• फुसेरम टॉक्सिन- फुसेरम नामक कवक ज्वार की फसल को प्रदूषित करती है। इसमें टी०-2 नामक विषाक्त पदार्थ पाया जाता है। विषाक्त पदार्थ ‘बावल सिण्ड्रोम’ उत्पन्न करता है। इससे जानवरों के मस्तिष्क में ट्यूमर एवं हृदय विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
• इपीडेमिक ड्राप्सी- सरसों के तेल में आरजीमोन (सत्यानाशी) के बीजों के तेल को मिश्रित करने से उक्त बीमारी होती है। आरजीमोन के बीजों में सान्गुनरीन नामक रसायन होता है, जो कि ड्राप्सी का कारक होता है। अचानक दोनों पैर में सूजन आ जाती है। दस्त आरम्भ हो जाते हैं। सांस फूलने लगती है। अन्ततः हृदय गति रुक जाने के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है।
• न्यूरोलैथिरिज्म- खाद्य दालों में खेसरी दाल या इसका आटा, बेसन आदि में मिलाकर खाने से तंत्रआबिष (neurotoxin) बी.ओ.ए.ए. नामक विषाक्त पदार्थ जटिलता उत्पन्न करता है। यह विष तंत्रिका तंत्र पर कुप्रभाव डालता है। प्रारंभ में कमजोरी होने से मनुष्य एक लकड़ी के सहारे चलने लगता है, कमजोरी बढ़ने पर दो लकड़ियों का सहारा लेना पड़ता है, अन्ततः घिसट-घिसट कर चलने को बाध्य हो जाता है।
• इंडेमिक एसाइटिस- चेना नामक खाद्यान्न में झुनझुनिया के बीज मिलने से “पायरोलाइजीडीन” रसायन से व्याधि उत्पन्न हो जाती है। झुनझुनिया के पौधे चेना (पैनीकम मिलेरी) खाद्यान्न के साथ उगते हैं। जिससे फसल कटने पर मिश्रित हो जाते हैं। विषाक्त पदार्थ यकृत में भारी क्षति पहुँचाते हैं।
• एफलाटॉक्सिन- एसपरजिलस नामक फफूंदी इसका कारण है जो कि मूँगफली, मक्का, ज्वार, गेहूं, चावल आदि के गीले अवस्था में भण्डारण से उत्पन्न हो जाती है। यह विषाक्त पदार्थ यकृत को भारी क्षति पहुँचाता है। * इसकी जटिलता यकृत-कैंसर भी उत्पन्न कर देती है।
कुपोषण सम्बन्धी व्याधियाँ (Malnutritional diseases)
शरीर में आवश्यक पोषक तत्वों की कमी या उनकी अधिकता कुपोषण (Malnutrition) कहलाता है। अल्प पोषण से शरीर के अन्दर कैलोरी न्यूनता रोग हो जाती है। हम यहाँ पर विटामिन्स तथा खनिज लवणों के कुपोषण सम्बन्धी रोगों का अध्ययन न करके कार्बोहाइड्रेटस प्रोटीन एवं वसा के कुपोषण प्रभावों का अध्ययन करेंगे।
कार्बोहाइड्रेट के कारण कुपोषण
कार्बोहाइड्रेट की कमी से शरीर कमजोर हो जाता है। थकान का अनुभव होता है। इसकी अधिकता भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है क्योंकि भोजन में शर्करा की मात्रा अधिक होने से भोजन ठीक से नहीं पचता। अजीर्णता के कारण कभी-कभी दस्त आते हैं। पेट बढ़ जाता है और रुधिर में शर्करा की प्रतिशत मात्रा बढ़ जाती है।
प्रोटीन के कारण कुपोषण
प्रोटीन की कमी से बच्चों में क्वाशरकोर तथा मेरेस्मस नामक रोग हो जाते हैं।
