यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय : अध्याय 1


1848 में, एक फ्रांसिसी कलाकार फ्रेड्रिक सॉरयू ने चार चित्रों की एक श्रृंखला बनाई। इनमें उसने सपनों का एक संसार रचा जो उसके शब्दों में ‘जनतांत्रिक और सामाजिक गणतंत्रों’ से मिल कर बना था। इस श्रृंखला के पहले चित्र (देखें चित्र 1) में यूरोप और अमेरिका के लोग दिखाए गए हैं सभी उम्र और सामाजिक वर्गों के स्त्री-पुरुष एक लंबी कतार में स्वतंत्रता की प्रतिमा की वंदना करते हुए जा रहे हैं। आपको याद होगा कि फ्रांसीसी क्रांति के दौरान कलाकार स्वतंत्रता को महिला का रूप प्रदान किया करते थे। यहाँ भी आप ज्ञानोदय की मशाल को पहचान सकते हैं जो उसके एक हाथ में है और दूसरे में मनुष्य के अधिकारों का घोषणापत्र। प्रतिमा के सामने जमीन पर निरंकुश संस्थानों के ध्वस्त अवशेष बिखरे हुए हैं। सॉरयू के कल्पनादर्श (युटोपिया) में दुनिया के लोग अलग राष्ट्रों के समूहों में बँटे हुए हैं जिनकी पहचान उनके कपड़ों और राष्ट्रीय पोशाक से होती है। स्वतंत्रता की मूर्ति से कहीं आगे, इस जुलूस का नेतृत्व कर रहे हैं संयुक्त राज्य अमेरिका और स्विट्जरलैंड, जो तब तक राष्ट्र-राज्य बन चुके थे। फ्रांस जो क्रांतिकारी तिरंगे से पहचाना जा सकता है, प्रतिमा के पास अभी-अभी पहुँचा है। उसके पीछे जर्मनी के लोग हैं जो काला, लाल और सुनहरा झंडा थामे हैं। यह दिलचस्प है कि जिस समय सॉरपू ने यह छवि निर्मित की, जर्मन लोग तब तक एक संयुक्त राष्ट्र का हिस्सा नहीं बने थे। जो झंडा वे थामे हुए हैं, वह 1848 की उदारवादी उम्मीदों की अभिव्यक्ति है जिनमें अनेक जर्मन भाषी रियासतों को एका प्रजातांत्रिक संविधान के अंतर्गत एक राष्ट्र-राज्य में गतित करने की चाह थी। जर्मन लोगों के बाद ऑस्ट्रिया, दो सिसिलियों की राजशाही, लॉम्बार्थी, पोलैंड, इंग्लैंड, आयरलैंड, हंगरी और रूस के लोग हैं। ऊपर स्वर्ग से, ईसा मसीह, संत और फरिश्ते इस दृश्य पर अपनी नजरें जमाए हुए हैं। चित्रकार ने उनका इस्तेमाल दुनिया के राष्ट्रों के बीच भाईचारे के प्रतीक के रूप में किया है।

इस अध्याय में ऐसे कई विषय उठाए जाएँगे जिनकी काल्पनिक अभिव्यक्ति सौरयू ने चित्र। में की थी। उन्नीसवीं सदी के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसी ताकृत बन कर उभरा जिसने यूरोप के राजनीतिक और मानसिक जगत में भारी परिवर्तन ला दिये। इन परिवर्तनों से अंततः यूरोप के बहु-राष्ट्रीय वंशीय साम्राज्यों के स्थान पर राष्ट्र राज्य का उदय हुआ। यूरोप में लंबे समय से एक ऐसे आधुनिक राज्य की गतिविधियाँ और विचार विकसित हो रहे थे जिसमें स्पष्ट रूप से परिभाषित क्षेत्र पर प्रभुसत्ता एक केंद्रीय शक्ति की थी। लेकिन राष्ट्र-राज्य में न केवल उसके शासकों बल्कि उसके अधिकांश नागरिकों में एक साझा पहचान का भाव और साझा इतिहास या विरासत की भावना थी। साझेपन की यह भावना अनंत काल से नहीं थी: यह संघर्षों और नेताओं तथा आम लोगों की सरगर्मियों से निर्मित हुई थी। यह अध्याय उन विविध प्रक्रियाओं पर प्रकाश डालेगा जिनके तहत उन्नीसवीं सदी के यूरोप में राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद अस्तित्व में आए।

अन्र्स्ट रेनन (Ernst Renan) ‘राष्ट्र क्या है?’

फ़्रांसीसी दार्शनिक अन्र्स्ट रेनन (1823-92) ने 1882 में सॉबॉन (Sorbonne) विश्वविद्यालय में दिए एक व्याख्यान में राष्ट्र की अपनी समझ को प्रस्तुत किया। बाद में यह व्याख्यान एक प्रसिद्ध निबंध के रूप में छपा जिसका शीर्षक था )। इस निबंध में रेनन अन्य लोगों द्वारा प्रस्तावित इस विचार की आलोचना करता है कि राष्ट्र समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है।

एक राष्ट्र लंबे प्रयासों, त्याग और निष्ठा का चरम बिंदु होता है। शौर्य-वीरता से युक्त अतीत, महान पुरुषों के नाम और गौरव – यह वह सामाजिक पूँजी है जिस पर एक राष्ट्रीय विचार आधारित किया जाता है। अतीत में समान गौरव का होना, वर्तमान में एक समान इच्छा, संकल्प का होना, साथ मिल कर महान काम करना और आगे, ऐसे काम और करने की इच्छा एक जनसमूह होने की यह सब जरूरी शर्तें हैं। अतः राष्ट्र एक बड़ी और व्यापक एकता (Large-Scale Solidarity) है… उसका अस्तित्व रोज़ होने वाला जनमत-संग्रह है…। प्रांत उसके निवासी हैं; अगर सलाह लिए जाने का किसी का अधिकार है तो वह निवासी ही है, किसी देश का विलय करने या किसी देश पर उसकी इच्छा के विरुद्ध कब्जा जमाए रखने में एक राष्ट्र की वास्तव में कोई दिलचस्पी होती नहीं है। राष्ट्रों का अस्तित्व में होना एक अच्छी बात है, बल्कि यह एक जरूरत भी है। उनका होना स्वतंत्रता की गारंटी है और अगर दुनिया में केवल एक क़ानून और उसका केवल एक मालिक होता तो स्वतंत्रता का लोप हो जाएगा।

1. फ़्रांसीसी क्रांति और राष्ट्र का विचार

राष्ट्रवाद की पहली स्पष्ट अभिव्यक्ति 1789 में फ़्रांसीसी क्रांति के साथ हुई। जैसा कि आपको याद होगा, 1789 में फ़्रांस एक ऐसा राज्य था जिसके संपूर्ण भू-भाग पर एक निरंकुश राजा का आधिपत्य था। फ्रांसीसी क्रांति से जो राजनीतिक और संवैधानिक बदलाव हुए उनसे प्रभुसत्ता राजतंत्र से निकल कर फ़्रांसीसी नागरिकों के समूह में हस्तांतरित हो गई। क्रांति ने घोषणा की कि अब लोगों द्वारा राष्ट्र का गठन होगा और वे ही उसकी नियति तय करेंगे।

चित्र 2 – एक जर्मन पंचांग (या तिथिपत्र) का मुखपृष्ठ जिसे पत्रकार ऐंड्रियास रेबमान (Rebmann) ने 1798 में डिज़ाइन किया।

प्रारंभ से ही फ़्रांसीसी क्रांतिकारियों ने ऐसे अनेक क़दम उठाए जिनसे फ़्रांसीसी लोगों में एक सामूहिक पहचान की भावना पैदा हो सकती थी। पितृभूमि (la patrie) और नागरिक (le cttoyen) जैसे विचारों ने एक. संयुक्त समुदाय के विचार पर बल दिया जिसे एक संविधान के अंतर्गत समान अधिकार प्राप्त थे। अतः एक नया फ़्रांसीसी झंडा तिरंगा (the tricolour) चुना गया जिसने पहले के राजध्वज की जगह ले ली। इस्टेट जेनरल का चुनाव सक्रिय नागरिकों के समूह द्वारा किया जाने लगा और उसका नाम बदल कर नेशनल एसेंबली कर दिया गया। नयी स्तुतियाँ रची गईं, शपथें ली गई, शहीदों का गुणगान हुआ और यह सब राष्ट्र के नाम पर हुआ। एक केंद्रीय प्रशासनिक व्यवस्था लागू की गई जिसने अपने भू-भाग में रहने वाले सभी नागरिकों के लिए समान क़ानून बनाए। आंतरिक आयात-निर्यात शुल्क समाप्त कर दिए गए और भार तथा नापने की एकसमान व्यवस्था लागू की गई। क्षेत्रीय बोलियों को हतोत्साहित किया गया और पेरिस में फ्रेंच जैसी बोली और लिखी जाती थी, वही राष्ट्र की साझा भाषा बन गई।

क्रांतिकारियों ने यह भी घोषणा की कि फ्रांसीसी राष्ट्र का यह भाग्य और लक्ष्य था कि वह यूरोप के लोगों को निरंकुश शासकों से मुक्त कराए। दूसरे शब्दों में, फ़्रांस यूरोप के अन्य लोगों को राष्ट्रों में गठित होने में मदद देगा। जब फ्रांस की घटनाओं की ख़बर यूरोप के विभिन्न शहरों में पहुँची तो छात्र तथा शिक्षित मध्य-वर्गों के अन्य सदस्य जैकोबिन क्लबों की स्थापना करने लगे। उनकी गतिविधियों और अभियानों ने उन फ्रेंच सेनाओं के लिए रास्ता तैयार किया जो 1790 के दशक में हॉलैंड, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड और इटली के बड़े इलाके में घुसीं। क्रांतिकारी युद्धों के शुरू होने के साथ ही फ़्रांसीसी सेनाएँ राष्ट्रवाद के विचार को विदेशों में ले जाने लगीं।

नेपोलियन के नियंत्रण में जो विशाल क्षेत्र आया वहाँ उसने ऐसे अनेक सुधारों की शुरुआत की जिन्हें फ्रांस में पहले ही आरंभ किया जा चुका था। फ़्रांस में राजतंत्र वापस लाकर नेपोलियन ने निःसंदेह वहाँ प्रजातंत्र को नष्ट किया था। मगर प्रशासनिक क्षेत्र में उसने क्रांतिकारी सिद्धांतों का समावेश किया था ताकि पूरी व्यवस्था अधिक तर्कसंगत और कुशल बन सके। 1804 की नागरिक संहिता जिसे आमतौर पर नेपोलियन की संहिता के नाम से जाना जाता है, ने जन्म पर आधारित विशेषाधिकार समाप्त कर दिए थे। उसने क़ानून के समक्ष बराबरी और संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित बनाया। इस संहिता को फ़्रांसीसी नियंत्रण के अधीन क्षेत्रों में भी लागू किया गया। डच गणतंत्र, स्विट्ज़रलैंड, इटली और जर्मनी में नेपोलियन ने प्रशासनिक विभाजनों को सरल बनाया, सामंती व्यवस्था को खत्म किया और किसानों को भू-दासत्व और जागीरदारी शुल्कों से मुक्ति दिलाई। शहरों में भी कारीगरों के श्रेणी-संघों के नियंत्रणों को हटा दिया गया। यातायात और संचार-व्यवस्थाओं को सुधारा गया। किसानों, कारीगरों, मजदूरों और नए उद्योगपतियों ने नयी-नयी मिली आज़ादी चखी। उद्योगपतियों और खासतौर पर समान बनाने वाले लघु उत्पादक यह समझने लगे कि एकसमान क़ानून, मानक भार तथा नाप और एक राष्ट्रीय मुद्रा से एक इलाक़े से दूसरे इलाके में वस्तुओं और पूँजी के आवागमन में सहूलियत होगी।

चित्र 4 ज्वेब्रकेन,जर्मनी में, स्वतंत्रता के वृक्ष का रोपण।

लेकिन जीते हुए इलाक़ों में स्थानीय लोगों की फ़्रांसीसी शासन के प्रति मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ थीं। शुरुआत में अनेक स्थानों जैसे हॉलैंड और स्विट्जरलैंड और साथ ही कई शहरों जैसे ब्रसेल्स, मेंज़, मिलान और वॉरसा में फ़्रांसीसी सेनाओं का स्वतंत्रता का तोहफा देने वालों की तरह स्वागत किया गया। मगर यह शुरुआती उत्साह शीघ्र ही दुश्मनी में बदल गया जब यह साफ होने लगा कि नयी प्रशासनिक व्यवस्थाएँ राजनीतिक स्वतंत्रता के अनुरूप नहीं थीं। बढ़े हुए कर, सेंसरशिप और बाक़ी यूरोप को जीतने के लिए फ्रेंच सेना में जबरन भर्ती से हो रहे नुकसान प्रशासनिक परिवर्तनों से मिले फ़ायदों से कहीं ज्यादा नज़र आने लगे।

