जीवोत्पत्ति एवं कोशिका विज्ञान : अध्याय- 1 भाग:1

जीवन की उत्पत्ति (Origin of life)

निर्जीव से सजीव की उत्पत्ति कैसे हुई? महाविस्फोट सिद्धान्त (Big Bang theory) के अनुसार ‘ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति’ आज से 15 अरब वर्ष पूर्व महाविस्फोट (Big-Bang) के फलस्वरूप हुई थी।* बिग-बैंग के लगभग 10.5 अरब वर्ष पश्चात् अर्थात् आज से 4.6 अरब वर्ष पूर्व सौरमंडल का विकास हुआ। जिसमें ग्रहों तथा उपग्रहों आदि का निर्माण हुआ। इस प्रकार पृथ्वी की उत्पत्ति आज से लगभग 4.6 अरब वर्ष पूर्व एक ज्वलित गैसीय पिण्ड से हुआ था।* लगभग 0.6 अरब वर्ष में उक्त गैसीय पिण्ड के ऊपर भू- पटल (Earth’s Crust) का निर्माण हुआ। भूपटल के निर्माण काल को अजीवी महाकल्प (Azoic era) की संज्ञा प्रदान की गई। भू-पटल की स्थापना से लेकर आज तक के पृथ्वी के इतिहास को जीवी महाकल्प (Zoic era) के रूप में अभिहित किया जाता है। जीवी महाकल्प के आर्कियोजोइक महाकल्प में अर्थात् आज से 3.8 अरब वर्ष पूर्व आदिसागर में ‘जीवन की उत्पत्ति’ सबसे पहले हुई थी।* इस परिप्रेक्ष्य में सबसे आधुनिक, विस्तृत और सर्वमान्य परिकल्पना रूसी जीव-रसायन शास्त्री ए.आई. औपैरिन (A.I. Oparin) ने सन् 1924 में भौतिकवाद या पदार्थवाद (Materialistic Theory) के नाम से अपनी पुस्तक ‘The Origin of Life’ में प्रस्तुत की।* इस परिकल्पना के अनुसार – ‘जीवन की उत्पत्ति’ कार्बनिक पदार्थो से

रासायनिक उ‌द्विकास (Chemical Evolution) के फलस्वरूप हुई है। सर्वप्रथम पृथ्वी का उद्भव अंतरिक्ष के एक ज्वलनशील एवं घूर्णनशील गैसीय पिण्ड से हुआ। उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि पृथ्वी के प्रारम्भिक वातावरण में (3000-6000 डिग्री सेंटीग्रेट ताप) गैसीय अवस्था में बहुत सारे तत्वों के अलावा उन सारे रासायनिक तत्वों (हाइड्रोजन, कार्बन, नाइट्रोजन, गंधक, फॉस्फोरस आदि) के स्वतंत्र परमाणु थे, जो जीवद्रव्य का प्रमुख संघटक होता है।

क्रमशः पृथ्वी ठंडी होती गई और इनके स्वतंत्र परमाणुओं ने पारस्परिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप तत्वों के साथ-साथ सरल अकार्बनिक यौगिकों का भी निर्माण किया। आदि वायुमण्डल वर्तमान उपचायक या ऑक्सीकारक (Oxidising) वायुमण्डल के विपरीत अपचायक (reducing) था, क्योंकि इसमें हाइड्रोजन के परमाणु संख्या में सबसे अधिक और सर्वाधिक क्रियाशील थे। * हाइड्रोजन ने ऑक्सीजन के सारे परमाणुओं से मिलकर जल (H₂O) बना लिया। अतः ऑक्सीजन (0₂) के स्वतंत्र परमाणु आदिवायुमण्डल में नहीं थे।* स्थलमण्डल इस समय भी बहुत गर्म था। अतः सारा जल वाष्प के रूप में वायुमण्डल में ही रहा। नाइट्रोजन के परमाणुओं ने अमोनिया (NH3) भी बनाई।

ताप के और कम होने पर अणुओं के पारस्परिक आकर्षण एवं प्रतिक्रिया के फलस्वरूप कार्बनिक यौगिकों (Organic Compounds) का निर्माण हुआ। जैसे – एमिनों एसिड, वसीय अम्ल, प्यूरिन्स, मीथेन और शुगर आदि । * इन सभी रासायनिक प्रतिक्रियाओं के लिए ऊर्जा कास्मिक किरणों और अल्ट्रावायलट किरणों से प्राप्त हुई। इन्हीं सब कार्बनिक यौगिकों के निर्माण के फलस्वरूप ‘जीवन की उत्पत्ति’ की सम्भव हुई, क्योंकि जीवद्रव्य के निर्माण में इन्हीं घटकों की आवश्यकता होती है।

परीक्षा दृष्टि
• हमारा ब्रह्माण्ड किससे बना है?
पदार्थ एवं ऊर्जा से।
• सजीव पदार्थ के संयोजन में कितने तत्व भाग लेते हैं?
27 तत्व
• सजीव पदार्थ के संयोजन में शीर्ष चार तत्व औसतन किस प्रतिशत मात्रा में मिले होते हैं?
ऑक्सीजन (65%), कार्बन (18.5%), हाइड्रोजन (10.5%) एवं नाइट्रोजन (3.3%)।
• लघु तत्व कैल्शियम एवं फॉस्फोरस सजीव पदार्थ के संयोजन में कितना योगदान करते हैं?
क्रमशः 1.5 एवं 1.0 प्रतिशत।
• सजीव पदार्थ में कौन से तत्व सदैव आयन के रूप में पाये जाते हैं?
सोडियम, पोटैशियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम तथा क्लोरीन।
• आदि वायुमण्डल कैसा था?
अपचायक

