आर्थिक महत्व के कीट (Economic Importance of Insects)


कीट वर्ग (Class Insecta)- जन्तु-जगत् का सबसे बड़ा वर्ग है।* लगभग 15 लाख ज्ञात जन्तु-जातियों में से लगभग 10 लाख कीटों की ही हैं। अतः कीट वर्ग बहुत विशाल, विविध एवं वर्तमान पृथ्वी का सबसे सफल जन्तु-समूह है। इसीलिए, कीटों का अध्ययन जन्तु विज्ञान की एक पृथक शाखा कीटशास्त्र (Entomology) के अन्तर्गत किया जाता है। आर्थिक महत्व की दृष्टि से इन्हें दो भागों में विभक्त किया जाता है-

(क) हानिकारक कीट (Harmful Insects)
(ख) लाभदायक कीट (Beneficial Insects)

(क) हानिकारक कीटों को हम तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँट सकते हैं-

(1) कृषि के लिए हानिकारक कीट: कृषि के लिए हानिकारक कीटों को हम पाँच श्रेणियों में बाँट सकते हैं। यथा-

(A) पौधों को कुतरने वाले कीट (Chewing Plant Pests): अनेक कीट पौधों के भागों को गाय, बकरी की भाँति चबाकर खा जाते हैं-

(i) टिड्डी (Locust; Schistocerca): सभी जानते हैं कि पूरे- पूरे खेतों की फसल को खाकर चट कर देने वाले टिड्डी दलों (locust swarms) की सूचना-मात्र से किसानों के छक्के छूट जाते हैं। एक-एक दल में करोड़ों टिड्डियाँ होती हैं। लोगों ने 300 मील लम्बे, 100 मील चौड़े और 1 मील मोटे तक टिड्डी दल देखे हैं।

जहाँ ये उत्तर जाते हैं, मीलों तक खेतों में पौधों का नामो-निशान नहीं रहता। ये दल बनाकर देशान्तरण (migration) करती हैं।*

(ii) आलू या चना पिल्लू (Potato or Gram cutworm): यह चना, आलू, गोभी, तम्बाकू, मटर, मूँगफली एवं गेहूँ आदि के पौधे के तनों को भूमि के पास से चबाकर नष्ट कर देता है।

(iii) Red Pumpkin Beetle तरबूज, खरबूज, लौकी, खीरा आदि की पौध को खाकर नष्ट कर देता है।

(B) पौधों का रस चूसने वाले कीट (Piercing-sucking Plant Pests)

अनेक प्रकार के कीट अपने शुण्डनुमा मुख उपांगों को कोमल पौधों में चुभोकर रस चूसते हैं। इससे पौधे सूखकर समाप्त हो जाते हैं-

(i) कपास का झाँगा (Red Cotton Stainer-Dysdercus): यह मुख्यतः कपास के पौधों की पत्तियों, डोडी एवं बीजों का रस चूसता है। इससे कपास में धब्बे पड़ जाते हैं।

(ii) पाइरिला (Sugar-cane Leaf Hopper-Pyrilla): यह गन्ने की पत्तियों एवं तने का रस चूसता है। इसकी गिडार गन्ने में जगह- जगह सूराख बना देती है। इससे गन्ने की वृद्धि रुक जाती है और वह सूखा-सा हो जाता है।

(iii) गन्ने की लाही (Sugar-cane White Fly): यह एक प्रकार की मक्खी होती है जो गन्ने का रस चूसती है।

(iv) चावल की गंधी (Rice Bug): यह धान की बालियों के कच्चे बीजों का रस चूसकर इन्हें नष्ट कर देता है।

(v) आम का तेला या लासी (Mango-Leaf Hopper): यह बग आम की कोमल टहनियों और कलियों का रस चूसता है। इससे आम की बौर नष्ट हो जाती है।

(C) पौधों को खोखला बनाने वाले कीट (Plant Borers) : अनेक प्रकार के कीटों के कैटरपिलर (caterpillar larvae) पेड़-पौधों के भागों में घुसकर इन्हें खोखला कर देते हैं। इससे पौधे सूखकर नष्ट हो जाते हैं। इनमें से कुछ मादाएँ तो अण्डों का ही रोपण पौधों के भीतर कर देती हैं तथा कुछ की लार्वी कुतरकर भीतर धंसती हैं-

