हिमालय प्रदेश की लकड़ियाँ (Woods of the Himalayan Region)

हिमालय प्रदेश में लकड़ियों की कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें सफेदा, पॉपलर, बांस और चीड़ शामिल हैं। हाल ही में, राज्य सरकार ने कुछ प्रजातियों की लकड़ी को बिना परमिट के प्रदेश से बाहर ले जाने की अनुमति दी है, जिससे स्थानीय लोगों को लाभ होगा।

(1) श्वेत सनोवर (Silver Fir)- नुकीली पत्ती वाले वृक्ष 2,200 से 3,000 मीटर की ऊँचाई तक पश्चिमी हिमालय में कश्मीर से झेलम तक और पूर्वी हिमालय में चित्राल से नेपाल तक मिलते हैं। यह वृक्ष 45 मीटर तक ऊँचे और 6 से 7 मीटर तक मोटे होते हैं। इनका उपयोग हल्की पेटियाँ, पैकिंग, तख्ती, दियासलाई, कागज की लुग्दी तथा फर्श में तख्ताबन्दी करने में होता है।

(2) देवदार (Cedrus/Deodar)- देवदार का वृक्ष 30 मीटर ऊँचा और 6 से 10 मीटर मोटा होता है। यह हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में, गढ़वाल के पश्चिम में हिमालय प्रदेश की पहाड़ियों में पाया जाता है। इसकी लकड़ी साधारणतः कठोर, भूरी, पीली, सुगन्धयुक्त तथा टिकाऊ होती है। यह सभी प्रकार के निर्माण कार्यों में प्रयुक्त होती है। इससे सुगन्धित तेल भी निकाला जाता है।

(3) चीड़ (Pine)- यह हिमालय में कश्मीर से भूटान तक 2500-3500 मीटर की ऊँचाई पर मिलता है। यह एक मध्यम कठोर लकड़ी है जो चाय की पेटियों, फर्नीचर तथा माचिस उद्योग में प्रयुक्त होती है। इससे राल (रेजिन) तथा बिरोजा (टर्पेन्टाइन) प्राप्त होते हैं।

(4) नीला पाइन (Blue Pine)- यह कश्मीर से सिक्किम तक सम्पूर्ण हिमालय में 2225 से 3048 मीटर की ऊँचाई पर उगता है। इसकी लकड़ी मध्यम कठोर होती है जो गृह निर्माण, फर्नीचर तथा रेलों के स्लीपर बनाने में प्रयुक्त होती है। इससे भी राल तथा बिरोजा प्राप्त होते हैं।

(5) स्प्रूस (Spruce)- यह पश्चिमी हिमालय में 2225- 3048 मीटर की ऊँचाई पर उगता है। इसकी कोमल लकड़ी निर्माण कार्य, कैबिनेट, पैंकिंग के डिब्बे तथा लुग्दी बनाने में प्रयुक्त होती है।

(6) वालनट (Walnut)- यह कश्मीर, हिमाचल प्रदेश तथा मेघालय में प्राप्त होता है। इसकी हल्की लकड़ी वाद्य यन्त्र, कैबिनेट कार्य तथा नक्काशी के लिये प्रयुक्त होती है।

(7) विलो (Willow)- यह उत्तर पश्चिमी हिमालय में पाया जाता है तथा क्रिकेट के बल्ले बनाने में प्रयुक्त होता है।

(8) बर्च (Birch)- यह हिमालय के उच्च ढालों पर मिलता है तथा फर्नीचर, प्लाई, कैबिनेट आदि बनाने में प्रयुक्त होता है।

(9) साइप्रस (Cypress)- यह अधिकांशतः उत्तराखण्ड में मिलता है। इसकी टिकाऊ लकड़ी फर्नीचर बनाने में प्रयुक्त होती है।

मानसूनी वनों की लकड़ियाँ (Woods of the Monsoon Forests)

(1) सागौन (Teak of Tectona Grandis)- का वृक्ष तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिमी घाट, नीलगिरि की पहाड़ियों के निचले ढालों तथा ओडिशा में पाया जाता है। इसका मुख्य क्षेत्र महाराष्ट्र का उत्तरी कन्नड़ तथा मध्य प्रदेश हैं।*

इसकी लकड़ी बहुत दृढ़ और सुन्दर तथा टिकाऊ होने के कारण इससे रेलगाड़ी के डिब्बे, फर्नीचर, दरवाजे, जहाज आदि बनाए जाते हैं। देश में इसके वनों का क्षेत्रफल 57,216 वर्ग किमी. है।

