आणविक आनुवंशिकी

जीन की रासायनिक पहचान 1944 में ऐवरी, मैक्लाउड एवं मैकार्टी ने की। इन वैज्ञानिकों ने निमोनिया पैदा करने वाले बैक्टीरिया पर अनुसंधानों द्वारा सिद्ध किया कि DNA (डिऑक्सीराइबोन्यक्लिक अम्ल) आनुवंशिक द्रव्य (genetic material) होता है।

DNA अणु की संरचना का स्पष्टीकरण 1953 में वाट्सन एवं क्रिक ने किया (MPPCS)। इन वैज्ञानिकों ने DNA अणु की द्विकुंडली संरचना (double helical structure) की प्रस्तावना की। बाद में प्रयोगों द्वारा यह संरचना सत्य पाई गई और आज यह सर्वमान्य है। वाट्सन एवं क्रिक को (बिल्किन्स, Wilkins, के साथ) DNA पर खोजों के लिए 1962 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। इन खोजों के परिणामस्वरूप आनुवंशिकी की एक नई शाखा, आण्विक आनुवंशिकी (molecular genetics) का जन्म हुआ।

मैविंलटॉक ने 1950 में मक्के में एक ऐसे जीन की उपस्थिति प्रमाणित की जो कि क्रोमोसोम में अपना स्थान बदलता रहता है तथा एक क्रोमोसोम से दूसरे क्रोमोसोम में भी जा सकता है। इसके विपरीत, सभी अन्य जीन निश्चित क्रोमोसोम में निश्चित स्थानों पर स्थित होते हैं, और सामान्यतया यह स्थान परिवर्तित नहीं होता है।

इसीलिए जीन के पर्याय के रूप में विस्थल (locus) शब्द का प्रयोग किया जाता है, जिसका अर्थ ही होता हैः ‘एक निश्चित स्थान पर स्थित’। मैक्लिटॉक के अध्ययन से एक नए प्रकार के जीनों का ज्ञान हुआ जो कि अपना स्थान बदलने की क्षमता रखते हैं; ऐसे जीनों को परिवर्त (transposon), परिवर्तनशील अवयव (trans- posable elements) अथवा झंपन जीन (jumping gene) कहा जाता है।* (LAS-94) इस काम के लिए मैक्लिटॉक को 1983 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।

मार्शल नीरेनबर्ग और उनके सहकर्मियों ने 1961 में विभिन्न प्रयोगों द्वारा आनुवंशिक कोड (genetic code) का अर्थ ज्ञात किया।* आनुवंशिक कोड को त्रिककोड भी कहते हैं, क्योंकि एक कोडान तीन क्षारकों से बना होता है। उन्होंने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि दूत RNA (messenger RNA) में एक साथ तीन यूरेसिल, अर्थात् UUU, फेनिल एलानीन एमीनो अम्ल का संकेत देते हैं। बाद में उन्होंने कई अन्य एमीनो अम्लों के संकेतों का पता लगया, और आज सभी 64 सम्भव त्रिक कोडानों के अर्थ ज्ञात हैं। नीरेनबर्ग को इस कार्य के लिए 1968 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

इसी वर्ष (1961) में जैक्वा एवं मोनो ने जीन क्रिया नियमन (Regulation of gene action) की ओपेरान धारणा का प्रवर्तन किया। * इस धारणा के अनुसार संरचनात्मक जीन (structural gene, अर्थात् वे जीन जो एन्जाइम या RNA उत्पादित करते हैं) या जीन समूहों की क्रिया का नियमन तीन अन्य जीन मिलकर करते हैं; इन जीनों को प्रचालक (Operator), वर्धक (Promoter) एवं नियामक (Regulator) जीन कहते हैं। ओपेरान सिद्धान्त सर्वमान्य हैं और इसके लिए जैक्वा तथा मोनो को 1965 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।

बेन्जर ने 1955 एवं 1961 में एशिकिया कोली के T जीवाणुभोजी (bacteriophage) के ll जीन की सूक्ष्म संरचना का विश्लेषण किया। उन्होंने सिस्ट्रान (जीन के कार्य की इकाई), म्यूटॉन (जीन में उत्परिवर्तन की इकाई) एवं रिकोन (जीन में पुनर्योजन, recombination की इकाई) धारणाओं को जन्म दिया।*

ओकोआ ने 1956 में RNA का पात्रे संश्लेषण (in vitro synthesis) किया।* इसी वर्ष (1956 में) कार्नबर्ग ने DNA का पात्रे संश्लेषण किया। इन दोनों वैज्ञानिकों को 1959 में संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

