परिसंचरण तंत्र एवं व्याधियाँ

मानव (तथा उच्च श्रेणी के जन्तुओं) में पदार्थों के परिवहन के लिए एक पूर्ण विकसित परिसंचरण-तंत्र (circulatory system) होता है। इसके प्रमुख अवयव निम्नवत् हैं-

1. रुधिर (Blood)

2. हृदय (Heart)

3. रुधिर वाहिनियाँ (Blood vessels)

4. लसीका (Lymph)

रुधिर एक तरल माध्यम है जो सारे शरीर में प्रवाहित होकर पदार्थों का परिवहन करता है। हृदय एक प्रकार का पम्प (Pump) है जो रुधिर के प्रवाह हेतु आवश्यक दाब उत्पन्न करता है। रुधिर वाहिनियाँ ऐसी नलिकाएँ होती हैं जिनमें होकर रुधिर एक भाग से दूसरे भाग को जाता है। लसीका एक तरल माध्यम है जो रुधिर वाहिनियों तथा कोशिकाओं के पदार्थों का परिवहन करता है।

रुधिर (Blood)

रुधिर संयोजी ऊतक का रूपान्तर है तथा द्रवों की भांति प्रवाहित हो सकने के कारण तरल संयोजी ऊतक कहलाता है। यह वाहिनियों द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग में बहता रहता है तथा पदार्थों के परिवहन का कार्य करता है। अतः इसे परिसंचारी ऊतक (circulatory tissue) भी कहते हैं।

रुधिर का प्रमुख कार्य ऑक्सीजन को फेफड़ों से शरीर के सभी भागों में पहुँचाना तथा कार्बन डाईऑक्साइड को शरीर के भागों से फेफड़ों तक लाना है। इसे अतिरिक्त पोषण पदार्थ, वर्ज्य पदार्थ, हॉर्मोन आदि भी रुधिर द्वारा शरीर के एक भाग से दूसरे में पहुँचाये जाते हैं।

रुधिर की संरचना (Structure of Blood)

रुधिर लाल रंग का, चिपचिपा-सा, जल से कुछ भारी, अपारदर्शी, हल्का-सा क्षारीय पदार्थ होता है। रुधिर वाहिनियों व हृदय में से होता हुआ यह पूरे शरीर में लगातार परिक्रमा करता रहता है।

• मानव शरीर में रक्त की मात्रा शरीर के भार की लगभग 7-8 प्रतिशत होती है। इस प्रकार, एक औसत भार (लगभग 70 किग्रा) वाले स्वस्थ मनुष्य के शरीर में लगभग 5-5 1/2 लीटर रुधिर होता है। यह शरीर का लगभग 7-8 प्रतिशत भाग घेरे रहता है। स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा रक्त की मात्रा कम होती है।

• रुधिर के दो प्रमुख घटक हैं-(1) प्लाज्मा, (2) रुधिर कणिकाएँ।

➤ प्लाज्मा (Plasma)

यह हल्के पीले रंग का तरल होता है तथा रुधिर का 55-60 – प्रतिशत भाग होता है। इसमें 90-92 प्रतिशत जल होता है तथा बाकी 8-10 प्रतिशत में कई प्रकार के कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ होते हैं।

(क) अकार्बनिक पदार्थ- इसमें सोडियम क्लोराइड तथा सोडियम बाईकार्बोनेट मुख्य रूप से होते हैं। इसके अतिरिक्त कैल्शियम, मैग्नीशियम व पोटैशियम के फॉस्फेट व बाईकार्बोनेट भी सूक्ष्म मात्रा में होते हैं। ये सब लवण मिलकर रक्त का लगभग 0.9 प्रतिशत भाग बनाते हैं। इसी कारण रक्त हल्का-सा क्षारीय (PH. 7.35-7.45) होता है।

(ख) कार्बनिक पदार्थ- प्लाज्मा में कई प्रकार के कार्बनिक पदार्थ पाये जाते हैं

• पचे हुए भोज्य पदार्थ- इसमें अमीनो अम्ल, ग्लूकोज, वसीय अम्ल, ग्लिसरॉल, फॉस्फोलिपिड, कोलेस्टेरॉल तथा कुछ विटामिन प्रमुख हैं। शरीर की विभिन्न कोशिकाएं इन पदार्थों को रक्त से आवश्यकतानुसार लेती रहती है।

