संविधान निर्माण : अध्याय 2

परिचय

पिछले अध्याय में हमने देखा कि लोकतंत्र में शासक लोग मनमानी करने के लिए आज़ाद नहीं हैं। कुछ बुनियादी नियम है जिनका पालन नागरिकों और सरकार, दोनों को करना होता है। ऐसे सभी नियमों का सम्मिलित रूप संविधान कहलाता है। देश का सर्वोच्च कानून होने की हैसियत से संविधान नागरिकों के अधिकार, सरकार की शक्ति और उसके कामकाज के तौर-तरीकों का निर्धारण करता है।

इस अध्याय में हम लोकतंत्र के संवैधानिक स्वरूप पर कुछ बुनियादी सवाल उठाएँगे। हमें संविधान की जरूरत क्यों होती है? संविधान बनते कैसे हैं? उन्हें कौन बनाता है और किस तरीके से बनाता है? किसी लोकतांत्रिक देश के संविधान को आकार देने वाले मूल्य कौन-कौन से हैं? एक बार संविधान बन जाने के बाद क्या हम बाद में बदलती स्थितियों के अनुरूप उसमें बदलाव कर सकते हैं?

हाल के दिनों में संविधान बनाने का एक उदाहरण दक्षिण अफ्रीका का है। वहाँ क्या हुआ और दक्षिण अफ्रीकी लोगों ने किस तरह अपने संविधान निर्माण के काम को अंजाम दिया? हम इस अध्याय की शुरुआत में इसी अनुभव पर गौर करेंगे। इसके बाद हम भारतीय संविधान के निर्माण और इसके पीछे के मौलिक विचारों-मूल्यों की चर्चा करेंगे और देखेंगे कि यह किस तरह नागरिकों के जीवन और सरकार के अच्छे कामकाज के लिए बढ़िया ढाँचा उपलब्ध कराता है।

2.1 दक्षिण अफ्रीका में लोकतांत्रिक संविधान

“मैंने गोरों के प्रभुत्व के खिलाफ़ संघर्ष किया है और मैंने ही अश्वेतों के प्रभुत्व का विरोध किया है। मैंने एक ऐसे लोकतांत्रिक और स्वतंत्र समाज की कामना की है जिसमें सभी लोग पूरे मेल-जोल के साथ रहें और सबको समान अवसर उपलब्ध हों। मैं इसी आदर्श के लिए जीवित रहना और इसे पाना चाहता हूँ और अगर ज़रूरत पड़ी तो इस आदर्श के लिए मैं जान देने को भी तैयार हूँ।”

यह नेल्सन मंडेला का कथन है जिन पर दक्षिण अफ्रीका की गोरों की सरकार ने देशद्रोह का मुकदमा चलाया था। उन्हें और सात अन्य नेताओं को 1964 में देश में रंगभेद से चलने वाली शासन व्यवस्था का विरोध करने के लिए आजीवन कारावास की सजा दी गई थी। अगले 27 वर्षों तक उन्हें दक्षिण अफ्रीका की सबसे भयावह जेल, रोब्बेन द्वीप में कैद रखा गया था।

रंगभेद के खिलाफ़ संघर्ष

रंगभेद नस्ली भेदभाव पर आधारित उस व्यवस्था का नाम है जो दक्षिण अफ्रीका में विशिष्ट तौर पर चलाई गई। दक्षिण अफ्रीका पर यह व्यवस्था यूरोप के गोरे लोगों ने लादी थी। 17वीं और 18वीं सदी में व्यापार करने आई यूरोप की कंपनियों ने दक्षिण अफ्रीका को भी उसी तरह हथियारों और जोर-जबर्दस्ती से गुलाम बनाया जैसे भारत को। पर भारत से उलट काफ़ी बड़ी संख्या में गोरे लोग दक्षिण अफ्रीका में बस गए और उन्होंने स्थानीय शासन को अपने हाथों में ले लिया। रंगभेद की राजनीति ने लोगों को उनकी चमड़ी के रंग के आधार पर बाँट दिया। दक्षिण अफ्रीका के स्थानीय लोगों की चमड़ी का रंग काला होता है। आबादी में उनका हिस्सा तीन-चौथाई है और उन्हें ‘अश्वेत’ कहा जाता था। श्वेत और अश्वेतों के अलावा वहाँ मिश्रित नस्लों जिन्हें ‘रंगीन’ चमड़ी वाला कहा जाता था और भारत से गए लोग भी थे। गोरे शासक, गोरों के अलावा शेष सब को छोटा और नीचा मानते थे। इन्हें वोट डालने का अधिकार भी नहीं था।

रंगभेद को शासकीय नीति अश्वेतों के लिए खास तौर से दमनकारी थी। उन्हें गोरों की बस्तियों में रहने बसने की इजाजत नहीं थी। परमिट होने पर ही वे वहाँ जाकर काम कर सकते थे। रेल गाड़ी, बस, , टैक्सी, होटल, अस्पताल, स्कूल और कॉलेज, पुस्तकालय, सिनेमाघर, नाट्यगृह, समुद्र तट, तरणताल और सार्वजनिक शौचालयों तक में गोरों और कालों के लिए एकदम अलग-अलग इंतज़ाम थे। इसे पृथक्करण या अलग-अलग करने का इंतज़ाम कहा जाता था। काले लोग गोरों के लिए आरक्षित जगह तो क्या उनके गिरजाघर तक में नहीं जा सकते थे। अश्वेतों को संगठन बनाने और इस भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध करने का भी अधिकार नहीं था।

1950 से ही अश्वेत, रंगीन चमड़ी वाले और भारतीय मूल के लोगों ने रंगभेद प्रणाली के खिलाफ़ संघर्ष किया। उन्होंने विरोध प्रदर्शन किए और हड़तालें आयोजित कीं। भेदभाव वाली इस शासन प्रणाली का विरोध करने वाले संगठन अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के झंडे तले एकजुट हुए। इनमें कई मज़दूर संगठन और कम्युनिस्ट पार्टी भी शामिल थी। अनेक समझदार और संवेदनशील गोरे लोग भी रंगभेद समाप्त करने के आंदोलन में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के साथ आए और उन्होंने इस संघर्ष में प्रमुख भूमिका निभाई। अनेक देशों ने रंगभेद की निंदा की और इस व्यवस्था के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। लेकिन गोरी सरकार ने हजारों अश्वेत और रंगीन चमड़ी वाले लोगों की हत्या और दमन करते हुए अपना शासन जारी रखा।