न्यूक्लीक अम्ल के पात्रे संश्लेषण तथा आनुवंशिक कोड पर काम के लिए भारतीय मूल के हरगोविंद खुराना को 1968 में नोबेल पुरस्कार से विभूषित किया गया। खुराना और सहकर्मियों ने 1970 में एलानिल-स्थानांतरण RNA (alanyl-transfer RNA) के जीन का पात्रे संश्लेषण किया। बाद में उन्होंने यह भी सिद्ध किया कि यह पात्रे-संश्लेषित जीन सामान्य रूप से प्रकार्य करता है।

पुनर्योगज DNA टेक्नोलॉजी (Recombinant DNA Technology)

इस प्रकार 1900 से 1984 तक के 84 वर्षों में आनुवंशिकी ने एक महान एवं अत्यधिक सफल यात्रा पूरी की है। आज मानव ‘पुनर्योगज DNA तकनीक’ (Recombinant DNA technology) द्वारा नए जीन उत्पादित करने की क्षमता प्राप्त करने में आंशिक रूप से सफल हो चुका है। पुनर्योगज DNA का उत्पादन कई भिन्न DNA खण्डों को आपस में जोड़कर किया जाता है; ये DNA खण्ड अक्सर दो या अधिक भिन्न जीवों से प्राप्त किए जाते हैं। इसके लिए DNA को किसी उपयुक्त प्रतिबंध एन्जाइम (Restriction Enzyme) द्वारा कर्तित (Cut) करके उपयुक्त खण्ड प्राप्त किए जाते हैं। इसके बाद वांछित खण्डों को आपस में DNA लाइगेस (Ligase) की सहायता से जोड़ा जाता है। प्रतिबंध एन्जाइम एक प्रकार के एन्डोन्यूक्लिएस होते हैं, जो DNA अणुओं को विशिष्ट स्थलों पर कर्तित करते हैं। एन्डोन्यूक्लिएस का सर्वप्रथम विलगन 1970 में किया गया, जिसके लिए स्मिथ, नाथन्स एवं आर्बर को 1978 में नोबेल पुरस्कार दिया गया। इस प्रकार उत्पादित पुनर्योगज DNA अणुओं को उपयुक्त वाहक DNA अणुओं में समाकलित (Integrate) किया जाता है; वास्तव में ऐसे वाहक को ही पुनर्योगज DNA (recombinant DNA) कहते हैं।*

पुनर्योगज DNA को एक उपयुक्त परपोषी में प्रवर्धित (Propagate) किया जाता है। पुनर्योगज DNA अणुओं के उत्पादन की तकनीक को पुनर्योगज DNA टेक्नोलॉजी कहते हैं। लेकिन पुनर्योगज DNA को किसी परपोषी में प्रवर्धित करने को DNA क्लोनन, जीन क्लोनन या आनुवंशिक इंजीनियरी कहा जाता है। किंतु अधिकतर पुनर्योगज DNA टेक्नोलॉजी एवं जीन क्लोनन दोनों को ही एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। आनुवंशिक इंजीनियरी के सर्वप्रथम सफल प्रयोग 1973 में किए गए। ध्यातव्य है कि विभिन्न जातियों की कोशिकाओं से लिये गए DNA के खण्डों को जोड़कर प्रकार्यात्मक DNA की ही रचना की जा सकती है, प्रकार्यात्मक गुण सूत्र की नहीं ।

जीन क्लोनन के तीन मुख्य उद्देश्य होते हैंः (1) किसी DNA खंड की बहुत सी प्रतियाँ प्राप्त करना, (2) क्लोन किए गए DNA खंड द्वारा कोडित प्रोटीन का बड़ी मात्रा में उत्पादन, एवं (3) DNA खंड का परपोषी जीव के जिनोम (genome) में समाकलन करके सुधरे लक्षणों वाले पारजीनी (transgenic) जीवों का उत्पादन।

मानव की यह महान एवं अभूतपूर्व सफलता मानव जाति की एक महान सफलता या महानतम असफलता सिद्ध हो सकती है। रिकोम्बिनेंट डीएनए टेक्निक ने मानव को अभूतपूर्व एवं असीमित शक्ति का स्वामी बना दिया है, जिससे वह जीवों के विकास पर मनचाहा नियंत्रण कर सकता है। इस शक्ति का उपयोग जहाँ एक ओर मानव कल्याण के लिए किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर मानव संहार के लिए भी। अतः इस तकनीक के समुचित उपयोग पर मानव जाति का कल्याण निर्भर हैं। आशा है, मानव स्वयं को उतना बुद्धिमान सिद्ध कर सकेगा जितनी कि इन परिस्थितियों में उससे अपेक्षा हैं।

