पादप जगत : अध्याय – 2 , भाग – 4

उपजगत-एम्ब्रियोफाइटा

इन पौधों में लैंगिक अंग बहुकोशिकीय होते हैं और एक बन्ध्य आवरण से घिरे रहते हैं। इनका बहुकोशिकीय भ्रूण मादा जनन अंग में विकसित होता है। इस उपजगत में दो संघ सम्मिलित किए गए हैं-(क) ब्रायोफाइटा, (ख) ट्रैकियोफाइटा

ब्रायोफाइटा (Bryophyta)

ब्रायोफाइटा भ्रूण (embryo) बनाने वाले पौधों, एम्ब्रियोफाइटा (embryophyta) का सबसे साधारण व आद्य (primitive) समूह है। इनमें संवहन ऊतक (vascular tissue) तथा वास्तविक जड़ों (True roots) का अभाव होता है। जड़ों के स्थान पर मूलाभास (Rhizoids) पाये जाते हैं। * अधिकतर ब्रायोफाइटा में क्लोरोफिल पाया जाता है, जिससे वे स्वपोषी (autotrophic) होते हैं।* इनमें लैंगिक तथा अलैंगिक दोनों प्रकार का जनन होता है। इनके पौधे प्रायः छोटे होते हैं। सबसे बड़ा ब्रायोफाइटा का पौधा डासोनियाँ है जिसकी ऊँचाई 40 से 70 सेमी. है। * इस समुदाय का पौधा युग्मकोद्भिद् (gametophyte) होता है। इन पौधों में पीढ़ी एकान्तरण (alternation of generation) स्पष्ट होता है। इनके जीवन-चक्र में दो स्पष्ट प्रावस्थाएं (phases) पाई जाती हैं। इनमें से एक अगुणित (haploid) गैमिटोफाइट होती है (जो कि लैंगिक प्रजनन के लिए युग्मक उत्पन्न करती है) तथा दूसरी द्विगुणित (diploid) स्पोरोफाइट होती है (जो अलैंगिक प्रजनन के लिए बीजाणु उत्पन्न करती है)। ये पौधे स्थली (terrestrial) होने के साथ ही छायादार स्थानों पर उगते हैं और इन्हें अपने जीवन में पर्याप्त आर्द्रता की आवश्यकता होती है, निषेचन के लिये जल आवश्यक है। अतः कुछ वैज्ञानिक ब्रायोफाइटा समुदाय को वनस्पति जगत् का एम्फीबिया (Amphibians of Plant King- dom) कहते हैं। ये पौधे थैलोफाइटा (Thallophyta) से अधिक विकसित होते हैं। प्रोफेसर एस.आर. कश्यप को भारतीय ब्रायोफाइटा विज्ञान का जनक (Father of Indian Bryology) कहा जाता है।*

ब्रायोफाइटा को तीन वर्गों में बाँटा गया है- (1) हिपैटिसी या लिवरवर्ट, (2) मसाई, (3) एन्थोसिरोटी।

(1) वर्ग हिपैटिसी (Hepaticae) – इस वर्ग के पौधों का शरीर यकृत के समान हरे रंग का होता है। इसलिए इसे लिवरवर्ट्स भी कहते हैं। पौधों के शरीर को सूकाय (Thallus) कहते हैं। वह चपटा होता है। सूकाय में जड़, तना, पत्तियाँ नहीं होती हैं। * इसकी निचली सतह से अनेक एककोशिकीय मूलांग निकले होते हैं। मूलांग का कार्य स्थिरता प्रदान करना तथा भूमि से पानी एवं खनिज लवणों का अवशोषण करना है; जैसे- रिक्सिया तथा मार्केन्शिया आदि।

