गर्मियों में मजदूर आंदोलन और फैल गया। औद्योगिक इलाकों में फ़ैक्ट्री कमेटियाँ बनाई गईं। इन कमेटियों के माध्यम से मज़दूर फ़ैक्ट्री चलाने के मालिकों के तौर-तरीकों पर सवाल खड़ा करने लगे। ट्रेड यूनियनों की तादाद बढ़ने लगी। सेना में सिपाहियों की समितियाँ बनने लगीं। जून में लगभग 500 सोवियतों ने अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस में अपने प्रतिनिधि भेजे। जैसे-जैसे अंतरिम सरकार की ताकत कमज़ोर होने लगी और बोल्शेविकों का प्रभाव बढ़ने लगा, सरकार असंतोष को दबाने के लिए सख्त कदम उठाने लगी। सरकार ने फ़ैक्ट्रियाँ चलाने की मज़दूरों द्वारा की जा रही कोशिशों को रोकना और मज़दूरों के नेताओं को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया। जुलाई 1917 में बोल्शेविकों द्वारा आयोजित किए गए विशाल प्रदर्शनों का भारी दमन किया गया। बहुत सारे बोल्शेविक नेताओं को छिपना या भागना पड़ा।

गांवों में किसान और उनके समाजवादी क्रांतिकारी नेता भूमि पुनर्वितरण के लिए दबाव डालने लगे थे। इस काम के लिए भूमि समितियाँ बना दी गई थीं। सामाजिक क्रांतिकारियों से प्रेरणा और प्रोत्साहन लेते हुए जुलाई से सितंबर के बीच किसानों ने बहुत सारी जमीन पर कब्जा कर लिया।

3.2 अक्तूबर 1917 की क्रांति

जैसे-जैसे अंतरिम सरकार और बोल्शेविकों के बीच टकराव बढ़ता गया, लेनिन को अंतरिम सरकार द्वारा तानाशाही थोप देने की आशंका दिखाई देने लगी। सितंबर में उन्होंने सरकार के खिलाफ विद्रोह के बारे में चर्चा शुरू कर दी। सेना और फ़ैक्ट्री सोवियतों में मौजूद बोल्शेविकों को इकट्ठा किया गया।

16 अक्तूबर 1917 को लेनिन ने पेत्रोग्राद सोवियत और बोल्शेविक पार्टी को सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए राजी कर लिया। सत्ता पर कब्जे के लिए लियॉन ट्रॉट्स्की के नेतृत्व में सोवियत की ओर से एक सैनिक क्रांतिकारी समिति का गठन किया गया। इस बात का खुलासा नहीं किया गया कि योजना को किस दिन लागू किया जाएगा।

24 अक्तूबर को विद्रोह शुरू हो गया। संकट की आशंका को देखते हुए प्रधानमंत्री केरेंस्की सैनिक टुकड़ियों को इकट्ठा करने शहर से बाहर चले गए। तड़के ही सरकार के वफ़ादार सैनिकों ने दो बोल्शेविक अखबारों के दफ्तरों पर घेरा डाल दिया। टेलीफ़ोन और टेलीग्राफ़ दफ़्तरों पर नियंत्रण प्राप्त करने और विंटर पैलेस की रक्षा करने के लिए सरकार समर्थक सैनिकों को रवाना कर दिया गया। पलक झपकते क्रांतिकारी समिति ने भी अपने समर्थकों को आदेश दे दिया कि सरकारी कार्यालयों पर कब्ज़ा कर लें और मंत्रियों को गिरफ़्तार कर लें। उसी दिन ऑरोरा नामक युद्धपोत ने विंटर पैलेस पर बमबारी शुरू कर दी। अन्य युद्धपोतों ने नेवा के रास्ते से आगे बढ़ते हुए विभिन्न सैनिक ठिकानों को अपने नियंत्रण में ले लिया। शाम ढलते-ढलते पूरा शहर क्रांतिकारी समिति के नियंत्रण में आ चुका था और मंत्रियों ने आत्मसमर्पण कर दिया था। पेत्रोग्राद में अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस की बैठक हुई जिसमें बहुमत ने बोल्शेविकों की कार्रवाई का समर्थन किया। अन्य शहरों में भी बगावतें होने लगीं। दोनों तरफ से जमकर गोलीबारी हुई, खास तौर से मास्को में, लेकिन दिसंबर तक मास्को-पेत्रोग्राद इलाके पर बोल्शेविकों का नियंत्रण स्थापित हो चुका था।

4. अक्तूबर के बाद क्या बदला?

बोल्शेविक निजी संपत्ति की व्यवस्था के पूरी तरह खिलाफ थे। ज्यादातर उद्योगों और बैंकों का नवंबर 1917 में ही राष्ट्रीयकरण किया जा चुका था। उनका स्वामित्व और प्रबंधन सरकार के नियंत्रण में आ चुका था। जमीन को सामाजिक संपत्ति घोषित कर दिया गया। किसानों को सामंतों की जमीनों पर कब्जा करने की खुली छूट दे दी गई। शहरों में बोल्शेविकों ने मकान मालिकों के लिए पर्याप्त हिस्सा छोड़कर उनके बड़े मकानों के छोटे-छोटे हिस्से कर दिए ताकि बेघरबार या ज़रूरतमंद लोगों को भी रहने की जगह दी जा सके। उन्होंने अभिजात्य वर्ग द्वारा पुरानी पदवियों के इस्तेमाल पर रोक लगा दी। परिवर्तन को स्पष्ट रूप से सामने लाने के लिए सेना और सरकारी अफ़सरों की वर्दियाँ बदल दी गईं। इसके लिए 1918 में एक परिधान प्रतियोगिता आयोजित की गई जिसमें सोवियत टोपी (बुदियोनोव्का) का चुनाव किया गया।

