बस की यात्रा : अध्याय 2

हम पाँच मित्रों ने तय किया कि शाम चार बजे की बस से चलें। पन्ना से इसी कंपनी की बस सतना के लिए घंटे भर बाद मिलती है जो जबलपुर की ट्रेन मिला देती है। सुबह घर पहुँच जाएँगे। हम में से दो को सुबह काम पर हाज़िर होना था इसीलिए वापसी का यही रास्ता अपनाना जरूरी था। लोगों ने सलाह दी कि समझदार आदमी इस शाम वाली बस से सफ़र नहीं करते। क्या रास्ते में डाकू मिलते हैं? नहीं, बस डाकिन है।

बस को देखा तो श्रद्धा उमड़ पड़ी। खूब वयोवृद्ध थी। सदियों के अनुभव के निशान लिए हुए थी। लोग इसलिए इससे सफ़र नहीं करना चाहते कि वृद्धावस्था में इसे कष्ट होगा। यह बस पूजा के योग्य थी। उस पर सवार कैसे हुआ जा सकता है।

बस-कंपनी के एक हिस्सेदार भी उसी बस से जा रहे थे। हमने उनसे पूछा- “यह बस चलती भी है?” वह बोले “चलती क्यों नहीं है जी! अभी चलेगी।” हमने कहा- “वही तो हम देखना चाहते हैं। अपने आप चलती है यह? हाँ जी, और कैसे चलेगी?”

गजब हो गया। ऐसी बस अपने आप चलती है।

हम आगा-पीछा करने लगे। डॉक्टर मित्र ने कहा- “डरो मत, चलो ! बस अनुभवी है। नयी-नवेली बसों से ज्यादा विश्वसनीय है। हमें बेटों की तरह प्यार से गोद में लेकर चलेगी।”

हम बैठ गए। जो छोड़ने आए थे, वे इस तरह देख रहे थे जैसे अंतिम विदा दे रहे हैं। उनकी आँखें कह रही थीं “आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा-राजा, रंक, फकीर। आदमी को कूच करने के लिए एक निमित्त चाहिए।”

इंजन सचमुच स्टार्ट हो गया। ऐसा, जैसे सारी बस ही इंजन है और हम इंजन के भीतर बैठे हैं। काँच बहुत कम बचे थे। जो बचे थे. उनसे हमें बचना था। हम फ़ौरन खिड़की से दूर सरक गए। इंजन चल रहा था। हमें लग रहा था कि हमारी सीट के नीचे इंजन है।

बस सचमुच चल पड़ी और हमें लगा कि यह गांधीजी के असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों के वक्त अवश्य जवान रही होगी। उसे ट्रेनिंग मिल चुकी थी। हर हिस्सा दूसरे से असहयोग कर रहा था। पूरी बस सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौर से गुजर रही थी। सीट का बॉडी से असहयोग चल रहा था। कभी लगता सीट बॉडी को छोड़कर आगे निकल गई है। कभी लगता कि सीट को छोड़कर बॉडी आगे भागी जा रही है। आठ-दस मील चलने पर सारे भेदभाव मिट गए। यह समझ में नहीं आता था कि सीट पर हम बैठे हैं या सीट हम पर बैठी है।

एकाएक बस रुक गई। मालूम हुआ कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राइवर ने बाल्टी में पेट्रोल निकालकर उसे बगल में रखा और नली डालकर इंजन में भेजने लगा। अब मैं उम्मीद कर रहा था कि थोड़ी देर बाद बस-कंपनी के हिस्सेदार इंजन को निकालकर गोद में रख लेंगे और उसे नली से पेट्रोल पिलाएँगे, जैसे माँ बच्चे के मुँह में दूध की शीशी लगाती है।

बस की रफ़्तार अब पंद्रह-बीस मील हो गई थी। मुझे उसके किसी हिस्से पर भरोसा नहीं था। ब्रेक फेल हो सकता है, स्टीयरिंग टूट सकता है। प्रकृति के दृश्य बहुत लुभावने थे। दोनों तरफ़ हरे-भरे पेड़ थे जिन पर पक्षी बैठे थे। मैं हर पेड़ को अपना दुश्मन समझ रहा था। जो भी पेड़ आता, डर लगता कि इससे बस टकराएगी। वह निकल जाता तो दूसरे पेड़ का इंतजार करता। झील दिखती तो सोचता कि इसमें बस गोता लगा जाएगी।

एकाएक फिर बस रुकी। ड्राइवर ने तरह-तरह की तरकीबें कीं पर वह चली नहीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया था, कंपनी के हिस्सेदार कह रहे थे “बस तो फर्स्ट क्लास है जी! यह तो इत्तफाक की बात है।”

