उत्सर्जन तंत्र की व्याधियाँ

नेफ्राइटिस में वृक्क (kidney) के स्थान पर कमर में दर्द होता है, जो नीचे की तरह जाँघों में जाता प्रतीत होता है। मूत्र थोडा-थोड़ा और बार-बार कष्ट के साथ आता है जो दुर्गन्धित होता है। मूत्र में रक्त के भाग भी आते हैं। यह रोग कई प्रकार का होता है। इस रोग का कारण जीवाणु संक्रमण होता है। द्वितीयक संक्रमण भी नेफ्राइटिस का कारण बन सकता है। प्रकोप की दशा में योग्य चिकित्सक से दवा करनी चाहिए। वैसे पेनिसिलीन का प्रयोग इसमें सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

➤ यूरीमिया (Uraemia)

एक विषाक्तता की स्थिति है तथा शरीर में यूरिया आदि उच्छिष्ट उत्पादों के एकत्रित होने से होती है जो साधारणतः वृक्क द्वारा उत्सर्जित होते हैं। इस स्थिति की गम्भीरता का अनुमान रक्त यूरिया (blood urea) के आमापन से लगाया जाता है। यूरिया का आमापन अन्य नाइट्रोजन युक्त विषालु पदार्थो की अपेक्षा सरल होता है। इसकी चिकित्सा पूर्णतः लाक्षणिक होती है, जो विशेषज्ञ द्वारा की जाती है।

➤ गुर्दे की पथरी (Renal Calculus or Stones)

वृक्क की पेल्विस में खनिज लवण (कैल्शियम ऑक्सलेट) के क्रिस्टल, एक पिण्ड के रूप में एकत्र हो जाते हैं जिससे मूत्र के रास्ते में रुकावट आती है। * जब पथरी वृक्कों से निकल कर यूरेटर में जाने लगती है तो उस समय ऐंठन युक्त तीव्र पीड़ा एवं दर्द होता है, जिसकी टीस अण्डकोषों और जॉघों तक जाती है। आहार में कैल्शियम के पदार्थ ऐसे रोगी को नहीं दिया जाता। शल्य चिकित्सा अथवा शॉक वेव लिथोटेप्सी उपचार के माध्यम से इस बीमारी से छुटकारा मिल जाता है।

➤ हीमोडाइलिसिस (Haemodialysis)

अपोहन (dialysis) का अर्थ है वरण करने वाली पारगम्य झिल्ली के माध्यम से बड़े और छोटे कणों को अलग करना। अनेक वृक्क रोगों में रक्त डाइलिसिस की आवश्यकता होती है। इसकी दो विधियाँ हैं – Peritoneal dialysis तथा कृत्रिम वृक्क द्वारा शरीर- बाह्य डाइलिसिस (Extra-corporeal)। कृत्रिम वृक्क डाइलिसिस विधि में रोगी का रक्त एक सेलोफेन कला (cellophane membrane) में से पम्प किया जाता है, यह कला डायलिसिस के टब में घूमती रहती है; यहाँ रक्त में से उच्छिष्ट पदार्थ निकाल लिए जाते हैं तथा शुद्ध रक्त रोगी के परिसंचरण में पंप कर दिया जाता है।

➤ सिस्टिाइटिस (Cystitis)

इस रोग में बार-बार मूत्र आता है। मूत्राशय में असह्य दर्द होता है। अकड़न, भार का प्रतीत होना तथा अंगों में शीत एवं कँपकँपी आदि लक्षण होते हैं। इसका कारण बी.कोलाई जीवाणु का संक्रमण होता है। इसके उपचार के लिए अल्कोसाल व कोंट्रीमोक्सा-जोल जैसी औषधि का प्रयोग किया जाता है।

➤ गुर्दा निष्कार्यता (Kidney failure)

इस दोष से ग्रस्त वृक्क में मूत्र नहीं बन पाता। ऐसा कई कारणों से हो सकता है, जैसे, अधिक रक्तदाब, आघात (चोट), बैक्टीरिया द्वारा संक्रमण या किसी विषालु (टॉक्सिन) का प्रभाव। यदि केवल एक गुर्दा बेकार हो गया तो व्यक्ति का काम केवल दूसरे गुर्दे से ठीक-ठाक चलता रहता है। अन्यथा गुर्दे का प्रत्यारोपण ही विकल्प बचता है। इसमें दो विधियों किसी सम्बन्धी द्वारा दान किया गया गुर्दा या मस्तिष्कीय मृत्योपरान्त स्वीकृति से प्राप्त गुर्दा का – प्रत्यारोपण किया जाता है।

महत्वपूर्ण अन्तर (Important Distinctions)

➤ प्रोकेरियोटिक व यूकेरियोटिक कोशिकायें

प्रोकेरियोटिक कोशिकायें वे कोशिकाये कहलाती हैं जिनमें केन्द्रक कला (Nuclear membrance), केन्द्रक तथा सुविकसित कोशिकांगों का अभाव होता है। रचना के आधार पर ये कोशिकायें आद्य (Primitive) होती है। जैसे-जीवाणु वाइरस, बैक्टीरियो-फेज तथा हरे-नीले शैवाल।