(2) साल (Sal or Shorea Robusta)- के वन हिमाचल प्रदेश में काँगड़ा घाटी से लेकर असोम में नवगाँव जिले, हिमालय के निचले ढालों एवं तराई के भागों में एवं उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, असोम, छोटा नागपुर, मध्य प्रदेश, उत्तरी तमिलनाडु और ओडिशा में भी फैले हैं। यह भूरे रंग की कठोर और टिकाऊ लकड़ी होती है। इसके वन 1,06,600 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले हैं। इसका प्रयोग रेल के डिब्बे, लकड़ी की पेटियाँ, फर्नीचर, जहाज, खम्भे आदि बनाने और घरेलू काम में होता है।

(3) चन्दन (Sandal Wood) – का वृक्ष मुख्यतः दक्षिणी भारत के शुष्क भागों (कर्नाटक और तमिलनाडु) में पाया जाता है। इसकी लकड़ी कठोर और ठोस होती है तथा इसका रंग पीला और भूरा होता है और इसमें से तेज सुगन्ध आती है। इसी से इसका मूल्य और महत्व अधिक है।

(4) सुन्दरी (Sundri)- का वृक्ष गंगा के डेल्टा में बहुतायत में होता है। इसकी लकड़ी कठोर और ठोस होती है। इससे नाव, मेज, कुर्सियाँ, खम्भे आदि बनाये जाते हैं।*

(5) आबनूस (Abony)- आबनूस की लकड़ी गहरे काले रंग की किन्तु दृढ़, कठोर और टिकाऊ होती है। यह पश्चिमी घाट के वनों एवं असोम में पायी जाती है। इसका अधिकतर प्रयोग फर्नीचर, छड़ियों और छतरियों के दस्ते बनाने में होता है। इस पर खुदाई का काम भी होता है।

(6) हल्दू (Haldu)- यह एक कठोर तथा टिकाऊ लकड़ी है जो खिलौने बनाने तथा नक्काशी में प्रयुक्त होती है।

(7) पलाश (Palash) – यह मुख्यतः दक्षिण पूर्वी राजस्थान तथा छोटा नागपुर के पठार पर उगता है। इसकी पत्तियों पर लाख के कीड़े पाले जाते हैं।

(8) अर्जुन (Arjun)- यह एक कठोर तथा भारी लकड़ी है जो गाड़ियाँ तथा कृषि उपकरण बनाने में प्रयुक्त होती है।

सदापर्णी वनों की लकड़ी (Woods from Evergreen Forests)

(1) रोज वुड (Rose wood)- यह पश्चिमी घाट के ढालों पर, ओडिशा के कुछ भागों, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में उगता है। इसकी कठोर तथा सूक्ष्म रेशों वाली लकड़ी फर्नीचर, वाहन, पहिये, वैगन, फर्श आदि बनाने में व्यापक रूप में प्रयुक्त होती है। यह एक मूल्यवान सजावटी लकड़ी हैं।

(2) एबोनी (Ebony) – यह दक्कन, कर्नाटक, कोयम्बटूर, मालाबार, कोच्चि तथा त्रावणकोर में मिलता है। यह एक मूल्यवान तथा सजावटी लकड़ी है जिसका प्रयोग सजावटी नक्काशी तख्ते तथा संगीत-वाद्यों के बनाने में होता है।

(3) गुर्जन (Gurjan) – यह असोम, पश्चिम बंगाल तथा अण्डमान में पाया जाता है। यह आन्तरिक निर्माण कार्य, पैकिंग के डिब्बे, पैनल, फर्श, गाड़ियाँ, वैगन आदि बनाने में काम आता है।

गौण वनोंपजें (Minor Forest Produce)

(1) बेंत (Cane)- यह कर्नाटक, केरल, असोम, ज्वारीय वनों तथा दलदलों में उगता है। इसका उपयोग तार, रस्सियाँ, चटाई, थैला, टोकरी आदि बनाने में होता है।

(2) तेन्दू (Tendu)- यह ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा दक्षिण पूर्वी राजस्थान में मिलता है। इसकी पत्तियाँ बीड़ी लपेटने में काम आती हैं।

(3) लाख (Shellac)- यह ‘केरिया लक्का’ (Kerria Lecca) नामक कीड़े की राल है जो पलाश, पीपल, कुसुम, सिस्सू, गूलर, शिशिर, बरगद आदि वृक्षों पर पलता है। ये वृक्ष झारखण्ड में व्यापक रूप से मिलते हैं। (जहाँ देश की लगभग 60% लाख प्राप्त होती है।) लाख का प्रयोग औषधि बनाने, रेशम रंगने, चूड़ियाँ, पेन्ट, मोम, इलेक्ट्रिकल इन्सुलेशन, स्पिरिट आदि बनाने में होता है।

