पौधों में पोषण की विशेष विधियाँ

जन्तुओं की भाँति पौधों को भी भोजन की आवश्यकता होती है। हरी पत्तियों वाले पौधे अपने भोजन स्वयं बनाते हैं। कुछ पौधे ऐसे होते हैं जो अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकते हैं। अतः ये अपने पोषक पदार्थों के लिए विभिन्न स्रोतों पर निर्भर रहते हैं। पोषण की विधियों के आधार पर पौधों को निम्न तीन वर्गों में बाँटा गया है। यथा-

1. स्वपोषित पौधे (Autotrophic plants);

2. परपोषित पौधे (Heterotrophic plants)!

3. विशेष प्रकार

स्वपोषित पौधे (Autotrophic Plants)

इस वर्ग में वे पौधे आते हैं जो अपने लिये कार्बनिक भोज्य- पदार्थ स्वयं बना लेते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं।

(i) रसायन-स्वपोषित (Chemo-autotrophic) : कुछ जीवाणु अपना भोज्य-पदार्थ प्रकाश की अनुपस्थिति में भी बना लेते हैं। ये भोज्य-पदार्थों के संश्लेषण के लिये कुछ अकार्बनिक पदार्थों के जैविक ऑक्सीकरण (biological oxidation) से प्राप्त ऊर्जा को ही प्रकाश-ऊर्जा के स्थान पर प्रयोग में लाते हैं। इस प्रकार इस क्रिया में रासायनिक ऊर्जा के प्रयोग द्वारा संश्लेशण होता है, अतः इस क्रिया को रासायनिक-संश्लेषण (chemical synthesis or chemosynthesis) कहते हैं। उदाहरण-नाइट्रोसोमोनास, नाइट्रोसोकोकस आदि जीवाणु।

(ii) प्रकाशीय-स्वपोषित (Photo-autotrophic) : ये पौधे हरे होते हैं तथा पर्णहरिम की सहायता से प्रकाश की उपस्थिति में वायुमण्डल से कार्बन डाइऑक्साइड CO2 तथा भूमि से जल H2O लेकर कार्बनिक भोज्य पदार्थ बना लेते हैं। इस क्रिया को प्रकाश-संश्लेषण (photosynthesis) कहते हैं।

कुछ छोटे हरे पौधे बड़े-बड़े वृक्षों की शाखाओं पर उगते हैं। परन्तु ये अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, इन्हें अधिपादप कहते हैं।* जैसे-आर्किड।

परपोषित पौधे (Heterotrophic Plants)

परिपोषित समूह के पौधे अपना भोजन स्वयं नहीं बना सकते। ये अपना भोजन भिन्न-भिन्न स्रोतों से प्राप्त करते हैं। जैसे-जीवाणु, कवक तथा कुछ पुष्पी पादप। समस्त परिपोषित पौधों को दो समूहों में विभक्त किया गया है। यथा-

1. परजीवी पौधे (Heterotrophic plants)

2. मृतोपजीवी पौधे (Saprophytic plants)

परजीवी पौधे

परजीवी पौधे वे पौधे हैं जो अपना भोजन दूसरे जीवित पौधों अथवा जन्तुओं से प्राप्त करते हैं। इस प्रकार भोजन प्राप्त करने की विधि को पोषण की परजैविक विधि (parasitic mode of nutrition) कहते हैं। यथा-

वनस्पति-जगत में जीवाणु, कवक एवं शैवाल के अलावा कुछ ऐंजियोस्पर्पस भी अन्य पेड़ पौधों पर परजीवी होते हैं। परजीवी पौधों के शरीर का कोई भाग एक विशेष अंग में परिवर्तित हो जाता है जिसे परजीवी मूल (haustorium) कहते हैं जो कि पोषक के शरीर की कोशाओं में पहुँचकर, उनसे भोज्य पदार्थों का अवशोषण करते हैं।*

➤ मृतोपजीवी पौधे Saprophytic Plants)

( इस वर्ग में वे विविध पोषी पौधें आते हैं जो जीवों के मृत, सड़ते हुए शरीर से अपना भोजन प्राप्त करते हैं तथा इस प्रकार की पोषण विधि को पोषण की मृतोपजीवी विधि (saprophytic mode of nutrition) कहते हैं।