(i) क्वाशरकोर (Kwashiorkor)* – यह रोग मुख्यतः प्रोटीन की कमी से होता है। इस रोग में बच्चों की शारीरिक वृद्धि रुक जाती है। भूख कम लगती है। शरीर में सूजन आ जाती है। बाल रूखे एवं चमक रहित हो जाते हैं। त्वचा रूखी और कान्तिहीन हो जाती है तथा उस पर काले चकत्ते पड़ जाते हैं। इस रोग से वे बच्चे पीड़ित हो जाते हैं जिनको उचित मात्रा में दूध नहीं मिलता है। भारत में 1% बच्चे इस रोग से पीड़ित हैं। इस रोग से बचने के लिए रोगी बच्चे को नियमित रूप से उसके दैनिक आहार में प्रोटीन युक्त भोजन दिया जाना चाहिए।
(ii) मेरेस्मस (Marasmus) – यह रोग प्रायः भोजन में प्रोटीन तथा कैलोरी दोनों की कमी से होता है। इस रोग से पीड़ित बच्चों में शारीरिक वृद्धि रुक जाती है। उनका शरीर दुबला एवं आँखें कान्तिहीन हो जाती हैं। त्वचा पर झुरियाँ पड़ जाती हैं। यह मुख्यतः एक साल के बच्चों में होता है।*
प्रोटीन की आवश्यकता से अधिक मात्रा पाचनतंत्र तथा गुर्दे के कार्यों को प्रभावित करती है।
वसा के कारण कुपोषण
• वसा की कमी से शरीर की मांसपेशियाँ कमजोर पड़ जाती हैं।
• शारीरिक थकान का अनुभव होता है।
• त्वचा रूखी हो जाती है।
• वसा की अधिक मात्रा शारीरिक मोटापा बढ़ाती है जिससे शरीर को अनावश्यक भार ढोना पड़ता है।
• एथेरोस्क्लीरोसिस-संतृप्त वसाओं (जन्तु वसा) के अधिक सेवन से रुधिर वाहिनियों की दीवार के भीतरी स्तर पर वसा का जमाव होने लगता है। इससे सामान्य रुधिर-संचरण बाधित होने लगता है। इस रोग को ऐथरोस्क्लीरोसिस (Atherosclerosis) की संज्ञा प्रदान की गई है। * इसके कारण हृदय गति रुकने से रोगी की मृत्यु हो सकती है।
पाचन तंत्र एवं व्याधियाँ (Digestive System & Diseases)
मनुष्य का पाचन तंत्र मुख्यतया दो भागों से मिलकर बना होता है-यथा-
• आहार नाल
• पाचन ग्रंथियाँ
• छोटी तथा बड़ी आंत के मिलने के स्थान से एक मोटी नली विकसित होती है जिसे सीकम (Caecum) कहते हैं। इसी के छोर पर कृमिकार उभार (Yermform appendix) स्थित होती है।
पोषण के चरण (Step of nutrition)
मानव में पोषण के पाँच चरण होते हैं।
• भोजन का अन्तर्ग्रहण (Engestion)
• पाचन (Digestion)
• अवशोषण (Absorption)
• स्वांगीकरण (Assimilation)
• मलत्याग (Defaecation)
भोजन का अन्तर्ग्रहण (Engestion)
मुख जिस गुहा में खुलता है उसे मुखगुहा (oral cavity) कहते हैं। इस गुहा का आधार पेशीय जिह्वा (Tongue) का बना होता है जो खाद्य पदार्थ के निगलने (अन्तर्ग्रहण) में सहायता करती है। मुखगुहा के ऊपरी एवं निचले, दोनों जबड़ों (Jaws) में दांत पाये जाते हैं, जो भोजन को काटने, चबाने तथा पीसकर नरम करते हैं- जिससे खाद्य पदार्थ आसानी से निगला जा सकता है।

