भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक : 45

भारत के संविधान (अनुच्छेद 148) में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के स्वतंत्र पद की व्यवस्था की गई है, जिसे संक्षेप में ‘महालेखा परीक्षक’ कहा गया है। यह भारतीय लेखा परीक्षण और लेखा विभाग’ का मुखिया होता है। यह लोक वित्त का संरक्षक होने के साथ-साथ देश की संपूर्ण वित्तीय व्यवस्था का नियंत्रक होता है। इसका नियंत्रण राज्य एवं केंद्र दोनों स्तरों पर होता है। इसका कर्तव्य होता है कि भारत के संविधान एवं संसद की विधि के तहत वित्तीय प्रशासन को संभाले। डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने कहा था कि नियंत्रक महालेखा परीक्षक भारतीय संविधान के तहत सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी होगा। यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में भारत सरकार के रक्षकों में से एक होगा। इन रक्षकों में उच्चतम न्यायालय, निर्वाचन आयोग एवं संघ लोक सेवा आयोग शामिल हैं।

नियुक्ति एवं कार्यकाल

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। कार्यभार संभालने से पहले यह राष्ट्रपति के सम्मुख निम्नलिखित शपथ या प्रतिज्ञान लेता है:

1. भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखेगा।

2. भारत की एकता एवं अखंडता को अक्षुण्ण रखेगा।

3. सम्यक प्रकार से और श्रद्धापूर्वक तथा अपनी पूरी योग्यता, ज्ञान और विवेक से अपने पद के कर्तव्यों का भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पालन करूंगा।

4. संविधान और विधियों की मर्यादा बनाए रखूंगा।

इसका कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक होता है। इससे पहले वह राष्ट्रपति के नाम किसी भी समय अपना त्यागपत्र भेज सकता है। राष्ट्रपति द्वारा इसे उसी तरह हटाया जा सकता है, जैसे उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाता है। दूसरे शब्दों में, संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत के साथ उसके दुर्व्यवहार या अयोग्यता पर प्रस्ताव पास कर उसे हटाया जा सकता है।

स्वतंत्रता

नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की स्वतंत्रता एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए संविधान में निम्नलिखित व्यवस्था की गई हैं:

1. इसे कार्यकाल की सुरक्षा मुहैया कराई गई है। इसे केवल राष्ट्रपति द्वारा संविधान में उल्लिखित कार्यवाही के जरिए हटाया जा सकता है। इस तरह यह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद पर नहीं रहता यद्यपि इसकी नियुक्त राष्ट्रपति द्वारा ही होती है।

2. यह अपना पद छोड़ने के बाद किसी अन्य पद, चाहे वह भारत सरकार का हो या राज्य सरकार का, ग्रहण नहीं कर सकता।

3. इसका वेतन एवं अन्य सेवा शर्तें संसद द्वारा निर्धारित होती हैं। वेतन उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर होता है।

4. इसके वेतन में और अनुपस्थिति, छुट्टी, पेंशन या निवृत्ति की आयु के संबंध में उसके अधिकारों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा।

5. भारतीय लेखा परीक्षक, लेखा विभाग के कार्यालय में काम करने वाले लोगों की सेवा शर्तें और नियंत्रक- महालेखापरीक्षक की प्रशासनिक शक्तियां ऐसी होंगी जो नियंत्रक-महालेखा परीक्षक से परामर्श करने के पश्चात राष्ट्रपति द्वारा बनाए गए नियमों द्वारा विहित की जाएं।

6. नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के कार्यालय के प्रशासनिक व्यय, जिनके अंतर्गत उस कार्यालय में सेवा करने वाले व्यक्तियों को या उनके संबंध में संदेय सभी वेतन भत्ते और पेंशन हैं, भारत की संचित निधि पर भारित होंगे। अतः इन पर संसद में मतदान नहीं हो सकता।

कोई भी मंत्री संसद के दोनों सदनों में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है और कोई मंत्री उसके द्वारा किए गए किसी कार्य की जिम्मेदारी नहीं ले सकता।

कर्तव्य और शक्तियां

संविधान (अनुच्छेद 149) संसद को यह अधिकार देता है कि वह केंन्द्र, राज्य या किसी अन्य प्राधिकरण या संस्था के महालेखा परीक्षक से जुड़े लेखा मामलों को व्यास्थापित करे। इसी से जुड़े संसद ने महालेखा परीक्षक (कर्तव्य, शक्तियां एवं सेवा शर्तों) अधिनियम 1971 को प्रभावी बनाया। इस अधिनियम को 1976 में केंद्र सरकार के लेखा परीक्षा से लेखा को अलग करने हेतु संशोधित किया गया। संसद एवं संविधान द्वारा स्थापित नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के कार्य एवं कर्तव्य निम्नलिखित हैं:

1. वह भारत की संचित निधि, प्रत्येक राज्य की संचित निधि और प्रत्येक संघशक्ति प्रदेश जहां विधानसभा हो, से सभी व्यय संबंधी लेखाओं की लेखा परीक्षा करता है।

2. वह भारत की संचित निधि और भारत के लोक लेखा सहित प्रत्येक राज्य की आकास्मिकता निधि और प्रत्येक राज्य के लोक लेखा से सभी व्यय की लेखा परीक्षा करता है।

3. वह केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के किसी विभाग द्वारा सभी ट्रेडिंग, विनिर्माण लाभ और हानि लेखाओं, तुलन पत्रों और अन्य अनुषंगी लेखाओं की लेखा परीक्षा करता है।

4. वह केन्द्र और प्रत्येक राज्य की प्राप्तियों और व्यय की लेखापरीक्षा स्वयं को यह संतुष्ट करने के लिए करता है कि राजस्व के कर निर्धारण, संग्रहण और उचित आवंटन पर प्रभावी निगरानी सुनिश्चित के नियम और प्रक्रियाएं निर्मित की गई हैं।

5. वह निम्नांकित प्राप्तियों और व्ययों का भी लेखा परीक्षण करता है:

(अ) वे सभी निकाय एवं प्राधिकरण, जिन्हें केंद्र या राज्य सरकारों से अनुदान मिलता है।

(ब) सरकारी कंपनियां, एवं;

(स) जब संबद्ध नियमों द्वारा आवश्यक हो, अन्य निगमों एवं निकायों का लेखा परीक्षण।

6. वह ऋण, निक्षेप निधि, जमा, अग्रिम, बचत खाता और धन प्रेषण व्यवसाय से संबंधित केन्द्रीय और राज्य सरकारों के सभी लेन-देनों की लेखा परीक्षा करता है। वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के साथ या राष्ट्रपति द्वारा मांगे जाने पर प्राप्तियों, स्टॉक लेखाओं और अन्यों की भी लेखा परीक्षा करता है।

7. वह राष्ट्रपति या राज्यपाल के निवेदन पर किसी अन्य प्राधिकरण के लेखाओं की भी लेखा परीक्षा करता है। उदाहरण के लिए स्थानीय निकायों की लेखा परीक्षा।

8. वह राष्ट्रपति को इस संबंध में सलाह देता है कि केन्द्र और राज्यों के लेखा किस प्रारूप में रखे जाने चाहिए।

9. वह केंद्र सरकार के लेखों से संबंधित रिपोर्ट राष्ट्रपति को देता है, जो उसे संसद के पटल पर रखते हैं (अनुच्छेद 151)।

10. वह राज्य सरकार के लेखों से संबंधित रिपोर्ट राज्यपाल को देता है, जो उसे विधानमंडल के पटल पर रखते हैं (अनुच्छेद 151)।

11. वह किसी कर या शुल्क की शुद्ध आगमों का निर्धारण और प्रमाणन करता है (अनुच्छेद 279)। उसका प्रमाण पत्र अंतिम होता है। शुद्ध आगमों का अर्थ है-कर या शुल्क की प्राप्तियां, जिसमें संग्रहण की लागत सम्मिलित न हो।

12. वह संसद की लोक लेखा समिति के गाइड, मित्र और मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है।

13. वह राज्य सरकारों के लेखाओं का संकलन और अनुरक्षण करता है। 1976 में इसे केन्द्रीय सरकार के लेखाओं के संकलन और अनुरक्षण कार्य से मुक्त कर दिया गया क्योंकि लेखाओं को लेखापरीक्षण से अलग कर लेखाओं का विभागीकरण कर दिया गया।

सीएजी (कैग) राष्ट्रपति को तीन लेखा परीक्षा प्रतिवेदन प्रस्तुत करता है-विनियोग लेखाओं पर लेखा परीक्षा रिपोर्ट, वित्त लेखाओं पर लोग परीक्षा रिपोर्ट और सरकारी उपक्रमों पर लेखा परीक्षा रिपोर्ट। राष्ट्रपति इन रिपोर्टों को संसद के दोनों सदनों के सभापटल पर रखता है। इसके उपरांत लोक लेखा समिति इनकी जांच करती है और इसके निष्कर्षों से संसद को अवगत कराती है।