अनेक जीवाणु एवं कवक भी मृतोपजीवी होते हैं। ये पौधों एवं जन्तुओं के मृतक शरीर एवं उनके मलमूत्र का विच्छेदन करके उन्हें यौगिकों या तत्वों में बदलते हैं। इस प्रकार प्रकृति में कूड़ा- करकट के ढेरों तथा लाशों (dead bodies) की सफाई होती है। सिरका, दही एवं पनीर आदि मृतोपजीवी जीवाणुओं द्वारा ही बनाये जाते हैं।

कवकों में यीस्ट, म्यूकर, राइजोपस, पेनीसीलियम, गुच्छी, कुकुरमुत्ता आदि मृतोपजीवी होते हैं। इनमें म्यूकर, राइजोपस, पेनीसीलियम आदि बरसात के दिनों में भीगी हुई रोटी, अचार, फल, मुरब्बा एवं चमड़े के ऊपर रुई के रेशों की भाँति उग कर उन्हें नष्ट कर देते हैं।

सपुष्पी पौधों में नियोशिया, मोनोट्रोपा, यूनीफ्लोरा आदि मृतोपजीवी होते हैं।

➤ विशेष प्रकार की पोषण विधि

यह मुख्यतः दो प्रकार का होता है। यथा-

1. सहजीवी (Symbiotic)
2. कीटभक्षी (Insectivorous)

1. सहजीवी : जब दो पौधें साथ-साथ रहते हैं तथा पारस्परिक रूप से एक-दूसरे को लाभ पहुँचाते हैं तो उन्हें सहजीवी (Symbiont) कहते हैं।

2. कीटभक्षी : कीटाहारी पौधे छोटे-छोटे कीट-पतंगों को मारकर उनसे नाइट्रोजन युक्त पदार्थ ग्रहण करते हैं। इन पौधों में कीट पकड़ने वाले अंग होते हैं जिनके द्वारा ये कीटों को मारकर सर्वप्रथम उन्हें पचाते हैं, और अन्त में उनके नाइट्रोजन युक्त पदार्थों को अवशोषित कर लेते हैं।

नाइट्रोजन पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक तत्व है। कीटाहारी पौधे प्रायः ऐसे स्थानों पर पाये जाते हैं जहाँ कि भूमि में नाइट्रोजन की कमी होती है। * इसलिए ये कीटों को मारकर उनके शरीर से नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं। इनकी पत्तियाँ हरी होती है।* ये अपना – भोजन स्वयं प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा बनाते हैं। कीटाहारी – पौधों की संख्या लगभग 440 जातियों का पता लगाया जा चुका है। भारत में ये पौधें दार्जिलिंग, नैनीताल, कश्मीर आदि स्थानों पर पाये जाते हैं।*

पौधों में परिवहन, स्थानान्तरण तथा संचयन (Transport, Translocation & Storage in Plants)

स्पाइरोगायरा, यूलोथिक्स, क्लेमाइडोमोनास तथा यूग्लीना जैसे निम्न श्रेणी के पौधों में भोजन निर्माण उनकी प्रत्येक कोशिका में होता है। अतः इस पादपों में खाद्य-स्थानान्तरण का कार्य नहीं होता है। परन्तु उच्च श्रेणी के हरे पौधों में भोज्य पदार्थों का निर्माण, पौधें के सभी अंगों में नहीं होता है। उच्चवर्गी पादपों में पत्तियाँ ही प्रमुख रूप से प्रकाश-संश्लेषण द्वारा खाद्य पदार्थों का निर्माण करती है।

पत्तियों में बने खाद्य पदार्थ को आवश्यकतानुसार पौधों के विभिन्न अंगों मे पहुँचने की क्रिया को भोज्य पदार्थों का स्थानान्तरण (Translocation of food) कहते हैं।