मुखगुहा छोटी कीप की आकृति की ग्रसनी में खुलती है जो आगे चलकर एक लम्बी नलिकाकार ग्रासनली (oesophagus) नामक रचना होती है। ग्रासनली की भित्ति पेशीय होती है तथा इसमें किसी प्रकार का पाचन नहीं होता। ग्रासनली एक सक्रिय पेशी होती है, जो संकुचन (contraction) एवं अकुंचन (expansion) की क्रमागत क्रियाओं द्वारा खाद्य-पदार्थ को मुख- गुहा से आमाशय की ओर ही भेजती है। आमाशय j- आकृति की पेशी थैली होती है, जिसकी पेशियाँ संकुचन एवं अकुंचन की सहायता से खाद्य-पदार्थ को मथती हैं तथा आमाशयी पाचन की क्रिया पूर्ण हो जाने पर उसे आगे ग्रहणी (duodenum) की ओर धकेलती है। आमाशय तथा ग्रहणी के बीच एक पेशीय कपाट, पायलोरिक वाल्व (Pyloric valve) होता है, जो खाद्य पदार्थ को आमाशय से ग्रहणी में तो जाने देता है परन्तु उसे वापस नहीं आने देता।
ग्रहणी से अंशतःपचा हुआ पदार्थ क्षुद्रांत्र (small intestines) में जाता है। क्षुद्रांत संकरी एवं लगभग 6-7 मीटर लम्बी नलिका होती है, जो कुण्डलित रूप में उदर-गुहा में रहती है। क्षुद्रांत के भीतर पृष्ठ पर अंगुली की आकृति के अनेक प्रवर्ध पाये जाते हैं जिन्हें विलाई (villi) कहते हैं। इनके कारण क्षुद्रांत का आंतरिक पृष्ठीय क्षेत्रफल बहुत बढ़ जाता है, जिससे उसकी अवशोषण क्षमता भी बढ़ जाती है। खाद्य पदार्थों से शरीर के लिए पोषण तत्वों का अवशोषण मुख्यतः क्षुद्रांत्र में ही होता है।*
क्षुद्रांत्र आगे जाकर वृहदांत्र (large intestine) में खुलता है। पोषक तत्वों के अवशोषण के बाद अवशेष पदार्थ वृहदांत्र से होता हुआ मलाशय (rectum) में एकत्र होता है तथा समय-समय पर गुदा-द्वार से बाहर निकाल दिया जाता है।
मानव में पाचन क्रियाएँ (Digestive action in humans)
अविलेय भोज्य पदार्थों को भौतिक एवं रासायनिक क्रियाओं के द्वारा विलेय पदार्थों में बदलने की क्रिया को पाचन कहते हैं। यह क्रिया आहारनाल में सम्पन्न होती है। मनुष्य की आहारनाल मुख (Mouth) से लेकर मलद्वारा (Anus) तक फैली रहती हैं। मनुष्य में पाचन क्रिया का अध्ययन निम्नलिखित चरणों में किया जाता है-

(1) मुखगुहा में पाचन- मनुष्य ठोस भोजन को दाँत से पीस-पीस कर लुग्दी के रूप में बदल देता है। भोजन के मुख में आते ही लार ग्रन्थियों से लार (saliva) निकलता है। लार हल्का-सा अम्लीय (PH 6-7) होता है।* लार के निम्नलिखित कार्य हैं-
• जल तथा श्लेष्म (mucus) – यह भोजन को गीला तथा लसदार बनाता है।
• टायलिन (ptylin) – यह एक विकर (enzyme) है जो भोजन के मण्ड (starch) को शर्करा (sugar) में बदल देता है। इसे सैलाइवरी एमाइलेज भी कहते हैं।*
• माल्टेज एन्जाइम द्वारा कुछ माल्टेज शर्करा ग्लूकोज में बदल दी जाती है।*
• लार में पोली सैकेरिडेस एन्जाइम होता है जो बैक्टीरिया की कोशिका भित्ति को घोलकर बैक्टीरिया को नष्ट करता है।*
• लार में बाइकार्बोनेट, फास्फेट तथा म्यूसिन होते हैं जो बफर का कार्य करते हैं।
(2) ग्रासनली –
• इसमें कोई पाचन नहीं होता है।
• भोजन निगलने की क्रिया प्रतिवर्ती क्रिया (Refex action) होती है तथा इसका केन्द्र मेड्यूला में स्थित होता है।*.
