पादप जगत का संक्षिप्त विवरण
➤ पौधों का वर्गीकरण
संसार में लगभग 5.0 लाख विभिन्न प्रकार के पादपों की खोज की जा चुकी है। ये पौधे संरचना, रूप व आकार में एक दूसरे से भिन्नता रखते हैं। सभी पौधे पादप जगत् (plant kingdom) के अन्तर्गत आते हैं। पादप जगत् का एक संशोधित, आधुनिक, जातिवृत्तीय (Phylogenetic) एवं लगभग प्राकृतिक वर्गीकरण ओसवाल्ड टिप्पो ने प्रस्तुत किया जो अधिकतर वनस्पतिशास्त्रियों द्वारा माना गया। इस वर्गीकरण की रूपरेखा नीचे प्रस्तुत है-
उपजगत (Sub Kingdom)
(A) थैलोफाइटा (Thallophyta)
उपजगत (Sub Kingdom)
(B) एम्ब्रियोफाइटा (Embryophyta)
(A) थैलोफाइटा : इस उपजगत के पौधों में भ्रूण नहीं बनता तथा संवहन बंडल अनुपस्थित होते हैं। * इनमें जड़, तना एवं पत्तियों का पूर्ण अभाव होता है। * इनके 10 फाइलम पाये जाते हैं। यथा-
1. साइनोफाइटा (Cyanophyta) । जैसे – नोस्टोक, नीली- हरी शैवाल।
2. यूग्लीनोफाइटा (Euglenophyta)। जैसे-यूग्लीना।
3. क्लोरोफाइटा (Chlorophyta)। हरी शैवाल जैसे- यूलोब्रिक्स, पाइरोगाइरा आदि।
4. क्राइसोफाइटा (Crysophyta) पीली-हरी शैवाल। जैसे- वाइचेरिया, डाइएटम्स (Diatoms)।
5. पाइरोफाइटा (Pyrrophyta) सुनहरी-भूरी शैवाल।
6. फीओफाइटा (Phaeophyta) भूरी शैवाल। जैसे-सारगैसम।
7. रोडोफाइटा (Rhodophyta) लाल शैवाल। जैसे- पालीसिफोनिया।
8. शाइजोमाइकोफाइटा (Schizomy-cophyta)। जैसे- जीवाणु।
9. मिक्सोमाइकोफाइटा (Mixomyco-phyta)। जैसे- अवपंक कवक (Slime Molds)
10. यूमाइकोफाइटा (Eumycophyta)। जैसे-कवक।
नोट – प्रथम सात फाइलम शैवाल (Algae) के है।
(B) एम्ब्रियोफाइटा : इस उपजगत में भ्रूण बनता है। यह दो फाइलम में विभक्त है। यथा-
1. ब्रायोफाइटा (Bryophyta): इन पौधों में संवहन ऊतक (Conducting-tissue) नहीं होता है।* जैसे- रिक्सिया, फ्यूनेरिया, एन्थोसिरोस, लिवरवर्ट, हार्नवर्ट।
2. ट्रेकियोफाइटा (Tracheophyta): इन पौधों में संवहन ऊतक होता है। इसको 4 सब फाइलम (Sub-Phylum) में बांटा गया है।
(i) साइलोप्सिडा (Psilopsida) : पत्ती एवं जड़ रहित पौधे।*
(ii) लाइकोप्सिडा (Lycopsida): छोटी हरी पत्ती तथा साधारण संवहन ऊतक।
(iii) स्फोनोप्सिडा : संधित तने वाले छोटी शल्कपत्रों की तरह के पत्तियों वाले पौधे।
(iv) टेरोप्सिडा (Pteropsida) : बड़ी पत्तियाँ तथा जटिल संवहन ऊतक वाले पौधे। इसको 3 क्लास में बांटा गया है।
(a) फिलीसिनी (Filicineae)। जैसे – फर्न।
(b) अनावृत्तबीजी (Gymnosperm)। जैसे-साइकस, नस।
(c) आवृत्तबीजी (Angiosperme)। इसे 2 सब-क्लास में बांटा गया है। यथा-
I. द्विबीज पत्री (Dicoty ledon)
II. एकबीज पत्री (Monocoty ledon)
वनस्पति विज्ञान की शाखायें
• एग्रोस्टोलोजी (Agrostology)* – घासों का अध्ययन व पालन (Cultivation)
• एल्गोलोजी (Algology)- शैवालों का अध्ययन
• एनॉटोमी (Anatomy)*- आन्तरिक संरचना का अध्ययन
• एन्थोलोजी (Anthology)- पुष्पों का अध्ययन ।