एक अमरीकी वैज्ञानिक स्टैनले मिलर (Stanley Miller) ने ओपैरिन की परिकल्पना कि ऊर्जा की उपस्थिति में, मीथेन, हाइड्रोजन, जलवाष्प एवं अमोनिया के संयोजन से अमीनो अम्लों, सरल शर्कराओं तथा अन्य कार्बनिक यौगिकों के निर्माण की सम्भावना को 1955 ई. में सिद्ध कर दिखाया। * उन्होंने एक विशेष वातावरण में अमोनिया, मीथेन, हाइड्रोजन एवं जलवाष्प के गैसीय मिश्रण में विद्युतधारा प्रवाहित की। इस प्रयोग के फलस्वरूप एक गहरा लाल रंग का तरल पदार्थ मिला और उसके विश्लेषण के फलस्वरूप यह निष्कर्ष निकला कि यह अमीनो अम्ल, सरल शर्कराओं, कार्बनिक अम्लों तथा अन्य कार्बनिक यौगिकों का मिश्रण था।

ओपैरिन के अनुसार, तत्पश्चात् कार्बनिक यौगिकों की इकाइयों ने पारस्परिक संयोजन से जटिल कार्बनिक यौगिकों के बहुलक (Polymers) बनाए, इस प्रकार शर्कराओं के अणुओं से मण्ड, ग्लाइकोजन एवं सेलुलोज आदि पॉलीसैकराइड्स तथा वसीय अम्लों एवं ग्लिसराल के अणुओं से वसाओं का निर्माण हुआ। इनमें प्रोटीन्स तथा न्यूक्लिक अम्लों की प्रतिक्रिया से न्यूक्लिओं प्रोटीन्स बनी, जिसमें स्वः द्विगुणन (Self-Duplication) की क्षमता थी। न्यूक्लिओ प्रोटीन्स के कणों के बनने के बाद झिल्लीयुक्त (Mem- brane bound) कोशारूपी आदिजीव का निर्माण हुआ। वह आदिजीव (आदिकोशाएं) आजकल के नीले-हरे शैवालों (Algae) जैसी थी। इनके द्वारा प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) क्रिया से वायुमण्डल में स्वतंत्र ऑक्सीजन (O₂) मुक्त हुआ। ऑक्सीजन ने आदिवायुमण्डल की मीथेन एवं अमोनिया को कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂), नाइट्रोजन और जल में विघटित किया। अतः वायुमण्डल का संयोजन वही हो गया जो आजकल वायुमण्डल में उपस्थित है। सभी ऑक्सीजन का उत्पादन प्रकाश-संश्लेषण करने वाले जीव ही करते हैं और ऑक्सीजन ने पूरे वातावरण को अपचायक से ऑक्सीकारक बना दिया। इन महत्वपूर्ण परिवर्तनों के कारण इसे ऑक्सीजन क्रान्ति (Oxygen revolution) कहा जाता है। * इस प्रकार जीवन का उद्भव जटिल रासायनिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुआ। इसलिए यह परिकल्पना ‘जीवन का रासायनिक संश्लेषण सिद्धांत’ के रूप में भी जानी जाती है।

परीक्षा दृष्टि
• सजीव पदार्थ कार्बनिक तथा अकार्बनिक नामक दो प्रकार के यौगिकों से बने होते हैं। इनमें कार्बनिक यौगिक अर्थात प्रोटीन्स, वसाएँ और कार्बोहाइड्रेट्स का सजीव के निर्माण में औसतन कितने प्रतिशत का योगदान होता है?
क्रमशः 14%; 3.0% एवं 1.0%
• सजीव में अकार्बनिक यौगिकों अर्थात जल और लवण, अम्ल एवं क्षार का निर्माण अंश में औसत योगदान कितना होता है?
क्रमशः 80.0% और 1.0%
• स्टैनले मिलर ने जीवन की उत्पत्ति सम्बन्धी ओपैरिन की परिकल्पना के सत्यापन हेतु किन पदार्थो के संयोजन से अमीनो अम्ल एवं सरल शर्करा आदि कार्बनिक पदार्थ का निर्माण किया था?
मीथेन, हाइड्रोजन, जलवाष्प,अमोनिया एवं विद्युत ऊर्जा की उपस्थिति में
• सजीव के कार्बनिक पदार्थो में किस पदार्थ की मात्रा सर्वाधिक होती है?
प्रोटीन (14%)
• किस विज्ञानी को विज्ञान (Science), जीव विज्ञान (Biology) और जन्तु विज्ञान (Zoology) तीनों का जनक माना जाता है?
अरस्तू

जीव विज्ञान

विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत जीवधारियों का अध्ययन किया जाता है, जीव विज्ञान कहलाती है। जीव विज्ञान शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम लैमार्क तथा ट्रेविरेनस ने 1802 में किया था।* जीव विज्ञान (Biology) शब्द दो ग्रीक शब्दों (Bios = life, जीवन तथा logos = study, अध्ययन) से मिलकर बना है। अध्ययन की सुविधा हेतु जीव विज्ञान को दो प्रमुख शाखाओं में विभक्त किया जाता है-

(क) वनस्पति विज्ञान (Botany), और

(ख) जन्तु विज्ञान (Zoology)।

‘बॉटनी’ (Botany) शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के ‘बास्कीन’ (Baskein), शब्द से हुई है जिसका अर्थ है, ‘चरना’। थियोफ्रेस्टस (Theophrastus, 370-285 B.C.) ने 500 प्रकार के पौधों का वर्णन अपनी पुस्तक ‘Historia Plantarum’ में किया है। इन्हें ‘वनस्पति विज्ञान का जनक’ (Father of Botany) कहा जाता है।* अरस्तू (Aristotle, 384-322, B.C.) ने अपनी पुस्तक ‘जन्तु इतिहास’ (Historia, animalium) में 500 जन्तुओं की रचना, स्वभाव, वर्गीकरण, जनन आदि का वर्णन किया है। अतः उन्हें ‘जन्तु विज्ञान का जनक’ (Father of Zoology) उपमा प्रदान किया जाता है।*

