उपभोक्तावाद की संस्कृति : अध्याय 3

धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। एक नयी जीवन-शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन दर्शन उपभोक्तावाद का दर्शन। उत्पादन बढ़ाने पर जोर है चारों ओर। यह उत्पादन आपके लिए है; आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है। ‘सुख’ की व्याख्या बदल गई है। उपभोग भोग ही सुख है। एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में। उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।

विलासिता की सामग्रियों से बाजार भरा पड़ा है, जो आपको लुभाने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती हैं। दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं को ही लीजिए। टूथ पेस्ट चाहिए? यह दाँतों को मोती जैसा चमकीला बनाता है, यह मुँह की दुर्गंध हटाता है। यह मसूड़ों को मजबूत करता है और यह ‘पूर्ण सुरक्षा’ देता है। वह सब करके जो तीन-चार पेस्ट अलग-अलग करते हैं, किसी पेस्ट का ‘मैजिक’ फ़ार्मूला है। कोई बबूल या नीम के गुणों से भरपूर है, कोई ऋषि-मुनियों द्वारा स्वीकृत तथा मान्य वनस्पति और खनिज तत्वों के मिश्रण से बना है। जो चाहे चुन लीजिए। यदि पेस्ट अच्छा है तो बुश भी अच्छा होना चाहिए। आकार, रंग, बनावट, पहुँच और सफ़ाई की क्षमता में अलग-अलग, एक से बढ़कर एक। मुँह की दुर्गंध से बचने के लिए माउथ वाश भी चाहिए। सूची और भी लंबी हो सकती है पर इतनी चीज़ों का ही बिल काफ़ी बड़ा हो जाएगा, क्योंकि आप शायद बहुविज्ञापित और कीमती ब्रांड खरीदना ही पसंद करें। सौंदर्य प्रसाधनों की भीड़ तो चमत्कृत कर देनेवाली है-हर माह उसमें नए-नए उत्पाद जुड़ते जाते हैं। साबुन ही देखिए। एक में हलकी खुशबू है, दूसरे में तेज। एक दिनभर आपके शरीर को तरोताजा रखता है, दूसरा पसीना रोकता है, तीसरा जर्म्स से आपकी रक्षा करता है। यह लीजिए सिने स्टार्स के सौंदर्य का रहस्य, उनका मनपसंद साबुन। सच्चाई का अर्थ समझना चाहते हैं, यह लीजिए। शरीर को पवित्र रखना चाहते हैं। यह लीजिए शुद्ध गंगाजल में बनी साबुन। चमड़ी को नर्म रखने के लिए यह लीजिए-महँगी है, पर आपके सौंदर्य में निखार ला देगी। संभ्रांत महिलाओं की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार की सौंदर्य सामग्री होना तो मामूली बात है। पेरिस से परफ्यूम मँगाइए, इतना ही और खर्च हो जाएगा। ये प्रतिष्ठा-चिह्न है, समाज में आपकी हैसियत जताते हैं। पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। पहले उनका काम साबुन और तेल से चल जाता था। आफ्टर शेव और कोलोन बाद में आए। अब तो इस सूची में दर्जन-दो दर्जन चीजें और जुड़ गई हैं।

छोड़िए इस सामग्री को। वस्तु और परिधान की दुनिया में आइए। जगह- जगह बुटीक खुल गए हैं, नए-नए डिजाइन के परिधान बाजार में आ गए हैं। ये ट्रेंडी है और महँगे भी। पिछले वर्ष के फैशन इस वर्ष ? शर्म की बात है। घड़ी पहले समय दिखाती थी। उससे यदि यही काम लेना हो तो चार-पाँच सौ में मिल जाएगी। हैसियत जताने के लिए आप पचास-साठ हजार से लाख डेढ़ लाख की घड़ी भी ले सकते हैं। संगीत की समझ हो या नहीं, कीमती म्यूजिक सिस्टम जरूरी है। कोई बात नहीं यदि आप उसे ठीक तरह चला भी न सकें। कंप्यूटर काम के लिए तो खरीदे ही जाते हैं, महज्ज दिखावे के लिए उन्हें खरीदनेवालों की संख्या भी कम नहीं है। खाने के लिए पाँच सितारा होटल हैं। वहाँ तो अब विवाह भी होने लगे हैं। बीमार पड़ने पर पाँच सितारा अस्पतालों में आइए। सुख-सुविधाओं और अच्छे इलाज के अतिरिक्त यह अनुभव काफ़ी समय तक चर्चा का विषय भी रहेगा, पढ़ाई के लिए पाँच सितारा पब्लिक स्कूल हैं, शीघ्र ही शायद कॉलेज और यूनिवर्सिटी भी बन जाए। भारत में तो यह स्थिति अभी नहीं आई पर अमरीका और यूरोप के कुछ देशों में आप मरने के पहले ही अपने अंतिम संस्कार और अनंत विश्राम का प्रबंध भी कर सकते है-एक कीमत पर। आपकी कब्र के आसपास सदा हरी घास होगी, मनचाहे फूल होंगे। चाहें तो वहाँ फव्वारे होंगे और मंद ध्वनि में निरंतर संगीत भी। कल भारत में भी यह संभव हो सकता है। अमरीका में आज जो हो रहा है, कल वह भारत में भी आ सकता है। प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं। चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों। यह है एक छोटी-सी झलक उपभोक्तावादी समाज की। यह विशिष्टजन का समाज है पर सामान्यजन भी इसे ललचाई निगाहों से देखते हैं। उनकी दृष्टि में, एक विज्ञापन की भाषा में, यही है राइट च्वाइस बेबी।

