संक्रामक व्याधियाँ

संक्रामक रोग हानिकारक सूक्ष्म जीवों (रोगाणुओं) के कारण होता है, उदाहरणतः जीवाणु, विषाणु, कृमि, कवक एवं प्रोटोजोआ । रोग कारक जीव का संचरण वायु, जल, भोजन, रोगवाहक कीट तथा शारीरिक सम्पर्क के द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में होता है। इसीलिए इन्हें संचरणीय या संक्रामक रोग कहते हैं। संक्रामक अभिकर्ता की प्रकृति के आधार पर संक्रामक रोगों को अधोलिखित भागों में विभक्त किया जा सकता है। यथा-

जीवाणु जनित रोग

➤ हैजा (Cholera)

यह रोग विब्रियो कोलेरी नामक जीवाणु से होता है जो कि जल, खाद्य पदार्थो तथा मक्खियों द्वारा तेजी से फैलता है। उल्टी एवं दस्त इस रोग के विशिष्ट लक्षण हैं। दस्त पतले (पानी जैसे) तथा सफेद रंग लिए होते हैं। दस्तों तथा उल्टियों के कारण जल की कमी (dehydration) हो जाती है, पेशाब बन्द हो जाता है, हाथ पैरों में ऐंठन हो जाती है तथा रोगी की मृत्यु भी हो जाती है। उपचार : ठंडी वस्तुएँ, जैसे अमृतधारा तथा हैजे का टीका रोगी को दिया जाना चाहिए। साथ ही यह सावधानी रखनी चाहिए कि पानी को उबालकर एवं शुद्ध करके पीये, रोगी के दस्त एवं उल्टियों पर मिट्टी डालकर कीटाणुनाशक दवा छिड़क दें तथा बाजार के खाद्य पदार्थ (विशेषकर बिना ढँके) नहीं खायें।

➤ डिप्थीरिया (Diptheria)

यह रोग कॉरिनबैक्टीरियम डिफ्थीरिआई नामक जीवाणु से होता है। यह खाने की वस्तुओं द्वारा बच्चों में (विशेषकर 3-5 वर्ष के बच्चों में) अधिक होता है, परन्तु वयस्कों में भी यह रोग हो सकता है। जीवाणु गले में एक सफेद झिल्ली बनाकर श्वास नलिका को रूद्ध कर देते हैं, तेज बुखार तथा हृदय व मस्तिष्क क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। ग्रसित रोगी को अलग कमरे में रखना चाहिए और एण्टीसीरम का इन्जेक्शन लगवाना चाहिए। बच्चों को DPT नामक टीका लगवाना चाहिए, जो इन्हें डिप्थीरिया, टिटनेस एवं कुकुर खाँसी से बचाता है।

➤ क्षयरोग (Tuberculosis or T.B.)

यह एक संक्रामण रोग है जो माइकोबैक्टिरियम ट्यूबरकुलोसिस नामक जीवाणु से होता है। * इस रोग को यक्ष्मा या काक रोग भी कहते हैं। * 1882 में जर्मन वैज्ञानिक रार्बटकोच ने टी०बी० जीवाणु की खोज की। ये जीवाणु मुँह से थूकते समय या चूमने से प्रसारित होते है।

इसमें रोगी को हल्का ज्वर तथा खाँसी आती है। बलगम काफी बढ़ जाता है। थकान एवं कमजोरी का अनुभव होता है। बलगम के साथ खून आने लगता है। भूख लगनी बन्द हो जाती है। यदि अब भी चिकित्सा न की जाय, तो धीरे-धीरे कमजोर होकर रोगी की मृत्यु हो जाती है।

यही जीवाणु जब लिम्फैटिक ग्रंथियों में घुसते हैं तो ग्रंथियों की क्षय तथा कण्ठमाला उत्पन्न कर देते हैं। आंतों में आन्त्र क्षय, मस्तिष्क में मस्तिष्क क्षय (Brain T.B.) तथा अस्थियों में अस्थि क्षय (Bone T.B.) उत्पन्न कर देते हैं।

उपचार हेतु घर के कमरों को स्वच्छ रखना चाहिए, इनमें वायु व सूर्य के प्रकाश की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। रोगी के सम्पर्क से बचाना चाहिए। बच्चों को B.C.G (बौसिलस कैलेमिटि ग्यूरीन) का टीका अवश्य लगाना चाहिए। डॉक्टर की सलाह से रोगी को ‘डाट प्रणाली’ के अधीन स्वीकृत दवाओं का सेवन करना चाहिए।