चित्र 5 राइनलैंड का डाकिया लाइप्सिग से आते हुए सब कुछ गँवा देता है।

2. यूरोप में राष्ट्रवाद का निर्माण

अगर आप मध्य अठारहवीं सदी के यूरोप के नक्शे को देखें तो उसमें वैसे ‘राष्ट्र-राज्य’ नहीं मिलेंगे जैसे कि आज हैं। जिन्हें आज हम जर्मनी, इटली और स्विट्ज़रलैंड के रूप में जानते हैं वे तब राजशाहियों, डचियों (duchies) और कैंटनों (cantons) में बँटे हुए थे, जिनके शासकों के स्वायत्त क्षेत्र थे। पूर्वी और मध्य यूरोप निरंकुश राजतंत्रों के अधीन थे और इन इलाकों में तरह-तरह के लोग रहते थे। वे अपने आप को एक सामूहिक पहचान या किसी समान संस्कृति का भागीदार नहीं मानते थे। अकसर वे अलग-अलग भाषाएँ बोलते थे और विभिन्न जातीय समूहों के सदस्य थे। उदाहरण के तौर पर, ऑस्ट्रिया-हंगरी पर शासन करने वाला हैब्सबर्ग साम्राज्य कई अलग-अलग क्षेत्रों और जनसमूहों को जोड़ कर बना था। इसमें ऐल्प्स के टिरॉल, ऑस्ट्रिया और सुडेटेनलैंड जैसे इलाक़ों के साथ-साथ बोहेमिया भी शामिल था जहाँ के कुलीन वर्ग में जर्मन भाषा बोलने वाले ज्यादा थे। हैब्सबर्ग साम्राज्य में लॉम्बार्डी और वेनेशिया जैसे इतालवी-भाषी प्रांत भी शामिल थे। हंगरी में आधे लोग मैग्यार भाषा बोलते थे जबकि बाक़ी लोग विभिन्न बोलियों का इस्तेमाल करते थे। गालीसिया में कुलीन वर्ग पोलिश भाषा बोलता था। इन प्रभावशाली समूहों के अलावा, हैब्सबर्ग साम्राज्य की सीमा रेखाओं के भीतर भारी संख्या में खेती करने वाले लोग अधीन अवस्था में रहते थे जैसे उत्तर में बोहेमियन और स्लोवाक, कार्निओला में स्लोवेन्स, दक्षिण में क्रोएट तथा पूरब की तरफ ट्रांसिल्वेनिया में रहने वाले राउमन लोग। ऐसा फ़र्क राजनीतिक एकता को आसानी से बढ़ावा देने वाला नहीं था। इन तरह-तरह के समूहों को आपस में बाँधने वाला तत्व, केवल सम्राट के प्रति सबकी निष्ठा थी।

राष्ट्रवाद और राष्ट्र-राज्य का विचार कैसे उभरा ?

सामाजिक और राजनीतिक रूप से जमीन का मालिक कुलीन वर्ग यूरोपीय महाद्वीप का सबसे प्रभुत्वशाली वर्ग था। इस वर्ग के सदस्य एक साझा जीवन शैली से बँधे हुए थे जो क्षेत्रीय विभाजनों के आर-पार व्याप्त थी। वे ग्रामीण इलाकों में जायदाद और शहरी-हवेलियों के मालिक थे। राजनीतिक कार्यों के लिए तथा उच्च वर्गों के बीच वे फ्रेंच भाषा का प्रयोग करते थे। उनके परिवार अकसर वैवाहिक बंधनों से आपस में जुड़े होते थे। मगर यह शक्तिशाली कुलीन वर्ग संख्या के लिहाज से एक छोटा समूह था। जनसंख्या के अधिकांश लोग कृषक थे। पश्चिम में ज्यादातर जमीन पर किराएदार और छोटे काश्तकार खेती करते थे जबकि पूर्वी और मध्य यूरोप में भूमि विशाल जागीरों में बँटी थी जिस पर भूदास खेती करते थे।

पश्चिमी और मध्य यूरोप के हिस्सों में औद्योगिक उत्पादन और व्यापार में वृद्धि से शहरों का विकास और वाणिज्यिक वर्गों का उदय हुआ जिनका अस्तित्व बाज़ार के लिए उत्पादन पर टिका था। इंग्लैंड में औद्योगीकरण अठारहवीं सदी के दूसरे भाग में आरंभ हुआ लेकिन फ्रांस और जर्मनी के राज्यों के कुछ हिस्सों में यह उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान ही हुआ। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप नए सामाजिक समूह अस्तित्व में आए श्रमिक-वर्ग के लोग और मध्य वर्ग जो उद्योगपतियों, व्यापारियों और सेवा क्षेत्र के लोगों से बने। मध्य और पूर्वी यूरोप में इन समूहों का आकार उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों तक छोटा था। कुलीन विशेषाधिकारों की समाप्ति के बाद शिक्षित और उदारवादी मध्य वर्गों के बीच ही राष्ट्रीय एकता के विचार लोकप्रिय हुए।

2.2 उदारवादी राष्ट्रवाद के क्या मायने थे?

यूरोप में उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में राष्ट्रीय एकता से संबंधित विचार उदारवाद से करीब से जुड़े थे। उदारवाद यानी liberalism शब्द लैटिन भाषा के मूल liber पर आधारित है जिसका अर्थ है ‘आजाद’। नए मध्य वर्गों के लिए उदारवाद का मतलब था व्यक्ति के लिए आजादी और क़ानून के समक्ष सबकी बराबरी। राजनीतिक रूप से उदारवाद एक ऐसी सरकार पर जोर देता था जो सहमति से बनी हो। फ़्रांसीसी क्रांति के बाद से उदारवाद निरंकुश शासक और पादरीवर्ग के विशेषाधिकारों की समाप्ति, संविधान तथा संसदीय प्रतिनिधि सरकार का पक्षधर था। उन्नीसवीं सदी के उदारवादी निजी संपत्ति के स्वामित्व की अनिवार्यता पर भी बल देते थे। लेकिन यह जरूरी नहीं था कि क़ानून के समक्ष बराबरी का विचार सबके लिए मताधिकार (suffrage) के पक्ष में था। आप याद करें कि क्रांतिकारी फ्रांस उदारवादी प्रजातंत्र का पहला राजनीतिक प्रयोग था और वहाँ मत देने और चुने जाने का अधिकार केवल संपत्तिवान पुरुषों को ही हासिल था। संपत्ति-विहीन पुरुष और सभी महिलाओं को राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा गया था। केवल थोड़े समय के लिए जैकोबिन शासन के समय सभी वयस्क पुरुषों को मताधिकार प्राप्त था। मगर नेपोलियन की संहिता पुनः सीमित मताधिकार वापस आई और उसने महिलाओं को अवस्यक दर्जा देते हुए उन्हें पिताओं और पतियों के अधीन कर दिया। संपूर्ण उन्नीसवीं सदी तथा बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में महिलाओं और संपत्ति-विहीन पुरुषों ने समान राजनीतिक अधिकारों की माँग करते हुए विरोध-आंदोलन चलाए।

आर्थिक क्षेत्र में, उदारवाद, बाजारों की मुक्ति और चीज़ों तथा पूँजी के आवागमन पर राज्य द्वारा लगाए गए नियंत्रणों को खत्म करने के पक्ष में था। उन्नीसवीं सदी के दौरान, उभरते हुए मध्य वर्गों की यह ज़ोरदार माँग थी। आइए, हम उन्नीसवीं सदी के पहले भाग में जर्मन-भाषी इलाक़ों का उदाहरण लें। नेपोलियन के प्रशासनिक कदमों से अनगिनत छोटे प्रदेशों से 39 राज्यों का एक महासंघ बना। इनमें से प्रत्येक की अपनी मुद्रा और नाप-तौल प्रणाली थी। 1833 में हैम्बर्ग से न्यूरेम्बर्ग जा कर अपना माल बेचने वाले एक व्यापारी को ग्यारह सीमाशुल्क नाकों से गुजरना पड़ता था और हर बार लगभग 5% सीमाशुल्क देना पड़ता था। शुल्क अकसर वस्तुओं का वजन या आकार के अनुसार लगाए जाते थे। चूँकि हर क्षेत्र की अपनी नाप-तौल व्यवस्था थी अतः हिसाब लगाने में समय लगता था। मसलन कपड़े को नापने का पैमाना ऐले (elle) था जिसकी लंबाई जगह बदलने के साथ घटती-बढ़ती थी। अगर एक एल कपड़ा फ्रैंकफर्ट में खरीदा जाता तो 54.7 सेंटीमीटर मिलता, मेंज (Mainz) में 55.1 सेंटीमीटर, न्यूरेम्बर्ग में 65.6 सेंटीमीटर और फ्राईबर्ग में 53.5 सेंटीमीटर।

नए वाणिज्यिक वर्ग ऐसी परिस्थितियों को आर्थिक विनिमय और विकास में बाधक मानते हुए एक ऐसे एकीकृत आर्थिक क्षेत्र के निर्माण के पक्ष में तर्क दे रहा था जहाँ वस्तुओं, लोग और पूँजी का आवागमन बाधारहित हो। 1834 में प्रशा की पहल पर एक शुल्क संघ जॉलवेराइन (Zollverein) स्थापित किया गया जिसमें अधिकांश जर्मन राज्य शामिल हो गए। इस संघ ने शुल्क अवरोधों को समाप्त कर दिया और मुद्राओं की संख्या दो कर दी जो उससे पहले तीस से ऊपर थी। इसके अलावा रेलवे के जाल ने गतिशीलता बढ़ाई और आर्थिक हितों को राष्ट्रीय एकीकरण का सहायक बनाया। उस समय पनप रही व्यापक राष्ट्रवादी भावनाओं को आर्थिक राष्ट्रवाद की लहर ने मज़बूत बनाया।

अर्थशास्त्री राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की शब्दावली में सोचने लगे। वे चर्चा करने लगे कि राष्ट्र कैसे विकास कर सकता है और कौन से आर्थिक क़दम राष्ट्र को निर्मित करने में मदद दे सकते हैं।

जर्मनी के ट्यूबिंजन विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर फ़इडरीख लिस्ट (Friedrich List) ने 1834 में लिखाः

जॉल्वेराइन का लक्ष्य जर्मन लोगों को आर्थिक रूप में एक राष्ट्र में बाँध देना है। वह राष्ट्र की आर्थिक हालत जितना बाहरी तरह से उसके हितों की रक्षा करके मजबूत बनाएगा, उतना ही आंतरिक उत्पादकता को बढ़ा कर भी। उसे प्रांतीय हितों को आपस में जोड़ कर राष्ट्रीय भावना को जगाना और उठाना चाहिए। जर्मन लोग यह समझ गए हैं कि एक मुक्त आर्थिक व्यवस्था ही राष्ट्रीय भावनाओं के उत्पन्न होने का एकमात्र जरिया है।

2.3 1815 के बाद एक नया रूढ़िवाद

1815 में नेपोलियन की हार के बाद यूरोपीय सरकारें रूढ़िवाद की भावना से प्रेरित थीं। रूढ़िवादी मानते थे कि राज्य और समाज की स्थापित पारंपरिक संस्थाएँ; जैसे-राजतंत्र, चर्च, सामाजिक ऊँच-नीच, संपत्ति और परिवार को बनाए रखना चाहिए। फिर भी अधिकतर रूढ़िवादी लोग क्रांति से पहले के दौर में वापसी नहीं चाहते थे। नेपोलियन द्वारा शुरू किए गए परिवर्तनों से उन्होंने यह जान लिया था कि आधुनिकीकरण, राजतंत्र जैसी पारंपरिक संस्थाओं को मजबूत बनाने में सक्षम था। वह राज्य की ताक़त को ज़्यादा कारगर और मज़बूत बना सकता था। एक आधुनिक सेना, कुशल नौकरशाही, गतिशील अर्थव्यवस्था, सामंतवाद और भूदासत्व की समाप्ति-यूरोप के निरंकुश राजतंत्रों को शक्ति प्रदान कर सकते थे।