• प्रोटीन- फाइब्रिनोजन, प्रोथ्रोम्बिन, ग्लोब्यूलिन, एल्ब्यूनिन आदि प्रमुख प्रोटीन हैं जो प्लाज्मा में मिलती हैं। प्लाज्मा में इनकी मात्रा लगभग 7 प्रतिशत से 8 प्रतिशत होती है।

• उत्सर्जी पदार्थ- शरीर की विभिन्न कोशिकाओं व अंगों द्वारा विमुक्त उत्सर्जी पदार्थ इनमें शामिल हैं। जैसे-अमोनिया (NH3), यूरिया तथा यूरिक अम्ल आदि।

• हॉर्मोन्स तथा एण्टीबॉडीज ये भी रुधिर प्लाज्मा में घुले रहते हैं।

• घुलित गैसें इसमें मुख्यतः O2, CO2, N2 गैसें पायी जाती हैं। 100 मिलीलीटर प्लाज्मा में लगभग 0.29 मिलीलीटर 0, 0.5 मिलीलीटर N2 और 0.5 मिलीलीटर CO2 गैस घुली होती है।

➤ रुधिर कणिकाएँ (Blood Corpuscles)

ये रुधिर का लगभग 40-45 प्रतिशत भाग होते हैं। ये तीन प्रकार की होती हैं

(क) लाल रुधिर कणिकाएँ, (ख) श्वेत रुधिर कणिकाएँ, (ग) प्लेटलेट्स।

(क) लाल रुधिर कणिकाएँ अथवा इरिथ्रोसाइट्स (Red blood corpuscles or Erythrocytes): मनुष्य में लाल रुधिर कणिकाएँ छोटी, चपटी, गोल तथा दोनों ओर से बीच में दबी हुई अर्थात् उभयावतल (biconcave) होती हैं।

• R.B.C. में केन्द्रक नहीं होता है।*

• ऊँट तथा लामा के R.B.C. में केन्द्रक होते हैं, जो अपवाद हैं।*

• एक स्वस्थ मनुष्य के शरीर में इनकी संख्या लगभग 45 से 50 लाख प्रति घन मिमी. तक होती है।*

• प्रोटीन, आयरन, विटामिन B., B₁₂ तथा फोलिक अम्ल R.B.C. निर्माण में सहायक होते हैं।*

• इनकी जीवन अवधि लगभग 120 दिनों तक होती है।*

• लाल रुधिर कणिकाओं का निर्माण लाल अस्थिमज्जा (Bone marrow) में होता है किन्तु भ्रूणीय अवस्था में R.B.C. का निर्माण प्लीहा तथा यकृत में होता है।*

कार्य (Functions)- लाल रुधिर कणिकाओं में लौहयुक्त प्रोटीन पाया जाता है जिसे हीमोग्लोबिन कहते हैं। जिसमें हीमो वर्णक है। इसका रंग लाल होता है इसी कारण रुधिर कणिकाएँ लाल होती हैं। हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन तथा कार्बन डाईऑक्साइड के परिवहन में भाग लेता है। उदाहरणार्थ-

• श्वसनांगों में हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन को अवशोषित करके एक अस्थायी यौगिक बनाता है जिसे ऑक्सीहीमोग्लोबिन (oxyhaemoglobin) कहते हैं।

हीमोग्लोबिन + ऑक्सीजन = ऑक्सीहीमोग्लोबिन (श्वसनांगों में) ऑक्सीहीमोग्लोबिन रुधिर परिसंचरण द्वारा उन कोशिकाओं तक पहुँचता है, जहाँ ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। वहां पर ऑक्सीहीमोग्लोबिन विखण्डित होकर ऑक्सीजन को मुक्त कर देती है। मुक्त ऑक्सीजन कोशिकाओं में विसरित होकर श्वसन में भाग लेता है।

ऑक्सीहीमोग्लोबिन हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन (कोशिकाओं में)

• हीमोग्लोबिन श्वसन क्रिया के उपरान्त कोशिकाओं में मुक्त कार्बन डाईऑक्साइड के साथ मिलकर अस्थायी यौगिक बनाता है जिसे कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन कहते हैं।

हीमोग्लोबिन + CO₂ = कार्बोक्सीहिमोग्लोबिन (कोशिकाओं में) यह यौगिक परिसंचरण द्वारा श्वसनांगों में पहुँचकर हीमोग्लोबिन तथा कार्बन डाईऑक्साइड में विभक्त हो जाता है जहाँ से कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण में मुक्त हो जाती है।