बोल्शेविक पार्टी का नाम बदल कर रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) रख दिया गया। नवंबर 1917 में बोल्शेविकों ने संविधान सभा के लिए चुनाव कराए लेकिन इन चुनावों में उन्हें बहुमत नहीं मिल पाया। जनवरी 1918 में असेंबली ने बोल्शेविकों के प्रस्तावों को खारिज कर दिया और लेनिन ने असेंबली बर्खास्त कर दी। उनका मत था कि अनिश्चित परिस्थितियों में चुनी गई असेंबली के मुकाबले अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक संस्था है। मार्च 1918 में अन्य राजनीतिक सहयोगियों की असहमति के बावजूद बोल्शेविकों ने ब्रेस्ट लिटोस्क में जर्मनी से संधि कर ली। आने वाले सालों में बोल्शेविक पार्टी अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस के लिए होने वाले चुनावों में हिस्सा लेने वाली एकमात्र पार्टी रह गई। अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस को अब देश की संसद का दर्जा दे दिया गया था। रूस एक दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाला देश बन गया। ट्रेड यूनियनों पर पार्टी का नियंत्रण रहता था। गुप्तचर पुलिस (जिसे पहले चेका और बाद में ओजीपीयू तथा एनकेवीडी का नाम दिया गया) बोल्शेविकों की आलोचना करने वालों को दंडित करती थी। बहुत सारे युवा लेखक और कलाकार भी पार्टी की तरफ़ आकर्षित हुए क्योंकि वह समाजवाद और परिवर्तन के प्रति समर्पित थी। अक्तूबर 1917 के बाद ऐसे कलाकारों और लेखकों ने कला और वास्तुशिल्प के क्षेत्र में नए प्रयोग शुरू किए। लेकिन पार्टी द्वारा थोपी गई सेंसरशिप के कारण बहुत सारे लोगों का पार्टी से मोह भंग भी होने लगा था।

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अक्तूबर क्रांति और रूसी ग्रामीण इलाके दो दृष्टिकोण

25 अक्तूबर 1905 को हुई क्रांतिकारी उथल-पुथल की खबर अगले ही दिन गाँव में पहुँच गई। लोगों ने खूब खुशियाँ मनायीं। किसानों के लिए इसका मतलब था मुफ्त जमीन और युद्ध का खात्मा।… जिस दिन खबर मिली उसी दिन जमींदार की हवेली लूट ली गई, उसके खेत कब्जे में ले लिए गए और उसके विशालकाय बाग के पेड़ काट कर सारी लकड़ी किसानों के बीच बाँट दी गई। उसकी सारी इमारतें तोड़ दी गई और उसकी जमीन किसानों के बीच बाँट दी गई जो एक नई सोवियत जिंदगी जीने को तैयार थे।’

फ़ेदोर बेलोव, द हिस्ट्री ऑफ ए सोवियत कलेक्टिव फ़ार्म।

एक जमींदार परिवार के सदस्य ने अपने रिश्तेदार को भेजे खत में लिखा कि उसके परिवार की जागीर के साथ क्या हुआ: ‘तख्तापलट, बिना किसी परेशानी के, खामोशी से और शांतिपूर्वक पूरा हो गया….। शुरुआती दिन बर्दाश्त के बाहर थे.. मिखाइल मिखाइलोविच (जागीर का मालिक) शांत था…। लड़कियाँ भी…। इसमें कोई शक नहीं कि चेयरमैन का व्यवहार सही है, बल्कि वह बड़ी विनम्रता से बात करता है। हमारे पास दो गाय और दो घोड़े छोड़ दिए गए। नौकर बार-बार उन्हें यही कहते हैं कि हमारी फ़िक्र न करें। “उन्हें जीने दो। उनकी सुरक्षा और संपत्ति का जिम्मा हमारे ऊपर है। हम उनसे मानवता भरा व्यवहार ही करेंगे…।”

…अफवाह है कि कई गाँवों में लोग कमेटियों को बाहर निकाल कर पूरी जागीर दोबारा मिखाइल मिखाइलोविच को सौपना चाहते हैं। पता नहीं ऐसा होगा या नहीं, या यह हमारे लिए अच्छा भी रहेगा या नहीं। पर हमें इस बात का संतोष है कि हमारे लोगों में चेतना है…।’

4.1 गृह युद्ध

जब बोल्शेविकों ने जमीन के पुनर्वितरण का आदेश दिया तो रूसी सेना टूटने लगी। ज्यादातर सिपाही किसान थे। वे भूमि पुनर्वितरण के लिए घर लौटना चाहते थे इसलिए सेना छोड़कर जाने लगे। गैर-बोल्शेविक समाजवादियों, उदारवादियों और राजशाही के समर्थकों ने बोल्शेविक विद्रोह की निंदा की। उनके नेता दक्षिणी रूस में इकट्ठा होकर बोल्शेविकों (‘रेड्स’) से लड़ने के लिए टुकड़ियाँ संगठित करने लगे। 1918 और 1919 में रूसी साम्राज्य के ज्यादातर हिस्सों पर सामाजिक क्रांतिकारियों (‘ग्रीन्स’) और जार-समर्थकों (‘व्हाइट्स’) का ही नियंत्रण रहा। उन्हें फ्रांसीसी, अमेरिकी, ब्रिटिश और जापानी टुकड़ियों का भी समर्थन मिल रहा था। ये सभी शक्तियाँ रूस में समाजवाद को फलते-फूलते नहीं देखना चाहती थीं। इन टुकड़ियों और बोल्शेविकों के बीच चले गृह युद्ध के दौरान लूटमार, डकैती और भुखमरी जैसी समस्याएँ बड़े पैमाने पर फैल गई।