अग्र एवं प्रतिलोम आनुवंशिकी (Forward and Reverse Genetics)

आनुवंशिकी का जन्म वंशागति के नियमों तथा विविधता उत्पन्न होने की क्रियाविधियों की खोज के उद्देश्य से हुआ था। आनुवंशिकी के शोध में शुरूआत लक्षणप्ररूप (phenotype) से होती है।

लक्षणप्ररूपों में दिखलाई पड़ने वाली भिन्नता का उपलब्ध विधियों द्वारा विश्लेषण एवं अन्वेषण किया जाता है। इन अध्ययनों के लिए विविध प्रकार के स्वतः (spontaneous) एवं प्रेरित (induced) उत्परिवर्तियों (mutations) का व्यापक प्रयोग किया जाता है। इन अध्ययनों से प्राप्त परिणामों के आधार पर सिस्ट्रॉन की धारणा, आनुवंशिक द्रव्य की पहचान, आनुवंशिक कोड (genetic code) की आरंभिक जानकारी आदि का ज्ञान हुआ। इस अध्ययन की प्रणाली को अग्र आनुवंशिकी (forward genetics) कहा जाता है; इसमें अध्ययन का आरंभ लक्षणप्ररूप से होता है और यह क्रमशः प्रगति करता हुआ संबंधित लक्षणप्ररूप को उत्पादित करने वाले DNA खंड की पहचान एवं उसके विलगन (isolation) तक पहुंचता है।

अब पुनर्योगज DNA टेक्नोलॉजी द्वारा किसी जीव के जिनोम से कोई भी DNA खंड विलग करके उसे क्लोन. किया जा सकता है। इस क्लोन किए गए DNA खंड को किसी उपयुक्त परपोषी में अभिव्यक्त किया जा सकता है, और इस खंड द्वारा कोडित प्रोटीन को प्राप्त कर उसका अध्ययन किया जा सकता है। इसके अलावा इस DNA खंड का क्षारक क्रम (base sequence) ज्ञात करके उसके द्वारा कोडित प्रोटीन के एमीनो अम्ल क्रम को ज्ञात कर सकते हैं। क्षारक क्रम के आधार पर DNA खंड के अन्य संभावित प्रकार्यों (functions), जैसे प्रमोटर (promoter) के रूप में प्रकार्य आदि, का आकलन किया जा सकता है। इन आँकड़ो के आधार पर इस DNA खंड की उस जीव के परिवर्धन आदि में संभावित भूमिका का अंदाज लगाया जा सकता है। आनुवंशिक अध्ययनों की इस विधा को प्रतिलोम आनुवंशिकी (reverse genetics) कहा जाता है; इस विधि में शोध का आरंभ एक अज्ञात प्रकार्य वाले DNA खंड से होता है, और क्रमशः आगे बढ़ता हुआ इस DNA खंड की संबंधित जीव के परिवर्धन आदि में भूमिका ज्ञात करने तक पहुँचता हैं (चित्र)।

स्पष्टरूप से, अग्र आनुवंशिकी में खोज की प्रगति लक्षणप्ररूप से आरंभ होकर संबंधित DNA क्रम तक होती है, जबकि प्रतिलोम आनुवंशिकी में इसके ठीक विपरीत, यानि DNA क्रम से शुरू होकर लक्षणप्ररूप तक, होती है।

जीन अभिव्यक्ति (Gene Expression)

हम जानते हैं कि DNA का पीढ़ी-दर-पीढ़ी हूबहू हस्तान्तरण होता है तथा इसमें सभी जैविक क्रियाओं के लिए आवश्यक सूचना निहित रहती है। अब यह प्रश्न उठता है कि इसमें निहित सभी सूचनाएं कोशिका के विभिन्न कार्यों को कैसे नियन्त्रित करती हैं। यथा-

➤ जीन और जैव-रासायनिक क्रियाएँ (Genes and Biochemical Reactions)

