संसद (Part – 2) : 22

संसद में बजट

संविधान ने बजट को ‘वार्षिक वित्तीय विवरण’ कहा है। दूसरे शब्दों में, ‘बजट’ शब्द का संविधान में कही उल्लेख नहीं है। यह ‘वार्षिक वित्तीय विवरण’ का प्रचलित नाम है तथा इसका उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 112 में किया गया है।

इसमें वित्तीय वर्ष के दौरान भारत सरकार के अनुमानित प्राप्तियों और खर्च का विवरण होता है, जो 1 अप्रैल से प्रारंभ होकर 31 मार्च तक होता है। बजट में निम्नलिखित शामिल हैं:

1. राजस्व एवं पूंजी की अनुमानित प्राप्तियां।

2. राजस्व बढ़ाने के उपाद एवं साधन।

3. खर्च का अनुमान ।

4. वास्तविक प्राप्तियां एवं खर्च का विवरण।

5. आने वाले साल के लिए आर्थिक एवं वित्तीय नीति, कर व्यवस्था खर्च की योजना एवं नयी परियोजना।

भारत सरकार के दो बजट होते हैं, रेलवे बजट और आम बजट। पहले बजट में सिर्फ रेलवे मंत्रालय का आय-व्यय शामिल होता है, जबकि आम बजट में भारत सरकार के सभी मंत्रालयों (रेलवे के आय-व्यय को छोड़कर) के आय-व्यय का विवरण होता है। रेलवे बजट को आम बजट से एकवर्थ समिति की सिफारिश पर 1921 में पृथक् किया गया था। इसके कारण निम्नलिखित हैं:

1. रेल वित्त में लचीलापन लाना।

2. रेलवे को नीति-निर्धारण के अवसर उपलब्ध कराना।

3. रेलवे राजस्व से सुनिश्चित वार्षिक अंशदान उपलब्ध कराकर सामान्य राजस्वों की सततता सुनिश्चित करना।

4. रेलवे को अपने विकास के लिए कार्यरत करना (साधारण राजस्व को नियत वार्षिक भाग अदा करने के बाद)।

संवैधानिक उपबंध

संविधान में बजट के क्रियान्वयन को लेकर निम्नलिखित व्यवस्थाएं उल्लिखित हैं:

1. राष्ट्रपति इसे हर वित्त वर्ष में संसद के दोनों सदनों में पेश करवाएगा।

2. बिना राष्ट्रपति की सिफारिश के कोई अनुदान की मांग नहीं की जाएगी।

3. सिवष्ठ विधि निर्मित विनियोग के भारत की संचित निधि से कोई धन नहीं निकाला जाएगा।

4. बिना राष्ट्रपति के संस्तुति के कर निर्धारण वाला कोई विधेयक संसद में पुरःस्थापित नहीं होगा। इस तरह के किसी विधेयक को राज्यसभा में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा।

5. विधि प्राधिकृत के सिवाए किसी कर की उगाही या संग्रहण नहीं किया जाएगा।

6. संसद किसी कर को कम या समाप्त कर सकती है लेकिन इसे बढ़ा नहीं सकती।

7. संविधान में संसद के दोनों सदनों की बजट के संबंध में संबंधित भूमिका को भी निम्नलिखित मामलों से व्याख्यित किया गया है:

(अ) धन विधेयक या वित्त विधेयक को राज्यसभा में पुरःस्थापित नहीं किया जा सकता। इसे केवल लोकसभा में पुरःस्थापित किया जा सकता है।

(ब) राज्यसभा को अनुदान मांग पर मतदान की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। यह लोकसभा को प्राप्त विशेष सुविधा है।

(स) राज्यसभा को 14 दिन में धन विधेयक लोकसभा को लौटा देना चाहिए।

लोक सभा इस संबंध में राज्यसभा द्वारा की गई सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है।

8. बजट में व्यय अनुमान को भारत की संचित विधि पर भारित व्यय और भारत की संचित निधि से किए गए व्यय को पृथक् पृथक् दिखाना चाहिए।

9. बजट राजस्व खाते से व्यय और अन्य व्ययों को पृथक् दिखाएगा।

भारित व्यय

बजट में दो प्रकार के व्यय शामिल होते हैं-भारत की संचित निधि पर भारित व्यय एवं भारत की संचित निधि से किये गए व्यय । भारित व्ययों के संबंध में सदन में मतदान नहीं होता है, अर्थात् इस पर केवल चर्चा होती है जबकि अन्य प्रकार पर मतदान कराया जाता है। भारित व्ययों की सूची निम्नानुसार हैः

1. राष्ट्रपति की परिलब्धियां एवं भत्ते तथा उसके कार्यालय के अन्य व्यय।

2. उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के उपसभापति लोकसभा के उपाध्यक्ष के वेतन एवं भत्ते ।

3. उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन।

4. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पेंशन।

5. भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के वेतन, भत्ते एवं पेंशन।

6. संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन।

7. उच्चतम न्यायालय, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के कार्यालय एवं संघ लोक सेवा आयोग के कार्यालय के प्रशासनिक व्यय, जिनमें इन कार्यालयों में कार्यरत कर्मिकों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन भी शामिल होते हैं।

8. ऐसे ऋण भार, जिनका दायित्व भारत सरकार पर है, जिनके अंतर्गत ब्याज, निक्षेप, निधि भार और मोचन भार तथा उधार लेने और ऋण सेवा और ऋण मोचन से संबंधित अन्य व्यय हैं,

9. किसी न्यायालय या माध्यस्थम अधिकरण के निर्णय, डिक्री या पंगर की तुष्टि के लिए अपेक्षित राशियां ।

10. संसद द्वारा विहित कोई अन्य व्यय।

पारित होने की प्रक्रिया

संसद में बजट निम्नलिखित 6 स्तरों से गुजरता हैः

1. बजट का प्रस्तुतिकरण ।

2. आम बहस ।

3. विभागीय समितियों द्वारा जांच।

4. अनुदान की मांग पर मतदान।

5. विनियोग विधेयक का पारित होना।

6. वित्त विधेयक का पारित होना।

1. बजट का प्रस्तुतिकरणः बजट दो रूपों में प्रस्तुत किया जाता है-रेलवे बजट और आम बजट। दोनों के लिये एक समान प्रक्रिया अपनायी जाती है।

रेल बजट, आम बजट से पहले पेश किया जाता है। लोकसभा में रेल मंत्रालय द्वारा फरवरी के तीसरे सप्ताह में बजट पेश किया जाता है और आम बजट को वित्त मंत्री द्वारा फरवरी माह के अंतिम कार्य दिवस को पेश किया जाता है।

आम बजट को प्रस्तुत करते समय वित्त मंत्री सदन में जो भाषण देता है, उसे बजट भाषण कहते हैं। लोकसभा में भाषण के अंत में मंत्री बजट प्रस्तुत करता है। राज्यसभा में इसे बाद में पेश किया जाता है। राज्यसभा को अनुदान मांगों पर कटौती का कोई अधिकार नहीं होता है।

2. आम बहसः साधारण बजट को प्रस्तुत करने की तिथी के कुछ दिन बाद तक बजट पर आम बहस चलती रहती है। दोनों सदन इस पर तीन से चार दिन बहस करते हैं। इस चरण में लोकसभा इसके पूरे या आंशिक भाग पर चर्चा कर सकती है इससे संबंधित प्रश्नों को उठाया जा सकता है। बहस के अंत में वित्त मंत्री को अधिकार है कि वह इसका जवाब दे।

3. विभागीय समितियों द्वारा जांचः बजट पर आम बहस पूरी होने के बाद सदन तीन या चार हफ्तों के लिए स्थगित हो जाता है। इस अंतराल के दौरान संसद की स्थायी समितियां 24 अनुदान की मांग आदि की विस्तार से पड़ताल करती हैं और एक रिपोर्ट तैयार करती हैं। इन रिपोर्टों को दोनों सदनों में विचारार्थ रखा जाता है।

स्थायी समिति की यह व्यवस्था 1993 (वर्ष 2004 में इसे विस्तृत किया गया) से शुरू की गई। यह व्यवस्था विभिन्न मंत्रालयों पर संसदीय वित्तीय नियंत्रण के उद्देश्य से प्रारंभ की गयी थी।

4. अनुदान की मांगों पर मतदानः विभागीय स्थायी समितियों के आलोक में लोकसभा में अनुदान की मांगों के लिए मतदान होता है। मांगें मंत्रालयवार प्रस्तुत की जाती हैं। पूर्ण मतदान के उपरांत एक मांग, अनुदान बन जाती है।

इस संदर्भ में दो बिंदु उल्लेखनीय हैं- एक, अनुदान के लिए मतदान लोकसभा की विशेष शक्ति है, जो कि राज्यसभा के पास नहीं है। दूसरा, राज्यसभा को मतदान का अधिकार बजट के मताधिकार वाले हिस्से पर ही होता है तथा इसमें भारत की संचित निधि पर भारित व्यय शामिल नहीं होते हैं (इस पर केवल चर्चा की जा सकती है)।

आम बजट में 109 मांगें (103 आम नागरिक प्रशासन एवं 6 सेना के खर्च) होती हैं, जबकि रेल बजट में 32 मांगें होती हैं। प्रत्येक मांग पर लोकसभा में अलग से मतदान होता है। इस दौरान संसद सदस्य इस पर बहस करते हैं। सदस्य अनुदान मांगों पर कटौती के लिये प्रस्ताव भी ला सकते हैं। इस प्रकार के प्रस्ताव को कटौती प्रस्ताव कहा जाता है, जिनके तीन प्रकार होते हैं:

(अ) नीति कटौती प्रस्ताव यह मांग की नीति के प्रति असहमति को व्यक्त करता है। इसमें कहा जाता है कि मांग की राशि 1 रुपये कर दी जाये। सदस्य कोई वैकल्पिक नीति भी पेश कर सकते हैं।

(ब) आर्थिक कटौती प्रस्ताव इसमें इस बात का उल्लेख होता है कि प्रस्तावित व्यय से अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ सकता है। इसमें कहा जाता है कि मांग की राशि को एक निश्चित सीमा तक कम किया जाये (यह या तो मांग में एकमुश्त कटौती हो सकती है या फिर पूर्ण समाप्ति या मांग की किसी मद में कटौती)।

(स) सांकेतिक कटौती प्रस्ताव यह भारत सरकार के किसी दायित्व से संबंधित होता है। इसमें कहा जाता है कि मांग में 100 रुपये की कमी की जाये।

एक कटौती प्रस्ताव में स्वीकृत के लिए निम्न दशायें अवश्य होनी चाहियेः

1. यह केवल एक प्रकार की मांग से संबंधित होना चाहिये।

2. इसका स्पष्ट उल्लेख होना चाहिये तथा इसमें किसी प्रकार की अनावश्यक बात नहीं होनी चाहिये।