यूकेरियोटिक कोशिकायें वे कोशिकायें कहलाती हैं जिनमें केन्द्र कला, केन्द्रक तथा पूर्ण विकसित कोशिकांग पाये जाते है। जैसे सभी विकसित जन्तु एवं वनस्पति कोशिकायें।

➤ धमनी व शिरा (Artery & Vein)

धमनी ऐसी वाहिका है, जिसके माध्यम से ऑक्सीकृत रक्त का संचार हृदय से शरीर के विभिन्न अवयवों की ओर होता है, शरीर के विभिन्न भागों में ऑक्सीकृत रक्त का संचार इन्ही वाहिकाओं के माध्यम से होता है। धमनी से स्रावित रक्त का रंग ऑक्सीकृत होने के कारण लाल होता है।

शिरा ऐसी रक्त वाहिका को कहा जाता है जिसमें रक्त का संचार शरीर के विभिन्न भागों से हृदय के ग्राहक कोष्ठों में या ग्राहक कोष्ठों की ओर होता है। सामान्यतः ये विकार युक्त रक्त को ऑक्सीकरण के लिए हृदय में पहुँचाने का कार्य करती हैं। शिरा के कटने से स्रावित रक्त, विकार युक्त होने के कारण बैगनी रंग का होता है।

➤ एच्छिक तथा अनैच्छिक पेशियाँ (Voluntary & Involuntary muscles)

ऐच्छिक पेशियाँ रेखित पेशी ऊतक (Striated muscler tissue) की बनी होती हैं और इनमें व्यक्ति के इच्छानुसार आंकुचन होता है। इस वर्ग की पेशियों के अन्तर्गत सिर, धड़ और अग्रांगो (Extremities) की पेशियाँ अर्थात कंकाल पेशियाँ और शरीर के कुछ भीतरी अंगों (जीभ, स्वर यंत्र आदि) की पेशियाँ आती हैं।

अनैच्छिक पेशियाँ कोमल और अरेखित पेशी उतक की बनी होती हैं और भीतर के अंगों, रक्त वाहिकाओं की दीवारों और त्वचा में पायी जाती हैं। इन पेशियों का आकुंचन व्यक्ति के नियंत्रण से परे होता है। हृदय की पेशियाँ रेखित पेशी ऊतक की बनी रहने पर भी व्यक्ति के इच्छानुसार आंकुचित नही होती है।

➤ इन्सुलिन तथा ग्लूकेगॉन (Insulin & Glucagon)

इन्सुलिन तथा ग्लूकेगॉन अग्न्याशय की एण्डोक्राइन ऊतक से स्स्रावित होने वाले हार्मोन हैं। इनमें अधोलिखित अन्तर पाया जाता है।

इन्सुलिन एण्डोक्राइन ऊतक की बीटा कोशिकाओं से स्रावित होने वाला हार्मोन है, जो यकृत में ग्लूकोज के ग्लाइकोजन के रूप में संचय को प्रोत्साहित करता है तथा ऊतक कोशिकाओं द्वारा ग्लूकोज के उचित उपयोग को नियंत्रित करता है। साथ ही यह ऐमीनो अम्लों आदि अकार्बोहाइड्रेटस से ग्लूकोज के निर्माण को भी कम करता है। इसके अभाव में ग्लूकोज का उपापचय नहीं हो पाता।

ग्लूकेगॉन अग्नाशय की एल्फा कोशिकाओं से स्स्रावित होने वाला हार्मोन है। यह यकृत में संचित ग्लाइकोजन को ग्लूकोज में अपघटित होने के लिए प्रेरित करता है। जिससे यह आवश्यकता पड़ने पर रूधिर में पहुंचाया जा सके। इसके अतिरिक्त यह इन्सुलिन के प्रभावों के विरूद्ध कार्य करता है।

➤ उच्च तथा अल्प रक्त चाप (Hypertension & Hypotension)

रक्त संचालन क्रिया में उत्पन्न व्योधान से रक्त का दबाव अधिक या कम हो जाता है। इन स्थितियों को क्रमशः उच्च रक्तचाप और अल्परक्त चाप कहते हैं।

उच्चरक्त चाप में हृदय की संकुचन संख्या और इसकी तीव्रता बढ़ जाती है, रक्त वृद्धि हो जाती है तथा धमनियों की लोचकता और छिद्र की मोटाई कम हो जाती है। फलस्वरूप, रक्त का दवाब धमनियों की दीवारों पर बहुत अधिक पड़ता है। ऐसी स्थिति को उच्च रक्त चाप कहा जाता है।

अल्प रक्त चाप में हृदय की संकुचन क्षमता और तीव्रता दोनों में कमी आ जाती है। धमनियाँ फैल जाती है तथा रक्त की कमी हो जाती है। यही कारण है कि रक्त का दबाव कम हो जाता है।

➤ थाइरॉइड और पैराथाइरॉइड (Thyroid & Parathyroid)