क्या है भारत में स्थितिः

भारत में W.H.O. 2017 के अनुसार टी.बी. के प्रति वर्ष लगभग 13.4 लाख मामले सामने आते हैं जो कि पूरे विश्व के 7.5 मिलियन का तीसरा भाग है। सभी नए टीबी मामलों का तीन प्रतिशत मल्टी ड्रग रजिस्टेंस (MDR) होता है। अब तक यहां 6.7 मिलियन रोगी डोट्स (DOTS) ट्रीटमेंट ले चुके हैं जिससे 1.2 मिलियन लोगों को बचाया गया।

➤ कुष्ठ रोग (Leprosy)

कुष्ठ एक संचारणशील रोग हैं। यह रोग माइकोबैक्टिरियम लेप्री नामक जीवाणु से फैलता है। कुष्ठ रोग वायु या जल के द्वारा नहीं फैलता है। यह पैतृक या आनुवंशिक रोग भी नहीं है। कुष्ठ रोग तभी संचारित होता है जब एक व्यक्ति किसी रोगी व्यक्ति के संपर्क में काफी घनिष्ठता से रहता है।

इस रोग के लक्षण शरीर पर चकत्ते प्रकट होने लगते हैं तथा कोहनी व घुटने के पीछे, एड़ी और कलाई के अगल-बगल की तंत्रिकाएं प्रभावित हो जाती है। बाद में ऊतकों का अपक्षय होने लगता है। शरीर के जिन स्थानों पर यह रोग होता है वहां संवेदनशीलता समाप्त हो जाती है तथा स्पर्श का अनुभव नहीं होता है।

इस रोग के उपचार हेतु एन्टीसेप्टीक स्नान करना चाहिए।1981 से शुरू बहुआयामी चिकित्सा पद्धति या MDT = Multi- Drug Treatment जिसमें तीन दवायें शामिल है। (i) डेपसोन (ii) क्लोफाजीमीन और (iii) रिफैमिसीन का सेवन किया जाता है। इसके अलावा कुष्ठ रोग की रोकथाम के लिए रोगियों को संक्रमण से बचने के लिए एकांत में रखना चाहिए। प्रारम्भिक लक्षण प्रतीत होने पर डाक्टर से मिलना चाहिए। भारत में कुष्ठ रोग को लोग एक अभिशाप समझते हैं। इसलिए रोग को काफी समय तक छिपाए रखते हैं लेकिन आजकल इसका सफल इलाज किया जा रहा है।

➤ टिटनेस (Tetanus)

इस रोग को धनुस्तम्भ या धनुष टंकार भी कहते हैं। यह अत्यन्त कष्टदायक रोग है जिसमें मृत्यु की काफी सम्भावना रहती है। यह क्लोस्ट्रीडियम टिटेनी नामक जीवाणुओं से होता है। शरीर के किसी भाग में चोट लगने पर जब घाव बन जाता है, तब ये जीवाणु धूल, गोबर, आदि से घाव के रास्ते हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।

इस रोग में गर्दन, चेहरे तथा जबड़े की मांसपेशियों में पक्षाघात हो जाता है व शरीर अकड़ जाता है। श्वसन पेशियां भी संकुचित हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप सांस बन्द हो जाती है।

रोग के रोकथाम व उपचार हेतु – (i) जब भी चोट लगे तो ATS (Antitoxoid Serum) का टीका जरूर लगवा लेना चाहिए। (ii) बच्चों में DPT का टीका लगवा लेने से इस रोग से रक्षा होती है।

(iii) घाव को स्वच्छ रखना चाहिए तथा धूल से बचाना चाहिए।

➤ टायफॉइड (Typhoid)

इसे आँत की बुखार के नाम से भी जाना जाता है। यह सालमोनेला टाइफोसा नामक जीवाणु से होता है। इसमें रोग की उदभवन अवधि (incubation period) 5 दिन से लेकर 20 दिन तक होती है। यह रोग पानी की गंदगी से फैलता है। इस रोग को मोतीझरा या मियादी बुखार भी कहते है।

इसमें रोगी को तेज बुखार रहता है और सिरदर्द बना रहता है। शरीर पर लाल-लाल दाने निकल आते हैं। बाद में आँतों में अल्सर हो जाता है।

उपचार हेतु क्लोरोमाइसीटीन वर्ग की एन्टीबायोटिक लेना चाहिए। – रोगी व्यक्ति को मल-मूत्र निवास स्थान से दूर कराया जाना चाहिए। भोजन को मक्खियों से बचाना चाहिए। इस रोग से बचाव के लिए शिशुओं को T.A.B. का टीका लगवाना चाहिए।

➤ प्लेग (Plague)

