अकबरी लोटा : अध्याय 10

लाला झाऊलाल को खाने-पीने की कमी नहीं थी। काशी के ठठेरी बाजार में मकान था। नीचे की दुकानों से एक सौ रुपये मासिक के करीब किराया उतर आता था। अच्छा खाते थे, अच्छा पहनते थे, पर ढाई सौ रुपये तो एक साथ आँख सेंकने के लिए भी न मिलते थे।

इसलिए जब उनकी पत्नी ने एक दिन एकाएक ढाई सौ रुपये की माँग पेश की, तब उनका जी एक बार जोर से सनसनाया और फिर बैठ गया। उनकी यह दशा देखकर पत्नी ने कहा- “डरिए मत, आप देने में असमर्थ हों तो मैं अपने भाई से माँग लूँ?”

लाला झाऊलाल तिलमिला उठे। उन्होंने रोब के साथ कहा- “अजी हटो, ढाई सौ रुपये के लिए भाई से भीख माँगोगी, मुझसे ले लेना।”

“लेकिन मुझे इसी जिंदगी में चाहिए।”

“अजी इसी सप्ताह में ले लेना।”

“सप्ताह से आपका तात्पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?”

लाला झाऊलाल ने रोब के साथ खड़े होते हुए कहा- “आज से सातवें दिन मुझसे ढाई सौ रुपये ले लेना।”

लेकिन जब चार दिन ज्यों-त्यों में यों ही बीत गए और रुपयों का कोई प्रबंध न हो सका तब उन्हें चिंता होने लगी। प्रश्न अपनी प्रतिष्ठा का था, अपने ही घर में अपनी साख का था। देने का पक्का वादा करके अगर अब दे न सके तो अपने मन में वह क्या सोचेगी? उसकी नज़रों में उसका क्या मूल्य रह जाएगा? अपनी वाहवाही की सैकड़ों गाथाएँ सुना चुके थे। अब जो एक काम पड़ा तो चारों खाने चित हो रहे। यह पहली बार उसने मुँह खोलकर कुछ रुपयों का सवाल किया था। इस समय अगर दुम दबाकर निकल भागते हैं तो फिर उसे क्या मुँह दिखलाएँगे?

खैर, एक दिन और बीता। पाँचवें दिन घबराकर उन्होंने पं. बिलवासी मिश्र को अपनी विपदा सुनाई। संयोग कुछ ऐसा बिगड़ा था कि बिलवासी जी भी उस समय बिलकुल खुक्ख थे। उन्होंने कहा- “मेरे पास हैं तो नहीं पर मैं कहीं से माँग जाँचकर लाने की कोशिश करूँगा और अगर मिल गया तो कल शाम को तुमसे मकान पर मिलूँगा।”

वही शाम आज थी। हफ़्ते का अंतिम दिन। कल ढाई सौ रुपये या तो गिन देना है या सारी हेंकड़ी से हाथ धोना है। यह सच है कि कल रुपया न आने पर उनकी स्त्री उन्हें डामलफाँसी न कर देगी केवल जरा-सा हँस देगी। पर वह कैसी हँसी होगी, कल्पना मात्र से झाऊलाल में मरोड़ पैदा हो जाती थी।

आज शाम को पं. बिलवासी मिश्र को आना था। यदि न आए तो? या कहीं रुपये का प्रबंध वे न कर सके ?

इसी उधेड़-बुन में पड़े लाला झाऊलाल छत पर टहल रहे थे। कुछ प्यास मालूम हुई। उन्होंने नौकर को आवाज़ दी। नौकर नहीं था, खुद उनकी पत्नी पानी लेकर आईं।

वह पानी तो जरूर लाई पर गिलास लाना भूल गई थीं। केवल लोटे में पानी लिए वह प्रकट हुईं। फिर लोटा भी संयोग से वह जो अपनी बेढंगी सूरत के कारण लाला झाऊलाल को सदा से नापसंद था। था तो नया, साल दो साल का ही बना पर कुछ ऐसी गढ़न उस लोटे की थी कि उसका बाप डमरू, माँ चिलम रही हो।

लाला ने लोटा ले लिया, बोले कुछ नहीं, अपनी पत्नी का अदब मानते थे। मानना ही चाहिए। इसी को सभ्यता कहते हैं। जो पति अपनी पत्नी का न हुआ, वह पति कैसा? फिर उन्होंने यह भी सोचा कि लोटे में पानी दे, तब भी गनीमत है, अभी अगर चूँ कर देता हूँ तो बालटी में भोजन मिलेगा। तब क्या करना बाकी रह जाएगा?