1815 में, ब्रिटेन, रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया जैसी यूरोपीय शक्तियों जिन्होंने मिलकर नेपोलियन को हराया था के प्रतिनिधि यूरोप के लिए एक समझौता तैयार करने के लिए वियना में मिले। इस सम्मेलन (Congress) की मेज़बानी ऑस्ट्रिया के चांसलर ड्यूक मैटरनिख ने की। इसमें प्रतिनिधियों ने 1815 की वियना संधि (Treaty of Vienna) तैयार की जिसका उद्देश्य उन कई सारे बदलावों को खत्म करना था जो नेपोलियाई युद्धों के दौरान हुए थे। फ्रांसीसी क्रांति के दौरान हटाए गए बूर्बो वंश को सत्ता में बहाल किया गया और फ्रांस ने उन इलाक़ों को खो दिया जिन पर क़ब्ता उसने नेपोलियन के अधीन किया गया था। फ्रांस की सीमाओं पर कई राज्य क़ायम कर दिए गए ताकि भविष्य में फ्रांस विस्तार न कर सके। अतः उत्तर में नीदरलैंड्स का राज्य स्थापित किया। जिसमें बेल्जियम शामिल था और दक्षिण में पीडमॉण्ट में जेनोआ जोड़ दिया गया। प्रशा को उसकी पश्चिमी सीमाओं पर महत्त्वपूर्ण नए इलाक़े दिए गए जबकि ऑस्ट्रिया को उत्तरी इटली का नियंत्रण सौंपा गया। मगर नेपोलियन ने 39 राज्यों का जो जर्मन महासंघ स्थापित किया था, उसे बरकरार रखा गया। पूर्व में रूस को पोलैंड का एक हिस्सा दिया गया जबकि प्रशा को सैक्सनी का एक हिस्सा प्रदान किया गया। इस सबका मुख्य उद्देश्य उन राजतंत्रों की बहाली था जिन्हें नेपोलियन ने बर्खास्त कर दिया था। साथ ही यूरोप में एक नयी रूढ़िवादी व्यवस्था कायम करने का लक्ष्य भी था।

1815 में स्थापित रूढ़िवादी शासन व्यवस्थाएँ निरंकुश थीं। वे आलोचना और असहमति बरदाश्त नहीं करती थीं और उन्होंने उन गतिविधियों को दबाना चाहा जो निरंकुश सरकारों की वैधता पर सवाल उठाती थीं। ज्यादातर सरकारों ने सेंसरशिप के नियम बनाए जिनका उद्देश्य अखबारों, किताबों, नाटकों और गीतों में व्यक्त उन बातों पर नियंत्रण लगाना था जिनसे फ़्रांसीसी क्रांति से जुड़े स्वतंत्रता और मुक्ति के विचार झलकते थे। लेकिन फिर भी फ़्रांसीसी क्रांति की स्मृति उदारवादियों को लगातार प्रेरित कर रही थी। नयी रूढ़िवादी व्यवस्था के आलोचक उदारवादी राष्ट्रवादियों द्वारा उठाया गया एक मुख्य मुद्दा था- प्रेस की आज़ादी।

चित्र 6 चिंतकों का क्लब, 1820 के आसपास बनाया गया एक अनाम व्यंग्य चित्र।

2.4 क्रांतिकारी

1815 के बाद के वर्षों में दमन के भय ने अनेक उदारवादी राष्ट्रवादियों को भूमिगत कर दिया। बहुत सारे यूरोपीय राज्यों में क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने और विचारों का प्रसार करने के लिए गुप्त संगठन उभर आए। उस समय क्रांतिकारी होने का मतलब उन राजतंत्रीय व्यवस्थाओं का विरोध करने से था जो वियना कांग्रेस के बाद स्थापित की गई थीं। साथ ही स्वतंत्रता और मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध होना और संघर्ष करना क्रांतिकारी होने के लिए जरूरी था। ज्यादातर क्रांतिकारी राष्ट्र राज्यों की स्थापना को आज़ादी के इस संघर्ष का अनिवार्य हिस्सा मानते थे।

ऐसा ही वह व्यक्ति था इटली का क्रांतिकारी ज्युसेपी मेत्सिनी। उनका जन्म 1805 में जेनोआ में हुआ था और वह कार्बोनारी नामक गुप्त संगठन का सदस्य बन गया। चौबीस साल की युवावस्था में लिगुरिया में क्रांति करने के लिए उसे बहिष्कृत कर दिया गया। तत्पश्चात उसने दो और भूमिगत संगठनों की स्थापना की। पहला था मार्सेई में यंग इटली और दूसरा बर्न में यंग यूरोप, जिसके सदस्य पोलैंड, फ्रांस, इटली और जर्मन राज्यों में समान विचार रखने वाले युवा थे। मेत्सिनी का विश्वास था कि ईश्वर की मर्जी के अनुसार राष्ट्र ही मनुष्यों की प्राकृतिक इकाई थी। अतः इटली छोटे राज्यों और प्रदेशों के पैबंदों की तरह नहीं रह सकता था। उसे जोड़ कर राष्ट्रों के व्यापक गठबंधन के अंदर एकीकृत गणतंत्र बनाना ही था। यह एकीकरण ही इटली की मुक्ति का आधार हो सकता था। उसके इस मॉडल की देखा-देखी जर्मनी, फ्रांस, स्विट्जरलैंड और पोलैंड में गुप्त संगठन कायम किए गए। मेत्सिनी द्वारा राजतंत्र का घोर विरोध करके और प्रजातांत्रिक गणतंत्रों के अपने स्वप्न से मेत्सिनी ने रूढ़िवादियों को हरा दिया। मैटरनिख ने उसे ‘हमारी सामाजिक व्यवस्था का सबसे खतरनाक दुश्मन’ बताया।

3. क्रांतियों का युग : 1830-1848

जैसे-जैसे रूढ़िवादी व्यवस्थाओं ने अपनी ताक़त को और मजबूत बनाने की कोशिश की, यूरोप के अनेक क्षेत्रों में उदारवाद और राष्ट्रवाद को क्रांति से जोड़ कर देखा जाने लगा। इटली और जर्मनी के राज्य, ऑटोमन साम्राज्य के सूबे, आयरलैंड और पोलैंड ऐसे ही कुछ क्षेत्र थे। इन क्रांतियों का नेतृत्व उदारवादी-राष्ट्रवादियों ने किया जो शिक्षित मध्यवर्गीय विशिष्ट लोग थे। इनमें प्रोफ़ेसर, स्कूली-अध्यापक, क्लर्क और वाणिज्य व्यापार में लगे मध्यवर्गों के लोग शामिल थे।

प्रथम विद्रोह फ़्रांस में जुलाई 1830 में हुआ। बूर्वी राजा, जिन्हें 1815 के बाद हुई रूढ़िवादी प्रतिक्रिया के दौरान सत्ता में बहाल किया गया था, उन्हें अब उदारवादी क्रांतिकारियों ने उखाड़ फेंका। उनकी जगह एक संवैधानिक राजतंत्र स्थापित किया गया जिसका अध्यक्ष लुई फिलिप था। मैटरनिख ने एक बार यह टिप्पणी की थी कि ‘जब फ्रांस छींकता है तो बाक़ी यूरोप की सर्दी-जुकाम हो जाता है।’ जुलाई क्रांति से ब्रसेल्स में भी विद्रोह भड़क गया जिसके फलस्वरूप यूनाइटेड किंगडम ऑफ़ द नीदरलैंड्स से अलग हो गया।

एक घटना जिसने पूरे यूरोप के शिक्षित अभिजात वर्ग में राष्ट्रीय भावनाओं का संचार किया, वह थी, यूनान का स्वंतत्रता संग्राम। पंद्रहवीं सदी से यूनान ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। यूरोप में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की प्रगति से यूनानियों का आजादी के लिए संघर्ष 1821 में आरंभ हो गया। यूनान में राष्ट्रवादियों को निर्वासन में रह रहे यूनानियों के साथ पश्चिमी यूरोप के अनेक लोगों का भी समर्थन मिला जो प्राचीन यूनानी संस्कृति (Hellenism) के प्रति सहानुभूति रखते थे। कवियों और कलाकारों ने यूनान को यूरोपीय सभ्यता का पालना बता कर प्रशंसा की और एक मुस्लिम साम्राज्य के विरुद्ध यूनान के संघर्ष के लिए जनमत जुटाया। अंग्रेज कवि लॉर्ड बायरन ने धन इकट्ठा किया और बाद में युद्ध में लड़ने भी गए जहाँ 1824 में बुखार से उनकी मृत्यु हो गई। अंततः 1832 की कुस्तुनतुनिया की संधि ने यूनान को एक स्वतंत्र राष्ट्र की मान्यता दी।

3.1 रूमानी कल्पना और राष्ट्रीय भावना

राष्ट्रवाद का विकास केवल युद्धों और क्षेत्रीय विस्तार से नहीं हुआ। राष्ट्र के विचार के निर्माण में संस्कृति ने एक अहम भूमिका निभाई। कला, काव्य, कहानियों-क़िस्सों और संगीत ने राष्ट्रवादी भावनाओं को गढ़ने और व्यक्त करने में सहयोग दिया। आइए, हम रूमानीवाद को देखे जो एक ऐसा सांस्कृतिक आंदोलन था जो एक खास तरह की राष्ट्रीय भावना का विकास करना चाहता था। आमतौर पर रूमानी कलाकारों और कवियों ने तर्क-वितर्क और विज्ञान के महिमामंडन की आलोचना की और उसकी जगह भावनाओं, अंतर्दृष्टि और रहस्यवादी भावनाओं पर जोर दिया। उनका प्रयास था कि एक साझा-सामूहिक विरासत की अनुभूति और एक साझा सांस्कृतिक अतीत को राष्ट्र का आधार बनाया जाए।

चित्र 8 यूजीन देलाक्रोआ, द मसैकर ऐट किऑस, 1824

जर्मन दार्शनिक योहान गॉटफ्रीड जैसे रूमानी चिंतकों ने दावा किया कि सच्ची जर्मनी संस्कृति उसके आम लोगों (das volk) में निहित थी। राष्ट्र (volkgeist) की सच्ची आत्मा लोकगीतों, जन-काव्य और लोकनृत्यों से प्रकट होती थी। इसलिए लोक संस्कृति के इन स्वरूपों को एकत्र और अंकित करना राष्ट्र के निर्माण की परियोजना के लिए आवश्यक था। स्थानीय बोलियों पर बल और स्थानीय लोक साहित्य को एकत्र करने का उद्देश्य केवल प्राचीन राष्ट्रीय भावना को वापस लाना नहीं था बल्कि आधुनिक राष्ट्रीय संदेश को ज़्यादा लोगों तक पहुँचाना था जिनमें से अधिकांश निरक्षर थे। यह खासतौर पर पोलैंड पर लागू होता था जिसका अठारहवीं सदी के अंत में रूस, प्रशा और ऑस्ट्रिया जैसी बड़ी शक्तियों (Great Powers) ने विभाजन कर दिया था। यद्यपि पोलैंड अब स्वतंत्र भू-क्षेत्र नहीं था किंतु संगीत और भाषा के ज़रिये राष्ट्रीय भावना जीवित रखी गई। मसलन, कैरोल कुर्पिस्की ने राष्ट्रीय संघर्ष का अपने ऑपेरा और संगीत से गुणगान किया और पोलेनेस और माजुरका जैसे लोकनृत्यों को राष्ट्रीय प्रतीकों में बदल दिया।

भाषा ने भी राष्ट्रीय भावनाओं के विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रूसी क़ब्ज़े के बाद, पोलिश भाषा को स्कूलों से बलपूर्वक हटा कर रूसी भाषा को हर जगह जबरन लादा गया। 1831 में, रूस के विरुद्ध एक सशस्त्र विद्रोह हुआ जिसे आखिरकार कुचल दिया गया। इसके अनेक सदस्यों ने राष्ट्रवादी विरोध के लिए भाषा को एक हथियार बनाया। चर्च के आयोजनों और संपूर्ण धार्मिक शिक्षा में पोलिश का इस्तेमाल हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में पादरियों और बिशपों को जेल में डाल दिया गया। रूसी अधिकारियों ने उन्हें सजा देते हुए साइबेरिया भेज दिया क्योंकि उन्होंने रूसी भाषा का प्रचार करने से इनकार कर दिया था। पोलिश भाषा रूसी प्रभुत्व के विरुद्ध संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखी जाने लगी।

