जन्तुओं का वर्गीकरण (Classification of Animal)

स्टोरर तथा यूसिंजर (1975) ने अत्यधिक वैज्ञानिक ढंग से जन्तुओं का वर्गीकरण किया हैं आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा इसे अधिक मान्यता मिली है। इन्होंने जन्तु जगत के दो उपजगतों (Subkingdom) में विभाजित किया है। यथा-

(A) प्रोटोजोआ (Protozoa) – इसमें एककोशिकीय (unicellular) सरल प्राणी आते हैं। इस समूह के समस्त प्राणी आपस में अत्यधिक मिलते जुलते हैं। अतः इन सबको एक ही संघ (phylum) के अन्तर्गत रखा गया है जिसे संघ प्रोटोजोआ (protozoa) कहते हैं।

(B) मेटाजोआ (Metazoa) – इसमें बहुकोशिकीय प्राणी आते हैं। इन जन्तुओं का शरीर अनेक छोटी-छोटी कोशिकाओं से मिलकर बना होता है ये रचना में प्रोटोजोआ के प्राणियों से अधिक जटिल होते हैं।

सुविधानुसार बहुकोशिकीय जन्तुओं को पुनः दो भागों में बाटां गया हैं वह बहुकोशिकीय जन्तु जिनमें रीढ़ की हड्डी (vertebral column or back bone) नहीं होती है उन्हें अकशेरुकी (invertebrates) कहते हैं तथा जिनमें रीढ़ की हड्डी होती है उन्हें कशेरुकी (vertebrates) कहते हैं।

मेटाजोआ को 9 संघों या समुदायों (phyla) में विभाजित किया गया है। इस प्रकार जन्तु जगत को कुल मिलाकर 10 संघों (समुदाय) में बांटा गया है। यथा-

संघः प्रोटोजोआ (Protozoa)

Protos -प्रथम, zoon – जन्तु = प्रथम जन्तु अर्थात इस समुदाय के जन्तु सृष्टि के प्रथम जन्तु माने जाते हैं। ये रचना में सरल तथा एककोशिकीय होते हैं। इनके जीवन की सारी क्रियायें एक ही कोशिका में सम्पन्न होती हैं। इनमें अधिकांश पानी में रहने वाले स्वतंत्र जीवी होते हैं। कुछ जातियाँ परजीवी या मृतोपजीवी भी होते हैं। इन जन्तुओं में प्रचलन क्रिया कूटपादों (pseudopodia) कशाभों (fla- gellum) या रोमाभों (cilia) द्वारा होती है। श्वसन क्रिया विसरण द्वारा होती है। इस क्रिया में पानी में घुली हुई ऑक्सीजन कोशिका के अन्दर पहुंचती रहती है तथा कार्बन डाईआक्साइड कोशिका से बाहर निकलती रहती है। जनन अलैंगिक या लैंगिक जैसे : अमीबा, यूग्लीना, पैरामीशियम, प्लाज्मोडियम आदि।

➤ अमीबा (Amoeba)

यह तालाबों, पोखरों, नहरों, झरनों, नदियों के स्थिर एवं मीठे जल के कीचड़ में पाया जाता है। इसका आकार अनिश्चित होता है। इसके शरीर के चारों ओर प्लाज्मालेमा नामक झिल्ली होती है। इसके वाह्य सतह से छोटी-छोटी रचनायें बनती-बिगड़ती रहती हैं, जिन्हें कूटपाद या पादाभ (pseudopodia) कहते हैं। यही जन्तु के प्रचलन अंग हैं तथा जन्तु इसी से शिकार को पकड़ता है (UPPCS Main)। इसके जीवद्रव्य में एक केन्द्र, कई खाद्य रिक्तिकायें एवं संकुचनशील रिक्तिकायें पायी जाती हैं।

➤ एण्टअमीबा हिस्टोलिटिका (Entamoeba histolytica)

मनुष्य की बड़ी आंत में पाया जाने वाला यह एक हानिकारक परजीवी है, जिसके द्वारा पेचिस नामक रोग होता है। ये आंत की श्लेष्मा में घाव कर देते हैं जिससे पेट में दर्द, मरोड़ व ऐंठन होती है तथा मल के साथ खून आने लगता है।