अब विषय के गंभीर पक्ष की ओर आएँ। इस उपभोक्ता संस्कृति का विकास भारत में क्यों हो रहा है सामंती संस्कृति के त्तत्व भारत में पहले भी रहे हैं। उपभोक्तावाद इस संस्कृति से

जुड़ा रहा है। आज सामंत बदल गए हैं, सामंती संस्कृति का मुहावरा बदल गया है। हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें; परंपराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। कड़वा सच तो यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे है, पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है उसे खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। हमारा समाज ही अन्य निर्देशित होता जा रहा है। विज्ञापन और प्रसार के सूक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। उनमें सम्मोहन की शक्ति है, वशीकरण की भी।

अंततः इस संस्कृति के फैलाव का परिणाम क्या होगा? यह गंभीर चिंता का विषय है। हमारे सीमित संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जीवन की गुणवत्ता आलू के चिप्स से नहीं सुधरती। न बहुविज्ञापित शीतल पेयों से। भले ही वे अंतर्राष्ट्रीय हों। पीजा और बर्गर कितने ही आधुनिक हों, हैं वे कूड़ा खाद्य। समाज में बगों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अंतर आक्रोश और अशांति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित है। विकास के विराट उद्देश्य पीछे हट रहे हैं. हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे है। मर्यादाएँ टूट रही है, नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति केंद्रकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही है। किस बिंदु पर रुकेगी यह दौड़?

गांधी जी ने कहा था कि हम स्वस्थ सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाज़े-खिड़की खुले रखें पर अपनी बुनियाद पर कायम रहें। उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को ही हिला रही है। यह एक बड़ा खतरा है। भविष्य के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।

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प्रश्न अभ्यास

1. लेखक के अनुसार जीवन में ‘सुख’ से क्या अभिप्राय है?
Ans.
लेखक के अनुसार, जीवन में ‘सुख’ का अभिप्राय केवल उपभोग-सुख नहीं है। अन्य प्रकार के मानसिक, शारीरिक और सूक्ष्म आराम भी ‘सुख’ कहलाते हैं। परंतु आजकल लोग केवल उपभोग-सुख को ‘सुख’ कहने लगे हैं।

2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?
Ans.
उपभोक्तावादी संस्कृति से हमारा दैनिक जीवन पूरी तरह प्रभावित हो रहा है। आज व्यक्ति उपभोग को ही सुख समझने लगा है। इस कारण लोग अधिकाधिक वस्तुओं का उपभोग कर लेना चाहते हैं। लोग बहुविज्ञापित वस्तुओं को खरीदकर दिखावा करने लगे हैं। इस संस्कृति से मानवीय संबंध कमजोर हो रहे हैं। अमीर-गरीब के बीच दूरी बढ़ने से समाज में अशांति और आक्रोश बढ़ रहा है।

3. लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?
Ans.
गाँधी जी सामाजिक मर्यादाओं तथा नैतिकता के पक्षधर थे। वे सादा जीवन, उच्च विचार के कायल थे। वे चाहते थे कि समाज में आपसी प्रेम और संबंध बढ़े। लोग संयम और नैतिकता का आचरण करें। उपभोक्तावादी संस्कृति इस सबके विपरीत चलती है। वह भोग को बढ़ावा देती है और नैतिकता तथा मर्यादा को तिलांजलि देती है। गाँधी जी चाहते थे कि हम भारतीय अपनी बुनियाद पर कायम रहें, अर्थात् अपनी संस्कृति को न त्यागें। परंतु आज उपभोक्तावादी संस्कृति के नाम पर हम अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी मिटाते जा रहे हैं। इसलिए उन्होंने उपभोक्तावादी संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती कहा है।