(2) वर्ग मसाई (Musci)- इसमें उच्च श्रेणी के ब्रायोफाइट्स आते हैं। ये ठण्डे एवं नम स्थानों पर तथा पुरानी दीवारों पर समूहों में पाए जाते हैं। इसमें तना तथा पत्ती जैसी रचना पाई जाती हैं। मूल की जगह पर बहुकोशिकीय मूलांग होते हैं। मॉस का पौधा युग्मको‌द्भिद् (gametophyte) होता है। इसका बीजाणुद्भिद् आंशिक रूप से युग्मकोद्भिद् पर निर्भर रहता है; जैसे-मॉस में।

(3) वर्ग एन्थोसिरोटी (Anthocerotae) – इन पौधों का शरीर सूकायक (thalloid) होता है। इनके बीजाणुद्भिद् (sporophyte) में सीटा (seta) अनुपस्थित होता है। जैसे- एन्थोसिरॉस (Anthoceros) में।

➤  आर्थिक महत्व (Economic Importance)

• ब्रायोफाइटा के पौधे मृदा अपरदन (soil erosion) को रोकने में सहायक होते हैं।

• जल अवशोषण की क्षमता अधिक होने के कारण ये बाढ़ रोकने में मदद करते हैं।

• स्फैगनम (Sphagnum) मॉस का प्रयोग ईंधन के रूप में करते हैं। इसे पीट ऊर्जा (Peat energy) कहते हैं।

• एस्किमो (Eskimo) स्फैगनम का प्रयोग चिराग में बत्ती की जगह करते हैं।

• पूर्तिरोधी अर्थात् ऐण्टिसेप्टिक (antiseptic) होने के कारण स्फैगनम का उपयोग सर्जिकल ड्रेसिंग (surgical dressings) के लिए किया जाता है। स्फैगनम के पौधों से स्फैगनॉनाल (sphagnonal) नामक प्रतिजैविक प्राप्त किया जाता है।

• स्फैगनम की कुछ जातियां पैकिंग पदार्थ (packing material) के रूप में प्रयोग में आती हैं।

स्पष्ट है कि शैवालों की तुलना में ब्रायोफाइटा विकास के मार्ग पर एक कदम आगे हैं। ब्रायोफाइटा स्थल पर ‘अतिक्रमण’ करके स्थल पर जीवन-यापन करने में सफल रहे हैं। उनमें से कुछ ऐसे गुण विकसित हुए जिनसे वे अपने को स्थलीय परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सके। ऐसे कुछ गुण निम्नलिखित हैं :

(i) संहत (compact) शरीर का विकास;

(ii) जल अवशोषित करने तथा आधार पर संलग्न होने के लिए विशिष्ट अंगों जैसे मूलाभासों (rhizoids) का विकास;

(iii) जननांगों की सुरक्षा,

(iv) वातावरण से गैस विनिमय;

(v) उत्तरजीविता (survival) की सम्भावनाओं में वृद्धि हेतु बीजाणुओं का बड़ी संख्या में उत्पादन।

परन्तु ब्रायोफाइटी पौधे भी स्थल पर जीवन-यापन के लिए अधिक अनुकूलित नहीं हैं। ये केवल नम तथा छायादार स्थानों पर ही रह सकते हैं। उनमें जल तथा भोजन के स्थानान्तरण के लिए कोई संवहन तन्त्र (vascular system) नहीं होता। उनमें ‘वास्तविक’ जड़ों का अभाव होता है; केवल मूलाभासों द्वारा ही आधार से संलग्न रहता है। जल तथा खनिज लवणों का अवशोषण शरीर के लगभग अधिकांश भाग से होता है। पौधे की सतह पर क्यूटिकिल (cuticle) का अभाव होता है। जिसके फलस्वरूप पौधे से पानी के वाष्पीकरण पर विशेष प्रतिबन्ध नहीं रह पाता तथा जल की अत्यधिक हानि होती है। ऐसी स्थिति का उनकी वृद्धि पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। कारणस्वरूप स्थल पर पौधों का और अधिक विकास तभी सम्भव हुआ, जब उनमें संवहनी ऊतक (vascular tissues) का विकास हो गया। वास्तव में, पौधों में संवहन तन्त्र ही जड़ से जल तथा खनिज लवणों को पत्ती तक तथा पत्ती से शर्करा को पौधे की अन्य कोशिकाओं तक पहुंचाने का कार्य करता है। फलतः ट्रैकियोफाइटा का विकास सम्भव हुआ।