3. यह केवल एक मामले से ही संबंधित होनी चाहिये।

4 . इसमें संशोधन संबंधी या वर्तमान नियम को परिवर्तित करने संबंधी कोई सुझाव नहीं होना चाहिये।

5. इसमें संघ सरकार के कार्य क्षेत्र बाहर किसी विषय का उल्लेख नहीं होना चाहिये।

6. इसमें भारत की संचित निधि पर भारित व्यय से संबंधित कोई विषय नहीं होना चाहिये।

7. इसमें किसी न्यायालयीन प्रकरण का उल्लेख नहीं होना चाहिये।

8. इसके द्वारा विशेषाधिकार का कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है।

9. इसमें पुनर्परिचर्चा का कोई विषय नहीं होना चाहिये, जिसके बारे में इसी सत्र में पहले से ही कोई निर्णय लिया जा चुका हो।

10. यह अनावश्यक विषय से संबंधित नहीं होनी चाहिये।

एक कटौती प्रस्ताव का महत्व इस बात में है कि-(अ) अनुदान मांगों पर चर्चा का अवसर एवं (ब) उत्तरदायी सरकार के सिद्धांत को कायम रखने के लिए सरकार के कार्यकलापों की जांच करना। हालांकि, कटौती प्रस्ताव की प्रायोगिक रूप से ज्यादा उपयोगिता नहीं है। ये केवल सदन में लाये जाते हैं तथा इन पर चर्चा होती है लेकिन सरकार का बहुमत होने के कारण इन्हें पास नहीं किया जा सकता। ये केवल कुछ हद तक सरकार पर अंकुश लगाते हैं।

अनुदान मांगों पर मतदान के लिये कुल 26 दिन निर्धारित किये गये हैं। अंतिम दिन अध्यक्ष सभी शेष मांगों को मतदान के लिये पेश करता है तथा उनका निपटान करता है फिर चाहे सदस्यों द्वारा इन पर चर्चा की गयी हो या नहीं। इसे गिलोटिन के नाम से जाना जाता है।

5. विनियोग विधेयक का पारित होनाः संविधान में व्यवस्था की गई है कि भारत की संचित निधि से विधि सम्मत विनियोग के सिवाए धन की निकासी नहीं होगी, तदनुसार भारत की निधि से विनियोग के लिए एक विनियोग विधेयक पुरःस्थापित किया जाता है, ताकि धन को निम्न आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रयुक्त किया जाएः

(अ) लोकसभा में मत द्वारा दिये गये अनुदान । तथा

(ब) भारत की संचित निधि पर भारित व्यय। विनियोग विधेयक की रकम में परिवर्तन करने या अनुदान के लक्ष्य को बदलने अथवा भारत की संचित निधि पर भारित व्यय की रकम में परिवर्तन करने का प्रभाव रखने वाला कोई संशोधन, संसद के किसी सदन में प्रख्यापित नहीं किया जाएगा।

इस मामले में राष्ट्रपति की सहमति के उपरांत ही कोई अधिनियम बनाया जा सकता है। इसके बाद ही संचित निधि से किसी प्रकार के धन की निकासी की जा सकती है। इसका अर्थ है कि, विनियोग विधेयक के लागू होने तक सरकार भारत की संचित निधि से कोई धन आहरित नहीं कर सकती है। इसमें काफी समय लगता है तथा यह अप्रैल तक खिंच जाता है। लेकिन सरकार को 31 मार्च के बाद विभिन्न कार्यों के लिये धन की आवश्यकता होती है। इस स्थिति से निपटने के लिये संविधान द्वारा लोकसभा को यह शक्ति दी गयी है कि वह इस प्रकार के आवश्यक कार्यों के लिये विशेष प्रयासों के माध्यम से धन का आहरण कर सकती है। इसे लेखानुदान के नाम से जाना जाता है। इसे बजट पर आम बहस के उपरांत पारित किया जाता है। इसमें सामान्यतः कुल अनुमान के 1-6 भाग के बराबर को दो माह के व्यय हेतु स्वीकृति दी जाती है।

6. वित्त विधेयक का पारित होनाः वित्त विधेयक भारत सरकार के उस वर्ष के लिए वित्तीय प्रस्तावों को प्रभावी करने के लिए पुरःस्थापित किया जाता है। इस पर धन विधेयक की सभी शर्तें लागू होती हैं। वित्त विधेयक में विनियोग विधेयक के विपरीत संशोधन (कर को बढ़ाने या घटाने के लिए) प्रस्तावित किए जा सकते हैं।

अनन्तिम कर संग्रहण अधिनियम, 1931 के अनुसार, वित्त विधेयक को 75 दिनों के भीतर प्रभावी हो जाना चाहिए। वित्त अधिनियम बजट के आय पक्ष को विधिक मान्यता प्रदान करता है और बजट को प्रभावी स्वरूप देता है।

अन्य अनुदान

बजट जिसमें एक वित्तीय वर्ष हेतु आय और व्यय का सामान्य अनुमान होता है, के अतिरिक्त संसद द्वारा असाधारण या विशेष परिस्थितियों में अनेक अन्य अनुदानें भी दी जाती हैं।

अनुपूरक अनुदानः इसे संसद द्वारा तब स्वीकृत किया जाता है, जब किसी विशेष सेवा हेतु विनियोग अधिनियम द्वारा प्राधिकृत राशि उस वर्ष हेतु चालू वित्तीय वर्ष में अप्रर्याप्त पाई जाए।

अतिरिक्त अनुदानः यह तब प्रदान की जाती है, जब उस वर्ष हेतु बजट में किसी नई सेवा के संबंध में व्यय परिकल्पित न किया गया हो और चालू वित्तीय वर्ष के दौरान अतिरिक्त व्यय की आवश्यकता उत्पन्न हो गई हो।

अधिक अनुदानः इस प्रकार की मांग तब रखी जाती है, जब उस वर्ष के बजट में उस सेवा के लिये निर्धारित रकम से ज्यादा रकम व्यय हो जाती है। वित्त वर्ष के उपरांत इस पर लोकसभा में मतदान होता है। इस प्रकार की मांग को लोकसभा में मतदान के लिये प्रस्तुत करने से पहले इसे संसद की लोक लेखा समिति से मंजूरी मिलना अनिवार्य होता है।

प्रत्ययानुदानः जब किसी सेवा या मद के लिये आकस्मिक रूप से धन की अत्यधिक एवं तुरंत सहायता आवश्यक होती है तो इस प्रकार की अनुदान मांग रखी जाती है। यह कहा जा सकता है कि यह लोकसभा द्वारा कार्यपालिका को दिया गया ब्लैंक चेक होता है।

अपवादानुदानः इसे विशेष प्रायोजन के लिये मंजूर किया जाता है तथा यह वर्तमान वित्तीय वर्ष या सेवा से संबंधित नहीं होती है।

सांकेतिक अनुदानः यह अनुदान तब रखी जाती है, जब पहले से प्रस्तावित किसी सेवा के अतिरिक्त सेवा के लिये धन की आवश्यकता होती है। इसके लिये लोकसभा में प्रस्ताव रखा जाता है तथा उस पर मतदान होता है फिर धन की व्यवस्था की जाती है। यह किसी अतिरिक्त व्यय से संबंधि त नहीं होती है।

अनुपूरक, अतिक्ति, असाधारण अनुदान एवं वोट ऑफ क्रेडिट के लिये उसी प्रकार की प्रक्रिया अपनायी जाती है, जैसी की साधारण बजट के लिये अपनायी जाती है।

निधियां

भारत का संविधान केंद्र सरकार के लिए निम्नलिखित तीन प्रकार की निधियों की व्यवस्था करता है:

1. भारत की संचित निधि (अनुच्छेद 266)।

2. भारत का लोकलेखा (अनुच्छेद 266)।

3. भारत की आकस्मिकता निधि (अनुच्छेद 267)।

भारत की संचित निधिः यह एक ऐसी निधि है, जिसमें से सभी प्राप्तियां उधार ली जाती हैं और भुगतान जमा किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, (क) भारत सरकार द्वारा प्राप्त सभी राजस्व, (ख) राजकोष विधेयकों, ऋणों या अर्थोपाय अग्रिमों को जारी केंद्र सरकार द्वारा लिए गए सभी ऋण। (ग) ऋणों की पुनर्भदायगी में सरकार द्वारा प्राप्त धनराशि, भारत की संचित निधि का भाग होगी। भारत सरकार की ओर से विधिक प्राधिकृत सभी भुगतान इसी निधि में से किए जायेंगे। इस निधि में से किसी भी धन को संसदीय विधि के सिवाए विनियोजित (जारी या निकाली) नहीं किया जा सकता।

भारत का लोक लेखाः सभी अन्य सार्वजनिक धन (भारत की संचित निधि से ऋण के अलावा) भारत सरकार या उसके लिए भारत के लोक लेखा में से ऋण लिया जाता है। इसमें भविष्य निधि जमा, न्यायिक जमा, बचत, बैंक जमा, विभागीय जमा आदि शामिल हैं। इस लेखे को कार्यकारी प्रक्रिया द्वारा नियंत्रित किया जाता है। अर्थात् इस खाते से भुगतान संसदीय विनियोजन के बिना किया जा सकता है। इस प्रकार के भुगतान मुख्यतया बैंक आदान- प्रदान से संबंधित होते हैं।

भारत की आकस्मिकता निधिः संविधान संसद को ‘भारत की आकस्मिक निधि’ के गठन की अनुमति देता है। इसमें समय- समय पर विधि द्वारा निर्धारित निधियां प्राप्त की जाती हैं। संसद द्वारा ‘भारत की आकस्मिक निधि’ अधिनियम 1950 से शुरू हुआ। निधि को राष्ट्रपति की ओर से वित्त सचिव द्वारा रखा जाता है। यह निधि राष्ट्रपति के अधिकार में रहती है और वह किसी अप्रत्याशित व्यय के लिए इससे अग्रिम दे सकता है, जिसे बाद में संसद द्वारा प्राधिकृत करवाया जा सकता है। भारत के लोक लेखा की तरह इसे कार्यकारी प्रक्रिया से संचालित किया जाता है।

संसद की बहुक्रियात्मक भूमिका

भारतीय राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में संसद एक केंद्रीय स्थिति रखती है और उसकी बहुक्रियात्मक भूमिका होती है। इसे विशेष शक्तियां प्राप्त हैं। इसकी शक्तियों एवं कार्यों को निम्नलिखित शीर्षकों के तहत वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. विधायी शक्तियां एवं कार्य

