असंक्रामक व्याधियाँ

असंक्रामक रोग उपार्जित रोग (Acquired disease) है किन्तु इसके अन्तर्गत आने वाली बीमारियों का कारण जीव नहीं होते और न ही ये बीमारियाँ छुआछूत से फैलती हैं। असंक्रमक रोगों को अधोलिखित प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा-

(i) अल्पता या हीनजन्यता बीमारियाँ (Deficiency diseases) जैसे-मरास्मस, रिकेट्स इत्यादि।

(ii) ह्यसित बीमारियाँ (Degenerative diseases) जैसे- हृदय की गड़बड़ी।

(iii) कैंसर (Cancer)।

(iv) एलर्जी (Allergy)।

(v) आनुवांशिक बीमारियाँ (Genetic diseases) जैसे- वर्णाधता, हीमाफीलिया इत्यादि।

(vi) यांत्रिक बीमारियाँ जैसे- फ्रैक्चर या हड्डी टूटना। (vii) सामाजिक बीमारियाँ (Social diseases) जैसे- मद्यपान या नशीली वस्तुओं का प्रयोग।

नोट : हीनजन्यता, तथा ह्यसित बीमारियों का विवेचन संदर्भित शारीरिक तंत्रों के अध्यायों के अन्त में किया गया है। आनुवांशिक रोगों का विवेचन पृथक अध्याय के अन्तर्गत किया गया है। इस अध्याय में अन्य परीक्षोपयोगी असंक्रामक रोगों का निरूपण किया जा रहा है। यथा-

➤ कैंसर (Cancer)

मनुष्य के शरीर के किसी भी अंग में, त्वचा से लेकर अस्थि तक, यदि कोशिका वृद्धि अनियंत्रित हो, तो इसके परिणामस्वरूप कोशिकाओं में अनियमित गुच्छा बन जाता है, इन अनियमित कोशिकाओं के गुच्छे को कैंसर कहते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कैंसर एक प्रकार की असंगठित ऊतक वृद्धि की बीमारी है, जो कोशिकाओं में अनियंत्रित विभाजन तथा विकास के कारण होती है। कैंसर उन सभी अंगों में हो सकता है जिसकी कोशिकाएँ विभाजन की क्षमता रखती हैं। कैंसर सामान्यतया यकृत एवं मस्तिष्क में नहीं होता, क्योंकि वयस्कावस्था में इनकी कोशिकाओं में विभाजन की क्षमता नहीं पायी जाती है।

अनियंत्रित एवं अनियमित विभाजन के चलते ट्यूमर (Tumour) की उत्पत्ति हो जाती है, जिसे नियोप्लाज्म (Neoplasm) कहतें हैं। यह दो प्रकार का होता है। यथा-

सुदम ट्यूमर (Benign Tumour) – यह धीरे-धीरे बढ़ता है, किन्तु काफी बड़ा भी हो सकता है। यह जहां उत्पन्न होता है उसी स्थान पर रहता है, इधर-उधर फैलता नहीं है। इन ट्यूमरों से कैन्सर रोग नहीं होता है।

दुर्दम टयूमर (Malignant Tumour) – यह आरम्भ में एक गांठ के समान होता है किन्तु थोड़े दिन पश्चात बहुत शीघ्रता से बढ़ता है। इसमें वृद्धि असीमित होती है। दूसरी गांठ ठोस और गोभी के फूल के आकार के उभार इसमें होते हैं। अन्त में यह शरीर में फैलना शुरू हो जाता है। अन्तिम अवस्था जब आती है तब इसकी कोशिकाएं टूटकर रुधिर कोशिकाओं में पहुँचकर समस्त शरीर में – फैल जाती हैं। रुधिर तथा लसिका से होकर यह दूसरे अंगों में – पहुंचकर वहां भी गांठें उत्पन्न कर देता है। इन्हें द्वितीयक दुर्दम टयूमर (Secondary tumour) कहते हैं। द्वितीयक दुर्दम अवस्था मेटास्टैसिस (metastasis) भी कहलाती है। इस अवस्था में पहुंचने के बाद मनुष्य की मृत्यु निश्चित है। इस रोग का कोई इलाज नहीं है। यह रोग प्रायः 35 से 40 वर्ष तक के मनुष्यों में होता हैं, और प्रायः 50 वर्ष तक की आयु में मृत्यु हो जाती है। शिशुओं, बाल्यावस्था, किशोरावस्था तथा तरुणों में यह कम होता है। विभिन्न कैंसर कोशिकाओं के आधार पर कैंसर को चार प्रकार में विभक्त किया गया है। यथा-