लाला अपना गुस्सा पीकर पानी पीने लगे। उस समय वे छत की मुँडेर के पास ही खड़े थे। जिन बुजुर्गों ने पानी पीने के संबंध में यह नियम बनाए थे कि खड़े-खड़े पानी न पियो, सोते समय पानी न पियो, दौड़ने के बाद पानी न पियो, उन्होंने पता नहीं कभी यह भी नियम बनाया या नहीं कि छत की मुँडेर के पास खड़े होकर पानी न पियो। जान पड़ता है कि इस महत्वपूर्ण विषय पर उन लोगों ने कुछ नहीं कहा है।

लाला झाऊलाल मुश्किल से दो-एक घूँट पी पाए होंगे कि न जाने कैसे उनका हाथ हिल उठा और लोटा छूट गया।

लोटे ने दाएँ देखा न बाएँ, वह नीचे गली की ओर चल पड़ा। अपने वेग में उल्का को लजाता हुआ वह आँखों से ओझल हो गया। किसी जमाने में न्यूटन नाम के किसी खुराफाती ने पृथ्वी की आकर्षण शक्ति नाम की एक चीज़ ईजाद की थी। कहना न होगा कि यह सारी शक्ति इस समय लोटे के पक्ष में थी।

लाला को काटो तो बदन में खून नहीं। ऐसी चलती हुई गली में ऊँचे तिमंजले से भरे हुए लोटे का गिरना हँसी-खेल नहीं। यह लोटा न जाने किस अनाधिकारी के झोंपड़े पर काशीवास का संदेश लेकर पहुँचेगा।

कुछ हुआ भी ऐसा ही। गली में ज़ोर का हल्ला उठा। लाला झाऊलाल जब तब दौड़कर नीचे उतरे तब तक एक भारी भीड़ उनके आँगन में घुस आई।

लाला झाऊलाल ने देखा कि इस भीड़ में प्रधान पात्र एक अंग्रेज है जो नखशिख से भीगा हुआ है और जो अपने एक पैर को हाथ से सहलाता हुआ दूसरे पैर पर नाच रहा है। उसी के पास अपराधी लोटे को भी देखकर लाला झाऊलाल जी ने फौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया।

गिरने के पूर्व लोटा एक दुकान के सायबान से टकराया। वहाँ टकराकर उस दुकान पर खड़े उस अंग्रेज़ को उसने सांगोपांग स्नान कराया और फिर उसी के बूट पर आ गिरा।

उस अंग्रेज़ को जब मालूम हुआ कि लाला झाऊलाल ही उस लोटे के मालिक हैं तब उसने केवल एक काम किया। अपने मुँह को खोलकर खुला छोड़ दिया। लाला झाऊलाल को आज ही यह मालूम हुआ कि अंग्रेजी भाषा में गालियों का ऐसा प्रकांड कोष है।

इसी समय पं. बिलवासी मिश्र भीड़ को चीरते हुए आँगन में आते दिखाई पड़े। उन्होंने आते ही पहला काम यह किया कि उस अंग्रेज़ को छोड़कर और जितने आदमी आँगन में घुस आए थे, सबको बाहर निकाल दिया। फिर आँगन में कुर्सी रखकर उन्होंने साहब से कहा- “आपके पैर में शायद कुछ चोट आ गई है। अब आप आराम से कुर्सी पर बैठ जाइए।”

साहब बिलवासी जी को धन्यवाद देते हुए बैठ गए और लाला झाऊलाल की और इशारा करके बोले- “आप इस शख्स को जानते हैं?”