2. कार्यकारी शक्तियां एवं कार्य

3. वित्तीय शक्तियां एवं कार्य

4. सांविधिक शक्तियां एवं कार्य

5. न्यायिक शक्तियां एवं कार्य

6. निर्वाचक शक्तियां एवं कार्य

7. अन्य शक्तियां एवं कार्य

1. विधायी शक्तियां एवं कार्य

संसद का प्राथमिक कार्य देश के संचालन के लिए विधियां बनाना है। इसके पास संघ सूची विषयों पर (जिसमें मूल रूप से 97 एवं वर्तमान में 99 विषय हैं) तथा अवशिष्ट विषयों (वे विषय जो किसी भी सूची में शामिल नहीं हैं) पर विधि बनाने का विशिष्ट अधिकार है। यदि दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य किसी विषय पर विवाद होता है तो संसद, समवर्ती सूची के विषयों पर (जिसमें मूल रूप से 47 एवं वर्तमान में 52 विषय हैं) भी विधि बना सकती है अर्थात् दो राज्यों के मध्य विवाद की स्थिति में संसद की विधि राज्य विधानमण्डल पर प्रभावी होगी।

संविधान, संसद को राज्य सूची के विषयों पर (जिसमें मूल रूप से 66 एवं वर्तमान में 61 विषय हैं) विधि बनाने की शक्ति प्रदान करता है। ऐसा निम्नलिखित पांच असामान्य परिस्थितियों के अंतर्गत हो सकता है:

(i) जब राज्यसभा इसके लिए एक संकल्प पास करे।

(ii) जब राष्ट्रीय आपातकाल लागू हो।

(iii) जब दो या अधिक राज्य संसद से ऐसा संयुक्त अनुरोध करें।

(iv) जब अंतर्राष्ट्रीय समझौते, संधि एवं समझौते के तहत ऐसा करना जरूरी हो।

(v) जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो।

राष्ट्रपति द्वारा जारी सभी अध्यादेशों को संसद द्वारा 6 सप्ताहों के भीतर स्वीकृति मिलनी चाहिए। यदि इस अवधि के भीतर अध्यादेश को संसद की स्वीकृति नहीं मिलती तो वह निष्प्रभावी हो जाता है।

संसद विधियों का खाका तैयार करती है और मूल विधि के ढांचे में ही विस्तृत नियम और विनियम बनाने के लिए कार्यपालिका को प्राधिकृत करती है। इसे प्रत्यायोजित विधान या कार्यपालिका विधान या अधीनस्थ विधान कहा जाता है। ऐसे नियमों और विनियमों को जांच के लिए संसद के समक्ष रखा जाता है।

2. कार्यकारी शक्तियां एवं कार्य

भारत के संविधान ने सरकार के संसदीय रूप की स्थापना की है। जिसमें कार्यकारिणी अपनी नीतियों एवं कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। इस तरह संसद कार्यकारिणी पर प्रश्नकाल, शून्यकाल, आंधे घंटे की चर्चा, अल्पावधि चर्चा, ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव और अन्य चर्चाओं के जरिए नियंत्रण रखती है। यह अपनी समितियों जैसे सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति, अधीनस्थ विधान संबंधी समिति याचिका समिति इत्यादि के माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों का अधीक्षण करती है।

सामान्यतः मंत्री, संसद के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार होते हैं, जबकि लोकसभा के प्रति विशेष रूप से।

सामूहिक उत्तरदायित्व के एक भाग के रूप में प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत जिम्मेदारी होती है। प्रत्येक मंत्री अपने मंत्रालय के कार्यों के प्रति उत्तरदायी है। इसका मतलब है कि वे अपने पद पर तब तक बने रह सकते हैं जब तक उन्हें लोकसभा में बहुमत प्राप्त है। इसका अभिप्राय है कि मंत्रिपरिषद को अविश्वास प्रस्ताव पास कर हटाया जा सकता है। लोकसभा सरकार के प्रति विश्वास की कमी का प्रस्ताव निम्नलिखित तरीके से ला सकती है:

(i) राष्ट्रपति के उद्घाटन भाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव को पास न कर

(ii) धन विधेयक को अस्वीकार कर

(iii) निंदा प्रस्ताव या स्थगन प्रस्ताव पास कर

(iv) आवश्यक मुद्दे पर सरकार को हराकर

(v) कटौती प्रस्ताव पास कर

इसीलिये, यह कहा गया है कि संसद का पहला कार्य ऐसे समूह का चयन करना है, जो सरकार बनाये, उसे सत्ता में बने रहने के लिए तब तक सहायता प्रदान करना जब तक कि इसका विश्वास हो और विश्वास न हो तो उसे हटाकर, और अगले सामान्य चुनाव में इसे लोगों पर छोड़ देना।

3. वित्तीय शक्तियां एवं कार्य

संसद की सहमति के बिना कार्यपालिका न ही किसी कर की उगाही कर सकती, न ही कोई कर लगा सकती और न ही किसी प्रकार का व्यय कर सकती है। इसीलिये बजट को स्वीकृति के लिये संसद के समक्ष रखा जाता है। बजट के माध्यम से संसद सरकार को आगामी वित्त वर्ष में आय एवं व्यय की अनुमति प्रदान करती है।

संसद, विभिन्न वित्तीय समितियों के माध्यम से सरकार के खर्चों की भी जांच करती है और उस पर नियंत्रण रखती है। इन समितियों में शामिल हैं- लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति एवं सार्वजनिक उपक्रमों संबंधी समिति। ये अवैध, अनियमित, अमान्य, अनुचित प्रयोगों एवं सार्वजनिक खर्चों के दुरुपयोग के मामलों को सामने लाती हैं।

इसीलिये, कार्यपालिका के वित्तीय मामलों पर संसद का नियंत्रण निम्न दो तरीकों से संभव हो पाता है:

(अ) बजटीय नियंत्रण, जो कि बजट के प्रभावी होने से पूर्व अनुदान मांगों के रूप में भी होता है। तथा

(ब) उत्तर बजटीय नियंत्रण, जो अनुदान मांगों को स्वीकृति दिये जाने के पश्चात तीन वित्तीय समितियों के माध्यम से स्थापित किया जाता है।

बजट, वार्षिकता के सिद्धांत पर आधारित होता है। जिसमें संसद, सरकार को एक वर्ष में व्यय करने के लिये धन उपलब्ध कराती है। यदि मंजूर किया धन, वर्ष के अंत तक व्यय नहीं होता है तो शेष धन का छास हो जाता है तथा भारत की संचित निधि में चला जाता है। इस प्रक्रिया को छास का सिद्धांत कहते हैं। इससे संसद का प्रभावी वित्तीय नियंत्रण स्थापित होता है तथा उसकी अनुमति के बिना कोई भी आरक्षित कोष नहीं बनाया जा सकता है। हालांकि, इस सिद्धांत के कारण वित्त वर्ष के अंत में व्यय का भारी कार्य उत्पन्न हो जाता है, जिसे मार्च रश कहते हैं।

4. सांविधानिक शक्तियां एवं कार्य

संसद में संविधान संशोधन शक्तियां निहित हैं तथा वह संविधान में किसी भी प्रावधान को जोड़कर, समाप्त करके या संशोधित करके इसमें संशोधन कर सकती है। संविधान के मुख्य भागों को विशेष बहुमत द्वारा संशोधित किया जा सकता है। संविधान की कुछ अन्य व्यवस्थाओं को साधारण बहुमत द्वारा संसद बदल सकती है। यह बहुमत संसद में उपलब्ध सदस्यों के बीच से तय होता है। कुछ व्यवस्थाएं ही ऐसी हैं, जिसे संसद विशेष बहुमत एवं करीब आधे राज्य विधानमंडलों (साधारण बहुमत) की सहमति के बाद ही संशोधित कर सकती है। कुल मिलाकर संसद संविधान को तीन प्रकार से संशोधित कर सकती है। कुछ ही संशोधन ऐसे हैं, जिन्हें संसद विशेष बहुमत एवं आधे से अधिक राज्यों की सहमति से ही संशोधित कर सकती है। हालांकि संविधान संशोधन की प्रक्रिया की शुरूआत पूर्णतया संसद पर निर्भर करती है न कि राज्य विधानमंडलों पर। इसका केवल एक अपवाद है, वह है कि कोई भी राज्य इस आशय का प्रस्ताव पारित कर सकता है कि अमुक राज्य में विधानपरिषद का गठन कर दिया जाये या उसे समाप्त कर दिया जाये। प्रस्ताव के आधार पर संसद, संविधान में आवश्यक संशोधन करती है। संसद तीन प्रकार से संविधान में संशोधन कर सकती है-

(i) साधारण बहुमत द्वारा

(ii) विशेष बहुमत द्वारा एवं

(iii) विशेष बहुमत द्वारा, लेकिन आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति के साथ।

संसद की यह शक्ति असीमित नहीं है, यह संविधान के ‘मूल ढांचे’ की शर्तानुसार है। दूसरे शब्दों में, संसद संविधान के ‘मूल ढांचे’ के अतिरिक्त किसी भी व्यवस्था को संशोधित कर सकती है। यह निर्णय उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले (1973) एवं मिनर्वा मिल मामले (1980) में दिया था।

5. न्यायिक शक्तियां एवं कार्य

संसद की न्यायिक शक्तियां और कार्य में निम्नलिखित शामिल हैं.

(अ) संविधान के उल्लंघन पर यह राष्ट्रपति को पदमुक्त कर सकती है।

(ब) यह उपराष्ट्रपति को उसके पद से हटा सकती है।

(स) यह उच्चतम न्यायालय (मुख्य न्यायाधीश सहित) एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, मुख्य चुनाव आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को हटाने के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश कर सकती है।

(द) यह अपने सदस्यों या बाहरी लोगों को इसकी अवमानना या विशेषाधिकारों के उल्लंघन के लिए दण्डित कर सकती है।

6. निर्वाचक शक्तियां एवं कार्य

संसद राष्ट्रपति के निर्वाचन में (राज्य विधानसभाओं के साथ) भाग लेती है और उपराष्ट्रपति को चुनती है। लोकसभा अपने अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष को चुनती है, जबकि राज्यसभा, उपसभापति का चयन करती है।

संसद को यह भी शक्ति है कि वह राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से संबंधित नियम बना सकती है या उनमें संशोधन कर सकती है। वह संसद के दोनों सदनों एवं राज्य विधायिका के निर्वाचन से संबंधित नियम बना सकती है या उनमें संशोधन कर सकती है। इसी आधार पर संसद ने राष्ट्रपतीय एवं उपराष्ट्रपतीय निर्वाचन अधिनियम (1952), लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम (1950) एवं लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम (1951) आदि बनाए हैं।

7. अन्य शक्तियां एवं कार्य

संसद की अन्य कई शक्तियों एवं कार्यों में शामिल हैं:

(i) यह देश में विचार-विमर्श की सर्वोच्च इकाई है। यह राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर बहस करती है।

(ii) यह तीनों तरह के आपातकाल (राष्ट्रीय, राज्य और वित्त) की संस्तुति करती है।

(iii) यह संबंधित राज्य विधानसभा की स्वीकृति से विधान परिषद की समाप्ति या उसका गठन कर सकती है।

(iv) यह राज्यों के क्षेत्र, सीमा एवं नाम में परिवर्तन कर सकती है।

(v) यह उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के गठन एवं न्यायक्षेत्र को नियंत्रित करती है और दो या अधिक राज्यों के बीच समान न्यायालय की स्थापना कर सकती है।