एक नए संविधान की ओर

रंगभेद के खिलाफ़ जब संघर्ष और विरोध बढ़ता गया तो सरकार को यह एहसास हो गया कि अब वह ज़ोर-ज़बर्दस्ती से अश्वेतों पर अपना राज कायम नहीं रख सकती। इसलिए, गोरी सरकार ने अपनी नीतियों में बदलाव शुरू किया। भेदभाव वाले कानूनों को वापस ले लिया गया। राजनैतिक दलों पर लगा प्रतिबंध और मीडिया पर लगी पाबंदियाँ उठा ली गईं। 28 वर्ष तक जेल में कैद रखने के बाद नेल्सन मंडेला को आज़ाद कर दिया गया। आखिरकार 26 अप्रैल 1994 की मध्य रात्रि को दक्षिण अफ्रीका गणराज्य का नया झंडा लहराया और यह दुनिया का एक नया लोकतांत्रिक देश बन गया। रंगभेद वाली शासन व्यवस्था समाप्त हुई और सभी नस्ल के लोगों की मिलीजुली सरकार के गठन का रास्ता खुला।

यह सब कैसे हुआ? आइए इस असाधारण बदलाव के बाद नए दक्षिण अफ्रीका के पहले राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के मुँह से यह जानें:

“ऐतिहासिक रूप से एक दूसरे के दुश्मन रहे दो समूह रंगभेद वाली शासन व्यवस्था की जगह शांतिपूर्ण ढंग से लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाने पर सहमत हो गए क्योंकि दोनों को एक-दूसरे की भलमनसाहत पर भरोसा था और वे इसे मानने को तैयार थे। मेरी कामना है कि दक्षिण अफ्रीकी लोग कभी भी अच्छाई पर विश्वास करना न छोड़ें और इस बात में आस्था रखें कि मनुष्य जाति पर विश्वास करना ही हमारे लोकतंत्र का आधार है।”

नए लोकतांत्रिक दक्षिण अफ्रीका के उदय के साथ ही अश्वेत नेताओं ने अश्वेत समाज से आग्रह किया कि सत्ता में रहते हुए गोरे लोगों ने जो जुल्म किए थे उन्हें वे भूल जाएँ और गोरों को माफ़ कर दें। उन्होंने कहा कि आइए, अब सभी नस्लों तथा स्त्री-पुरुष की समानता, लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों पर आधारित नए दक्षिण अफ्रीका का निर्माण करें। एक पार्टी ने दमन और नृशंस हत्याओं के ज़ोर पर शासन किया था और दूसरी पार्टी ने आजादी की लड़ाई की अगुवाई की थी। नए संविधान के निर्माण के लिए दोनों ही साथ-साथ बैठीं।

दो वर्षों की चर्चा और बहस के बाद उन्होंने जो संविधान बनाया वैसा अच्छा संविधान दुनिया में कभी नहीं बना था। इस संविधान में नागरिकों को जितने व्यापक अधिकार दिए गए हैं उतने दुनिया के किसी संविधान ने नहीं दिए हैं। साथ ही उन्होंने यह फ़ैसला भी किया कि मुश्किल मामलों के समाधान की कोशिशों में किसी को भी अलग नहीं किया जाएगा और न ही किसी को बुरा या दुष्ट मानकर बर्ताव किया जाएगा। इस बात पर भी सहमति बनी कि पहले जिसने चाहे जो कुछ किया हो लेकिन अब से हर समस्या के समाधान में सबकी भागीदारी होगी। दक्षिण अफ्रीकी संविधान की प्रस्तावना ही इस भावना को बहुत खूबसूरत ढंग से व्यक्त करती है (पृष्ठ 30 देखें)।

दक्षिण अफ्रीकी संविधान से दुनिया भर के लोकतांत्रिक लोग प्रेरणा लेते हैं। 1994 तक जिस देश की दुनिया भर में अलोकतांत्रिक तौर-तरीकों के लिए निंदा की जाती थी, आज उसे लोकतंत्र के मॉडल के रूप में देखा जाता है। यह काम दक्षिण अफ्रीकी लोगों द्वारा साथ रहने, साथ काम करने के दृढ़ निश्चय और पुराने कड़वे अनुभवों को आगे के इंद्रधनुषी समाज बनाने में एक सबक के रूप में प्रयोग करने की समझदारी दिखाने के कारण संभव हुआ। एक बार फिर मंडेला के शब्दों में ही ये बातें समझें:

“दक्षिण अफ्रीका का संविधान इतिहास और भविष्य, दोनों की बातें करता है। एक तरफ तो यह एक पवित्र समझौता है कि दक्षिण अफ्रीकी के रूप में हम, एक-दूसरे से यह वायदा करते हैं कि हम अपने रंगभेदी, क्रूर और दमनकारी इतिहास को फिर से दोहराने की अनुमति नहीं देंगे। पर बात इतनी ही नहीं है। यह अपने देश को इसके सभी लोगों द्वारा वास्तविक अर्थों में साझा करने का घोषणापत्र भी है-श्वेत और अश्वेत, स्त्री और पुरुष, यह देश पूर्ण रूप से हम सभी का है।”

2.2 हमें संविधान की ज़रूरत क्यों है ?

हमें एक संविधान की ज़रूरत क्यों है और संविधान क्या करता है, इस बात को हम दक्षिण अफ्रीका के उदाहरण से समझ सकते हैं। इस नए लोकतंत्र में दमन करने वाले और दमन सहने वाले, दोनों ही साथ-साथ समान हैसियत से रहने की योजना बना रहे थे। दोनों के लिए ही एक-दूसरे पर भरोसा कर पाना आसान नहीं था। उनके अंदर अपने-अपने किस्म के डर थे। वे अपने हितों की रखवाली भी चाहते थे। बहुसंख्यक अश्वेत इस बात पर चौकस थे कि लोकतंत्र में बहुमत के शासन वाले मूल सिद्धांत से कोई समझौता न हो। उन्हें बहुत सारे सामाजिक और आर्थिक अधिकार चाहिए थे। अल्पसंख्यक गोरों को अपनी संपत्ति और अपने विशेषाधिकारों की चिंता थी।

लंबे समय तक चली बातचीत के बाद दोनों पक्ष समझौते का रास्ता अपनाने को तैयार हुए। गोरे लोग बहुमत के शासन का सिद्धांत और एक व्यक्ति एक वोट को मान गए। वे गरीब लोगों और मज़दूरों के कुछ बुनियादी अधिकारों पर भी सहमत हुए। अश्वेत लोग भी इस बात पर सहमत हुए कि सिर्फ बहुमत के आधार पर सारे फ़ैसले नहीं होंगे। वे इस बात पर सहमत हुए कि बहुमत के ज़रिए अश्वेत लोग अल्पसंख्यक गोरों की ज़मीन-जायदाद पर कब्ज़ा नहीं करेंगे। यह समझौता आसान नहीं था। इस समझौते को लागू करना और भी कठिन था। इसे लागू करने के लिए पहली जरूरत थी कि वे एक-दूसरे पर भरोसा करें और अगर वे एक-दूसरे पर भरोसा कर भी लें तो क्या गारंटी है कि भविष्य में इसे तोड़ा नहीं जाएगा?