(4) रेजिन (Resin)- यह चीड़ के वृक्षों से एकत्रित की जाती है। इसका उपयोग लिनोलियम, सीलिंग वैक्स, ऑयल क्लॉथ, स्याही, स्नेहक पदार्थ, पेन्ट आदि बनाने में किया जाता है।

(5) गोंद (Gums)- इनका प्रयोग चिपकाने, प्रिन्टिंग, टेक्सटाइल की फिनिश, कागज छाँटने, पेन्ट, कैण्डी तथा ड्रग्स बनाने में किया जाता है।

(6) टैनिन तथा रंग (Tannin and Dyes)- चमड़े के शुद्धीकरण में टैनिन का प्रयोग किया जाता है। ये पदार्थ मैंग्रोव, वैटल, अर्जुन, चेस्टनट, कैसुएरिना आदि वृक्षों की छाल से प्राप्त होते हैं। रंगने के पदार्थ पौधों तथा वृक्षों से प्राप्त होते हैं, जैसे- लॉग वुड, कच, मेंहदी, चन्दन, बरबेरी, शहतूत, सागौन, सफोला, केसर, सीडर आदि।

(7) कत्था (Kattha)- यह खैर वृक्ष से प्राप्त होता है जो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बिहार, हिमाचल प्रदेश आदि में व्यापक रूप से पाया जाता है।

• भारत में सबसे पहले ब्रिटिश सरकार ने 1894 में एक वन नीति अपनायी जिसके अनुसार वनों की देख-रेख के लिए विकास समिति तथा हर प्रान्त में वन विभाग की स्थापना की गई।

• स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् एक नवीन नीति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। अतः सरकार ने सर्वप्रथम 1950 में एक केन्द्रीय वन बोर्ड (Central Board of Forestry) की स्थापना की। इस बोर्ड की सिफारिशों के आधार पर 31 मई, 1952 को केन्द्रीय सरकार ने वनों के सम्बन्ध में एक नवीन नीति की घोषणा की जिसके प्रस्ताव में यह स्वीकार किया गया कि ‘वन अब कृषि के दास मात्र नहीं हैं, बल्कि वे कृषि भूमियों की उत्पादकता को बनाये रखने एवं उसे बढ़ानें के लिए वन नितान्त आवश्यक हैं।’ इस वन नीति की चार मुख्य बाते थीं (1) वनों के अन्तर्गत क्षेत्रफल को बढ़ाकर 33.3 प्रतिशत करना; (2) वनों को लगाना; (3) वनों को सुरक्षित करना व (4) वनों के सम्बन्ध में अनुसंधान करना, लेकिन यह नीति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल रही।

• 7 दिसम्बर, 1988 को एक अन्य नवीन वन नीति घोषित की गयी, जिसके तीन लक्ष्य थेः (1) पर्यावरण स्थिरता, (2) जीव- जन्तुओं व वनस्पति जैसी प्राकृतिक धरोहर की हिफाजत करना व (3) लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी करना।

सरकार ने वन नीति के ही अन्तर्गत वन विकास के लिए निम्न कार्य किये हैं:

(1) केन्द्रीय वन आयोग की स्थापना- केन्द्रीय सरकार ने 1965 में केन्द्रीय वन आयोग की स्थापना की थी, जिसका अध्यक्ष इन्स्पेक्टर जनरल ऑफ फोरेस्ट्स होता है। इसका कार्य आँकड़े व सूचनाएँ एकत्रित करना, तकनीकी सूचनाओं को प्रसारित करना, बाजारों का अध्ययन करना व वनों के विकास में लगी संस्थाओं के कार्यों को समन्वित करना होता है। यह केन्द्रीय वन बोर्ड को तकनीकी सहायता भी देता है।

(2) भारतीय वन सर्वेक्षण संगठन- वनों में क्या-क्या वस्तुएँ उपलबध हैं उनका पता लगाने के लिए जून 1971 में इस संगठन को स्थापित किया गया है।

(3) वन अनुसन्धान संस्थान की स्थापना- देहरादून में 1906 में वन अनुसन्धान संस्थान स्थापित किया गया है जिसका मुख्य उद्देश्य वनों से प्राप्त वस्तुओं के सम्बन्ध में अनुसन्धान करना एवं वनों के सम्बन्ध में शिक्षा देना है। इस संस्थान के चार क्षेत्रीय केन्द्र बंगलौर, कोयम्बटूर, जबलपुर व बुर्नीहट में हैं। यह संस्था वन- रक्षकों एवं राज्य सरकारों के वन विभाग के अधिकारियों को प्रशिक्षण देने का कार्य करती है।

