साखी :  अध्याय 1

पाठ प्रवेश

‘साखी’ शब्द ‘साक्षी’ शब्द का ही तद्भव रूप है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है जिसका अर्थ होता है-प्रत्यक्ष ज्ञान। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु शिष्य को प्रदान करता है। संत संप्रदाय में अनुभव ज्ञान की ही महत्ता है, शास्त्रीय ज्ञान की नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र विस्तृत था। कबीर जगह-जगह भ्रमण कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे। अतः उनके द्वारा रचित साखियों में अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी और पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिचड़ी’ कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्कड़ी भी कहा जाता है।

‘साखी’ वस्तुतः दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं कि सत्य की साक्षी देता हुआ ही गुरु शिष्य को जीवन के तत्वज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी प्रभावपूर्ण होती है उतनी ही याद रह जाने योग्य भी।

साखी

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ।।

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसे घटि घटि रॉम है, दुनियाँ देखे नाँहिं।।

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ।।

सुखिया सब संसार है, खायै अरू सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरू रोवै।।

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होड़।।

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन सावण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ ।।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पडित भया न कोइ।
ऐकै अधिर पीव का, पढ़ें सु पंडित होइ।।

हम घर जाल्या आपणों, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।

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प्रश्न-अभ्यास

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

1. मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता कैसे प्राप्त होती है?
Ans.
मीठी वाणी बोलने से औरों को सुख और अपने तन को शीतलता प्राप्त होती है, क्योंकि मीठी वाणी बोलने से मन का अहंकार समाप्त हो जाता है। यह हमारे तन को तो शीतलता प्रदान करती ही है तथा सुननेवालों को भी सुख की तथा प्रसन्नता की अनुभूति कराती है इसलिए सदा दूसरों को सुख पहुँचाने वाली व अपने को भी शीतलता प्रदान करने वाली मीठी वाणी बोलनी चाहिए।

2. दीपक दिखाई देने पर औंधयारा कैसे मिट जाता है? साखी के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
Ans.
दीपक में एक प्रकाशपुंज होता है जिसके प्रभाव के कारण अंधकार नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार मन में ज्ञान रूपी दीपक का प्रकाश फैलते ही मन में छाया भ्रम, संदेह और भयरूपी अंधकार समाप्त हो जाता है।

3. ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, पर हम उसे क्यों नहीं देख पाते?
Ans.
ईश्वर कण-कण में व्याप्त है और कण-कण ही ईश्वर है। ईश्वर की चेतना से ही यह संसार दिखाई देता है। चारों ओर ईश्वरीय चेतना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, लेकिन यह सब कुछ हम इन भौतिक आँखों से नहीं देख सकते। जब तक ईश्वर की कृपा से हमें दिव्य चक्षु (आँखें) नहीं मिलते, तब तक. हम कण-कण में ईश्वर के वास को नहीं देख सकते हैं और न ही अनुभव कर सकते हैं।

4. संसार में सुखी व्यक्ति कौन है और दुखी कौन? यहाँ ‘सोना’ और ‘जागना’ किसके प्रतीक है? इसका प्रयोग यहाँ क्यों किया गया है? स्पष्ट कीजिए।
Ans.
संसार में वह व्यक्ति सुखी है जो प्रभु प्राप्ति के लिए प्रयास से दूर रहकर सांसारिक विषयों में डूबकर आनंदपूर्वक सोता है। इसके विपरीत वह व्यक्ति जो प्रभु को पाने के लिए तड़प रहा है, उनके वियोग से दुखी है, वही जाग रहा है। यहाँ ‘सोना’ का प्रयोग प्रभु प्राप्ति के प्रयासों से विमुख होने और ‘जागना’ प्रभु प्राप्ति के लिए किए जा रहे प्रयासों को प्रतीक है। इसका प्रयोग मानव जीवन में सांसारिक विषय-वासनाओं से दूर रहने तथा सचेत करने के लिए किया गया है।

5. अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने क्या उपाय सुझाया है?
Ans.
अपने स्वभाव को निर्मल रखने के लिए कबीर ने निंदक को अपने निकट रखने का सुझाव दिया है, क्योंकि वही हमारा सबसे बड़ा हितैषी है अन्यथा झूठी प्रशंसा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले तो अनेक मिल जाते हैं। निंदक बुराइयों को दूरकर सद्गुणों को अपनाने में सहायक सिद्ध होता है। निंदक की आलोचना को सुनकर आत्मनिरीक्षण कर शुद्ध व निर्मल आचरण करने में सहायता मिलती है।

6. ‘ऐकै अधिर पीव का, पर्दै सु पडित होइ’ इस पंक्ति द्वारा कवि क्या कहना चाहता है?
Ans.
ऐकै अषिर पीव का, पढ़े सु पंडित होइ’ पंक्ति के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि संसार में पीव अर्थात् ब्रह्म ही सत्य है। उसे पढ़े या जाने बिना कोई भी पंडित (ज्ञानी) नहीं बन सकता है।

7. कबीर की उद्भुत साखियों की भाषा की विशेषता स्पष्ट कीजिए।
Ans.
कबीर की साखियों की भाषा की विशेषता है कि यह जन भाषा है। उन्होंने जनचेतना और जनभावनाओं को अपनी सधुक्कड़ी भाषा द्वारा साखियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया है। इसलिए डॉ० हजारी प्रसाद विवेदी ने इनकी भाषा को भावानुरूपिणी माना है। अपनी चमत्कारिक भाषा के कारण आज भी इनके दोहे लोगों की जुबान पर हैं।

(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-

1. बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
Ans.
इस पंक्ति का भाव है कि विरह (जुदाई, पृथकता, अलगाव) एक सर्प के समान है, जो शरीर में बसता है और शरीर का क्षय करता है। इस विरह रूपी सर्प पर किसी भी मंत्र का प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि यह विरह ईश्वर को न पाने के कारण सताता है। जब अपने प्रिय ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है, तो वह विरह रूपी सर्प शांत हो जाता है, समाप्त हो जाता है अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति ही इसका स्थायी समाधान है।

2. कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढे बन माँहि।
Ans.
इस पंक्ति का भाव है कि भगवान हमारे शरीर के अंदर ही वास करते हैं। जैसे हिरण की नाभि में कस्तूरी होती है, परवह उसकी खुशबू से प्रभावित होकर उसे चारों ओर ढूँढ़ता फिरता है। ठीक उसी प्रकार से मनुष्य ईश्वर को विभिन्न स्थलों पर तथा अनेक धार्मिक क्रियाओं द्वारा प्राप्त करने का प्रयास करता है, किंतु ईश्वर तीर्थों, जंगलों आदि में भटकने से नहीं मिलते। वे तो अपने अंतःकरण में झाँकने से ही मिलते हैं।

3. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं में नौहि।
Ans.
इसका भाव है कि जब तक मनुष्य के भीतर ‘अहम्’ (अहंकार) की भावना अथवा अंधकार विद्यमान रहता है, तब तक उसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। ‘अहम्’ के मिटते ही ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है, क्योंकि ‘अहम्’ और ‘ईश्वर’ दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते। ईश्वर को पाने के लिए उसके प्रति पूर्ण समर्पण आवश्यक है।

4. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोई।
Ans.
इसका अर्थ है कि पोथियाँ एवं वेद पढ़-पढ़कर संसार थक गया, लेकिन आज तक कोई भी पंडित नहीं बन सका; अर्थात् ईश्वर के प्रेम के बिना, उसकी कृपा के बिना कोई भी पंडित नहीं बन सकता तत्वज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सकता।

1. पाठ में आए निम्नलिखित शब्दों के प्रचलित रूप उदाहरण के अनुसार लिखिए-
उदाहरण- जिवै – जीना
औरन, माँहि, देख्या, भुवंगम, नेड़ा, आँगणि, साबण, मुवा, पीव, जालौं, तास।

Ans:

शब्दप्रचलित रूप
औरनऔरों को, और
साबणसाबुन
माँहिमें (अंदर)
मुवामर गया, मरा
देख्यादेखा
पीवपिया, प्रिय
भुवंगमभुजंग
जालौंजलाऊँ
नेड़ानिकट
आँगणिआँगन में
तासउस

1. ‘साधु में निंदा सहन करने से विनयशीलता आती है तथा व्यक्ति को मीठी व कल्याणकारी वाणी बोलनी चाहिए’-इन विषयों पर कक्षा में परिचर्चा आयोजित कीजिए।

Ans: छात्र परिचर्चा का आयोजन स्वयं करें।

2. कस्तूरी के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिए।

Ans: मृगों की एक प्रजाति होती है- कस्तूरी मृग। ऐसा माना जाता है कि इस प्रजाति के मृगों की नाभि में कस्तूरी होती है जो निरंतर अपनी महक बिखेरती रहती है। इस कस्तूरी के बारे में खुद मृग को कुछ पता नहीं होता है। वे इस महकदार वस्तु को खोजते हुए यहाँ-वहाँ घूमते-फिरते हैं।

1. मीठी वाणी/बोली संबंधी व ईश्वर प्रेम संबंधी दोहों का संकलन कर चार्ट पर लिखकर भित्ति पत्रिका पर लगाइए।

Ans: मीठी वाणी/बोली संबंधी दोहे-

(क) बोली एक अमोल है जो कोई बोले जानि ।
हिए तराजू तौलि के तब मुँह बाहर आनि ।।

(ख) कागा काको सुख हरै, कोयल काको देय।
मीठे वचन सुनाय के, जग अपनो करि लेय ।।

(ग) मधुर वचन है औषधी कटुक वचन है तीर ।
स्रवण द्वार हवै संचरै सालै सकल शरीर ।।

ईश्वर प्रेम संबंधी दोहा-

(घ) रहिमन बहु भेषज करत, व्याधि न छाँड़त साथ ।
खग मृग बसत अरोग बन हरि अनाथ के नाथ ।।
अन्य दोहों का संकलन छात्र स्वयं करें।

2. कबीर की साखियों को याद कीजिए और कक्षा में अंत्याक्षरी में उनका प्रयोग कीजिए।

Ans: छात्र दोहे कंठस्थ करें तथा अंत्याक्षरी खेलें।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

1. ऐसी बाँणी बोलिये’ के माध्यम से कबीर कैसी वाणी बोलने की सीख दे रहे हैं और क्यों?

Ans: ‘ऐसी बाँणी बोलिये’ के माध्यम से कबीर मनुष्य को अपने मन का अहंकार या घमंड छोड़कर मधुर वाणी में विनम्रता भरी वाणी बोलने की सीख दे रहे हैं। इसका कारण यह है कि अपने मन का अहंकार त्यागने से हमारे शरीर को शांति और शीतलता की अनुभूति होगी तथा मधुर वाणी सुनने वालों को सुखानुभूति होती है।

2. मन में आपा कैसे उत्पन्न होता है? आपा खोने के लिए कबीर क्यों कह रहे हैं?

Ans: मनुष्य की इच्छा होती है कि वह सांसारिक सुखों का अधिकाधिक उपयोग करे। इन सुखों की चाहत में वह सुख के नाना प्रकार के साधन एकत्र कर लेना चाहता है। इसके अलावा वह धन और बल का स्वामी भी बनना चाहता है। ऐसे होते ही उसके मन में आपा उत्पन्न हो जाता है। आपा खोने के लिए कबीर इसलिए कह रहे हैं कि इससे मनुष्य-मनुष्य में दूरी बढ़ती है तथा मनुष्य गर्वोक्ति का शिकार हो जाता है।

3. ‘ऐसैं घटि घटि राँम है’ के माध्यम से कबीर ने मनुष्य को किस सत्यता से परिचित किया है?