कार्बोव-सी ही मोग्लोबिन हीमोग्लोबिन + CO₂ (फेफड़ों में)

हीमोग्लोबिन फेफड़ों में पुनः ऑक्सीजन से संयोग करती है तथा यह क्रिया बारम्बार होती रहती है।

(ख) श्वेत रुधिर कणिकाएं (White blood corpuscles):

श्वेत रुधिर कणिकाओं को अवर्णी कोशिकाएं (Leucocytes) भी कहते हैं क्योंकि इनमें हीमोग्लोबिन अनुपस्थित होने के कारण ये श्वेत रंग की होती है।

• इनका कोई निश्चित आकार नहीं होता है।*

• इनकी संख्या लाल रुधिर कणिकाओं से कम होती है। (मनुष्य के रुधिर में 4000 से 10,000 प्रति घन मिमी. तक) इनमें केन्द्रक उपस्थित होती है।*

इनका जीवनकाल 10-13 दिन ही होता है। ये मुख्यतः दो प्रकार की होती हैं (i) कणिकामय श्वेत रुधिर कणिकाएँ (Granulocytes), (ii) कणिकाविहीन श्वेत रुधिर कणिकाएँ (Agranulocytes)

➤ कणिकाणु (Granulocytes)

इनका कोशिकाद्रव्य दानेदार, तथा केन्द्रक-युक्त होता है। केन्द्र अनियमित एवं खण्डों में विभाजित रहता है। ये तीन प्रकार की होती हैं-

1. इओसिनोफिल्स (Eosinophils) या एसीडोफिल्स- ये श्वेत कणिकाओं की 1 से 4 प्रतिशत होती हैं। इनके जीवद्रव्य दानेदार एवं दो पिंडों में विभक्त केन्द्रक (जो क्रोमेटिन के बने होते हैं और एक सूत्र द्वारा जुड़े रहते हैं) का बना होता है। इनके कण अम्लीय रंगों (इओसिन) द्वारा रंगे जा सकते हैं। ये शरीर में प्रतिरक्षण तथा संवेदनशीलता का कार्य करती हैं। * इनकी अधिकता होने से इओसिनोइफिलिया रोग हो जाता है।*

2. बेसोफिल्स (Basophils)- ये श्वेत कणिकाओं की 0.5 प्रतिशत होती हैं। कोशिका द्रव्य में कण बड़े-बड़े, संख्या में कम तथा केन्द्रक दो/तीन पिंडों का बना होता है। ये क्षारीय माध्यम (मेथिलिन ब्यू) से रंगे जा सकते हैं। एलर्जन के सम्पर्क में आते ही बेसोफिल्स हिस्टैमिन (Histamine) को स्स्रावित करती हैं जिससे एलर्जी हो जाती है और राइनिटिस एवं दमा के लक्षण प्रगट होते हैं।*

3. न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils)- इनकी संख्या अवर्णी कोशिकाओं की 50-70% होती है।* कोशिका द्रव्य में कणों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक परन्तु कण आकार में छोटे होते हैं। केन्द्र दो से अधिक पिंडों में विभक्त होता है, जो परस्पर सूत्रों द्वारा जुड़े रहते हैं। ये सभी प्रकार के रंगों (न्यूट्रल, क्षारीय, अम्लीय) में रंगे जा सकते हैं। ये जीवाणुओं तथा अन्य बाहरी पदार्थों को नष्ट करती हैं।*

➤ अकणकोशिका (Agranulocytes)

इस प्रकार की अवर्णी कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य में कण नहीं पाये जाते हैं। इनका निर्माण लसिका ग्रन्थियों में होता है।* केन्द्रक बड़ा तथा एक पिंड का बना होता है। ये दो प्रकार की होती हैं-

1. लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes) – ये श्वेत कणिकाओं का 25 से 33 प्रतिशत भाग होती हैं, इनका व्यास 7-10 प्रतिशत होता है।* ये आकार में छोटी होती है और इनकी प्रत्येक कोशिका में गोल एवं बड़ा केन्द्रक पाया जाता है। इनमें भ्रमण की क्षमता कम होने के कारण ये हानिकारक जीवाणुओं का भक्षण कम कर पाती हैं। ये प्रतिरक्षियों (antibodies) को बनाती हैं व उनकी वृद्धि को उत्तेजित करती हैं।*