संसदीय नियंत्रण की अप्रभाविता

भारत में सरकार एवं प्रशासन पर संसदीय नियंत्रण, प्रायोगिक की तुलना में सैद्धांतिक ज्यादा है। वास्तव में, यह नियंत्रण उतना प्रभावी नहीं है, जितना होना चाहिये। इसके लिये कई कारक उत्तरदायी हैं:

(क) देश का प्रशासन इतना विशाल एवं जटिल है कि संसद को न तो इतना समय है और न ही इतनी विशेषज्ञता है कि वह प्रशासन पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित कर सके।

(ख) अनुदान मांगों की तकनीकी प्रकृति के कारण संसद की वित्तीय नियंत्रण व्यवस्था ज्यादा प्रभावी नहीं बन पाती है।

(ग) विधायी नेतृत्व कार्यपालिका पर निर्भर होता है तथा कार्यपालिका की नीति निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

(घ) संसद का आकार काफी बड़ा है तथा इस पर नियंत्रण रखना काफी कठिन होता है।

(ड.) कार्यपालिका के साथ संसद में बहुमत का समर्थन होता है, फलतः उसकी प्रभावी आलोचना की संभावना समाप्त हो जाती है।

(च) लोक लेखा समिति जैसी वित्तीय संस्थायें कार्यपालिका द्वारा व्यय की गयी राशि की जांच बाद में करती हैं। इस प्रकार, यह प्रक्रिया पोस्टमार्टम जैसी हो जाती है।

(छ) गिलोटिन के बढ़े हुये आश्रय से वित्तीय नियंत्रण की संभावना कम हो जाती है।

(ज) प्रत्यायोजित विधान की अभिवृद्धि से विस्तृत विधि बनाने की संसद की शक्ति कम एवं कार्यपालिका की शक्ति बढ़ जाती है।

(झ) राष्ट्रपति द्वारा अत्यधिक अध्यादेशों के निर्माण से संसद की विधान बनाने की शक्ति कम हो जाती है।

(ठ) संसदीय नियंत्रण सामान्यतया ढीला, साधारण एवं अधिकांशतया प्रकृति में राजनीतिक होता है।

(त) संसद में सशक्त एवं स्थिर विपक्ष के अभाव एवं संसदीय व्यवहार एवं मर्यादाओं के अभाव में देश के प्रशासन पर विधायी नियंत्रण में ढीलापन आता है।

राज्यसभा की स्थिति

राज्यसभा की संवैधानिक स्थिति (लोकसभा की तुलना में) का तीन कोणों से अध्ययन किया जा सकता है:

1. जहां राज्यसभा, लोकसभा के बराबर हो।

2. जहां राज्यसभा, लोकसभा के बराबर नहीं हो।

3. जहां राज्यसभा की विशेष शक्तियां हों। जिनकी हिस्सेदारी लोकसभा के साथ नहीं होती।

लोकसभा के साथ समान स्थिति

निम्नलिखित मामलों में राज्यसभा की शक्तियां एवं स्थिति लोकसभा के असमान होती है:

1. धन विधेयक को सिर्फ लोकसभा में पुरः स्थगित किया जा सकता है, राज्यसभा में नहीं।

2. राज्यसभा, धन विधेयक को अस्वीकृत या संशोधित नहीं कर सकती। उसे इस विधेयक को सिफारिश या बिना सिफारिश के 14 दिन के भीतर लोकसभा को लौटाना अनिवार्य होता है।

3. लोकसभा, राज्यसभा की सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। दोनों मामलों में इसे दोनों सदनों द्वारा स्वीकृत माना जाएगा।

4. वित्त विधेयक अकेले अनुच्छेद 110 का मामला नहीं है। इसे सिर्फ लोकसभा में पुरःस्थापित किया जा सकता है लेकिन इसे पारित करने के मामलों में दोनों की शक्तियां समान हैं।

5. कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, इसे बताने की अंतिम शक्ति लोकसभा अध्यक्ष के पास है।

6. दोनों सदनों की संयुक्त बैठक की अध्यक्षता लोकसभा अध्यक्ष करता है।

7. संयुक्त बैठक में लोकसभा ज्यादा संख्या से जीतती है सिवाय इसके कि सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्यों की संख्या दोनों सदनों में विपक्ष से कम हो।

8. राज्यसभा सिर्फ बजट पर चर्चा कर सकती है, उसके अनुदानों की मांगों पर मतदान नहीं करती।

9. राष्ट्रीय आपातकाल समाप्त करने का संकल्प लोकसभा द्वारा ही पारित कराया जा सकता है।

10. राज्यसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित कर मंत्रिपरिषद को नहीं हटा सकती। ऐसा इसलिए क्योंकि मंत्रिपरिषद का सामूहिक उत्तरदायित्व लोकसभा के प्रति है। लेकिन राज्यसभा सरकार की नीतियों एवं कार्यों पर चर्चा और आलोचना कर सकती है।

राज्यसभा की विशेष शक्तियां

संघीय चरित्र होने के कारण राज्यसभा को दो विशेष शक्तियां प्रदान की गई हैं, जो लोकसभा के पास नहीं हैं:

1. यह संसद को राज्यसूची (अनुच्छेद 249) में से विधि बनाने हेतु अधिकृत कर सकती है।

2. यह संसद को केंद्र एवं राज्य दोनों के लिए नयी अखिल भारतीय सेवा के सृजन हेतु अधिकृत कर सकती है (अनुच्छेद 312) ।

उपरोक्त बिंदुओं का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में राज्यसभा की स्थिति उतनी दुर्बल नहीं है कि जितनी की हाउस आफ लार्ड्स की ब्रिटिश संवैधानिक व्यवस्था में है। दूसरी ओर राज्यसभा की स्थिति उतनी शक्तिशाली भी नहीं है, जितनी कि अमेरिकी संवैधानिक व्यवस्था में। वित्तीय मामलों एवं मंत्रिपरिषद के मंत्रियों के ऊपर नियंत्रण के अतिरिक्त, अन्य सभी मामलों में राज्यसभा की शक्तियां लोकसभा के बराबर ही हैं।

यद्यपि राज्यसभा को लोकसभा की तुलना में कम शक्तियां दी गई हैं लेकिन इसकी उपयोगिता निम्नलिखित आधारों पर हैं:

1. यह लोकसभा द्वारा जल्दबाजी में बनाए गए, दोषपूर्ण, लापरवाही से और अविवेकपूर्ण विधान की समीक्षा और उस पर विचार के उपबंध के रूप में जांचोपाय है।

2. यह उन अनुभवी एवं पेशेगत लोगों को प्रतिनिधित्व देती है जो सीधे चुनाव का सामना नहीं कर सकते। राष्ट्रपति 12 ऐसे लोगों को राज्यसभा के लिए मनोनीत करता है।

3. यह केंद्र के अनावश्यक हस्तक्षेप के खिलाफ राज्यों के हितों की रक्षा करते हुए संघीय संतुलन को बरकरार रखती है।

संसद की समितियां

संसद एक अत्यंत वृहत निकाय है, जो उसके समक्ष आने वाले मुद्दों पर प्रभावी रूप से विचार करती है तथा उसके कार्य भी अत्यंत विस्तृत, जटिल एवं व्यापक हैं। इससे अलावा, इसके पास न तो पर्याप्त समय है और न ही आवश्यक विशेषता कि वह सभी वैधानिक उपायों और अन्य मामलों की गहन जांच करे। इसलिये, इसके कार्यों को संपादित करने के लिये विभिन्न संसदीय समितियाँ इसकी सहायता करती हैं।

भारत के संविधान में विभिन्न स्थानों पर इन समितियों का उल्लेख किया गया है। लेकिन उनके गठन, कार्यकाल, कार्य आदि के बारे में कोई विशिष्ट उपबंध मौजूद नहीं हैं। ये सभी मामले दोनों सदनों की नियमावली के अनुसार संचालित होते हैं। नियमानुसार, एक संसदीय समिति का अर्थ वह समिति है:

1. जिसकी नियुक्ति या चुनाव सदन द्वारा किया गया हो अथवा अध्यक्ष या सभापति द्वारा इसको नामनिर्दिष्ट किया गया हो।

2. जो अध्यक्ष या सभापति के निर्देशानुसार कार्य करती है;

3. अपना प्रतिवेदन सदन को अथवा अध्यक्ष अथवा सभापति को सौंपे, और;

4. जिसे लोकसभा अथवा राज्यसभा सचिवालय द्वारा सचिवालय की सुविधा प्रदान की गयी हो।

सलाहकार समितियां, जिनका गठन संसद सदस्यों से किया जाता है, उनके द्वारा उक्त मापदंड पूरा न करने के कारण उन्हें संसदीय समितियों की श्रेणी में नहीं रखा गया है। ये समितियां विभिन्न मंत्रियों एवं केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों से संबद्ध होती हैं। इनका कार्य संबंधित मंत्री एवं विभागों से विभिन्न मामलों पर चर्चा करके सलाह देना है।

संसदीय समितियाँ दो प्रकार की होती हैं-स्थायी समितियां एवं अस्थायी या तदर्थ समितियां। पहली स्थायी होती हैं (जिनका गठन प्रतिवर्ष या समयानुसार किया जाता है) और निरंतरता के आधार पर काम करती हैं। तदर्थ समितियों को प्रदत्त कार्यों के पूरा होने के उपरांत समाप्त किया जा सकता है। अस्थायी समितियां फिर दो हिस्सों में बांटी जा सकती हैं, ये हैं- जांच समितियां और सलाहकार समितियां। जांच समितियों का गठन समय-समय पर विशेष मुद्दों, जैसे-स्टॉक मार्केट घोटाला, बोफोर्स मामलों पर संयुक्त समिति आदि के लिये किया जाता है। सलाहकारी समितियों में किसी विधेयक पर प्रवर या संयुक्त समिति आदि शामिल होती हैं, जिसका गठन किसी विधेयक विशेष पर विचार कर उसके बारे में उचित अनुशंसायें करना होता है। प्रत्येक सदन में विभिन्न स्थायी समितियां और संयुक्त समितियां इस प्रकार हैं:

लोक लेखा समिति

इस समिति की स्थापना 1921 में भारत सरकार अधिनियम, 1919 के तहत की गई और यह अभी विघमान है। वर्तमान समय में इसमें 22 सदस्य (15 लोकसभा से एवं 7 राज्यसभा से) होते हैं। संसद, प्रत्येक वर्ष अपने सदस्यों के बीच से एकल संक्रमणीय सिद्धांत के आधार पर हस्तांतरणीय मत के माध्यम से इनका चयन करती है। इस तरह इसमें सभी दलों का प्रतिनिधित्व रहता है। सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष होता है। किसी मंत्री को इसका सदस्य नहीं चुना जा सकता। समिति के अध्यक्ष का चुनाव इसके सदस्यों के बीच से लोकसभा अध्यक्ष करता है। 1966-67 तक समिति का अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल से होता था, हालांकि 1967 से यह परंपरा प्रारंभ हो गयी कि समिति का अध्यक्ष विपक्षी दल से चुना जाये।