3.2 भूख, कठिनाइयाँ और जन विद्रोह

1830 का दशक यूरोप में भारी कठिनाइयाँ लेकर आया। उन्नीसवीं सदी के प्रथम भाग में पूरे यूरोप में जनसंख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई। ज्यादातर देशों में नौकरी ढूँढ़ने वालों की तादाद उपलब्ध रोजगार से अधिक थी। ग्रामीण क्षेत्रों की अतिरिक्त आबादी शहर जाकर भीड़ से भरी गरीब बस्तियों में रहने लगी। नगरों के लघु उत्पादकों को अकसर इंग्लैंड से आयातित मशीन से बने सस्ते कपड़े से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा था। इंग्लैंड में औद्योगीकरण का स्तर महाद्वीप से ऊँचा था। महाद्वीप को यह प्रतिस्पर्धा कपड़ा उद्योग में ज्यादा झेलनी पड़ रही थी क्योंकि उसका उत्पादन मुख्यतः घरों और छोटे कारखानों में होता था और केवल आंशिक रूप से मशीनीकृत था। यूरोप के उन इलाक़ों में जहाँ कुलीन वर्ग अभी भी सत्ता में था, कृषक सामंती शुल्कों और जिम्मेदारियों के बोझ तले दबे थे। खाने-पीने की चीजों के मूल्य बढ़ने या किसी वर्ष फसल के खराब होने के शहर और गाँवों में व्यापक गरीबी फैल जाती थी।

1848 ऐसा ही एक वर्ष था। खाने-पीने की कमी और व्यापक बेरोजगारी से पेरिस के लोग सड़कों पर उतर आए। जगह-जगह अवरोध लगाए गए और लुई फ़िलिप को भागने पर मजबूर किया गया। राष्ट्रीय सभा (National Assembly) ने एक गणतंत्र की घोषणा करते हुए 21 वर्ष से ऊपर सभी वयस्क पुरुषों को मताधिकार प्रदान किया और काम के अधिकार की गारंटी दी। रोजगार उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय कारखाने स्थापित किए गए।

इससे पहले 1845 में सिलेसिया में बुनकरों ने उन ठेकेदारों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था जो उन्हें कच्चा माल देकर निर्मित कपड़ा लेते थे परंतु दाम बहुत कम थे। पत्रकार विल्हेम वोल्फ़ ने सिलेसिया के एक गाँव की घटनाएँ इस प्रकार बयान कीं :

इन गाँवों में (18,000 आबादी वाले) सूती कपड़ा बुनने का व्यवसाय सबसे व्यापक है…. श्रमिकों की हालत खस्ता है। काम के लिए बेताब लोगों का फायदा उठा कर ठेकेदारों ने बनवाए जाने वाले माल की कीमतें गिरा दी हैं..

4 जून को दोपहर 2 बजे बुनकरों की एक भीड़ अपने घरों से निकली और दो क़तारों में चलते हुए ठेकेदार की कोठी पहुँची। वे ज्यादा मज़दूरी की माँग कर रहे थे। उनके साथ कभी घृणा का व्यवहार किया गया तो कभी धमकियाँ दी गईं। इसके बाद यह भीड़ घर में जबरदस्ती घुस गई और चमचमाती खिड़कियाँ, फर्नीचर और चीनी मिट्टी की बनी नफ़ीस चीजें तोड़ दीं…. एक अन्य गुट ने भंडारगृह में घुस कर कपड़े के भंडार को लूट कर उसे तार-तार कर दिया….. ठेकेदार अपने परिवार के साथ पड़ोस के गाँव भाग गया हालाँकि ऐसे व्यक्ति को उस गाँव ने शरण देने से इनकार कर दिया। वह 24 घंटों बाद सेना को बुला कर उसकी मदद से लौटा। इसके बाद जो टकराव हुआ उसमें ग्यारह बुनकरों को गोली मार दी गई।

3.3 1848: उदारवादियों की क्रांति

1848 में जब अनेक यूरोपीय देशों में गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से ग्रस्त किसान-मज़दूर विद्रोह कर रहे थे तब उसके समानांतर पढ़े-लिखे मध्यवर्गों की एक क्रांति भी हो रही थी। फरवरी 1848 की घटनाओं से राजा को गद्दी छोड़नी पड़ी थी और एक गणतंत्र की घोषणा की गई जो सभी पुरुषों के सार्विक मताधिकार पर आधारित था। यूरोप के अन्य भागों में जहाँ अभी तक स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में नहीं आए थे-जैसे जर्मनी, इटली, पोलैंड, ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्य-वहाँ के उदारवादी मध्यवर्गों के स्त्री-पुरुषों ने संविधानवाद की माँग को राष्ट्रीय एकीकरण की माँग से जोड़ दिया। उन्होंने बढ़ते जन असंतोष का फ़ायदा उठाया और एक राष्ट्र-राज्य के निर्माण की माँगों को आगे बढ़ाया। यह राष्ट्र-राज्य संविधान, प्रेस की स्वतंत्रता और संगठन बनाने की आज़ादी जैसे संसदीय सिद्धांतों पर आधारित था।

जर्मन इलाक़ों में बड़ी संख्या में राजनीतिक संगठनों ने फ्रैंकफर्ट शहर में मिल कर एक सर्व-जर्मन नेशनल एसेंबली के पक्ष में मतदान का फैसला लिया। 18 मई 1848 को, 831 निर्वाचित प्रतिनिधियों ने एक सजे-धजे जुलूस में जा कर फ्रैंकफर्ट संसद में अपना स्थान ग्रहण किया। यह संसद सेंट पॉल चर्च में आयोजित हुई। उन्होंने एक जर्मन राष्ट्र के लिए एक संविधान का प्रारूप तैयार किया। इस राष्ट्र की अध्यक्षता एक ऐसे राजा को सौंपी गई जिसे संसद के अधीन रहना था। जब प्रतिनिधियों ने प्रशा के राजा फ्रेडरीख विल्हेम चतुर्थ को ताज पहनाने की पेशकश की तो उसने उसे अस्वीकार कर उन राजाओं का साथ दिया जो निर्वाचित सभा के विरोधी थे। जहाँ कुलीन वर्ग और सेना का विरोध बढ़ गया, वहीं संसद का सामाजिक आधार कमजोर हो गया। संसद में मध्य वर्गों का प्रभाव अधिक था जिन्होंने मजदूरों और कारीगरों की माँगों का विरोध किया जिससे वे उनका समर्थन खो बैठे। अंत में सैनिकों को बुलाया गया और एसेंबली भंग होने पर मजबूर हुई।

उदारवादी आंदोलन के अंदर महिलाओं को राजनीतिक अधिकार प्रदान करने का मुद्दा विवादास्पद था हालाँकि आंदोलन में वर्षों से बड़ी संख्या में महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। महिलाओं ने अपने राजनीतिक संगठन स्थापित किए, अखबार शुरू किए और राजनीतिक बैठकों और प्रदर्शनों में शिरकत की। इसके बावजूद उन्हें एसेंबली के चुनाव के दौरान मताधिकार से वंचित रखा गया था। जब सेंट पॉल चर्च में फ्रैंकफर्ट संसद की सभा आयोजित की गई थी तब महिलाओं को केवल प्रेक्षकों की हैसियत से दर्शक दीर्घा में खड़े होने दिया गया।

चित्र 10 – सेंट पॉल की चर्च में फ्रैंकफुर्ट संसद, समकालीन रंगीन चित्र। ऊपर बाई दीर्घा में महिलाएँ बैठी हैं।

हालाँकि रूढ़िवादी ताक़तें 1848 में उदारवादी आंदोलनों को दबा पाने में कामयाब हुईं किंतु वे पुरानी व्यवस्था बहाल नहीं कर पाईं। राजाओं को यह समझ में आना शुरू हो गया था कि उदारवादी-राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों को रियायतें देकर ही क्रांति और दमन के चक्र को समाप्त किया जा सकता था। अतः 1848 के बाद के वर्षों में मध्य और पूर्वी यूरोप की निरंकुश राजशाहियों ने उन परिवर्तनों को आरंभ किया जो पश्चिमी यूरोप में 1815 से पहले हो चुके थे। इस प्रकार हैब्सबर्ग अधिकार वाले क्षेत्रों और रूस में भूदासत्व और बंधुआ मज़दूरी समाप्त कर दी गई। हैब्सबर्ग शासकों ने हंगरी के लोगों को ज़्यादा स्वायत्तता प्रदान की हालाँकि इससे निरंकुश मैग्यारों के प्रभुत्व का रास्ता ही साफ़ हुआ।

स्वतंत्रता और समानता का महिलाओं के लिए क्या अर्थ था?

उदारवादी राजनीतिज्ञ कार्ल वेल्कर ने, जो फ्रैंकफर्ट संसद के एक निर्वाचित सदस्य थे, निम्नलिखित विचार व्यक्त किए-

‘प्रकृति ने पुरुषों और महिलाओं को अलग-अलग कार्य करने के लिए निर्मित किया है … पुरुष जो ज़्यादा ताक़तवर है, दोनों में से ज्यादा निर्भीक और मुक्त है उसे परिवार का रखवाला और भरण-पोषण करने वाला बनाया गया है और वह क़ानून, उत्पादन तथा प्रतिरक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक कार्यों के लिए है। महिला जो कमज़ोर, निर्भर और दब्बू है, उसे पुरुष की सुरक्षा की आवश्यकता है। उसका क्षेत्र घर, बच्चों की देखभाल और परिवार का पालन-पोषण है…।

‘क्या हमें कोई और प्रमाण चाहिए कि इन भेदों के बाद, लिंगों में बराबरी केवल परिवार के मेल-मिलाप और गरिमा को खतरे में डाल देगी?’

लुइज्जे ऑटो-पीटर्स (1819-95) एक राजनैतिक कार्यकर्ता थी जिसने महिलाओं की पत्रिका और तत्पश्चात एक नारीवादी राजनीतिक संगठन की स्थापना की। उसके अखबार (21 अप्रैल, 1849) के प्रथम अंक में निम्नलिखित संपादकीय छपाः आइए हम यह पूछें कि कितने पुरुष जो स्वतंत्रता के लिए जीने-मरने के विचारों से ओत-प्रोत हैं, सभी लोगों, सभी इनसानों की आज़ादी के लिए तैयार होंगे? जब उनसे यह प्रश्न पूछा जाएगा, वे बड़ी आसानी से जवाब देंगे। “हाँ!” हालाँकि उनके अथक प्रयास केवल आधी मानवजाति के फायदे के लिए हैं यानी पुरुष। मगर स्वतंत्रता तो अविभाज्य है। अतः स्वतंत्र पुरुषों को परतंत्रता से घिरे रहना मंजूर नहीं होना चाहिए…।

उसी अखबार के एक अनाम पाठक ने 25 जून, 1850 को संपादक को निम्नलिखित पत्र भेजा-

‘महिलाओं को राजनैतिक अधिकारों से वंचित रखना वाक़ई बेतुका और अविवेकपूर्ण है जबकि उन्हें संपत्ति का अधिकार है जिसका वे इस्तेमाल करती हैं और जिम्मेदारियाँ भी उठाती हैं हालाँकि उन्हें वे लाभ नहीं मिलते जो उसी के लिए पुरुषों को मिलते हैं.. यह अन्याय क्यों? क्या यह लज्जा की बात नहीं कि सबसे मूर्ख मवेशी-पालक को मत देने का अधिकार सिर्फ इसलिए है क्योंकि वह एक पुरुष है जबकि अत्यंत क़ाबिल महिलाओं को. जो काफी संपत्ति की मालकिन होती हैं, इसी हक़ से वंचित रखा जाता है यद्यपि वे राज्य के रख-रखाव में इतना ज्यादा योगदान देती हैं।’

4. जर्मनी और इटली का निर्माण

4.1 जर्मनी-क्या सेना राष्ट्र की निर्माता हो सकती है?