(i) कपास की सुरही (Spotted Bollworm) तथा कपास का कीड़ा (Pink Bullworm): इन पतंगों की लार्वी कपास के फूलों, फलों एवं बीजों में घुसकर इन्हें खोखला बना देती है।

(ii) ईख की गिडार (Sugar-cane Stem Borer): यह भी एक पतंगा होता है। इसकी लार्वी ईख एवं बाजरे के तने को भीतर से खोखला कर देती हैं।

(iii) मक्का बेधक (Com Borers): इन पतंगों की लावीं मक्का एवं ज्वार आदि के तनों को खोखला बनाती हैं।

(2) मनुष्य एवं पशुओं के लिए हानिकारक कीट

इन्हें निम्नलिखित चार श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। यथा-

(A) खिजाने वाले कीट (Annoying Insects)

ऐसे कीट जिनसे कोई खास हानि नहीं होती, परन्तु इनकी गंध तथा शरीर से इनका स्पर्श अच्छा नहीं लगता। जैसे- कॉकरोच, लाल व काली चीटियाँ, झींगुर आदि।

(B) जहरीले कीट (Venomous Insects) :

जैसे : मधुमक्खी, ब्लिस्टर बीटल आदि।

(C) परजीवी कीट (Parasitic Insects)

इनकी दो श्रेणियाँ होती हैं। यथा-

(i) बाह्य परजीवी (Ectoparasites)

जैसे : जूँ (Louse), पिस्सू (Fleas), खटमल (Bed-bug)

(ii) अन्तः परजीवी (Endoparasites)

जैसे : बघाई मक्खी (Botfly): यह पशुओं के ताजा घावों के जरिए पोषद की त्वचा में धंसकर सुरंग-सी बना लेती हैं।

(D) उपयोगी वस्तुओं के विनाशीकीट (Household Pests)

(i) खाद्य पदार्थों को नष्ट करने वाले जैसे : धुन (weevils), घोरा (beetles) तथा पतंगी (moths)।

(ii) दीमक (Termite): खाद्य-पदार्थों के अतिरिक्त अन्य उपयोगी वस्तुओं को हानि पहुँचाने वाले कीटों में यह सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है। यह सेलुलोस (cellulose) की शौकीन होती है। अतः यह कागज तथा धन्नियों, किवाड़ों, फर्नीचर आदि लकड़ी की वस्तुओं पर आक्रमण करके, फर्श एवं दीवारों तक में घुस जाती है और इन्हें खोखला कर देती है। बागों एवं खेतों में भी यह आम, सेब, नारियल आदि के पेड़ों पर आक्रमण करती है। इसकी आँत में उपस्थित ट्राइकोनिम्फा (Trichonympha) नामक सहजीवी प्रोटोजोअन (symbiotic protozoan) सेलुलोस के पाचन में सहायता करता है।

दीमकें सामाजिक (social) एवं बहुरूपी (polymorphic) होती हैं। ये सुरंगों में हजारों सदस्यों की कॉलोनियाँ (colonies) बनाकर रहती हैं। प्रत्येक कॉलोनी में कई प्रकार के सदस्य होते हैं। जैसे कि रानी (queen), राजा (king), सैनिक (soldiers), श्रमिक (workers) आदि।

श्रमिक दीमकें छोटी, पंखविहीन, नेत्रविहीन तथा नपुंसक (sterile) होती हैं। ये मिट्टी तथा लार से कॉलोनी की सुरंग बनाने, अण्डों का स्थानान्तरण करने तथा रानी एवं शिशुओं की सेवा करने का कार्य करती हैं।

सैनिक दीमकें श्रमिकों पर नियन्त्रण रखती हैं तथा बिल एवं राजा-रानी की सुरक्षा करती हैं। प्रत्येक कॉलोनी में पंख-विहीन राजा- रानी का प्रायः एक ही शाही जोड़ा (royal pair) होता है। इनके संभोग से रानी प्रति वर्ष 70-80 हजार अण्डे देती है। अण्डों से श्रमिकों एवं सैनिकों के अतिरिक्त, इनसे काफी भिन्न, अनेक पंखयुक्त (alate) नर तथा मादा सदस्य भी बनते हैं। इनका शरीर काला एवं कुछ सँकरा होता है। ये झुण्डों में कॉलोनी को छोड़कर उड़ जाते हैं और नर-मादा की जोड़ियों में पृथक् होकर कई कॉलोनियाँ बनाने हेतु नवीन स्थानों का चयन कर लेते हैं। नवीन स्थानों पर बसने के बाद इनके पंख झड़ जाते हैं, मैथुन होता है तथा मादाएँ अण्डों से भरकर बड़ी हो जाती हैं।