(i) कार्सीनोमास (carcinomas) – यह त्वचा तथा आंतरिक अंगों की एपीथिलियम (उपकला) से सम्बद्ध होता है। जैसे- स्तन कैंसर तथा फेफड़ों का कैंसर आदि।

(ii) सार्कोमास (Sarcomas) – यह कैंसर संयोजी ऊतकों उपास्थियों एवं पेशियों में होता है। जैसे- अस्थि कैंसर।

(iii) ल्यूकोमीयस (Leukaemias) – यह ल्यूकोसाइट्स में असामान्य वृद्धि के कारण होता है।

(iv) लिम्फोमास (Lymphomas) – यह लसीका तंत्र, ऊतकों तथा वाहिका (vessels) के नेटवर्क तथा ऊतकीय द्रव से सम्बन्धित होता है।

रोग के कारणों में-

(i) तम्बाकू सेवन,

(ii) औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाला धुँआ।

(iii) अनेक रसायन कैंसर उत्पन्न करते हैं, इन्हें हम कार्सीनोजेन कहते हैं। जैसे-निकोटिन, कैफीन, पॉलीसाइक्लिक, हाइड्रोकार्बन्स आदि।

(iv) एक्स-किरणें

(v) नाभिकीय विकरण

(vi) एस्बेस्टॉस

(vii) सूर्य की पैराबैंगनी किरणें

(viii) आंकोजीन्स (Onchogenes) की सक्रियता आदि कारण होते हैं।

कैंसर का स्थायी उपचार आज तक संभव नहीं हो सका है, किन्तु फिर भी रोगी की आयु बढ़ायी जा सकती है। प्राथमिक अवस्था में यदि इस रोग का ज्ञान हो जाय, तो उपचार संभव हो सकता है। इसका उपचार निम्नलिखित प्रकार से किया जाता है-

(a) शल्य चिकित्सा – शरीर में कहीं भी गांठ महसूस होने पर उसे निकलवा देना चाहिए और उसकी बायोप्सी करानी चाहिए।

(b) रेडियोथिरैपी (Radiotheraphy) – इस प्रकार के उपचार में रोगी के विशिष्ट अंगों की कोशिकाओं को रेडियोधर्मी किरणों से नष्ट किया जाता है। इसके लिए आजकल रेडियोधर्मी कोबाल्ट का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि उससे गामा किरणें निकलती है, जिसकी भेदन क्षमता अधिक होती है।

(c) कीमोथिरैपी (Chemotherapy) – इसमें रासायनिक यौगिकों द्वारा उत्पन्न हुई औषधियों से उपचार किया जाता है।

कैंसर के उपचारमें काम आने वाली दो प्रमुख औषधियां हैं सिसप्लाटिन तथा टैक्सोल।

➤ मधुमेह (Diabetes)

डायबिटीज ऐसी अवस्था है जिसमें अग्नाशय की कोशिकाएँ इन्सुलिन हार्मोन बनाना बन्द कर देती हैं, जिससे शर्करा का उपापचय नहीं हो पाता। अतः पेशाब एवं रक्त में शर्करा की अत्यधिक मात्रा हो जाती है। इससे रोगी को पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा नहीं मिल पाती है, जिससे मनुष्य कमजोर हो जाता है। रोगी को बहुत प्यास लगती है और बार-बार पेशाब आता है। इस रोग में शक्कर और शक्कर से बनी वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा इन्सुलिन के इन्जेक्शन लगवाने चाहिए।

डायबिटीज का हर मामला एक तरह का नहीं होता है। अन्तर्राष्ट्रीय डायबिटीज आयोग (1997) ने मोटे तौर पर डायबिटीज को निम्नलिखित वर्गो में बांटा है।

1. टाइप- 1 डायबिटीज या इंसुलिन डिपेन्डेंट डायबिटीज – बच्चों में अधिक पाया जाता है। इसमें पेंक्रियाज इन्सुलिन नहीं बना पाता है और रोगी को जीवित रहने के लिए इन्सुलिन के टीके लेने पड़ते हैं।