“बिलकुल नहीं। और मैं ऐसे आदमी को जानना भी नहीं चाहता जो निरीह राह चलतों पर लोटे के वार करे।”

“मेरी समझ में ‘ही इज ए डेंजरस ल्यूनाटिक’ (यानी, यह खतरनाक पागल है)।”

“नहीं, मेरी समझ में ‘ही इज ए डेंजरस क्रिमिनल’ (नहीं, यह खतरनाक मुजरिम है)।”

परमात्मा ने लाला झाऊलाल की आँखों को इस समय कहीं देखने के साथ खाने की भी शक्ति दे दी होती तो यह निश्चय है कि अब तक बिलवासी जी को वे अपनी आँखों से खा चुके होते। वे कुछ समझ नहीं पाते थे कि बिलवासी जी को इस समय क्या हो गया है।

साहब ने बिलवासी जी से पूछा “तो क्या करना चाहिए?”

“पुलिस में इस मामले की रिपोर्ट कर दीजिए जिससे यह आदमी फौरन हिरासत में ले लिया जाए।”

“पुलिस स्टेशन है कहाँ?”

“पास ही है, चलिए मैं बताऊँ”

“चलिए।”

“अभी चला। आपकी इजाजत हो तो पहले मैं इस लोटे को इस आदमी से खरीद लूँ। क्यों जी बेचोगे? मैं पचास रुपये तक इसके दाम दे सकता हूँ।”

लाला झाऊलाल तो चुप रहे पर साहब ने पूछा- “इस रद्दी लोटे के आप पचास रुपये क्यों दे रहे हैं?”

“आप इस लोटे को रद्दी बताते हैं? आश्चर्य! मैं तो आपको एक विज्ञ और सुशिक्षित आदमी समझता था।”

“आखिर बात क्या है, कुछ बताइए भी।”

“जनाब यह एक ऐतिहासिक लोटा जान पड़ता है। जान क्या पड़ता है, मुझे पूरा विश्वास है। यह वह प्रसिद्ध अकबरी लोटा है जिसकी तलाश में संसार-भर के म्यूजियम परेशान हैं।”

“यह बात?”

“जी, जनाब। सोलहवीं शताब्दी की बात है। बादशाह हुमायूँ शेरशाह से हारकर भागा था और सिंध के रेगिस्तान में मारा-मारा फिर रहा था। एक अवसर पर प्यास से उसकी जान निकल रही थी। उस समय एक ब्राह्मण ने इसी लोटे से पानी पिलाकर उसकी जान बचाई थी। हुमायूँ के बाद अकबर ने उस ब्राह्मण का पता लगाकर उससे इस लोटे को ले लिया और इसके बदले में उसे इसी प्रकार के दस सोने के लोटे प्रदान किए। यह लोटा सम्राट अकबर को बहुत प्यारा था। इसी से इसका नाम अकबरी लोटा पड़ा। वह बराबर इसी से वजू करता था। सन् 57 तक इसके शाही घराने में रहने का पता है। पर इसके बाद लापता हो गया। कलकत्ता के म्यूजियम में इसका प्लास्टर का मॉडल रखा हुआ है। पता नहीं यह लोटा इस आदमी के पास कैसे आया? म्यूजियम वालों को पता चले तो फैसी दाम देकर खरीद ले जाएँ।

इस विवरण को सुनते-सुनते साहब की आँखों पर लोभ और आश्चर्य का ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे कौड़ी के आकार से बढ़कर पकौड़ी के आकार की हो गईं। उसने बिलवासी जी से पूछा- “तो आप इस लोटे का क्या करिएगा?”

“मुझे पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह का शौक है।”

“मुझे भी पुरानी और ऐतिहासिक चीज़ों के संग्रह करने का शौक है। जिस समय यह लोटा मेरे ऊपर गिरा था, उस समय मैं यही कर रहा था। उस दुकान से पीतल की कुछ पुरानी मूर्तियाँ खरीद रहा था।”

“जो कुछ हो, लोटा मैं ही खरीदूँगा।”

“वाह, आप कैसे खरीदेंगे, मैं खरीदूँगा, यह मेरा हक है।”

“हक है?”