‘व्हाइट्स’ में जो निजी संपत्ति के हिमायती थे उन्होंने जमीन पर कब्जा करने वाले किसानों के खिलाफ़ काफ़ी सख्त रवैया अपनाया। उनकी इन हरकतों के कारण तो गैर-बोल्शेविकों के प्रति जनसमर्थन और भी तेजी से घटने लगा। जनवरी 1920 तक भूतपूर्व रूसी साम्राज्य के ज्यादातर हिस्सों पर बोल्शेविकों का नियंत्रण कायम हो चुका था। उन्हें गैर-रूसी राष्ट्रवादियों और मुस्लिम जदीदियों की मदद से यह कामयाबी मिली थी। जहाँ रूसी उपनिवेशवादी ही बोल्शेविक विचारधारा के अनुयायी बन गए थे, वहाँ यह मदद काम नहीं आ सकी। मध्य एशिया स्थित खीवा में बोल्शेविक उपनिवेशकों ने समाजवाद की रक्षा के नाम पर स्थानीय राष्ट्रवादियों का बड़े पैमाने पर कत्लेआम किया। ऐसे हालात में बहुत सारे लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा था कि बोल्शेविक सरकार क्या चाहती है।

आंशिक रूप से इसी समस्या से निपटने के लिए ज्यादातर गैर-रूसी राष्ट्रीयताओं को सोवियत संघ (यूएसएसआर) दिसंबर 1922 में रूसी साम्राज्य में से बोल्शेविकों द्वारा स्थापित किया गया राज्य के अंतर्गत राजनीतिक स्वायत्तता दे दी गई। लेकिन, क्योंकि बोल्शेविकों ने स्थानीय सरकारों पर कई अलोकप्रिय और सख्त नीतियाँ जैसे, घुमंतूवाद की रोकथाम की कड़ी कोशिशें थोप दी थीं इसलिए विभिन्न राष्ट्रीयताओं का विश्वास जीतने के प्रयास आंशिक रूप से ही सफल हो पाए।

स्त्रोत ख

अक्तूबर क्रांति के समय मध्य एशिया : दो दृष्टिकोण

एम. एन. रॉय भारतीय क्रांतिकारी, मैक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक और भारत, चीन व यूरोप में कॉमिन्टर्न के एक प्रमुख नेता थे। 1920 के दशक में जब रूस में गृह युद्ध चल रहा था उस समय वे मध्य एशिया में थे। उन्होंने लिखा :

‘मुखिया एक भला-सा बुजुर्ग था…। उसका सहायक . एक नौजवान … जो रूसी भाषा बोलता था। … उसे क्रांति के बारे में पता था जिसमें ज़ार को राजगद्दी से हटा दिया गया था और उन जनरलों को भी खदेड़ दिया था जिन्होंने किर्गिजों की मातृभूमि पर कब्जा किया था। इस प्रकार क्रांति का मतलब था कि अब किर्गीज (किर्गिस्तान) लोग एक बार फिर अपनी मातृभूमि के स्वामी बन गए थे। जन्मजात बोल्शेविक से लगने वाले युवक ने हुंकार लगाई “इंकलाब जिंदाबाद”। पूरा कबीला उसके साथ नारे लगाने लगा।’

एम. एन. रॉय, मेमॉयर्स (1964)।

‘किर्गीज लोग पहली क्रांति (यानी फरवरी क्रांति) पर खुशी से झूम उठे और दूसरी क्रांति की खबर से वे अचंभे और दहशत में डूब गए। … पहली क्रांति ने उन्हें जार के दमनकारी शासन से आजाद कराया था और ये उम्मीद जगायी थी कि … उन्हें स्वायत्तता मिल जाएगी। दूसरी क्रांति (अक्तूबर क्रांति) हिंसा, लूटपाट, करों के बोझ और तानाशाही सत्ता की स्थापना के साथ आयी। … पहले एक बार जार के नौकरशाहों के छोटे से गुट ने किर्गिज़ों का दमन किया था। अब वही लोग उसी व्यवस्था को आगे बढ़ा रहे हैं…।’

एक कज़ाक नेता (1919), अलेक्जेंडर बेनिगसन एवं चांताल केलकेजे, ले मॉवर्मेत्स नेशनों शेज ले मुसुलमान्स दे रूसी, (1960) में उद्धृत।

4.2 समाजवादी समाज का निर्माण

गृह युद्ध के दौरान बोल्शेविकों ने उद्योगों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण को जारी रखा। उन्होंने किसानों को उस जमीन पर खेती की छूट दे दी जिसका समाजीकरण किया जा चुका था। जब्त किए गए खेतों का इस्तेमाल बोल्शेविक यह दिखाने के लिए करते थे कि सामूहिकता क्या होती है।

शासन के लिए केंद्रीकृत नियोजन की व्यवस्था लागू की गई। अफ़सर इस बात का हिसाब लगाते थे कि अर्थव्यवस्था किस तरह काम कर सकती है। इस आधार पर वे पाँच साल के लिए लक्ष्य तय कर देते थे। इसी आधार पर उन्होंने पंचवर्षीय योजनाएँ बनानी शुरू कीं। पहली दो ‘योजनाओं’ (1927-1932 और 1933-1938) के दौरान औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सभी तरह की कीमतें स्थिर कर दी। केंद्रीकृत नियोजन से आर्थिक विकास को काफी गति मिली। औद्योगिक उत्पादन बढ़ने लगा (1929 से 1933 के बीच तेल, कोयले और स्टील के उत्पादन में 100 प्रतिशत वृद्धि हुई)। नए-नए औद्योगिक शहर अस्तित्व में आए।

मगर, तेज निर्माण कार्यों के दबाव में कार्यस्थितियाँ खराब होने लगीं। मैग्नीटोगोस्र्क शहर में एक स्टील संयंत्र का निर्माण कार्य तीन साल के भीतर पूरा कर लिया गया। इस दौरान मजदूरों को बड़ी सख्त जिंदगी गुजारनी पड़ी जिसका नतीजा ये हुआ कि पहले ही साल में 550 बार काम रुका। रिहायशी क्वार्टरों में ‘जाड़ों में शौचालय जाने के लिए 40 डिग्री कम तापमान पर लोग चौथी मंजिल से उतर कर सड़क के पार दौड़कर जाते थे।’

