राज्य मंत्रिपरिषद : 28

भारत का संविधान केंद्र के समान राज्य में भी संसदीय व्यवस्था का उपबंध करता है। राज्य की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था का वास्तविक कार्यकारी अधिकारी मंत्रिपरिषद का मुखिया यानी मुख्यमंत्री होता है। राज्य में मंत्रिपरिषद का कार्य बिल्कुल केंद्रीय मंत्रिपरिषद की तरह होता है।

संविधान में संसदीय व्यवस्था की सरकार के सिद्धांतों को विस्तार से नहीं बताया गया है लेकिन दो अनुच्छेदों (163 और 164) में कुछ सामान्य उपबंधों की चर्चा की गई है। अनुच्छेद 163 में राज्य मंत्रिपरिषद की स्थिति के बारे में बताया गया है जबकि अनुच्छेद 164 में मंत्रियों के वेतन एवं भत्तों, शपथ, योग्यता, उत्तरदायित्व, कार्यकाल एवं नियुक्ति के बारे में बताया गया है।

संवैधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 163-राज्यपाल को सहायता एवं सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद

1. जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे, उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा।

2. यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं, जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं।

3. इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी और दी तो क्यों नहीं दी ?

अनुच्छेद 164-मंत्रियों संबंधी अन्य उपबंध

1. मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जायेगी तथा अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल मुख्यमंत्री के परामर्श पर करेगा। हालांकि छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश एवं ओड़ीशा में अन्य कार्यों के अलावा जनजातियों के कल्याण हेतु एक पृथक् मंत्री होगा। 94वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2006 द्वारा बिहार राज्य को इस बाध्यता से मुक्त कर दिया गया है।

2. राज्यों में मुख्यमंत्री समेत मंत्रियों की अधिकतम संख्या विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी किंतु राज्यों में मुख्यमंत्री समेत मंत्रियों की न्यूनतम संख्या 12 से कम नहीं होगी। इस प्रावधान को 91वें संविधान संशोधन विधेयक, 2003 द्वारा जोड़ा गया है।

3. राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य यदि दलबदल के आधार पर सदस्यता के निरर्ह करार दिया जाता है तो ऐसा सदस्य मंत्री होने पर मंत्री पद के भी निरर्ह होगा। इस उपबंध को 91वें संविधान संशोधन विधेयक, 2003 द्वारा जोड़ा गया है।

4. मंत्री, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करेंगे।

5. मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से राज्य विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी।

6. राज्यपाल, मंत्रियों को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलायेंगे।

7. एक मंत्री जो विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं है, उसे 6 माह के भीतर अनिवार्य रूप से किसी एक सदन का सदस्य बनना होगा।

8. मंत्रियों के वेतन एवं भत्ते, राज्य विधानमंडल द्वारा निर्धारित किए जाएंगे।

अनुच्छेद 166 राज्य के राज्यपाल द्वारा कार्यवाही का संचालन

1. सरकार की समस्त कार्यपालक कार्यवाहियों की अभिव्यक्ति राज्यपाल के नाम से की गई कार्यवाही के रूप में अभिव्यक्त होगी।

2. राज्यपाल के नाम से तैयार एवं कार्यान्वित आदेशों एवं अन्य दस्तावेजों का इस प्रकार प्रभावीकरण किया जाएगा जैसा कि राज्यपाल द्वारा बनाए जाने वाले नियमों में निर्दिष्ट हो। पुनः किसी आदेश अथवा दस्तावेज की वैधता जिसको उक्त प्रकार से प्रमाणित किया गया हो पर इस आधार पर प्रश्न नहीं किया जाएगा कि वह आदेश या दस्तावेज राज्यपाल द्वारा निर्मित अथवा कार्यान्वित नहीं है।

3. राज्यपाल द्वारा राज्य सरकार की कार्यवाहियों में सुगमता लाने तथा मंत्रियों के बीच उनके आवंटन के लिए नियम बनाए जाएंगे।

अनुच्छेद 167- मुख्यमंत्री के कर्तव्य

प्रत्येक राज्य के मुख्यमंत्री का यह कर्तव्य होगा, किः

1. वह मंत्रिपरिषद द्वारा राज्य के प्रशासन से संबंधित मामलों में लिए गए सभी निर्णयों तथा विधायन के प्रस्तावों के बारे में राज्यपाल को सूचित करे;

2. राज्यपाल द्वारा राज्य के प्रशासन से संबंधित मामलों अथवा विधायन प्रस्तावों के बारे में माँगे जाने पर सूचना प्रदान करना, तथा;