जीवधारियों के गुण

यदि हम किसी जीवधारी का रासायनिक विश्लेषण करें तो पायेंगे कि यह कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन व नाइट्रोजन, आदि उन्हीं तत्वों से बना होता है जो निर्जीव जगत में पाए जाते हैं। परंतु, केवल इन तत्वों के मिश्रण से ही कोई जीवधारी नहीं बन जाता है।

वास्तव में सभी सजीवों में कुछ ऐसे विशिष्ट गुण होते हैं जो निर्जीवों में नहीं पाए जाते। किसी भी वस्तु को, जिसमें कुछ विशिष्ट जैविक क्रियाएँ, जैसे वृद्धि-प्रचलन, श्वसन, पोषण, प्रजनन आदि हो रही हों, सजीव कहते हैं। इन जैविक क्रियाओं के आधार पर ही जीवों को निर्जीवों से अलग कर पाना संभव होता है। सजीवों में निम्नलिखित लक्षण होते हैं :

1. कोशिकीय संगठन (Cellular Organization) : जिस प्रकार मकान ईंटों से बना होता है, उसी प्रकार प्रत्येक जीव एक अथवा अनेक छोटी-छोटी कोशिकाओं से बना होता है। कोशिकाएं शरीर की रचनात्मक व कार्यात्मक इकाई हैं।

2. जीवद्रव्य (Protoplasm): प्रत्येक कोशिका में जैव पदार्थ होता है जिसे जीवद्रव्य कहते हैं। यह सभी जीवधारियों में पाया जाने वाला वास्तविक जीवित पदार्थ है। यह सभी जीवों की भौतिक आधारशिला है। इसे जैविक क्रियाओं का केंद्र कहते हैं। यह एक तरल गाढ़ा, रंगहीन, लसलसा व जलयुक्त पदार्थ है। इसकी रचना कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन व अकार्बनिक लवणों द्वारा होती है। जुलियस हक्सले के अनुसार, “जीवद्रव्य जीवन का भौतिक आधार है।”

3. आकृति एवं आकार (Shape and Size) : सभी जीवों की अलग-अलग विशिष्ट आकृति एवं आकार होते हैं। उन्हीं के आधार पर इनकी पहचान की जाती है। अर्थात् विविधता जीवधारियों का शाश्वत गुण है।

4. उपापचय (Metabolism): सजीवों की कोशिकाओं में होने वाले सम्पूर्ण जैव-रासायनिक क्रियाओं को उपापचय कहते हैं। यह क्रिया दो रूपों में सम्पन्न होती है। प्रथम को अपचय (Catabolism) कहते हैं, जो कि विनाशात्मक (destructive) क्रिया है। जैसे – श्वसन एवं उत्सर्जन । * दूसरी-रचनात्मक (Constructive) प्रक्रिया है, जिसे उपचय (Anabolism) की संज्ञा प्रदान की जाती है। जैसे- पोषण । * इसीलिए सजीव कोशिकाओं को ‘लघु रासायनिक उद्योगशालाओं’ (Miniature Chemical Factories) की उपमा प्रदान की गयी है।*

5. श्वसन (Respiration): जीवधारियों का मुख्य लक्षण श्वसन है। इस क्रिया में जीव वायुमंडल से ऑक्सीजन लेते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) छोड़ते हैं। श्वसन के दौरान वसा, कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन का विघटन होता है और ऊर्जा निकलती है। यह ऊर्जा एटीपी (ATP = Adenosine tri-Phosphate) के रूप में निकलती है जिससे संपूर्ण जैविक क्रियाएं चलती हैं।

6. प्रजनन (Reproduction): प्रत्येक जीव प्रजनन-क्रिया के माध्यम से अपने ही सदृश्य जीव उत्पन्न करते हैं। इस क्रिया के द्वारा ही वह अपने वंश को बनाये रखते हैं।

7. पोषण (Nutrition) : प्रत्येक जीव अपने क्रिया-कलापों के लिए आवश्यक ऊर्जा पोषण द्वारा प्राप्त करते हैं। पौधे अपना भोजन प्रकाश-संश्लेषण की विधि से बनाते हैं जबकि जंतु पौधों पर ही आश्रित रहते हैं। निर्जीव वस्तुओं में इस प्रकार से भोजन बनाने का गुण नहीं होता है।

8. अनुकूलन (Adaptation) : जीवों में यह क्षमता होती है कि वे जीवन-संघर्ष में सफल होने के लिए अपनी संरचनाओं एवं कार्यों में परिवर्तन कर लेते हैं।

9. संवेदनशीलता (Sensitivity): जीव संवेदनशील होते हैं। वे वातावरण में होने वाले परिवर्तन का अनुभव करते हैं तथा उनके अनुसार अपने को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक परिवर्तन कर लेते हैं।

10. उत्सर्जन (Excretion): सभी जीवधारियों द्वारा शरीर में उपस्थित हानिकारक पदार्थ-CO₂, यूरिक अम्ल आदि-बाहर निकाले जाते हैं। सजीवों द्वारा सम्पन्न हुई यह क्रिया उत्सर्जन कहलाती है।

11. जीवन-चक्र (Life-cycle): सभी जीवधारी अत्यंत सूक्ष्म भ्रूण के रूप में जीवन प्रारंभ करते हैं तथा पोषण, वृद्धि तथा संतानोत्पत्ति के बाद नष्ट हो जाते हैं। संतान-वृद्धि कर पुनः इसी जीवन-मरण के चक्र को पूरा करते हैं। कछुआ की जीवन अवधि 200-300 वर्ष, पीपल वृक्ष का 200 वर्ष, साइकस का 500-1000 वर्ष, सिकोया वृक्ष का 800-1500 वर्ष तक हो सकती है।