2. टाइप- 2 डायबिटीज या नॉन-इंसुलिन डिपेन्डेंट डायबिटीज मेलिटस-यह डायबिटीज अधिकतर 40 वर्ष से अधिक उम्र के बाद शुरू होती है। यह उन लोगों में होती है जो अधिक मोटे होते हैं या जिनके परिवार में किसी को डायबिटीज होती है। भारत में करीब 90-95% रोगी टाइप-2 के हैं। इस रोग में पैंक्रियाज तो इंसुलिन बनाता है, लेकिन कम मात्रा में बनाता है या यह इन्सुलिन पैंक्रियाज से ठीक समय पर नहीं निकल पाता है कि रक्त में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित कर सके। 1996 में डायबिटीज टाइप-2 के लिए गुणसूत्र संख्या-2 पर एक जीन लोकस को पहचाना गया और उसे NIDM-1 लोकस कहा गया। सन् 2000 में CAPN 10 जीन के बारे में अध्ययन किया गया जो गुणसूत्र संख्या-2 पर पहचानी गई। इस तरह कह सकते हैं कि डायबिटीज टाइप-2 के लिए कई जीन और पर्यावरणीय कारक जिम्मेदार हैं।

• इन्सुलिन का आविष्कार सन् 1921 में कनाडा के दो महान् चिकित्सक बैटिंग एवं बेस्ट ने किया था। जिसके फलस्वरूप अब मधुमेही व्यक्ति सामान्य जीवन जी सकता है।

• रक्त शर्करा 130 मिलिग्राम/डेकालीटर तथा खाना खाने के बाद रक्त शर्करा 200 मिलिग्राम/डेकालीटर से अधिक हो तो व्यक्ति में डायबिटीज की पुष्टि हो जाती है।*

• यदि इन्सुलिन की मात्रा एक निश्चित खुराक से अधिक हो जाती है तो रोगी को मूर्छा जैसी स्थिति आ सकती है।(हाईपरग्लाइसीमिया) ।*

• सामान्य से कम सुगर (हाइपोग्ला-इसीमिया) होने पर रोगी को बेचैनी, सिरदर्द, तेज धड़कन के लक्षण आते हैं। * इसके अलावा मतली, उल्टी या पेट दर्द की भी शिकायत होती है। ध्यातव्य है कि विश्व में सर्वाधिक मधुमेह रोगी (69.2 मिलि.-2015 के अनुसार) भारत में पाये जाते हैं।*

➤ जोड़ों का दर्द (Arthritis)

इसे गठिया या वात रोग के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग में शरीर के विभिन्न जोड़ों में दर्द रहता है। जोड़ों का दर्द सामान्यतया निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

(a) गाऊट (Gout)- इस प्रकार के जोड़ों के दर्द में अस्थि संधियों में सिट्रिक अम्ल के क्रिस्टल जमा हो जाते हैं, जिससे संधियों में दर्द महसूस होता है।

(b) आस्टियोअर्थराइटिस (Osteoarthritis) – इस प्रकार का गठिया अस्थियों के जोड़ों के कार्टिलेज के हासित हो जाने से होता है। इसके कारण जोड़ों का लचीलापन समाप्त हो जाता है तथा वे कड़े हो जाते हैं। यह रोग सामान्यतया अधिक आयु के लोगों में होता है।

(c) रुमेटाइड अर्थराइटिस (Rrheumatoid arthritis)- साइनोसिल झिल्ली में सूजन आने तथा कार्टिलेज के ऊपर सख्त ऊतक उत्पन्न हो जाने से इस प्रकार का गठिया उत्पन्न होता है। इस रोग के फलस्वरूप भी जोड़ों में दर्द रहता है, तथा चलने-फिरने में असुविधा होती है।

➤ एलर्जी (Allergy)

इसमें व्यक्ति किसी पदार्थ के प्रति अत्यन्त संवेदनशील हो जाता है। ये पदार्थ जब प्रोटीन होते हैं तो इन्हें एन्टीजेन (प्रतिजन) कहते हैं। शरीर इन प्रतिजनों के खिलाफ कुछ प्रोटीन पदार्थ बनाता है। जिसे प्रतिरक्षी (Antibodies) कहते हैं। जब कोई पदार्थ जिसके प्रति शरीर संवेदनशील होता है, शरीर में प्रवेश करता है तो ये प्रतिरक्षी उस पर आक्रमण करते हैं। फलस्वरूप हिस्टामीन नामक पदार्थ कुछ कोशिकाओं से निकलता है और यही हिस्टामीन रक्त द्वारा श्लेष्मकला या त्वचा तक पहुँचकर एलर्जिक लक्षण जैसे छींक आना, सांस फूलना, पित्ती, खुजली आना तथा आँखों में पानी आना आदि लक्षण उत्पन्न करता है। इसके उपचार हेतु एन्टी एलर्जिक दवा का सेवन किया जाता है।