जड़ों में यद्यपि खाद्य पदार्थों का निर्माण नहीं होता है फिर भी वे जल एवं खनिज तत्वों का अवशोषण करती हैं, जो दारु वाहिकाओं (xylem vessels) तथा दारु वाहिनिकाओं (xylem tracheids) द्वारा ऊपर चढ़ता है। जड़ों द्वारा अवशोषित जल एवं खनिज तत्वों का दारु वाहिकाओं एवं वाहिनिकाओं की सहायता से तनें में ऊपर बढ़ने की क्रिया को रसारोहण (Ascent of sap)

कहते हैं।* पौधें आवश्यकता से अधिक भोज्य पदार्थों को अपनी जड़, तनों, पत्तियों तथा बीजों में संचित करते हैं। जिन अंगों में भोज्य पदार्थ संग्रहित (store) हो जाता है उन्हें हम संचालक अंग (storage-organs) कहते हैं।

➤ खाद्य-संचायक अंग (Food Storage Organs)

खाद्य का संचय निम्नलिखित अंगों में होता हैं-

1. पत्ती (Leaf) : खाद्य का संचय प्रायः पत्तियों में नहीं होता, क्योंकि इससे उनकी प्रकाश-संश्लेषण (photosynthesis) की क्रिया में रुकावट आती है। किन्तु कुछ पादपों में भोजन का संग्रह पत्तियों में भी पाया जाता है। जैसे-प्याज (Onion), लहसुन (Garlic), पत्तागोभी (Cabbage), अजूबा (Bryophyllum), बिगोनिया (Begonia), ग्वार (Aloe), यक्का (Yucca), तथा बाँस केवड़ा (Agave), आदिं

2. जड़ (Root) : कुछ पौधों की जड़ें खाद्य-संचय के कारण मांसल (fleshy) हो जाती है, जैसे-मूली, गाजर, शलजम, चुकन्दर, शकरकन्द, सतावर (Asparagus), डेहलिया (Dahlia) तथा टैपिओका (Tapioca)।

3. तना (Stem) : कुछ पौधों का तना खाद्य-संग्रह के कारण मोटा, चौड़ा तथा मांसल हो जाता है, जैसे- (i) रसदार तना (Succulent stem)-गन्ना, (ii) पर्णकाय स्तम्भ (phylloclade)-नागफनी (iii) प्रकन्द (Rhizome) अदरक, केला, हल्दी, फर्न, (iv) धनकन्द (Corm)-अरबी, केसर (Saffron), जिमीकन्द, (v) कन्द (Tuber)-आलू।

4. पत्रकन्द (bulbil): बाँस केवड़ा (Agave), लिली, लहसुन, याम (Dioscorea) ।

5. पुष्पक्रम (Inflorescence) : फूलगोभी।*

6. बीज (Seed) : लगभग सभी, पुष्पी पादपों के बीजों में खाद्य-पदार्थों का संग्रह पाया जाता है। भ्रूणपोष (endosperm) या बीजपत्र (cotyledon) इस कार्य को करते हैं। इस खाद्य का उपयोग बीज के अंकुरण के समय भ्रूण (embryo) के विकास के लिए किया जाता है।

(i) बीजपत्र (Cotyledon)-मटर, चना, सेम, अखरोट (ii) भ्रूणपोष (Endosperm)-अरण्डी (Castor bean) मक्का, गेहूँ, चावल, नारियल, सुपारी, (iii) रसदार बीजचोल (Juicy testa)-अनार।

7. फल (Fruit) : अण्डाशय (ovary) में प्रायः गूदेदार मृदूतक (succulent parenchyma) बहुत अधिक मात्रा में विकसित हो जाता है। इस ऊतक में शर्करा, अम्ल तथा अन्य स्वादिष्ट पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं। कुछ पौधों में पुष्प के अन्य भाग भी मांसल व रसदार हो जाते हैं।

(i) पुष्पासन (Thalamus)- सेब, नाशपाती तथा स्ट्रॉबेरी, (ii) बीजचोल या एरिल (Aril)-लीची, (iii) मध्य फलभित्ति (Meso- carp)-आम, इमली, (iv) फलभित्ति (Pericarp) तथा बीजाण्डासन (Placenta)- अंगूर, बैंगन, टमाटर।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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