एक विस्तारित शिक्षा व्यवस्था विकसित की गई और फ़ैक्ट्री कामगारों एवं किसानों को विश्वविद्यालयों में दाखिला दिलाने के लिए खास इंतजाम किए गए। महिला कामगारों के बच्चों के लिए फैक्ट्रियों में बालवाड़ियाँ खोल दी गईं। सस्ती स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करायी गई। मजदूरों के लिए आदर्श रिहायशी मकान बनाए गए। लेकिन इन सारी कोशिशों के नतीजे सभी जगह एक जैसे नहीं रहे क्योंकि सरकारी संसाधन सीमित थे।

4.3 स्तालिनवाद और सामूहिकीकरण

नियोजित अर्थव्यवस्था का शुरुआती दौर खेती के सामूहिकीकरण से पैदा हुई तबाही से जुड़ा हुआ था। 1927-1928 के आसपास रूस के शहरों में अनाज का भारी संकट पैदा हो गया था। सरकार ने अनाज की कीमत तय कर दी थी। उससे ज्यादा कीमत पर कोई अनाज नहीं बेच सकता था। लेकिन किसान उस कीमत पर सरकार को अनाज बेचने के लिए तैयार नहीं थे।

लेनिन के बाद पार्टी की कमान संभाल रहे स्तालिन ने स्थिति से निपटने के लिए कड़े कदम उठाए। उन्हें लगता था कि अमीर किसान और ब्यापारी कीमत बढ़ने की उम्मीद में अनाज नहीं बेच रहे हैं। स्थिति पर काबू पाने के लिए सट्टेबाज़ी पर अंकुश लगाना और व्यापारियों के पास जमा अनाज को जब्त करना जरूरी था। 1928 में पार्टी के सदस्यों ने अनाज उत्पादक इलाकों का दौरा किया। उन्होंने किसानों से जबरन अनाज खरीदा और ‘कुलकों’ के ठिकानों पर छापे मारे। रूस में संपन्न किसानों को कुलक कहा जाता था। जब इसके बाद भी अनाज की कमी बनी रही तो खेतों के सामूहिकीकरण का फ़ैसला लिया गया। इस फैसले के पक्ष में एक तर्क यह दिया गया कि अनाज की कमी इसलिए है क्योंकि खेत बहुत छाटे-छोटे हैं। 1917 के बाद ज़मीन किसानों को सौंप दी गई थी। फलस्वरूप ज्यादातर किसानों के पास छोटे खेत थे जिनका आधुनिकीकरण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक खेत विकसित करने और उन पर मशीनों की सहायता से औद्योगिक खेती करने के लिए ‘कुलकों का सफ़ाया’ करना, किसानों से जमीन छीनना और राज्य नियंत्रित यानी सरकारी नियंत्रण वाले विशालकाय खेत बनाना जरूरी माना गया।

चित्र 18 – सामूहिकीकरण के दौर का एक पोस्टर.
इसमें लिखा है : ‘हम खेती में कमी लाने वाले कुलक पर वार करेंगे।’

इसी के बाद स्तालिन का सामूहिकीकरण कार्यक्रम शुरू हुआ। 1929 से पार्टी ने सभी किसानों को सामूहिक खेतों (कोलखोज) में काम करने का आदेश जारी कर दिया। ज्यादातर जमीन और साजो-सामान सामूहिक खेतों के स्वामित्व में सौंप दिए गए। सभी किसान सामूहिक खेतों पर काम करते थे और कोलखोज के मुनाफ़े को सभी किसानों के बीच बाँट दिया जाता था। इस फ़ैसले से गुस्साए किसानों ने सरकार का विरोध किया और वे अपने जानवरों को खत्म करने लगे। 1929 से 1931 के बीच मवेशियों की संख्या में एक-तिहाई कमी आ गई। सामूहिकीकरण का विरोध करने वालों को सख्त सजा दी जाती थी। बहुत सारे लोगों को निर्वासन या देश-निकाला दे दिया गया। सामूहिकीकरण का विरोध करने वाले किसानों का कहना था कि वे न तो अमीर हैं और न ही समाजवाद के विरोधी हैं। वे बस विभिन्न कारणों से सामूहिक खेतों पर काम नहीं करना चाहते थे। स्तालिन सरकार ने सीमित स्तर पर स्वतंत्र किसानी की व्यवस्था भी जारी रहने दी लेकिन ऐसे किसानों को कोई खास मदद नहीं दी जाती थी।

सामूहिकीकरण के बावजूद उत्पादन में नाटकीय वृद्धि नहीं हुई। बल्कि 1930-1933 की खराब फ़सल के बाद तो सोवियत इतिहास का सबसे बड़ा अकाल पड़ा जिसमें 40 लाख से ज्यादा लोग मारे गए।

पार्टी में भी बहुत सारे लोग नियोजित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत औद्योगिक उत्पादन में पैदा हो रहे भ्रम और सामूहिकीकरण के परिणामों की आलोचना करने लगे थे। स्तालिन और उनके सहयोगियों ने ऐसे आलोचकों पर समाजवाद के खिलाफ़ साजिश रचने का आरोप लगाया। देश भर में बहुत सारे लोगों पर इसी तरह के आरोप लगाए गए और 1939 तक आते-आते 20 लाख से ज्यादा लोगों को या तो जेलों में या श्रम शिविरों में भेज दिया गया था। ज्यादातर लोगों ने ऐसा कोई अपराध नहीं किया था लेकिन उनकी सुनने वाला कोई नहीं था। बहुत सारे लोगों को यातनाएँ दे-देकर उनसे इस आशय के बयान लिखवा लिए गए कि उन्होंने समाजवाद के विरुद्ध साजिश में हिस्सा लिया है और इसी आधार पर उन्हें मार दिया गया। इनमें कई प्रतिभावान पेशेवर लोग थे।