2. मोनोसाइट्स (Monocytes) – यह श्वेत कणिकाओं का 2 से 6 प्रतिशत भाग बनाती हैं। इनका केन्द्रक छोटा तथा एक ओर से कटा हुआ होता है। इन कोशिकाओं में अमीबा की भाँति कूटपाद निकले होते हैं जो इन्हें गमन में सहायता करते हैं। ये शरीर में भ्रमण करते हुए हानिकारक जीवाणुओं व रोगाणुओं का भक्षण करती रहती हैं।*

(ग) रुधिर प्लेटलेट्स (Blood Platelets)

रुधिर प्लेटलेट्स या थ्राम्बोसाइट केवल मनुष्य के रुधिर में पायी जाती हैं। * इनकी संख्या एक घन मिली. रक्त में 3 लाख होती है।* इनका आकार अनिश्चित व व्यास 2-4 मिली माइक्रान होता है। इनमें केन्द्रक अनुपस्थित होता है। ये अस्थिमज्जा में निर्मित होती है। * इनका जीवनकाल 7-10 दिन का होता है।*

पम्पित रुधिर वितरण
अंग
प्रतिशत
• हत्पेशियों में
10
• मस्तिष्क में
15
• पाचन तंत्र
25
• वृक्कों
20
• अन्य अंग
30

• कार्य- ये रुधिर का थक्का बनाती है जिससे रक्त-स्राव रुक जाता है तथा कटा हुआ स्थान रुधिर के थक्के से ढककर, जीवाणुओं तथा धूल आदि से सुरक्षित हो जाता है।

रुधिर के कार्य (Function of the blood)- रुधिर के निम्नलिखित कार्य हैं –

ऑक्सीजन परिवहन : रुधिर ऑक्सीजन को फेफड़ों से शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुँचाता है।

• कार्बन डाईऑक्साइड परिवहन: शरीर की प्रत्येक कोशिका में श्वसन क्रिया के उपरान्त बनी कार्बन डाईऑक्साइड को रुधिर अवशोषित कर फेफड़ों में भेजता है, जहाँ से वह बाहर निकाल दी जाती है।

• भोज्य पदार्थों का परिवहन: पाचन तंत्र में अवशोषित भोजन रुधिर के ही द्वारा विभिन्न अंगों तक पहुँचता है।

• उत्सर्जी पदार्थों का परिवहन : यूरिया, यूरिक अम्ल तथा अमोनिया जैसे पदार्थों को रुधिर उत्सर्जी अंगों तक पहुँचाता है।

• हार्मोन्स का परिवहन: अन्तःस्रावित ग्रन्थियों से स्रावित हार्मोन्स रुधिर के द्वारा सभी अंगों तक ले जाया जाता है।

• रोगों से रक्षा: श्वेत रुधिर कणिकाएं हानिकारक जीवाणुओं, विषाणुओं आदि का भक्षण करती हैं। कुछ अवर्णी कोशिकाएं प्रतिरक्षियों का निर्माण करती हैं जो हमारे शरीर के विजातीय तत्वों का विनाश करने में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं।

• शारीरिक ताप का नियंत्रण: उच्च कोटि के जीव (स्तनधारी जैसे मनुष्य, वानर, गाय आदि तथा पक्षी) नियततापी (warm blooded) होते हैं। अर्थात् इनके शरीर का ताप हर मौसम में एक समान रहता है। शरीर के ताप को नियंत्रित रखने का कार्य रुधिर द्वारा – किया जाता है।

• रक्तस्त्राव को रोकना: रुधिर की प्लेटलेट्स कणिकाएं स्थान या घाव पर रुधिर का थक्का बनाकर उसकी रक्षा करती हैं।

• जल-संतुलन: रुधिर शरीर में जल के संतुलन को नाये रखती है।

• कोशिकाओं की उचित दशा: रुधिर ऊतकीय द्रव में लवण, जल, अम्ल आदि की मात्रा का नियंत्रण करके कोशिकाओं के लिए उचित दशा को बनाये रखता है।

• विभिन्न अंगों में सहयोग: शरीर के विभिन्न भागों के बीच पोषक पदार्थों, उत्सर्जी पदार्थों, हार्मोनों आदि का परिवहन करके रुधिर शरीर के विभिन्न अंगों के कार्यों में समन्वय स्थापित करता है।

