विपत्ति प्रतिक्रिया

ऐड्रीनल ग्रन्थियाँ शरीर को बाहरी एवं भीतरी संकटावस्थाओं का सामना करने के लिए तैयार करके एक “रासायनिक सुरक्षा तन्त्र (chemical defence mechanism)” प्रदान करती है। विपत्ति- उद्दीपन को संवेदांग ग्रहण करके तन्त्रिकाओं द्वारा मस्तिष्क में भेज देते हैं। यहाँ यह संवेदना प्रमस्तिष्क कॉर्टेक्स (cerebral cortex) में होती हुई हाइपोथैलेमस में पहुँचती है। अनुकम्पी तन्त्र (sympathetic system) और ऐड्रीनल मेडयूला के हार्मोन फिर शरीर को संकट का सामना करने हेतु, युद्धस्तर पर, एक उग्र “संघर्ष या पलायन (Fight or Flight)” प्रतिक्रिया के लिए तैयार करते हैं। *

यह प्रतिक्रिया इतनी उग्र होती है कि इसके तुरन्त बाद शरीर की ऐसी प्रघातावस्था या सदमावस्था (state of shockl) हो जाती है जैसी युद्ध के बाद किसी देश की। इस अवस्था में हृद-स्पंदन दर, रक्तदाब, रक्त में ग्लूकोज व लवणों की मात्रा आदि सभी काफी घट जाती है। इस प्रकार की दशाओं में ऐड्रीनल कॉर्टेक्स के हॉर्मोन्स अधिक मात्रा में स्स्रावित होकर शरीर की सामान्य सुरक्षा प्रतिक्रियाओं पर रोक लगा देते हैं और शरीर को इस सदमावस्था से उबारने अर्थात जीर्णोद्धार करने के लिए प्रत्येक भाग को असाधारण प्रयास के लिए प्रेरित करते हैं। यदि विपत्ति-प्रतिक्रिया इतनी उग्र हो कि शरीर सदमे को सहन न कर पाये तो, इस प्रयास में पूरी तरह अशक्त (exhausted) हो जाने के कारण, रोगी की मृत्यु हो जाती है (patient succumbs)।

ऐड्रीनल ग्रन्थियों की स्रावण-क्रिया भ्रूण में और जन्म के बाद कुछ दिन तक बहुत कम होती है। अतः नवजात बच्चों में यह रासायनिक सुरक्षा तन्त्र अधिक प्रभावी नहीं होता और संकटवस्था में इनकी शीघ्र मृत्यु हो जाती है। इसीलिए, ऐसे बच्चों की बहुत सुरक्षा की जाती है।

ऐड्रीनल की अनियमितताएँ एवं रोग

ऐडीसन रोग (Addison’s disease) – ऐड्रीनल हार्मोन्स की कमी से ऐडीसन का रोग (Addison’s disease) हो जाता है। इसका वर्णन सर्वप्रथम थॉमस ऐडीसन ने किया था। इसमें सोडियम और इसके साथ-साथ जल की काफी मात्रा का मूत्र के साथ उत्सर्जन हो जाने से शरीर का निर्जलीकरण (dehydration) हो जाता है और रक्तदाब घट जाता है। इसके अतिरिक्त, रक्त में शर्करा की कमी (हाइपोग्लाइसीमिया – hypoglycemia) रहने से पेशियाँ, विशेषतः हृदपेशियाँ, जिगर एवं मस्तिष्क कमजोर हो जाते हैं तथा उपापचयी दर (BMR) और शरीर ताप घट जाते हैं। भूख की कमी, मितली, घबराहट आदि होने लगती हैं। हाथों, गर्दन एवं चेहरे की या कभी-कभी अन्य भागों की त्वचा में, मिलैनिन रंगा के कारण, एक अजीब-सा कांस्यवर्ण (bronzing) हो जाता है। ठण्ड, गरमी, संक्रमण आदि के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है। रोगी प्रायः कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाते हैं। यदि किसी व्यक्ति में ऐड्रीनल कॉर्टेक्स को नष्ट कर दें तो उसकी शीघ्र मृत्यु हो जाती है। इसका प्रमुख कारण मूत्र के साथ सोडियम का अत्यधिक उत्सर्जन होता है। अतः ऐड्रीनल ग्रन्थियों के हार्मोन्स “जीवन-रक्षक हार्मोन्स” (Life-saving hormones) होते हैं।