सन् 1909 में, एक ब्रिटिश चिकित्सक आर्किबाल्ड गैरड ने विचार प्रकट किये कि उपापचय में जन्मजात अव्यवस्थाएं (inborn errors of metabolism) वास्तव में शरीर में कुछ आवश्यक पदार्थों का संश्लेषण न हो पाने के कारण होता है। उनके अनुसार इन पदार्थों का संश्लेषण इसलिए नहीं होता कि इनके संश्लेषण के लिए होने वाली अभिक्रियाओं को उत्प्रेरित करने वाले एन्जाइम अनुपस्थित होते हैं। इस प्रकार उन्होंने कल्पना की कि वंशागत कमियों व एन्जाइम की कमी के बीच सीधा सम्बन्ध होता है।

बीडल एवं टेटम (Beadle and Tatum) ने अपने प्रयोगों द्वारा इस अवधारणा को बल दिया कि एन्जाइम्स (जो कि प्रोटीन होते हैं) के संश्लेषण के लिए आवश्यक सूचना जीन में निहित होती है। पराबैंगनी किरणों, X-किरणों तथा अनेक रसायनों के प्रभाव से DNA में क्षारकों के क्रम में परिवर्तन आ जाता है तथा उत्परिवर्तन (muta- tion) हो जाता है। उन्होंने प्रस्ताव दिया कि प्रत्येक एन्जाइम को उत्पन्न करने के लिए एक जीन आवश्यक होगा। इस प्रकार ‘एक जीन-एक एन्जाइम’ परिकल्पना का उद्भव हुआ। उन्होंने यह भी पाया कि इस कमी की वंशागति मेण्डल के नियमों के अनुसार होती है। इससे उनकी परिकल्पना को बल ही मिला। चूंकि एन्जाइम प्रोटीन होते हैं और कई प्रोटीन्स एक से अधिक पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाओं की बनी होती है, अतः एक जीन एक एन्जाइम परिकल्पना बाद में ‘एक जीन-एक पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला’ के नाम से जानी गई।

➤ सेन्ट्रल डोग्मा (Central Dogma)

जीवधारियों में प्रोटीनों का संश्लेषण प्रायः DNA के ही प्रत्यक्ष नियन्त्रण में होता है। जिन जीवों में DNA नहीं होता, वहां अवश्य यही कार्य RNA के नियन्त्रण में होता है। किसी विशिष्ट पॉलिपेप्टाइड श्रृंखला में पाए जाने वाले अमीनो अम्लों के अनुक्रम का निर्धारण DNA श्रृंखला के किसी खण्ड विशेष में क्षारकों के अनुक्रम पर निर्भर करता है। न्यूक्लिक अम्लों द्वारा प्रोटीन रचना का नियन्त्रण RNA के माध्यम से होता है। द्विकुण्डलित DNA में निहित सूचना RNA को दी जाती है, जो दूत की भांति कार्य करता है और पॉलिपेप्टाइड श्रृंखला के निर्माण के लिए इस सूचना का अनुवाद होता है। इस प्रकार सूचना DNA से m-RNA; m-RNA से पॉलिपेप्टाइड शृंखला की ओर प्रवाहित होती हैः

DNA→m-RNA → Protein

सूचना के एक ही दिशा में इस प्रवाह को अणु जीव विज्ञान में सेन्ट्रल डोग्मा (Central Dogma) कहते थे।

➤ अनुलेखन (Transcription)

DNA से पॉलि-पेप्टाइड श्रृंखला तक सूचना के वाहक का कार्य RNA करता है जिसे दूत RNA (Messenger RNA-m-RNA) कहते हैं। इसका निर्माण DNA की एक श्रृंखला से उसी प्रकार होता है, जैसे कि DNA की एक श्रृंखला से नई श्रृंखला का निर्माण होता है। जनक DNA की एक श्रृंखला सांचे की तरह कार्य करती है और इस प्रकार RNA की श्रृंखला का निर्माण होता है। इस चरण को अनुलेखन (Transcription) कहते हैं। यह प्रक्रिया एक एन्जाइम RNA पॉलिमरेज (RNA Polymerase) द्वारा उत्प्रेरित होती है। अतः DNA श्रृंखला में विद्यमान क्षारकों के अनुक्रम के आधार पर ही RNA के क्षारकों का अनुक्रम निर्भर करता है। DNA के A के साथ RNA का यूरेसिल (U); T के साथ A; G के साथ C; C के साथ G आ लगते हैं। इस प्रकार देखा जाए तो DNA के अन्दर निहित सूचना (क्षारकों के अनुक्रमों के रूप में), RNA को (अनुक्रम के रूप में) दे दी जाती है। DNA के एक अणु से m-RNA के कई अणु बन सकते हैं जो कि DNA सांचे से विमुक्त होते रहते हैं।