ऐसी स्थिति में भरोसा बनाने और बरकरार रखने का एक ही तरीका है कि जो बातें तय हुई हैं उन्हें लिखत-पढ़त में ले लिया जाए जिससे सभी लोगों पर उन्हें मानने की बाध्यता रहे।

भविष्य में शासकों का चुनाव कैसे होगा, इसके बारे में नियम तय होकर लिखित रूप में आ जाते हैं। चुनी हुई सरकार क्या-क्या कर सकती है और क्या-क्या नहीं कर सकती यह भी लिखित रूप में मौजूद होता है। इन्हीं लिखित नियमों में नागरिकों के अधिकार भी होते हैं। पर ये नियम तभी काम करेंगे जब जीतकर आने वाले लोग इन्हें आसानी से और मनमाने ढंग से नहीं बदलें। दक्षिण अफ्रीकी लोगों ने इन्हीं चीज़ों का इंतज़ाम किया। वे कुछ बुनियादी नियमों पर सहमत हुए। वे इस बात पर भी सहमत हुए कि ये नियम सबसे ऊपर होंगे और कोई भी सरकार इनकी उपेक्षा नहीं कर सकती। इन्हीं बुनियादी नियमों के लिखित रूप को संविधान कहते हैं।

संविधान रचना सिर्फ दक्षिण अफ्रीका की ही खासियत नहीं है। हर देश में अलग-अलग समूहों के लोग रहते हैं। संभव है कि उनके रिश्ते दक्षिण अफ्रीका के गोरे और कालों जितने कटुतापूर्ण नहीं हों। पर दुनिया भर में लोगों के बीच विचारों और हितों में फ़र्क रहता है। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली हो या न हो पर दुनिया के सभी देशों को ऐसे बुनियादी नियमों की जरूरत होती है। यह बात सिर्फ़ सरकारों पर ही लागू नहीं होती। हर संगठन के कायदे- कानून होते हैं, संविधान होता है। इस तरह आपके इलाके का कोई क्लब हो या सहकारी संगठन या फिर राजनैतिक दल, सभी को एक संविधान की जरूरत होती है।

संविधान लिखित नियमों की ऐसी किताब है जिसे किसी देश में रहने वाले सभी लोग सामूहिक रूप से मानते हैं। संविधान सर्वोच्च कानून है जिससे किसी क्षेत्र में रहने वाले लोगों (जिन्हें नागरिक कहा जाता है) के बीच के आपसी संबंध तय होने के साथ-साथ लोगों और सरकार के बीच के संबंध भी तय होते हैं। संविधान अनेक काम करता है जिनमें ये प्रमुख हैं:

• ‘पहला’ यह साथ रह रहे विभिन्न तरह के लोगों के बीच ज़रूरी भरोसा और सहयोग विकसित करता है।

• ‘दूसरा’ यह स्पष्ट करता है कि सरकार का गठन कैसे होगा और किसे फ़ैसले लेने का अधिकार होगा।

• ‘तीसरा’ यह सरकार के अधिकारों की सीमा तय करता है और हमें बताता है कि नागरिकों के क्या अधिकार हैं, और

• चौथा, यह अच्छे समाज के गठन के लिए लोगों की आकांक्षाओं को व्यक्त करता है।

जिन देशों में संविधान है, वे सभी लोकतांत्रिक शासन वाले हों यह ज़रूरी नहीं है। लेकिन जिन देशों में लोकतांत्रिक शासन है वहाँ संविधान का होना ज़रूरी है। ब्रिटेन के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई के बाद अमेरिकी लोगों ने अपने लिए संविधान का निर्माण किया। फ्रांसीसी क्रांति के बाद फ्रांसीसी लोगों ने एक लोकतांत्रिक संविधान को मान्यता दी। इसके बाद से यह चलन हो गया कि हर लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में – एक लिखित संविधान हो।

2.3 भारतीय संविधान का निर्माण

दक्षिण अफ्रीका की ही तरह भारत का संविधान भी बहुत कठिन परिस्थितियों के बीच बना। भारत जैसे विशाल और विविधता भरे देश के लिए संविधान बनाना आसान काम नहीं था। भारत के लोग तब गुलाम की हैसियत से निकलकर नागरिक की हैसियत पाने जा रहे थे। देश ने धर्म के आधार पर हुए बँटवारे की विभीषिका झेली थी। भारत और पाकिस्तान के लोगों के लिए बँटवारा भारी बर्बादी और दहलाने वाला अनुभव था।

विभाजन से जुड़ी हिंसा में सीमा के दोनों तरफ कम-से-कम दस लाख लोग मारे जा चुके थे। एक बड़ी समस्या और भी थी। अंग्रेजों ने देसी रियासतों के शासकों को यह आज़ादी दे दी थी कि वे भारत या पाकिस्तान जिसमें इच्छा हो अपनी रियासत का विलय कर दें या स्वतंत्र रहें। इन रियासतों का विलय मुश्किल और अनिश्चय भरा काम था। जब संविधान लिखा जा रहा था तब देश का भविष्य इतना सुरक्षित और चैन भरा नहीं लगता था जितना आज है। संविधान निर्माताओं को देश के वर्तमान और भविष्य की चिंता थी।