(4) काष्ठ-कला प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना- राज्य सरकारों के अधिकारी एवं अन्य कर्मचारियों को लकड़ी काटने का प्रशिक्षण देने के लिए 1965 में देहरादून में एक काष्ठ-कला प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किया गया। यह संस्था लकड़ी प्राप्त करने के आधुनिक तरीकों के विभिन्न पहलुओं के सम्बन्ध में प्रशिक्षण देती है।

(5) राज्य वन विकास निगमों की स्थापना- राज्यों के द्वारा वनों को ठेके पर उठाया जाता है और फिर ठेकेदार वनों से लकड़ी आदि काटते हैं। गत वर्षों में सरकार की नीति रही है कि प्रत्येक राज्य में वाणिज्यिक वन विकास निगम बनाये जायें जिससे कि ठेकेदार प्रथा को समाप्त किया जा सके। अब तक 19 राज्यों में विकास निगम बन चुके हैं।

(6) वन महोत्सव – कृषि मंत्री के.एम. मुन्शी ने 1950 में ‘अधिक वृक्ष लगाओं आन्दोलन’ चालू किया था जिसका नाम ‘वन महोत्सव’ रखा गया। इस आन्दोलन का उद्देश्य मानव द्वारा निर्मित वनों का क्षेत्रफल बढ़ाना व जनता में वृक्षारोपण की प्रवृत्ति पैदा करना है। यह आन्दोलन अभी चालू है। प्रति वर्ष पूरे देश में 1 जुलाई से 7 जुलाई तक वन महोत्सव कार्यक्रम मनाया जाता है।

(7) भारतीय वन प्रबन्धन संस्थान की स्थापना- 1978 में Swedish International Development Agency के सहयोग से ‘भारतीय वन प्रबन्धन संस्थान’ नामक एक संस्थान अहमदाबाद में स्थापित किया गया है जिसका कार्य कर्मचारियों को वन संसाधन प्रबन्ध की आधुनिक व्यवसाय सम्बन्धी बातों की जानकारी देना है।

(8) भारतीय वन प्रबन्धन संसाधन, संस्थान भोपाल की स्थापना – केन्द्रीय सरकार ने भोपाल (मध्य प्रदेश) में एक वन प्रबन्धन संसाधन संस्थान स्थापित किया है। यह संस्थान एशिया में व शायद विश्व में प्रथम संस्थान है, जो अनुसन्धान व केस स्टडी के आधार पर पढ़ाने का कार्य करता है। यह विभिन्न स्तरों पर प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाता है तथा ‘वन प्रबन्ध’ पर स्नातकोत्तर व डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान करने की व्यवस्था कर रहा है।

(9) वन संरक्षण अधिनियम- केन्द्रीय सरकार ने 1980 में वन संरक्षण अधिनियम पारित कर लागू किया है जिसके अनुसार किसी भी वन भूमि को सरकार की अनुमति के बिना कृषि भूमि में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। 1988 में इस अधिनियम में संशोधन कर इसे और कारगर बना दिया गया है।

यह भी पढ़ें : वन संसाधन रिपोर्ट : 2019

FAQs

Q1. हिमालय की प्रमुख लकड़ियाँ कौन सी हैं?
Ans.
चीड़, देवदार, और बांस।

Q2. हिमालय में लकड़ी का उपयोग किस लिए किया जाता है?
Ans.
  निर्माण, ईंधन, और औषधीय उपयोग के लिए।

Q3. हिमालय की लकड़ियों का संरक्षण क्यों आवश्यक है?
Ans.
पारिस्थितिकी संतुलन और जैव विविधता के लिए।

Q4. हिमालय में कौन सी लकड़ी औषधीय गुणों के लिए जानी जाती है?
Ans.
हिमालयन यव (चीड़)।

Q5. हिमालय की लकड़ियों का वनों की कटाई पर क्या प्रभाव है?
Ans.
वनों की कटाई से पर्यावरणीय असंतुलन होता है।

Q6. हिमालय में लकड़ी की खेती के लिए कौन सी तकनीकें अपनाई जाती हैं?
Ans.
सिल्विकल्चर और पुनर्वनीकरण।

Q7. हिमालय की लकड़ियों का स्थानीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव है?
Ans.
रोजगार सृजन और आय का स्रोत।

Q8. हिमालय में लकड़ी की अवैध कटाई के क्या परिणाम हैं?
Ans.
पर्यावरणीय क्षति और जैव विविधता का नुकसान।

Q9. हिमालय की लकड़ियों का निर्यात किस प्रकार किया जाता है?
Ans.
लकड़ी के उत्पादों के रूप में।

Q10. हिमालय में लकड़ी के संरक्षण के लिए कौन से आंदोलन हुए हैं?
Ans.
चिपको आंदोलन।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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