• इसकी दीवारों में श्लेष्म ग्रन्थियाँ होती हैं जो श्लेष्म उत्पन्न करती हैं। श्लेष्म भोजन को चिकना बनाता है जिससे वह ग्रास नली की क्रमांकुचन (peristalsis) क्रिया द्वारा फिसलता हुआ आमाशय में पहुँच जाता है।
(3) आमाशय में पाचन- आमाशय में कार्बोहाइड्रेट्स का पाचन नहीं होता है। आमाशय में भोजन 3-4 घण्टा तक रहता है। यहाँ पर भोजन का मंथन तथा आंशिक पाचन होता है। आमाशय की दीवार में जठर ग्रन्थियाँ होती हैं, जिनसे जठर रस (gastric juice) – स्रावित होता है। जो अम्लीय (PH-0.9-1.5) होता है। जठर रस में – निम्नलिखित पदार्थ होते हैं। यथा-
• जठर रस में 97-99 प्रतिशत जल तथा कुछ श्लेश्म एवं लवण होते हैं।
• हाइड्रोक्लोरिक एसिड (HCI) – यह भोजन के माध्यम को अम्लीय बनाता है, हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है, भोजन को सड़ने से बचाता है तथा हड्डियों को गलाता है।*
• पेप्सिन (pepsin) – यह भोजन के प्रोटीन को पेप्टोन (Peptones) तथा पॉलीपेप्टाइड (Polypeptides) में बदल देता है।
• रेनिन (Renin) – यह दूध की विलेय प्रोटीन (केसीनःcasein) को ठोस एवं अविलेय दही में बदल देता है।*
• गैस्ट्रिक लाइपेज – यह बसा का अपघटन करता है।*
(4) ग्रहणी में पाचन – आमाशय में बना लुग्दी के समान भोजन काइम (chyme) कहलाता है। यह पाइलोरस कपाट (pylorus valve) से होता हुआ ग्रहणी में पहुँचता है। यहाँ पर भोजन पहले पित्त रस (bile juice) तथा बाद में अग्न्याशयी रस (pancreatic juice) से मिलता है।
पित्त रस (Bile juice) – पिन्त रस का स्त्राव रासायनिक उद्वीपनों से प्रभावित होता है। इन रासायनिक यौगिकों को कोलेगोग (Chologague) कहते हैं यह हरे-पीले रंग का क्षारीय (PH- 7.6 -7.7) तरल है जो भोजन के अम्लीय माध्यम को क्षारीय बना देता है। इसमें कोई पाचक एन्जाइम नहीं होता है फिर भी पाचन में इसका बहुत महत्त्व है। यह आँत में क्रमाकुंचन गति को बढ़ाता है ताकि पाचक रस काइम में मिल सके। यह वसा का पायसीकरण (emulsification) करता है ताकि स्टीएप्सिन नामक एन्जाइम वसा का अधिकतम पाचन कर सकें * । पित्त रस में निम्नलिखित पदार्थ होते हैं। यथा-

• पित्त लवण तल-तनाव को कम करके वसा तथा वसा में घुलनशील विटामिन्स के पाचन में भाग लेता है।
• पित्त का क्षारीय गुण उसमें पाये जाने अकार्बनिक पदार्थ (सोडियम कार्बोनेट) के कारण होता है।*
• पित्त वर्णक बिलिरुबीन तथा बिलवर्डिन हीमोग्लोबिन के विघटन से बनते हैं। ये उत्सर्जी पदार्थ हैं और अपच भोजन के साथ शरीर से बाहर निकाल दिये जाते हैं।*
अग्न्याशयी रस (Pancreatic juice) – इसमें चार प्रकार के पाचक एन्जाइम होते हैं। यथा-
• ट्रिप्सिन एवं काइमोट्रिप्सिन – यह काइम की शेष प्रोटीन तथा पेप्टोन को विलेय अमीनो अम्ल में बदल देता है।
• ऐमिलोप्सिन- यह मण्ड को माल्टोज शर्करा में बदल देता है। *
• स्टीएप्सिन (Steapsin) – यह पायसीकृत वसा को वसीय- अम्ल तथा ग्लिसरॉल में बदल देता है।*
• कार्बोक्सीपेप्टिडेस- प्रोटीन के पालीपेप्टाइड अणुओं को अमीनो अम्ल में विघटित करता है।*
(5) क्षुद्रान्त्र में पाचन (Small Intestine) – भोजन के अधिकांश भाग का पाचन ग्रहणी में हो जाता है।* अवशेष भोजन का पाचन क्षुद्रान्त्र में होता है। क्षुद्रान्त्र की दीवारों में पाचन ग्रन्थियाँ (ब्रूनर ग्रंथियाँ तथा लीवरकन की प्रगुहिकार्य) होती है*, जिनसे आन्त्रीय रस (intestinal juice) निकलता है। एक दिन में मनुष्य की आँत से 6-7 लीटर आन्त्रीय रस का स्त्रावण होता है। इसमें निम्नलिखित पाचक एन्जाइम होते हैं-