(iii) रजत मछली (Silver fish-Lepisma): यह भी starch की बहुत शौकीन होती है और पुस्तकों, कागजों, फोटो आदि को खा जाती है।

(iv) वस्त्र पतंगी (Cloth Moth):

यह वस्त्रों पर आक्रमण करती है।

(D) रोग फैलाने वाले कीट (Disease-carrier Insects) मनुष्य एवं पालतू पशुओं के लिए सबसे घातक कीट वे होते हैं जो भयंकर संक्रामक रोगों के कीटाणुओं, विषाणुओं आदि का संवहन करते हैं। इनमें से अधोलिखित कीट और इनके द्वारा फैलाए जाने वाले रोग उल्लेखनीय हैं। यथा-

(i) घरेलू मक्खी (Housefly) : रोग फैलाने में यह सर्वोपरि है। इसके द्वारा फैलाए जाने वाले प्रमुख रोग होते हैं-आमातिसार (Amoebic dysentery), हैजा (Asiatic cholera), अतिसार (Di-arrhoea), कोथ (Gangrene), सूजाक (Gonorrhoea), कोढ (Lep- rosy), टाइफॉयड (Typhoid), तपेदिक (Tuberculosis) आदि।

(ii) मच्छर (Mosquitoes) : एडीज एल्वोपिक्टस (Aedes albopictus), जिसे कि टाइगर मच्छर की संज्ञा प्रदान की जाती है; से पीत ज्वर (yellow fever), डेंगू ज्वर (Dengue fever), चिकनगुनिया तथा सेंट लुई एनसेफेलाइटिस जैसे रोगों के कारक विषाणु का वाहक होता है। क्यूलेक्स प्रजाति-जापानी एनसेफेलाइटिस और मादा एनाफिलीज मलेरिया रोग वाहक प्लाज्मोडियम की वाहक होती है।

(iii) चूहा-फ्ली (Rat flea-Xynopsylla) : यह प्लेग (Bubonic plague) की महामारी को फैलाती है। यह चूहों के शरीर पर पाई जाती है।

(iv) सी-सी मक्खी (Tse-tse fly): अफ्रीका के घातक निद्रा रोग (Sleeping sickness) को यही मक्खी फैलाती है।

(v) सैण्डफ्लाई (Sandfly): यह मक्खी काला-अजार (Kala- azar) तथा फोड़े का रोग (Oriental sore) फैलाती है।

(vi) खटमल (Bed-bug): यह रुधिर चूसने के अतिरिक्त, टाइफस रिलैप्सिंग ज्वर (Typhus relapsing fever) तथा कोढ़ (Leprosy) फैलाने का काम करता है।

(vii) शरीर की जूँ (Louse): यह भी रुधिर चूसने के अतिरिक्त टाइफस (Typhus), ट्रेंच ज्वर (Trench fever) तथा रिलैप्सिंग ज्वर (Relapsing fever) जैसे घातक रोगों को फैलाती है।

लाभदायक कीट (Beneficial Insects)

मुख्य लाभदायक कीटों में रेशम, कीट, मधुमक्खी तथा लाख कीट महत्वपूर्ण है। यथा-

➤ मधुमक्खी (Honey Bee)

इसका जन्तु विज्ञानी नाम है- Apis indica। यह भी दीमक की भाँति एक सामाजिक (Social) एवं बहुरूपी (Polymorphic) कीट होती है और हजारों की संख्या में कॉलोनी बनाकर रहती हैं। मधुमक्खी की कॉलोनी बहुत ही सुव्यवस्थित बस्ती होती है। इसके हजारों सदस्य एक ही परिवार के होते हैं। बहुरूपी सदस्य तीन प्रकार के होते हैं- (1) केवल एक बड़ी-सी रानी मक्खी (Queen), (2) लगभग 100 नर मक्खियाँ या ड्रोन्स (drones) तथा हजारों (60 हजार तक) छोटी श्रमिक मक्खियाँ (Workers)।