➤ यूग्लीना (Euglena)

यह तालाबों के स्वच्छ जल में पाया जाता है। यूग्लीनायुक्त तालाबों में जल के ऊपर हरे रंग की पर्त बन जाती है क्योंकि इन जन्तुओं के शरीर में पर्णहरिम पाया जाता है। इसके अग्र सिरे पर कोशिका मुख (cytostome) होता है। कोशिकामुख से एक धागे के समान रचना निकलती है जिसे कशाभ (flagella) कहते हैं। यही जन्तु का प्रचलन अंग है। * कोशिका के मध्य में एक केन्द्रक होता है – तथा शरीर में अनेकों हरित लवक होते हैं यह जन्तु पादपों की भाँति प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा अपना भोजन स्वयं बनाता है। यह पादप एवं जन्तु का संयोजक जीव है।*

➤ पैरामीशियम (Paramecium)

यह तालाब तथा पोखरों में ऐसे जगह पाया जाता है जहां के जल में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है। इसका आकार चप्पल के तलवे (sole) के समान होता है। इस जन्तु में प्रचलन पक्ष्माभिकायें (Cilias) द्वारा होता है।

➤ प्लाज्मोडियम (Plasmodium)

मलेरिया (Malaria or Ague) रोग प्लाज्मोडियम (Plasmodium) नामक रोगजनक परजीवी (Pathogenic parasite) प्रोटोजॉन के संक्रमण से होता है। ऐनोफेलीज मच्छर की मादाएँ प्लाज्मोडियम की वाहक (carrier or vector) होती हैं, अर्थात् ये इसे एक मनुष्य से दूसरे मनुष्यों में फैलाती हैं।*

प्लाज्मोडियम का जीवन-चक्र जटिल होता है। इसमें कई प्रावस्थाएँ (stages) होती हैं। इसका कुछ भाग मनुष्य के तथा शेष भाग मादा ऐनोफेलीज के शरीर में पूरा होता है। ऐसे जीवन-चक्र को, जो दो भिन्न प्रकार के जन्तुओं में पूरा होता हो, द्विपोषपदीय जीवन-चक्र (digenetic life-cycle) कहते हैं। मनुष्य प्लाज्मोडियम का प्राथमिक पोषद (principal host) होता है और मादा ऐनोफेलीज द्वितीयक पोषद (secondary host)।* इस प्रकार, मादा ऐनोफेलीज प्लाज्मोडियम को फैलाने वाली वाहक पोषद (vector or carrier host) होती है। प्लाज्मोडियम का अलैंगिक (asexual) जनन मनुष्य में होता है जबकि मच्छर में लैगिंक जनन एवं वीजाणुजनन (sporogony)।

संघ : पोरीफेरा (Porifera)

इस समुदाय के जन्तुओं के शरीर में छोटे-छोटे अनेक छिद्र (pores) होते हैं जिन्हें आस्टिया (ostia) कहते हैं। समुदाय का नाम पोरीफेरा (छिद्रधारी) रखा गया है। इसलिए इस जन्तुओं का शरीर बेलनाकार तथा पौधों की भाँति शाखान्वित होता है। ये प्रायः झीलों एवं समुद्रों में पत्थरों से चिपके हुए मिलते हैं। इन्हें स्पंज कहते हैं। बहुकोशिकीय होते हुए भी इनके शरीर में ऊतकों तथा अंगों का निर्माण नहीं होता है।* इनके शरीर में एक बड़ी गुहा होती है जिसे स्पंजगुहा (spongocoel) कहते हैं। गुहा अग्र सिरे पर स्थित एक बड़े छिद्र द्वारा बाहर खुलती है जिसे ऑसकुलम (osculum) कहते हैं।

इस प्रणाली को नलिका प्रणाली (canal system) कहते हैं। इस प्रणाली में पानी के साथ-साथ छोटे-छोटे जीव जन्तु (भोजन के वास्ते) तथा श्वसन के लिए घुलित ऑक्सीजन स्पंज गुहा में ऑसकुलम के माध्यम से पहुंचती रहती है। यहां से CO₂ तथा अन्य उत्सर्जी पदार्थों सहित जल आसकुलम के रास्ते शरीर के बाहर निकलती रहती है। शरीर में अंतः कंकाल के रूप में अनेक कंटिकायें (spicules) पायी जाती हैं जैसे- सांइकन, ल्यूकोसोलीनिया, यूस्पॉन्जिया, स्पान्जिला, यूप्लैक्टेला आदि।