“जरूर हक है। यह बताइए कि उस लोटे के पानी से आपने स्नान किया

या मैंने?”

“आपने।”

“वह आपके पैरों पर गिरा या मेरे?”

“आपके।”

“अँगूठा उसने आपका भुरता किया या मेरा?”

“आपका।”

“इसलिए उसे खरीदने का हक मेरा है।”

“यह सब बकवास है। दाम लगाइए, जो अधिक दे, वह ले जाए।”

“यही सही। आप इसका पचास रुपया लगा रहे थे, मैं सौ देता हूँ।”

“मैं डेढ़ सौ देता हूँ।”

“मैं दो सौ देता हूँ।”

“अजी मैं ढाई सौ देता हूँ।” यह कहकर बिलवासी जी ने ढाई सौ के नोट लाला झाऊलाल के आगे फेंक दिए।

साहब को भी ताव आ गया। उसने कहा “आप ढाई सौ देते हैं, तो मैं पाँच सौ देता हूँ। अब चलिए।”

बिलवासी जी अफ़सोस के साथ अपने रुपये उठाने लगे, मानो अपनी आशाओं की लाश उठा रहे हों। साहब की ओर देखकर उन्होंने कहा-“लोटा आपका हुआ, ले जाइए, मेरे पास ढाई सौ से अधिक नहीं हैं।”

यह सुनना था कि साहब के चेहरे पर प्रसन्नता की कैंची गिर गई। उसने झपटकर लोटा लिया और बोला- “अब मैं हँसता हुआ अपने देश लौटूंगा। मेजर डगलस की डींग सुनते-सुनते मेरे कान पक गए थे।”

“मेजर डगलस कौन हैं?”

“मेजर डगलस मेरे पड़ोसी हैं। पुरानी चीज़ों के संग्रह करने में मेरी उनकी होड़ रहती है। गत वर्ष वे हिंदुस्तान आए थे और यहाँ से जहाँगीरी अंडा ले गए थे।”

“जहाँगीरी अंडा?”

“हाँ, जहाँगीरी अंडा। मेजर डगलस ने समझ रखा था कि हिंदुस्तान से वे ही अच्छी चीजें ले सकते हैं।”

“पर जहाँगीरी अंडा है क्या?”

“आप जानते होंगे कि एक कबूतर ने नूरजहाँ से जहाँगीर का प्रेम कराया था। जहाँगीर के पूछने पर कि मेरा एक कबूतर तुमने कैसे उड़ जाने दिया, नूरजहाँ ने उसके दूसरे कबूतर को उड़ाकर बताया था, कि ऐसे। उसके इस भोलेपन पर जहाँगीर दिलोजान से निछावर हो गया। उसी क्षण से उसने अपने को नूरजहाँ के हाथ कर दिया। कबूतर का यह अहसान वह नहीं भूला। उसके एक अंडे को बड़े जतन से रख छोड़ा। एक बिल्लोर की हाँडी में वह उसके सामने टँगा रहता था। बाद में वही अंडा “जहाँगीरी अंडा” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी को मेजर डगलस ने पारसाल दिल्ली में एक मुसलमान सज्जन से तीन सौ रुपये में खरीदा।”

“यह बात?”

“हाँ, पर अब मेरे आगे दून की नहीं ले सकते। मेरा अकबरी लोटा उनके जहाँगीरी अंडे से भी एक पुश्त पुराना है।”

“इस रिश्ते से तो आपका लोटा उस अंडे का बाप हुआ।”

साहब ने लाला झाऊलाल को पाँच सौ रुपये देकर अपनी राह ली। लाला झाऊलाल का चेहरा इस समय देखते बनता था। जान पड़ता था कि मुँह पर छह दिन की बढ़ी हुई दाढ़ी का एक-एक बाल मारे प्रसन्नता के लहरा रहा है। उन्होंने पूछा- “बिलवासी जी! मेरे लिए ढाई सौ रुपया घर से लेकर आए! पर आपके पास तो थे नहीं।”

“इस भेद को मेरे सिवाए मेरा ईश्वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए, मैं नहीं बताऊँगा।”

“पर आप चले कहाँ? अभी मुझे आपसे काम है दो घंटे तक।”

“दो घंटे तक?”