परीक्षा दृष्टि
• जीवाश्मिकी के जनक की उपमा किसे प्रदान की गयी है?
लियानाडों डी विन्सी को
• सम्पूर्ण जैविक प्रक्रिया के संचालन हेतु ऊर्जा या ईंधन कोशिकाओं में किस रूप में उपस्थित होता है?
ए.टी.पी. के रूप में

आधुनिक जीव विज्ञान

आधुनिक जीवविज्ञान में कुछ ऐसे एकीकरण (Unifying) सिद्धान्तों को मान्यता दी गई है जो सभी जीवों पर समान रूप से लागू होते हैं। यथा-

➤ संगठन का सिद्धान्त

इसके अनुसार “जीवन” से सम्बन्धित सारी प्रक्रियाएँ रासायनिक एवं भौतिक सिद्धान्तों पर आधारित होती हैं। दूसरे शब्दों में जैव- क्रियाएँ जीव पदार्थ के घटकों पर नहीं, वरन् इसके भौतिक एवं रासायनिक संगठन पर निर्भर करती हैं। यदि हमें इस संगठन का पूरा ज्ञान हो जाए तो हम परखनली में “जीव की उत्पत्ति” कर सकते हैं।

➤ जीवांत-जीवोत्पत्ति का सिद्धान्त

वैज्ञानिक मानते हैं कि “जीव पदार्थ” की उत्पत्ति निर्जीव पदार्थ के संगठन में क्रमिक विकास से हुई है। ऐसे “रासायनिक उद्विकास (Chemical evolution)” के लिए आवश्यक वातावरणीय दशाएँ पृथ्वी पर अब नहीं है, अरबों साल पहले आदिपृथ्वी पर थीं। वर्तमान दशाओं में पृथ्वी पर नए जीवों की उत्पत्ति केवल पहले से विद्यमान जीवों से ही हो सकती है। वर्तमान विषाणुओं को हम चाहे सूक्ष्मतम् जीव मानें या न मानें, इनकी उत्पत्ति भी पहले से विद्यमान विषाणुओं से ही हो सकती है। ध्यातव्य है कि 17 वीं शताब्दी के इटली के वैज्ञानिक फ्रेनसेस्को रेडी ने प्रयोग के आधार पर यह सिद्ध कर दिया था कि “जीव की उत्पत्ति जीव से ही सम्भव है निर्जीव वस्तुओं से नहीं।”

➤ कोशिका मत

यह सिद्धान्त श्लाइडेन और श्वान ने दिया कि सारे जीवों (जन्तु, पादप, जीवाणु या बैक्टीरिया आदि) में शरीर एक या अधिक कोशिकाओं और इनसे उत्पादित पदार्थों का बना होता है। नई कोशिकाएँ केवल पहले से विद्यमान कोशिकाओं के विभाजन से बन सकती हैं। समस्त कोशिकाओं की भौतिक संरचना, रासायनिक संघठन एवं उपापचय (metabolism) में एक मूल समानता होती है तथा किसी भी बहुकोशिकीय जीव का “जीवन” इसके शरीर की समस्त कोशिकाओं की क्रियाओं का योग होता है।

➤ जैव-विकास मत

प्रकृति में आज विद्यमान विविध प्रकार के जीवों में से किसी की भी नवीन (de novo) सृष्टि नहीं हुई है- इन सबकी उत्पत्ति किसी-न- किसी समय रचना में अपेक्षाकृत सरल पूर्वजों से ही, किंचित् परिवर्तनों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचय के फलस्वरूप हुई है।

➤ जीन मत

पीढ़ी-दर-पीढ़ी, माता-पिता (जनकों) के लक्षण सन्तानों में कैसे जाते हैं? इसके लिए चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) ने अपने “सर्वजनन मत (Theory of Pangenesis)” में कहा कि माता-पिता के शरीर का प्रत्येक भाग अपने अतिसूक्ष्म नमूने या प्रतिरूप (models) बनाता है जो अण्डाणुओं (ova) एवं शुक्राणुओं (Sperms) में समाविष्ट होकर सन्तानों में चले जाते हैं। ऑगस्त वीजमान (August Weismann, 1886) ने अपने “जननद्रव्य प्रवाह मत (Theory of Continuity of Germplasm)” में कहा कि अण्डे से नए जीव शरीर के भ्रूणीय परिवर्धन के दौरान, प्रारम्भ में ही “जननद्रव्य (germplasm)” “देहद्रव्य (Somatoplasm)” से पृथक हो जाता है। यही जननद्रव्य सन्तानों में प्रदर्शित होने वाले लक्षणों को जनकों से ले जाता है। अब हम स्पष्ट जान गए हैं कि यह

जननद्रव्य कोशिकाओं के केन्द्रक में उपस्थित गुणसूत्रों (chromosomes) के डी.एन.ए. (DNA) अणुओं के रूप में होता है और इन अणुओं के सूक्ष्म खण्ड, जिन्हें जीन्स (genes) कहते हैं, आनुवंशिक लक्षणों को जनकों से सन्तानों में ले जाते हैं। जीन्स में ही किंचित परिवर्तनों के संचित होते रहने से समान पूर्वजों से नई-नई जीव-जातियों का उद्विकास होता है।*

➤ एन्जाइम मत

प्रत्येक जीव कोशिका में प्रतिपल हजारों रासायनिक अभिक्रियाएँ होती रहती हैं। इन्हें सामूहिक रूप से कोशिका का उपापचय (metabolism) कहते हैं। प्रत्येक अभिक्रिया एक विशेष कार्बनिक उत्प्रेरक की मध्यस्थता के कारण सक्रिय होकर पूरी होती है।

➤ जैव रासायनिक आनुवंशिकी

जार्ज बीडल और एडवर्ड टैटम (George Beadle and Edward Tatum, 1945) की बहुस्वीकृत परिकल्पना- “एक जीन → एक एन्जाइम → एक उपापचयी अभिक्रिया” – के अनुसार जीव के प्रत्येक संरचनात्मक एवं क्रियात्मक लक्षण पर जीनी नियन्त्रण होता है, क्योंकि प्रत्येक उपापचयी अभिक्रिया एक विकर अर्थात् एन्जाइम (enzyme) द्वारा और प्रत्येक एन्जाइम का संश्लेषण एक जीन विशेष के द्वारा नियन्त्रित होता है।