• बाथ स्पंज या यूस्पॉन्जिया (Euspongia)- यह अमेरिका तथा पश्चिमी भारत के समुद्री तट पर पाया जाता है। यह गहरे भूरे रंग के पटिलाकार (lamelliform) या सपालिक (lobed) आकार के स्पन्ज हैं। इसके कंकाल को सुखा कर स्नान के कार्य में लाया जाता है इसीलिए इसे बाथ स्पन्ज (bath sponge) भी कहते हैं।

• यूप्लैक्टेला (Euplectella) – यह एक अत्यन्त सुन्दर समुद्री स्पन्ज (Sponge) है जिसे बीनस के फूलों की टोकरी (Venus flower basket) कहते हैं। यह मुख्य रूप से फिलीपीन्स द्वीप समूह, वेस्टइन्डीज तथा जापान के गहरे समुद्रों में पाया जाता है।

• स्पान्जिला (spongilla) – यह तालाबों एवं झीलों में पाया जाता है और टहनियों पत्तियों या पत्थर में चिपका रहता है। यह पीले, हरे या कत्थई रंग के कोलोनियल (colonial) स्पन्ज हैं।

संघः सीलेन्ट्रेटा या निडेरिया (Coelenterata)

इस संघ के प्राणियों में ऊतक बनने की प्रारम्भिक अवस्था पाई जाती है। शरीर दो स्तरों (डिप्लोब्लास्टिक) का बना होता है। शरीर का बाह्यस्तर बाह्यत्वचा या एक्टोडर्मिस तथा भतरी स्तर गैस्ट्रोडर्मिस कहलाता है। इन दोनों के बीच अकोशिकीय मीसेग्लिया होती है। शरीर के अगले सिरे पर मुख होता है। इस पर स्पर्शक (tentacle) लगे होते हैं। इनमें गुदा नहीं होती। स्पर्शकों में डंक मारने वाली दंश कोशिकाएँ (nematocysts) होती हैं। ये शिकार को मूर्छित करने व पकड़ने में मदद करती हैं और शत्रु से रक्षा करती हैं। इनके शरीर में केवल एक गुहा होती है जो जठर-वाहिनी गुहा या सीलेन्ट्रॉन कहलाती है। उसी विशेषता के कारण यह संघ सीलेन्ट्रेटा कहलाता है।

इसके कुछ जन्तु एकलिंगी होते हैं। जैसे-पॉलिप, हाइड्रा, मूंगा,जेलीफिश, सी-एनीमोन आदि।

संघः प्लैटीहेल्मिन्थिस (Platyhelminthes)

इस संघ के जन्तुओं का शरीर फीते की तरह चपटा होता है। शरीर तीन स्तरों : एक्टोडर्म, मीसोडर्म, एण्डोडर्म का बना होता है परन्तु इसमें देहगुहा नहीं होती। अधिकांश जीव परजीवी होते हैं। इनमें पोषक के शरीर से चिपकने के लिए मुख के चारों ओर चूषक एवं काँटे पाये जाते हैं। उत्सर्जन के लिये एक विशेष प्रकार ज्वाला कोशिकाएँ (flame cells) होती हैं। ये जन्तु उभयलिंगी या द्विलिंगी होते हैं, अर्थात् नर एवं मादा अंग एक ही जन्तु के शरीर में पाये जाते हैं। जैसे : प्लैनैरिया, लीवरफ्लूक (फैशिओला), फीता-कृमि, सिस्टोसोमा आदि।

• फीताकृमि (Tape Worm)- अर्थात टीनिया सोलियम (Tenia solium) एक अन्तः परजीवी जन्तु है जो मुख्यतः सुअर, मनुष्य, भेड़, बकरी तथा बन्दर आदि की आंतों में पाया जाता है। इसका शरीर लम्बा, पतला तथा फीते के समान होता है। इसका जीवन चक्र दो पोषकों में पूरा होता है जैसे-मनुष्य तथा सुअर में। इसके प्रभाव से मनुष्य में रक्तहीनता, आंतों में दर्द, जी मिचलाना तथा कमजोरी आदि होती है।