ट्रैकियोफाइटा

वे पौधे जिनमें संवहन ऊतक (vascular tissue), वास्तविक जड़, तना तथा पत्तियाँ पाये जाते है और जो मुख्य रूप से स्थलीय एवं बीजाणुद्भिद् (sporophyte) होते हैं, ट्रैकियोफाइटा कहलाते हैं।

ये पृथ्वी के सबसे अधिक प्रभावी जीव हैं। ट्रैकियोफाइटा प्रभाग की अब तक लगभग 2 लाख 75 हजार जातियों की खोज की जा चुकी है। ये जीवमण्डल तथा मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयोगी तथा लाभदायक पौधे होते हैं। इनको तीन प्रभागों – टेरिडोफाइटा (Pteridophyta), जिम्नोस्र्पास (Gymnosperms) तथा ऐन्जियोफस (Angiosperms) में बांटते हैं।

➤  टेरिडोफाइटा (Pteridophyta)

टेरिडोफाइटा वर्ग के अन्तर्गत पर्णहरिम (chlorophyll) व संवहन ऊतक (vascular tissue) युक्त, अपुष्पोद्भिद् (crypto- gams) पौधे आते हैं।* इस वर्ग के सदस्यों में जल एवं खनिज लवणों के संवहन हेतु संवहन ऊतक (vascular tissue), जाइलम और फ्लोएम होते हैं। इस वर्ग के पौधे प्रायः शाकीय (herbaceous) होते हैं तथा प्रायः नम व छायादार स्थानों में पाये जाते हैं। कुछ जातियाँ जलीय (aquatic) भी होती हैं, जैसे-मार्सीलिया, साल्वीनिया, एजोला* आदि। इन्हें जलीय फर्न (water ferns) कहते हैं। इस वर्ग के पौधों के कुछ प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-

1. मुख्य पौधा बीजाणु-उ‌द्भिद् (sporophyte) होता है जिसमें प्रायः जड़, पत्ती तथा स्तम्भ होते हैं।

2. ऊतक तन्त्र विकसित होता है, संवहन बण्डल उपस्थित, इनमें संवहन ऊतक जाइलम तथा फ्लोएम में भिन्नित होता है।

3. इसके जाइलम में वाहिकाओं (vessels) तथा फ्लोएम में सह-कोशिकाओं (companion cells) का अभाव होता है।

4. द्वितीयक वृद्धि (secondary growth) अनुपस्थित*, अपवाद स्वरूप आइसोइट्स (Isoetes) में द्वितीयक वृद्धि होती है।

5. ये पुष्पहीन पौधे हैं।*

6. इनमें बीज निर्माण नहीं होता। *

7. बीजाणु बीजाणुधानियों (sporangia) में उत्पन्न होते हैं। कुछ जातियाँ समबीजाणुकीय (homosporous) होती हैं उदाहरण – लाइकोपोडियम, ड्रायोप्टेरिस तथा कुछ जातियाँ विषमबीजाणुकीय (het- erosporous) होती हैं।

8. बीजाणु अंकुरित होकर प्रोथैलस (युग्मकोद्भिद्) बनाते हैं।

9. युग्मकोद्भिद् (gametophyte) प्रावस्था छोटी होती है तथा बीजाणु-उद्भिद् से प्रायः स्वतन्त्र होती हैं।

10. निषेचन के लिये जल आवश्यक है।*

11. इन पौधों के जीवन-चक्र में निश्चित पीढ़ी-एकान्तर (al- ternation of generations) होता है।

• टेरियोफाइट्स को वानस्पतिक सर्प (botanical snakes) भी कहा जाता है।

आर्थिक महत्व (Economic Importance)