Ans: ऐसैं घटि घटि राँम है’ के माध्यम से कबीर ने मनुष्य को उस सत्यता से परिचित कराया है जिससे मनुष्य आजीवन अनजान रहता है। मनुष्य ईश्वर को पाने के लिए देवालय, तीर्थस्थान, गुफा-कंदराओं जैसे दुर्गम स्थानों पर खोजता-फिरता है और अंततः दुनिया से चला जाता है, परंतु वह ईश्वर को अपने मन में नहीं खोजती जहाँ उसका सच्चा वास है। ईश्वर तो घट-घट पर अर्थात् हर प्राणी में यहाँ तक कि कण-कण में व्याप्त है।

4. हर प्राणी में राम के बसने की तुलना किससे की गई है?

Ans: राम (ईश्वर) का वास घट-घट अर्थात् हर प्राणी यहाँ तक कि कण में है, परंतु मनुष्य अपनी अज्ञानता और अहंकार के कारण यह बात नहीं समझ पाता है। मनुष्य में ईश्वर का वास ठीक उसी तरह से है जैसे हिरन की नाभि में कस्तूरी होती है और हिरन को उसका पता नहीं होता है।

5. सब अँधियारा मिटि गया’ यहाँ किस अँधियारे की ओर संकेत किया गया है? यह अँधियारा कैसे दूर हुआ?

Ans: ‘सब अँधियारा मिटि गया’ के माध्यम से मनुष्य के मन में समाए अहंकार, अज्ञान, भय जैसे अँधियारे की ओर संकेत किया गया है जिसके कारण मनुष्य सांसारिकता में डूबा था और ईश्वर को नहीं पहचान पाता है। यह अँधियारा प्रकाशपुंज ईश्वर रूपी दीपक को मन में देखा। यह अँधेरा उसी तरह मिट गया जैसे दीपक जलाने से अँधेरा समाप्त हो जाता है।

6. कबीर की दृष्टि में संसार सुखी और वह स्वयं दुखी हैं, ऐसा क्यों?

Ans: संसार के लोगों को देखकर कबीर को लगता है कि लोग सांसारिक विषय-वासनाओं के साथ खाने-पीने और हँसी-खुशी से जीने में मस्त हैं। ये लोग सुखी हैं। दूसरी ओर कबीर है जो प्रभु प्राप्ति न होने के कारण परेशान है। वह सोने के बजाय जाग रहा है और रोते हुए दुखी हो रहा है।

7. राम वियोगी की दशा कैसी हो जाती है? स्पष्ट कीजिए।

Ans: राम का वियोग झेल रहे व्यक्ति की दशा दयनीय हो जाती है। कोई मंत्र या उपाय उसे ठीक नहीं कर पाता है। वह इस व्यथा की अधिकता को सह नहीं पाता है और अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है। ऐसा व्यक्ति यदि जीता भी है तो उसकी स्थिति पागलों के समान होती है। वह राम से मिलकर ही स्वस्थ हो सकता है।

8. निंदक के बारे में कबीर की राय समाज से पूरी तरह भिन्न थी। स्पष्ट कीजिए।

Ans: निंदक अर्थात् आलोचकों के बारे में कबीर की राय समाज से बिलकुल भी मेल नहीं खाती थी। समाज के लोग निंदा के भय से आलोचकों को अपने आसपास फटकने भी नहीं देते हैं। इसके विपरीत कबीर का मत था कि निंदकों को अपने आसपास ही बसने की जगह देना चाहिए। ऐसा करना व्यक्ति के हित में होता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

1. कबीर की साखियाँ जीवन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। इनमें जिन जीवन-मूल्यों की झलक मिलती है, उनका उल्लेख कीजिए।

Ans: कबीर की साखियाँ कबीर के अनुभव और गहनता से खोजे गए सत्य पर आधारित है। उनकी हर साखी मनुष्य को सीख सी देती प्रतीत होती है। इन साखियों में हमें कई जीवन मूल्यों की झलक मिलती है; जैसे-