समिति का कार्य नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की वार्षिक रिपोर्ट की जांच करना है, जिसे राष्ट्रपति संसद के समक्ष रखता है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक तीन जांच रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपता है, जिनके नाम हैं- विनियोग लेखाओं संबंधी लेखापरीक्षा रिपोर्ट, वित्त लेखाओं संबंधी लेखा परीक्षा रिपोर्ट और सरकारी उपक्रमों संबंधी लेखा परीक्षा रिपोर्ट।

समिति न केवल विधिक दृष्टि से सावर्जनिक व्यय की जांच करती है अपितु वह इस संबंध में तकनीकी खामियों का भी आकलन करती है। इसके अलावा वह उसके समक्ष लाये गये या किसी ऐसे विषय की विस्तृत जांच भी करती है, जिसमें आर्थिक घोटाले, अनियमितता, भ्रष्टाचार, अपव्यय, अकुशलता एवं अनावश्यक व्यय आदि की शिकायतें होती हैं। समिति के विस्तृत कार्य निम्नलिखित हैं:

1. केंद्र सरकार के विनियोग खातों एवं वित्त खातों की जांच और संसद के समक्ष रखे गए अन्य खातों की जांच। विनियोग खातों में विनियोग अधिनियम के माध्यम से संसद द्वारा स्वीकृत व्यय के साथ वास्तविक व्यय की तुलना की जाती है, जबकि वित्त खातों में संघ सरकार की वार्षिक प्राप्तियों और संवितरण को दर्शाया जाता है।

2. विनियोग खातों और इस पर सीएजी की रिपोर्ट की जांच में समिति को स्वयं को इस बात के लिए पुष्ट करना होता है किः

(क) संवितरित की गई राशि विधिक रूप से उसी अनुप्रयुक्त सेवा या प्रयोजन के लिए प्रयोग की गई।

(ख) व्यय प्राधिकार के अनुसार किया गया है, और

(ग) प्रत्येक पुनः विनियोजन संबंधित नियमों के तहत किया गया है।

3. राज्य नियमों, व्यापार उद्यमों और विनिर्माण परियोजनाओं के लेखाओं और इन पर सीएजी की रिपोर्ट (सिवाए उन सरकारी उपक्रमों के जो सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति के आंवटित है) की जांच करना।

4. स्वयात्त और अर्ध स्वायत्त निकायों के लेखाओं की जांच करना, जिनकी लेखा परीक्षा सीएजी द्वारा की जाती है।

5. किसी प्राप्तियों के संबंध में सीएजी की लेख परीक्षा रिपोर्ट पर विचार करना या स्टोर और स्टॉक के लेखाओं की जांच करना।

6. किसी सेवा पर उस प्रयोजन हेतु लोक सभा द्वारा स्वीकृत धनराशि से एक वित्तीय वर्ष के दौरान अधिक व्यय की जांच करना।

उपरोक्त कार्यों की पूर्ति के लिए समिति को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा सहायता की जाती है।

प्राक्कलन समिति

इस समिति का उद्भव 1921 में स्थायी वित्तीय समिति के गठन से देखा जा सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तत्कालीन वित्त मंत्री जॉन मथाई की सिफारिश पर 1950 में ऐसी पहली समिति गठित की गई थी। मूलतः इसमें 25 सदस्य थे लेकिन 1956 में इसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 30 कर दी गई। इसके सभी 30 सदस्य लोकसभा से होते हैं। राज्ससभा का इस समिति में कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता है। समिति के सदस्य प्रत्येक वर्ष लोकसभा के सदस्यों के बीच से ही चुने जाते हैं। इसके लिये भी एकल संक्रमणीय सिद्धांत के आधार पर हस्तांतरणीय मत का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार, सभी राजनीतिक दलों को इसमें प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष होता है। कोई भी मंत्री समिति का सदस्य नहीं चुना जा सकता है। समिति के अध्यक्ष का चुनाव इसके सदस्यों के बीच से लोकसभा अध्यक्ष करता है तथा सभापति सत्तारूढ़ दल का होता है।

समिति का कार्य बजट में सम्मिलित अनुमानों की जांच करना और लोक व्यय में मितव्ययिता के सुझाव देना है। अतः इसे सतत आर्थिक समिति कहा जाता है। विस्तार में समिति के कार्य इस प्रकार हैं:

1. अनुमानों संबंधी नीति के अनुरूप संगठन में मितव्ययिता, सुधार, प्रभाविता और प्रशासनिक सुधार के संबंध में रिपोर्ट देना।

2. प्रशासन में प्रभाविता और मितव्ययिता लाना।

3. यह जांच करना कि नीति अनुमानों के अनुसार धन अपनी सीमाओं में ही हो।

4. संसद में पेश किए जाने वाले अनुमानों का प्रारूप सुझाना।

समिति पूरे वित्त वर्ष में समय-समय पर परीक्षण करती रहती है तथा अपनी रिपोर्ट संसद को प्रस्तुत करती रहती है। समिति के लिए यह बाध्यता नहीं है कि वह किसी वर्ष के संपूर्ण अनुमानों की जांच करे। अनुदानों की मांगों पर मतदान उस स्थिति में भी होता है, जब समिति ने उन पर कोई रिपोर्ट न दी हो।

सरकारी उपक्रमों संबंधी समिति

यह समिति, कृष्ण मेनन समिति के सुझाव पर 1964 में बनाई गई। मूलतः इसमें 15 सदस्य (10 लोकसभा से और 5 राज्यसभा से) थे। 1974 में इनकी संख्या 22 (15 लोकसभा से और 7 राज्यसभा से) कर दी गई। समिति के सदस्य प्रत्येक वर्ष संसद के सदस्यों के बीच से ही चुने जाते हैं। इसके लिये भी एकल संक्रमणीय सिद्धांत के आधार पर हस्तांतरणीय मत का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार, सभी राजनीतिक दलों को इसमें प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष होता है। कोई भी मंत्री समिति का सदस्य नहीं चुना जा सकता है। समिति के सभापति का चुनाव इसके सदस्यों के बीच से लोकसभा अध्यक्ष करता है, लेकिन सभापति केवल लोकसभा का सदस्य ही होता है। इस प्रकार इस समिति में शामिल राज्यसभा का कोई सदस्य समिति का सभापति नहीं बन सकता है। समिति के कार्य इस प्रकार हैं:

1. सरकारी उपक्रमों के लेखा एवं रिपोर्ट का परीक्षण।

2. सरकारी उपक्रमों पर कैग की रिपोर्ट का परीक्षण।

3. सरकारी उपक्रमों का व्यवसाय के सिद्धांतों एवं वाणिज्य प्रयोग के तहत काम का परीक्षण।

4. सरकारी लेखा समिति और प्राक्कलन समिति से संबंधित अन्य कार्य जिसे लोकसभा अध्यक्ष द्वारा समय-समय पर उन्हें सौंपा जाए।

समिति निम्न में से किसी का परीक्षण या जांच नहीं करतीः

1. सरकारी उपक्रमों के व्यवसाय या वाणिज्यिक कार्यों से पृथक मुख्य सरकारी नीति के मामले।

2. दैनिक प्रशासन संबंधी मामले।

3. किसी विशेष सांविधि जिसके तहत किसी विशिष्ट सरकारी उपक्रम की स्थापना की गई हो, की कार्यप्रणाली से संबंधित मामलों पर विचार।

विभागीय स्थायी समितियां

लोकसभा नियमावली समिति की सिफारिश पर 1993 में 17 विभागीय समितियों का गठन किया गया है। 2004 में, इस प्रकार की 7 अन्य समीतियों का गठन किया गया, इस प्रकार इन समीतियों की संख्या 17 से बढ़कर 24 हो गयी है।

ये समितियां संसद को बजट पर अधिक प्रभावी तरीके से परिचर्चा में सहायता प्रदान करती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य संसद के प्रति कार्यपालिका की जबावदेही को सुनिश्चित करना है, विशेषकर वित्तीय उत्तरदायित्व। इन समितियों के न्यायक्षेत्र में सभी मंत्रालय एवं विभाग आते हैं।

24 स्थायी समितियां अपने कार्यक्षेत्र में आने वाले केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों एवं विभागों का दायित्व संभालती हैं।

प्रत्येक स्थायी समिति में 31 सदस्य (21 लोकसभा से 10 राज्यसभा से) होते हैं। लोकसभा से सदस्यों को अध्यक्ष एवं राज्यसभा के सदस्यों को सभापति अपने सदस्यों के बीच से मनोनीत करते हैं।

किसी मंत्री को समिति का सदस्य नहीं चुना जा सकता। यदि सदस्य समिति के लिए नामित होने के बाद मंत्री बनता है तो उसे अपनी समिति की सदस्यता त्यागनी पड़ती है।

मनोनयन की तारीख से समिति के प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल एक वर्ष का होता है।

इन कुल 24 समितियों में से 8 राज्सयभा के अंतर्गत तथा 16 लोकसभा के अंतर्गत कार्य करती हैं।

प्रत्येक स्थायी समिति के कार्य इस प्रकार हैं:

1. संबंधित मंत्रालयों/विभागों द्वारा अनुदान मांगों को लोकसभा में पेश करने से पूर्व उन पर चर्चा करना। इसकी रिपोर्ट में ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए जो कटौती प्रस्ताव की प्रकृति का हो।

2. संबंधित मंत्रालयों/विभागों से संबंधित विधेयकों की जांच ।

3. मंत्रालयों/विभागों की वार्षिक रिपोर्टों की जांच।

4. सदन में प्रस्तुत राष्ट्रीय मूल दीर्घकालिक नीति लेखों की जांच।

इन स्थायी समितियों की सीमाएं इस प्रकार हैं:

1. यह संबंधित मंत्रालयों/विभागों के रोजमर्रा के मामलों पर विचार नहीं करती।

2. किसी अन्य संसदीय समिति के सुपुर्द मामले पर विचार नहीं करती।

यह उल्लेखनीय है कि इन समितियों की सिफारिशें मात्र परामर्शदात्री होती हैं, उन्हें मानने के लिए संसद बाध्य नहीं है। संसदीय व्यवस्था में इन स्थायी समितियों के गुण इस प्रकार हैं:

1. इनकी कार्यवाही पार्टी पूर्वाग्रहों से अलग होती है।

2. इनके द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया लोक सभा से ज्यादा लचीली होती है।

3. कार्यकारी पर संसदीय नियंत्रण अधिक विस्तृत, निकट, सतत् गहन और वृहद होता है।

4. यह लोक व्यय में मितव्ययिता और प्रभाविता सुनिश्चित करता है क्योंकि मंत्रालय-विभाग अपनी मांगों के निर्धारण में अधिक सचेत हो जाते हैं।

5. संसद के सभी सदस्यों को सरकार के कार्य में भाग लेने व समझने के लिए अवसर पैदा करती है।