• बैक्टीरियोलोजी (Bacteriology)- जीवाणुओं का अध्ययन
• ब्रायोलोजी (Bryology) – ब्रायोफाइटा का अध्ययन
• केसीडियोलोजी (Cecidiology)- पादपों में रोगजन्य गाँठों, पादप कैंसर का अध्ययन
• साइटोलॉजी (Cytology) – कोशिकाओं का अध्ययन
• डैन्ड्रोक्रोनोलोजी (Dendrochronology)* – वृक्षों की आयु का अध्ययन
• डैन्ड्रोलोजी (Dendrology)* – वृक्षों एवं झाड़ियों का अध्ययन
• ईकोलोजी (Ecology)- पौधों का वातावरण से सम्बन्ध का अध्ययन।
• इकोनॉमिक बॉटनी (Economic Botany) आर्थिक महत्व के पौधों का अध्ययन।
• एम्ब्रियोलोजी (Embryology) युग्मकों के निर्माण, निषेचन व भ्रूण के परिवर्धन का अध्ययन।
• ईथेनो बॉटनी (Ethano Botany)* आदिवासियों द्वारा पादपों के उपयोग का अध्ययन।
• हार्टीकल्चर (Horticulture)- फल, सब्जियों तथा उद्यान पादपों का संवर्धन व अध्ययन
• प्लान्ट ब्रीडिंग (Plant Breeding) उपयोगी पादपों की किस्मों को सुधारने का अध्ययन
• टिश्यू-कल्चर (Tissue-Culture) कृत्रिम माध्यम पर ऊतकों का संवर्धन।
• सिल्वीकल्चर (Silviculture)* – वन के वृक्षों तथा उनके उत्पादों का संवर्धन व अध्ययन।
• हिस्टो-केमिस्ट्री (Histo-chemistry) कोशिकाओं व ऊतकों में विभिन्न रासायनिक पदार्थों की स्थिति का अध्ययन।
• पोमोलोजी (Pomology)- फलों का अध्ययन
• टेरिडोलोजी (Pteridology) टेरिडोफाइट्स का अध्ययन।
• फाइटोजिओग्राफी (Phytogeography – पौधों के वितरण
व उसके कारणों का अध्ययन।
• स्पेसबायलोजी (Spacebiology) अन्तरिक्ष तथा वायुमण्डल
में स्थित पादपों का अध्ययन।
• स्पर्मेलोजी (Spermalogy) बीजों का अध्ययन। • वर्गिकी (Taxonomy) – पादप वर्गीकरण का अध्ययन।
• वायरोलोजी (Virology) – विषाणुओं का अध्ययन।
• फाइटोफिजिक्स (Phytophysics)- भौतिक सिद्धांतों का पादप उपापचय में महत्व का अध्ययन।
• रेडियेशन बायोलोजी (Radiation Biology) विभिन्न विकिरणों का पादपों का प्रभाव व उत्परिवर्तन का अध्ययन।
• एग्रोनोमी (Agronomy)- फसली पादपों का अध्ययन।
• ईवोल्यूशन (Evolution)- सजीवों के विकास प्रक्रम का अध्ययन।
• एक्सोबायलोजी (Exobiology) अन्य ग्रहों पर सम्भावित जीवों की उपस्थिति का अध्ययन।
• फ्लोरीकल्चर (Floriculture)* – सजावटी पुष्पों का संवर्धन व अध्ययन।
• फोरेस्ट्री (Forestry) वनों का अध्ययन।
• जेनेटिक्स (Genetics) आनुवंशिकता और विभिन्नताओं का अध्ययन।
• जेरोन्टोलोजी (Gerontology)* – आयु के साथ जीवों में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन
• हेरीडिटी (Heredity)- पैत्रिक लक्षणों का संतति में पहुँचने का अध्ययन।
• हिस्टोलोजी (Histology)* – ऊतकों का अध्ययन।
• लाइकेनोलोजी (Lichenology) लाइकेन्स का अध्ययन।
• लिम्नोलोजी (Limnology) – झीलों तथा अलवणीय जलीय पादपों का अध्ययन।
• मार्फोलोजी (Morphology) पादपों की आकारीय संरचना का अध्ययन।
• माइकोलोजी (Mycology)* कवकों का अध्ययन ।