4. आशय स्पष्ट कीजिए-

(क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
Ans.
उपभोक्तावादी संस्कृति अधिकाधिक उपभोग को बढ़ावा देती है। लोग उपभोग का ही सुख मानकर भौतिक साधनों का उपयोग करने लगते हैं। इससे वे वस्तु की गुणवत्ता पर ध्यान दिए बिना उत्पाद के गुलाम बनकर रह जाते हैं। जिसका असर उनके चरित्र पर पड़ता है।

(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हो।
Ans.
लोग समाज में प्रतिष्ठा दिखाने के लिए तरह-तरह के तौर तरीके अपनाते हैं। उनमें कुछ अनुकरणीय होते हैं तो कुछ उपहास का कारण बन जाते हैं। पश्चिमी देशों में लोग अपने अंतिम संस्कार अंतिम विश्राम हेतु-अधिक-से-अधिक मूल्य देखकर सुंदर जगह सुनिश्चित करने लगे हैं। उनका ऐसा करना नितांत हास्यास्पद है।

रचना और अभिव्यक्ति

5. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो या न हो, लेकिन टी.वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं? क्यों?
Ans.
टी.वी. पर आने वाले विज्ञापन बहुत प्रभावशाली होते हैं। वे हमारी आँखों और कानों को विभिन्न दृश्यों और ध्वनियों के सहारे प्रभावित करते हैं। वे हमारे मन में वस्तुओं के प्रति भ्रामक आकर्षण जगा देते हैं। बच्चे तो उनके बिना रह ही नहीं पाते। ‘खाए जाओ, खाए जाओ’, ‘क्या करें, कंट्रोल ही नहीं होता’, जैसे आकर्षण हमारी लार टपका देते हैं। इसलिए अनुपयोगी वस्तुएँ भी हमें लालायित कर देती हैं।

6. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की विज्ञापन? तर्क देकर स्पष्ट करें। गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन? तर्क देकर स्पष्ट करें।
Ans.
हमारे अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार उसकी गुणवत्ता होनी चाहिए न कि विज्ञापन। इस संबंध में कबीर की उक्ति पूर्णतया सटीक बैठती है कि-‘मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।’ विज्ञापन हमें वस्तुओं की विविधता, मूल्य, उपलब्धता आदि का ज्ञान तो कराते हैं परंतु उनकी गुणवत्ता का ज्ञान हमें अपनी बुधि-विवेक से करके ही आवश्यकतानुसार वस्तुएँ खरीदनी चाहिए।

7. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही ‘दिखावे की संस्कृति’ पर विचार व्यक्त कीजिए।
Ans.
आज दिखावे की संस्कृति पनप रही है। यह बात बिल्कुल सत्य है। इसलिए लोग उन्हीं चीजों को अपना रहे हैं, जो दुनिया की नजरों में अच्छी हैं। सारे सौंदय-प्रसाधन मनुष्यों को सुंदर दिखाने के ही प्रयास करते हैं। पहले यह दिखावा औरतों में होता था, आजकल पुरुष भी इस दौड़ में आगे बढ़ चले हैं। नए-नए परिधान और फैशनेबल वस्त्र दिखावे की संस्कृति को ही बढ़ावा दे रहे हैं।

आज लोग समय देखने के लिए घड़ी नहीं खरीदते, बल्कि अपनी हैसियत दिखाने के लिए हजारों क्या लाखों रुपए की घड़ी पहनते हैं। आज हर चीज पाँच सितारा संस्कृति की हो गई है। खाने के लिए पाँच-सितारा होटल, इलाज के लिए पाँच सितारा हस्पताल, पढ़ाई के लिए पाँच सितारा सुविधाओं वाले विद्यालये-सब जगह दिखावे का ही साम्राज्य है। यहाँ तक कि लोग मरने के बाद अपनी कब्र के लिए लाखों रुपए खर्च करने लगे हैं ताकि वे दुनिया में अपनी हैसियत के लिए पहचाने जा सकें।

यह दिखावा-संस्कृति मनुष्य को मनुष्य से दूर कर रही है। लोगों के सामाजिक संबंध घटने लगे हैं। मन में अशांति जन्म ले रही है। आक्रोश बढ़ रहा है, तनाव बढ़ रहा है। हम लक्ष्य से भटक रहे हैं। यह अशुभ है। इसे रोका जाना चाहिए।

8. आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्योहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।
Ans.
आज की उपभोक्ता संस्कृति के प्रभाव से हमारे रीति-रिवाज और त्योहार अछूते नहीं रहे। हमारे रीति-रिवाज और त्योहार सामाजिक समरसता बढ़ाने वाले, वर्ग भेद मिटाने वाले सभी को उल्लासित एवं आनंदित करने वाले हुआ करते थे, परंतु उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से इनमें बदलाव आ गया है। इससे त्योहार अपने मूल उद्देश्य से भटक गए हैं। आज रक्षाबंधन के पावन अवसर पर बहन भाई द्वारा दिए गए उपहार का मूल्य आंकलित करती है। दीपावली के त्योहार पर मिट्टी के दीए प्रकाश फैलाने के अलावा समानता दर्शाते थे परंतु बिजली की लड़ियों और मिट्टी के दीयों ने अमीर-गरीब का अंतर स्पष्ट कर दिया है। यही हाल अन्य त्योहारों का भी है।

यह भी जानें

सांस्कृतिक अस्मिता : अस्मिता से तात्पर्य है पहचान। हम भारतीयों की अपनी एक सांस्कृतिक पहचान है। यह सांस्कृतिक पहचान भारत की विभिन्न संस्कृतियों के मेल-जोल से बनी है। इस मिली-जुली सांस्कृतिक पहचान को ही हम सांस्कृतिक अस्मिता कहते हैं।

सांस्कृतिक उपनिवेश : बिजेता देश जिन देशों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है, वे देश उसके उपनिवेश कहलाते हैं। सामान्यतया विजेता देश की संस्कृति विजित देशों पर लारी जाती है, दूसरी तरफ हीनता ग्रथिवश विजित देश विजेता देश की संस्कृति को अपनाने भी लगते हैं। लंबे समय तक विजेता देश की संस्कृति को अपनाए रखना सांस्कृतिक उपनिवेश बनना है।

बौद्धिक दासता : अन्य को श्रेष्ठ समझकर उसकी बौद्धिकता के प्रति बिना आलोचनात्मक दृष्टि अपनाए उसे स्वीकार कर लेना बौद्धिक दासता है।

छद्म आधुनिकता : आधुनिकता का सरोकार विचार और व्यवहार दोनों से है। तर्कशील, वैज्ञानिक और आलोचनात्मक दृष्टि के साथ नवीनता का स्वीकार आधुनिकता है। जब हम आधुनिकता को वैचारिक आग्रह के साथ स्वीकार न कर उसे फ़ैशन के रूप में अपना लेते हैं तो वह छद्म आधुनिकता कहलाती है।

श्यामाचरण दुबे

श्यामाचरण दुबे का जन्म सन् 1922 में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में हुआ। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से मानव विज्ञान में पीएच. डी. की। वे भारत के अग्रणी समाज वैज्ञानिक रहे हैं। उनका देहांत सन् 1996 में हुआ। मानव और संस्कृति, परंपरा और इतिहास बोध, संस्कृति तथा शिक्षा, समाज और भविष्य, भारतीय ग्राम, संक्रमण की पीड़ा,विकास का समाजशास्त्र, समय और संस्कृति हिंदी में उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। प्रो. दुबे ने विभिन्न विश्वविद्यालयों में अध्यापन किया तथा अनेक संस्थानों में प्रमुख पदों पर रहे। जीवन, समाज और संस्कृति के ज्वलंत विषयों पर उनके विश्लेषण एवं स्थापनाएँ उल्लेखनीय हैं। भारत की जनजातियों और ग्रामीण समुदायों पर केंद्रित उनके लेखों ने बृहत समुदाय का ध्यान आकर्षित किया है। वे जटिल विचारों को तार्किक विश्लेषण के साथ सहज भाषा में प्रस्तुत करते हैं।

उपभोक्तावाद की संस्कृति निबंध बाजार की गिरफ्त में आ रहे समाज की वास्तविकता को प्रस्तुत करता है। लेखक का मानना है कि हम विज्ञापन की चमक-दमक के कारण वस्तुओं के पीछे भाग रहे हैं, हमारी निगाह गुणवत्ता पर नहीं है। संपन्न और अभिजन वर्ग द्वारा प्रदर्शनपूर्ण जीवन शैली अपनाई जा रही है, जिसे सामान्य जन भी ललचाई निगाहों से देखते हैं। यह सभ्यता के विकास की चिंताजनक बात है, जिसे उपभोक्तावाद ने. परोसा है। लेखक को यह बात महत्त्वपूर्ण है कि जैसे-जैसे यह दिखावे की संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशांति और विषमता भी बढ़ेगी।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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