• एंटरोकाइनेस (Enterokinase) – यह अग्नाशय रस के निष्क्रिय ट्रिप्सिनोजन को सक्रिय ट्रिप्सिन में बदलता है।
• इरेप्सिन (Erapsin) – यह पॉलीपेप्टाइडों को एमीनो अम्ल में बदलता है।*
• आर्जिनेस (Arginase) – यह अर्जिनीन ऐमीनो अम्ल को यूरिया में बदलता है।*
• माल्टेज (Maltase) – यह माल्टोज को ग्लूकोज में बदलता है।*
• सुक्रेज (Sucrase)- यह सुक्रोज को फ्रक्टोज में बदलता है।*
• लैक्टेज (Lactase)- यह दुग्ध शर्करा (lactose) को ग्लूकोज में बदलता है।*
• लाइपेज (Lipase)- यह शेष वसाओं को वसीय अम्ल तथा ग्लिसरॉल में बदलता है।*
उपर्युक्त पाचक रसों की क्रिया के बाद क्षुद्रान्त्र में भोजन के सभी पोषक पदार्थों का पूर्ण पाचन हो जाता है। पाचन के सभी अन्तिम उत्पाद जल में विलेय तथा विसरणशील (diffusable) होते हैं। क्षुद्रान्त्र की दीवारों में असंख्य रसांकुर (विलाई) होते हैं, जिनके द्वारा पचे हुए भोजन का अवशोषण हो जाता है।*
(6) सीकम में पाचन – मनुष्य में सीकम बहुत छोटा होता है और इसमें सेलूलोज का पाचन नही होता। शाकाहारी जन्तुओं में सीकम मांसाहारी जन्तु के सीकम की अपेक्षा अधिकलम्बा होता है क्योंकि इसमें निवास करने वाले जीवाणु सेलुलोज का पाचन करते हैं।
(7) बड़ी आँत (Large intestine) – क्षुद्रान्त्र से बचा हुआ अपचित भोजन बड़ी आँत में प्रवेश करता है। बड़ी आँत की दीवारों में भोजन के कुछ लवणों तथा जल का अवशोषण हो जाता है। शेष अपचित हुआ भोजन मल के रूप में मलाशय (rectum) में एकत्र होता रहता है तथा समय-समय पर मल द्वार से बाहर निकाल दिया जाता है।
अवशोषण (Absorption)
खाद्य-पदार्थों के विसरित होकर रूधिर में पहुँचने की क्रिया को ही अवशोषण कहते हैं। अवशोषण मुख्य रूप से छोटी आंत में होता हैं। सरल घुलनशील पचा हुआ भोजन अधोलिखित रूपों में होता है। यथा
खाद्य पदार्थ | अवशोषण योग्य पाच्य पदार्थ |
• कार्बोहाइड्रेट्स | ग्लूकोज, गेलैक्टोज आदि |
• प्रोटीन | α एमीनों अम्ल * |
• वसा | वसीय अम्ल, ग्लिसरोल, मोनो, डाई व ट्राई ग्लिसराइडस |
पचे हुए भोजन के पूर्ण अवशोषण के लिए आँत में अधिक क्षेत्रफल होना चाहिए। इसके लिए छोटी आंत की भीतरी भित्ति पर अनगिनत अंगुलाकार रसांकुर (Villi) पाये जाते हैं जिनका कार्य अवशोषण के लिए अधिक पृष्ठ प्रदान करना है।
• ग्लूकोज और अमीनो अम्ल रसांकुरों की श्लेष्मिका या एपीथीलियम स्तर में विसरित होकर रूधिर की आन्त्र कोशिकाओं (Intestinal capillaries) में प्रवेश करते हैं। कोशिकाएँ आपस में मिलकर यकृत निवाहिका शिरा बनाती हैं जो अवशोषित भोज्य पदार्थों को यकृत में पहुँचाती हैं। यकृत में अमीनों अम्लों और ग्लूकोज शर्करा का अपने ही प्रकार के क्रमशः जन्तु प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट (ग्लाइकोजेन) तथा वसा के रूप में स्वांगीकरण (Assimilation) होता है।
• पानी, अकार्बनिक लवण तथा एल्कोहल आदि का अवशोषण आमाशय में ही शुरू हो जाता है।*
• शर्करा का अवशोषण Na* आयनों की उपस्थिति एवं Na’ के अनुपात पर निर्भर करता है।*
• वसा-अम्ल तथा ग्लिसरॉल के अणु रसांकुर की कोशिकाओं में विसरित नहीं होते हैं। वे प्रत्येक रसांकुर के बीच में स्थित लसीका केशिका (lymph capillary) में विसरित होकर पहुँचते हैं। लसीका केशिकाएँ परस्पर मिलकर लसीका परिसंचरण तंत्र की वक्षीय वाहिनी (thoracic duct) में खुलती हैं, जो सबक्लेवियन शिरा द्वारा अग्र महाशिरा (Precavals) में जा मिलती है। इस प्रकार वसा-अम्ल तथा ग्लिसरॉल भी रूधिर परिसंचरण तंत्र में आ जाते हैं।