• माइकोप्लाज्मोलोजी (Mycoplasmology) – माइकोप्लाज्मा का अध्ययन।
• निमेटोलॉजी (Nematology) – निमेटोड्स का पादपों के साथ सम्बन्ध का अध्ययन।
• पेलियोबोटनी (Palaeobotany) * – पादप जीवाश्मों का अध्ययन ।
• पेलिनोलोजी (Palynology) – परागकणों का अध्ययन।
• पेथोलोजी (Pathology)- पादप रोगों व उपचार का अध्ययन।
• पिडोलोजी (Pedology)* – मृदा सम्बन्धी अध्ययन ।
• पैरासिटोलोजी (Parasitology)- पोषिता तथा परजीवियों के सम्बन्धों का अध्ययन।
• फाइकोलोजी (Phycology)- शैवालों का अध्ययन।
• फार्मेकोलोजी (Pharmacology) औषधीय पादपों का अध्ययन।
• फिजियोलोजी (Physiology) – विभिन्न पादप जैविक क्रियाओं का अध्ययन।
जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है कि वनस्पति विज्ञान को दो उपजगतों में विभाजित किया गया है। यथा-
(A) थैलोफाइटा
(B) एम्ब्रियोफाइटा
थैलोफाइटा में शैवाल, जीवाणु एवं कवक का अध्ययन किया जायेगा। जबकि एम्ब्रियोफाइटा में ब्रायोफाइटा एवं ट्रैकियोफाइटा का अध्ययन समावेशित है। ध्यातव्य है कि यहाँ पर केवल सामान्य अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण तथ्यों का निरूपण किया गया है। यथा-
शैवाल
वनस्पति विज्ञान की वह शाखा जिसमें शैवालों का अध्ययन करते हैं, फाइकोलोजी (Phycology) कहलाती है। उपजगत थैलोफाइटा के प्रथम सात संघ (Phylum) शैवाल के हैं। शैवाल प्रायः पर्णहरिम युक्त , संवहन ऊतक रहित , भ्रूण रहित, आत्मपोषी , सेल्यूलोस भित्ति वाले होते हैं। * इसमें खाद्य पदार्थ प्रायः स्टार्च के रूप में उपस्थित रहता है। प्रजननांग एक कोशिकीय अथवा बहुकोशिकीय होते हैं। जिनमें प्रत्येक कोशिका युग्मक का निर्माण करती है। निषेचन के बाद भ्रूण का निर्माण नहीं होता है। शैवाल प्रकाश वाले स्थानों में पाये जाते हैं। ये प्रायः शूकाय सदृश होते हैं अर्थात् इनका शरीर जड़, तना एवं पत्तियों में विभक्त नहीं होता।*
➤ वासस्थान
शैवाल ताजे जल, गर्म जल के झरने, समुद्र, भीगी मिट्टी, पेड़ों के तनों या चट्टानों पर पाये जाते है। यथा-
• कुछ शैवाल जल के तल पर उपस्थित कीचड़ में रहते हैं, जैसे कारा।
• कुछ झील व तालाबों के किनारे पर पाये जाते हैं, जैसे रिवूलेरिया (Rivularia)। कुछ गर्म जल के झरनों में रहकर अपना जीवन-चक्र पूरा करते हैं।
• कुछ शैवाल पानी में तैरते रहते हैं, जैसे डायटम्स तथा वॉल्वॉक्स।
• कुछ शैवाल अधिपादप के रूप में दूसरे पौधों (शैवाल या टहनियों) पर उगते हैं, जैसे ऊडोगोनियम।
• प्रोटोडर्मा एक ऐसा शैवाल है जो कि कछुओं की पीठ पर उगता है। क्लेडोफोरा , घोंघे के ऊपर रहता हैं। इतना ही नहीं, कुछ शैवाल तो जन्तुओं के शरीर के अन्दर भी वास करते हैं, जैसे जूक्लोरेला नामक शैवाल निम्नवर्गीय जन्तु हाइड्रा के अन्दर पाया जाता है।