क्षीण चाँदनी में वृक्षों की छाया के नीचे वह बस बड़ी दयनीय लग रही थी। लगता, जैसे कोई वृद्धा थककर बैठ गई हो। हमें ग्लानि हो रही थी कि बेचारी पर लदकर हम चले आ रहे हैं। अगर इसका प्राणांत हो गया तो इस बियाबान में हमें इसकी अंत्येष्टि करनी पड़ेगी।

हिस्सेदार साहब ने इंजन खोला और कुछ सुधारा। बस आगे चली। उसकी चाल और कम हो गई थी।

धीरे-धीरे वृद्धा की आँखों की ज्योति जाने लगी। चाँदनी में रास्ता टटोलकर वह रेंग रही थी। आगे या पीछे से कोई गाड़ी आती दिखती तो वह एकदम किनारे खड़ी हो जाती और कहती “निकल जाओ, बेटी! अपनी तो वह उम्र ही नहीं रही।”

एक पुलिया के ऊपर पहुँचे ही थे कि एक टायर फिस्स करके बैठ गया। वह बहुत जोर से हिलकर थम गई। अगर स्पीड में होती तो उछलकर नाले में गिर जाती। मैंने उस कंपनी के हिस्सेदार की तरफ़ पहली बार श्रद्धाभाव से देखा। वह टायरों की हालत जानते हैं फिर भी जान हथेली पर लेकर इसी बस से सफर कर रहे हैं। उत्सर्ग की ऐसी भावना दुर्लभ है। सोचा, इस आदमी के साहस और बलिदान भावना का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इसे तो किसी क्रांतिकारी आंदोलन का नेता होना चाहिए। अगर बस नाले में गिर पड़ती और हम सब मर जाते तो देवता बाँहें पसारे उसका इंतजार करते। कहते-“वह महान आदमी आ रहा है जिसने एक टायर के लिए प्राण दे दिए। मर गया, पर टायर नहीं बदला।”

दूसरा घिसा टायर लगाकर बस फिर चली। अब हमने वक्त पर पन्ना पहुँचने की उम्मीद छोड़ दी थी। पन्ना कभी भी पहुँचने की उम्मीद छोड़ दी थी। पन्ना क्या, कहीं भी, कभी भी पहुँचने की उम्मीद छोड़ दी थी। लगता था, जिंदगी इसी बस में गुजारनी है और इससे सीधे उस लोक को प्रयाण कर जाना है। इस पृथ्वी पर उसकी कोई मंजिल नहीं है। हमारी बेताबी, तनाव खत्म हो गए। हम बड़े इत्मीनान से घर की तरह बैठ गए। चिंता जाती रही। हँसी-मजाक चालू हो गया।

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प्रश्न-अभ्यास

कारण बताएँ

1. “मैंने उस कंपनी के हिस्सेदार की तरफ़ पहली बार श्रद्धाभाव से देखा।”
• लेखक के मन में हिस्सेदार साहब के लिए श्रद्धा क्यों जग गई?
Ans. लेखक के मन में बस कंपनी के हिस्सेदार साहब के लिए श्रद्धा इसलिए जाग गई कि वह टायर की स्थिति से परिचित होने के बावजूद भी बस को चलाने का साहस जुटा रहा था। कंपनी का हिस्सेदार अपनी पुरानी बस की खूब तारीफ़ कर रहा था। अर्थ मोह की वजह से आत्म बलिदान की ऐसी भावना दुर्लभ थी जिसे देखकर लेखक हतप्रभ हो गया और उसके प्रति उनके मन में श्रद्धा भाव उमड़ता है।

2. “लोगों ने सलाह दी कि समझदार आदमी इस शाम वाली बस से सफ़र नहीं करते।”
• लोगों ने यह सलाह क्यों दी?