संविधान निर्माण का रास्ता

सारी मुश्किलों के बावजूद भारतीय संविधान निर्माताओं को एक बड़ा लाभ था। दक्षिण अफ्रीका में जिस तरह संविधान निर्माण के दौर में ही सारी बातों पर सहमति बनानी पड़ी वैसी स्थिति उस समय के भारत में नहीं थी। भारत में आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही लोकतंत्र समेत अधिकांश बुनियादी बातों पर राष्ट्रीय सहमति बनाने का काम हो चुका था। हमारा राष्ट्रीय आंदोलन सिर्फ़ एक विदेशी सत्ता के खिलाफ़ संघर्ष भर नहीं था। यह न केवल अपने समाज को फिर से जगाने का वरन् अपने समाज और राजनीति को बदलने और नए सिरे से गढ़ने का आंदोलन भी था। आज़ादी के बाद भारत को किस रास्ते पर चलना चाहिए इसे लेकर आज़ादी के संघर्ष के दौरान भी तीखे मतभेद थे। ऐसे कुछ मतभेद अब तक भी बने हुए हैं। पर कुछ बुनियादी विचारों पर लगभग सभी लोगों की सहमति कायम हो चुकी थी।

1928 में ही मोतीलाल नेहरू और कांग्रेस के आठ अन्य नेताओं ने भारत का एक संविधान लिखा था। 1931 में कराची में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में एक प्रस्ताव में यह रूपरेखा रखी गई थी कि आज़ाद भारत का संविधान कैसा होगा। इन दोनों ही दस्तावेज़ों में स्वतंत्र भारत के संविधान में सार्वभौम वयस्क मताधिकार, स्वतंत्रता और समानता का अधिकार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की बात कही गई थी। इस प्रकार संविधान की रचना करने के लिए बैठने से पहले ही कुछ बुनियादी मूल्यों पर सभी नेताओं की सहमति बन चुकी थी।

औपनिवेशिक शासन की राजनैतिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं को जानने-समझने से भी नई राजनैतिक संस्थाओं का स्वरूप तय करने में मदद मिली। अंग्रेज़ी हुकूमत ने बहुत कम लोगों को वोट का अधिकार दिया था। इसके आधार पर अंग्रेज़ों ने जिस विधायिका का गठन किया था वह बहुत कमज़ोर थी। 1937 के बाद पूरे ब्रिटिश शासन वाले भारत में प्रादेशिक असेंबलियों के लिए चुनाव कराए गए थे। इनमें बनी सरकारें पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं थीं। पर विधानसभाओं में जाने और काम करने का अनुभव तब बहुत लाभदायक हुआ क्योंकि इन्हीं भारतीय लोगों को अपनी संस्थाएँ और व्यवस्थाएँ बनानी थीं और चलाना था। इसी कारण भारतीय संविधान में कई संस्थाओं और व्यवस्थाओं को पुरानी व्यवस्था से लगभग जस का तस अपना लिया गया जैसे कि 1935 का भारत सरकार कानून।

आज़ादी के बाद भारत के स्वरूप को लेकर वर्षों पहले से चले चिंतन और बहसों ने भी काफी लाभ पहुँचाया। हमारे नेताओं में इतना आत्मविश्वास आ गया था कि उन्हें बाहर के विचार और अनुभवों को अपनी जरूरत के अनुसार अपनाने में कोई हिचक नहीं हुई। हमारे अनेक नेता फ्रांसीसी क्रांति के आदर्शों, ब्रिटेन के संसदीय लोकतंत्र के कामकाज और अमेरिका कें के अधिकारों की सूची से काफी प्रभावित थे। रूस में हुई समाजवादी क्रांति ने भी अनेक भारतीयों को प्रभावित किया और वे सामाजिक और आर्थिक समता पर आधारित व्यवस्था बनाने की कल्पना करने लगे थे। लेकिन वे दूसरों की सिर्फ नकल नहीं कर रहे थे। हर कदम पर वे यह सवाल ज़रूर पूछते थे कि क्या ये चीजें भारत के लिए उपयुक्त होंगी। इन सभी चीजों ने हमारे संविधान के निर्माण में मदद की।

संविधान सभा

फिर, भारत के संविधान के निर्माता कौन थे? यहाँ आपको संविधान बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कुछ नेताओं के बारे में बहुत संक्षेप में कुछ-कुछ जानकारियाँ मिलेंगी।

चुने गए जनप्रतिनिधियों की जो सभा संविधान नामक विशाल दस्तावेज़ को लिखने का काम करती है उसे संविधान सभा कहते हैं। भारतीय संविधान सभा के लिए जुलाई 1946 में चुनाव हुए थे। संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर 1946 को हुई थी। इसके तत्काल बाद देश दो हिस्सों-भारत और पाकिस्तान में बँट गया। संविधान सभा भी दो हिस्सों में बँट गई- भारत की संविधान सभा और पाकिस्तान की संविधान सभा। भारतीय संविधान लिखने वाली सभा में 299 सदस्य थे। इसने 26 नवंबर 1949 को अपना काम पूरा कर लिया। संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। इसी दिन की याद में हम हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाते हैं।

इस सभा द्वारा सात दशकों से भी पहले बनाए संविधान को हम क्यों मानते हैं? हमने पहले ही एक कारण का जिक्र किया है। संविधान सिर्फ़ संविधान सभा के सदस्यों के विचारों को ही व्यक्त नहीं करता है। यह अपने समय की व्यापक सहमतियों को व्यक्त करता है। दुनिया के कई देशों में संविधान को फिर से लिखना पड़ा क्योंकि संविधान में दर्ज बुनियादी बातों पर ही वहाँ के सभी सामाजिक समूहों या राजनैतिक दलों की सहमति नहीं थी। कई देशों में संविधान है पर वह कागज़ का टुकड़ा या किसी भी अन्य किताब की तरह का दस्तावेज़ भर है। कोई भी उस पर आचरण नहीं करता। पर हमारे संविधान का अनुभव एकदम अलग है। पिछली आधी सदी से ज्यादा की अवधि में अनेक सामाजिक समूहों ने संविधान के कुछ प्रावधानों पर सवाल उठाए। पर किसी भी बड़े सामाजिक समूह या राजनैतिक दल ने खुद संविधान की वैधता पर सवाल नहीं उठाया। यह हमारे संविधान की एक असाधारण उपलब्धि है।