• रानीमक्खी कॉलोनी की सर्वश्रेष्ठ सदस्य होती है। शरीर में यह सबसे बड़ी एवं भारी होती है। इसके अन्य अंग- पंख, पाद, मुखांग, मस्तिष्क, डंक आदि कम विकसित होते हैं। लार एवं मोम ग्रन्थियाँ नहीं होतीं। इस प्रकार, यह न तो उड़ ही सकती है और न मधु या मोम बना सकती है। पोषण के लिए इसे पूर्णरूपेण श्रमिक मक्खियों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसका डंक कम विकसित होते हुए भी क्रियाशील होता है और इसे यह सुरक्षा (defense) के काम में ला सकती है, परन्तु इसका प्रमुख उपयोग यह अण्डारोपण (oviposition) में करती है। अपने जीवनकाल में यह लगभग पन्द्रह लाख अण्डे देती है। परन्तु अण्डारोपण केवल जननकाल (हमारे देश में शरद ऋतु एवं बसन्त) में होता है।

• नर मक्खियाँ (Drones) : ये छोटा किन्तु हृष्ट-पुष्ट होता है। पोषण के लिए श्रमिक मक्खियों पर निर्भर होता है। इनमें लार एवं मोम ग्रन्थियाँ नहीं होती। डंक का अभाव होने के कारण अपनी सुरक्षा नहीं कर पाता। इनका एक मात्र कार्य रानी का निषेचन करना होता है। मैथुन करने वाला नर मक्खी निषेचन के बाद मर जाता है।

• श्रमिक मक्खियाँ (Worker bees): ये अत्यधिक सक्रिय एवं मजबूत होते हैं। इनके पूर्ण शरीर पर घने रोम-सदृश शूक (bristles) होते है। दूसरे से पाँचवें उदरखण्डों के अधर तल पर एक-एक जोड़ी जेबनुमा (Pocket-like) मोम ग्रन्थियाँ (wax glands) होती हैं। इन मक्खियों के पाद फूलों से पराग (pollens) एकत्रित करने के लिए उपयोजित होते हैं। सभी पादों पर कड़े शूकों के ‘पराग बुश (Pollen brushes)’ तथा तीसरी जोड़ी के पादों पर एक-एक “पराग डलियाँ (Pollen baskets)” होती हैं, जो पौधें में परागण की दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं। प्रत्येक छत्ते की श्रमिक मक्खियों को तीन काल वर्गों (age groups) में विभक्त किया गया है। यथा-

1. अपमार्जक मक्खियाँ (Sanitary bees)- (पहले तीन दिन तक)

2. आया मक्खियाँ (Nurse bees)- चौथे से 15वें दिन तक।

3. भोजनखोज कर्ता (Scout bees) एवं संग्रहकर्ता (Field bees)-15 दिन आयु के बाद।

आया मक्खियाँ धाय (foster mother) की भाँति बड़े शिशुओं को पराग एवं मधु का मिश्रण खिलाती हैं, जबकि भावी रानी मक्खी को अपने ही मैक्सिलरी ग्रन्थियों द्वारा स्त्रावित शाही जेली (royal jelly) खिलाती है। फलतः वह रानी मक्खी के रूप विकसित हो जाती है। पुराने छत्तों के कोष्ठकों के मरम्मत हेतु यह प्रोपोलिस (Propolis) नामक एक गोंद-सदृश पदार्थ भी बनाती हैं। यह पदार्थ भोजन-संग्रहकर्ता (Scout bees) मक्खियों द्वारा पौधों में एकत्रित राल (Resin) से बनाया जाता है।

• मधुमक्खियों में सूचना-प्रसारण (Communication) : अर्नेस्ट स्पाइजनर (Ernest Spytzner, 1788) ने पहले-पहल बताया कि स्काउट मक्खियाँ कुछ विशिष्ट प्रकार की गतियों (movements) द्वारा सूचना-प्रसारण करती हैं। इन गतियों को “मधुमक्खी के नाच (bee dances)” कहते हैं। सन् 1946 से 1969 तक अनवरत अनुसंधान के फलस्वरूप प्रो. कार्ल वॉन फ्रिश (Karl von Frisch) ने “मधुमक्खी के नाच” की व्याख्या करने में सफलता पाई और इसके लिए नोबेल पुरस्कार जीता। उन्होंने पता लगाया कि सूचना-प्रसारण के लिए भोजन-खोजकर्ता या स्काउट मक्खियाँ दो प्रकार का “नाच” करती हैं- (1) गोल नाच (Round dance) तथा (2) दुम-दोलनी नाच (Tail wagging) |