थाइरॉइड ग्रंथि गर्दन में श्वास नली के अगले भाग पर पृष्ठ- पार्श्व में स्वर-यंत्र के पार्श्व भाग पर स्थित होती है। यह थाइरॉक्सीन हार्मोन का स्त्राव करती है। यह मेटाबोलिज्म नियंत्रक का कार्य करती है। इसका मुख्य प्रभाव ऊर्जा उत्पन्न करने वाली ऑक्सीकृत प्रक्रियाओं की गति को तीव्र करना है। आयोडीन की उपयुक्त मात्रा इस ग्रंथि की सक्रियता के लिए आवश्यक होता है। इसके अभाव में जड़वामता, मिक्सीडिमा, गलगण्ड तथा हाशीमोटो जैसे रोग हो जाते हैं।

पैराथाइरॉइड ग्रन्थियों, थाइरॉयड ग्रंथि की पृष्ठ सतह में धँसी रहती हैं, इनसे स्स्रावित हार्मोन को पैराथार्मोन कहते हैं। यह शरीर में कैल्शियम व फास्फोरस की मात्रा का नियमन करता है। यह ऑत की दिवारों तथा वृक्क नलिकाओं द्वारा कैल्शियम अवशोषण गति को बढ़ता है। इसकी कमी से टिटैनी रोग तथा अधिकता से ऑस्टियोपोरोसिस रोग हो जाता है।

➤ एण्ड्रोजन्स तथा एस्ट्रोजन्स (Androgens & Estrogens)

एण्ड्रोजन्स नर हार्मोन को कहते हैं। यह नर के वृषण (Testes) द्वारा स्रावित होते हैं। यह हार्मोन एपिडिडिमिस, प्रोस्टेट ग्रंथि, शुक्रवाहिनी, शुकाशयों तथा शिश्न आदि द्वितीयक लिंग अंगो की वृद्वि एवं प्रकार्य का नियमन करते हैं।

अण्डाशय द्वारा स्रावित लिंग हार्मोन को एस्ट्रोजन्स कहते हैं। यह अण्डाशय के ग्रैफिअन फॉलिकिल्स द्वारा स्रावित होते हैं। यह रजोधर्म (Menstruation), स्तनों के विकास, बगल एवं जाँघ के बालों आदि द्वितीय लिंग लक्षणों का नियमन एवं विकास करते हैं।

ये गर्भाशय तथा डिम्ब वाहिनियों के निर्माण, उनकी संकुचन एवं गतिशीलता को भी प्रेरित करते हैं। सगर्भता के समय स्तन ग्रंथियों में वृद्धि करते हैं।

➤ अनुकम्पी तथा परानुकम्पी तंत्र (Sympathetic & Para Sympathetic System)

शरीर के अन्दर आन्तरिक अंगों, रक्त वाहिनियों व ग्रन्थियों की क्रियाओं का नियमन अनुकम्पी तथा परानुकम्पी तंत्रों के माध्यम से सम्पन्न होता हैं। किन्तु ये दोनों तंत्र एक-दूसरे के विपरीत कार्य करती हैं। परन्तु इन दोनों के कार्यों में तालमेल बना रहता है।

अनुकम्पी तन्तु पुतलियों को फैलाने, लार और अश्रुग्रंथिओं के स्राव को कम करने तथा लघु धमनियों और शिराओं को संकुचित करता है। परन्तु यह हृदय-धमनियों को फैलाता और रक्तचाप तथा हृदय-स्पंदन को बढ़ाता है, आमाशयिक ग्रंथियो के स्राव को कम करता है एवं श्वसनिकाओं को शिथिल करता है।

अनुकम्पी तंत्र के कार्यों के विपरीत परानुकम्पी तंत्रिका तंतु पुतलियों को संकुचित, लार और अश्रुग्रंथियों के स्त्राव को बढ़ाने और हृदय स्पंदन को कम करता है तथा आमाशयिक ग्रंथियों के स्राव को उत्तेजित और रक्तवाहिकाओं को फैलाता है।

➤ हार्मोन तथा एन्जाइम (Hormones & Enzymes)

हार्मोन्स का संश्लेषण विशिष्ट अंगों में होता है। इन ग्रंथियो को एन्डोक्राइन ग्रंथियाँ कहते हैं। ये किसी एक विशेष ग्रंथि में निर्मित होते हैं और रक्त के माध्यम से पहुँचकर किसी दूसरे अंग में क्रियाशील होते हैं जबकि एन्जाइम मुख्य रूप से उन अंगों में संश्लेषित होते है जहाँ पर इनकी आवश्यकता होती है।

हार्मोन्स प्रोटीन, स्टिरॉएडस, ग्लाइको-प्रोटीन, पोलीपेप्टाइड या एमीनो अम्लों के व्युत्पन्न हो सकते हैं जबकि एन्जाइम सदैव ही प्रोटीन होते हैं।

हार्मोन विविध उपापचय क्रियाओं एवं वृद्धि में काम आते हैं जबकि एन्जाइम जैव उत्प्रेरकों का कार्य करते हैं।

हार्मोन की कमी एवं अधिकता दोनों ही हानि कारक होती है जबकि एन्जाइम की उच्च्च सान्द्रता होने पर ये अत्यधिक प्रभावी सिद्ध होते हैं।

➤ एण्टीजन एवं एन्टीबॉडी (Antigen & Antibody)