  • मनुष्य को सदैव ऐसी वाणी बोलना चाहिए जिससे बोलने और सुनने वाले दोनों को ही सुख और शीतलता मिले।
  • मनुष्य को अहंकार का त्याग कर देना चाहिए।
  • अपने आलोचकों को अपने आसपास ही जगह देना चाहिए ताकि व्यक्ति का स्वभाव परिष्कृत हो सके।
  • ईश्वर प्राप्ति के लिए मनुष्य को उचित प्रयास करना चाहिए जिसके लिए यह समझना आवश्यक है कि उसका वास घट-घट में है।

2. ईश्वर के संबंध में कबीर के अनुभवों और मान्यताओं का वर्णन साखियों के आधार पर कीजिए।

Ans: ईश्वर के संबंध में कबीर के अनुभव और मान्यताएँ जनमानस की सोच के विपरीत थे। जनमानस का मानना है कि ईश्वर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, तीर्थ स्थलों या दुर्गम स्थानों पर रहता है। मनुष्य उसकी खोज में यहाँ-वहाँ भटकता हुआ जीवन बिता देता है, परंतु कबीर की मान्यता एवं अनुभव के अनुसार-

  • ईश्वर हर प्राणी यहाँ तक कि कण-कण में विद्यमान है।
  • ईश्वर की प्राप्ति के लिए अहंकार का त्याग अत्यावश्यक है।
  • ईश्वर के वियाग में व्यक्ति जी नहीं सकता है। यदि वह जीता है तो उसकी दशा पागलों जैसी हो जाती है।
  • ईश्वर के बारे में जाने बिना कोई ज्ञानी नहीं कहला सकता है।
  • ईश्वर को पाने के लिए विषय-वासनाओं और सांसारिकता का त्याग आवश्यक है।

3. निंदक किसे कहा गया है? वह व्यक्ति के स्वभाव का परिष्करण किस तरह करता है?

Ans: कबीर के अनुसार निंदक वह व्यक्ति है जो अपने आसपास रहने वालों की स्वाभाविक कमियों को अनदेखा नहीं करता है। वह उन कमियों की ओर व्यक्ति का ध्यान बार-बार आकर्षित कराता है। उसकी इस आलोचना से व्यक्ति गलतियों और अपनी कमियों के प्रति सजग हो जाता है। वह उन्हें दूर करने या ढंकने का प्रयास करता है और सुधार के लिए उन्मुख हो जाता है। आत्मसुधार की भावना पनपते ही व्यक्ति धीरे-धीरे अपने दुर्गुणों और कमियों से मुक्ति पा जाता है। ऐसा करने में व्यक्ति को कुछ खर्च भी नहीं करना पड़ता है। इस तरह निंदक अपने आसपास रहने वालों का परिष्करण करता है।

कबीर (1398-1518)

कबीर का जन्म 1398 में काशी में हुआ माना जाता है। गुरु रामानंद के शिष्य कबीर ने 120 वर्ष की आयु पाई। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और वहीं चिरनिद्रा में लीन हो गए।

कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक क्रांतियाँ अपने चरम पर थीं। कबीर क्रांतदर्शी कवि थे। उनकी कविता में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। उनकी कविता सहज ही मर्म को छू लेती है। एक ओर धर्म के बाह्याडंबरों पर उन्होंने गहरी और तीखी चोट की है तो दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा के विरह-मिलन के भावपूर्ण गीत गाए हैं। कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उनका विश्वास सत्संग में था और वे मानते थे कि ईश्वर एक है, वह निर्विकार है, अरूप है।

कबीर की भाषा पूर्वी जनपद की भाषा थी। उन्होंने जनचेतना और जनभावनाओं को अपने सबद और साखियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया।

शब्दार्थ और टिप्पणियाँ

शब्दअर्थ
बाँणीबोली
आपाअहं (अहंकार)
कुंडलिनाभि
घटि घटिघट-घट में / कण-कण में
भुवंगमभुजंग / साँप
बौरापागल
नेड़ानिकट
आँगणिआँगन
साबणसाबुन
अषिरअक्षर
पीवप्रिय
मुराड़ाजलती हुई लकड़ी

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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