6. यह रिपोर्ट बनाने के लिए विशेष या लोकमत ले सकती हैं। यह विशेषज्ञों और प्रसिद्ध व्यक्तियों को बुलाने में सक्षम है और उनके सुझावों को अपनी रिपोर्टों में शामिल कर सकती है।

7. विपक्षी दल और राज्यसभा अब कार्यपालिका पर वित्तीय नियंत्रण में ज्यादा अहम भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं।

इन 24 स्थायी समितियों एवं उनसे संबद्ध मंत्रालयों व विभागों के कार्यक्षेत्र को तालिका 22.9 में दर्शाया गया है।

कार्य मंत्रणा समिति

यह सदन के कार्यक्रम एवं समय को नियंत्रित करती है। यह सरकार द्वारा सदन के समक्ष लाये गये विधायी एवं अन्य कार्यों के लिए समय निर्धारित करती है। लोकसभा समिति में अध्यक्ष सहित 15 सदस्य होते हैं। राज्यसभा में पदेन सभापति समेत 11 सदस्य होते हैं।

गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयक एवं संकल्पों संबंधी समिति

यह गैर-सरकारी सदस्यों (मंत्रियों के अतिरिक्त) द्वारा लाये गये विधेयकों एवं संकल्पों के लिये चर्चा का समय निर्धारित करती है। यह लोकसभा की विशेष समिति है, जो 15 सदस्यों से मिलकर बनी होती है। लोकसभा उपाध्यक्ष इस समिति का सभापति होता है। राज्यसभा में इस तरह की समिति नहीं होती तथा इसका कार्य राज्यसभा की कार्य मंत्रणा समिति करती है।

सरकारी आश्वासनों संबंधी समिति

यह आश्वासनों, वादों और मंत्रियों द्वारा सभापटल पर समय-समय पर किए गए वादों की जांच करती है और रिपोर्ट प्रस्तुत करती है कि इनका कार्यान्वयन किस स्तर तक किया गया है। लोकसभा में इसके 15 सदस्य एवं राज्यसभा में 10 सदस्य होते हैं। इसका गठन 1953 में हुआ।

अधीनस्थ विधानों संबंधी समिति

यह जांच करती है और सभा को रिपोर्ट देती है कि संसद या संविधान द्वारा कार्यपालिका को विनियम, नियम, उपनियम और उपविधियों को निर्मित करने के लिए प्रत्यायोजित शक्तियों का प्रयोग ठीक ढंग से हो रहा है, दोनों सदनों में समिति के 15 सदस्य होते हैं। इसका गठन 1953 में हुआ।

अनुसूचित जाति एवं जनजाति कल्याण समिति

इसमें 30 सदस्य (20 लोकसभा से, 10 राज्यसभा से) होते हैं। इसके कार्य हैं- (i) अनुसूचित जाति/जनजाति राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्टों की जांच, (ii) अनु. जाति एवं जनजाति के कल्याण से जुड़े सभी मामलों, जैसे सांविधानिक और सांविधिक सुरक्षा उपायों का कार्यान्वयन, कल्याण कार्यक्रमों का कार्यकरण आदि का परीक्षण।

सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति

यह सदस्यों के अवकाश प्रपत्र पर विचार करती है और उस मामले का परीक्षण करती है जो 60 दिनों से बिना अनुमति के अवकाश पर हैं। यह लोकसभा की विशेष समिति है। इसमें 15 सदस्य होते हैं। राज्यसभा में ऐसी कोई समिति नहीं है। ऐसे मामले सदन में ही देखे जाते हैं।

नियम समिति

यह सभा के प्रक्रिया और संचालन नियमों पर विचार करती है और जरूरी संशोधन एवं सिफारिशों को सदन के नियम के लिए प्रस्तुत करती है। लोकसभा समिति में अध्यक्ष सहित 15 सदस्य होते हैं, लोक सभा अध्यक्ष इसके पदेन सभापति होते हैं। राज्य सभा में सभापति सहित 16 सदस्य होते हैं। राज्यसभा के सभापति इसके पदेन सभापति होते हैं।

सामान्य प्रयोजन समिति

यह सदन संबंधी मामलों पर सलाह एवं विचार करती है, जो किसी अन्य समिति के क्षेत्राधिकार में नहीं आते हैं। प्रत्येक सदन में समिति में पीठासीन अधिकारी (अध्यक्ष-सभापति) इसका पदेन सभापति होता है। इसके अतिरिक्त उपाध्यक्ष-उपसभापति, सभापति- उप-सभाध्यक्ष, सभी स्थायी विभागीय समितियों के सभापति, मान्यता प्राप्त दलों के नेता और पीठासीन अधिकारियों द्वारा नामित सदस्य शामिल होते हैं।

विशेषाधिकार समिति

इसकी कार्य प्रकृति अल्प-न्यायिक की तरह है। यह सदन एवं इसके सदस्यों के विशेषाधिकार हनन का परीक्षण करती है एवं उचित कार्यवाही की सिफारिश करती है। लोकसभा समिति में 15 सदस्य होते हैं जबकि राज्यसभा में 10 सदस्य ।

सदस्यों के वेतन एवं भत्तों संबंधी संयुक्त समिति

इसका गठन संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन अधिनियम 1954 के तहत किया गया। इसमें 15 सदस्य (10 लोकसभा से, 5 राज्यसभा से) होते हैं। यह सदस्यों के वेतन, भत्तों, पेंशन के विनियमन हेतु नियम बनाती हैं।

आवास समिति

यह सदस्यों के निवास एवं अन्य सुविधाओं जैसे भोजन, चिकित्सा आदि को देखती है। दोनों सदनों की अपनी आवास समिति होती हैं। लोकसभा में इसमें 12 सदस्य होते हैं।

याचिका समिति

यह सामान्य लोक महत्व के मामलों एवं विधेयकों पर याचिका का परीक्षण करती है। यह संघ सूची के विषयों के व्यक्तिगत मामलों को भी देखती है। लोकसभा समिति में 15 सदस्य हैं, जबकि राज्यसभा में 10 सदस्य हैं।

पुस्तकालय समिति

यह संसद के पुस्तकालय से संबंधित सभी मामलों पर विचार करती है और सदस्यों को इसकी सुविधा उपलब्ध करती है। इसमें 9 सदस्य (6 लोकसभा से एवं 3 राज्यसभा से) होते हैं।

आचरण समिति

राज्यसभा में इसकी स्थापना 1997 में एवं लोकसभा में 2000 में हुई। यह संसद सदस्य की आचरण संहिता को लागू करती है। यह संसद सदस्यों की अवमानना संबंधी मामलों को देखती है। यह दुर्व्यवहार मामलों का परीक्षण कर उचित कार्रवाई की मांग करती है। इस तरह यह संसद में अनुशासन एवं मर्यादा बनाए रखती है।

महिला सशक्तीकरण संबंधी समिति

इसकी स्थापना 1997 में हुई और इसके 30 सदस्य (लोकसभा से 20 और राज्यसभा से 10) हैं। यह राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट पर विचार करती है और सरकार द्वारा महिलाओं की सुरक्षित स्थिति एवं सभी क्षेत्रों में समानता एवं सम्मान के संदर्भ में उठाए गए कदमों का परीक्षण करती है।

सभापटल पर रखे गए पत्रों संबंधी समिति

इसकी स्थापना 1975 में हुई। लोकसभा समिति में 15 सदस्य हैं जबकि राज्यसभा के 10 सदस्य हैं। यह मंत्रियों द्वारा सभा पटल पर रखे गए सभी प्रपत्रों की जांच करती है कि वे संविधान के अधिनियमों एवं नियमों के तहत हैं कि नहीं। यह उन सांविधिक अधिसूचनाओं और आदेशों का परीक्षण नहीं करती, जो अधीनस्थ विधान समिति के क्षेत्र में आते हैं।

लाभ के पद संबंधी संयुक्त समिति

यह समितियों की रचना एवं उसके ढंग तथा केंद्र, राज्य व संघ शासित सरकारों द्वारा नामित इकाइयों का परीक्षण करती है तथा सिफारिश करती है कि कोई व्यक्ति जो इस पद पर है, संसद सदस्य के लिए योग्य होना चाहिए या नहीं। इसमें 15 सदस्य सम्मिलित होते हैं (10 लोकसभा से तथा 5 राज्यसभा से) ।

परामर्शदात्री समितियां

ये समितियां केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों-विभागों से संबंधित होती हैं। इनमें संसद के दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। किसी मंत्रालय की परामर्शदात्री समिति का अध्यक्ष उस मंत्रालय का मंत्री या राज्यमंत्री होता है।

ये समितियां सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों तथा उनके क्रियान्वयन के संबंध में संसद को मंत्रालयों एवं सदस्यों के मध्य वार्तालाप हेतु एक फोरम उपलब्ध कराती हैं।

इन समीतियों का गठन संसदीय कार्य मंत्रालय द्वारा किया जाता है। इनके गठन, कार्यों एवं प्रक्रियाओं आदि का निर्धारण इसी मंत्रालय द्वारा किया जाता है। मंत्रालय, संसद के सत्र एवं सत्रोत्तर दोनों कालों में इन समितियों की बैठक आयोजित किये जाने की व्यवस्था करता है।

सामान्यतया ये समितियां नये आम चुनावों के बाद नयी लोकसभा के गठन के उपरांत गठित की जाती हैं। 14वीं लोकसभा के गठन के बाद अक्टूबर 2004 में इस तरह की 29 समितियों का गठन किया गया था। इसके बाद 3 और समितियों का गठन हुआ, जिसके कारण इनकी कुल संख्या बढ़कर 32 हो गयी।

इसके अतिरिक्त, सभी रेलवे जोनों के लिये संसद सदस्यों की पृथक औपचारिक परामर्शदात्री समितियों का गठन किया जाता है। उस विशेष रेलवे जोन से संबंधित संसद सदस्य, पृथक् औपचारिक परामर्शदात्री समितियों के सदस्य नियुक्त किये जाते हैं। 14वीं लोकसभा के गठन के बाद, 16 रेलवे जोन से संबंधित इस प्रकार की 16 समितियों का गठन किया गया था।

विभिन्न मंत्रालयों एवं विभागों से संबंधित परामर्शदात्री समितियों के विपरीत, पृथक् औपचारिक परामर्शदात्री समितियों की बैठक केवल संसद के सत्र के दौरान ही आयोजित की जा सकती है।

संसदीय विशेषाधिकार

अर्थ

संसदीय विशेषाधिकार विशेष अधिकार, उन्मुक्तियां और छूटे हैं जो संसद के दोनों सदनों, इनकी समितियों और इनके सदस्यों को प्राप्त होते हैं। यह इनके कार्यों की स्वतंत्रता और प्रभाविता के लिए आवश्यक हैं। इन अधिकारों के बिना सदन न तो अपनी स्वायत्तत्ता, महानता तथा सम्मान को संभाल सकता है और न ही अपने सदस्यों को, किसी भी संसदीय उत्तरदायित्वों के निर्वहनों से सुरक्षा प्रदान कर सकता है।