मानव शरीर में प्रवेशित जीव द्वारा उत्पन्न प्रोटीनस एण्टीजन्स कहते है। जबकि शरीर में एण्टीजन्स अणुओं के प्रकटन के प्रतिक्रिया स्वरूप ऊतकों द्वारा प्रोटीन अणुओं का संश्लेषण होता है, जिसे एण्टीबॉडी की संज्ञा दी जाती है। एण्टीबॉडी श्वेत रक्त कोशिकाओं में संश्लेषित गामा ग्लोब्यूलिन प्रोटीन के रूपान्तरण के फलस्वरूप संश्लेषित होता है। इस प्रकार इन दोनों का प्रतिक्रियात्मक सम्बन्ध होता है।

➤ संक्रात्मक तथा असंक्रात्मक रोग (Infectious & Non-Infectious disease)

संक्रामक रोग हानिकारक सूक्ष्म जीवों के कारण होता है (जैसे-वाइरस जीवाणु, कवक व प्रोटोजोआ आदि)। रोगकारक जीव का संचारण वायु, जल, भोजन, रोगवाहक कीट तथा शारीरिक सम्पर्क के द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में होता है।

जो रोग संक्रमित व्यक्ति के माध्यम से स्वस्थ व्यक्ति में स्थानांतरित नहीं होता, उन्हे असंक्रामक रोग कहते हे। जैसे-कैंसर व मधुमेह आदि। ये रोग किसी सूक्ष्म जीव द्वारा उत्पन्न नहीं होते हैं। सामान्यतः असंक्रामक रोग शरीर-क्रियात्मक रोग होते हैं।

➤ एण्टीसेप्टिक तथा एण्टीबायोटिक्स (Antiseptic & Antibiotics)

बाह्य प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले पदार्थ को एण्टीसेप्टिक कहते है जबकि आंतरिक प्रतिरोधक क्षमता को कृत्रिम रूप से बढ़ाने वाले पदार्थ को एण्टीबायोटिक कहते हैं।

एण्टीसेप्टिक पदार्थ रोगाणु की वृद्धि को रोकता है जबकि रोगाणु को मारने या नष्ट करने का कार्य एण्टीबायोटिक्स करते हैं।

एण्टीसेप्टिक पदार्थ तत्व, यौगिक व मिश्रण होते है जबकि एण्टीबायोटिक्स पदार्थ प्रायः जीवाणुओं एवं कवकों से बनाये जाते हैं।

प्रथम एण्टीबायोटिक पदार्थ- ‘पेनिसिलीन की खोज एलेक्जेन्डर फ्लेमिंग ने किया था जबकि कार्बोनिक अम्ल से पहला एण्टीसेप्टिक पदार्थ जोसेफ लिस्टर ने तैयार किया था।

एनाक्सीसिलीन, एम्पीसिलीन, टेट्रासाइक्लिन व टेरामाइसिन आदि कुछ प्रमुख एण्टीबायोटिक्स हैं जबकि आजकल बाजारों में कई तरह के एण्टीसेप्टिक क्रीम उपलब्ध है।

विटामिन्स एवं हार्मोन (Vitamins & Hormones)

विटामिन्स वे कार्बनिक पदार्थ होते हैं जिनका संश्लेषण जन्तुओं व मनुष्य में नहीं होता है किन्तु जिनकी आवश्यकता उपापचय क्रियाओं के लिए आवश्यक होती है। ये 10-12 की संख्या में पाये जाते हैं जिन्हे दो वर्गो-वसा में घुलनशील (विटामिन्स-A, D, E, K) और जल में घुलनशील (विटामिन-C, एवं B-Complex), में विभक्त किया गया है।

हार्मोन जटिल प्रकार के कार्बनिक पदार्थ है जो विशेष प्रकार की जन्तु या मानव ग्रंथियों द्वारा रूधिर या लिम्फ में स्स्रावित होते हैं और वहाँ से किसी अंग विशेष में पहुँचकर अनुक्रिया करते हैं। ये जीवों के परिवर्धन, संरचना एवं व्यवहार पर व्यापक प्रभाव डालते हैं।

➤ विटामिन्स तथा एन्टीविटामिन्स (Vitamins & Antivitamins)

विटामिन्स का विवेचन उपरोक्त सन्दर्भित स्थान पर किया गया है।

वे पदार्थ जो विटामिन्स के सामान्य उपयोग में बाँधा उत्पन्न करते हैं, एन्टीविटामिन कहलाते हैं। ये संरचना एवं रासायनिक वर्ग की दृष्टि से विटामिन्स के समान होते हुए भी शरीर-क्रियात्मक दृष्टि से निष्क्रिय होते हैं। ये विटामिन को नष्ट कर सकते हैं (जैसे थाइमिनेज एन्जाइम थाइमिन को) अथवा उसको प्रभावी भी बना सकते हैं।

➤ प्रोटीन तथा कार्बोहाइड्रेट (Protein & Carbohydrate)

कार्बोहाइड्रेट कार्बन, हाइड्रोजन व ऑक्सीजन के यौगिक है जो क्रमशः 1:2:1 के समानुपात में होते हैं। रासायनिक रूप से ये पोलिहाइड्रिक एल्कोहल्स के एल्डिहाइड व कीटोन के व्युत्पन्न है। जल अपघटन द्वारा ये शर्कराओं (ग्लूकोज) व जल में अपघटित हो जाते है। ये मुख्यतः ऊर्जा प्रदायक होते हैं।