विटामिन्स का अवशोषण आमाशय में होता है।
स्वांगीकरण (Assimilation)
अवशोषण के बाद रूधिर में होकर अमीनो अम्ल, ग्लूकोज तथा वसा के अणु शरीर की विभिन्न कोशिकाओं तक पहुँचते हैं, जहाँ पर वे प्रोटीन संश्लेषण, टूटे-फूटे ऊतकों की मरम्मत तथा जीवद्रव्य का निर्माण करते हैं। पचे हुए भोज्य पदार्थों को जटिल घुलनशील पदार्थों के रूप में विभिन्न ऊतकों के कोशिका द्रव्य में विलीन होने की क्रिया को स्वांगीकरण (assimilation) कहते हैं। अमीनो अम्लों से एन्जाइम्स के प्रोटीनों का भी निर्माण होता है जो शरीर की रासायनिक क्रिया में भाग लेते हैं। अमीनो अम्ल यदि आवश्यकता से अधिक होते हैं तो यकृत द्वारा उसे अमोनिया और आमोनिया ये यूरिया में परिवर्तित कर दिया जाता है। यूरिया को वर्ज्य पदार्थ के रूप में मूत्र के साथ बाहर निकाल दिया जाता है।
• अमीनो अम्ल की भाँति ग्लूकोज उसी रूप में अथवा ग्लाइकोजेनिसिस द्वारा निर्मित ग्लाइकोजन के रूप में संग्रहित रहता है।
मल परित्याग (Egestion)
आहार-नाल के अन्दर यद्यपि अनेक एन्जाइम्स खाद्य पदार्थों के ऊपर क्रिया करते हैं फिर भी इनका कुछ अंश अपचित रह जाता है। यह अवशिष्ट पदार्थ बड़ी आंत में चला जाता है जहाँ इसका अधिकांश पानी पुनः अवशोषित हो जाता है तथा शेष ठोस अथवा अर्ध-ठोस पदार्थ मल के रूप में समय-समय पर गुदा-द्वार द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
मानव की पाचन ग्रन्थियाँ (Digestive Glands in Humans)
आहारनाल से संबंधित वे ग्रंथियां, जो भोजन को पचाने में सहायता करती है, पाचन ग्रंथियाँ कहलाती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं-
(A) आंतरिक पाचक ग्रंथियाँ (internal digestive glands ): वे पाचक ग्रंथियाँ जो आहरनाल की दीवार में पायी जाती हैं, आंतरिक पाचक ग्रंथियाँ कहलाती हैं। इस श्रेणी में आहारनाल में स्थित समस्त श्लेष्म ग्रंथियाँ (mucous glands), आमाशय के दीवार की जठर ग्रंथियाँ (gastric glands) तथा आंत्र की दीवार की ब्रूनर्स या लिबरकुन ग्रंथियाँ आती हैं।
(B) बाह्य पाचक ग्रंथियाँ (external digestive glands ): मनुष्य में निम्न तीन बाह्य पाचक ग्रंथियाँ पायी जाती हैं-
(i) लार ग्रंथियाँ (salivary glands): मनुष्य में तीन जोड़ी लार ग्रंथियाँ पायी जाती हैं। ये ग्रंथियाँ नलिकाओं द्वारा लार (saliva) को मुखगुहा में स्त्रावित करती हैं।
• पहली जोड़ी लार ग्रंथियाँ ‘सबलिंगुअल ग्रंथियाँ’ (sublingual glands) कहलाती हैं। ये ग्रंथियाँ जिह्वा के दोनों ओर एक-एक की संख्या में स्थित होती हैं।
• दूसरी जोड़ी लार ग्रंथियाँ ‘सबमैडिबुलर ग्रंथियां’ (submandibular glands) कहलाती हैं। ये निचले जबड़े के मध्य में मैक्जिला अस्थि के दोनों ओर एक-एक की संख्या में उपस्थित होती है।
• तीसरी जोड़ी लार ग्रंथियाँ ‘पैरोटिड ग्रंथियां’ (parotid glands) कहलाती हैं तथा कर्णों के नीचे स्थित होती हैं।
• लार ग्रंथियों द्वारा स्त्रावित लार में म्यूकस के अतिरिक्त कई अन्य एन्जाइम्स पाये जाते हैं। इसमें टायलिन (एमाइलेज) एवं लाइसोजाइम नामक एन्जाइम्स मुख्य होते हैं, जो पाचन में सहायता करते हैं।
• लार कुछ उत्प्रेरक पदार्थों जैसे-मर्करी, सीसा एवं आयोडाइड्स का भी स्त्रावण करती हैं।*