3. यदि राज्यपाल चाहे तो मंत्रिपरिषद के समक्ष किसी ऐसे मामले को विचारार्थ रखे जिस पर निर्णय तो किसी मंत्री द्वारा लिया जाना है लेकिन जिस पर मंत्री परिषद ने विचार नहीं किया है।

मंत्रियों द्वारा दिये गये परामर्श की प्रकृति

अनुच्छेद 163 के अनुसार,

1. जिन बातों में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे उन बातों को छोड़कर राज्यपाल को अपने कृत्यों का प्रयोग करने में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा।

2. यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई विषय ऐसा है या नहीं जिसके संबंध में इस संविधान द्वारा या इसके अधीन राज्यपाल से यह अपेक्षित है कि वह अपने विवेकानुसार कार्य करे तो राज्यपाल का अपने विवेकानुसार किया गया विनिश्चय अंतिम होगा और राज्यपाल द्वारा की गई किसी बात की विधिमान्यता इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि उसे अपने विवेकानुसार कार्य करना चाहिए था या नहीं।

3. इस प्रश्न की किसी न्यायालय में जांच नहीं की जाएगी कि क्या मंत्रियों ने राज्यपाल को कोई सलाह दी, और दी तो क्या दी।

1971 में उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी कि राज्यपाल को परामर्श देने के लिए मंत्रिपरिषद् हमेशा रहेगी, यदि राज्य विधानमण्डल विघटित हो गया हो या मंत्रिपरिषद् ने त्यागपत्र दे दिया हो। अतः वर्तमान मंत्रालय नए अनुवर्ती मंत्रालय के आने तक कार्यरत रहता है। 1974 में दोबारा न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्यपाल के निर्णय या कार्यक्षेत्र या अनुदान एवं सलाह आदि मंत्रिपरिषद के कार्य एवं शक्तियों के आधार पर होगा। वह बिना मंत्रिपरिषद की सलाह के व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं करेगा या मंत्रिपरिषद के सलाह या अनुदान के विरुद्ध नहीं जाएगा। यानी संविधान ने इस बात की मंशा जाहिर की है कि राज्यपाल की संतुष्टि उसकी व्यक्तिगत नहीं, वरन मंत्रिपरिषद की संतुष्टि होनी चाहिए।

मंत्रियों की नियुक्ति

मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जायेगी। अन्य मंत्रियों की नियुक्ति मुख्यमंत्री के परामर्श पर राज्यपाल के द्वारा की जायेगी। इसका अभिप्राय राज्यपाल उन्हीं लोगों को बतौर मंत्री नियुक्त करता है, जिनकी सिफारिश मुख्यमंत्री करता है।

लेकिन छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश एवं ओडीशा में एक आदिवासी मंत्री भी होना चाहिए।’ प्रारंभ में यह उपबंध बिहार, मध्य प्रदेश एवं ओड़ीशा के लिये था, लेकिन 94वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2006 द्वारा बिहार राज्य को इस दायित्व से मुक्तकर छत्तीसगढ, एवं झारखंड के लिये ऐसा करना आवश्यक बना दिया गया है। अब बिहार में कोई अनुसूचित क्षेत्र नहीं है और अनुसूचित जनजातियों की संख्या काफी कम है।

सामान्यतः उसी व्यक्ति को बतौर मंत्री नियुक्त किया जाता है जो विधानसभा या विधानपरिषद में से किसी एक का सदस्य हो। कोई व्यक्ति यदि विधानमंडल का सदस्य नहीं भी है तो उसे मंत्री नियुक्त किया जा सकता लेकिन छह महीने के अंदर उसका सदस्य बनना अनिवार्य है (निर्वाचन या मनोनयन द्वारा) अन्यथा उसका मंत्री पद समाप्त हो जाएगा।

एक मंत्री जो विधानमंडल के किसी एक सदन का सदस्य है, को दूसरे सदन की कार्यवाही में भाग लेने एवं बोलने का अधिकार है लेकिन वह मतदान उसी सदन में कर सकता है जिसका वह सदस्य है।

मंत्रियों की शपथ एवं वेतन

राज्यपाल कार्यभार ग्रहण करने से पहले मंत्री को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाते हैं। मंत्री शपथ लेता है किः

1. मैं भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और सत्यनिष्ठा रखूंगा।

2. मैं भारत की प्रभुता और अखंडता बनाए रखूंगा।

3. मैं अपने दायित्वों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निवर्हन करूंगा।

4. मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा।

गोपनीयता के संबंध में मंत्री विश्वास दिलाता है कि जो विषय राज्य के मंत्री के रूप में मेरे विचार में लाया जाएगा अथवा मुझे ज्ञात होगा उसे किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को तब के सिवाए जबकि ऐसे मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों के सम्यक निर्वहन के लिए ऐसा करना अपेक्षित हो, मैं प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से संसूचित या प्रकट नहीं करूंगा।

मंत्रियों के वेतन एवं भत्तों को राज्य विधानमंडल समय-समय पर तय करता रहता है। एक मंत्री राज्य विधानमंडल के सदस्य को मिलने वाले वेतन के बराबर ही वेतन एवं भत्ता ग्रहण करता है। इसके अतिरिक्त वह व्यय भत्ता (पद के अनुरूप) निःशुल्क निवास, यात्रा भत्ता, चिकित्सा भत्ता आदि ग्रहण करता रहता है।

मंत्रियों के उत्तरदायित्व

सामूहिक उत्तरदायित्व

संसदीय व्यवस्था में सामूहिक उत्तरदायित्व सरकार का सैद्धांतिक आधार है। अनुच्छेद 164 स्पष्ट करता है कि राज्य विधानसभा के प्रति मंत्रिपरिषद का सामूहिक उत्तरदायित्व होगा, इसका तात्पर्य है कि अपने सभी क्रियाकलापों, कृत्यों के लिए विधानसभा के प्रति उनका संयुक्त उत्तरदायित्व होगा। वे टीम की तरह कार्य करेंगे। यदि विधानसभा मंत्रिपरिषद के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पास कर देती है तो सभी मंत्रियों सहित विधानपरिषद से आए मंत्रियों को भी त्यागपत्र देना पड़ता है। इसका एक विकल्प यह भी है कि मंत्रिपरिषद राज्यपाल को विधानसभा विघटित करने और नए चुनाव कराने की घोषणा करने की सलाह दे सकती है। राज्यपाल उस मंत्रिपरिषद के पक्ष में कुछ नहीं कर सकता जिसने विश्वास खो दिया है।

सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का अभिप्राय यह भी है कि कैबिनेट के फैसले के प्रति सभी मंत्री प्रतिबद्ध हैं, चाहे वे कैबिनेट बैठक से अलग हों। यह प्रत्येक मंत्री का कर्तव्य है कि वह विधानमंडल के अंदर या बाहर कैबिनेट के निर्णय का समर्थन करें। यदि कोई मंत्री कैबिनेट के फैसले से असहमत है और इसके बचाव के लिए तैयार नहीं है तो उसे त्यागपत्र दे देना चाहिए। पूर्व में कैबिनेट के फैसले पर मतभेद के कारण कई मंत्री त्यागपत्र दे चुके हैं।

व्यक्तिगत उत्तरदायित्व

अनुच्छेद 164 में व्यक्तिगत उत्तरदायित्व के सिद्धांत को भी दर्शाया गया है। इसमें बताया गया है कि मंत्री राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। अर्थात राज्यपाल किसी मंत्री को तब भी किसी समय हटा सकता है जब विधानसभा विश्वास में हो। लेकिन मुख्यमंत्री की सलाह पर ही। मतभेद होने पर या मंत्री के कार्यकलापों से संतुष्ट न होने के मामले में मुख्यमंत्री उस मंत्री से त्यागपत्र मांग सकता है, या राज्यपाल को उसे बर्खास्त करने की सलाह दे सकता है। इस शक्ति का उपयोग करते समय मुख्यमंत्री सामूहिक उत्तरदायित्व की सत्यता को सुनिश्चित कर सकता है।

कोई भी विधिक उत्तरदायित्व नहीं

भारतीय संविधान में विधिक जिम्मेदारी राज्यों के मंत्रियों के लिए भी केंद्रीय मंत्रियों की भांति विधिक नहीं है। राज्यपाल द्वारा लोक अधिनियम के किसी आदेश पर मंत्री के प्रति हस्ताक्षर की आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त न्यायालय, मंत्रियों द्वारा राज्यपाल को दी गई सलाह की समीक्षा नहीं कर सकता है।

मंत्रिपरिषद का गठन

संविधान में राज्य मंत्रिपरिषद के आकार एवं मंत्री के पद को अलग से विवेचित नहीं किया गया है। मुख्यमंत्री समय और परिस्थिति के हिसाब से इसका निर्धारण करता है।