प्रोटीन सर्वाधिक जटिल कार्बनिक पदार्थ है। ये कार्बन, हाइड्रोजन, – ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, सल्फर तथा फास्फोरस के यौगिक हैं। जो – जीवधारियों में उनके शरीर के प्रमुख घटक के रूप में पाये जाते हैं। ये जीवधारियों के समस्त जैव रासायनिक क्रियाओं का नियमन करते हैं।

➤ जीवाणु एवं विषाणु (Bacteria and Virus)

जीवाणु क्लोरोफिल रहित, एक कोशिकीय अथवा बहुकोशिकीय, सूक्ष्म प्रोकैरियोटी (अविकसित कोशिकांग वाले जीव) जीवधारी हैं। इसकी खोज 1676 में एन्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक ने की थी।

वाइरस वे रोग जनककण हैं जिनमें कोशिका स्तर के संगठन का पूर्णतया अभाव होता है। जिनमें केवल एक प्रकार का न्यूक्लिक अम्ल (R.N.A अथवा D.N.A.) होता है, जो प्रोटीन आवरण से घिरा रहता है। ये अविकल्पी परजीवी होते हैं तथा केवल पोषी की कोशिकाओं में वृद्धि तथा प्रजनन करते हैं और इस कार्य के लिए भी पोषी की कोशिकाओं के ही जैव-संश्लेषण तंत्र का प्रयोग करते हैं।

➤ फेरोमोन तथा हार्मोन (Pheromones & Hormones)

फेरोमोन वे हार्मोन हैं जो कुछ बाह्य स्त्रावी ग्रन्थियों द्वारा बाहरी वातावरण में स्त्रावित होते हैं और एक ही जीव जातियों के सदस्यों के बीच पारस्परिक आचरण को प्रभावित करते हैं तथा ये स्वाद एवं गंध द्वारा सदस्यों में परस्पर सूचना प्रसारण का कार्य भी करते हैं।

हार्मोन जटिल प्रकार के कार्बनिक पदार्थ हैं, जो अन्तःस्त्रावी ग्रंथियों द्वारा रूधिर या लिम्फ में स्स्रावित होते हैं और वहाँ से किसी अंग विशेष में पहुँचकर अनुक्रिया करते हैं। ये जीवों के परिवर्धन, संरचना व व्यवहार पर व्यापक प्रभाव डालते हैं।

➤ एक्युपंक्चर तथा एक्यूप्रेशर (Acupuncture & Acupressure)

एक्यूपंक्चर शरीर में चेतन शून्यता उत्पन्न करके चिकित्सा करने की प्राचीन चीनी पद्धति है, जिसमें शरीर के विभिन्न भागों में सुई चुभोकर रोग का उपचार किया जाता है जबकि एक्यूप्रेशर पद्धति में शरीर के विभिन्न भागों में दबाव डालकर रक्त चाप आदि रोगों का उपचार किया जाता है।

➤ यूजेनिक्स तथा यूथेनिक्स (Eugenics & Euthenics)

आनुवांशिकी की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत मानव जाति के समाज को आनुवांशिकी के नियमों के द्वारा सुधारने का अध्ययन किया जाता है, सुजननिकी कहलाता है। सर फ्रांसिस गाल्टन को इस विज्ञान का पिता कहा जाता है।

यूथेनिक्स व्यावहारिक आनुवंशिकी की वह शाखा है जिसमें उत्तम प्रशिक्षण एवं पालन-पोषण द्वारा मानव के उच्च आनुवांशिकी लक्षणों के समुचित विकास विधियों का अध्ययन किया जाता है।

➤ स्टार्च तथा सेलुलोस (Starch & Cellulose)

ये दोनों पोलीसैकराइड्स प्रकार के कार्बोहाइड्रेटस हैं किन्तु स्टार्च जहाँ दो दीर्घ बहुलक अणुओं का मिश्रण है और आलू, अनाज व अन्य कई पौधों में कणों के रूप में पाया जाता है; वही सेलुलोस सैकड़ो मोनोसैकेराइड अणुओं का बना होता है तथा कोशिका भित्ति के निर्माण में भाग लेता है। इसके अलावा कोशिकीय कंकाल में भी इसका महत्तवपूर्ण योगदान होता है।

➤ आर.एन.ए तथा डी.एन.ए (R.N.A. & D.N.A.)