Ans. उस बस की हालत ऐसी थी कि वो किसी भूतहा महत के भूत पात्र सा प्रतीत हो रहा था। उसका सारा ढाँचा बुरी हालत में था. अधिकतर शीशे टूटे पड़े थे। इंजन और बस की बॉडी का तो कोई तालमेल नहीं था। उसको देखकर स्वयं ही अंदाज़ा लग जाता था कि वो अंधेरे में कहीं साथ न छोड़ दे या कोई दुर्घटना न हो जाए। कई लोग पहले भी उस बस से सफर कर चुके थे। वो अपने अनुभवों के आधार पर ही लेखक व उसके मित्र को बस में न बैठने की सलाह दे रहे थे। उनकी जर्जर दशा से पता नहीं वह कब खराब हो जाए या दुर्घटना कर बैठे।

3. “ऐसा जैसे सारी बस ही इंजन है और हम इंजन के भीतर बैठे हैं।”
• लेखक को ऐसा क्यों लगा?
Ans. लेखक को ऐसा इसलिए लगा, क्योंकि स्टार्ट होने पर बस के इंजन में ही कपन होना चाहिए था. पर यहाँ तो सारी बस ही बुरी तरह खड़-खड़ करती हुई हिलने लगीपूरी बस में तेज कंपन होने लगाखिड़कियों के काँच पूरे शोर के साथ हिलने लगेलेखक की सीट भी इस कंपन से काँप रही थीइससे लेखक तथा उसके साथी भी हिलने लगे थे।

4. “गजब हो गया। ऐसी बस अपने आप चलती है।”
• लेखक को यह सुनकर हैरानी क्यों हुई?

Ans. ऐसी बस अपने आप चलती है, यह बात सुनकर लेखक को इसलिए हेरानी हुई क्योंकि वह सोच रहा था, ऐसी खटारा बस चलने के योग्य तो है ही नहींउसकी जर्जर अवस्था देखकर वह विश्वास ही नहीं कर पाता था कि यह बस बिना धक्का दिए चलती होगी, पर कंपनी का भागीदार इसे अपने आप चलने की बात कर रहा था, जिसे सुनकर लेखक हैरान था

5. “मैं हर पेड़ को अपना दुश्मन समझ रहा था।”
• लेखक पेड़ों को दुश्मन क्यों समझ रहा था?

Ans. बस की जर्जर अवस्था से लेखक को ऐसा महसूस हो रहा था कि बस की स्टीयरिंग कहीं भी टूटा सकती है तथा ब्रेक फेल हो सकता है। ऐसे में लेखक को डर लग रहा था कि कहीं उसकी बस किसी पेड़ से टकरान जाए। एक पड़ निकल जाने पर वह दूसरे पेड़ का इंतजार करता था कि बस कहीं इस पेड़ से न टकरा जाए। यही वजह है कि लेखक को हर पेड़ अपना दुश्मन लग रहा था।

पाठ से आगे

1. ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ किसके नेतृत्व में, किस उद्देश्य से तथा कब हुआ था? इतिहास की उपलब्ध पुस्तकों के आधार पर लिखिए।
Ans. सविनय अवज्ञा आंदोलन महात्मा गाँधी के नेतृत्व में सन् 1930 में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध शुरू किया गया। उस समय भारतीय समाज गरीबी में दिन बिता रहा थालोगों को मुश्किल से दो जून की रोटी नसीब हो रही धीवे मुश्किल से नमक-रोटी खाकर गुजारा कर रहे थेअंग्रेजों ने नमक पर भी टैक्स लगा दियाइससे नाराज गांधीजी ने नमक बनाकर कानून भंग कियासविनय अवज्ञा आंदोलन के निम्नलिखित उद्देश्य थे :

(क) भारतीय किसान व्यावसायिक खेती करने पर विवश थेव्यापार में मंदी और गिरती कीमतों के कारण वे बहुत परेशान थे।

(ख) उनको आय कम होती जा रही थी और वे लगान का भुगतान नहीं कर पा रहे थे।

(ग) ब्रिटिश सरकार के शोषण के विरुद्ध इसे हथियार बनाया गया

2. सविनय अवज्ञा का उपयोग व्यंग्यकार ने किस रूप में किया है? लिखिए।
Ans.
सविनय अवज्ञा का उपयोग लेखक ने बस की जीर्ण-शीर्ण तथा खटारा दशा होने के बावजूद उसके चलने या चलाए जाने के संदर्भ में किया हैयह आंदोलन 1930 में अंग्रेजी सरकार की आज्ञा न मानने के लिए किया गया था 12 मार्च 1930 को डांडी मार्च करके नमक कानून तोड़ा गयाअंग्रेजों की दमनपूर्ण नीति के खिलाफ भारतीय जनता विनयपूर्वक संघर्ष के लिए आगे बढ़ती रही, यह खटारा बस भी जर्जर होने के बावजूद चलती जा रही थी