स्त्रोत ग

1933 में सोवियत बचपन के स्वप्न और यथार्थ

प्रिय दादाजी कालीनिन …

मेरा परिवार बड़ा है, चार बच्चे हैं। हमारे पिता अब नहीं हैं, वे मज्जदूरों के लिए लड़ते हुए मारे गए थे … और मेरी माँ … बीमार हैं। … मैं बहुत पढ़ना चाहता हूँ, पर स्कूल नहीं जा सकता। मेरे पास पुराने जूते थे पर अब वह इतने फट चुके हैं कि कोई उनकी मरम्मत नहीं कर सकता। मेरी माँ बीमार हैं, हमारे पास न तो पैसा है और न ही रोटी; पर मैं पढ़ना बहुत चाहता हूँ। … हमारे सामने पढ़ने, पढ़ने और बस पढ़ने की जिम्मेदारी है। व्लादिमीर इलीच लेनिन ने यही कहा है। पर मुझे स्कूल जाना छोड़ना पड़ेगा। हमारा कोई रिश्तेदार नहीं है, कोई भी हमारी मदद नहीं कर सकता, इसलिए मुझे फ्रैक्ट्री में काम करना पड़ेगा ताकि मेरा परिवार भूखों मरने से बच जाए। प्रिय दादाजी, मैं 13 साल का हूँ, पढ़ाई में अव्वल आता हूँ और मेरी कोई खराब रिपोर्ट नहीं है। मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ता हूँ…।

सोवियत राष्ट्रपति कालिनिन के नाम 13 वर्षीय एक मजदूर बालक द्वारा 1933 में लिखा गया पत्र।

वी. सोकोलोव (सं.), ऑब्शचेस्त्वो । व्लास्त, वी 1930-ये गोदी (मास्को, 1997)।

स्त्रोत घ

सामूहिकीकरण के विरोध और सरकार की प्रतिक्रिया सरकारी विवरण

‘इस साल फरवरी के दूसरे पखवाड़े से यूक्रेन के विभिन्न क्षेत्रों में किसानों ने बड़े पैमाने पर विद्रोह किए हैं। यह स्थिति सामूहिकीकरण के क्रियान्वयन के दौरान पार्टी के निचले कार्यकर्ताओं द्वारा पार्टी लाइन को ठीक से लागू न किए जाने और गर्मियों में होने वाली कटाई की तैयारियों का परिणाम है।

बहुत थोड़े से समय में उपरोक्त क्षेत्रों में चल रही गतिविधियाँ आसपास के इलाकों में भी फैल गई हैं। सबसे आक्रामक विद्रोह सीमावर्ती इलाकों में हुए हैं।

विद्रोही किसानों का ज्यादा जोर इस बात पर है कि सामूहिकीकरण के कारण उनसे छीन लिया गया अनाज, मवेशी और औजार उन्हें लौटा दिए जाएँ।

1 फरवरी से 15 मार्च के बीच 25,000 गिरफ़्तारियाँ हो चुकी है … 656 को मृत्युदंड दिया गया है, 3,673 को श्रम शिविरों में बंद कर दिया गया है और 5,580 को देश निकाला दिया गया है…।’

यूक्रेन राज्य पुलिस प्रशासन के प्रमुख के. एम. कार्लसन द्वारा कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति को भेजी गई रिपोर्ट, 19 मार्च 1930.

वी. सोकोलोव (सं.), ऑब्शचेस्त्वो। व्लास्त, वी 1930-ये गोदी।

स्त्रोत च

यह एक ऐसे किसान द्वारा लिखा गया पत्र है जो सामूहिक खेत में काम नहीं करना चाहता। उसने क्रस्तियान्स्काया गज़ेटा (कृषक समाचारपत्र) को यह खत लिखा था।

4 मैं स्वाभाविक रूप से खेती करने वाला किसान हूँ। मेरा जन्म 1879 में हुआ था … मेरे परिवार में 6 सदस्य हैं। मेरी पत्नी की पैदाइश 1871 की है। मेरा बेटा 16 साल का और दो बेटियाँ 19 साल की हैं। तीनों बच्चे स्कूल जाते हैं, मेरी बहन 71 साल की है। 1932 से मेरे ऊपर इतने भारी कर थोप दिए गए हैं कि उन्हें चुकाना असंभव है। 1935 में तो स्थानीय अफ़सरों ने कर और भी बढ़ा दिए … मैं इतना कर नहीं चुका पाया और मेरी सारी संपत्ति कुर्क कर ली गई : मेरा घोड़ा, गाय, बछड़ा, भेड़, मेमने, सारे औजार, फर्नीचर और घर की मरम्मत के लिए रखी लकड़ी, सब कुछ कुर्क करके बेच डाला। 1936 में उन्होंने मेरी दो इमारतें बेच दीं… कोलखोज ने ही उन्हें खरीद लिया। 1937 में मेरी दोनों झोपड़ियों में से भी एक बेच दी गई और दूसरी को जब्त कर लिया गया …।’