1848 के बाद यूरोप में राष्ट्रवाद का जनतंत्र और क्रांति से अलगाव होने लगा। राज्य की सत्ता को बढ़ाने और पूरे यूरोप पर राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करने के लिए रूढ़िवादियों ने अकसर राष्ट्रवादी भावनाओं का इस्तेमाल किया।

इसे उस प्रक्रिया में देखा जा सकता है जिससे जर्मनी और इटली एकीकृत होकर राष्ट्र-राज्य बने। जैसा आपने देखा है, राष्ट्रवादी भावनाएँ मध्यवर्गीय जर्मन लोगों में काफ़ी व्याप्त थीं और उन्होंने 1848 में जर्मन महासंघ के विभिन्न इलाक़ों को जोड़ कर एक निर्वाचित संसद द्वारा शासित राष्ट्र-राज्य बनाने का प्रयास किया था। मगर राष्ट्र निर्माण की यह उदारवादी पहल राजशाही और फ़ौज की ताक़त ने मिलकर दबा दी। उनका प्रशा के बड़े भूस्वामियों (Junkers) ने भी समर्थन किया। उसके पश्चात प्रशा ने राष्ट्रीय एकीकरण के आंदोलन का नेतृत्व सँभाल लिया। उसका प्रमुख मंत्री, ऑटो वॉन बिस्मार्क इस प्रक्रिया का जनक था जिसने प्रशा की सेना और नौकरशाही की मदद ली। सात वर्ष के दौरान ऑस्ट्रिया, डेन्मार्क और फ्रांस से तीन युद्धों में प्रशा को जीत हुई और एकीकरण की प्रक्रिया पूरी हुई। जनवरी 1871 में, वर्साय में हुए एक समारोह में प्रशा के राजा विलियम प्रथम को जर्मनी का सम्राट घोषित किया गया।

चित्र 11 आन्तॉन वॉन वर्नर की कृति, वर्साय के हॉल ऑफ मिरर्स में जर्मन साम्राज्य की घोषणा।

18 जनवरी 1871 की सुबह बेहद ठंडी थी। जर्मन राज्यों के राजकुमारों, सेना के प्रतिनिधियों और प्रमुख मंत्री ऑटो वॉन बिस्मार्क समेत प्रशा के महत्त्वपूर्ण मंत्रियों की एक बैठक वर्साय के महल के बेहद ठंडे शीशमहल (हॉल ऑफ़ मिरर्स) में हुई। सभा ने प्रशा के काइज़र विलियम प्रथम के नेतृत्व में नए जर्मन साम्राज्य की घोषणा की।

जर्मनी में राष्ट्र निर्माण प्रक्रिया ने प्रशा राज्य की शक्ति के प्रभुत्व को दर्शाता था। नए राज्य ने जर्मनी की मुद्रा, बैकिंग और क़ानूनी तथा न्यायिक व्यवस्थाओं के आधुनिकीकरण पर काफ़ी ज़ोर दिया और प्रशा द्वारा उठाए क़दम और उसकी कार्रवाइयाँ बाक़ी जर्मनी के लिए अकसर एक मॉडल बना।

4.2 इटली

जर्मनी की तरह इटली में भी राजनीतिक विखंडन का एक लंबा इतिहास था। इटली अनेक वंशानुगत राज्यों तथा बहु-राष्ट्रीय हैब्सबर्ग साम्राज्य में बिखरा हुआ था। उन्नीसवीं सदी के मध्य में इटली सात राज्यों में बँटा हुआ था जिनमें से केवल एक सार्डिनिया पीडमॉण्ट में एक इतालवी राजघराने का शासन था। उत्तरी भाग ऑस्ट्रियाई हैब्सबर्गों के अधीन था, मध्य इलाकों पर पोप का शासन था और दक्षिणी क्षेत्र स्पेन के बूर्बो राजाओं के अधीन थे। इतालवी भाषा ने भी साझा रूप हासिल नहीं किया था और अभी तक उसके विविध क्षेत्रीय और स्थानीय रूप मौजूद थे।

चित्र 12- जर्मनी का एकीकरण (1866-71)

1830 के दशक में ज्युसेपे मेत्सिनी ने एकीकृत इतालवी गणराज्य के लिए एक सुविचारित कार्यक्रम प्रस्तुत करने की कोशिश की थी। उसने अपने उद्देश्यों के प्रसार के लिए यंग इटली नामक एक गुप्त संगठन भी बनाया था। 1831 और 1848 में क्रांतिकारी विद्रोहों की असफलता से युद्ध के ज़रिये इतालवी राज्यों को जोड़ने की ज़िम्मेदारी सार्डिनिया-पीडमॉण्ट के शासक विक्टर इमेनुएल द्वितीय पर आ गई। इस क्षेत्र के शासक अभिजात वर्ग की नज़रों में एकीकृत इटली उनके लिए आर्थिक विकास और राजनीतिक प्रभुत्व की संभावनाएँ उत्पन्न करता था। मंत्री प्रमुख कावूर, जिसने इटली के प्रदेशों को एकीकृत करने वाले आंदोलन का नेतृत्व किया, न तो एक क्रांतिकारी था और न ही जनतंत्र में विश्वास रखने वाला। इतालवी अभिजात वर्ग के तमाम अमीर और शिक्षित सदस्यों की तरह वह इतालवी भाषा से कहीं बेहतर फ्रेंच बोलता था। फ्रांस से सार्डिनिया-पीडमॉण्ट की एक चतुर कूटनीतिक संधि, जिसके पीछे कावूर का हाथ था, से सार्डिनिया-पीडमॉण्ट 1859 में ऑस्ट्रियाई बलों को हरा पाने में कामयाब हुआ।

चित्र 13 – व्यंग्यचित्र: जर्मन राइखस्टैग (संसद) में ऑटो वॉन बिस्मार्क, फ़िगारो से, वियना, 5 मार्च 1870

नियमित सैनिकों के अलावा ज्युसेपे गैरीबॉल्डी के नेतृत्व में भारी संख्या में सशस्त्र स्वयंसेवकों ने इस युद्ध में हिस्सा लिया। 1860 में वे दक्षिण इटली और दो सिसिलियों के राज्य में प्रवेश कर गए और स्पेनी शासकों को हटाने के लिए स्थानीय किसानों का समर्थन पाने में सफल रहे। 1861 में इमेनुएल द्वितीय को एकीकृत इटली का राजा घोषित किया गया। मगर, इटली के अधिकांश निवासी जिनमें निरक्षरता की दर काफ़ी ऊँची थी, अभी भी उदारवादी-राष्ट्रवादी विचारधारा से अनजान थे। दक्षिणी इटली में जिन आम किसानों ने गैरीबॉल्डी को समर्थन दिया था, उन्होंने इटालिया (Italia) के बारे में कभी सुना ही नहीं था और वे मानते थे कि ला टालिया (La Talta) विक्टर इमेनुएल की पत्नी थी।

4.3 ब्रिटेन की अजीब दास्तान

कुछ विद्वानों ने तर्क दिया है कि राष्ट्र या राष्ट्र-राज्य का मॉडल या आदर्श ग्रेट ब्रिटेन है। ब्रिटेन में राष्ट्र-राज्य का निर्माण अचानक हुई कोई उथल-पुथल या क्रांति का परिणाम नहीं था। यह एक लंबी चलने वाली प्रक्रिया का नतीजा था। अठारहवीं सदी के पहले ब्रितानी राष्ट्र था ही नहीं। ब्रितानी द्वीपसमूह में रहने वाले लोगों-अंग्रेज़, वेल्श, स्कॉट या आयरिश की मुख्य पहचान नृजातीय (Ethnic) थी। इन सभी जातीय समूहों की अपनी सांस्कृतिक और राजनीतिक परंपराएँ थीं।

चित्र 14 (क) एकीकरण से पूर्व इटली के राज्य, 1858

लेकिन जैसे-जैसे आंग्ल राष्ट्र की धन-दौलत, अहमियत और सत्ता में वृद्धि हुई वह द्वीपसमूह के अन्य राष्ट्रों पर अपना प्रभुत्व बढ़ाने में सफल हुआ। एक लंबे टकराव और संघर्ष के बाद आंग्ल संसद ने 1688 में राजतंत्र से ताक़त छीन ली थी। इस संसद के माध्यम से एक राष्ट्र राज्य का निर्माण हुआ जिसके केंद्र में इंग्लैंड था। इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के बीच ऐक्ट ऑफ़ यूनियन (1707) से ‘यूनाइटेड किंग्डम ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन’ का गठन हुआ। इससे इंग्लैंड, व्यवहार में स्कॉटलैंड पर अपना प्रभुत्व जमा पाया। इसके बाद ब्रितानी संसद में आंग्ल सदस्यों का दबदबा रहा। एक ब्रितानी पहचान के विकास का अर्थ यह हुआ कि स्कॉटलैंड की खास संस्कृति और राजनीतिक संस्थानों को योजनाबद्ध तरीके से दबाया गया। स्कॉटिश हाइलैंड्स के निवासी जिन कैथलिक कुलों ने जब भी अपनी आज़ादी को व्यक्त करने का प्रयास किया उन्हें जबरदस्त दमन का सामना करना पड़ा। स्कॉटिश हाइलैंड्स के लोगों को अपनी गेलिक भाषा बोलने या अपनी राष्ट्रीय पोशाक पहनने की मनाही थी। उनमें से बहुत सारे लोगों को अपना वतन छोड़ने पर मजबूर किया गया।

आयरलैंड का भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ। वह देश कैथलिक और प्रोटेस्टेंट धार्मिक गुटों में गहराई में बँटा हुआ था। अंग्रेजों ने आयरलैंड में प्रोटेस्टेंट धर्म मानने वालों को बहुसंख्यक कैथलिक देश पर प्रभुत्व बढ़ाने में सहायता की। ब्रितानी प्रभाव के विरुद्ध हुए कैथलिक विद्रोहों को निर्ममता से कुचल दिया गया। वोल्फ़ टोन और उसकी यूनाइटेड आयरिशमेन (1798) की अगुवाई में हुए असफल विद्रोह के बाद 1801 में आयरलैंड को बलपूर्वक यूनाइटेड किंग्डम में शामिल कर लिया गया। एक नए ‘ब्रितानी राष्ट्र’ का निर्माण किया गया जिस पर हावी आंग्ल संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया गया। नए ब्रिटेन के प्रतीक चिह्नों, ब्रितानी झंडा (यूनियन जैक) और राष्ट्रीय गान (गॉड सेव अवर नोबल किंग) को खूब बढ़ावा दिया गया और पुराने राष्ट्र इस संघ में मातहत सहयोगी के रूप में ही रह पाए।

5. राष्ट्र की दृश्य-कल्पना

किसी शासक को एक चित्र या मूर्ति के रूप में अभिव्यक्त करना आसान है किंतु एक राष्ट्र को चेहरा कैसे दिया जा सकता है? अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में कलाकारों ने राष्ट्र का मानवीकरण करके इस प्रश्न को हल किया। दूसरे शब्दों में, उन्होंने एक देश को कुछ यूँ चित्रित किया जैसे वह कोई व्यक्ति हो। उस समय राष्ट्रों को नारी भेष में प्रस्तुत किया जाता था। राष्ट्र को व्यक्ति का जामा पहनाते हुए जिस नारी रूप को चुना गया वह असल जीवन में कोई खास महिला नहीं थी। यह तो राष्ट्र के अमूर्त विचार को ठोस रूप प्रदान करने का प्रयास था। यानी नारी की छवि राष्ट्र का रूपक बन गई।

चित्र 16 – 1850 का डाक टिकट । इसमें मारीआन की तसवीर बनाई गई है जो फ़्रांसीसी गणराज्य का प्रतिनिधित्व करती है।

आपको याद होगा कि फ़्रांसीसी क्रांति के दौरान कलाकारों ने स्वतंत्रता, न्याय और गणतंत्र जैसे विचारों को व्यक्त करने के लिए नारी रूपक का प्रयोग किया। इन आदर्शों को विशेष वस्तुओं या प्रतीकों से व्यक्त किया गया था। जैसा कि आपको याद होगा स्वतंत्रता का प्रतीक लाल टोपी या टूटी जंजीर है और इंसाफ़ को आमतौर पर एक ऐसी महिला के प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त किया जाता है जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी हुई है और वह तराजू लिए हुए है।

चित्र 17 – जर्मेनिया, चित्रकार फिलिप बेट, 1848 

चित्रकार ने जर्मेनिया के इस चित्र को सूती झंडे पर बनाया चूँकि इसे सेंट पॉल चर्च की छत से लटकना था और जहाँ मार्च 1848 में फ्रैंकफर्ट संसद बुलाई गई।

इसी प्रकार के नारी रूपकों का आविष्कार कलाकारों ने उन्नीसवीं सदी में किया। फ्रांस में उसे लोकप्रिय ईसाई नाम मारीआन दिया गया जिसने जन-राष्ट्र के विचार को रेखांकित किया। उसके चिह्न भी स्वतंत्रता और गणतंत्र के थे लाल टोपी, तिरंगा और कलगी। मारीआन की प्रतिमाएँ सार्वजनिक चौकों पर लगाई गईं ताकि जनता को एकता के राष्ट्रीय प्रतीक की याद आती रहे और लोग उससे तादात्म्य स्थापित कर सकें। मारीआन की छवि सिक्कों और डाक टिकटों पर अंकित की गई। इसी तरह जर्मेनिया, जर्मन राष्ट्र का रूपक बन गई। चाक्षुष अभिव्यक्तियों में जर्मेनिया बलूत वृक्ष के पत्तों का मुकुट पहनती है क्योंकि जर्मन बलूत वीरता का प्रतीक है।

गतिविधि

बॉक्स 3 में दिए गए चार्ट की सहायता से वेइत की जर्मेनिया के गुणों को पहचानें और तसवीर के प्रतीकात्मक अर्थ की व्याख्या करें। 1836 की एक पुरानी रूपकात्मक तसवीर में वेइत ने काइज़र के मुकुट को उस जगह चित्रित किया था जहाँ अब उन्होंने टूटी हुई बेड़ियाँ दिखायी हैं। इस बदलाव का महत्त्व स्पष्ट करें।

चित्र 18 ‘द फ़ॉलेन जर्मेनिया’ (हताश जर्मेनिया), जूलियस ह्यूबनर, 1850

गतिविधि

बताएँ कि चित्र 18 में आपको क्या दिखायी पड़ रहा है। राष्ट्र के इस रूपकात्मक चित्रण में हृाबनर किन ऐतिहासिक घटनाओं की ओर संकेत कर रहे हैं?