• कुशिंग रोग (Cushing disease) – ऐड्रीनल हार्मोन के अधिक स्राव से वक्षीय भाग में असामान्य स्थानों पर वसा के जमाव से शरीर भाँडा हो जाता है, जिसे कुशिंग रोग की संज्ञा दी जाती है।

• इडीमा रोग (Edema disease) – ऐड्रीनल हार्मोन्स के अधिक स्राव से ऊतक द्रव्य में सोडियम और इसके साथ-साथ जल की मात्रा बढ़ जाने से रक्त दाब बढ़ जाता है और शरीर फूल जाता है, जिसे इडीमा रोग की संज्ञा दी गई है।

जब ऐड्रीनैलीन की कमी से व्यक्ति खिन्नमन रहने लगता है तो कोकेन (cocaine), ऐम्फीटैमीन (amphitamins) आदि शमकरोधी (antidepressants) देने से लाभ होता है। इसी प्रकार, ऐड्रीनैलीन की अधिकता से तनाव बढ़ जाने पर डाइसल्फीराम, रिसरपीन, ग्वानीथीडीन (disulfiram, reserpine, guanithidine) आदि प्रशान्तक (tranquillizer) दवाइयाँ देते हैं।

थाइमस ग्रंथि (Thymus Gland)

यह ग्रंथि हृदय के ठीक आगे स्थित, भ्रूणावस्था से शैशवावस्था तक बड़ी होती जाती है। बाद में धीरे-धीरे छोटी हो जाती है। यह अन्धि थाइमोसीन नामक हार्मोन का स्रावण करती है, जिसके प्रभाव से शिशुओं में लिम्फोसाइट का विभेदन एवं प्रतिरक्षी पदार्थ का निर्माण होता है। जीवन की किसी भी अवस्था में उनके हटाने का जीव पर कोई विशेष प्रभाव या अन्तर नहीं पड़ता है। किन्तु बाल्यावस्था में थाइमस को निकालने से वसा का उत्पादन होता है तथा कंकाल-निर्माण में बाधायें उत्पन्न होती है।

पीनियल काय (Pineal Body)

यह मस्तिष्क के प्रमस्तिष्क गोलार्धी के बीच, एक खोखले वृत्त पर स्थित, सफेद व चपटी-सी छोटी ग्रन्थि होती है। इसे ऐपीफाइसिस सेरेब्राइ (epiphysis cerebri) भी कहते हैं। यह ग्रन्थि मिलैटोनिन हार्मोन (melatonin hormone) का स्रावण करती है जो एक अमीनो अम्ल होता है।

स्तनियों में मिलैटोनिन सम्भवतः जननांगों के विकास एवं इनके कार्य का अवरोधन (inhibition) करता है। यह ग्रन्थि लैंगिक आचरण को प्रकाश की विभिन्नताओं के अनुसार नियन्त्रित करके एक जैविक घड़ी (biological clock) का काम करती है। कहते हैं कि जन्म से अन्धे मानव बच्चों में यौवनावस्था जल्दी आ जाती है, क्योंकि प्रकाश- प्रेरणा के अभाव में मिलैटोनिन का समुचित स्त्रावण नहीं होता।

अग्नाशय (Pancreas)

एक मिश्रित ग्रन्थि हैं जिसका बहिःस्रावी भाग पाचक रस स्स्रावित करता है। इसमें उपस्थित लैंगरहैंस की द्वीपिकाएँ अन्तःस्रावी भाग बनाती हैं। इस ग्रन्थि के द्वारा इन्सुलिन एवं ग्लूकैगॉन हार्मोन स्स्रावित होता है- (1) इन्सुलिन शरीर की कोशिकाओं को ग्लूकोस उपयोग के लिए प्रेरित करता है। ऊतकों विशेषकर पेशियों में कार्बोहाइड्रेट्स के उपयोग पर नियन्त्रण तथा यकृत कोशिकाओं में ग्लाइकोजेनेसिस का प्रेरक भी है। (2) ग्लूकैगॉन रुधिर में ग्लूकोज की मात्रा घटने पर ग्लाइकोजन व वसा के विखण्डन से ग्लूकोज के निर्माण को प्रेरित करता है। इस भाग के विस्तृत अध्ययन के लिए पाचन तंत्र अध्याय देखें।

जनद (Gonads)