➤ RNA अंतक्षेप (RNA Interference: RNAi):-

यह एक आनुवांशिक प्रौद्योगिकी है जिसमें RNA अणु से Targeted m-RNA ((दूत-RNA) अणुओं को प्रभावहीन कर जीन अभिव्यक्ति को रोक दिया जाता है। इस विधि का Gene Silencing रोगों एवं कैंसर के उपचार में प्रभावी ढंग से प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा फसलों में विषाणु जनित रोगों के लिए प्रतिरोधी पादप किस्मों के विकास में भी इसका प्रयोग हो रहा है।

➤ अनुबाद (Translation)

RNA के रूप में अनुलेखित आनुवंशिक सूचना को प्रोटीन की भाषा में बदलना, अनुवाद (Translation) कहलाता है। यह एक निश्चित कोड के अनुसार होता है जिसे आनुवंशिक कोड (Genetic Code) कहते हैं।

आनुवंशिक कोड (Genetic Code)- m-RNA में आनुवंशिक सूचना किस प्रकार से निहित होती है और इसका प्रोटीन में अनुवाद का ज्ञान विगत् शताब्दी की विशेष उपलब्धि है। न्यूक्लिक अम्ल में केवल चार प्रकार के क्षारक होते हैं और प्रोटीन्स में 20 विभिन्न प्रकार के अनिवार्य अमीनो अम्ल होते हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि प्रोटीन की भाषा की वर्णमाला में 20 शब्द होते हैं, जबकि न्यूक्लिक अम्लों की भाषा में चार क्षारक रूपी अक्षर होते हैं। ऐसा सम्भव नहीं है कि एक क्षार एक अमीनो अम्ल के समतुल्य हो सके। यदि ऐसा हो, तो चार क्षारक केवल चार ही अमीनो अम्लों का प्रतिनिधित्व कर पाएंगे। यदि दो क्षारकों का एक अनुक्रम एक अमीनो अम्ल के लिए प्रयुक्त होता हो, तो भी केवल 4×4 = 16 विभिन्न अनुक्रम बन पाएंगे जो केवल 16 अमीनो अम्लों के लिए पर्याप्त होंगे। मार्शल नीरेनबर्ग, ओकोआ, हरगोविन्द खुराना, फ्रैंसिस क्रिक एवं अनेक वैज्ञानिकों के अथक् प्रयासों के फलस्वरूप अब स्पष्ट हो गया है कि प्रत्येक अमीनो अम्ल के लिए तीन क्षारकों का एक विशिष्ट अनुक्रम होता है, जिसे त्रिक् (Trip- let) कहते हैं या कोडोन (Codon) भी कहते हैं, उदाहरण के लिए, m-RNA में तीन क्षारकों AUG की त्रिक् अमीनो अम्ल मिथिओनीन (Methionine) का प्रतिनिधित्व करती है। क्षारक अनुक्रम UUU अमीनो अम्ल फिनाइलएलानिन का प्रतिनिधित्व करती है। किसी भी m-RNA के अणु में क्षारकों का अनुक्रम (तीन-तीन के समूहों में) अमीनों अम्लों के अनुक्रम का निर्धारण करता है। उदाहरण के लिए- यदि m-RNA के अणु में CGU GGG CUU…….. के अनुक्रम में क्षारक लगे हैं तो CGU आर्जिनीन का, GGG ग्लाइसीन का, तथा CUU ल्यूसीन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रकार इस m-RNA के अनुवाद के फलस्वरूप बनने वाली प्रोटीन में आर्जिनीन, ग्लाइसीन, ल्यूसीन.. अमीनों अम्ल होंगे।

CGU (आर्जिनीन) GGG (ग्लाइसीन) CUU (ल्यूसीन)

4 क्षराकों को 3-3 समूहों में विभिन्न अनुक्रमों में लगाने से 4×4×4=64 प्रकार के त्रिकू मिलते हैं, इनमें से 3 कोडोन निरर्थक (Non-Sense) होते हैं, इन्हें समापन (Terminator) संकेत भी माना जा सकता है। एक कोडोन AUG आरम्भक (Initiating) कोडोन होता है।* कई अमीनो अम्लों के एक से अधिक कोडोन होते हैं। प्रोटीन में अमीनों अम्लों के अनुक्रम को निर्धारित करने के लिए त्रिक् कोडोनों के रूप में न्यूक्लिक अम्लों में निहित शब्दावली को ही आनुवंशिक कोड (Genetic Code) कहते हैं।