(ii) यकृत (liver): यकृत मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है, जो डायफ्राम के नीचे उदरगुहा मे स्थित होती है। यकृत दो पिण्डों से मिलकर बना होता है, इसका दाहिना पिण्ड, बांये पिण्ड की अपेक्षा बड़ा होता है। इसके चारों ओर पेरीटोनियम (peritonium) नामक झिल्ली का आवरण पाया जाता है। यकृत कोशिकायें एक विशिष्ट प्रकार के द्रव का स्त्रावण करती हैं, जिसे पित्तरस (bile) कहते हैं। यकृत के दाहिने पिण्ड की निचली सतह पर पित्ताशय (gallbladder) स्थित होता है।
संरचनात्मक रूप से यकृत बहुत-सी पालिकाओं (lobules) का बना होता है, जिन्हें ‘ग्लिसंस कैप्सूल’ कहते हैं। प्रत्येक पालिका के चारों ओर संयोजी ऊतक का एक आवरण पाया जाता है। यकृत में बहुत सी कोशिकायें पायी जाती हैं, जिन्हें यकृत कोशिकायें (hepatic cells) कहते हैं। यकृत इन्हीं कोशिकाओं से बना होता है। यकृत कोशिकाओं के बीच में पित्त कोशिकायें पायी जाती हैं। यकृत कोशिकाओं के कोशाद्रव्य में प्रोटीन, ग्लाइकोजन, वसा तथा रंगक कण (pigment granules) होते हैं। यकृत कोशिकाओं के बीच-बीच में कुछ विशेष प्रकार की कोशिकायें पायी जाती हैं, जिन्हें ‘कुफर कोशिकायें’ कहते हैं।* यकृत कोशिकायें संयोजी ऊतकों द्वारा आपस में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं।
यकृत के प्रमुख कार्य अधोलिखित हैं यथा-
• यकृत कोशिकायें नीले-हरे रंग का पित्त-रस उत्पन्न करती हैं। जिसमें सोडियम कार्बोनेट तथा कोलीस्टेरोल आदि यकृत लवण होते हैं।*
• पित्त-रस क्षारीय होता है तथा यह भोजन के अम्लीय माध्यम को क्षारीय बनाता है ताकि अग्नाशयिक रस के एंजाइम्स भोजन के अवयवों का अपघटन कर सकें।
• पित्त-रस बैक्टीरिया इत्यादि को नष्ट करता है।
• निष्क्रिय लाइपेस एवं अग्नाशयिक रस पित्त-रस द्वारा क्रियाशील अवस्था में बदलते हैं।
• यकृत में आवश्यकता से अधिक शर्करा या कार्बोहाइडेट ग्लाइकोजन के रूप में संचित रहते हैं। शरीर को जरूरत पड़ने पर यह पुनः ग्लूकोस में परिवर्तित कर दी जाती है।
• शरीर में शर्करा की कमी होने पर यकृत उन्हें प्रोटीन से संश्लेषित करता है।*
• यकृत प्रोटीन तथा ऐमीनो अम्ल को अमोनिया में विघटित करता है जो बाद में यूरिया में परिवर्तित कर दी जाती है।*
• यकृत उत्सर्जन में भी सहायता करता है।
• आहार-नाल में पचने के पश्चात् भी वसा इस अवस्था में नहीं होती कि वह शरीर की समस्त कोशिकाओं द्वारा ग्रहण की जा सके। यकृत की कुफर कोशिकायें (Kupffer cells) वसा कणों को साधारण वसा में परिवर्तित कर देती हैं ताकि ये कोशिकाओं द्वारा प्रयोग में लायी जा सकें।
• यकृत में फाइब्रिनोजन तथा प्रोथ्रोम्बिन नामक प्रोटीन का संश्लेषण एवं संग्रह होता है।
• यकृत में Vit, A तथा D, लोहा एवं ताँबा संचित रहता है।*
• यकृत में विशेष रूधिर कोशिकायें-भक्षक कोशिकाओं (phagocytes) के समान बैक्टीरिया इत्यादि को नष्ट करती है।
• स्तनधारियों के भ्रूण में यकृत R.B.Cs. बनाता है।
• यकृत हीपेरिन (heparin) नामक मुख्य पदार्थ बनाता है जो रक्त वाहिनियों में रक्त को जमने से रोकता है।*
• मृतक R.B.Cs. यकृत द्वारा पित्त-वर्णक (बिलिरूबीन तथा बिलबर्डिन) में विघटित कर दिये जाते हैं।*
• शारीरिक कोशिकाओं द्वारा उत्पन्न उत्सर्जी पदार्थ यकृत द्वारा निराकृत अथवा उदासीन कर दिये जाते हैं।
• प्लाज्मा प्रोटीनों का संश्लेषण यकृत (Liver) में होता है?