प्रदूषण जनित रोग (Pollution Born Diseases)

➤ मिनीमाटा रोग (Minimata Disease)

यह बीमारी शरीर में पारा (Mercury-Hg) की अधिकता के कारण से होती है। प्रारम्भ में यह बीमारी जापान की मिनीमाटा खाड़ी से Hg संक्रमित मछलियों का मांस खाने से हुई थी। इसमें शरीर के अंग होंठ तथा जीभ काम करना बंद कर देते हैं। साथ ही बहरापन, आंखों का धुंधलापन तथा मानसिक असंतुलन भी उत्पन्न हो जाता है।*

➤ इटाई-इटाई रोग

यह बीमारी कैडमियम प्रदूषण से होती है। यदि कैडमियम किसी प्रकार से शरीर से सुरक्षा स्तर से अधिक पहुँच जाये तो यह बीमारी हो जाती है। यह अस्थियों तथा जोड़ों की दर्दनाक बीमारी है। इसके अलावा इस तत्व की अधिकता से लीवर तथा फेफड़ों का कैंसर भी हो जाता है।

➤ ब्लू बेबी सिण्ड्रोम (Blue Baby Syndrom)

यह बीमारी पेयजल में नाइट्रेट की अधिकता से होती है। नाइट्रेट की अधिक मात्रा होने पर यह हीमोग्लोबिन से प्रतिक्रिया करके असक्रिय मिथेमोग्लोबीन बनाता है जो शरीर में ऑक्सीजन संचरण को अवरुद्ध कर देता है। फलतः नवजात शिशु नीला पड़ जाता है।

ब्लैक फुट (Black foot) – आर्सेनिक के लगातार सम्पर्क से यह बीमारी होती है। इससे त्वचा तथा फेफड़े का कैंसर भी हो सकता है।

मनोरोग (Psychiatric disorders)

मस्तिष्क में चलने वाली क्रियाओं में से कुछ के प्रति चैतन्य होने से मन के अस्तित्व को तो सब मान लेते हैं, किन्तु इसके स्वरूप के बारे में बहुत विवाद है। भारतीय व पाश्चात्य चिंतन इस पर बहुत भिन्न हैं। तथापि इसके कार्य कलाप एवं व्याधियों के बारे में एक विस्तृत सहमति का क्षेत्र भी हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान मन को विचारों का प्रवाह मात्र मानता है। भारतीय चिंतन में मन देह से भिन्न एक अलग अस्तित्व की तरह माना जाता है।

आधुनिक चिकित्सा में मनोरोगों का विभागीकरण काफी जटिल व विस्तृत हुआ हैं यहाँ प्रस्तुत है परीक्षोपयोगी वर्णन जैसे-

➤ हिस्टीरिया (Hysteria)

इच्छा अथवा आशा के विघात होने पर आवेशपूर्ण अथवा असाधारण रूप में नाटकीय व्यवहार को हिस्टीरिया की संज्ञा प्रदान की जाती है। इस रोग में हाथ-पैर और शरीर अकड़ जाते हैं, शरीर में कपकपी अथवा रोगी जोर से हँसने या रोने लगता हैं। मूत्र त्याग के पश्चात दौर दूर हो जाता है। यह रोग युवा लड़कियों और व्यस्क स्त्रियों में अधिक होता है। पैतृक परम्परागत प्रवृत्ति इस रोग का प्रधान कारण हैं। अन्य कारणों में युवा लड़कियों में अपूर्ण मैथुन, गर्भाशय रोग, स्वास्थ्य कमजोर होना आदि है।

➤ स्किजोफ्रेनिया (Schizophrenia)