संविधान ने संसदीय अधिकार उन व्यक्तियों को भी दिए हैं जो संसद के सदनों या इसकी किसी भी समिति में बोलते तथा हिस्सा लेते हैं। इनमें भारत के महान्यायवादी तथा केंद्रीय मंत्री शामिल हैं।

यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि संसदीय अधिकार राष्ट्रपति के लिए नहीं हैं जो संसद का एक अंतरिम भाग भी है।

वर्गीकरण

संसदीय विशेषाधिकारों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

1. वे अधिकार, जिन्हें संसद के दोनो सदन सामूहिक रूप से प्राप्त करते हैं, तथा

2. वे अधिकार, जिनका उपयोग सदस्य व्यक्तिगत रूप से करते हैं।

सामूहिक विशेषाधिकार

संसद के दोनों सदनों के संबंध में सामूहिक विशेषाधिकार निम्न हैं:

1. इसे अपनी रिपोर्ट, वाद-विवाद और कार्यवाही को प्रकाशित करने तथा अन्यों को इसे प्रकाशित न करने देने का भी अधिकार है। 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने, सदन की पूर्व अनुमति बिना संसद की कार्यवाही की सही रिपोर्ट के प्रकाशन की प्रेस की स्वतंत्रता को पुनर्स्थापित किया किंतु यह सदन की गुप्त बैठक के मामले में लागू नहीं है।

2. यह अपनी कार्यवाही से अतिथियों को बाहर कर सकती है तथा कुछ आवश्यक मामलों पर विचार-विमर्श हेतु गुप्त बैठक कर सकती है।

3. यह अपनी कार्यवाही के संचालन, कार्य के प्रबंध तथा इन मामलों के निर्णय हेतु नियम बना सकती है।

4. यह सदस्यों के साथ-साथ बाहरी लोगों को इसके विशेषाधिकारों के हनन या सदन की अवमानना करने पर निंदित, चेतावनी या कारावास द्वारा दंड दे सकती है (सदस्यों के मामले में बर्खास्तगी या निष्कासन भी)।

5. इसे किसी सदस्य की बंदी, अवरोध, अपराध सिद्धि, कारावास या मुक्ति संबंधी तत्कालिक सूचना प्राप्त करने का अधिकार है।

6. यह जांच कर सकती है तथा गवाह की उपस्थिति तथा संबंधित पेपर तथा रिकॉर्ड के लिए आदेश दे सकती है।

7. न्यायालय, सदन या इसकी समिति की कार्यवाही की जांच के लिए निषेधित है।

8. सदन क्षेत्र में पीठासीन अधिकारी की अनुमति के बिना कोई व्यक्ति (सदस्य या बाहरी व्यक्ति) बंदी नहीं बनाया जा सकता और न ही कोई कानूनी कार्यवाही (सिविल या आपराधिक) की जा सकती है।

व्यक्तिगत विशेषाधिकार

व्यक्तिगत अधिकारों से संबंधित विशेषाधिकार निम्न हैं:

1. उन्हें संसद की कार्यवाही के दौरान, कार्यवाही चलने से 40 दिन पूर्व तथा बंद होने के 40 दिन बाद तक बंदी नहीं बनाया जा सकता है। यह अधिकार केवल नागरिक मुकदमों में उपलब्ध है तथा आपराधिक तथा प्रतिबंधात्मक निषेध मामलों में नहीं।

2. उन्हें संसद में भाषण देने की स्वतंत्रता है। कोई सदस्य संसद या इसकी समिति में दिए गए वक्तव्य या मत के लिए किसी भी न्यायालय की किसी भी कार्यवाही के लिए जिम्मेदार नहीं है। यह स्वतंत्रता, संविधान के प्रावधान तथा संसद की कार्यवाही के नियम एवं स्थायी आदेश के संचालन से संबंधित है।26

3. वे न्यायनिर्णयन सेवा से मुक्त हैं। वे संसद के सत्र में किसी न्यायालय में लंबित मुकदमे में प्रमाण प्रस्तुत करने या उपस्थिति होने के लिए मना कर सकते हैं।

विशेषाधिकारों का हनन एवं सदन की अवमानना

जब कोई व्यक्ति या प्राधिकारी किसी संसद सदस्य की व्यक्तिगत और संयुक्त क्षमता में इसके विशेषाधिकारों, अधिकारों और उन्मुक्तियों का अपमान या उन पर अक्रमण करता है तो इसे अपराध विशेषाधिकार हनन कहा जाता है और यह सदन द्वारा दण्डनीय है।”

किसी भी तरह का कृत्य या चूक, जो सदन, इसके सदस्यों या अधिकारियों के कार्य संपादन में बाधा डाले, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सदन की मर्यादा, शक्ति तथा सम्मान के विपरीत परिणाम दे की अवमानना माना जाएगा। 28

यद्यपि दो अभिव्यक्तियों ‘विशेषाधिकार हनन’ और ‘सदन की अवमानना’ को एक-दूसरे के लिए प्रयुक्त किया जाता है तथापि इनके अर्थ भिन्न हैं। सामान्यतः विशेषाधिकार हनन सदन की – अवमानना हो सकती है। इसी प्रकार सदन की अवमानना में विशेषाधिकार हनन शामिल हो सकता है। तथापि सदन की अवमानना के अर्थ का व्यापक प्रभाव है। विशेषाधिकार हनन के बिना भी सदन की अवमानना हो सकती है। इसी प्रकार ऐसे कृत्य जो किसी विशिष्ट विशेषाधिकार का हनन नहीं हैं परन्तु वे सदन की मर्यादा और प्राधिकार के विरूद्ध सदन की अवमानना हो सकते हैं। उदाहरण के लिए सदन के विधायी आदेश को न मानना विशेषाधिकार का हनन नहीं है, परन्तु सदन की अवमानना के लिए दण्डित किया जा सकता है।

तालिका 22.5 संसद में सीटों का बंटवारा

क्रम संख्याराज्य/केंद्रशासित प्रदेशराज्यसभा में सीटों की संख्यालोकसभा में सीटों की संख्या
(I) राज्य
1.आंध्र प्रदेश1125
2.अरुणाचल प्रदेश12
3.असम714
4.बिहार1640
5.छत्तीसगढ़511
6.गोव12
7.गुजरात1126
8.हरियाणा510
9.हिमाचल प्रदेश34
10.जम्मू और कश्मीर46
11.झारखंड614
12.कर्नाटक1228
13.केरल920
14.मध्य प्रदेश1129
15.महाराष्ट्र1948
16.मणिपुर12
17.मेघालय12
18.मिजोरम11
19.नागालैंड11
20.ओड़ीशा1021
21.पंजाब713
22.राजस्थान1025
23.सिक्किम11
24.तमिलनाडु1839
25.तेलंगाना717
26.त्रिपुरा12
27.उत्तराखण्ड35
28.उत्तर प्रदेश3180
29.पश्चिम बंगाल1642
(II) केंद्रशासित प्रदेश
1.अंडमान और निकोबार द्वीप समूह1
2.चंडीगढ़1
3.दादरा और नागर हवेली1
4.दमन और दीव1
5.दिल्ली (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली)37
6.लक्षद्वीप1
7.पुडुचेरी11
(III) नामित सदस्य122
कुल245545

विशेषाधिकारों के स्रोत

मूल रूप में, संविधान (अनुच्छेद 105) में दो विशेषाधिकार बताए गए हैं। ये हैं, संसद में भाषण देने की स्वतंत्रता तथा इसकी कार्यवाही के प्रकाशन का अधिकार। अन्य विशेषाधिकारों के संदर्भ में, ये ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कामन्स, इसकी समितियों तथा आरंभ तिथि (26 जनवरी 1950) से इसके सदस्यों की तरह समान हैं जब तक कि संसद द्वारा घोषित न हों। 1978 का 44वां संशोधन अधिनियम कहता है कि संसद के दोनों सदनों के अन्य विशेषाधिकार, इसकी समितियों और सदस्यों को आरंभ होने की तिथि (20 जून, 1979) से ही प्राप्त हो गए। इसका अर्थ है कि अन्य विशेषाधिकार के संदर्भ में सभी स्थिति समान रहेगी। दूसरे शब्दों में, संशोधन सिर्फ मौखिक रूप से संशोधित होगा। इसे ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कामन्स के संदर्भ से बिना किसी परिवर्तन के लिया गया है।

यह उल्लेखनीय है कि संसद ने अब तक विशेषाधिकारों को संहिताबद्ध करने के संबंध में कोई विशेष विधि नहीं बनाया है। वे 5 स्रोतों पर आधारित हैं:

1. संवैधानिक उपबंध,

2. संसद द्वारा निर्मित अनेक विधियां,

3. दोनों सदनों के नियम,

4. संसदीय परंपरा, और;

5. न्यायिक व्याख्या।

संसद की संप्रभुता

‘संसद की संप्रभुता’ का सिद्धांत ब्रिटिश संसद से संबंधित है। संप्रभुता का मतलब राज्य की सर्वोच्च शक्ति है। ग्रेट ब्रिटेन में सर्वोच्च शक्ति संसद में निहित है, इसके प्रभाव एवं न्यायक्षेत्र पर वहां कोई विधिक प्रतिबंध नहीं है।

अतः संसद की संप्रभुता (संसदीय सर्वोच्चता) ब्रिटिश संवैधानिक व्यवस्था की महत्वपूर्ण विशेषता है। ब्रिटेन में सर्वोच्च शक्ति संसद में निहित है। ब्रिटिश न्यायवादी ए.वी. डायसी के मतानुसार इस सिद्धांत के तीन अनुप्रयोग हैं :

1. संसद किसी कानून को संशोधित प्रतिस्थापित या विधि को निरसित कर सकती है। ब्रिटिश राजनीति विश्लेषक डी. लोल्मे कहते हैं, “ब्रिटिश संसद एक महिला को पुरुष और पुरुष को महिला बनाने के अलावा सब कुछ कर सकती है।”

2. संसद संवैधानिक कानूनों को उसी प्रक्रिया की तरह बना सकती है जैसे साधारण कानून। दूसरे शब्दों में, ब्रिटिश संसद में सांविधिनिक प्रभाव एवं विधिक प्रभाव में कोई अंतर नहीं है।

3. संसदीय विधि को न्यायपालिका अवैध घोषित नहीं कर सकती जिससे वह असंवैधानिक हो जाए। दूसरे शब्दों में, ब्रिटेन में न्यायिक समीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है।