1. इक्विसेटम से सोना निकाला जाता है।

2. पशुओं को चारे में टेरिडियम दिया जाता है।

3. लाइकोपोडियम के बीज दवा में प्रयोग किए जाते हैं।

4. फर्न की विभिन्न जातियों मेजों पर सजावट के लिए जैसे- सिलेजिनेला, को रखते हैं, क्योंकि इसमें पुनर्जीवन का गुण होता है।

5. सब्जी के रूप में मर्सिलिया तथा सिरेटोप्टेरिस नामक पौधे प्रयोग किये जाते हैं।

➤  अनावृतबीजी (Gymnosperm)

अनावृतबीजी अर्थात जिम्नोस्पर्म ऐसे पौधों को कहते हैं, जिनके बीज में आवरण या कवच नहीं पाया जाता। इस उप-प्रभाग में लगभग 900 जातियों को रखा गया है। इसके प्रमुख लक्षण निम्न है-

1. इनके बीजों में बीजावरण नहीं पाया जाता है।*

2. संवहनी ऊतकों में जाइलम एवं फ्लोएम पाए जाते हैं।

3. इस उप-प्रभाग के कुछ पौधे बहुवर्षीय होते हैं।

4. ये मरुद्भिद् (xerophytic) होते हैं।*

5. वायु परागण होता है।*

6. इनके जननांग प्रायः एकलिंगी होते हैं। इनमें शंकु बनते हैं। नर शंकु ‘माइकोस्पोरोफिल’ तथा मादा शंकु ‘मेगास्पोरोफिल’ का निर्माण करते हैं।

7. बहुभ्रूणता (polyembryony) पायी जाती है।*

8. भ्रूण में मूलांकुर (Radicle) तथा प्रांकुर (plumule) के साथ ही एक या एक से अधिक बीजपत्र बनते हैं।

• जिम्नोस्पर्म का आर्थिक महत्व-

1. भोजन के रूप में- साइकस के तनों से मण्ड निकालकर खाने वाला साबूदाना (sago) बनाया जाता है। इसलिए साइकस को सागो-पाम (sago-palm) कहते हैं।*

2. लकड़ी के रूप में- चीड़, सिकोया, देवदार, फर, स्प्रूस आदि की लकड़ी महत्वपूर्ण फर्नीचर बनाने के काम आती है।

3. औषिधी के रूप में – इफेड्रा से इफेड्रीन नामक औषिधी बनाई जाती है, जिसका उपयोग खाँसी एवं दमे (asthma) के इलाज में किया जाता है।

4. वाष्पीय तेल- चीड़ के पेड़ से तारपीन का तेल, देवदार की लकड़ी से सेंडूस तेल तथा जूनीपेरस की लकड़ी से सेडूस काष्ठ तेल मिलता है।*

5. टेनिन- चमड़ा बनाने तथा स्याही बनाने के काम में आता है।

6. भोजन के रूप में – चीड़ (पाइनस) जेरारडियाना के बीज को सुखाकर चिलगोजा के नाम से खाया जाता है।*

7. घरेलू उपयोग- साइकस की पत्तियों से रस्सी व झाडू बनायी जाती है।

8. रेजिन (Resin)- कुछ शंकु पौधे से रेजिन निकाला जाता है।

➤ आवृतबीजी (Angiosperm)

आवृतबीजी पौधें वे पुष्पीय पौधें हैं, जिनमें बीज, फलों के अन्दर बन्द रहते हैं। इस वर्ग के पौधों को शाक, झाड़ी या वृक्ष में विभाजित किया जा सकता है। इनके प्रमुख लक्षण अधोलिखित हैं। यथा-