विभेदक जीन क्रियाशीलता

किसी भी बहुकोशिकीय जीव शरीर की समस्त कोशिकाएँ युग्मनज अर्थात् जाइगोट (zygote) नामक एक ही कोशिका से प्रारम्भ होकर बारम्बार के समसूत्री (mitotic) विभाजनों के फलस्वरूप बनती हैं, इन सब में जीन-समूह (gene complement) बिल्कुल समान होता है। अतः बीडल और टैटम की उपरोक्त परिकल्पना के अनुसार तो एक शरीर की सारी कोशिकाएँ रचना और क्रिया में समान होनी चाहिएँ, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता। आँख, नाक, यकृत, वृक्क, हड्डी, त्वचा, कान आदि शरीर के विविध अंग और प्रत्येक अंग के विविध भाग, रचना और कार्यिकी में, बहुत ही असमान कोशिकाओं के बने होते हैं। एक ही जीव शरीर की सारी कोशिकाओ में समान जीन-समूह होते हुए भी इनके बीच परस्पर इतने विभेदीकरण का कारण यह होता है कि विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में जीन-समूह के कुछ अंश ही सक्रिय होते हैं, शेष अंशों को निष्क्रिय कर दिया जाता है।

समस्थैतिकता

सफल “जीवन” के लिए जीवों में अपने वातावरण में होने वाले परिवर्तनों से प्रभावित होकर इन्हीं के अनुसार अपने शरीर की कार्यिकी एवं उपापचय (Metabolism) में आवश्यक परिवर्तन करके शरीर एवं अन्तः वातावरण की अखण्डता बनाए रखने की अभूतपूर्व क्षमता होती है। इसकी खोज क्लॉडी बरनार्ड (1865) ने की। अन्तःवातावरण की अखण्डता बनाए रखने की क्षमता को वाल्टर बी. कैनन (1932) ने समस्थापन या समस्थैतिकता अर्थात् होमियोस्टैसिस (homeostasis) संज्ञा प्रदान किया।

जीवधारियों का वर्गीकरण

जीवधारियों के वर्गीकरण को वैज्ञानिक आधार जॉन रे नामक वैज्ञानिक ने प्रदान किया, लेकिन जीवधारियों के आधुनिक वर्गीकरण में सबसे प्रमुख योगदान स्वीडिश वैज्ञानिक कैरोलस लीनियस (1708-1778 ई.) का है। लीनियस ने अपनी पुस्तकों-जेनेरा प्लाण्टेरम, सिस्टेमा नेचुरी, क्लासेस प्लाण्टेरम एवं फिलासोफिया बॉटेनिका में जीवधारियों के वर्गीकरण पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। इन्होंने अपनी पुस्तक System of Nature में सम्पूर्ण जीवधारियों को दो जगतों (Kingdoms)- पादप जगत (plant kingdom) तथा जन्तु जगत (animal kingdom) में विभाजित किया। इससे जो वर्गीकरण की प्रणाली शुरू हुई उसी से आधुनिक वर्गीकरण प्रणाली की नींव पड़ी, इसलिए कैरोलस लीनियस को वर्गिकी का पिता (Father of taxonomy) कहा जाता है।*

परम्परागत द्वि-जगत वर्गीकरण का स्थान अन्ततः हिट्टेकर द्वारा सन् 1969 ई. में प्रस्तावित 5-जगत प्राणाली ने ले लिया। इसके अनुसार समस्त जीवों को निम्नलिखित पाँच जगत में वर्गीकृत किया गया (1) मोनेरा , (2) प्रोटिस्टा , (3) पादप , (4) कवक , (5) जन्तु।

1. मोनेरा – इस जगत से सम्बन्धित जीवों में केन्द्रक विहीन प्रोकैरियोटिक कोशिका होती है, अर्थात् जिनमें आनुवंशिक पदार्थ तो होता है किन्तु इसे कोशाद्रव्य से पृथक् रखने हेतु केन्द्रक नहीं होता। जैसे जीवाणु तथा नीलहरित शैवाल आदि।

2. प्रोटिस्टा – इसमें एककोशिकीय जीव आते हैं जिसमें विकसित केन्द्रक वाली यूकैरियोटिक कोशिका होती है, जैसे- अमीबा, यूग्लीना, पैरामीशियम, प्लाज्मोडियम आदि।

3. पादप – ये बहुकोशिकीय पौधे होते हैं। इनमें प्रकाश-संश्लेषण होता है। इनकी कोशिकाओं में रिक्तिका पायी जाती है, जैसे- सभी प्रकार की वनस्पतियाँ।

4. कवक – ये यूकैरियोटिक होते हैं किन्तु इनमें पर्णहरित नहीं पाये जाते, अर्थात इनमें प्रकाश- संश्लेषण की क्रिया नहीं होती है।

5. जन्तु – इस जगत में बहुकोशिकीय तथा यूकैरियोटिक जन्तु होते हैं।

परीक्षा दृष्टि
• कौन-सा जन्तु है जिसमें प्रकाश संश्लेषण की क्रिया सम्पन्न होती है?
यूग्लीना एवं क्लेमिडो मोनास
• कवक की कोशिका भित्ति किसकी बनी होती है?
काइटिन
• ‘वर्गिकी का पिता’ संज्ञा किसे प्रदान किया गया है?
कैरोलस लीनियस
• कैरोलस लीनियस ने वर्गीकरण की कुल कितनी इकाई को बनाया?
6; यथा क्रमशः जाति, वंश , कुल , गण , वर्ग और संघ
• वर्गीकरण की सबसे छोटी इकाई कौन-सी है?
जाति