R.N.A. में राइबोज शर्करा पायी जाती है जबकि D.N.A. में डीऑक्सीराइबोज शर्करा पायी जाती है। R.N.A. में यूरेसिल नामक विशिष्ट क्षारक पाया जाता है जबकि D.N.A. में थाइमीन क्षारक पाया जाता है। D.N.A. सभी जीवों में आनुवांशिकता का वाहक होता है सिवाय वाइरस के। क्योंकि प्रायः बाइरस में आनुवांशिक पदार्थ R.N.A. होता है।

➤ जीनोम तथा प्लाज्मोन (Genome & Plasmon)

क्रोमोसोम कम्प्लेक्स (Haploid number of chromosome) में पाये जाने वाले आनुवांशिक पदार्थ को जीनोम कहते हैं।

क्रोमोसोम के बाहर अर्थात कोशिका द्रव्य में पाये जाने वाले आनुवांशिक पदार्थ को प्लाज्मोन कहते हैं। इसके अन्तर्गत माइटोकान्ड्रियाँ, क्लोरोफिल तथा सेन्ट्रिओल्स में पाया जाने वाला आनुवांशिक पदार्थ आता है।

➤ एन्जाइम्स तथा को-एन्जाइम्स (Enzymes & Co-enzymes)

एन्जाइम्स प्रोटीन के बने अधिक आण्विक भार वाले कार्बनिक पदार्थ हैं जो ताप में थोड़ा भी परिवर्तन से प्रभावित व pH संवेदी होते हैं और सरलता से रोधी हो जाते हैं। ये जीव उत्प्रेरक (Biocatalysts) होते हैं जो स्वयं परिवर्तित हुए बिना रासायनिक प्रतिक्रियाओं की गति को तीव्र करते हैं। को-एन्जाइम्स सक्रियकारी अकार्बनिक आयन होते हैं। वास्तव में उचित क्रिया करने के लिए कुछ एन्जाइम्स को एक को-एन्जाइम की आवश्यकता होती है। जैसे पेनक्रियाटिक एमाइलेज नामक एन्जाइम को फॉस्फेट आयन रूपी को एन्जाइम की।

➤ उपचय तथा अपचय (Anabolism & Catabolism)

उपचय (Anabolism), उपापचय (Metabolism) का रचनात्मक पहलू होता है, क्योंकि इसमें पचे हुए सरल पोषक पदार्थ से कोशिकाओं का रचना, वृद्धि, मरम्मत एवं कार्यिकी मे भाग लेने वाले जटिल पदार्थों का संश्लेषण होता है जिनका कि कोशिकायें संचय करती हैं।

अपचय (Catabolism), उपापचय का विखण्डनात्मक पहलू होता है, क्योंकि इसमें उपचय के फलस्वरूप बने जटिल अणु, छोटे अणुओं में टूटते हैं। जैसे-श्वसन आदि क्रियायें अपचयी क्रियाएं हैं।

➤ निर्जमीकरण तथा पास्तुरीकरण (Sterilization & Pasteurization)

किसी यंत्र या द्रव को जीवाणु या सूक्ष्म जीव से मुक्त करने के लिए निश्चित ताप एवं समय तक गर्म करने की क्रिया को निर्जमीकरण कहते हैं।

एक निश्चित तापक्रम एवं समय तक दूध को गर्म करने की प्रक्रिया, जिसमें दूध के गुणों का ह्रास न हो और दूध के जीवाणु नष्ट हो जाय, पास्तुरीकरण कहलाता है। इस प्रक्रिया में दूध को 61°C तापमान पर 30 मिनट तक रखा जाता है, पुनश्च 5°C तक ठण्डा कर बिक्री के लिए भेज दिया जाता है।

➤ कैल्सिफेरॉल तथा टोकोफेरॉल (Calciferol & Tocopherol)

कैल्सिफेरॉल वसा में घुलनशील और रिकेट निरोधी विटामिन (डी) है। इसकी कमी से रिकेट रोग हो जाता है। जबकि टोकोफिरोल प्रजनन शक्ति को प्रभावित करने वाला विटामिन (ई) है। इसकी कमी से बन्ध्यता (Sterility) हो जाती है, त्वचा सूज जाती है और शरीर में अन्य कई प्रकार की गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती हैं।

➤ रक्त बैंक तथा रक्ताधान (Blood Bank & Blood Transfusion)

वह स्थान जहाँ डेक्सट्रोज और 38 प्रतिशत सोडियम साइट्रेट के घोल में 4°C तापक्रम पर रक्त को एक से दो सप्ताह तक सुरक्षित रखा जाता है, रक्त बैंक कहलाता है। रक्त 21 से 50 वर्ष तक की आयु वाले ऐसे व्यक्तियों के शरीर से लिया जाता है जो रोग मुक्त हो।

रक्त की कमी वाले व्यक्ति में रक्त की पूर्ति के लिए अनुकूल रक्त वर्ग एवं आर.एच. फैक्टर वाला रक्त, शिरा (Vein) के माध्यम से चढ़ाना; रक्ताधान कहलाता है। रक्ताधान के समय पूरी सावधानी रखी जाती है कि आदाता (Recipient) को सुअनुकूल रक्त दिया जाए अन्यथा रक्त समूहन से (Agglutination) रोगी का जीवन संकट में पड़ सकता है।

➤ क्रायोजेनिक्स और क्रायोसर्जरी (Cyrogenics and Cryosurgery)

क्रायोजेनिक्स विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत प्रायः शून्य डिग्री सेन्टीग्रेट से 150 डिग्री सेन्टीग्रेट के ताप की उत्पत्ति, नियंत्रण व उसके अनुप्रयोगों का अध्ययन किया जाता है। जबकि क्रायोसर्जरी शल्य चिकित्सा विज्ञान की अद्यतन शाखा है जिसके अन्तर्गत अतिशीतलन द्वारा रोगी कोशिकाओं को नष्ट करके किसी रोगी का उपचार किया जाता हैं।