संघः ऐस्कैहेल्मिन्थीज (Aschelminthes)

इस संघ को निमैटीहेल्मिन्थीज या निमैटोडा अथवा गोलकृमि की भी संज्ञा प्रदान की गई है। इनका शरीर क्यूटिकल (Cuticle) से आवरित, लम्बा, बेलनाकार, धागेनुमा व दोनों सिरों पर नुकीला होता है। इसमें खण्डों का अभाव होता है। * ये त्रिस्तरीय, द्विपार्श्व सममित प्राणी हैं। आहारनाल के एक सिरे पर मुख तथा दूसरे सिरे पर गुदा होती है। इनमें श्वसन तथा रुधिर परिसंचरण तंत्र का अभाव होता है।* ये जन्तु एकलिंगी होते हैं अर्थात् नर तथा मादा अंग अलग-अलग जन्तुओं में पाये जाते हैं।* अधिकांश जन्तु अंतः परजीवी होते हैं।* जैसे : ऐस्कैरिस, फाइलेरिया कृमि, सूत्रकृमि (thread worms), Entero- bius or Pinworm हुक वर्म आदि।

संघः ऐनेलिडा (Annelida)

एनेलिडा अर्थात् खण्ड युक्त कृमि । इस संघ के जन्तु लम्बे, बेलनाकार, कोमल शरीर वाले, द्विपार्श्व सममित तथा त्रिस्तरीय होते हैं। इनका शरीर अनेक छल्लेदार खण्डों का बना होता है। शरीर पर क्यूटिकल का आवरण होता है। इनके शरीर की संरचना ‘नली के अन्दर नली’ (tube within tube) के रूप में होती है। * देहगुहा सीलोम कहलाती है। यह पटों द्वारा वेश्मों में बँटी होती है। इनमें पाचन, संवहन, उत्सर्जन, जनन व तंत्रिका तंत्र पाये जाते हैं। उत्सर्जी अंग नेफ्रीडिया (nephridia) कहलाते हैं। जैसे : केंचुआ (Earthworm), जोंक (Leech) तथा नेरीस (Nereis) ।

➤ केंचुए (Earthworm)

इसका जन्तु वैज्ञानिक नाम फेरिटिमा पोस्थुमा (pheretima posthuma) है। यह द्विलिंगी जन्तु है जो मिट्टी के अन्दर स्वतंत्र रूप से जीवन व्यतीत करता है। इसका शरीर लम्बा एवं बेलनाकार होता है। शरीर अनेकों खण्डों (segments) में बंटा होता है। इसके अग्र सिरे पर चन्द्राकार मुख तथा पश्च सिरे पर गुदा स्थित होती है। केंचुए के मुख के ऊपर एक छोटी गोल रचना होती है जिसे मुखाग्र (prostomium) कहते हैं। इसी के द्वारा वह मिट्टी को काटता रहता है। केंचुआ मिट्टी के अन्दर सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों को खाता है। यह मिट्टी को खाकर अपनी सुरंग बनाता है। मिट्टी आहारनाल से होती हुई गुदा द्वारा छोटी- छोटी गोलियों के रूप में बाहर निकलती रहती है। जिसे कास्टिंग (casting) कहते हैं। केंचुए में 14.15 तथा 16 वां खण्ड मिलकर एक पट्टीयुक्त रचना बनाते हैं। जिसे क्लाइटेलम कहते हैं। केंचुए के अधर तल के 14वें खण्ड पर मादा जनन छिद्र तथा 18वें खण्ड पर नर जनन छिद्र होता है। केंचुआ भूमि को सरन्ध्र बनाता है तथा उनका कास्टिंग उपयोगी खाद है। अतः यह किसानों का मित्र कहा जाता है।

संघ : आर्थोपोडा (Arthropoda)