केंद्र की तरह ही राज्य मंत्रिपरिषद के भी तीन वर्ग कैबिनेट, राज्य एवं उपमंत्री होते हैं उनके पद, विशेष भत्ते और राजनीतिक महत्ता के हिसाब से उनमें विभेद होता है। इन मंत्रियों के ऊपर मुख्यमंत्री राज्य में सर्वोच्च शासकीय प्राधिकारी होता है।

कैबिनेट मंत्रियों के लिए राज्य सरकार के महत्वपूर्ण विभाग जैसे गृह, शिक्षा, वित्त, कृषि होते हैं। वे सभी कैबिनेट के सदस्य होते हैं और इसकी बैठक में भाग लेकर नीति-निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। इस प्रकार उनकी जिम्मेदारी राज्य सरकार के संपूर्ण मामलों में होती है।

राज्य मंत्रियों को या तो स्वतंत्र प्रभार दिया जा सकता है या उन्हें कैबिनेट के साथ संबद्ध किया जा सकता है। यद्यपि वे कैबिनेट के सदस्य नहीं होते और न ही कैबिनेट की बैठक में भाग लेते हैं जब तक कि उन्हें विशेष तौर पर उनके विभाग से संबंधित किसी मामले में कैबिनेट द्वारा बुलाया न जाए।

पद के हिसाब से उपमंत्री इसके बाद होते हैं। उन्हें स्वतंत्र प्रभार नहीं दिया जाता। उन्हें कैबिनेट मंत्रियों के साथ उनके प्रशासनिक, राजनीतिक और संसदीय कर्तव्यों में सहयोग के लिए संबद्ध किया जाता है। वे कैबिनेट के सदस्य नहीं होते और कैबिनेट की बैठक में भाग नहीं लेते।

कई बार मंत्रिपरिषद में उप-मुख्यमंत्री को भी शामिल किया जा सकता है। आंध्रप्रदेश में 1956 तक उप मुख्यमंत्री सत्ता में रहे। यह पद पश्चिम बंगाल में 1967 में निर्मित किया गया। उप- मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति सामान्यतया स्थानीय राजनीतिक कारणों से की जाती है।

कैबिनेट

मंत्रिपरिषद का एक छोटा-सा मुख्य भाग कैबिनेट या मंत्रिमंडल कहलाता है। इसमें केवल कैबिनेट मंत्री शामिल होते हैं। राज्य सरकार में यही वास्तविक कार्यकारिणी का केंद्र होता है। इसकी निम्नलिखित भूमिका होती है:

1. यह राज्य की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था में सर्वोच्च नीति-निर्धारक कार्यकारिणी है।

2. यह राज्य सरकार की मुख्य नीति निर्धारक अंग है।

3. यह राज्य सरकार की मुख्य कार्यकारी अधिकारी की तरह है।

4. यह राज्य सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था में मुख्य समन्वयक होती है।

5. यह राज्यपाल की सलाहकार होती है।

6. यह मुख्य आपात प्रबंधक होती है और इस तरह आपात स्थितियों को संभालती है।

7. यह सभी प्रमुख वैधानिक और वित्तीय मामलों को देखता है।

8. यह उच्च नियुक्तियां करता है, जैसे-संवैधानिक प्राधिकारी और वरिष्ठ प्रशासनिक सचिवों की।

तालिका 28.1 राज्य मंत्रिपरिषद से संबंधित अनुच्छेद, एक नजर में


अनुच्छेद
विषय-वस्तु
163
मंत्रिपरिषद द्वारा राज्यपाल को सहायता एवं सलाह देना
164
मंत्रियों से संबंधित अन्य प्रावधान
166
राज्य सरकार द्वारा कार्यवाही संचालन
167
मुख्यमंत्री का राज्यपाल को सूचना प्रदान करने का कर्तव्य

कैबिनेट समितियां

कैबिनेट विभिन्न प्रकार की समितियों के जरिए कार्य करती है, जिन्हें कैबिनेट समितियां कहा जाता है। ये दो तरह की होती हैं- स्थायी एवं अल्पकालिक। पहली की स्थिति स्थायी जैसी होती है, जबकि दूसरे की प्रकृति अस्थायी।

परिस्थितियों और आवश्यकतानुसार इन्हें मुख्यमंत्री गठित करता है। अतः इनकी संख्या, संरचना आदि समय-समय पर अलग-अलग होती है।

ये केवल मुद्दों का समाधान ही नहीं करती, वरन कैबिनेट के सामने सुझाव भी रखती हैं और निर्णय भी लेती हैं। हालांकि कैबिनेट उनके फैसलों की समीक्षा कर सकती है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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