तालिका 22.7 लोकसभा की अवधियां

लोकसभाअवधिविशेष
पहली1952-1957अपना कार्यकाल पूरा करने के 38 दिन पहले विघटित हो गयी।
दूसरी1957-1962अपना कार्यकाल पूरा करने के 40 दिन पहले विघटित हो गयी।
तीसरी1962-1967अपना कार्यकाल पूरा करने के 44 दिन पहले विघटित हो गयी।
चौथी1967-1970अपने कार्यकाल से 1 वर्ष एवं 79 दिन पहले विघटित हो गयी।
पांचवीं1971-1977इसका कार्यकाल 1-1 वर्ष करके दो बार बढ़ाया गया। हालांकि, लोकसभा पांच वर्ष, 10 माह एवं 6 दिन की अवधि के बाद विघटित हो गयी।
छठवीं1977-1979दो वर्ष चार माह एवं 28 दिन में विघटित हो गयी।
सातवीं1980-1984अपना कार्यकाल पूरा करने के 20 दिन पहले विघटित हो गयी।
आठवीं1985-1989अपना कार्यकाल पूरा करने के 48 दिन पहले विघटित हो गयी।
नौवीं1889-1991एक वर्ष, दो माह एवं 25 दिन बाद विघटित हो गयी।
दसवीं1991-1996
ग्यारहवीं1996-1997एक वर्ष, दो माह एवं 25 दिन बाद विघटित हो गयी।
बारहवीं1998-1999एक वर्ष, एक माह एवं 4 दिन बाद विघटित हो गयी।
तेरहवीं1999-2004अपने कार्यकाल से 253 दिन पहले विघटित हो गयी।
चौदहवीं2004-2009
पंद्रहवीं2009-अब तक

दूसरी तरफ भारतीय संसद को संप्रभु इकाई नहीं कहा जा सकता जैसा कि ‘इसके प्रभाव व न्याय क्षेत्र में न्यायिक अवरोध हैं।’ जो तत्व जो भारतीय संसद की संप्रभुता को सीमित करते हैं, वे हैं:

1. संविधान की लिखित प्रकृति

हमारे देश का संविधान मूलभूत विधि है। इसमें संघ सरकार के तीनों अंगों के लाभ क्षेत्र, प्रभाव एवं उनके आपस में संबंधों को परिभाषित किया गया है। इस तरह संविधान से इतर संसद के पास क्रियान्वयन को कुछ नहीं है। यही नहीं, कुछ संशोधनों के लिए आधे से अधिक राज्यों की संस्तुति भी जरूरी होती है। ब्रिटेन में न तो संविधान लिखित में है और न ही वहां कोई मूलभूत विधि है।

2. सरकार की संघीय व्यवस्था

भारत में शासन की फेडरल (संघीय) प्रणाली है जिसमें संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का सांविधानिक विभाजन है, दोनों स्वयं को प्राप्त विषयों पर क्रियान्वयन करते हैं। अतः संसद की विधि निर्माण की शक्ति केवल संघीय सूची और समवर्ती सूची के विषयों तक सीमित है। लेकिन इस शक्ति को राज्यसूची में विस्तारित नहीं किया जा सकता (सिवाए पांच असाधारण परिस्थितियों के, यह भी अल्प समय के लिए)। दूसरी तरफ, ब्रिटेन में सरकार की एकात्मक व्यवस्था है। इस तरह सारी शक्ति केंद्र में निहित होती है।

3. न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था

स्वतंत्र न्यायपालिका के साथ न्यायिक समीक्षा की शक्ति हमारी संसद की सर्वोच्चता पर रोक लगाती है। उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय दोनों संसद द्वारा प्रभावी विधि को असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं यदि वे संविधान से किसी उपबंध का उल्लंघन करते हों। दूसरी तरफ, ब्रिटेन में न्यायिक समीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। ब्रिटिश न्यायालय, संसदीय विधि को बिना उसकी संवैधानिकता, वैधता या उचित कारण जाने विशेष मामलों में लागू कर सकता है।

तालिका 22.8 लोकसभा के अध्यक्ष

लोकसभाअवधिविशेष
पहली1. गणेश वासुदेव मावलंकर
2. एम. ए. आयंगर
1952-1956 (निधन)
1956-1957
दूसरीएम. ए. आयंगर1957-1962
तीसरीहुकुम सिंह1962-1967
चौथी1. नीलम संजीव रेड्डी
2. डॉ. गुरदयाल सिंह ढिल्लो
1967-1969 (त्यागपत्र)
1969-1971
पांचवीं1. डॉ. गुरदयाल सिंह ढिल्लो
2. बलीराम भगत
1971-1975 (त्यागपत्र)
1976-1977
छठवीं1. नीलम संजीव रेड्डी
2. के. डी. हेगड़े
1977-1977 (त्यागपत्र)
1977-1980
सातवींडॉ. बलराम जाखड़1980-1985
आठवींडॉ. बलराम जाखड़1985-1989
नौवींरवि राय1989-1991
दसवींशिवराज वी. पाटिल1991-1996
ग्यारहवींपी. ए. संगमा1996-1998
बारहवींजी. एम. सी. बालयोगी1998-1999
तेरहवीं1. जी. एम. सी. बालयोगी
2. मनोहर जोशी
1999-2002 (निधन)
2002-2004
चौदहवींसोमनाथ चटर्जी2004-2009
पंद्रहवींमीरा कुमार2009 अब तक

4. मूल अधिकार

संविधान के भाग तीन के अंतर्गत न्यायोचित मूल अधिकारों की संहिता को शामिल कर संसद के प्राधिकार को समिति किया गया है। अनुच्छेद 13 राज्य की किसी भी ऐसी विधि को बनाने से प्रतिबंधित करता है जो मूल अधिकार के किसी भाग या इसे पूर्ण रूप में निरसन करे। इस तरह एक संसदीय विधि जो मूल अधिकारों का हनन करे, उसे अवैध माना जाएगा। दूसरी तरफ, ब्रिटेन के संविधान में न्यायोचित मूल अधिकारों की कोई अलग संहिता नहीं है। ब्रिटिश संसद में इस तरह का भी कोई कानून नहीं बनता जो नागरिकों के मूल अधिकारों पर हो। इसका मतलब यह नहीं कि ब्रिटिश नागरिकों को अधिकार ही प्राप्त नहीं हैं। यद्यपि वहां अधिकारों का गारंटी चार्टर नहीं है, लेकिन ब्रिटेन में विधि का नियम होने के कारण अधिकतम स्वतंत्रता है।

तथापि हमारी संसद की संगठनात्मक एवं नामवली पद्धति उसी तरह है जैसे ब्रिटिश संसद परन्तु दोनों में काफी अंतर है।

भारतीय संसद ब्रिटिश संसद की संप्रभु इकाई होने के अर्थ में एक संप्रभु इकाई नहीं है। ब्रिटिश संसद के विपरीत भारतीय संसद का प्राधिकार परिभाषित, सीमित एवं प्रतिबंधित है।

इस परिपेक्ष्य में, भारतीय संसद अमेरिकी विधायिका (कांग्रेस के रूप में जाना जाता है) के समान है। अमेरिका में भी, कांग्रेस की संप्रभुता वैधानिक रूप से संविधान के लिखित शब्दों, सरकार की संघीय व्यवस्था, न्यायिक समीक्षा तथा अधिकार के विधेयकों द्वारा प्रतिबंधित है।

तालिका 22.9 संसद से संबंधित अनुच्छेद, एक नजर में

अनुच्छेदविषय-वस्तु
79संसद का गठन
80राज्यसभा का संघटन
81लोकसभा का संघटन
82प्रत्येक जनगणना के पश्चात् पुनर्समायोजन
83संसद के सदनों की अवधि
84संसद की सदस्यता के लिए योग्यता
85संसद के सत्र, सत्रावसान एवं विघटन (भंग)
86राष्ट्रपति का सदनों को संबोधित करने तथा संदेश देने का अधिकार
87राष्ट्रपति का विशेष संबोधन
संसद के पदाधिकारी गण
89राज्यसभा के सभापति तथा उपसभापति
90राज्यसभा के उपसभापति पद की रिक्ति, त्यागपत्र तथा विमुक्ति
91सभापति के कर्तव्यों के निर्वहन अथवा सभापति के रूप में कार्य करने को उपसभापति की शक्ति
92सभापति अथवा उपसभापति का सदन की अध्यक्षता से विरत रहना, जबकि उनकी विमुक्ति संबंधी कोई प्रस्ताव विचाराधीन हो
93लोकसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष
94लोकसभाध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष पद की रिक्ति, त्यागपत्र तथा विमुक्ति
95लोकसभा उपाध्यक्ष अथवा किसी अन्य व्यक्ति का लोकसभा अध्यक्ष के कर्तव्यों का निर्वहन अथवा लोकसभा अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की शक्ति
96लोकसभा अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का सदन की अध्यक्षता से विरत रहना, जबकि उनकी विमुक्ति संबंधी कोई प्रस्ताव विचाराधीन हो
97सभापति एवं उपसभापति तथा लोकसभा अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष के वेतन एवं भत्ते
98संसद सचिवालय
कार्यवाही का संचालन
99सदस्यों द्वारा शपथ ग्रहण
100दोनों सदनों में मतदान, रिक्तियों तथा कोरम की पूर्ति के बिना भी सदनों का कार्य करने का अधिकार

सदस्यों की अयोग्यता
101सीरों की रिक्ति
102सदस्यता से अयोग्य ठहरना
103सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित प्रश्नों पर निर्णय
104अनुच्छेद 99 के अंतर्गत शपथ ग्रहण करने के पहले स्थान ग्रहण करने तथा मतदान देने पर दंड अथवा जब योग्यता नहीं हो अथवा जब अयोग्य ठहराया गया हो।
संसद तथा इसके सदस्यों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार तथा प्रतिरक्षा
105संसद के सदनों तथा इसके सदस्यों एवं समितियों की शक्तियाँ तथा विशेषाधिकार आदि
106सदस्यों के वेतन एवं भत्ते
विधायी प्रक्रिया
107विधेयकों की प्रस्तुति एवं उनको पारित करने संबंधी प्रावधान
108कतिपय मामलों में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक
109मुद्रा विधेयकों के मामले में विशेष प्रक्रिया
110मुद्रा विधेयक की परिभाषा
111विधेयकों की स्वीकृति
वित्तीय मामलों में प्रक्रिया
112वार्षिक वित्तीय विवरण
113संसद में प्राक्कलनों से संबंधित प्रक्रिया
114विनियोजन विधेयक
115पूरक, अतिरिक्त तथा अतिरेक अनुदान
116लेखा पर मतदान, ऋण एवं असाधारण अनुदानों पर मतदान
117वित्तीय विधेयकों संबंधी विशेष प्रावधान
सामान्य प्रक्रिया
118प्रक्रिया संबंधी नियम
119संसद में वित्तीय कार्यवाहियों से संबंधित विनियमन
120संसद में उपयोग की जाने वाली भाषा
121संसद में चर्चा पर प्रतिबंध
122संसद की कार्यवाहियों के बारे में न्यायालय पूछताछ नहीं कर सकता।
राष्ट्रपति की विधायी शक्तियाँ
123संसद के अवकाश काल में राष्ट्रपति की अध्यादेश जारी करने की शक्ति।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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