इन जन्तुओं का शरीर खण्डयुक्त (segmented) तथा टांगे जोड़दार (jointed) होती हैं, इसलिए इस समुदाय का नाम आर्थोपोडा पड़ा है। शरीर प्रायः तीन भागों सिर (head), धड़ (thorax) तथा उदर (abdomen) में विभक्त होता है। इस समुदाय के जन्तुओं का शरीर काइटिन नामक आवरण (वाह्य कंकाल) से ढका होता है। नर व मादा जन्तु अलग-अलग होते हैं। समय-समय पर बहिःकंकाल शरीर से उतरता है और इसके स्थान पर नया बहिःकंकाल बनता है। यह क्रिया मोल्टिंग कहलाती है। शरीर के प्रत्येक खण्ड में एक-एक जोड़ी बहुखण्डीय उपांग (jointed appendages) होते हैं। ये कार्यों के अनुरूप जबड़ों, क्लोम या टाँगों के रूप में पाये जाते हैं। श्वसन के लिए जलीय जन्तुओं के क्लोम तथा स्थलीय जन्तुओं में ट्रेकिया या बुकलंग पाये जाते हैं। इनमें शरीर की सतह (त्वचा) द्वारा भी श्वसन होता है। रुधिर परिवहन तंत्र खुला होता है। देहगुहा रुधिर से भरी हीमोसील गुहा (haemocoel cavity) होती है, जिसमें सभी अंग इसमें डूबे रहते हैं।* नेत्र संयुक्त होते हैं अर्थात् प्रत्येक आँख में तालों (lens) की संख्या अनिश्चित होती है। इस संघ को मुख्य चार वर्गों में विभक्त किया गया है। यथा-
(1) क्रस्टेसिया (2) मीरीयोपोडा (3) इन्सेक्टा (4) अरेकनाइडा

(1) क्रस्टेसिया (Crustacea) : इस वर्ग के जन्तु तालाबों, नदियों, झीलों तथा समुद्रों में पाये जाते हैं। जन्तुओं का सिर और वक्ष परस्पर मिल कर एक संयुक्त रचना का निर्माण करते हैं जिसे शिरोवक्ष (cephalo-thorax) कहते हैं। संयुक्त नेत्र एक छोटी डंठल (stalk) के सिरे पर स्थित होता है। सिर में दो जोड़ी श्रृंगिकायें होती हैं। इनके द्वारा स्पर्शज्ञान होता है। इसमें विभिन्न प्रकार के केकड़े (crabs), झींगा मछली (prawn)*, क्रे फिश (RAS/RTS:18)* आदि आते हैं।

(2) मीरियोपोडा (Myriopoda) : इस वर्ग के जन्तु कूड़ा-करकट या नम जमीन के अन्दर रहते हैं। इनका आकार लम्बा तथा पृष्ठ और प्रतिपृष्ठ तल से चपटा होता है। शरीर छोटे-छोटे खण्डों में बंटा होता है। प्रथम खण्ड को छोड़कर शेष खण्डों में एक या दो टांगें निकलती हैं। जन्तुं के अग्रभाग में एक जोड़ी विष ग्रंथियां होती हैं जो इनके विषैले पंजों पर खुलती हैं। सिर में एक जोड़ी श्रृंगिका होती है। श्वसन एक विशेष प्रकार की शाखायुक्त नलियों द्वारा होता है जिन्हें श्वासनाल या ट्रैकिया (tra- chea) कहते हैं। उदाहरण-कनखजूरा या कांतर (Centipede or Scolopendra), गिजई या लिल्ली घोड़ी (Thyroglutus)।

(3) इंसेक्टा (Insecta) : इस वर्ग के जन्तु भूमि, वायु तथा जल में पाये जाते हैं। जन्तुओं का शरीर सिर, वक्ष और उदर में बंटा होता है। सिर में एक जोड़ी श्रृंगिका (antennae) पायी जाती है। वक्ष से लगी तीन जोड़ी जोड़दार (jointed) टांगें होती है।* कुछ जातियों में उड़ान के लिए वक्ष में पंख लगे होते हैं। मुखांग (mouth part) में एक जोड़ी मैडिबुल्स तथा दो जोड़ी मैक्सिली होती है। श्वसन क्रिया श्वसन नलिकाओं (trachea) द्वारा होती है।* रुधिर में हीमोग्लोबिन नहीं पाया जाता है तथा रुधिर परिवहन तंत्र खुला होता है। जैसे : खटमल, जूँ, पिस्सू, चींटी, दीमक एवं सिल्वर फिश आदि पंखहीन जन्तु हैं। इसी प्रकार तिलचट्टा विभिन्न प्रकार की मक्खियाँ, बर्र, तितलियाँ, मच्छर, टिड्डा आदि पंख वाले जन्तु हैं।