संविधान को मानने का दूसरा कारण यह है कि संविधान सभा भी भारत के लोगों का ही प्रतिनिधित्व कर रही थी। उस समय सार्वभौम वयस्क मताधिकार नहीं था। इसलिए संविधान सभा का चुनाव देश के लोग प्रत्यक्ष ढंग से नहीं कर सकते थे। इसका चुनाव मुख्य रूप से उन प्रांतीय असेंबलियों के सदस्यों ने ही किया था जिनका ज़िक्र हम पहले कर चुके हैं। इसके कारण देश के सभी भौगोलिक क्षेत्रों का इसमें उचित प्रतिनिधित्व हो गया था। इस सभा में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों का प्रभुत्व था जिसने राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई की थी। पर स्वयं कांग्रेस के अंदर कई राजनैतिक समूह और विचारों के लोग थे। सभा में कई सदस्य ऐसे थे जो कांग्रेस के विचारों से सहमत नहीं थे। सामाजिक रूप से इस सभा में सभी समूह, जाति, वर्ग, धर्म और पेशों के लोग थे। अगर संविधान सभा का गठन सार्वभौम वयस्क मताधिकार के ज़रिए हुआ होता तब भी इसका स्वरूप काफी कुछ इसी तरह का होता।

और अंततः जिस तरह संविधान सभा ने काम किया, वह संविधान को एक तरह की पवित्रता और वैधता देता है। संविधान सभा का काम काफी व्यवस्थित, खुला और सर्वसम्मति बनाने के प्रयास पर आधारित था। सबसे पहले कुछ बुनियादी सिद्धांत तय किए गए और उन पर सबकी सहमति बनाई गई। फिर प्रारूप कमेटी के प्रमुख डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने चर्चा के लिए एक प्रारूप संविधान बनाया। संविधान के प्रारूप की प्रत्येक धारा पर कई-कई दौर में चर्चा हुई। दो हज़ार से ज़्यादा संशोधनों पर विचार हुआ।

तीन वर्षों में कुल 114 दिनों की गंभीर चर्चा हुई। सभा में पेश हर प्रस्ताव, हर शब्द और वहाँ कही गई हर बात को रिकॉर्ड किया गया और संभाला गया। इन्हें कांस्टीट्यूएंट असेम्बली डिबेट्स नाम से 12 मोटे-मोटे खंडों में प्रकाशित किया गया। इन्हीं बहसों से हर प्रावधान के पीछे की सोच और तर्क को समझा जा सकता है। संविधान की व्याख्या के लिए भी इस बहस के दस्तावेजों का उपयोग होता है।

2.4 भारतीय संविधान के बुनियादी मूल्य

इस किताब में हम विभिन्न विषयों पर संविधान के प्रावधानों का अध्ययन करेंगे। अभी हम यही जानने की कोशिश करें कि हमारे संविधान के पीछे का दर्शन क्या है। यह काम हम दो तरीकों से कर सकते हैं। अपने नेताओं के संविधान संबंधी विचार पढ़कर हम इस बात को समझ सकते हैं। परंतु, हमारा संविधान स्वयं अपने दर्शन के बारे में जो कहता है उसे पढ़ना भी उतना ही जरूरी है। संविधान की प्रस्तावना यही काम करती है। आइए इस पर बारी-बारी से गौर करें।

सपने और वायदे

आपमें से कुछ को भारतीय संविधान निर्माताओं की सूची में एक बड़ा नाम न होने पर हैरानी हुई होगी यानि महात्मा गांधी का नाम। वे संविधान सभा के सदस्य नहीं थे। पर संविधान सभा के अनेक सदस्य उनके विचारों के अनुयायी थे। 1931 में अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने संविधान से अपनी अपेक्षा के बारे में लिखा थाः

भेदभाव और गैर-बराबरी मुक्त भारत का सपना डॉ. अंबेडकर के मन में भी था जिन्होंने संविधान निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। असमानता कैसे दूर की जा सकती है इस बारे में उनके विचार दूसरों से अलग थे। उन्होंने अक्सर गांधी और उनके नज़रिए की कटु आलोचना की। संविधान सभा में दिए गए अपने अंतिम भाषण में उन्होंने अपनी चिंताओं को बहुत स्पष्ट ढंग से रखा थाः

“26 जनवरी 1950 को हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति के मामले में हमारे यहाँ समानता होगी पर आर्थिक और सामाजिक जीवन असमानताओं से भरा होगा। राजनीति में हम एक व्यक्ति-एक वोट और हर वोट कर समान महत्व’ के सिद्धांत को मानेंगे। अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम अपने सामाजिक और आर्थिक ढाँचे के कारण ही, एक व्यक्ति-एएफ वोट’ के सिद्धांत को नकारना जारी रखेंगे। हम इस विरोधाभासपूर्ण जीवन को कितने लंबे समय तक जीते रहेंगे? हम अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में कब तक समानता को नकारते रहेंगे? अगर यह नकारना ज्यादा लंबे समय तक चला तो हम अपने राजनैतिक लोकतंत्र को ही संकट में अलेंगे।”

आखिर में आइए हम 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि के समय संविधान सभा में दिए जवाहर लाल नेहरू के प्रसिद्ध भाषण को याद करें:

“वर्षों पहले हमने अपनी नियति के साथ साक्षात्कार किया था, और अब वक्त आ गया है कि हम अपने वायदों पर अमल करें-पूरी तरह या हर तरह से नहीं तो काफी हद तक। घड़ियाँ जब ठीक माध्य रात्रि का घंटा बजाएँगी, जब सारी दुनिया सोती होगी, तब भारत नए जीवन की शुरु‌आत करेगा, आस्ताद होगा। इतिहास में कभी-कभार ही सही पर एक ऐसा क्षण जरूर आता है, जब हम पुराणे को छोड़‌कर नाए में प्रवेश करते हैं, जब एक युग का अंत होता है और जब लंबे समय से किसी राष्ट्र की दबी हुई आत्मा प्रस्फुटित होती है, आवाला पाती है। ऐसे पवित्र क्षण में हम अपने आपको, भारत और उसके लोगों तथा उससे भी अधिक मानवता की सेवा में समर्पित करें, यही दमारे लिए उचित है।

आजादी और सत्ता जिम्मेवारियाँ लाती है। भारत के संप्रभु लोगों का प्रतिनिधित्व कर‌ने वाली इस संप्रभुता संप्सन सभा के ऊपर अब जिम्मेवारी है। अक्षतावी के जन्म से पूर्व हमने पूरी प्रसव पीड़ा खेली है और इस क्रम में हुए दुखों से हमारा दिल भारी है। इसमें कुछ दर्द अभी भी बने हुए हैं। फिर भी, इतिहास अब बीत चुका है और अब भविष्य हमें सुनहरे संकेत के रहा है।