यह एक अति सुलभ मानसिक रोग है। इसमें रोगी के अन्दर व्यक्तित्व विघटन (disintegration of personality) के लक्षण मिलते हैं। इसमें बुद्धि की तमाम शक्तियाँ युवावस्था में ही दुर्बल हो जाती है। विचार हीनिता, भावहीनता, इच्छाहीनता, भ्रान्तचित्तता एवं मिथ्या प्रतीति आदि इस रोग के प्रधान लक्षण हैं। यह एक वंशानुगत रोग है।

➤ साइकोन्यूरोसिस (Psychoneurosis)

यह रोगी मानसिक दृष्टि से अस्वस्थ होता है और उसमें बाह्य वातावरण के यथार्थ मूल्यांकन की योग्यता में कमी हो जाती है। ये दुःख, चिन्ता तथा तीव्र अन्तर्द्वन्द्वों के कारण अपनी योग्यताओं के अनुरूप कार्य कर सकने में असमर्थ होते हैं। इनमें संवेगात्मक, ज्ञानात्मक एवं क्रियाजनित विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जो व्यक्ति को आंशिक रूप से असमर्थ बनाती हैं। असामान्यता का यह प्रकार बौद्धिक, आर्थिक एिवं सामाजिक स्तर से नियंत्रित नहीं होता। इन्हें मानसिक चिकित्सालयों में भर्ती करने की तो जरूरत नहीं है, किन्तु इन्हें मनोचिकित्सक की सहायता की नितान्त आवश्यकता होती है।

➤ साइकोसिस (Psychosis)

इसमें रोगी का व्यक्तित्व अत्यधिक विघटित हो जाता है। वास्तविकता की परख तथा सम्पर्क अत्यधिक विकृत हो जाते हैं। विधि में विक्षिप्त या पागल (Insane) शब्द का प्रयोग इन्हीं रोगियों के लिए किया जाता है क्योंकि इन्हें इनके कार्यों के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। ऐसे में रोगी को मानसिक अस्पतालों में भर्ती करना प्रायः आवश्यक-सा है।

➤ पैरानोय्या (Paranoia)

इससे प्रभावित रोगी में कृत्रिम रूप से विकसित अत्यधिक तार्किकता तथा महानता के झूठे विश्वास उत्पन्न हो जाते हैं। वह समझता है कि लोग उसके विरुद्ध षड्यंत्र कर रहे हैं, वे उसको धोखा देना चाहते हैं। उसे सदैव यह शिकायत रहती है कि लोग उसके महत्व को नहीं समझ पाते। अर्थात् महानता का भ्रांति विश्वास ही पैरानोय्या कहलाता है। जटिल व्यवस्थित तथा तार्किक झूठे विश्वासों के अतिरिक्त रोगी का शेष व्यक्तित्व सापेक्षिक रूप से पर्याप्त संगठित रहता है। इसमें रोगी के ठीक होने की सम्भावना बहुत ही कम होती है।

➤ डिलीरियस मेनिया (Delirious Mania)

यह उत्साह की स्थिति का अति भयंकर रूप है जिनमें रोगी अति भ्रांत, उत्तेजित एवं हिंसात्मक बन जाता है। अधिकांशतः यह बिना पूर्व सूचना के यकायक उत्पन्न होती है। इस व्यक्ति को अपने आस-पास के वातावरण का पर्याप्त रूप से कम ज्ञान होता है। वह एक क्षण तो किसी काम को मना कर देता है और दूसरे क्षण उसी काम को करने लगता है।

उत्साह की इस स्थिति में रोगी की उत्तेजना को शामक औषधियों, जल-चिकित्सा तथा विद्युत-आघात पद्धतियों द्वारा पर्याप्त मात्रा में कम किया जा सकता है।

➤ डिप्रेसिव स्टूपर (Depressive Stuper)

इस रोगी में विषाद के लक्षण अत्यधिक अतिरंजित रूप में प्रस्तुत होते हैं। रोगी एक जड़ पदार्थ की भांति स्पन्दहीन तथा क्रियाहीन- सा प्रतीत होता है। इसके झूठे विश्वासों के कथानक पाप मृत्यु तथा पुनर्जन्म से सम्बन्धित होते हैं।

सौभाग्यवश नवीन उपचार पद्धतियों तथा विद्युत आघात आदि की सहायता से रोगी की स्थिति में सुधार किया जा सकता है।

➤ पीडोफिलिया (Paedophilia)