(4) अरेक नाइडा (Arachnida): इस वर्ग के जन्तु जमीन के अन्दर पत्थरों के नीचे घास-फूस में तथा घरों की दीवारों पर पाये जाते हैं। जन्तु के सिर और वक्ष संयुक्त रूप से शिरोवक्ष बनाते हैं। उदर भाग उपांग-रहित होता हैं। इसके सिर पर श्रृंगिकायें नहीं होती हैं। टांगे केवल चार जोड़ी होती हैं।* श्वसन बुकलंग्स (book lungs) द्वारा होता है।* जीवन-वृन्त में रूपान्तरण नहीं होता है। जैसे-बिच्छू, मकड़ी, किलनी (ticks), चिंचड़ियाँ (mites) आदि।

संघः मोलस्का (Mollusca)

इस समुदाय के जन्तु अधिकांश समुद्री, कुछ अलवणीय जल में और कुछ नम भूमि पर पाये जाते हैं। इन जन्तुओं का शरीर बहुत कोमल होता है। इसलिए इनका नाम मोलस्का पड़ा। सिर और पाद (foot) को छोड़कर जन्तु का सम्पूर्ण शरीर मैण्टल (mantal) नामक आवरण से घिरा होता है, अपने चारों ओर कैल्शियम युक्त कठोर आवरण का निर्माण करता है जिसे कवच (shell) संज्ञा प्रदान की गई है। कवच कोमल शरीर की रक्षा करता है। कुछ जन्तुओं (ऑक्टोपस) में कवच का अभाव होता है। इनमें प्रचलन हेतु एक चपटा, चौड़ा एवं पेशीयुक्त पाद होता है। रुधिर प्रायः रंगहीन होता है लेकिन कुछ जन्तुओं का रुधिर नीला या हरा होता है। श्वसन गिल्स या वायु कोषों (air sac) द्वारा होता है। ये अधिकांश एकलिंगी होते हैं। जैसे : घोंघा, सीपी (Unio), कौड़ी, सीपिया (Sepia), शंख, ऑक्टोपस, पर्ल ओइस्टर, यूनियो, स्कविडस (Squids), डेण्टैलियम (Den- talium), लैमेलीडेंस (Lamellidens), नॉटिलस, काइटन आदि।

➤ घोंघा (Pila)

यह गड्ढों, पोखरों तथा तालाबों में पाया जाता है। इनका शरीर कुण्डलित होता है जो कठोर कवच से ढका रहता है। यह एक शाकाहारी जीव होता है जो जलीय पौधों के ऊपर अपना जीवन निर्वाह करता है। जन्तु के अग्रभाग पर सिर के नीचे पेशीय चपटा पाद (foot) होता है। इसके सिर से एक जोड़ी डंठल पर आंखे स्थित होती हैं। तथा दो जोड़ी स्पर्शक (tentacles) लगे होते हैं। यह एकलिंगी जन्तु है।

➤ सीप (Unio)

यह गड्‌ढों, तालाबों की कीचड़ या बालू में मिलता है। यह मांसाहारी जन्तु होता है। इसका कोमल शरीर पार्श्व से चपटा होता है। इस जन्तु का मेंटल तथा कठोर कवच (shell) दो अर्धभागों (bi- valved) में बंटा होता है। श्वसन गिल्स द्वारा होता है।

➤ ऑक्टोपस (Octopus)