“हाँ, और क्या, अभी मैं आपकी पीठ ठोककर शाबाशी दूँगा, एक घंटा इसमें लगेगा। फिर गले लगाकर धन्यवाद दूँगा, एक घंटा इसमें भी लग जाएगा।”

“अच्छा पहले पाँच सौ रुपये गिनकर सहेज लीजिए।”

“रुपया अगर अपना हो, तो उसे सहेजना एक ऐसा सुखद मनमोहक कार्य है कि मनुष्य उस समय सहज में ही तन्मयता प्राप्त कर लेता है। लाला झाऊलाल ने अपना कार्य समाप्त करके ऊपर देखा। पर बिलवासी जी इस बीच अंतर्धान हो गए।”

उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई। वे चादर लपेटे चारपाई पर पड़े रहे। एक बजे वे उठे। धीरे, बहुत धीरे से अपनी सोई हुई पत्नी के गले से उन्होंने सोने की वह सिकड़ी निकाली जिसमें एक ताली बँधी हुई थी। फिर उसके कमरे में जाकर उन्होंने उस ताली से संदूक खोला। उसमें ढाई सौ के नोट ज्यों-के-त्यों रखकर उन्होंने उसे बंद कर दिया। फिर दबे पाँव लौटकर ताली को उन्होंने पूर्ववत अपनी पत्नी के गले में डाल दिया। इसके बाद उन्होंने हँसकर अँगड़ाई ली। दूसरे दिन सुबह आठ बजे तक चैन की नींद सोए।

यह भी पढ़ें : जहां पहिया है : अध्याय 9

प्रश्न – अभ्यास

कहानी की बात

1. “लाला ने लोटा ले लिया, बोले कुछ नहीं, अपनी पत्नी का अदब मानते थे।”

लाला झाऊलाल को बेढंगा लोटा बिलकुल पसंद नहीं था। फिर भी उन्होंने चुपचाप लोटा ले लिया। आपके विचार से वे चुप क्यों रहे? अपने विचार लिखिए।
Ans. ताला झाऊलाल को वह बेढंगा लोटा पसंद न था, फिर भी उन्होंने चुपचाप लोटा ले लिया, किंतु अपनी पत्नी को कुछ भी न कहा क्योंकि वे अपनी पत्नी का अदब मानते थे इसके अलावा उन्हें अपनी पत्नी के तेजतर्रार स्वभाव का भी पता था. जिसके सामने वे कमज़ोर पडते घेउन्हें यह डर भी था कि यदि उन्होंने लोटे के बारे में कुछ कहा तो अगली बार शायद बाल्टी में खाना पडे अर्थात इससे भी बुरी स्थिति हो सकती थी

2. “लाला झाऊलाल जी ने फौरन दो और दो जोड़कर स्थिति को समझ लिया।” आपके विचार से लाला झाऊलाल ने कौन-कौन सी बातें समझ ली होंगी?
Ans.
दो और दो जोडकर स्थिति को समझना अर्थात् परिस्थिति को भाँप जाना। लोटा गिरने पर गली में मचे शोर को सुनकर आँगन में एकत्र हो गई। एक अंग्रेज को भीगे हुए तथा पैर सहलाते हुए देखकर ताला समझ गए कि स्थिति गंभीर है और लोटा अंग्रेज को लगा है। इस समय उनका चुप रहना ही ठीक है।

3. अंग्रेज्ज के सामने बिलवासी जी ने झाऊलाल को पहचानने तक से क्यों इनकार कर दिया था? आपके विचार से बिलवासी जी ऐसा अजीब व्यवहार क्यों कर रहे थे? स्पष्ट कीजिए।
Ans.
अंग्रेज के सामने बिलवासी मिश्र, झाऊलात को पहचानने से इंकार करते हुए अजीब सा व्यवहार इसलिए कर रहे थे, जिससे अंग्रेज को तनिक भी शक न हो कि मेरे साथ की गई हमदर्दी दिखावा मात्र हैबिलवासी जी यह सोच रहेथे कि इस प्रकार के व्यवहार से अंग्रेज का क्रोध शांत हो जाएगा तथा यह गंभीर मामला शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा तथा किसी को उपहास उड़ाने का अवसर भी नहीं मिलेगा।