1. इनके प्रजनन अंग पुष्प होते हैं।

2. इनमें दोहरे निषेचन की क्रिया पायी जाती है।*

3. ये मृतोपजीवी, परजीवी, सहजीवी तथा स्वपोषी के रूप में पाये जाते हैं।

4. सामान्यतः पौधें स्थलीय होते हैं, किन्तु कुछ जल में भी पाये जाते हैं।

5. इनका संवहन तंत्र बहुत अधिक विकसित होता है।

• आवृतबीजी (Angiosperm) पौधों को दो वर्गों में विभक्त किया गया है। यथा-

A. एक बीजपत्री
B. द्विबीजपत्री

(A) एक बीजपत्री (monocotyledon) के प्रमुख लक्षण-

(i) इनके बीजों में केवल एक बीजपत्र पाया जाता है।

(ii) इनकी जड़े ज्यादा विकसित नहीं होतीं।

(iii) इनके पुष्पों के भाग तीन या उसके गुणांक होते हैं।

(iv) संवहन पूल में कैम्बियम नहीं पाया जाता है

कुल (Family)प्रमुख पौधें (वानस्पतिक नाम)
• लिलिएसी (Liliaceae)लहसुन, प्याज, सतावर आदि।
• प्यूजेसी (Musaceae)केला
• पाल्मी (Palmae)सुपारी, ताड़, नारियल, खजूर।
• ग्रेमिनी (Graminae)गेहूं , मक्का, बांस, गन्ना, चावल , ज्वार, बाजरा, जौ, जई तथा अन्य घासें।

(B) द्विबीजपत्री (dicotyledonae) के प्रमुख लक्षण-

(i) इनके बीजों में दो बीजपत्र (cotyledons) पाये जाते हैं।

(ii) संवहन पूल में कैम्बियम (cambium) पाया जाता है।*

(iii) इनके पुष्प चार या पाँच के गुणांक होते हैं।

(iv) इनमें द्वितीयक वृद्धि पायी जाती है।*

उदाहरण-

कुल (Family)प्रमुख पौधे (वानस्पतिक नाम)
• क्रूसीफेरी (Cruciferae)मूली, शलजम, सरसों
• मालवेसी (Malvaceae)कपास*, भिन्डी, गुड़हल
• लेग्यूमिनोसीबबूल, छुईमुई, कत्था, गुलमोहर,अशोक, कचनार, इमली तथा सभी दलहनी फसलें।
• कम्पोजिटी (Compositae)सूरजमुखी, भृंगराज, कुसुम, गेंदा, सलाद, जीनीया, डहेलिया आदि।
• रुटेसी (Rutaceae)नींबू, चकोतरा, सन्तरा, मुसम्मी, बेल, कैथ, कामिनी आदि।
• कुकुर बिटेसी (Cucurbitaceae)तरबूज, खरबूजा, टिन्डा, कद्दू, लौकी, जीरा, ककड़ी, परवल, चिचिन्डा, करेला
• रोजेसी (Rosaceae)स्ट्रोबेरी, सेब, बादाम, नाशपाती, खुबानी, आडू, गुलाब, रसभरी आदि
• मिटरेसी (Mytraceae)अमरूद, यूकेलिप्टस, जामुन, मेंहदी
• अम्बेलीफेरी (Umbelliferae)धनिया, जीरा, सौंफ, गाजर, आदि।
• सोलेनेसी (Solanaceae)आलू, मिर्च, बैंगन, मकोय, धतूरा, बैलाडोना, टमाटर

इन पौधों के जीवन-इतिहास में एक अत्यन्त विकसित बीजाणु- उ‌द्भिद् (sporophyte) अवस्था तथा एक बहुत कम विकसित युग्मको‌द्भिद् (gametophyte) अवस्था मिलती है। बीजाणु-उद्भिद् (sporophyte) के प्रत्येक केन्द्रक में (2n) गुणसूत्र (chromosomes) होते हैं, इस कारण इसे द्विगुणित पीढ़ी (diploid generation) कहते हैं। युग्मकोद्भिद् (gametophyte) के प्रत्येक केन्द्रक में (n) गुणसूत्र होते हैं, इस कारण इसे अगुणित पीढ़ी (haploid generation) कहते हैं। ये दोनों पीढ़ी जीवन-चक्र में एक-दूसरे के बाद आती रहती हैं। इसे पीढ़ी एकान्तरण (alternation of generations) कहते हैं।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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