भूमिका

वित्तीय प्रशासन के क्षेत्र में भारत के संविधान एवं संसदीय विधि के अनुरक्षण के प्रति महालेखा परीक्षक उत्तरदायी होता है। कार्यकारी (अर्थात् मंत्रिपरिषद) की संसद के प्रति वित्तीय प्रशासन का उत्तरदायित्व कैग की लेखा परीक्षा रिपोर्टों के माध्यम से सुनिश्चित किया जाता है। महालेखा परीक्षक संसद का एजेंट होता है और उसी के माध्यम से खर्चों का लेखा परीक्षण करता है। इस तरह वह केवल संसद के प्रति जिम्मेदार होता है।

विनियोग लेखा वास्तविक खर्च की संसद की विनियोग अधिनियम के माध्यम से दी गई स्वीकृति के बीच तुलनात्मक स्थिति को सामने रखता है, जबकि वित्त लेखा वार्षिक प्राप्तियों तथा केन्द्र सरकार की अदायगियों को प्रदर्शित करता है।

कैग को यह निर्धारण करना होता है कि विधिक रूप में जिस प्रयोजन हेतु धन संवितरित किया गया था, वह उसी प्रयोजन या सेवा हेतु प्रयुक्त या प्रभारित किया गया है और क्या व्यय इस हेतु प्राधिकार के अनुरूप है। इस विधिक और विनियामक लेखा परीक्षा के अतिरिक्त कैग औचित्य लेखा परीक्षा भी करता है अर्थात् वह सरकारी व्यय की तर्कसंगतता, निष्ठा और मितव्ययता की भी जांच करता है और ऐसे व्यय की व्यर्थतता और दिखावे पर टिप्पणी भी करता है। तथापि विधि और विनियामक लेखा परीक्षा जोकि कैग पर बाध्यकारी है, औचित्य लेखा परीक्षा के विवेकानुसार है।

महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक (CAG) को खर्चों की लेखा परीक्षा में प्राप्तियों, भंडारों तथा स्टॉक के लेखा परीक्षण की तुलना में कहीं अधिक स्वतंत्रता होती है जबकि खर्च के संबंध में वह लेखा परीक्षा के विषय क्षेत्र को निश्चित करता है तथा स्वयं अपना लेखा परीक्षा संहिताओं तथा नियमावलियों की रचना करता है। उसे अन्य लेखा परीक्षाओं को पूरा करने के लिए नियमावलियों के संबंध में कार्यकारी सरकार से स्वीकृति लेनी पड़ती है।

गुप्त सेवा व्यय कैग की लेखा परीक्षा भूमिका पर सीमाएं निर्धारित करता है। इस संबंध में कैग कार्यकारी एजेन्सियों द्वारा किए गए व्यय के ब्यौरे नहीं मांग सकता, परन्तु सक्षम प्रशासनिक प्राधिकारी से प्रमाण-पत्र को स्वीकार करना होगा कि व्यय इस प्राधिकार के अंतर्गत किया गया है।

भारत के संविधान में कैग की परिकल्पना नियंत्रक सहित महालेखा परीक्षक के रूप में की गई है। यद्यपि व्यवहार में कैग केवल महालेखा परीक्षक की भूमिका का निर्वाह कर रहा है। दूसरे शब्दों में, कैग का भारत की संचित निधि से धन की निकासी पर कोई नियंत्रण नहीं है और अनेक विभाग कैग के प्राधिकार के बिना चैक जारी कर धन की निकासी कर सकते हैं, कैग की भूमिका व्यय होने के बाद केवल लेखा परीक्षा अवस्था में है। इस संबंध में भारत के कैग की भूमिका ब्रिटेन के कैग, जिसके पास नियंत्रक सहित महालेखापरीक्षक की शक्तियों से बिल्कुल भिन्न हैं। दूसरे शब्दों में, कार्यकारिणी लोक राजकोष से केवल कैग की स्वीकृति से धन निकाल सकती है।

CAG तथा निगम

सार्वजनिक निगमों की लेखा परीक्षा में कैग की भूमिका सीमित है। मोटे तौर पर सार्वजनिक निगमों के साथ इसके संबंध को निम्नलिखित तीन कोटियों के अंतर्गत देखा जा सकता है:

(i) कुछ निगमों की लेखा परीक्षा पूरी तरह एवं प्रत्यक्ष तौर पर सी.ए.जी. द्वारा की जाती है। उदाहरण : दामोदर घाटी निगम, तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग, एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइंस कॉरपोरेशन एवं अन्य (ii) कुछ अन्य निगमों की लेखा परीक्षा निजी पेशेवर अंकेक्षकों (लेखा परीक्षकों) के द्वारा की जाती है, जो सी.ए.जी. की सलाह पर केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। यदि आवश्यक हो तो सी.ए.जी. पूरक लेखा परीक्षा कर सकती है। उदाहरण-केन्द्रीय भंडारण निगम, औद्योगिक वित्त निगम एवं अन्य

(iii) कुछ अन्य निगमों की पूरी तरह निजी लेखा परीक्षा की जाती है। दूसरे शब्दों में, लेखा परीक्षा निजी पेशेवर अंकेक्षकों के द्वारा की जाती है तथा इसमें सी.ए.जी. की कोई भूमिका नहीं होती है। वे अपना वार्षिक प्रतिवेदन तथा लेखा सीधे संसद को प्रस्तुत करती है।

उदाहरण: जीवन बीमा निगम, भारतीय रिजर्व बैंक, भारतीय स्टेट बैंक, भारतीय खाद्य निगम इत्यादि।

सरकारी कम्पनियों की लेखा परीक्षा में भी सी.ए.जी. की भूमिका सीमित है। उनकी लेखा परीक्षा निजी अंकेक्षकों द्वारा की जाती है जो कि सी.ए.जी. की सलाह पर सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। सी.ए.जी. इनकी पूरक लेखा परीक्षा अथवा जाँच लेखा परीक्षा कर सकती है। 1968 में सी.ए.जी. कार्यालय के एक अंग के रूप में लेखा परीक्षा बोर्ड (ऑडिट बोर्ड) की स्थापना की गई थी। जिससे की बाहरी विशेषज्ञों को विशेष उद्यमों, जैसे-इंजीनियरी, लौह एवं इस्पात, रसायन इत्यादि के लेखा परीक्षा के तकनीकी पक्षों का ध्यान रखा जा सके। इस बोर्ड की स्थापना भारतीय प्रशासनिक सुधार आयोग की अनुशंसाओं पर की गई थी। इसके एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य होते हैं, जो कि सी.ए.जी. द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।

एप्पल बाईज द्वारा आलोचना

पॉल एच. एप्पल बाईज ने भारतीय प्रशासन पर अपनी दो रिपोटरों में सी.ए.जी. की भूमिका की कड़ी आलोचना की है तथा उसके कार्य के महत्व पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है। उसने राय दी सी.ए.जी को लेखा परीक्षा के दायित्व से मुक्त कर देना चाहिए। भारतीय लेखा परीक्षा की उसकी आलोचना के निम्नलिखित बिन्दु हैं:

(i) भारत में सी.ए.जी. का कार्य वास्तव में औपनिवेशिक शासन की एक विरासत के रूप में है।

(ii) आज सी.ए.जी. निर्णय लेने तथा काम करने की बढ़ती अनिच्छा का प्राथमिक कारण है। लेखा परीक्षा का दमनात्मक तथा नकारात्मक प्रभाव है।

(iii) संसद की लेखा परीक्षा को संसदीय दायित्व के महत्व को बढ़ा-चढ़ाकर देखा जाता है। इसलिए संसद सी.ए.जी. के कार्यों को परिभाषित करने में विफल रही है जैसा कि संविधान में उससे अपेक्षा की गई है।

(iv) वास्तव में सी.ए.जी. का कार्य बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। लेखा परीक्षक अच्छे प्रशासन के बारे में न तो जानते हैं, न ही उनसे ऐसी अपेक्षा की जा सकती है।

(v) लेखा परीक्षक जानते हैं कि लेखा परीक्षा क्या होती है, लेकिन यह प्रशासन नहीं है, यह आवश्यक है किन्तु यह एक अत्यंत नीरस तथा सीमित परिप्रेक्ष्य एवं सीमित उपयोगिता वाला कार्य है।

(vi) किसी विभाग का उप-सचिव अपने विभाग की समस्याओं के बारे में सी.ए.जी तथा उनके समस्त कर्मचारियों से ज्यादा जानता है।

तालिका 45.1 भारत के महालेखा नियंत्रक एवं परीक्षक से संबंधित अनुच्छेद, एक नजर में

अनुच्छेदविषय-वस्तु
148भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक
149नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के कार्य एवं शक्तियाँ
150संघ तथा राज्यों के लेखा के प्रकार
151अंकेक्षण प्रतिवेदन

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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