चित्र 19 जर्मेनिया गार्डिंग द राइन (राइन नदी पर पहरा देती जर्मेनिया)। 

गतिविधि

चित्र 10 को एक बार फिर देखें। कल्पना करें की आप मार्च 1548 में फ्रैंकफर्ट के नागरिक हैं और संसद की कार्रवाई के समय कहाँ मौजूर हैं। यदि आप हॉल ऑफ डेप्यूटीज में बैठे हुए पुरुष होते तो दीवार पर लगे जनैनिया के बैनर को देखकर क्या महसूस करते? और अगर आप हॉल ऑफ प्यूरीन में बैठी महिला होती तो इस चित्र को देखकर क्या महसूस करती? दोनों भाव लिखें।

6. राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद

उन्नीसवीं सदी की अंतिम चौथाई तक राष्ट्रवाद का वह आदर्शवादी उदारवादी-जनतांत्रिक स्वभाव नहीं रहा जो सदी के प्रथम भाग में था। अब राष्ट्रवाद सीमित लक्ष्यों वाला संकीर्ण सिद्धांत बन गया। इस बीच के दौर में राष्ट्रवादी समूह एक-दूसरे के प्रति अनुदार होते चले गए और लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। साथ ही प्रमुख यूरोपीय शक्तियों ने भी अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अधीन लोगों की राष्ट्रवादी आकांक्षाओं का इस्तेमाल किया।

1871 के बाद यूरोप में गंभीर राष्ट्रवादी तनाव का स्त्रोत बाल्कन क्षेत्र था। इस क्षेत्र में भौगोलिक और जातीय भिन्नता थी। इसमें आधुनिक रोमानिया, बुल्गेरिया, अल्बेनिया, यूनान, मेसिडोनिया, क्रोएशिया, बोस्निया-हर्जेगोविना, स्लोवेनिया, सर्बिया और मॉन्टिनिग्रो शामिल थे। क्षेत्र के निवासियों को आमतौर पर स्लाव पुकारा जाता था। बाल्कन क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा ऑटोमन साम्राज्य के नियंत्रण में था। बाल्कन क्षेत्र में रूमानी राष्ट्रवाद के विचारों के फैलने और ऑटोमन साम्राज्य के विघटन से स्थिति काफ़ी विस्फोटक हो गई। उन्नीसवीं सदी में ऑटोमन साम्राज्य ने आधुनिकीकरण और आंतरिक सुधारों के जरिए मजबूत बनना चाहा था किंतु इसमें इसे बहुत कम सफलता मिली। एक के बाद एक उसके अधीन यूरोपीय राष्ट्रीयताएँ उसके चंगुल से निकल कर स्वतंत्रता की घोषणा करने लगीं। बाल्कन लोगों ने आज़ादी या राजनीतिक अधिकारों के अपने दावों को राष्ट्रीयता का आधार दिया। उन्होंने इतिहास का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए किया कि वे कभी स्वतंत्र थे किंतु तत्पश्चात विदेशी शक्तियों ने उन्हें अधीन कर लिया। अतः बाल्कन क्षेत्र के विद्रोही राष्ट्रीय समूहों ने अपने संघर्षों को लंबे समय से खोई आज़ादी को वापस पाने के प्रयासों के रूप में देखा।

जैसे-जैसे विभिन्न स्लाव राष्ट्रीय समूहों ने अपनी पहचान और स्वतंत्रता की परिभाषा तय करने की कोशिश की, बाल्कन क्षेत्र गहरे टकराव का क्षेत्र बन गया। बाल्कन राज्य एक-दूसरे से भारी ईर्ष्या करते थे और हर एक राज्य अपने लिए ज़्यादा से ज़्यादा इलाका हथियाने की उम्मीद रखता था। परिस्थितियाँ और अधिक जटिल इसलिए हो गईं क्योंकि बाल्कन क्षेत्र में बड़ी शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा होने लगी। इस समय यूरोपीय शक्तियों के बीच व्यापार, और उपनिवेशों के साथ नौसैनिक और सैन्य ताक़त के लिए गहरी प्रतिस्पर्धा थी। जिस तरह बाल्कन समस्या आगे बढ़ी उसमें यह प्रतिस्पर्धाएँ खुल कर सामने आईं। रूस, जर्मनी, इंग्लैंड, ऑस्ट्रो-हंगरी की हर ताक़त बाल्कन पर अन्य शक्तियों की पकड़ को कमज़ोर करके क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाना चाहती थीं। इससे इस इलाके में कई युद्ध हुए और अंततः प्रथम विश्व युद्ध हुआ।

चित्र 20 ब्रिटिश साम्राज्य का यशगान करता एक मानचित्र।
सबसे ऊपर फ़रिश्ते स्वतंत्रता का बैनर थामे दिखायी देते हैं। अग्रभास में ब्रिटिश राष्ट्र का प्रतीक ब्रितानिया विजयभाव के साथ भूमंडल के ऊपर बैठा है। उपनिवेशों को शेर, हाथी, वन और आदिम समुदायों की छवियों के जरिए दर्शाया गया है। दुनिया पर प्रभुत्व को ब्रिटिश राष्ट्रीय गौरव का विषय बताया गया है।।

साम्राज्यवाद से जुड़ कर राष्ट्रवाद 1914 में यूरोप को महाविपदा की ओर ले गया। लेकिन इस बीच विश्व के अनेक देशों ने जिनका उन्नीसवीं सदी में यूरोपीय शक्तियों ने औपनिवेशीकरण किया था, साम्राज्यवादी प्रभुत्व का विरोध करने लगे। हर तरफ जो साम्राज्य विरोधी आंदोलन विकसित हुए इस अर्थ में राष्ट्रवादी थे कि वे सभी स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य का निर्माण करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। वे सभी एक सामूहिक राष्ट्रीय एकता की भावना से प्रेरित थे जो साम्राज्यवाद विरोध की प्रक्रिया में उभरी। राष्ट्रवाद के यूरोपीय विचार कहीं और नहीं दोहराए गए क्योंकि हर जगह लोगों ने अपनी तरह का विशिष्ट राष्ट्रवाद विकसित किया। मगर यह विचार कि समाजों को ‘राष्ट्र-राज्यों’ में गठित किया जाना चाहिए, अब स्वाभाविक और सार्वभौम मान लिया गया।

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संक्षेप में लिखें

1. निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखें-

(क) ज्युसेपे मेत्सिनी
Ans.
वह इटली का एक क्रांतिकारी था। इसका जन्म 1807 में जेनोआ में हुआ था और वह कार्बोनारी के गुप्त संगठन का सदस्य बन गया। 24 वर्ष की अवस्था में लिगुरिया में क्रांति करने के लिए उसे देश से बहिष्कृत कर दिया गया। तत्पश्चात् इसने दो और भूमिगत संगठनों की स्थापना की। पहला था मार्सेई में यंग इटली और दूसरा बर्न में यंग यूरोप, जिसके सदस्य पोलैंड, फ्रांस, इटली और जर्मन राज्यों में समान विचार रखनेवाले युवा थे। मेत्सिनी का विश्वास था कि ईश्वर की मर्जी के अनुसार राष्ट्र ही मनुष्यों की प्राकृतिक इकाई थी। अतः इटली का एकीकरण ही इटली की मुक्ति का आधार हो सकता था। उसने राजतंत्र का घोर विरोध किया और उसके मॉडल पर जर्मनी, पोलैंड, फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड में भी गुप्त संगठन बने। इसी कारण मैटरनिख ने उसके विषय में कहा कि वह हमारी सामाजिक व्यवस्था का सबसे खतरनाक दुश्मन’ है।

(ख) काउंट कैमिलो दे कावूर
Ans.
काउंट कैमिलो दे कावूर इटली में मंत्री प्रमुख था, जिसने इटली के प्रदेशों को एकीकृत करनेवाले आंदोलन का नेतृत्व किया। वैचारिक तौर पर न तो वह क्रांतिकारी था और न ही जनतंत्र में विश्वास रखनेवाला । इतालवी अभिजात वर्ग के तमाम अमीर और शिक्षित सदस्यों की तरह वह इतालवी भाषा से कहीं बेहतर फ्रेंच बोलता था। अतः इटली के सम्राट विक्टर इमेनुएल ने उसे 1852 को सार्डिनिया-पीडमॉण्ट का प्रधानमंत्री बना । उसने यहाँ पर आर्थिक, शैक्षिक कृषि के विकास के लिए कार्य किए तथा सेना में सुधार किया। उसने फ्रांस व सार्डिनिया पीडमॉण्ट के बीच एक कूटनीतिक संधि की। अपनी इन कूटनीतिक चालों के कारण उसने इटली की समस्याओं की तरफ यूरोपीय देशों का ध्यान आकर्षित किया। 6 जून 1861 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। फिर भी वह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल रहा जिनके कारण 18 फरवरी 1861 ई० में इटली की संसद ने विक्टर इमेनुएल को ‘इटली का सम्राट’ घोषित किया तथा इटली का एकीकरण संभव हुआ। सार्डिनिया-पीडमॉण्ट 1859 में आस्ट्रियाई बलों को हरा पाने में कामयाब हुआ।

(ग) यूनानी स्वतंत्रता युद्ध
Ans.
यूनानी स्वतंत्रता युद्ध ने पूरे यूरोप के शिक्षित अभिजात वर्ग में राष्ट्रीय भावनाओं का संचार किया। 15वीं सदी से यूनान ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। यूरोप में क्रांतिकारी राष्ट्रवाद की प्रगति से यूनानियों को आजादी के लिए संघर्ष 1821 में आरंभ हो गया। यूनान में राष्ट्रवादियों को निर्वासन में रह रहे यूनानियों के साथ पश्चिमी यूरोप के अनेक लोगों का भी समर्थन मिला जो प्राचीन यूनानी संस्कृति के प्रति सहानुभूति रखते थे। कवियों और कलाकारों ने यूनान को ‘यूरोपीय सभ्यता का पालना’ बताकर प्रशंसा की और एक मुस्लिम साम्राज्य के विरुद्ध यूनान के संघर्ष के लिए जनमत जुटाया। अंग्रेज़ कवि लार्ड बायरन ने धन एकत्रित किया और बाद में युद्ध लड़ने भी गए, जहाँ 1824 में बुखार से उनकी मृत्यु हो गई। अंतत: 1832 की कुस्तुनतुनिया की संधि ने यूनान को एक स्वतंत्र राष्ट्र की मान्यता दी।

(घ) फ्रैंकफर्ट संसद
Ans.
जर्मन इलाकों में बड़ी संख्या में राजनीतिक संगठनों ने फ्रैंकफर्ट शहर में मिलकर एक सर्व-जर्मन नेशनल एसेंब्ली के पक्ष में मतदान का फैसला किया। 18 मई, 1848 को, 831 निर्वाचित प्रतिनिधियों ने एक सजेधजे जुलूस में जाकर फ्रैंकफर्ट संसद में अपना स्थान ग्रहण किया। यह संसद सेंट पॉल चर्च में आयोजित हुई। उन्होंने एक जर्मन राष्ट्र के लिए एक संविधान का प्रारूप तैयार किया। इस राष्ट्र की अध्यक्षता एक ऐसे राजा को सौंपी गई जिसे संसद के अधीन रहना था। जब प्रतिनिधियों ने प्रशा के राजा फ्रेडरीख विल्हेम चतुर्थ को ताज । पहनाने की पेशकश की तो उसने उसे अस्वीकार कर उन राजाओं का साथ दिया जो निर्वाचित सभा के विरोधी थे। इस प्रकार जहाँ कुलीन वर्ग और सेना का विरोध बढ़ गया, वहीं संसद का सामाजिक आधार कमजोर हो गया। संसद में मध्यम वर्गों का प्रभाव अधिक था, जिन्होंने मजदूरों और कारीगरों की माँगों का विरोध किया, जिससे वे उनका समर्थन खो बैठे। अंत में प्रशो के राजा के इंकार के कारण फ्रेंकफर्ट संसद के सभी निर्णय स्वतः समाप्त हो गए, जिससे उदारवादियों व राष्ट्रवादियों में निराशा हुई। प्रशा के सैनिकों ने क्रांतिकारियों को कुचल दिया जिससे यह संसद भंग हो गई।