• कभी-कभी शैवाल परजीवी भी होते हैं, जैसे- सीफेल्यूरोस जो कि चाय, कॉफी (कहवा), आदि की पत्तियों पर परजीवी होता है।* ऑसीलेटोरिया एवं साइमनसिएला मनुष्य व दूसरे जन्तुओं की आँतड़ियों में हल्के परजीवी के रूप में रहते हैं।
• कुछ शैवाल समुद्र में भी पाये जाते हैं, जैसेः सारगासम, ग्रसीलेरिया, जेलिडियम।
• बर्फ में पाये जाने वाले शैवालों के कारण बर्फ विभिन्न रंगों में दिखलायी पड़ती है, जैसे हीमेटोकॉकस निवेलिस के कारण एल्पाइन व आर्कटिक भाग पर जमी बर्फ लाल रंग की दिखायी देती है।* कुछ यूरोपीय पर्वत पर जमी बर्फ रेफिडोनिमा तथा क्लैमिडोमोनास शैवाल की उपस्थिति के कारण हरे रंग की प्रतीत होती है। प्रोटोडर्मा तथा स्कोटिला बर्फ को पीला या हरा- पीला बनाते हैं।
• नोस्टॉक, एन्थोसीरोस नामक ब्रायोफाइट के अन्दर तथा – ऐनाबिना, ऐजोला नामक टेरिडोफाइट पौधे के अन्दर पाये जाने – वाले शैवाल हैं।*
• लाइकेन (lichen) जो कि पौधों का एक विशेष वर्ग है, सहजीवन का अति उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है। लाइकेन में एक शैवाल (alga) तथा एक कवक (fungus) घनिष्ठ रूप से साथ- साथ रहते हैं। * शैवाल द्वारा निर्मित भोजन कवक को मिलता रहता है तथा इसके बदले में वह कवक से खनिज लवण, स्थान व रक्षा – (protection) प्राप्त करता है। क्लेडोफोरा (Cladophora) एक स्पंज एफिडेरिया फ्लुरिटेलिस में सहजीवी के रूप में रहता है।*
• ट्राइकोडेस्मियम एरिथ्रियम नामक नीली-हरी शैवाल लाल सागर में जल के ऊपर तैरता रहता है और उसे लाल रंग प्रदान करता है जिसके कारण इस सागर का नाम लाल सागर (Red sea) है।*
➤ शैवालों का आर्थिक महत्व
• शैवाल खाद्य के रूप मेंः शैवालों में कार्बोहाईड्रेट्स, अकार्बनिक पदार्थ तथा विटामिन्स प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं।
विटामिन-ए, सी, डी व ई इनमें मुख्य रूप से पाये जाते हैं। यथा-
(i) कोन्ड्रस नामक शैवाल से ‘आयरिश अगर’ प्राप्त किया जाता है, जिसका उपयोग चाकलेट बनाने में इमल्सीफाइंग कारक के रूप में किया जाता है।
(ii) जापान के लोग भूरे शैवालों का प्रयोग सलाद के रूप में करते हैं।
(iii) फ्यूकस, लैमिनेरिया एवं एस्कोफिल्लम नामक शैवाल जानवरों के खाद्य के रूप में प्रयुक्त होते हैं।
(iv) स्कॉटलैण्ड में रोडोमेरिया पल्मेटा नामक शैवाल तम्बाकू की भांति खाया जाता है।
(v) चीन के लोग नॉस्टॉक को भोजन के रूप में प्रयुक्त करते हैं।
(vi) भारतीय उपमहाद्वीप में अम्बलीकस नामक शैवाल खाया जाता है।
• शैवाल व्यवसाय में (Algae in Industry) – विभिन्न उद्योगों और व्यवसायों के लिए शैवाल का महत्व निम्नलिखित कारणों से है-
1. “एलीजन” नामक पदार्थ शैवालों से प्राप्त किया जाता है जो वाल्केनाइजेशन, टाइपराइटरों के रोलरों तथा अज्वलनशील फिल्मों के निर्माण में महत्वपूर्ण है।*
2. सारगासम नामक शैवाल (उत्तरी अटलांटिक महासागर में) से जापान में कृत्रिम ऊन का निर्माण किया जाता है।*