यह समुद्री मांसाहारी जन्तु है। इसमें कवच नहीं होता है अर्थात यह एक मृदुकवची (Molluse) जन्तु है (IAS-03)। इसे डेबिल फिश की भी संज्ञा प्रदान की गई है। यह एक सिफैलोपोड मोलस्का है, जिसकी आठ भुजायें होती है जो कई मीटर लम्बी होती है। इसके सिर में मुख, दो बड़े नेत्र तथा भुजाओं पर चूषक (sucker) पाये जाते हैं। ये चूषकों द्वारा किसी जन्तु के शरीर से चिपक कर उसे जकड़ लेते हैं। ये बड़े-बड़े जन्तुओं को मार डालते हैं।

➤ सीपिया (Sepia)

इस कट्ल मछली (cuttle fish) भी कहते हैं। यह समुद्रों में पायी जाती है। सिर पर मुख, दो आंखें तथा दस जोड़ी भुजायें होती है। भुजाओं पर चूषक पाये जाते हैं। कवच (shell) शरीर के अन्दर होता है। इसके शरीर में स्याही ग्रन्थि (ink gland) पाई जाती है। इससे जन्तु इंक के समान एक काले रंग का द्रव्य छोड़ता है जिससे पानी गहरा रंगीन हो जाता है जिससे अन्धेरे में भाग कर शत्रुओं से अपनी रक्षा करता है।

संघः इकाइनोडर्मेटा (Echinodermata)

इस संघ को यह नाम जैकब क्लीन ने 1738 में दिया। प्रायः इस संघ के सभी जीव समुद्र में पाये जाते हैं। शरीर गोल, नालवत्  या तारेसदृश, त्रिस्तरीय, खण्डविहीन होता है। इनमें वास्तविक देहगुहा (True coelom) पायी जाती है, जो शिशु प्रावस्था में द्विपार्वीय सममित (Bi- laterally symmetrical), परन्तु वयस्क में पंचतयी अरीय (pentamerous ra- dial) हो जाती है। इनमें स्पष्ट शीर्ष (head) एवं मस्तिष्क का अभाव होता है। मुखवर्ती तल (oral surface) पाँच अरीय ऐम्बुलैक्रल (ambulacral) तथा पाँच अन्तरा-ऐम्बुलैक्रल (interam- bulacral) क्षेत्रों में विभेदित होती है। इनके खुरदरी, दृढ़ व चिम्मड़ देहभित्ति में कैल्सियमयुक्त अस्थिकाओं या कण्टिकाओं का अन्तःकंकाल पाया जाता  है वास्तविक देहगुहा रोमाभि (ciliated) पेरीटोनियम द्वारा घिरी तथा अनेक नलिकाओं एवं पात्रों (sinuses) में बँटी जिनसे कि तीन विशिष्ट तन्त्र (system) बनते हैं-जल-संवहनी (water-vascular), हीमल (haemal) तथा पेरीहीमल (perihaemal)। जल-संवहनी तंत्र, मैं एक छिद्र युक्त पट्टिका होती है जिससे जल शरीर के अन्दर प्रवेश करता है।

हीमल एवं पेरीहीमल तंत्रों का सम्बन्ध रुधिर-संचरण से होता है। गमन के लिए जल-संवहनी तन्त्र से सम्बन्धित विशेष प्रकार के छोटे-छोटे खोखले प्रवर्ध, अर्थात् नालपाद (tube feet) होते हैं। ये भोजन-ग्रहण, संवेदना-ग्रहण तथा प्रायः श्वसन में भी सहायक होते हैं। पाचन तन्त्र सरल आहारनाल प्रायः कुण्डलित होते हैं। विशिष्ट उत्सर्जन अंगों का अभाव तन्त्रिका तन्त्र तथा संवेदांग अपेक्षाकृत कम विकसित होता है। इस संघ के जन्तु में कोई केन्द्रीय तन्त्रिका तन्त्र नहीं पाया जाता है। जनन मुख्यतः लैंगिक; जननांग प्रायः एकलिंगी ■ और पुनरुत्पादन (regeneration) की बहुत क्षमता होती है। जैसे : तारा मछली (Starfish), समुद्री खीरा (Sea cucumber), ब्रिटिल स्टार (Brittle star), समुद्री आर्चिनस (Sea urchins) कुकुमेरिया (Cucumaria), थायोन (Thyone), एण्टीडान (Antidon), होलोथूरिया आदि।

यह भी पढ़ें : जन्तु विज्ञान (Zoology) : अध्याय – 5

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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