• शरीर की सफाई: श्वेत रुधिर कणिकाएँ शरीर में मृत कोशिकाओं के मलबे (debris) का भक्षण करके उसे एकत्र होने से बचाती हैं।

हृदय संरचना एवं परिसंचरण (Structure of Heart & Circulation)

मनुष्य का हृदय हाथ की मु‌ट्ठी के आकार का, शंक्वाकार (conical) पेशीय अंग है, जो फेफड़ों के बीच कुछ बायीं ओर स्थित होता है। यह एक झिल्लीनुमा थैली में सुरक्षित रहता है, जिसे हृदयावरण (Pericardial membrane) कहते हैं।* इस थैली में हृदयावरण-द्रव (Pericardial fluid) भरा रहता है जो बाहरी आघातों से हृदय की रक्षा करता है।

मानव के हृदय में चार कोष्ठ अथवा वेश्म (chambers) होते हैं जो एक-दूसरे से पटों द्वारा विभाजित रहते हैं। ऊपरी दो वेश्म छोटे एवं पतले होते हैं। इन्हें अलिन्द (auricle) कहते हैं। अलिन्द दो होते हैं- दायां अलिन्द (right auricle) तथा बायां अलिन्द (left auricle), अलिन्दों के नीचे दो निलय-दायां निलय (Right ventricle) तथा बायां निलय (Left ventricle) होते हैं। प्रत्येक अलिन्द तथा उसके नीचे के निलय के बीच एक छिद्र होता है जिसे अलिन्द-निलय कपाट (Atrio-ventricular valve) कहते हैं। ये कपाट ऐसे होते हैं जो केवल निलय की ओर खुलते हैं। इस प्रकार इन कपाटों से होकर रुधिर केवल अलिन्द से निलय की ओर जा सकता है, विपरीत दिशा में नहीं। दायाँ छिद्र त्रिदलीय कपाट (Tricuspid valve) से तथा बायां छिद्र द्विदलीय कपाट (bicuspid valve) से सुरक्षित रहता है।

दो अग्र (ventral) तथा एक पश्च (portal) महाशिराएं पृथक् पृथक् छिद्रों द्वारा दाहिने अलिन्द में खुलती हैं और शरीर के विभिन्न अंगों से एकत्रित अशुद्ध रक्त यहाँ पहुँचाती हैं। इसके विपरीत पल्मोनरी शिराएं (pulmonary veins) फेफड़ों से लाया शुद्ध रक्त बाएँ अलिन्द में पहुंचाती हैं। ये भी छिद्रों द्वारा बाएं अलिन्द में खुलती हैं परन्तु इन पर कोई कपाट नहीं होते, दाएँ निलय से पल्मोनरी महाधमनी (pulmonary artery) निकलती है जिसके द्वारा अशुद्ध रक्त फेफड़ों में पहुँचता है। यह अर्द्धचन्द्राकार कपाट द्वारा रक्षित रहता है जो रुधिर को निलय में वापस आने से रोकता है। बाएँ निलय से एक बड़ी सिस्टेमिक महाधमनी (Systemic artery) निकलती है जिसके आधार पर तीन अर्द्धचन्द्रकार कपाट होते हैं। ये निलय में रुधिर को वापस आने से रोकते हैं।

रुधिर का परिसंचरण (Blood circulation)

हृदय की कार्यविधि –

(i) सारे शरीर से अशुद्ध रक्त एकत्र होकर अग्र तथा पश्च महाशिराओं द्वारा दाहिने अलिन्द (Right auricle) में पहुँचता है।

(ii) दाएँ अलिन्द के संकुचन से यह रुधिर त्रिदलीय कपाट से होता हुआ दाएँ निलय (Right ventricle) में पहुंचता है।

(iii) दाएँ निलय के संकुचन पर अशुद्ध रक्त पल्मोनरी (फुफ्फुस) महाधमनी से होता हुआ फेफड़ों में पहुँच जाता है, जहाँ से यह ऑक्सीजन प्राप्त करके शुद्ध हो जाता है।*

(iv) शुद्ध रक्त पल्मोनरी शिराओं (Pulmonary Veins) द्वारा बाएँ अलिन्द में आता है।*

(v) बाएँ अलिन्द के संकुचन पर फेफड़ों से आया हुआ शुद्ध रक्त बाएँ निलय में द्विदलीय कपाट द्वारा आ जाता है।