यह भविष्य बहुत आराम करने या सुस्ताणे का नहीं बल्कि उन वायदों को पूरा करने के लिए निरंतर प्रयास करने का है जिन्हें हमने अकसर किया है और एक शपथ हम आज भी लेंगे। भारत की सेवा करने का अर्थ है, दुख और फरेशानियों में पड़े लाखों करोड़ों लोगों की सेवा करना। इसका अर्थ है वखिता का, अज्ञान और बीमारियों का अवसर की असमानता का अंत। हमारे युण के महाबलम आदमी की कामना ठर आँख से आँसू पोंछने की है। संभव है यह काम हमारे भर से पूरा व हो पर जय तक लोगों की आँखों में आँसू है, कष्ट है तब तक हमारा काम खास नहीं होगा।”

संविधान का दर्शन

जिन मूल्यों ने स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा दी और उसे दिशा-निर्देश दिए तथा जो इस क्रम में जाँच- परख लिए गए वे ही भारतीय लोकतंत्र का आधार बने। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में इन्हें शामिल किया गया। भारतीय संविधान की सारी धाराएँ इन्हीं के अनुरूप बनी हैं। संविधान की शुरुआत बुनियादी मूल्यों की एक छोटी-सी उद्देश्यिका के साथ होती है। इसे संविधान की प्रस्तावना या उद्देशिका कहते हैं। अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना से प्रेरणा लेकर समकालीन दुनिया के अधिकांश देश अपने संविधान की शुरुआत एक प्रस्तावना के साथ करते हैं।

आइए हम अपने संविधान की प्रस्तावना को बहुत सावधानी से पढ़ें और उसमें आए प्रत्येक महत्वपूर्ण शब्द के मतलब को समझें:

संविधान की प्रस्तावना लोकतंत्र पर एक खूबसूरत कविता-सी लगती है। इसमें वह दर्शन शामिल है जिस पर पूरे संविधान का निर्माण हुआ है। यह दर्शन सरकार के किसी भी कानून और फ़ैसले के मूल्यांकन और परीक्षण का मानक तय करता है-इसके सहारे परखा जा सकता है कि कौन कानून, कौन फ़ैसला अच्छा या बुरा है। इसमें भारतीय संविधान की आत्मा बसती है।

संस्थाओं का स्वरूप

संविधान सिर्फ मूल्यों और दर्शन का बयान भर नहीं है। जैसा कि हमने पहले जिक्र किया है, संविधान इन मूल्यों को संस्थागत रूप देने की कोशिश है। जिसे हम भारत का संविधान कहते हैं उसका अधिकांश हिस्सा इन्हीं व्यवस्थाओं को तय करने वाला है। यह एक बहुत ही लंबा और विस्तृत दस्तावेज़ है इसलिए समय-समय पर इसे नया रूप देने के लिए इसमें बदलाव की ज़रूरत पड़ती है। भारतीय संविधान के निर्माताओं को लगा कि इसे लोगों की भावनाओं के अनुरूप चलना चाहिए और समाज में हो रहे बदलावों से दूर नहीं रहना चाहिए। उन्होंने इसे पवित्र, स्थायी और न बदले जा सकने वाले कानून के रूप में नहीं देखा था। इसलिए उन्होंने बदलावों को समय- समय पर शामिल करने का प्रावधान भी रखा। इन बदलावों को संविधान संशोधन कहते हैं।

संविधान ने संस्थागत व्यवस्थाओं को बड़ी कानूनी भाषा में दर्ज किया है। अगर आप संविधान को पहली बार पढ़ें तो इसे समझना मुश्किल लगेगा। फिर भी संस्थाओं के बुनियादी स्वरूप को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। किसी भी संविधान की तरह भारतीय संविधान भी वे नियम बताता है जिनके अनुसार शासकों का चुनाव किया जाएगा। इसमें स्पष्ट लिखा है कि किसके पास कितनी शक्ति होगी और कौन किस बारे में फ़ैसले लेगा। साथ ही संविधान नागरिकों को कुछ स्पष्ट अधिकार देकर सरकार के लिए लक्ष्मण रेखा तय कर देता है कि सरकार इससे आगे नहीं बढ़ सकती। पुस्तक के शेष तीन अध्याय भारतीय संविधान के इन्हीं तीन पक्षों के बारे में हैं। प्रत्येक अध्याय में हम कुछ प्रमुख संवैधानिक प्रावधानों पर नज़र डालेंगे और यह समझने की कोशिश करेंगे कि लोकतांत्रिक राजनीति में ये किस तरह काम करते हैं। लेकिन यह किताब भारतीय संविधान के द्वारा स्थापित सारी प्रमुख संस्थाओं और व्यवस्थाओं को नहीं समेटती। इसके कुछ पहलुओं पर आपके अगले वर्ष की किताब में चर्चा होगी।

रंगभेदः दक्षिण अफ्रीका की सरकार की 1948 से 1989 के बीच काले लोगों के साथ नस्ली अलगाव और खराब व्यवहार करने वाली शासन व्यवस्था।

धाराः किसी दस्तावेज का खास हिस्सा, अनुच्छेद।

संविधानः देश का सर्वोच्च कानून। इसमें किसी देश की राजनीति और समाज को चलाने वाले मौलिक कानून होते हैं।

संविधान संशोधनः देश की सर्वोच्च विधायी संस्था द्वारा उस देश के संविधान में किया जाने वाला बदलाव।

संविधान सभाः जनप्रतिनिधियों की वह सभा जो संविधान लिखने का काम करती है।

प्रारूपः किसी कानूनी दस्तावेज का प्रारंभिक रूप।

दर्शनः किसी सोच और काम को दिशा देने वाले सबसे बुनियादी विचार।

प्रस्तावनाः संविधान का वह पहला कथन जिसमें कोई देश अपने संविधान के बुनियादी मूल्यों और अवधारणाओं को स्पष्ट ढंग से कहता है।

देशद्रोह देश की सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिश करने का अपराध।

यह भी पढ़ें : लोकतंत्र क्या ? लोकतंत्र क्यों ? : अध्याय 1

प्रश्नावली

1. नीचे कुछ गलत वाक्य दिए गए हैं। हर एक में की गई गलती पहचानें और इस अध्याय के आधार पर उसको ठीक करके लिखें।