➤ जीरोन्टोलॉजी और गाइनेकोलॉजी (Gerontology and Gynaecology)

विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत वृद्धावस्था तथा, उसके रोगों का अध्ययन किया जाता है, जीरोन्टोलॉजी कहलाता है जबकि गाइनेकोलॉजी चिकित्सा विज्ञान की एक शाखा है जिसमें प्रजनन व प्रसव से सम्बन्धित सभी स्त्री रोगों व समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।

➤ रेडियोलॉजी एवं रेडियोथिरेपी (Radiology & Radiotherapy)

रेडियोलॉजी चिकित्सा विज्ञान की एक शाखा है जिसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के विकिरणों (एक़्स तथा गामा आदि किरणें) और रेडियोऐक्टिव पदार्थों के चिकित्सा सम्बन्धी (रोगों के निदान व उपचार) उपयोगों का अध्ययन किया जाता है जबकि रेडियोथिरेपी, रेडियोलॉजी की एक शाखा है जिसमें विकिरणों द्वारा रोगों का उपचार किया जाता है।

➤ ल्यूकोमिया तथा एनीमिया (Leukaemia & Anaemia)

ल्युकोमिया एक घातक रक्त कैंसर है, जिसमें श्वेत रक्त कणिकाओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाती है। इस रोग में प्लीहा, यकृत और अस्थि-मज्जा प्रभावित होते हैं। अमाशय, आंत, फेफड़ा, मस्तिष्क, वृक्क और त्वचा आदि के भीतर रक्त स्त्राव होने लगता है।

एनीमिया उस अवस्था को कहते हैं जब रक्त में लाल रक्त कणिकाओं अथवा हीमोग्लोबिन की कमी हो जाती है। जिससे रोगी का श्वास फूलने लगता है, बेचैनी, थकान, भूख न लगना तथा त्वचा का फीकापन जैसे लक्षण प्रकट हो जाते हैं।

➤ वैक्सीन तथा सीरम (Vaccine & Serum)

ऐसे द्रव्य को वैक्सीन कहा जाता है, जिसमें रोग के मृत या दुर्बल जीवाणु रहते हैं और जिनका उपयोग मानव शरीर में रोग रोधी क्षमता (Immunity) उत्पन्न करने के लिए दिया जाता है। जिस रोग के वैक्सीन की सुई मनुष्य को दी जाती है, शरीर उस रोग के प्रतिरोध में एण्टीबॉडी का निर्माण करता है। फलतः भविष्य में बहुत दिनोंतक उस रोग के आक्रमण की सम्भावना नहीं रहती है।

सीरम रक्त प्लाज्मा का अंश है, जो पारदर्शी और हल्के पीले रंग का होता है। सामान्यतः इसे तैयार करने के लिए घोड़े के शरीर में किसी विशिष्ट रोग के रोगाणु को प्रवेश कराया जाता है। उस रोगाणु के प्रतिरोध में घोड़े के शरीर में एण्टीबॉडी का निर्माण होता है। तदोपरान्त उसके रक्त को जमाकर, जलीय अंश अलग कर लिया जाता है, इसमें उस रोग विशेष की प्रतिरोध शक्ति रहती है, जिस रोग के रोगाणु उसके शरीर प्रवेश कराए गये होते हैं। जैसे एन्टीडिप्थेरिक सीरम व ए.टी.एस आदि।

➤ अनियततापी तथा नियततापी जीव (Cold & Hot Blooded)

जिन जीवों के शरीर का तापक्रम नियम नहीं होता, बल्कि वातावरण के तापक्रम के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है उन्हें अनियततापी जीव कहा जाता है। शीतकाल में इनके शरीर का तापक्रम बहुत कम हो जाता है और ये निष्क्रिय अवस्था (Hibernation) में – चले जाते हैं। जैसे-सॉप, छिपकली व मेढ़क आदि

जिन जीवों के शरीर का तापक्रम नियत होता है, उन्हे नियततापी जीव कहा जाता है। इनके शरीर पर वातावरण के तापक्रम का प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात इनका तापक्रम निश्चित होता हैं। जैसे- मनुष्य एवं अधिकांश जीव-जन्तु।

➤ सूत्री तथा अर्धसूत्री विभाजन (Mitosis & Meiosis)

सूत्री विभाजन जीवों की कायिक कोशिकाओं में होता है। इसके फलस्वरूप जीवों में वृद्धि होती है। इसमें एक मातृ कोशिका से दो पुत्री कोशिकायें (daughter Cells) बनती हैं; जिनके गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिका के समान (2n) होती है।

अर्द्धसूत्री विभाजन जीवों की जनन-कोशिकाओं में होता है। इसके फलस्वरूप युग्मकों (Gametes) का निर्माण होता है, अर्थात इसमें एक मातृ कोशिका से चार पुत्री कोशिकायें या युग्मक (gamete) बनते हैं। इस विभाजन में बनी हुई पुत्री कोशिकाओं में गुणसूत्रो की संख्या मातृ कोशिका की आधी (n) रह जाती है।