• हानिकारक बैक्टीरिया द्वारा उत्पन्न हानिकारक विषाक्त पदार्थ अविषाक्त पदार्थों में परिवर्तित कर दिये जाते हैं।
• रक्ताल्पता दूर करने वाले पदार्थ भी यकृत द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं।*
(iii) अग्नाशय (Pancreas): अग्नाशय यकृत के बाद शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक साथ अन्तः स्त्रावी (नलिकाहीन) और वहिः स्त्रावी (नलिकायुक्त) दोनों प्रकार की ग्रंथि है। यह मुख्यतः पाचक ग्रन्थि है। इसके द्वारा बना पाचक रस अग्नाशयिक रस (Pancreatic Juice) कहलाता है। यह ग्रहणी (Duodenum) में क्रिया करता है।
भौतिक रूप से यह दो ग्रंथिल ऊतक की बनी होती है। यथा-
(1) एक्सोक्राइन ऊतक (Exocrine tissue) – अग्नाशय का अधिकांश भाग एक्सोक्राइन ऊतक का बना होता है। यह अग्नाशय वाहिनी द्वारा ड्यूओडिनम में खुलता है। यह ग्रन्थिल कोशिकाओं की पालिकाओं (acinus) का बना होता है। कोशिकाएँ अग्नाशय रस स्स्रावित करती हैं जो अग्नाशय वाहिनी में एकत्रित होकर ड्यूओडिनम में स्खलित हो जाता है।
अग्नाशयी रस (Pancreatic juice) – यह एसिनस कोशिकाओं से स्त्रावित होता है। इसमें जल 98 प्रतिशत तथा शेष भाग में लवण एवं एन्जाइम होते हैं। यह क्षारीय द्रव है तथा इसका pH मान 7.5- 8.3 है। अग्नाशयी रस में तीनों प्रकार के मुख्य भोज्य पदार्थों को पचाने के एन्जाइम होते हैं। इसीलिये इसे ‘पूर्ण पाचक रस’ कहा जाता है।* इसमें मुख्यतः पाँच एन्जाइम-ऐमाइलेज (ऐमिलोप्सिन), ट्रिप्सिन, कार्बोक्सि- पेप्टिडेस, लाइपेज (स्टीएप्सिन) तथा माल्टेज होता है।* इसमें ऐमाइलेज और माल्टेज कार्बोहाइड्रेट को, ट्रिप्सिन प्रोटीन को तथा लाइपेज वसा को पचाता है।
2. एण्डोक्राइन ऊतक (Endocrine tissue) – एण्डोक्राइन ऊतक के बीच में एक विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं के समूह बिखरे रहते हैं। ये लैंगरहेंस द्वीप (islets of Langerhans) कहलाते हैं।* ये – अग्नाशय के एण्डोक्राइन भाग को निरूपित करते हैं। ये अपना स्त्राव सीधे रूधिर में स्खलित करते हैं। स्तनधारियों के लैगरहैंस द्वीपों में दो स्पष्ट प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं-
(i) बीटा कोशिकाएँ (Beta cells) – ये इंसुलिन बनाती हैं जो यकृत में ग्लूकोस को ग्लाइकोजन के रूप में संचय को – प्रोत्साहित करता है एवम् ऊतक कोशिकाओं द्वारा ग्लूकोस के उचित उपयोग को नियन्त्रित करता है। * इसकी अनुपस्थिति में ग्लूकोस का – उपापचय नहीं हो पाता। अतः रूधिर में इसकी सांद्रता अधिक हो जाती है। आवश्यकता से अधिक ग्लूकोस मूत्र के साथ शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।
(ii) एल्फा कोशिकाएँ (Alpha cells) – एल्फा कोशिकाओं – द्वारा ग्लूकैगोन (glucagon) नामक हार्मोन उत्पन्न होता है। यह हारमोन यकृत में ग्लाइकोजन को ग्लूकोस में परिवर्तन को – प्रोत्साहित करता है।* जिससे यह आवश्यकता पड़ने पर रूधिर में पहुँचाया जा सके। इसके अतिरिक्त यह इंसुलिन के प्रभावों के विरूद्ध कार्य करता है।*
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