क. स्वतंत्रता के बाद देश लोकतांत्रिक हो या नहीं, इस विषय पर स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं ने अपना दिमाग खुला रखा था।
Ans.  यह वाक्य गलत है। स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं को इस बारे में लगभग स्पष्ट ही था कि स्वतंत्रता के बाद देश में लोकतंत्र ही होगा। चूँकि उन्हें अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए एक लंबा और कठिन संघर्ष करना पड़ा था, स्वतंत्रता के पश्चात् वे देश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए वचनबद्ध थे।

ख. भारतीय संविधान सभा के सभी सदस्य संविधान में कही गई हरेक बात पर सहमत थे।
Ans.
यह भी गलत है। भारतीय संविधान सभा के सभी सदस्य संविधान की सभी व्यवस्थाओं के बारे में समान विचार नहीं रखते थे, कई सदस्य देश में एकात्मक शासन प्रणाली का समर्थन करते थे जबकि अन्य संघीय व्यवस्था के पक्ष में थे।

ग. जिन देशों में संविधान है वहाँ लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था ही होगी।
Ans.
यह आवश्यक नहीं है कि जिस देश में संविधान है-वहाँ पर लोकतंत्रीय व्यवस्था ही होगी। संविधान में तानाशाही अथवा सैनिक शासन की व्यवस्था भी की जा सकती है।

घ. संविधान देश का सर्वोच्च कानून होता है इसलिए इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता।
Ans.
यह बात ठीक नहीं है। संसद दो- तिहाई के बहुत से किसी धारा में भी संशोधन कर सकती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में भी संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। सन् 1950 में संविधान के लागू होने से लेकर अब तक इसमें लगभग 100 बार संशोधन किया जा चुका है।

2. दक्षिण अफ्रीका का लोकतांत्रिक संविधान बनाने में, इनमें से कौन-सा टकराव सबसे महत्वपूर्ण थाः

क. दक्षिण अफ्रीका और उसके पड़ोसी देशों का
ख. स्त्रियों और पुरुषों का
ग. गोरे अल्पसंख्यक और अश्वेत बहुसंख्यकों का टकराव
घ. रंगीन चमड़ी वाले बहुसंख्यकों और अश्वेत अल्पसंख्यकों का

Ans. (ग) गोरे अल्पसंख्यक और अश्वेत बहुसंख्यकों का टकराव

3. लोकतांत्रिक संविधान में इनमें से कौन-सा प्रावधान नहीं रहता?

क. शासन प्रमुख के अधिकार
ख. शासन प्रमुख का नाम
ग. विधायिका के अधिकार
घ. देश का नाम

Ans. (ख) शासन प्रमुख का नाम

4. संविधान निर्माण में इन नेताओं और उनकी भूमिका में मेल बैठाएँ:

क. मोतीलाल नेहरूसंविधान सभा के अध्यक्ष
ख. बी.आर. अंबेडकरसंविधान सभा की सदस्य
ग. राजेंद्र प्रसादप्रारूप कमेटी के अध्यक्ष
घ. सरोजिनी नायडू1928 में भारत का संविधान बनाया

Ans.

क. मोतीलाल नेहरू1928 में भारत का संविधान बनाया
ख. बी.आर. अंबेडकरप्रारूप कमेटी के अध्यक्ष
ग. राजेंद्र प्रसादसंविधान सभा के अध्यक्ष
घ. सरोजिनी नायडूसंविधान सभा की सदस्य

5. जवाहर लाल नेहरू के नियति के साथ साक्षात्कार वाले भाषण के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों का जवाब दें :

क. नेहरू ने क्यों कहा कि भारत का भविष्य सुस्ताने और आराम करने का नहीं है?
Ans.
ये शब्द जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि के समय संविधान सभा में दिए गए अपने प्रसिद्ध भाषण में कहे थे उन्होंने कहा था कि भारत का भविष्य, जब भारत स्वतंत्र हो रहा है, आराम करने या सुस्ताने का नहीं है बल्कि उन वायदों को पूरा करने के लिए निरंतर प्रयास करने का है जो लोगों से किए गए है। उनके अनुसार भारत की सेवा करने का अर्थ है, दुख और परेशानियों में पड़े लाखों करोडों लोगों की सेवा करना जो दरिद्रता, अज्ञान और बीमारियों, अवसर की असमानता से जूझ रहे हैं।

ख. नए भारत के सपने किस तरह विश्व से जुड़े हैं?
Ans.
 जवाहरलाल ने कहा था हम भारत और उसके लोगों तथा उससे भी अधिक मानवता की सेवा में समर्पित करें, यही हमारे लिए उचित है।

ग. वे संविधान निर्माताओं से क्या शपथ चाहते थे?
Ans.
वे चाहते थे कि संविधान निर्माता यह शपथ ले कि वे अपने आपको भारत और उसके लोगों तथा मानवता की सेवा के लिए समर्पित करें।

घ. “हमारी पीढ़ी के सबसे महान व्यक्ति की कामना हर आँख से आँसू पोंछने को है।” वे इस कथन में किसका जिक्र कर रहे थे?
Ans.
वे इस कथन में महात्मा गांधी का जिक्र कर रहे हैं।

6. हमारे संविधान को दिशा देने वाले ये कुछ मूल्य और उनके अर्थ हैं। इन्हें आपस में मिलाकर दोबारा लिखिए।

क. संप्रभु सरकार किसी धर्म के निर्देशों के अनुसार काम नहीं करेगी।
ख. गणतंत्रफ़ैसले लेने का सर्वोच्च अधिकार लोगों के पास है।
ग. बंधुत्वशासन प्रमुख एक चुना हुआ व्यक्ति है।
घ. धर्मनिरपेक्ष लोगों को आपस में परिवार की तरह रहना चाहिए।

Ans.