यह एक यौन विकृति है, जिसमें परिपक्व अवस्था का व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, बालक के साथ किशोरावस्था से पूर्व ही कामजनित व्यवहार प्रदर्शित करता है। यह स्थिति विपरीत लिंग के बच्चे के साथ अथवा समलिंगीय के साथ उपस्थित हो सकती है। बच्चों के साथ यौन विकृति की खबरें हमें नित्य प्रतिदिन समाचार-पत्रों में पढ़ने को मिलती है। इसका उपचार प्रायः कठिन है, यदि इनकी मनोचिकित्सा की जाये तो ऐसे रोगी के ठीक होने की सम्भावना आशाजनक है।

➤ व्यसन (Abuse)

इधर कुछ दशकों से समाज में मद्यपान तथा विभिन्न नशीले पदार्थों का सेवन बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। इनका अत्यधिक मात्रा में सेवन व्यक्ति को दैहिक तथा मानसिक दृष्टि से द्रव पर निर्भर बनाता है जो व्यक्ति की अन्तर्निहित कठिनाइयों तथा तनावों का प्रतीक है। अल्कोहल तथा मादक द्रव्यों के सेवन को रोकने के लिए इनकी रोकथाम पर विशेष बल देने की आवश्यकता है। आधुनिक जीवन की जटिलता, उहापोह, बेरोजगारी, प्रतिस्पर्द्धा आदि पर नियंत्रण पाकर ही इनकी प्रभावकारी रोकथाम सम्भव है।

मादक द्रव्यों का सेवन प्रायः दो रूपों में होता है-मद्यपान एवं मादक द्रव्य ।

इथाइल अल्कोहल को ही संक्षिप्त रूप में शराब कहते हैं। भारत – में प्रति वर्ष सैकड़ों व्यक्ति दूषित शराब (मिथाइल अल्कोहल) के कारण मृत्यु का ग्रास बनते हैं। इसका सेवन व्यक्ति में अवसाद उत्पन्न करता है इससे उच्च मस्तिष्कीय क्रियायें कमजोर होती हैं, व्यक्ति के निर्णय तथा अन्य तार्किक क्रियायें क्षतिग्रस्त होती हैं तथा आत्म नियंत्रण घट जाता है। संवेगात्मक प्रवृत्तियां बढ़ने लगती हैं। फलतः वह दूसरे पर आक्रमण, बलात्कार तथा स्वयं को चोट पहुँचाने जैसी क्रियाएँ करने लगता है।

• मादक द्रव्यों में नशीले पदार्थ (Narcotics) जैसे अफीम तथा उससे निर्मित मार्फीन, हिरोइन तथा कोडीन अथवा उसके संश्लेषित रूप जैसे डेम्बेरोल, मेथाडोन आदि आते हैं।

• शामक द्रव्यों (Sedative) का एक अन्य रूप सम्मोहनात्मक द्रव्यों (Hypnotic-drugs) का है जो व्यक्ति में अर्द्ध-निद्रा तथा निद्रा की सी स्थिति उत्पन्न करते हैं जैसे अमीटाल, नेम्बूटॉल, सेकोनाल, ब्रोमाइड्स तथा क्लोरल हाइड्रेट आदि।

• उत्तेजक पदार्थ (Stimulant) मस्तिष्क सहानुभूतिक नाड़ी संस्थान (Sympathetic) को प्रभावित करते हैं जिससे व्यक्ति की सतर्कता तथा क्रियाशीलता बढ़ जाती है तथा थकान एवं निद्रा दूर होती है। जैसे कोकीन, कैफीन, निकोटीन तथा एम्फीटामिन्स आदि। इससे चिड़चिड़ापन तथा चिन्ता बढ़ जाती है।

• एल एस डी (L.S.D. लेसर्जिक ऐसिड डाइ-इथाइलेमाइड) एक ऐसा ड्रग्स है जिसका सेवन ज्ञानेन्द्रिय जनित प्रतिमाओं (Sensory images) को पर्याप्त विकृत कर देता है जिससे ये लोग विविध प्रकार की विचित्र आवाजें सुनते तथा दृश्य देखते हैं। यह एक संश्लेषित पदार्थ है, जिसका विकास स्विस रसायनज्ञ हॉफमैन ने किया था।

(नोटः आनुवांशिक व्याधियों का अध्ययन भाग-3 के मानव आनुवांशिकी प्रभाग में करें।)

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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