➤ न्यूक्लिओसाइडस तथा न्यूक्लियोटाइड्स

एक नाइट्रोजनी बेस (प्यूरीन तथा पिरिमिडीन वेस) तथा एक पेन्टोज शर्करा (राइबोज या डिऑक्सीराइबोज) अणु के संयोग से न्यूक्लिओसाइड का निर्माण होता है। जबकि न्यूक्लिओटाइड्स की फॉस्फोरिलीकरण क्रिया द्वारा बनता है अर्थात इसका निर्माण न्यूक्लिओसाइड में फास्फोरिक अम्ल के जुड़ने से होता है।

• पेन्टोज शर्करा + नाइट्रोजनी बेस = न्यूक्लिओसाइड

• न्यूक्लिओसाइड + फॉस्फोरिक अम्ल = न्यूक्लिओटाइड

➤ ऑक्सी तथा अनॉक्सी श्वसन

ऑक्सी श्वसन में आक्सीजन की आवश्यकता होती है। इसमें श्वसनी पदार्थ (ग्लूकोज) का पूर्ण ऑक्सीकरण (Complete Oxidation) होता है। फलस्वरूप CO₂ व जल तथा ऊर्जा अन्तिम उत्पाद के रूप में मिलता है। अधिकतर जीवों में इसी प्रकार का श्वसन होता है।

अनॉक्सी श्वसन में ऑक्सीजन अनुपस्थित होता है। जिससे श्वसनी पदार्थ (ग्लूकोज) का अपूर्ण ऑक्सीकरण होता है और अन्तिम उत्पाद कोई कार्बनिक अम्ल (एल्कोहल, लैक्टिक अम्ल आदि) होता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा की बहुत कम मात्रा प्राप्त होती है। यह श्वसन सूक्ष्मजीवों तथा अन्य में विशेष परिस्थितियों में होता है।

➤ ग्लाइकोजेनेसिस तथा ग्लाइकोजीनोलिसिस

शर्करा (D-ग्लूकोज) का ग्लाइकोजन में परिवर्तन एवं यकृत में उसका संचय ग्लाइकोजेनेसिस कहलाता है। इसी लिए ग्लाइकोजन को जन्तु मण्ड (Animal Starch) की उपमा प्रदान की गई है। यह एक उपचयी प्रक्रिया (Anabolic processes) है।

रूधिर में शर्करा की मात्रा में कमी होने पर शरीर में उपस्थित ग्लाइकोजन यकृत द्वारा पुनः ग्लूकोज में परिवर्तित हो जाता है। इस क्रिया को ग्लाइकोजीनोलिसिस कहते हैं। यह एक अपचयी प्रक्रिया (Catabolic Process) है।

➤ किण्वन तथा अनॉक्सी श्वसन

किण्वन (Fermentation) की क्रिया जीवाणुओं अथवा यीस्ट कोशिकाओं की उपस्थिति में होती है और इस क्रिया में सब्सट्रेट कोशिकाओं से बाहर तरल माध्यम में उपस्थित रहते हैं।

अनॉक्सी श्वसन में जीवाणुओं अथवा यीस्ट कोशिकाओं की कोई आवश्यकता नहीं होती है और सब्सट्रेट कोशिकाओं के अन्दर उपस्थित रहता है।

एमआरआई और सीटी स्कैन

चिकित्सीय प्रविधियों के रूप में मैग्नेटिक रेजेनेंस इमेजिंग (Magnetic Resonance Imaging-MRI) और कम्प्यूटेड टोमोग्राफी (Computed Tomography) यानी सीटी स्कैन का बहुतायत में व्यवहार होता है। इन दोनों प्रविधियों में क्या मुख्य अंतर निम्नवत् है –

एमआरआईसीटी स्कैन
• एमआरआई रेडियो फ्रीक्वेंसी और चुम्बकीय क्षेत्र सिद्धांत पर कार्य करता है।• यह एक्स-रे (X-rays) क्रिया विधि पर काम करता है।
• इसका उपयोग रीढ़, जोड़ों की समस्या, हृदय रोग, अंगों के सुस्पष्ट चित्र, कैंसर, ट्यूमर आदि के निदान में किया जाता है।• सीटी स्कैन का उपयोग हड्डी, मुत्रालय उत्तकों, रक्त वाहिकाओं, चोट आदि से संबंधित समस्याओं के निदान में किया जाता है।
• एमआरआई की सहायता से किसी सतह का क्रॉस सेक्शनल (Cross Sectional) चित्र प्राप्त किया जा सकता है।• सीटी स्कैन से प्राप्त कंप्यूटराइज्ड एक्सरे चित्र को क्रॉस-सेक्शनल चित्र के रूप में देखा जा सकता है।
• यह प्रायः मंहगा होता है और कम ही जगहों पर उपलब्ध है। रोगी इस उपचार प्रक्रिया में काफी गंभीर हो जाते हैं।• यह प्रायः कम खर्चीला होता है और लगभग सभी चिकित्सीय संस्थानों में पाया जाता है।

यह भी पढ़ें : उत्सर्जन-तंत्र

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

1 thought on “उत्सर्जन तंत्र की व्याधियाँ”

Leave a Comment