4. बिलवासी जी ने रुपयों का प्रबंध कहाँ से किया था? लिखिए।
Ans.
बितवासी जी ने लाता झाऊलाल को देने के लिए रुपयों का प्रबंध अपनी पत्नी की संदूक से चोरी करके कियाइसके लिए उन्होंने अपनी सोती हुई पत्नी के गले में पड़ी चेन से ताली निकाली ओर चुपचाप संदूक से रुपये निकालकर उसे बंद कर दियालाला झाऊलाल के लिए रुपये का इंतजाम अंग्रेज के माध्यम से हो जाने पर उन्होंने वे रुपए उसी तरह वापस रख दिये और उनकी पत्नी न जान सकी।

5. आपके विचार से अंग्रेज ने यह पुराना लोटा क्यों खरीद लिया? आपस में चर्चा करके वास्तविक कारण की खोज कीजिए और लिखिए।
Ans.
अंग्रेज़ को पुरानी ऐतिहासिक चीजें इकट्ठा करने का शौक था। उसके एक मित्र ने 300 रूपए देकर एक जहाँगीरी अंडा खरीदा था। उसे हीन दिखाने के लिए अंग्रेज़ ने यह लोटा, अकबरी लोटा समझकर 500 रूपए में खरीदा।

अनुमान और कल्पना

1. “इस भेद को मेरे सिवाए मेरा ईश्वर ही जानता है। आप उसी से पूछ लीजिए। मैं नहीं बताऊँगा।”

बिलवासी जी ने यह बात किससे और क्यों कही? लिखिए।
Ans. यह बात पंडित बिलवासी मिश्र ने लाला झाऊलाल से कहीलाता झाऊलाल यह जानना चाहते थे कि उनके लिए रुपयों का प्रबंध कैसे किया था, तब उन्होंने कहा कि इस भेद को मेरे सिवा ईश्वर ही जानता हैआप उसी से पूछलेना ऐसा कहकर वह पत्नी से चोरी करके उसकी संदूक से रुपये निकालने की बात नहीं कहना वाहते थेइसके अलावा उन्हें घर पहुँचकर उन रुपयों को यथास्थान रखने की जल्दी भी थी, इसलिए ऐसा कहा

2. “उस दिन रात्रि में बिलवासी जी को देर तक नींद नहीं आई।”

समस्या झाऊलाल की थी और नीद बिलवासी की उड़ी तो क्यों? लिखिए।
Ans. “बिलवासी” जी ने अपने मित्र ‘लाला झाऊलाल” की सहायता करने के लिए अपनी पत्नी के संदूक से रूपए चुराए थे। “बिलवासी” जी अपनी पत्नी के सोने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वे चुपचाप उसी तरह रूपए संदूक में रखना चाहते थे। यहाँ समस्या झाऊलाल की नहीं बल्कि बिलवासी जी की थी। इसीलिए बिलवासी जी को उस रात देर तक नींद नहीं आ रही थी।

3. “लेकिन मुझे इसी जिंदगी में चाहिए।”
“अजी इसी सप्ताह में ले लेना।”
“सप्ताह से आपका तात्पर्य सात दिन से है या सात वर्ष से?”

झाऊलाल और उनकी पत्नी के बीच की इस बातचीत से क्या पता चलता है? लिखिए।
Ans. यहाँ झाऊलाल तथा उनकी पत्नी की बातचीत से ऐसा लगता है कि पत्नी को अपने पति झाऊताल के वादे पर भरोसा नहीं था। इस तरह की बातचीत का कारण यह भी हो सकता है कि उनकी पत्नी उन्हें उकसाकर उनसे रुपए लेना चाहती थी। उनकी पत्न्नि ने पहले भी कुछ माँगा होगा परन्तु उन्होंने हाँ करने के बाद भी लाकर नहीं दिया होगा।