• एक नए छत्ते की सारी मधुमक्खियाँ एक ही रानी मक्खी की सन्तानें होती हैं। रानी मक्खी के अण्डे दो प्रकार के होते हैं-

(a) निषेचित द्विगुण अण्डे (Fertilized Diploid Eggs) : इनमें गुणसूत्रों की संख्या 32 होती है। इनके भ्रूणीय परिवर्धन से सपुंसक रानी मक्खियाँ या नपुंसक श्रमिक मक्खियाँ बनती हैं। सम्भवतः रानी मक्खी के शरीर से स्स्रावित पदार्थ ऐल्फा कीटोग्लूटैरिक अम्ल (alpha ketogluiutaric acid) के प्रभाव से श्रमिक मक्खियाँ नपुंसक हो जाते हैं।*

(b) अनिषेचित एकगुण अण्डे (Unfertilized Haploid Eggs) : इनमें गुणसूत्रों की संख्या 16 होती है। इनके भ्रूणीक परिवर्धन से नर मक्खियाँ अर्थात ड्रोन्स (drones) बनते हैं।*

➤ रेशम कीट (Silkworm)

इसका जन्तु वैज्ञानिक नाम है- Bombyx Moril। यह कीट केवल दो-तीन दिन जीवित रहता है। इतने ही समय में मैथुन करके प्रत्येक मादा कीट शहतूत की पत्तियों पर 300-400 अण्डों’ का अण्डारोपण कर देती है। प्रत्येक अण्डे से लगभग 10 दिन में एक नन्हा मादा कीट लार्वा (caterpillar) निकलता है। 30-40 दिन में, सक्रिय वृद्धि के फलस्वरूप, लार्वा पहले लम्बा होता है और फिर सुस्त होकर गोल-मटोल हो जाता है। अब तीन दिन तक निरन्तर अपने सिर को इधर-उधर हिलाकर यह अपने चारों ओर अपनी लार ग्रन्थियों द्वारा स्रावित पदार्थ से एक ही लम्बे धागे का खोल बनाता है जिसे कोया या ककून (cocoon) कहते हैं। वायु के सम्पर्क में यही धागा सूखकर रेशमी धागा बन जाता है जो लगभग 1000 मीटर लम्बा होता है। कोये में बन्द लार्वा अब एक प्यूपा (Pupa) में रूपान्तरित हो जाता है। साधारणतः 12 से 15 दिन में प्यूपा कायान्तरण द्वारा पूर्णकीट (imago) बन जाता है जो एक क्षारीय स्राव की सहायता से कोये को एक ओर से काटकर बाहर निकल जाता है। इससे कोये का रेशमी धागा अनेक टुकड़ों में टूटकर व्यर्थ हो जाता है। अतः रेशम प्राप्त करने के लिए, पूर्णकीट के बाहर निकलने से पहले ही कोये को खौलते पानी में डालकर पूर्णकीट को भीतर-ही-भीतर मार देते हैं और धागे को अलग कर लेते हैं।

➤ लाख कीट (Lac Insect)

यह कीट पलास, बेर, कुसुम, ढाक, साल, बरगद, अंजीर, आदि वृक्षों पर प्रतिकूल ऋतुओं तथा शत्रुओं से बचने और अण्डे देने के लिए एक-दो सेंटीमीटर मोटी पपड़ी के रूप में लाख का रक्षात्मक घोंसला बनाता है। लाख का स्त्रावण सुर्ख रंग की मादा कीट करती है। लाख में 68% रेजिन, 10% रंगीन पदार्थ, 6.0% मोम, 5.5% गोंद तथा 4.0% शर्करा आदि पाया जाता है। इसका चपटा, वृत्ताकार-सा शरीर पाद एवं पंखविहीन होता है। नर छोटा, परन्तु सामान्य कीट होता है। घोंसलों में अण्डों से निम्फ (nymph) निकलते हैं। देश में झारखण्ड राज्य देश का सबसे बड़ा लाख उत्पादक राज्य है।* उ.प्र. में मिर्जापुर जिला लाख उत्पादन में अग्रणी है।* ध्यातव्य है कि भारतीय लाख अनुसंधान संस्थान, नामकुम (रांची) में 1925 में स्थापित किया गया था।*

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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