3. कैराडूस (Charadrus) नामक शैवाल से ‘श्लेष्मिक केरोगेनिन’ नामक पदार्थ तैयार किया जाता है। जो श्रृंगार प्रसाधनों (cosmetic) सैम्पू, जूतों की पालिस आदि बनाने के काम में आता है।
4. लेमीनेरिया (Lamineria), फ्यूकस (fucus) आदि शैवालों का प्रयोग आयोडीन, ब्रोमीन अम्ल, एसीटोन बनाने में किया जाता है।*
5. ‘अगर-अगर’ (Agar-Agar) नामक पदार्थ लाल शैवालों से प्राप्त किया जाता है। जो प्रयोगशाला में पौधों के संवर्धन, तना जैल, आइसक्रीम आदि में प्रयुक्त होता है। यह पदार्थ तापरोधक, ध्वनि रोधक, कृत्रिम रेशे, चमड़ा, सूप, चटनी आदि बनाने के काम में भी आता है। यह पदार्थ ग्रैसीलेरिया तथा जेलेडियम नामक शैवालों से प्राप्त किया जाता है।*
• शैवाल कृषि में (Algae in Agriculture)- कृषि के क्षेत्र में शैवाल निम्नलिखित रूप में उपयोगी होते हैं-
1. नाइट्रोजन स्थिरीकरण (Nitrogen fixation)- नॉस्टोक, एनाबीना आदि शैवाल वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं।*
2. कुछ शैवालों का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है।
3. नील-हरित शैवाल (B.GA.) का प्रयोग वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को भूमि में स्थापित कर धान की फसल के लिए भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए तथा ऊसर भूमि को उपजाऊ भूमि बनाने में किया जाता है। जैसे- Nostoc (नोस्टॉक)
• शैवाल औषधि के रूप में (Medicinal use of Algae)- औषधि निर्माण के क्षेत्र में भी शैवाल अत्यंत उपयोगी हैं। इसका प्रयोग निम्नलिखित रूपों में किया जाता है-
1. ‘क्लोरेलीन’ प्रतिजैविक (Antibiotic): क्लोरेला शैवाल से तैयार की जाती है। यह क्रिस्टलीय होता है। यह ग्राम-पाजिटिव तथा ग्राम-निगेटिव (gram-positive & gram-negative) दोनों प्रकार के जीवाणुओं से रक्षा करती है।
2. कारा (chara) तथा नाइट्रेला (Nitrella) शैवाल मलेरिया उन्मूलन में सहायक होते हैं।
• शैवाल जैव अनुसंधान कार्यों में (Algae in Biological Research)- जैविक अनुसंधान के क्षेत्र में शैवाल के प्रमुख उपयोग निम्नलिखित हैं-
1. क्लोरेला – प्रकाश संश्लेषण की खोज से सम्बन्धित है।
2. एसिटेबुलेरिया – केन्द्रक की खोज ।
3. वैलोनिया – जीवद्रव्य की खोज (डुजार्डिन)।
➤ हानिकारक शैवाल
• कतिपय शैवाल जलाशयों में प्रदूषण बढ़ाते हैं। जिससे पानी प्रयोग के योग्य नहीं रह जाता है। ये शैवाल जहर पैदा करते हैं। जिससे मछलियां मर जाती हैं। जैसे- माइक्रोसिस्टिस, क्रोकोकस, ओसिलेटोरिया ।
• सिफेल्यूरोस (cephaleuros) की जातियां चाय पर ‘लाल किट्ट रोग’ (Red rust of Tea) उत्पन्न करती हैं जिससे चाय उद्योग की भारी हानि होती है।*
• बरसात के दिनों जमीन हरे रंग की दिखने लगती है और यह फिसलाऊ हो जाती है, इस जमीन में हरित-नीले शैवाल (B.GA) उग आते हैं जिसके कारण ऐसा होता है।
यह भी पढ़ें : जीवोत्पत्ति एवं कोशिका विज्ञान : अध्याय- 1 भाग:5
1 thought on “पादप जगत : अध्याय – 2 , भाग – 1”