(ङ) राष्ट्रवादी संघर्षों में महिलाओं की भूमिका
Ans.
राष्ट्रवादी संघर्षों के वर्षों में बड़ी संख्या में महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। महिलाओं ने अपने राजनीतिक संगठन स्थापित किए, अखबार शुरू किए और राजनीतिक बैठकों और प्रदर्शनों में भाग लिया। इसके बावजूद उन्हें एसेंब्ली के चुनाव के दौरान मताधिकार से वंचित रखा गया। था। जब सेंट पॉल चर्च में फ्रैंकफर्ट संसद की सभा आयोजित की गई थी तब महिलाओं को केवल प्रेक्षकों की हैसियत से दर्शक दीर्घा में खड़े होने दिया गया।

2. फ्रांसीसी लोगों के बीच सामूहिक पहचान का भाव पैदा करने के लिए फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने क्या कदम  उठाएं?
Ans.
प्रारंभ से ही फ्रांसीसी क्रांतिकारियों ने ऐसे अनेक कदम उठाए, जिनसे फ्रांसीसी लोगों में एक सामूहिक पहचान की भावना उत्पन्न हो सकती थी। ये कदम निम्नलिखित थे

  1. पितृभूमि और नागरिक जैसे विचारों ने एक संयुक्त समुदाय के विचार पर बल दिया, जिसे एक संविधान के अंतर्गत समान अधिकार प्राप्त थे।
  2. एक नया फ्रांसीसी झंडा चुना गया, जिसने पहले के राष्ट्रध्वज की जगह ले ली।
  3. इस्टेट जेनरल का चुनाव सक्रिय नागरिकों के समूह द्वारा किया जाने लगा और उसका नाम बदलकर नेशनल एसेंब्ली | कर दिया गया।
  4. नई स्तुतियाँ रची गईं, शपथे ली गईं, शहीदों का गुणगान हुआ और यह सब राष्ट्र के नाम पर हुआ।
  5. एक केंद्रीय प्रशासनिक व्यवस्था लागू की गई, जिसने अपने भू-भाग में रहनेवाले सभी नागरिकों के लिए समान कानून बनाए।
  6. आंतरिक आयात-निर्यात शुल्क समाप्त कर दिए गए और भार तथा नापने की एक समान व्यवस्था लागू की गई।
  7. क्षेत्रिय बोलियों को हतोत्साहित किया गया और पेरिस में फ्रेंच जैसी बोली और लिखी जाती थी, वही राष्ट्र की साझा भाषा बन गई।

3. मारीआन और जर्मेनिया कौन थे? जिस तरह उन्हें चित्रित किया गया उसका क्या महत्त्व था?
Ans.
 फ्रांसीसी क्रांति के समय कलाकारों ने स्वतंत्रता, न्याय और गणतंत्र जैसे विचारों को व्यक्त करने के लिए नारी प्रतीकों का सहारा लिया इनमें मारीआन और जर्मेनिया अत्यधिक प्रसिद्ध हैं।

  • मारीआन – यह लोकप्रिय ईसाई नाम है। अतः फ्रांस ने अपने स्वतंत्रता के नारी प्रतीक को यही नाम दिया। यह छवि जन राष्ट्र के विचार का प्रतीक थी। इसके चिह्न स्वतंत्रता व गणतंत्र के प्रतीक लाल टोपी, तिरंगा और कलगी थे। मारीआन । की प्रतिमाएँ सार्वजनिक चौराहों और अन्य महत्त्वपूर्ण स्थानों पर लगाई गई ताकि जनता को राष्ट्रीय एकता के राष्ट्रीय प्रतीक की याद आती रहे और वह उससे अपनी तादात्मय (तालमेल) स्थापित कर सके। मारीआन की छवि सिक्कों व डाक टिकटों पर अंकित की गई थी।
  • जर्मेनिया – यह जर्मन राष्ट्र की नारी रूपक थी। चाक्षुष अभिव्यक्तियों में वह बलूत वृक्ष के पत्तों को मुकुट पहनती है। क्योंकि जर्मनी में बलूत वीरता का प्रतीक है। उसने हाथ में जो तलवार पकड़ी हुई थी उस पर यह लिखा हुआ है “जर्मन तलवार जर्मन राइन की रक्षा करती है। इस प्रकार जर्मेनिया, जर्मनी में स्वतंत्रता, न्याय और गणतंत्र की प्रतीक बन कर उभरी एक नारी छवि थी।

4. जर्मन एकीकरण की प्रक्रिया का संक्षेप में पता लगाएँ।
Ans.
1848 में जर्मन के वे उदारवादी जो राष्ट्रीयवादी भावनाओं से ओत-प्रोत थे, उन्होंने प्रयास किया की जर्मन महासंघ के विभिन्न इलाकों को जोड़कर एक निर्वाचित संसद द्वारा शासित राष्ट्र-राज्य बनाए। लेकिन फ़ौज की ताकतों से उदारवादियों की यह कोशिश बेकार हो गई। उनका प्रशा के बड़े भूस्वामियों ने भी समर्थन किया।उसके बाद प्रशा ने राष्ट्रीय एकीकरण के आंदोलन का नेतृत्व संभाला। प्रशा के मुख्यमंत्री ऑटोवॉन विस्मार्क प्रशा सेना और नौकरशाही की सहायता से सात वर्षों के द्वारा ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और फ्रांस को युद्ध में हराया। जनवरी 1871 में, वर्साय में एक समारोह में प्रशा के राजा विलियम प्रथम को जर्मनी का सम्राट घोषित किया। इस तरह जर्मन एकीकरण की प्रक्रिया पूरी हुई।

अथवा

जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण चरण इस प्रकार हैं –

  1. जर्मनी एकीकरण की माँग के दौरान संविधान, प्रेस की स्वतंत्रता और संगठन बनाने की आज़ादी जैसे सिद्धांतों का विकास हुआ।
  2. संसदीय व्यवस्था स्थापित करने की पृष्ठभूमि तैयार की जाने लगी।
  3. जर्मन लोगों में 1848 ई० से ही राष्ट्रीय भावना जागृत हो गई थी। इसमें यहाँ के मध्यम वर्ग का योगदान अधिक है।
  4. उदारवादी विचारधारा के लोगों ने राजशाही और फौजों का कड़ा मुकाबला किया जिसमें वे सफल भी हुए।
  5. इस प्रक्रिया में प्रशा के बड़े भू-स्वामियों ने भी अपना पूर्ण सहयोग दिया।
  6. प्रशा ने इस राष्ट्रीय एकीकरण आंदोलन का नेतृत्व संभाला और उसे नया स्वरूप और नई दिशा प्रदान की।
  7. इस प्रक्रिया के जनक प्रशा के प्रधानमंत्री ऑटो वॉन बिस्मार्क थे। इसमें उन्होंने प्रशा की सेना और नौकरशाही की मदद की।
  8. इस प्रक्रिया में प्रशा ने ऑस्ट्रिया, डेनमार्क और फ्रांस से भी युद्ध किए तथा सफलता प्राप्त की।
  9. 18 जनवरी 1871 ई० में, वर्साय में प्रशा के राजा काइज़र विलियम प्रथम को जर्मनी का सम्राट घोषित किया गया | जिससे जर्मनी के एकीकरण की प्रक्रिया और अधिक सरल हो गई।
  10. वर्साय के महल के शीशमहल (हॉल ऑफ मिरर्स) में जर्मन राजकुमारों, सेना के प्रतिनिधियों और प्रमुख मंत्री बिस्मार्क ने जर्मन सम्राट काइज़र विलियम प्रथम के नेतृत्व में नवीन जर्मन साम्राज्य निर्माण की महत्त्वपूर्ण घोषणा की।
  11. इस प्रकार जर्मन राष्ट्र का एकीकरण हुआ।
  12. इस प्रक्रिया में प्रशा राज्य एक प्रमुख शक्ति का केन्द्र बना।

5. अपने शासन वाले क्षेत्रों में शासन व्यवस्था को ज्यादा कुशल बनाने के लिए नेपोलियन ने क्या बदलाव किए?
Ans.
नेपोलियन के नियंत्रण में जो क्षेत्र आया वहाँ उसने अनेक सुधारों की शुरुआत की। उनके द्वारा किए गए सुधार निम्नलिखित थे

  1. प्राचीन सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक व्यवस्था को नष्ट किया गया।
  2. सामाजिक समानता स्थापित करने के लिए निम्न व उच्च वर्ग के भेद को खत्म किया गया।
  3. 1804 की नेपोलियन संहिता ने जन्म पर आधारित विशेषाधिकार समाप्त कर दिए थे। उसने कानून के समक्ष समानता और संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित बनाया।
  4. समान कर प्रणाली लागू की गई। प्रतिष्ठा मंडल की स्थापना करके विद्वानों, कलाकारों व देशभक्तों को सम्मानित किया गया।
  5. डच गणतंत्र, स्विट्जरलैंड, इटली और जर्मनी में नेपोलियन ने प्रशासनिक विभाजनों को सरल बनाया।
  6. सामंती व्यवस्था को खत्म किया और किसानों को भू-दासत्व और जागीरदारी शुल्कों से मुक्ति दिलाई।
  7. शहरों में कारीगरों के श्रेणी संघों के नियंत्रणों को हटा दिया गया। यातायात और संचार व्यवस्थाओं को सुधारा गया।
  8. आर्थिक सुधार करने के उद्देश्य से बैंक ऑफ फ्रांस’ की स्थापना की गई।
  9. उसने दंड विधान को कठोर बनाया तथा जूरी प्रथा व मुद्रित पत्रों को पुनः प्रारंभ किया।
  10. शिक्षा की उन्नति के लिए यूनिर्वसिटी ऑफ फ्रांस की स्थापना की, जहाँ लैटिन, फ्रेंच भाषा, साधारण विज्ञान व गणित की मुख्य तौर पर शिक्षा दी जाती थी।
  11. कैथोलिक धर्म को राजधर्म बनाया। इस प्रकार किसानों, कारीगरों, मजदूरों और नए उद्योगपतियों ने नई-नई मिली आजादी को चखा।

चर्चा करें

1. उदारवादियों को 1848 की क्रांति का क्या अर्थ लगाया जाता है? उदारवादियों ने किन राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक विचारों को बढ़ावा दिया?
Ans.
उदारवादियों की 1848 की क्रांति वास्तव में तब हुई जब कई यूरोपीय देशों में बेरोजगारी, भूखमरी तथा गरीबी का वातावरण था। इस क्रांति को लाने में मध्यम वर्ग का बहुत बड़ा योगदान था, जिस कारण सभी देशों में कई व्यापक परिवर्तन हुए। इनमें प्रमुख राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन इस प्रकार हैं :-

राजनैतिक क्षेत्र में परिवर्तन

  1. राजतंत्र का अंत करके गणतंत्र की स्थापना की गई।
  2. सार्वजनिक मताधिकार के आधार पर निर्मित जन-प्रतिनिधि सभाओं के निर्माण के प्रयास आरंभ हुए।
  3. जर्मनी, इटली, पोलैंड, ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्यों में उदारवादी मध्यम वर्गों के स्त्री-पुरुषों ने संविधानवाद की माँग को राष्ट्रीय एकीकरण की माँग के साथ जोड़ा।
  4. उदारवादियों ने ऐसे राष्ट्र राज्यों के निर्माण की माँग पर जोर दिया जो संविधान, प्रेस की स्वतंत्रता और संगठन बनाने जैसे संसदीय सिद्धांतों पर आधारित हो।
  5. महिलाओं को राजनैतिक मताधिकार दिए जाने की माँग की जाने लगी।

सामाजिक क्षेत्र में परिवर्तन

  1. महिलाओं को पुरुषों के समान दर्जा दिया जाने लगा तथा उनकी सभी क्षेत्रों में भागीदारी को महत्त्व व सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा।
  2. कुलीन वर्ग की अपेक्षा मध्यम वर्ग के सभी क्षेत्रों (राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक) में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी जिससे कुलीन वर्ग की श्रेष्ठता कम हुई।

आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन

  1. मजदूरों और कारीगरों ने भी अपनी माँगों के लिए प्रदर्शन व आंदोलन का मार्ग अपनाया।
  2. भू-दासता और बंधुआ मजदूरी का अंत किया गया।
  3. बाज़ारों की मुक्ति, चीजों तथा पूँजी के स्वतंत्र आदान-प्रदान की माँग ने जोर पकड़ा ताकि व्यापारिक उन्नति के मार्ग खुलें।