क्या होता यदि

1. अंग्रेज लोटा न खरीदता?
Ans.
अंग्रेज लोटा न खरीदता तो बिलवासी जी जो रुपये अपनी पत्नी के संदूक से चोरी करके लाए थे वहीं रुपये लाला झाऊलाल को देते लाला झाऊलाल ये रुपये अपनी पत्नी को दे देते तथा बाद में रुपये का प्रबंध कर अपने मित्र बिलवासी मिश्र को दे देते इसके अलावा उन्हें अचानक यूँ पाँच सौ रुपये भी न मिल पाते

2. यदि अंग्रेज्ज पुलिस को बुला लेता?
Ans.
यदि अंग्रेज़ पुलिस को बुला लेता तो सम्भवतः लाला झाऊलाल को गिरफ्तार कर लिया जाता या उन्हें जुर्माना देना पड़ता। दोनों ही परिस्थितियों में लाला झाऊलात अपनी पत्नी को दिया हुआ वचन निभाने में असमर्थ होते।

3. जब बिलवासी अपनी पत्नी के गले से चाबी निकाल रहे थे, तभी उनकी पत्नी जाग जाती?
Ans
. जब बिलवासी जी अपनी पत्नी के गले से चाबी निकाल रहे होते और वह जाग जाती तो पति पत्नी के बीच झगड़ा होता, जिसमें उनकी पत्नी भारी पड़तीवे नाना प्रकार के प्रश्न पूछती और उनसे सब कुछ उगलवाकर ही रहती।

पता कीजिए

1. “अपने वेग में उल्का को लजाता हुआ वह आँखों से ओझल हो गया।” उल्का क्या होती है? उल्का और ग्रहों में कौन-कौन सी समानताएँ और अंतर होते हैं?
Ans.
उल्का किसी तारे का टुकड़ा होता है जो चट्टानों से बना होता है। यह तारे के चारों ओर अपने पथ पर घूमता है किंतु कभी-कभी यह टूटकर अलग हो जाता है और पृथ्वी की ओर तेजी से गिरने लगता है गिरते समय वायुमंडल में वायु से घर्षण के कारण यह तेजी से जलकर प्रकाश उत्पन्न करता है। इसे टूटतातारा भी कहते हैं।

ग्रह और उल्का में समानताएँ :

• दोनों का ही निर्माण चट्टान के कणों से हुआ है।

• दोनों ही किसी तारे के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं।

असमानताएँ

• ग्रहों का आकार काफी बड़ा, जबकि उल्का का आकार छोटा होता है।

• ग्रह अपनी धुरी पर चक्कर लगाते हैं, जबकि उल्काओं की कोई निश्चित धुरी नहीं होती है।

2. इस कहानी में आपने दो चीजों के बारे में मजेदार कहानियाँ पढ़ी-अकबरी लोटे की कहानी और जहाँगीरी अंडे की कहानी। आपके विचार से ये कहानियाँ सच्ची हैं या काल्पनिक ?
Ans.
यह कहानियाँ काल्पनिक हैं। जहाँगीरी अंडे की बात पूरी तरह से काल्पनिक है। क्योंकि एक अंडे को इतने दिनों तक संभालकर रखना सम्भव नहीं है तथा अकबरी लोटे के सम्बंध में भी कोई प्रमाण नहीं है।

3. अपने घर या कक्षा की किसी पुरानी चीज के बारे में ऐसी ही कोई मजेदार कहानी बनाइए।
Ans.
छात्र इसे स्वयं करेंगे।

4. बिलवासी जी ने जिस तरीके से रुपयों का प्रबंध किया, वह सही था या गलत ?
Ans.
बिलवासी जी ने चोरी करके रूपयों का प्रबंध किया। किसी की सहायता करने का यह तरीका गलत है। दूसरी ओर बिलवासी जी ने एक अंग्रेज़ से झूठ बोलकर भी रूपयों का प्रबंध किया था। यह भी गलत है। सम्भवतः उन्हें अपनी पत्नी को समझाकर उनसे रूपए माँगने चाहिए थे।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

1 thought on “अकबरी लोटा : अध्याय 10”

Leave a Comment