क. संप्रभु फ़ैसले लेने का सर्वोच्च अधिकार लोगों के पास है।
ख. गणतंत्रशासन प्रमुख एक चुना हुआ व्यक्ति है।
ग. बंधुत्व लोगों को आपस में परिवार की तरह रहना चाहिए।
घ. धर्मनिरपेक्षसरकार किसी धर्म के निर्देशों के अनुसार काम नहीं करेगी।

7. कुछ दिन पहले नेपाल से आपके एक मित्र ने वहाँ की राजनैतिक स्थिति के बारे में आपको पत्र लिखा था। वहाँ अनेक राजनैतिक पार्टियाँ राजा के शासन का विरोध कर रही थीं। उनमें से कुछ का कहना था कि राजा द्वारा दिए गए मौजूदा संविधान में ही संशोधन करके चुने हुए प्रतिनिधियों को ज्यादा अधिकार दिए जा सकते हैं। अन्य पार्टियाँ नया गणतांत्रिक संविधान बनाने के लिए नई संविधान सभा गठित करने की मांग कर रही थीं। इस विषय में अपनी राय बताते हुए अपने मित्र को पत्र लिखें।
Ans.
प्रिय मित्र,
नेपाल की राजनीतिक स्थिति के बारे में आपने मुझे जो लिखा था उस संबंध में मेरा विचार यह है कि लोगों को एक नई संविधान सभा की स्थापना की माँग करनी चाहिए जो नेपाल के लिए गणतंत्रीय संविधान का निर्माण करे और वहाँ पर राजतंत्र को समाप्त कर दे।
सन् 2005 में नेपाल के सम्राट ने जनता द्वारा निर्वाचित सरकार को बर्खास्त कर दिया था और लोगों से सारे अधिकार तथा स्वतंत्रता वापस छीन लिए थे, जो उन्हें एक दशक पहले प्राप्त हुए थे।

8. भारत के लोकतंत्र के स्वरूप में विकास के प्रमुख कारणों के बारे में कुछ अलग-अलग विचार इस प्रकार है। आप इनमें से हर कथन को भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कितना महत्त्वपूर्ण कारण मानते हैं?

क. अंग्रेज शासकों ने भारत को उपहार के रूप में लोकतांत्रिक व्यवस्था दी। हमने ब्रिटिश हुकूमत के समय बनी प्रांतीय असेंबलियों के जरिए लोकतांत्रिक व्यवस्था में काम करने का प्रशिक्षण पाया।
Ans.
 ब्रिटिश हुकूमत के समय बनी प्रांतीय असेंबलियों के जरिए लोकतांत्रिक व्यवस्था में काम करने का प्रशिक्षण पाया परंतु भारत को लोकतंत्रीय व्यवस्था अंग्रेजी शासकों से उपहार के रूप में नहीं मिली है। अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए भारतीयों को इसके साथ एक लंबा संघर्ष करना पड़ा और अनेक कुरबानियाँ देनी पड़ी थी।

ख. हमारे स्वतंत्रता संग्राम ने औपनिवेशिक शोषण और भारतीय लोगों को तरह-तरह की आजादी न दिए जाने का विरोध किया। ऐसे में स्वतंत्र भारत को लोकतांत्रिक होना ही था।
Ans.
चूंकि अंग्रेजों के अलोकतंत्रीय शासन काल के दौरान भारत के सभी लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर भाग लिया था और इकट्ठे मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य का मुकाबला किया था इसलिए भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था लाना आवश्यक बन गया था।

ग. हमारे राष्ट्रवादी नेताओं की आस्था लोकतंत्र में थी। अनेक नव स्वतंत्र राष्ट्रों में लोकतंत्र का न आना हमारे नेताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है।
Ans.
यह बात सच है कि भाग्यवान भारतीयों को ऐसे नेता मिले जिनकी सोच लोकतंत्रीय थी। इसलिए स्वतंत्रता के पश्चात लोकतांत्रिक व्यवस्था का लाया जाना स्वाभाविक ही था।

9. 1912 में प्रकाशित ‘विवाहित महिलाओं के लिए आचरण’ पुस्तक के निम्नलिखित अंश को पढ़ें:

“ईश्वर ने औरत जाति को शारीरिक और भावनात्मक, दोनों ही तरह से ज्यादा नाजुक बनाया है। उन्हें आत्म रक्षा के भी योग्य नहीं बनाया है। इसलिए ईश्वर ने ही उन्हें जीवन भर पुरुषों के संरक्षण में रहने का भाग्य दिया है-कभी पिता के, कभी पति के और कभी पुत्र के। इसलिए महिलाओं को निराश होने की जगह इस बात से अनुगृहीत होना चाहिए कि वे अपने आपको पुरुषों की सेवा में समर्पित कर सकती हैं।” क्या इस अनुच्छेद में व्यक्त मूल्य संविधान के दर्शन से मेल खाते हैं या वे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ हैं?
Ans.
इस अनुच्छेद में व्यक्त मूल्य संविधान में दिए गए मूल्यों से मेल नहीं खाते. इन मूल्यों का वर्णन संविधान की प्रस्तावना में किया गया है। प्रस्तावना के आरंभिक शब्द हैं- “हम भारत के लोग” जिसका अर्थ है पुरुष तथा महिलाएँ दोनों। यह सभी नागरिकों (दोनों महिलाएँ एवं पुरुषों) को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय दिलाने की बात करती है, इसमें कहा गया है कि नागरिकों के साथ जाति, धर्म तथा लिग के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। सामाजिक असमानताओं को कम किया जाएगा और सरकार सभी की भलाई के लिए कार्य करेगी, कानून की दृष्टि में सभी समान होंगे। ऊपर दिए गए पहरे में महिलाओं की जिस स्थिति का वर्णन किया गया है वह संविधान में दिए गए मूल्यों के अनुसार नहीं है।

10. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए। क्या आप उनसे सहमत हैं? अपने कारण भी बताइए।

क. संविधान के नियमों की हैसियत किसी भी अन्य कानून के बराबर है।
Ans.
यह कथन ठीक नहीं है. एक साधारण कानून संसद द्वारा पास किया जाता है और संसद जब चाहे उसमें अपनी इच्छानुसार परिवर्तन कर सकती है। इसके विपरीत संविधान के नियमों का महत्त्व अधिक होता है जिन्हें संसद को भी मानना पड़ता है। इन नियमों में परिवर्तन करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया को अपनाना पड़ता है।

ख. संविधान बताता है कि शासन व्यवस्था के विविध अंगों का गठन किस तरह होगा।
Ans.
ठीक

ग. नागरिकों के अधिकार और सरकार की सत्ता की सीमाओं का उल्लेख भी संविधान में स्पष्ट रूप में है।
Ans.
ठीक

घ. संविधान संस्थाओं की चर्चा करता है, उसका मूल्यों से कुछ लेना-देना नहीं है।
Ans.
यह बात सत्य नहीं है क्योंकि संविधान जितना संस्थाओं से संबंधित है उतना ही वह मूल्यों से संबंधित भी है।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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