(vi) बाएं निलय के संकुचन से शुद्ध रुधिर सिस्टेमिक महाधमनी में चला जाता है, जहाँ से यह शरीर के विभिन्न अंगों को जाता है।

रुधिर-वाहिनियाँ (Blood-vessels)

हृदय से शुद्ध रुधिर का प्रवाह रुधिर वाहिनियों द्वारा शरीर के समस्त भागों में होता है तथा शरीर में से अशुद्ध रक्त को एकत्र करके रुधिर वाहिनियाँ पुनः हृदय में पहुँचाती हैं। किसी भी रुधिर-वाहिनी में रक्त का प्रवाह केवल एक ही दिशा में होता है। रुधिर वाहिनियाँ विभिन्न आकार की होती हैं। सबसे मोटी वाहिनी का व्यास लगभग 1 सेमी तथा सबसे पतली वाहिनी का व्यास लगभग 0.001 मिमी होता है। रुधिर वाहिनियाँ तीन प्रकार की होती हैं

1. धमनियाँ (Arteries) जो वाहिनियाँ हृदय से रुधिर को शरीर के विभिन्न भागों में वितरित करती हैं उन्हें धमनियाँ कहते हैं। इनमें सामान्यतः शुद्ध रुधिर (oxygenated blood) बहता है परन्तु पल्मोनरी धमनी में हृदय से फेफड़ों को अशुद्ध रुधिर (deoxygenated blood) प्रवाहित होता है।

• धमनियों की दीवारें अपेक्षाकृत मोटी, पेशीय तथा लचीली होती है। अतः इसकी गुहा पतली होती है। यही कारण है कि धमनियां हृदय के पम्प करते समय अन्दर से रुधिर के दाब का सहन कर लेती हैं।

2. शिराएँ (Veins)– जो वाहिनियाँ शरीर के विभिन्न अंगों से रुधिर को एकत्रित करके हृदय में पहुँचाती हैं उन्हें शिराएं कहते हैं। इनमें सामान्यतः अशुद्ध रुधिर बहता है परन्तु पल्मोनरी शिरा में शुद्ध रुधिर फेफड़ों से हृदय की ओर बहता है। शिराओं की दीवारें पतली होती हैं। इनकी गुहा अधिक चौड़ी होती है। अधिकांश शिराओं में कपाट (valve) लगे होते हैं, जो रुधिर को हृदय की ओर जाने देते हैं परन्तु वापस नहीं आने देते।

3. रुधिर केशिकाएँ (Blood capillaries) धमनियाँ सिरों पर पतली-पतली शाखाओं में बंट जाती हैं जिन्हें धमनिकाएँ (arterioles) कहते हैं। धमनिकाएँ विभिन्न ऊतकों में प्रवेश कर पुनः विभाजित होकर पतली-पतली केशिकाएँ (capillaries) बनाती हैं। ये केशिकाएं पुनः पुनः मिलकर शिरकाओं (venules) का निर्माण करती हैं और शिरकायें पुनः आपस में मिलकर शिराओं (veins) का निर्माण करती हैं।

रुधिर केशिकाएँ बहुत महीन होती हैं। इनके भित्ति की मोटाई केवल एक कोशिका जितनी होती है। केशिकाओं की भित्ति पानी, छोटे-छोटे अणुओं, घुलित खाद्य पदार्थों, अवशिष्ट पदार्थों, कार्बन डाईआक्साइड तथा ऑक्सीजन के लिए पारगम्य (permeable) होती है। अतः रुधिर केशिका तथा ऊतक कोशिकाओं के बीच उपर्युक्त सभी पदार्थों का आदान-प्रदान होता है तथा रुधिर के माध्यम से आवश्यक पदार्थों का परिसंचरण भी होता है। केशिकाएँ फेफड़ों में ऑक्सीजन तथा कार्बन डाईऑक्साइड का आदान-प्रदान करती हैं। केशिकाओं का व्यास बहुत पतला होता है। यही कारण है कि लाल रुधिर केशिकाएँ इनमें पंक्तिबद्ध होकर एक-एक करके आगे बढ़ती हैं।

रुधिर वर्ग तथा रुधिर-आधान (Blood Group & Transfusion)