विषाणु

वाइरस अति सूक्ष्म, अविकल्प परजीवी , अकोशिकीय तथा विशिष्ट न्यूक्लियो प्रोटीन कण* हैं, जो किसी जीवित परपोषी के अन्दर रहकर प्रजनन करते हैं। ये सजीव एवं निर्जीव के मध्य की कड़ी हैं।* विषाणुओं में सजीवों के लक्षण अधोलिखित हैं :

(i) आनुवंशिक पदार्थ (RNA व DNA) की उपस्थिति।

(ii) गुणन।

विषाणुओं में अधोलिखित निर्जीवों के लक्षण हैं, यथा :

(i) जीवद्रव्य व कोशिकांगों का अभाव।

(ii) अनेक जैविक क्रियाओं-श्वसन, उत्सर्जन आदि का अभाव।

(iii) निर्जीवों के समान इनके भी क्रिस्टल बनाए जा सकते हैं।

(iv) गुणन केवल पोषी कोशिका के अन्दर ।

आजकल कोशिका को जीवन का मूलभूत आधार माना जाता है। सभी जीवधारी कोशिकाओं के बने होते हैं। किन्तु विषाणुओं में कोशिकीय संगठन का पूर्णतः अभाव होता है तथा जीवित पोषी के बाहर ये निर्जीव पदार्थों की भांति व्यवहार करते हैं, परन्तु साथ ही, जब ये पोषी (host) की कोशिका के अन्दर पहुंच जाते हैं, तो अन्य जीवों के समान गुणन करते हैं तथा इनकी आनुवंशिक निरन्तरता बनी रहती है। इस प्रकार यदि देखा जाए तो ये जीवधारियों का एक प्रमुख गुण, प्रजनन, प्रदर्शित करते हैं। अतः यह सत्य है कि विषाणु “जीवों तथा निर्जीवों के बीच की कड़ी हैं।*

दूसरी ओर, कुछ वैज्ञानिकों की धारणा है कि विषाणु आद्य (Primitive) या प्राचीन कण नहीं हैं, अपितु ये अत्यन्त विशिष्ट अधिपरजीवी हैं। अभी भी इस विवाद का समुचित समाधान नहीं हो सका।

विषाणु की संरचना

वाइरस रचना में प्रोटीन के आवरण से घिरा न्यूक्लिक अम्ल होता है। बाहरी आवरण या Capsid में बहुत सी प्रोटीन इकाइयां (Capsomeres) होती हैं। पूरे कण को ‘विरिऑन’ (Virion) कहते हैं। इनका आकार 10-500 मिलीमाइक्रान (m) होता है। विषाणुओं में न्यूक्लिक अम्ल RNA अथवा DNA दो में से एक होता है। न्यूक्लिक अम्ल, ‘विरिऑन’ (virion) का 6% भाग बनाता है। जबकि प्रोटीन का कवच 94% भाग बनाता है। प्रोटीन कवच अक्सर एक पतली पूंछ के रूप में होता है। परपोषी प्रकृति के आधार पर विषाणु तीन प्रकार के होते हैं।

1. पादप विषाणु – इनका न्यूक्लिक अम्ल आर.एन.ए. (RNA) होता है। जैसे टी.एम. वी. (TMV), पीला मोजैक विषाणु (YMV) आदि।

2. जन्तु विषाणु – इनमें डी.एन.ए. या कभी- कभी आर.एन.ए. भी पाया जाता है। ये प्रायः गोल होते हैं। जैसे- इन्फ्लूएंजा, मम्पस वाइरस आदि।

3. बैक्टीरियोफेज या जीवाणु भोजी – ये केवल जीवाणुओं के ऊपर आश्रित रहते हैं। इनमें डी.एन.ए. पाया जाता है। जैसे-टी, फेज (T, Phage)।

विषाणुओं के उपयोग (USES OF VIRUSES) : यद्यपि विषाणुओं का नाम लेते ही भयानक रोगों की याद आने लगती है, फिर भी विषाणुओं का उपयोग लाभदायक कार्यों में भी सम्भव है। इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार है।

(i) साइनोफेज (वे विषाणु जो साइनोबैक्टीरिया अर्थात् नीलहरित शैवाल में रोग उत्पन्न करते हैं) का उपयोग अनेक स्थानों पर अबांछित नीलहरित शैवालों को साफ करने में किया जाता है।

(ii) हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करने के लिए बैक्टीरियोफेज का प्रयोग किया जाता है। इनके द्वारा जल को सड़ने से बचाया जा सकता है। गंगा के पानी में जीवाणु भोजियों की उपस्थिति से यह क्रिया स्वतः होती रहती है।

(iii) बैक्टीरियोफेज की सहायता से जीवाणुओं के विभिन्न विभेदों (strains) को पहचाना जा सकता है।