जनद में वृषण, अण्डाशय एवं कार्पस ल्यूटियम आते हैं। वृषण में उपस्थित लेडिंग कोशिकाएँ नर हार्मोन्स टेस्टोस्टेरॉन एन्ड्रोजन का स्त्रावण करती है जो लैगिंक अंगों को परिपक्वता तथा विकास की प्रेरणा के साथ द्वितीयक नर लैंगिक लक्षणों का प्रेरक तथा शुक्राणु जनन में सहायक है। अण्डाशय में उपस्थित ग्राफियन पुटिकाएँ मादा हार्मोन्स एस्ट्रोजेन्स (estrogen) का स्स्रावण करती हैं। जो स्त्रियों के सहायक जननांगो, लैगिंक लक्षणों, स्तनों, दुग्ध ग्रन्थियों आदि के विकास तथा अण्डाणु जनन को प्रेरित करती है। अण्डोत्सर्ग के बाद बनी संरचना कार्पस ल्यूटियम प्रोजेस्टेरॉन तथा रिलैक्सिन नामक हार्मोन का स्त्रावण करती है। ये दोनों हार्मोन गर्भ धारण एवं शिशु जन्म को आसान बनाता है। इस भाग के विस्तृत अध्ययन के लिए प्रजनन-तंत्र अध्याय देखें।

ऊतक द्रव्य के हार्मोन

कुछ हार्मोन्स, रुधिर में जाने के बजाय, ऊतक द्रव्य में ही रहते हैं। इनमें प्रमुख हार्मोन्स निम्नलिखित होते हैं-

(1) न्यूरोहार्मोन्स (Neurohormones) – ये तंत्रिका कोशाओं (neurons) के अक्ष तन्तुओं (axons) की छोर घुण्डियों से स्रावित होकर तान्त्रिकीय प्रेरणाओं को न्यूरॉन्स या क्रियान्वक अंगों (पेशियों, ग्रन्थियों आदि) में पहुँचाते हैं। इनमें ऐसेटिल्कोलीन एवं नोरएप्रीनेफ्रीन प्रमुख हैं।

(2) प्रोस्टाग्लैंडिन्स (Prostaglandins) – ये कई प्रकार के होते हैं और वृक्कों, जनदों, शुक्राशयों, थाइमस, मस्तिष्क आदि कई अंगों की कोशाओं द्वारा ऊतक द्रव्य में स्त्रावित किये जाते हैं। ये शरीर में अभी तक सभी पदार्थो से अधिक संक्रिय होते हैं। इनकी सूक्ष्म मात्रा में ही अरेखित पेशियों और रुधिरवाहिनियों का शिथिलन हो जाता है। कुछ प्रोस्टाग्लैंडिन्स रुधिरवाहिनियों को सिकोड़ने का काम करते हैं। पुरुष के शुक्राशयों से स्रावित प्रोस्टाग्लैडिन्स वीर्य के साथ स्त्री की योनि में पहुँचकर गर्भाशय को क्रियाशील बनाते हैं।

(3) फीरोमोन्स या एक्टोहॉर्मोन्स (Pheromones or Ectohormones)- ये कुछ बाह्यस्रावी ग्रन्थियों द्वारा बाहरी वातावरण में स्स्रावित होते हैं और एक ही जीव-जाति के सदस्यों के बीच पारस्परिक आचरण को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार, ये स्पर्श, दृष्टि, एवं ध्वनि के बजाय, स्वाद एवं गन्ध द्वारा सदस्यों में परस्पर सूचना-संचारण का काम करते हैं। उदाहरणार्थ, कुछ कीट अपने संगम-साथी को आकर्षित करने हेतु बोम्बीकोल (bombycol) या जीप्लूर (gyplure) का, कुछ अपने साथियों को भोजन-स्रोत, खतरे आदि की सूचना देने हेतु जिरैनियॉल (geranil) का स्रावण करते हैं।

(4) स्थानीय हार्मोन्स-काइनिन्स (Local hormones- Kinins) – शरीर में किसी भी ऊतक के ऊतक द्रव्य में मामूली- सा ही रासायनिक परिवर्तन हो जाने पर यहाँ तुरन्त काइनिन्स नामक पदार्थ बन जाते हैं। ये खोखले अंगों व रुधिरवाहिनियों को फैलाकर रक्तदाब घटा देते हैं। साथ ही इनके प्रभाव से कुछ पीड़ा का अनुभव होता है। सम्भवतः ये प्रथम उपचार (first aid) का काम करते हैं। जहरीले कीटों के विष, जलने, भीतरी चोट तथा जीवाणुओं के संक्रमण से होने वाली पीड़ा सम्भवतः काइनिन्स के कारण ही होती है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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