2. यूरोप में राष्ट्रवाद के विकास में संस्कृति के योगदान को दर्शाने के लिए तीन उदाहरण दें।
Ans.
यूरोप में राष्ट्रवाद के विकास में संस्कृति के योगदान को दर्शाने के लिए तीन उदाहरण निम्नलिखित है:

(i) भाषा- भाषा ने पोलैंड में राष्ट्रवाद के विकास में में महत्पूर्ण भूमिका निभाई। पोलैंड में रूस के कब्जे वाले क्षेत्र में पोलिश भाषा बोलने पर सख्त रोक थी। पादरियों द्वारा रुसी भाषा बोलने से इंकार करने पर उन्हें सजा दी जाने लगी। इस प्रकार पोलिश भाषा रुसी प्रभुत्व के खिलाफ संघर्ष के प्रतीक के रूप में सामने आई।

(ii) लोक संस्कृति- जर्मन दार्शनिक योहना गॉटफ़्रीड हरडर धर्म यहां का मानना था कि सच्ची जर्मन संस्कृति उसके आम लोगों में निहित थी। उन्होंने लोक संगीत, लोक काव्य और लोकनृत्य के माध्यम से जर्मन राष्ट्र की भावना को प्रसारित किया।

(iii) संगीत- कैरोल कुर्पिसकी नाम के एक पोलिश नागरिक ने राष्ट्रीय संघर्ष में अपने औपेरा और संगीत का गुणगान किया तथा पोलेनेस और माजुरका जैसे लोक नृत्यों को राष्ट्रीय प्रतीकों में बदल दिया।

अथवा

राष्ट्रवाद के विकास में नवीन परिस्थितियों जैसे कि युद्ध, क्षेत्रीय विस्तार, शिक्षा आदि को जितना योगदान रहा है, उतना ही योगदान संस्कृति का भी रहा है। इसके कई उदाहरण हमें इतिहास में मिलते हैं। इसमें कुछ इस प्रकार हैं

  • फ्रेडरिक सॉरयू का युटोपिया-1848 ई० में फ्रांस के फ्रेडरिक सॉरयू ने चार चित्रों की एक श्रृंखला बनाई, जिसके
    द्वारा विश्वव्यापी प्रजातांत्रिक और सामाजिक गणराज्यों के स्वप्न को साकार रूप देने का प्रयास किया गया। उसने कल्पना पर आधारित आदर्श राज्य या समाज (यूटोपिया) को दर्शाया। इन चित्रों में सभी स्त्री, पुरुषों और बच्चों को स्वतंत्रता की प्रतिमा की वंदना करते हुए दिखाया गया है जिनके हाथों में मशाल व मानव के अधिकारों का घोषणापत्र है। इनमें उनकी पोशाकों को भी राष्ट्रीय आधार देने के लिए एक जैसी रखी गई तिरंगे झंडे, भाषा व राष्ट्रगान द्वारा भी राष्ट्र राज्य के रूप को प्रकट करने का प्रयास किया गया।
  • कार्लकैस्पर फ्रिट्ज़ का स्वतंत्रता के वृक्ष का रोपण-जर्मन चित्रकार कोर्लकैस्पर फ्रिट्ज ने स्वतंत्रता के वृक्ष का रोपण करते हुए एक चित्र बनाया है। इसकी पृष्ठभूमि में फ्रेंच सेनाओं को ज्वेब्रेकन राज्य पर कब्जा करते हुए दिखाया गया। इसमें फ्रांसीसी सैनिकों को नीली, सफेद व लाल पोशाकों में दिखाया गया है जो वहाँ के नागरिकों का दमन कर रहे हैं जैसे किसी किसान की गाड़ी छीन रहे हैं, कुछ महिलाओं को तंग कर रहे हैं या किसी को घुटने के बल बैठने पर मजबूर कर रहे हैं। अतः शोषितों द्वारा जो स्वतंत्रता का वृक्ष रोपते हुए दर्शाया गया है उस पर एक तख्ती लगी है जिस पर जर्मन में लिखा हुआ है-”हमसे आज़ादी और समानता ले लो-यह मानवता का आदर्श रूप है।” यह एक तरह से फ्रांसीसियों पर किया गया व्यंग्य था क्योंकि वे कहते थे कि वे जहाँ जाते हैं वहाँ राजतंत्र का अंत करके नई आदर्श व्यवस्था कायम करते हैं यानि वे मुक्तिदाता हैं।
  • यूजीन देलाक़ोआ की ‘द मसैकर ऐट किऑस’-फ्रांस के रूमानीवादी चित्रकार देलाक़ोआ ने एक चित्र बनाया था। इसमें उस घटना को चित्रित किया गया है जब तुर्को ने 20,000 यूनानियों को मार डाला था। इसे किऑस द्वीप कहा जाता है। इसमें महिलाओं व बच्चों की पीड़ा को केन्द्र बिंदु बनाया गया है जिसे चटकीले रंगों से रंगा गया है। ताकि देखने वालों की भावनाएं जागृत हों और उनके मन में यूनानियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो। इस प्रकार कलाकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रवाद को उभारा और संस्कृति का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

3. किनहीं दो देशों पर ध्यान केंद्रित करते हुए बताएँ कि उन्नीसवीं सदी में राष्ट्र किस प्रकार विकसित हुए।
Ans.
19वीं शताब्दी में लगभग पूरे यूरोप में राष्ट्रीयता का विकास हुआ जिस कारण राष्ट्र राज्यों का उदय हुआ। इनमें बेल्जियम व पोलैंड भी ऐसे ही देश थे। 1815 ई० में नेपोलियन की हार के बाद वियना संधि द्वारा बेल्जियम और पोलैंड को मनमाने तरीके से अन्य देशों के साथ जोड़ दिया गया। जिनका आधार यूरोपीय सरकारों की यह रूढ़िवादी विचारधारा थी कि राज्य व समाज की स्थापित पारंपरिक संस्थाएँ जैसे राजतंत्र, चर्च, सामाजिक ऊँच-नीच, संपत्ति और परिवार बने रहने चाहिए। इसका बेल्जियम व पोलैंड ने विरोध किया। अपने को स्वतंत्र राष्ट्र राज्य के रूप में स्थापित किया। इनका निर्माण इस प्रकार हुआ :-

  • बेल्जियम – वियना कांग्रेस द्वारा बेल्जियम को हॉलैंड के साथ मिला दिया गया। परंतु दोनों देशों में ईसाई धर्म के कट्टर । विरोधी मतानुयायी रहते थे। जहाँ बेल्जियम में कैथोलिक थे वहाँ हॉलैंड में प्रोटेस्टेंट। हॉलैंड का शासक भी हॉलैंड वासियों को बेल्जियमवासियों से श्रेष्ठ मानता था। अतः इस श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए उसने सभी स्कूलों में प्रोटेस्टेंट धर्म की शिक्षा देने की राजाज्ञा जारी की। इसका बेल्जियमवासियों ने कड़ा विरोध किया, इसमें इंग्लैंड ने भी उनका साथ दिया जिस कारण हॉलैंड को बेल्जियम को 1830 में स्वतंत्र करना पड़ा। बाद में यहाँ पर इंग्लैंड जैसी संवैधानिक व्यवस्था कायम हुई।
  • पोलैंड – वियना संधि द्वारा ही पोलैंड को दो भागों में बाँटा गया और इसका बड़ा भाग रूस को ईनाम के तौर पर दे दिया गया। परंतु जब वहाँ के लोगों में राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ तो 1848 में पोलैंड में, वारसा में, क्रांति आरंभ हुई। इसे रूसी सेनाओं ने कठोरता से दबा दिया। परंतु राष्ट्रवादियों ने हार नहीं मानी और दुबारा विद्रोह किया जिसमें उन्हें सफलता मिली।

4. ब्रिटेन में राष्ट्रवाद का इतिहास शेष यूरोप की तुलना में किस प्रकार पिन्न था?
Ans.
ब्रिटेन में राष्ट्रवाद का विकास एक लंबी संवैधानिक प्रक्रिया द्वारा हुआ। इसमें किसी प्रकार की रक्तरंजित क्रांति नहीं हुई। अतः इस प्रक्रिया को आमतौर पर हम ‘रक्तहीन क्रांति’ के नाम से भी जानते हैं। यह प्रक्रिया इस प्रकार है

  1. 18वीं शताब्दी से पूर्व ब्रितानी एक राष्ट्र नहीं था। जबकि ब्रितानी द्वीप समूह में-अंग्रेज, वेल्श, स्कॉट या आयरिश | पहचान वाली नृजातीय समूह रहते थे जिनकी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक व राजनैतिक परंपराएँ थीं।
  2. इनमें आंग्ल राष्ट्र ने अपनी धन-दौलत, अहमियत और सत्ता के बल पर अन्य द्वीप समूह के राष्ट्रों पर अपना प्रभाव स्थापित करना प्रारंभ किया।
  3. 1688 ई० में एक लंबे संघर्ष के माध्यम से राजतंत्र की समस्त शक्ति आंग्ल संसद के अधीन आ गई और एक राष्ट्र का निर्माण किया गया जिसका केन्द्र इंग्लैंड था।
  4. इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के बीच एक्ट ऑफ यूनियन 1707 ई० में हुआ जिसके द्वारा यूनाइटेड किंग्डम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन का गठन किया गया। इसी के माध्यम से स्कॉटलैंड पर इंग्लैंड का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
  5. स्कॉटलैंड में ब्रितानी पहचान का विकास करने के लिए यहाँ की संस्कृति व राजनैतिक संस्थाओं को योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया गया। जैसे-स्कॉटिश हाइलैंड्स के वासियों को उनकी गेलिक भाषा बोलने और राष्ट्रीय पोशाक पहनने से रोका गया। इस कारण मजबूर होकर लोगों को अपना देश छोड़कर अन्य जगहों पर जाना पड़ा।
  6. आयरलैंड में भी ऐसा किया गया और यहाँ पर अंग्रेजों ने धार्मिक मतभेद को हथियार बनाया। आयरलैंड में कैथोलिक व प्रोटेस्टेंट दो धार्मिक गुट थे। अंग्रेजों ने प्रोटेस्टेंटों की मदद करके कैथोलिकों को दबाया।
  7. 1798 ई० में वोल्फ़ टोन और उसकी यूनाइटेड आयरिशमेन नेतृत्व में जो विद्रोह हुआ उसे दबा दिया गया और आयरलैंड को यूनाइटेड किंग्डम का भाग बना लिया गया।
  8. ब्रितानी राष्ट्र का निर्माण करके इसके राष्ट्रीय प्रतीकों- यूनियन जॅक (ब्रिटेन का झंडा) और गॉड सेव आवर नोबल किंग (राष्ट्रीय गान) को संपूर्ण यूनाइटेड किंग्डम में प्रचारित व प्रसारित किया गया।

5. बाल्कन प्रदेशों में राष्ट्र‌वादी तनाव नाव क्यों पनपा?
Ans.
1871 ई० के बाद बाल्कन क्षेत्र में राष्ट्रवाद का उदय हुआ क्योंकि

  1. इस क्षेत्र की अपनी भौगोलिक व जातीय भिन्नता थी।
  2. इस क्षेत्र में आधुनिक यूनान, रोमानिया, बुल्गेरिया, अल्वेरिया, मेसिडोनिया, क्रोएशिया, बोस्निया-हर्जेगोविना, स्लोवेनिया, सर्बिया, मॉन्टिनिग्रो आदि देश थे जहाँ पर स्लाव भाषा बोलने वाले लोग रहते थे। ये सभी तुर्को से भिन्न थे।
  3. तुर्को और इन ईसाई प्रजातियों के बीच मतभेदों के कारण यहाँ पर हालात भयंकर हो गए।
  4. जब स्लाव राष्ट्रीय समूहों में स्वतंत्रता व राष्ट्रवाद का विकास हुआ तो तनाव की स्थिति और भी भयंकर हो गई।
  5. इस कारण इन राज्यों में आपसी प्रतिस्पर्धा और हथियारों की होड़ लग गई । इसने स्थिति को और गंभीर बना दिया।
  6. यूरोपीय देश (रूस, जर्मनी, इंग्लैंड, ऑस्ट्रिया, हंगरी) भी इन क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे ताकि काला सागर से होने वाले व्यापार और व्यापारिक मार्ग पर उनका नियंत्रण हो।

उपरोक्त कारणों से इस क्षेत्र में यूरोपीय देशों और इन राज्यों में आपस में कई युद्ध हुए, जिसका अंतिम परिणाम प्रथम विश्व युद्ध के रूप में सामने आया।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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