किसी गंभीर चोट, शल्य-क्रिया अथवा बीमारी के कारण मनुष्य में रक्त की कमी हो सकती है। ऐसी दशा में प्रभावित व्यक्ति को दूसरे मनुष्य का रक्त देने की आवश्यकता होती है। प्राचीन काल से ही चिकित्सक रोगियों को स्वस्थ मनुष्य का रक्त देकर उनके प्राणों की रक्षा करते हैं और यह प्रक्रिया रुधिर आधान (blood transfusion) कहलाती है। अनेक बार रुधिर आधान घातक सिद्ध हुआ है, क्योंकि कभी-कभी रक्त लेने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। 1902 में कार्ल लैण्डस्टोनर ने बताया कि सभी मनुष्यों का रुधिर समान नहीं होता है। रुधिर आधान के लिए देने वाले (दाता) और लेने वाले व्यक्ति (प्रापक) का रुधिर समान होना चाहिए। यदि दाता और प्रापक का रुधिर समान नहीं है तो दाता की रुधिर कोशिकाएँ प्रापक के शरीर में पहुँचकर थक्के बना लेती हैं। यह क्रिया अभिश्लेषण (agglutination) अथवा क्लम्पिंग (clumping) कहलाती है। इसके कारण रुधिर प्राप्त करने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।

1. रुधिर के प्रतिजॅन (Antigens) एवं प्रतिरक्षी (Antibodies)- लैण्डस्टोनर ने पता लगाया कि मानव की लाल रक्त कणिकाओं की कोशिका कला में एक विशेष प्रकार की प्रोटीन (ग्लाइकोप्रोटीन) होती है जिसे प्रतिजॅन (antigen) कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं- एण्टीजॅन ‘A’ और एण्टीजॅन ‘B’। लैण्डस्टोनर ने मानव में तीन प्रकार के रक्त वर्ग निर्धारित किए-

• A (जिसमें A एण्टीजन होता है)

• B (जिसमें B एण्टीजॅन होता है)

• O (जिसमें कोई एण्टीजॅन नहीं होता)

• बाद में डी केस्टीलो तथा स्ट्रलरी ने मनुष्य में चौथे रुधिर-वर्ग AB का भी पता लगाया। इसमें A एवं B, दोनों एण्टीजन होते हैं।*

लैण्डस्टोनर ने यह भी बताया कि प्लाज्मा में प्रतिरक्षी प्रोटीन अथवा एण्टीबॉडी (antibodies) a तथा b होती हैं। जिस रुधिर की लाल रुधिर-कणिकाओं पर एण्टीजॅन A होता है, उसमें एण्टीबाडी a नहीं होता। इसी प्रकार B एण्टीजॅन वाली रुधिर कणिकाओं के होने पर प्लाज्मा में b एण्टीबॉडी नहीं होती। इस प्रकार मानवों में चार रुधिर-वर्ग बताए गये।

रुधिर वर्गलाल रुधिर कणिकाओं में एण्टीजॅनरुधिर प्लाज्मा में एण्टीबॉडी
A
B
AB
O
केवल A
केवल B
A, B दोनों
कोई नहीं
केवल B
केवल A
न A न B
A, B दोनों

यदि किसी रुधिर की लाल-कणिकाओं में A एण्टीजॅन है तथा एण्टीबॉडी a वाला प्लाज्मा इसमें मिल जाय तो A वर्ग की लाल- कणिकाओं का अभिश्लेषण हो जाता है- अर्थात् रुधिर जम जाता है। इसी प्रकार B एण्टीजॅन युक्त लाल-कणिकाओं से एण्टीबॉडी b वाला प्लाज्मा मिल जाने से रुधिर का अभिश्लेषण हो जाता है।

2. रुधिर का आधान (Blood transfusion) किसी भी व्यक्ति को रक्त चढ़ाते समय यह सुनिश्चित करना होता है कि दाता के रक्त में ऐसे एण्टीजन नहीं होने चाहिए जो प्रापक के प्लाज्मा में उपस्थित एण्टीबॉडी से मिलकर रक्त का थक्का बना लें। निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट होता है कि किस वर्ग के प्रापक को किस वर्ग के दाता का रक्त दिया जा सकता है-

दाता
प्रापक
वर्ग A
A एण्टीबॉडी
वर्ग B
B एण्टीबॉडी
वर्ग AB
कोई एण्टीबॉडी नहीं
वर्ग O
A, B दोनों एण्टीबॉडी
वर्ग A (A एण्टीजॅन)
वर्ग B (B एण्टीजॅन)
वर्ग AB (Aव B एण्टीजॅन)
O वर्ग (कोई एण्टीजॅन नहीं)












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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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