3. आप अपनी किसी यात्रा के खट्टे-मीठे अनुभवों को याद करते हुए एक लेख लिखिए।
Ans.
पिछली गर्मी की छुट्टियों की बात हेमुझे अपने मित्र के बड़े भाई की शादी में लखनऊ जाना थानियत तिथि पर जाने के लिए मैंने टिकट आरक्षण करवा लिया दुरभाग्य से उस दिन किसी कारण से दिल्ली-वाराणसी समर स्पेशल निरस्त कर दी गईमजबूरन मुझे बस अड्डे जाना पड़ावहाँ दो घंटे से पहले कोई बस न थीशाम के आठ बज चुके थेतभी एक व्यक्ति ‘तखनऊ चतो ए.सी. बस से लखनऊ चलो’ की आवाज लगाता आयामैंने जैसे ही उससे कुछ पूछना चाहा, उसके साथी मेरा सामान उठाकर बस की ओर चल पड़ेबस घोड़ी दूर बाहर खड़ी धीमेरे जैसी उसमें सात-आठ सवारियों और भी थींबस कंडक्टर ने अपने साथियों को और सवारी लाने भेज दियायात्रियों द्वारा शोर करने पर बस रात बारह बजे चलीए. सी. चलाने के लिए कहने पर कंडक्टर ने बताया कि ए.सी. अभी-अभी खराब हुआ हैगाजियाबाद से आगे जाते ही ड्राइवर ने बस एक होटल पर रोक दीड्राइवर कंडक्टर के मुफ्त में खाए भोजन का खर्च हमें देना पड़ाखैर अलीगढ़ से चलने के पंद्रह मिनट बाद ही चार नवयुवकों ने हाथ में चाकू निकाल लिए और यात्रियों से नकदी व सामान देने को कहाघबराए यात्रियों ने उनके आदेशों का पालन किया और वैसा ही करने लगे जैसा नवयुवकों ने कहा थाइसी बीच किसी लोकल यात्री ने सामान निकालने के बहाने बस का नंबर बताकर अलीगढ़ के डी.एस.पी. को फोन पर मैसेज भेज दिया, जो उसके रिश्तेदार घेतुटेरे बेफिक्री से अपना काम कर रहे थे कि आधे घंटे बाद सामने से आती पुलिस की गाड़ियों ने बस को रुकवा लिया और तुटेरों के भागने से पहले धर दबोचासब अपने-अपने सामान एवं नकदी पाकर बहुत प्रसन्न हुएमैसेज भेजने वाले व्यक्ति का साहस पूर्ण कार्य तथा उसका फोटो अगले दिन लखनऊ से प्रकाशित समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआखेर इस घटना के बाद बस सकुशल तखनऊ पहुँच गईमें तीसरे दिन लखनऊ मेल से दिल्ली वापस आ गयाआज भी हम उस व्यक्ति को मन-ही-मन धन्यवाद देते हैं।

मन-बहलाना

• अनुमान कीजिए यदि बस जीवित प्राणी होती, बोल सकती तो वह अपनी बुरी हालत और भारी बोझ के कष्ट को किन शब्दों में व्यक्त करती? लिखिए।
Ans. बस यदि जीवित प्राणी होती तो अपनी बुरी हालत और भारी बोझ के कष्ट को कुछ इस तरह कहती में एक पुरानी तथा जीर्ण-शीर्ण बस हूँआज से करीब तीस साल पहले में भी नई-नवेली, जवान तथा सुंदर थीमेरा ड्राइवर मुझे फूल- मालाओं से सजाता। मेरी सीट पर बैठने से पहले वह मेरे पैर छूता जरा भी गंदगी अंदर-बाहर दिख जाने पर कंडक्टर को डाँटता, पर आज लगता है कि यह सब सपने की बातें हैंआज में वृद्धा अवस्था में पहुँच गई हूँ तब से अब तक कई ड्राइवर तथा कंडक्टर बदल गए हैंइस समय जो ड्राइवर है, वह मेरा ध्यान नहीं रखता हेमेरी साफ-सफाई किए बिना ही मुझ पर सवार हो जाता हैशाम को मेरी सीटों पर बैठकर भोजन करता है और मुझे गंदा करके छोड़ जाता हैविश्वकर्मा पूजा के दिन के अलावा अब कभी मेरे ऊपर फूल माला नहीं चढ़ाई जाती हेमेरा चलने को मन नहीं होता है पर यह धक्के देन्देकर मुझे जबरदस्ती चलवाता हैसवारियाँ इतनी लाद लेता है कि मेरा अंग-अंग टूटने लगता है और लगता है कि अब दम निकल ही जाएमेरी आँखें खराब हो चुकी हैं तथा हाथ-पैर जवाब दे रहे हैं, पर मेरा ड्राइवर इन बातों से अनभिज्ञ है क्योंकि उसे पैसे कमाना है।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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