परीक्षा दृष्टि
• वाइरस की खोज किसने किया था?
रूसी वनस्पति शास्त्री इबानोवस्की (1892) ने
• वे पदार्थ जो वाइरस को नष्ट कर देते हैं, कहलाते है।
Virucide जैसे-इन्टरफेरॉन ।
• वाइरस संक्रमित कोशिकाएं आत्मरक्षा हेतु किस पदार्थ को उत्पन्न करती हैं?
इन्टरफेरॉन
• प्रथम प्रकाश-संश्लेषी जीव किसे माना जाता है?
साइनोबैक्टीरिया को
• वाइरस को क्रिस्टल के रूप में सबसे पहले पृथक करने का श्रेय किसे प्राप्त है?
डब्ल्यू.एम. स्टैनले
• गंगा नदी को शुद्ध करने में अपमार्जक का कार्य कौन करता है?
जीवाणुभोजी
• प्रिऑन्स बने होते हैं
केवल प्रोटीन के
• वाइरस किसके बने होते है?
न्यूक्लियोप्रोटीन
• द्विनाम पद्धति का जन्मदाता कौन था?
कैरोलस लीनियस (पहला शब्द वंश एवं दूसरा जाति का)
विषाणु जनित रोग
(a) पौधों के रोग :
फसल का नाम
रोग का नाम
• चुकन्दर
ऐंठा हुआ शिरोभाग
• भिण्डी
पीली नाड़ी मोजेक
• गन्ना
तृण समान प्ररोह
• पपीता
मोजेक
• केला
मोजेक
• तिल
फिल्लोडी
• सरसों
मोजेक
• बादाम
रेखा पैटर्न
• नींबू
नाड़ी का ऊतक क्षयन
• टमाटर
पत्तियों की ऐंठन
(b) पशुओं में होने वाले वाइरस जनित रोग
पशु
वाइरस
रोग
गाय
वैरियोला वैक्सीनिया
चेचक
भैंस
पाक्स विरिडोआर्थोपाक्स
चेचक
चौपाया
रैण्डोविरिडी कैसोक्यूलो
ज्वर
गाय
ब्लूटंग
ब्लूटंग
गाय
हर्पोज
हर्पोज
गाय एवं भैंस
पैरामिक्सोविरीडीमोर विली
रिण्डरपेस्ट
गाय एवं भैंस
पिकोरनाविरीडी एफथो
मुंहपका एवं खुरपका
चौपाया (कुत्ता)
स्ट्रीट
रैबीज

जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के जनक

शाखाजनक
जीवविज्ञान (Biology)अरस्तू
वनस्पति विज्ञान (Botany)थियोफ्रैस्टस
जीवाश्मिकी (Palaeontology)लियानार्डो डी विन्सी
सुजननिकी (Eugenics)फ्रांसिस गाल्टन
आधुनिक वनस्पति विज्ञान (Modern Botany)कैरोलस लीनियस
चिकित्सा शाखहिप्पोक्रेटस
प्रतिरक्षा विज्ञान (Immunology)एडवर्ड जैनर
आनुवंशिकी (Genetics)ग्रेगर जॉन मेण्डल
आधुनिक आनुवंशिकी (Modern Genetics)टी.एच. मॉर्गन
शाखाजनक
कोशिका विज्ञान (Cytology)रॉबर्ट हुक
जन्तु विज्ञान (Zoology)अरस्तू
वर्गिकी (Taxonomy)कैरोलस लीनियस
औतिकी (Histology)मार्सेलो मैल्पीजी
उत्परिवर्तन सिद्धान्त (Mutation Theory)ह्यूगो डी. ब्रीज
तुलनात्मक शारीरिकी (Comparative Anatomy)जी. क्यूवियर
कवक विज्ञान (Mycology)माइकेली
पादप कार्यकी (Plant Physiology)स्टीफन हेल्स
जीवाणु विज्ञान (Bacteriology)ल्यूवेनहॉक
सूक्ष्म जीव विज्ञान (Microbiology)लुई पाश्चर
भारतीय कवक विज्ञान (Indian Mycology)ई.जे. बुट्लर
भारतीय ब्रायोलॉजी (Indian Bryology)एस.आर. कश्यप
भारतीय पारिस्थितिकी (Indian Ecology)आर. मिश्रा
भारतीय शैवाल विज्ञान (Indian Phycology)एम.ओ.ए. आयंगर
आधुनिक भ्रूणविज्ञान (Modern Embryology)वॉन बेयर
भारतीय वनस्पति विज्ञान (Indian Botany)विलियम राक्सबर्ग
भारतीय जीवाश्म वनस्पति (Indian Palaeobotany)बीरबल साहनी

➤ मनुष्य में विषाणुओं द्वारा उत्पन्न रोग

रोगकारक विषाणु
चेचक (Smallpox)वैरिओला वाइरस (Variola Virus)
हरपीज (Herpes)हरपीज वाइरस (Herpes Virus)
रैबीज (Rabies)रैब्डोवाइरस (Rabies Virus)
पोलियोमेलाइटिस (Poliomyelitis)एन्टीरोवाइरस (Enterovirus)
एड्स (AIDS)HIV III वायरस
इन्फ्लुएंजा (Flu)ऑर्थोमिक्सो वाइरस (Orthomyxovirus)
वाइरल एन्सिफेलाइटिसआरबोवाइरस (Arbovirus)
डेंगू फीवर (Dengue Fever)आरबोवाइरस (Arbovirus)
सर्दी-जुकाम (Common Cold)राइनोवाइरस (Rhinovirus)
मम्पस (Mumps)मम्प वाइरस (Mumps Virus)
मीजिल्स (Measles)पैरामिक्सो वाइरस (Paramyxovirus)
चिकेनपॉक्स (Chickenpox)वैरिसेला वाइरस (Varicella Virus)

क्या आप जानते हैं?

वर्षवैज्ञानिकखोज का नाम
1892इवानोवस्की (Ivanovsky)तम्बाकू में मोजैक का कारण विषाणुओं को बताया।
1898बीजरिक (Beijerinck)पादप रस को जीवित तरल संक्रामक कहा।
1892-1906गोर्नरी और पाश्चर (Gornari & Pasteur)स्माल-पाक्स विषाणु (Small Pox Virus) का खोज की।
1901रीड (Reed)पीतज्वर विषाणु (Yellow Fever Virus) की खोज की।
1908पापर (Popper)पोलियो वाइरस की खोज की।
1906सबिन (Sabin)पोलियो का टीका (Polio Vaccine) बनाया।
1915ट्वार्ट और डी हेरेली (Twort & D’Herelle)बैक्टिरियो फेज (Bacteriophage) की खोज की।
1933स्मिथ (Smith)इन्फ्लूएंजा (Influenza) विषाणु की खोज की।
1938प्लाज (Platz)मीजल्स (Measles) विषाणु की खोज की।
1935डब्ल्यू. स्टेनले (W. Stanley)विषाणु को क्रिस्टल के रूप में संश्लेषित किया और प्रोटीन माना। इस कार्य के लिए सन् 1946 में नोबेल पुरस्कार मिला।
1938बावडेन (Bawden)विषाणु में प्रोटीन और न्यूक्लिक अम्ल की खोज की।
1942हर्शे और चेस (Hershey & Chase)विषाणु का केवल डी.एन.ए. अथवा आर.एन.ए. ही परपोषी कोशिका में प्रवेश करता है।