वी. सोकोलोव (सं.), ऑब्शचेस्त्वो । व्लास्त, वी 1930-ये गोदी।

5. रूसी क्रांति और सोवियत संघ का वैश्विक प्रभाव

बोल्शेविकों ने जिस तरह सत्ता पर कब्ज़ा किया था और जिस तरह उन्होंने शासन चलाया उसके बारे में यूरोप की समाजवादी पार्टियाँ बहुत सहमत नहीं थीं। लेकिन मेहनतकशों के राज्य की स्थापना की संभावना ने दुनिया भर के लोगों में एक नई उम्मीद जगा दी थी। बहुत सारे देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन किया गया जैसे, इंग्लैंड में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन की स्थापना की गई। बोल्शेविकों ने उपनिवेशों की जनता को भी उनके रास्ते का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया। सोवियत संघ के अलावा भी बहुत सारे देशों के प्रतिनिधियों ने कॉन्फ्रेंस ऑफ़ द पीपुल ऑफ़ दि ईस्ट (1920) और बोल्शेविकों द्वारा बनाए गए कॉमिन्टर्न (बोल्शेविक समर्थक समाजवादी पार्टियों का अंतर्राष्ट्रीय महासंघ) में हिस्सा लिया था। कुछ विदेशियों को सोवियत संघ की कम्युनिस्ट युनिवर्सिटी ऑफ़ द वर्कर्स ऑफ़ दि ईस्ट में शिक्षा दी गई। जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ तब तक सोवियत संघ की वजह से समाजवाद को एक वैश्विक पहचान और हैसियत मिल चुकी थी। लेकिन पचास के दशक तक देश के भीतर भी लोग यह समझने लगे थे कि सोवियत संघ की शासन शैली रूसी क्रांति के आदर्शों के अनुरूप नहीं है। विश्व समाजवादी आंदोलन में भी इस बात को मान लिया गया था कि सोवियत संघ में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। एक पिछड़ा हुआ देश महाशक्ति बन चुका था। उसके उद्योग और खेती विकसित हो चुके थे और गरीबों को भोजन मिल रहा था। लेकिन वहाँ के नागरिकों को कई तरह की आवश्यक स्वतंत्रता नहीं दी जा रही थी और विकास परियोजनाओं को दमनकारी नीतियों के बल पर लागू किया गया था। बीसवीं सदी के अंत तक एक समाजवादी देश के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सोवियत संघ की प्रतिष्ठा काफी कम रह गई थी हालाँकि वहाँ के लोग अभी भी समाजवाद के आदर्शों का सम्मान करते थे। लेकिन सभी देशों में समाजवाद के बारे में विविध प्रकार से व्यापक पुनर्विचार किया गया।

बॉक्स 5

रूसी क्रांति से प्रेरित होने वालों में बहुत सारे भारतीय भी थे। उनमें से कई ने कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। 1920 के दशक में भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी का पठन कर लिया गया। इस पार्टी के सदस्य सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में रहते थे। कई महत्त्वपूर्ण भारतीय राजनीतिक एवं सांस्कृतिक व्यक्तियों ने सोवियत प्रयोग में दिलचस्पी ली और कहाँ का दौरा किया। रूस जाने कले भारतीयों में जवाहर लाल नेहरू और रवीन्द्रनाथ टैगोर भी थे जिन्होंने सोवियत समाजवाद के बारे में लिखा भी। भारतीय लेखन में सोवियत रूस की अलग-अलग छवियाँ दिखाई देती थी। हिंदी में आर.एस. अवस्थी ने 1920-21 में रशियन रेवल्यूशन, लेनिन, हिज लाइफ ऐन्ड हिट बॉटस और ए. रेड रंबल्यूशन नामक किताब लिखा। उनके अलावा एस. डी. विद्यालंकार ने द रॉबर्ष ऑफ रशिया तथा द सोवियत स्टेट ऑफ रशिया नामक पुस्तकें लिखी। उन विषयों पर बंगाली, मराठी, मलयालम, तमिल और तेलुगु में भी बहुत कुछ लिखा गया।

स्त्रोत छ

सोवियत रूस में एक भारतीय, 1920

‘अपनी जिंदगी में पहली बार हम लोग यूरोपियों को एशियाइयों के साथ मुक्त भाव से मिलते-बतियाते देख रहे थे। जब हमने रूसियों को देश के बाकी लोगों के साथ सहज भाव से घुलते-मिलते देखा तो हमें यकीन हो गया कि हम सच्ची समानता की दुनिया में आ पहुँचे हैं।

हमें स्वतंत्रता सही मायनों में साकार होती दिखायी दे रही थी। प्रतिक्रांतिकारियों और साम्राज्यवादियों की हरकतों से पैदा हुई गरीबी के बावजूद लोग-बाग पहले से ज्यादा खुश और संतुष्ट दिखायी दे रहे थे। क्रांति ने उनमें आत्मविश्वास और निडरता भर दी है। पचास अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के लोगों के बीच मानवता का असली भाईचारा यहीं साकार होने वाला है। जाति या धर्म की कोई सीमा उन्हें एक-दूसरे के साथ घुलने-मिलने से नहीं रोक रही थी। हर जीव को एक कुशल वक्ता बना दिया गया है। आप वहाँ मजदूरों, किसानों और सिपाहियों, सभी को पेशेवर वक्ता की तरह बहस करते देख सकते हैं।’

शौकत उस्मानी, हिस्टॉरिक ट्रिप्स ऑफ़ ए रेवल्यूशनरी।

स्त्रोत ज

रूस से रबीन्द्रनाथ टैगोर, 1930

‘मास्को बाकी यूरोपीय राजधानियों के मुकाबले कम साफ़-सुथरा दिखाई देता है। सड़क पर भागम-भाग में लगा कोई व्यक्ति बहुत स्मार्ट नहीं लगता। सारी जगह मजदूरों की है। … यहाँ आम जनता रईसों के साए में किसी तरह दबती दिखाई नहीं देती। जो लोग सदियों से नेपथ्य में छिपे हुए थे आज सामने आ खड़े हुए हैं। … मैं अपने देश के किसानों और मज्जदूरों के बारे में सोचने लगा। मेरे सामने जो कुछ था उसे देखकर लगता था कि यह अरेबियन नाइट्स के किसी जिन्न की करामात है। (यहाँ) महज एक दशक पहले ये भी हमारे लोगों जितने ही अनपढ़, लाचार और भूखे थे। … ये देख कर मेरे जैसे अभागे हिंदुस्तानी से ज्यादा अचंभा और भला किसको होगा कि इन लोगों ने इतने थोड़े से सालों में अज्ञानता और बेसहारेपन के पहाड़ को उतार फेंका है।