• राइबोसोम्स की भूमिका (Role of Ribosomes)- m-RNA में अनुलेखित आनुवंशिक सूचना का प्रोटीन्स के रूप में अनुवाद राइबोसोम (Ribosomes) पर होता है! ये राइबोसोमल RNA (Ribosomal RNA-r-RNA) प्रोटीन संश्लेषण में भाग लेते हैं। राइबोसोम के दो भाग होते हैं- एक बड़ा, एक छोटा। m- RNA इन दोनों भागों के बीच के खांचे (Groove) में लग जाता है। फ्रैंसिस क्रिक ने यह सुझाव दिया था कि m-RNA के अतिरिक्त अनुवाद में एक अन्य प्रकार के RNA की आवश्यकता होगी। बाद में उनका विचार सही साबित हुआ, जब एक और प्रकार के RNA- ट्रांसफर RNA (Transfer RNA-1-RNA) की खोज हुई तथा प्रोटीन संश्लेषण में उनकी भूमिका का पता चला। t-RNA अणु का बीच का हिस्सा एक क्लोवर पत्ती के रूप में कुण्डलित होता है जिनमें से एक पर एक विशिष्ट अमीनो अम्ल जुड़ जाता है।

t-RNA के साथ अमीनो अम्ल का जुड़ना अमीनो अम्ल सक्रियण (Amino Acid Activation) कहलाता है। प्रत्येक 1-RNA पर विशिष्ट अमीनो अम्ल लगा होता है। अमीनोएसाइल /-RNA सम्मिश्र प्रोटीन संश्लेषण हेतु राइबोसोम पर पहुंचता है।

अमीनो अम्ल युक्त t-RNA, m-RNA में अनुलेखित आनुवंशिक सूचना को कूटानुवादित (Decode) करने में खास भूमिका अदा करता है। यह कार्य t-RNA तथा m-RNA की अन्तर्क्रिया द्वारा होता है। t-RNA के ऐण्टिकोडोन पर m-RNA की त्रिक् कोडोन की पूरक

क्षारक (Complementary Base) होती है। उदाहरण के लिए, m- RNA में मिथिओनीन के लिए AUG कोडोन होता है। यह उस 1- RNA से अन्तर्क्रिया कर सकेगा जिसके ऐण्टिकोडोन पर UAC क्षारक होंगे तथा UAC ऐण्टिकोडोन वाले क्षारक पर मिथिओनीन अमीनो अम्ल लगा होता है। इस प्रकार, मिथिओनाइल t-RNA न केवल 3′ सिरे मिथिओनीन के साथ क्रिया करता है, अपितु m-RNA पर मिथिओनीन कोडोन (AUG) के साथ भी अन्तर्क्रिया करता है।

पॉलिपेप्टाइड श्रृंखला निर्माण के चरण (Steps in Peptide Bond Formation) – (i) समारम्भ (Initiation)– पॉलिपेप्टाइड का निर्माण अमीनो अम्लों के एक-दूसरे से पेप्टाइड बन्ध द्वारा जुड़ने से होता है। एक अमीनो अम्ल का – COOH वर्ग दूसरे अमीनो अम्ल के -NH, वर्ग से आबन्धित होकर पेप्टाइड बन्ध बनाता है। इसके लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। m-RNA, राइबोसोम की छोटी यूनिट के साथ संलग्न हो जाता है। राइबोसोम की छोटी यूनिट m-RNA के साथ संलग्न हो जाती है तभी राइबोसोम की बड़ी यूनिट भी आ जुड़ती है और साबू राइबोसोम का निर्माण हो जाता है।

(ii) पॉलिपेप्टाइड की लम्बाई में वृद्धि (Elongation o Polypeptide)- एक अन्य 1-RNA अणु, जिस पर उपयुक्त अमीन अम्ल लगा हो, m-RNA के दूसरे कोडोन से हाइड्रोजन से आबन बना लेता है, परन्तु तभी जब इस पर कोडोन का पूरक ऐण्टिकोडोन हो दूसरा अमीनो एसाइल t-RNA, राइबोसोम में P बिन्दु के निकट / बिन्दु से प्रवेश करता है। प्रथम अमीनो अम्ल (मिथिओनीन) तथा दूसं अमीनो अम्ल के बीच पेप्टाइड आबन्ध बन जाता है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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