वाइरॉइड

डियनर एवं रेयमर (Diener and Raymer) ने 1967 में अत्यधिक साधारण संक्रामक कारकों को खोजा व इनको वाइरॉइड्स नाम दिया। वाइरॉइड्स मात्र छोटे RNA के खण्ड होते हैं तथा इन पर प्रोटीन का आवरण भी नहीं होता है।* परन्तु इनमें संक्रमित कर, रोग उत्त्पन्न करने की क्षमता होती है। ये पादप रोग के संक्रमण हेतु सबसे छोटे कारक होते हैं।

नारियल में ‘कदंग-कदंग’ नामक रोग क्रिसेन्थिमम स्टन्ट , साइट्रस एग्जिकोर्टिस वाइरस तथा आलू में ‘तर्कु कंद’ रोग इन्हीं के कारण होते हैं।

परीक्षा दृष्टि

• श्वसन तथा उत्सर्जन किस प्रकार की जैविक क्रिया है?
अपचायक
• ‘One gen one Enzyme’ सिद्धान्त के प्रतिपादक कौन थे?
जार्ज बीडल एवं एडवर्ड टैटम
• होमियोस्टैसिस की खोज किसने की ?
क्लॉडी बरनार्ड
• वाइरस का बाह्य आवरण किसका बना होता है?
प्रोटीन का
बैक्टीरियोफेज से आप क्या समझते है?
ऐसे वाइरस जो केवल जीवाणुओं के ऊपर आश्रित रहते हैं।
• पोलियो का टीका किसने खोजा था?
साबिन (1906)
• फिल्लोडी नामक रोग किस पौधे में होता है?
तिल में
• सुजननिकी के जनक की संज्ञा किसे प्रदान की गई है?
फ्रांसिस गाल्टन
• पशुओं में रिण्डरपेस्ट कैसे फैलता है?
वाइरस द्वारा
• उत्परिवर्तन का जनक किसे कहा जाता है?
ह्यूगो डी. ब्रीज
• आदिमानव तथा पौधे के मध्य सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है?
इथनोबाटनी में
• किस वैज्ञानिक ने डेस्मोडियम पौधे पर कार्य करते हुए यह सिद्ध किया कि हृदय की गति की तरह इन पौधों में भी स्पन्दन (Pulsation) होता है जिससे रसारोहण (Ascent of Sap) की क्रिया सम्पन्न होती है?
सर जगदीशचन्द्र बोस

प्रिआन

ऐसे रोग संक्रामक कारक जिनमें केवल प्रोटीन होता है तथा न्यूक्लिक अम्ल का अभाव पाया जाता है; प्रिऑन की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। * इसकी खोज स्टैनले प्रूसीनर ने की, जिसके लिए उन्हें 1997 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। ध्यातव्य है कि इन प्रोटीन कारकों में गुणन (multiply) की व संक्रमित करने की क्षमता होती है। अतः अब वैज्ञानिकों के समक्ष प्रश्न-चिह्न है कि आनुवंशिक पदार्थ तो न्यूक्लिक अम्ल ही होते हैं तो इन प्रोटीन में यह क्षमता कैसे पाई जाती है। भेड़ों में स्क्रेपी रोग (Scrapie disease) इन्हीं के कारण से होता है। इस रोग में भेड़ विचलित होकर किसी आधार से अपने शरीर को रगड़ती रहती है। गत वर्षों में ब्रिटेन में गायों के पगलाने (Mad Cow) के रोग के पीछे इन्हीं को कारण माना जा रहा था।

अभी हाल ही में स्विस वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है कि उन्होंने मानव को संक्रमित करने वाली प्रिऑन प्रोटॉन की त्रिविमीय (3-D) संरचना का पता लगा लिया है।

जीव विज्ञान से सम्बन्धित शाखायें

1. जैव रसायन : जीवधारियों के रासायनिक घटकों तथा रासायनिक प्रक्रियाओं का अध्ययन।

2. जैव सांख्यिकी : जैविक क्रियाओं और उनके प्रमाणों का गणितीय विश्लेषण।

3. जीव भौतिकी : भौतिक सिद्धान्तों तथा विविधता के आधार पर जैविक क्रियाओं का अध्ययन।

4. आण्विक जीव विज्ञान: जीवधारियों का रासायनिक स्तर पर अध्ययन।

5. सूक्ष्म जैविकी : सूक्ष्म जीवों का अध्ययन।

6. आनुवंशिक इन्जीनियरिंग : आनुवंशिक पदार्थों के उपयोग और संयोजन द्वारा नये आनुवंशिक लक्षणों वाले जीवधारियों के निर्माण का अध्ययन।

7. कार्यिकी : जीवधारियों के विभिन्न अंगों अथवा सम्पूर्ण शरीर द्वारा की जाने वाली क्रियाओं की क्रियाविधि का अध्ययन कार्यिकी कहलाता है।

8. बायोनिक्स : जैविकों में होने वाले कार्य, गुण – व पद्धति का अध्ययन।

9. बायोनामिक्स : जीवधारियों व वातावरण के साथ अध्ययन।

10. बायोनामी : जीवन के नियमों का अध्ययन।

11. इथोलॉजी : मानव व सभी जन्तुओं के व्यवहार का अध्ययन।

12. जेरोन्टोलॉजी : वृद्ध होने की प्रक्रिया का अध्ययन।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

1 thought on “जीवोत्पत्ति एवं कोशिका विज्ञान : अध्याय- 1 भाग:1”

Leave a Comment