यह भी पढ़ें : फ़्रांसीसी क्रांति  : अध्याय 1

प्रश्न

1. रूस के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हालात 1905 से पहले कैसे थे?
Ans.
बीसवीं सदी की शुरुआत में रूस की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा खेती-बाड़ी से जुड़ा हुआ था। रूसी साम्राज्य की लगभग 85% जनता आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर थी। सामाजिक स्तर पर मजदूर बाटे हुए थे। कुछ मजदूर अपने मूल गांव के साथ अभी भी गहरे संबंध बनाए हुए थे। बहुत सारे मजदूर स्थायी रूप से शहरों में ही बस चुके थे। उनके बीच योग्यता और दक्षता के स्तर पर भी काफी फर्क था। फैक्ट्री में मजदूरों औरतों की संख्या 31% थी। लेकिन उन्हें पुरुष मजदूरों के मुकाबले कम वेतन था। मर्दों की तनख्वाह के मुकाबले आधे से तीन-चौथाई था। मजदूरों के बीच मौजूद फासला उनके पहनावे और व्यवहार में भी साफ दिखाई देता था।

कुछ मजदूरों ने बेरोजगारी या आर्थिक संकट के समय एक-दूसरे की मदद करने के लिए संगठन बना लिए थे। लेकिन ऐसे संगठन बहुत कम थे। शहर में कारखानों में काम करने वाले मजदूरों को कम वेतन दिया जाता था। उनकी आय कम होने के कारण उनके सामाजिक जीवन को चलाने के लिए काफी नहीं था। कारखाने में मजदूरों को 15 घंटे काम करना पड़ता था।

2. 1917 से पहले रूस की कामकाजी आबादी यूरोप के बाकी देशों के मुकाबले किन-किन स्तरों भिन्न थी?
Ans.
1917 से पहले रूस की कामकाजी आबादी यूरोप के बाकी देशों के मुकाबले निम्न स्तरों पर भिन्न थी। रूसी साम्राज्य की लगभग 85% जनता आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर थी। यूरोप के किसी भी देश में खेती पर आश्रित जनता का प्रतिशत इतना नहीं था। 
उदाहरण – के तौर पर, फ्रांस और जर्मनी में खेती पर निर्भर आबादी 40 से प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी।

रूसी साम्राज्य के किसान अपनी जरूरतों के साथ-साथ बाजार के लिए भी पैदावार करते थे। रूसी किसान यूरोप के बाकी किसानों के मुकाबले एक और लिहाजा से भी भिन्न थे। यहां के किसान समय-समय पर सारी जमीन को अपने कम्यून को सौंप देते थे और फिर कम्यून ही प्रत्येक परिवार की जरूरत के हिसाब से किसानों को जमीन बांटता था। फ्रांसीसी क्रांति के दौरान ब्रिटेन के किसान ना केवल नवाबों का सम्मान करते थे बल्कि उन्होंने नवाबों को बचाने के लिए बकायदा लड़ाइयां भी लड़ी। इसके विपरीत रूस के किसान चाहते थे कि नवाबों की जमीन छीन कर किसानों के बीच बांट दी जाए। बहुधा वह लगान भी नहीं छुपाते थे।

3. 1917 में जार का शासन क्यों खत्म हो गया?
Ans.
1917 में जार का शासन निम्नलिखित कारणों से खत्म हो गया –

• इस युद्ध को शुरू-शुरू में रूसीयों का काफी समर्थन मिला। जनता ने जार का साथ दिया। लेकिन जैसे-जैसे युद्ध लंबा खींचता गया, जार ने ड्यूमा में मौजूद मुख्य पार्टियों से सलाह लेना छोड़ दिया। उसके प्रति जनसमर्थन कम होने लगा।
• जार ने अपनी खिलाफ उठ रही आवाज को दबाने के लिए राजनैतिक गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। जिसके कारण जनता में असंतोष उत्पन्न हो गया था। प्रथम विश्व युद्ध के ‘ पूर्वी मोर्चे’ पर चल रही लड़ाई ‘ पश्चिमी मोर्चे’ की लड़ाई से भिन्न थी। पश्चिम में सैनिक पूर्वी फ्रांस की सीमा पर बनी खाइयों से लड़ाई लड़ रहे थे जबकि पूर्वी मोर्चे पर सेना ने काफी बड़ा फासला तय कर लिया था। इस मोर्चे पर बहुत सारे सैनिक मौत के मुंह में जा चुके थे।
• पीछे हटती रूसी सेनाओं ने रास्ते में पड़ने वाली फसलों और इमारतों को भी नष्ट कर डाला ताकि दुश्मन की सेना वहां टिक ही ना सके।
• खाद्य पदार्थ की संकट काफी बढ़ गई थी। इस कारण से भी जार शासन को आलोकप्रिय बना दिया। 2 मार्च को जार गद्दी छोड़ने के लिए मजबूर हो गया और इस तरह से निरकुशता का अंत हो गया।

4. दो सूचियाँ बनाइए: एक सूची में फरवरी क्रांति को मुख्य घटनाओं और प्रभावों को लिखिए और दूसरी सूची में अक्तूबर क्रांति की प्रमुख घटनाओं और प्रभावों को दर्ज कीजिए।
Ans.
फरवरी क्रांति की मुख्य घटनाएँ और प्रभाव:

22 फरवरी को एक फैक्ट्री में तालाबंदी हुई
प्रदर्शनकारी राजधानी के केंद्र में जमा हुए और फिर वहाँ कर्फ्यू लग गया।
25 फरवरी को ड्यूमा को निलंबित कर दिया गया।
27 फरवरी को पेत्रोग्राद सोवियत का गठन हुआ
2 मार्च को जार ने सत्ता छोड़ दी और अंतरिम सरकार का गठन हुआ।

फरवरी क्रांति के परिणामस्वरूप रूस में जार के तानाशाही शासन का अंत हो गया जिससे एक चुनी हुई सरकार के लिए रास्ता साफ हुआ। इस आंदोलन का कोई नेता नहीं था।

अक्तूबर क्रांति की घटनाएँ और प्रभाव:

16 अक्तूबर को मिलिट्री रिवोल्यूशनरी कमिटी का गठन हुआ।
24 अक्तूबर को स्थिति से निबटने के लिए सरकार की सेना को बुलाया गया।
रात होते होते मिलिट्री रिवोल्यूशनरी कमिटी ने शहर पर कब्जा कर लिया और मंत्रियों ने आत्मसमर्पण कर दिया।
बोल्शेविकों ने सत्ता अपने हाथ में ले ली।

अक्तूबर क्रांति कि अगुवाई लेनिन कर रहे थे। इस घटना के बाद रूस पर बोल्शेविक का नियंत्रण हो गया और फिर एकल-पार्टी शासन की शुरुआत हुई।

5. बोल्शेविकों ने अक्तूबर क्रांति के फौरन बाद कौन-कौन-से प्रमुख परिवर्तन किए?
Ans.
अक्टूबर क्रांति के तुरंत बाद बोल्शेविकों द्वारा लाया गया मुख्य परिवर्तन नीचे सूचीबद्ध हैं:

बोल्शेविक किसी भी निजी संपत्ति के पक्ष में नहीं थे। इसलिए अधिकांश उद्योगों और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।
भूमि को सामाजिक संपत्ति घोषित किया गया और किसानों को उस भूमि को जब्त करने की अनुमति दी गई जिस पर
उन्होंने काम किया था।
शहरों में परिवार की आवश्यकताओं के अनुसार बड़े घरों का विभाजन किया गया था।
अभिजात वर्ग के पुराने शीर्षकों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।
बोल्शेविक पार्टी का नाम बदलकर रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) कर दिया गया।

6. निम्नलिखित के बारे में संक्षेप में लिखिए :

• कुलक
Ans.
कुलक सोवियत रूस के अमीर किसान थे। 1927-28 तक सोवियत रूस के कस्बों को अनाज की आपूर्ति की समस्या का सामना करना पड़ रहा था। कुलकों को इसके लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार माना जाता था। उसको (स्टालिन) भी खेतों को विकसित करना था और औद्योगिक लाइनों के साथ पार्टी के नेतृत्व में उन्हें चलाना था, इसलिए स्टालिन ने सोचा कि कुलकों को खत्म करना जरूरी है।

• ड्यूमा
Ans.
1905 की क्रांति के दौरान, ज़ार ने रूस में एक निर्वाचित सलाहकार संसद के निर्माण की अनुमति दी। रूस में इस निर्वाचित सलाहकार संसद को डूमा कहा जाता था।

• 1900 से 1930 के बीच महिला कामगार
Ans.
1905 की रूसी क्रांति, 1917 की फरवरी क्रांति के दौरान, महिला श्रमिकों ने भी रूस के भविष्य को आकार देने में भाग लिया। 1914 तक फैक्ट्री श्रम बल का 31% हिस्सा महिला श्रमिकों का था, लेकिन उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन दिया जाता था। महिला श्रमिकों को न केवल कारखानों में काम करना था, बल्कि अपने परिवार और बच्चों की देखभाल भी करनी थी। वे देश के सभी मामलों में भी बहुत सक्रिय थी।

वे अक्सर अपने पुरुष सहकर्मियों को प्रेरित करते थी। उदाहरण के लिए, आइए हम टेलीफोन फैक्ट्री में एक महिला कार्यकर्ता मारफ़ा वासिलिवा की घटना को लें, जिन्होंने बढ़ती कीमतों और फ़ैक्टरी मालिकों के उच्च-स्तर के खिलाफ आवाज़ उठाई और एक सफल हड़ताल भी आयोजित की।

मारफा वासिल्वा का उदाहरण अन्य महिला श्रमिकों द्वारा लिया गया था और वे तब तक बेकार नहीं बैठीं जब तक उन्होंने रूस में एक समाजवादी राज्य स्थापित नहीं कर लिया।

•  उदारवादी
Ans.
रूस में उदारवादी वे व्यक्ति थे जो एक ऐसा राष्ट्र चाहते थे जिसने सभी धर्मों को सहन किया हो। वे सरकारों के खिलाफ व्यक्तियों के अधिकारों को सुरक्षित रखना चाहते थे। उन्होंने वंशीय शासकों की अनियंत्रित शक्ति का विरोध किया।

वे एक प्रतिनिधि, कानूनों के अधीन संसदीय सरकार निर्वाचित हुए। वे एक स्वतंत्र न्यायपालिका चाहते थे लेकिन उदारवादियों को यूनिवर्सल एडल्ट फ्रेंचाइज पर विश्वास नहीं था। वे महिलाओं का मतदान अधिकार भी नहीं चाहते थे।

• स्तालिन का सामूहिकीकरण कार्यक्रम
Ans.
1927-28 तक सोवियत रूस के शहर अनाज की आपूर्ति की तीव्र समस्या का सामना कर रहे थे। स्टालिन, जो उस समय पार्टी के नेता थे, ने इस समस्या के कारणों की जांच की और तदनुसार कुछ आपातकालीन उपाय पेश किए। 1929 में स्टालिन का सामूहिक कार्यक्रम इन उपायों में से एक था। इस कार्यक्रम के तहत पार्टी ने सभी किसानों को सामूहिक खेतों (कोलखोज) में खेती करने के लिए मजबूर किया।

सामूहिक खेत से होने वाला लाभ या उपज किसानों द्वारा साझा किया जाता था। हालांकि, जो किसान सामूहिकता का विरोध करते थे उन्हें कड़ी सजा दी जाती थी। वे कई कारणों से सामूहिक खेतों में काम नहीं करना चाहते थे। स्टालिन की सरकार ने कुछ स्वतंत्र खेती की अनुमति दी, लेकिन ऐसे कृषकों के साथ विषम व्यवहार किया।

स्टालिन के सामूहिक कार्यक्रम के बावजूद, उत्पादन में तुरंत वृद्धि नहीं हुई। वास्तव में 1930-33 की खराब फसल ने सोवियत इतिहास के सबसे बुरे अकालों में से एक को जन्म दिया।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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