यह एक छुआ-छूत की बीमारी है जो बैक्टिरिया (पाश्चुरेला पेस्टिस) द्वारा फैलती है। इसका संक्रमण चूहों एवं गिलहरी आदि पर पाये जाने वाले पिस्सुओं से होता है क्योंकि पिस्सुओं के शरीर में प्लेग का बैक्टिरिया रहता है। जेनोप्सिला केओपिस (Xenopsylla cheopis) प्लेग का सबसे भयानक पिस्सू (fleas) है क्योंकि यह आसानी से चूहें से मानव तक पहुँच जाता है। इस बीमारी में रोगी को बहुत तेज बुखार आता है और शरीर पर गिल्टियाँ निकल जाती है।

इस रोग में सल्फाड्रग्स एवं स्ट्रप्टोमाइसीन लेना चाहिए। चूहों को निवास स्थान से दूर करना इस रोग में बहुत ही आवश्यक होता है। अतः चूहों को मारने के लिए जिंक फोस्फेट का प्रयोग करना चाहिए।

➤ काली खांसी (Whooping Cough)

यह रोग प्रायः छोटे बच्चों को, बोर्डीटेला पयूसिस नामक जीवाणु से होता है। इसका संक्रमण हवा द्वारा होता है। इसमें बच्चों को बहुत देर तक कष्टदायक खांसी आती है, यहाँ तक कि खासते- खांसते बच्चे मल-मूत्र तक त्याग देते हैं। खांसी तब बन्द होती है जब खांसते-खांसते थोड़ा-सा स्त्राव निकल आता है। इस रोग के कारण कई शिशुओं की मृत्यु भी हो जाती है, अतएव DPT का टीका लगवाकर शिशुओं में इस रोग के लिए प्रतिरोधकता उत्पन्न करा देनी चाहिए।

➤ एंथैक्स (Anthrax)

एंथ्रेक्स सामान्यतः शाकाहारी पशुओं में होने वाली एक संक्रामक बीमारी है जो एक जीवाणु बैसीलस एन्थरैसस से होती है। मनुष्य में एंथ्रेक्स दुर्घटनावश संक्रमित पशुओं के संपर्क में आने से हो जाता है। मनुष्यों में यह तीन तरह से फैलता है। यथा- त्वचा द्वारा, आंत द्वारा एवं श्वास द्वारा।

एंथ्रेक्स के लक्षण 7 से 10 दिनों में प्रकट होने लगते हैं। इसमें कई बार बुखार, थकान, सूखी खांसी और बेचैनी होती है। सुधार की उम्मीद प्रायः तभी की जा सकती है जब कुछ घंटों या दो से तीन दिनों में इलाज शुरू कर दिया जाये, नहीं तो त्वचा का रंग बदलना, फटना, सांस लेने में दिक्कत, पसीना आना शुरू हो जाता है। ऐसे लक्षण प्रकट होने के 24 से 26 घंटे में रोगी मर जाते हैं।

एंथ्रेक्स की पहचान एंटीबॉडी परीक्षण, एलीसा परीक्षण, रक्त परीक्षण, बैक्टीरियल कल्चर, सूक्ष्मदर्शी परीक्षण एवं डीएनए परीक्षण द्वारा किया जाता है। एंथैक्स संक्रमण से पूर्व इसका टीकाकरण करवाया जा सकता है। संक्रमण के पश्चात विशेष एंटीबायोटिक दवाओं के द्वारा इसका इलाज किया जा सकता है। पेनिसिलीन इस घातक एंथ्रेक्स रोग में काम में ली जाने वाली मुख्य दवा है।

अब भारत भी एंथ्रेक्स का टीका बनाने में सक्षम हो गया है। इस टीके का विकास जेएनयू स्थित जैव प्रौद्योगिकी विभाग के डॉ. योगेन्द्र सिंह ने किया है। भारत द्वारा तैयार किया जाने वाला टीका अमेरिका एवं ब्रिटिश टीके से बेहतर साबित होगा और अपेक्षाकृत कम दुष्प्रभाव वाला भी होगा। इस समय मौजूद टीकों के इस्तेमाल के दौरान प्रतिरक्षण खुराक की भी आवश्यकता होती है किन्तु भारत द्वारा विकसित टीके में इसकी जरूरत नहीं होती।

जैविक हथियार के रूप में एंथ्रेक्स के बीजाणु पाउडर के रूप में प्रयुक्त किये जा सकते हैं। माइक्रोबायोलोजिस्ट एटलस के अनुसार यह पाउण्डर लिफाफे में रखा जा सकता है। यह उचित मौसम व हवा से फैल सकता है। एक विमान से 110 पौंड एंथ्रेक्स बीजाणु 12 मील में फैलाये जा सकते हैं।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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