मुद्रा का इस्तेमाल हमारे रोजाना के जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। अपने चारों तरफ देखिए, आप किसी एक दिन में मुद्रा से जुड़े कई सौदों की पहचान कर सकते हैं। क्या आप इनकी एक सूची बना सकते हैं? बहुत से लेन-देन में आप देखेंगे कि मुद्रा के ज़रिए वस्तुएँ खरीदी और बेची जा रही हैं। ऐसे कुछ लेन-देन में मुद्रा के बदले सेवाएँ प्रदान की जा रही हैं। लेकिन कुछ मामलों में हो सकता है कि लेन-देन होते वक्त मुद्रा का कोई आदान-प्रदान न हो, केवल बाद में भुगतान करने का वादा हो।
क्या आपने कभी सोचा है कि खरीददारी मुद्रा के जरिए क्यों होती है? कारण बहुत सरल है। जिस व्यक्ति के पास मुद्रा है, वह इसका विनिमय किसी भी वस्तु या सेवा खरीदने के लिए आसानी से कर सकता है। इसलिए हर कोई मुद्रा के रूप में भुगतान लेना पसंद करता है, फिर उस मुद्रा का इस्तेमाल अपनी ज़रूरत की चीजें खरीदने के लिए करता है। एक जूता निर्माता का उदाहरण देखते हैं। वह बाज़ार में जूता बेचकर गेहूँ खरीदना चाहता है। जूता बनाने वाला पहले जूतों के बदले मुद्रा प्राप्त करेगा और फिर इस मुद्रा का इस्तेमाल गेहूँ खरीदने के लिए करेगा।
जरा सोचिए कि जूता निर्माता यदि बिना मुद्रा का इस्तेमाल किए जूते का सीधे गेहूँ से विनिमय करता तो उसे कितनी कठिनाई होती। उसे गेहूँ उगाने वाले ऐसे किसान को खोजना पड़ता जो न केवल गेहूँ बेचना चाहता हो, बल्कि साथ में जूते भी खरीदना चाहता हो। अर्थात् दोनों पक्ष एक दूसरे से चीज़े खरीदने और बेचने पर सहमति रखते हों। इसे आश्यकताओं का दोहरा संयोग कहा जाता है। एक व्यक्ति जो वस्तु बेचने की इच्छा- रखता है, वही वस्तु दूसरा व्यक्ति ख़रीदने की भी इच्छा रखता हो। वस्तु विनिमय प्रणाली में, जहाँ मुद्रा का उपयोग किये बिना वस्तुओं का विनिमय होता है, वहाँ आवश्यकताओं का दोहरा संयोग होना अनिवार्य विशिष्टता है।
इसकी तुलना में ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ मुद्रा का प्रयोग होता है, मुद्रा महत्त्वपूर्ण मध्यवर्ती भूमिका प्रदान करके आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की ज़रूरत को खत्म कर देती है। फिर जूता निर्माता के लिए जरूरी नहीं रह जाता कि वो ऐसे किसान को ढूँढ़ें, जो न केवल उसके जूते ख़रीदे बल्कि साथ-साथ उसको गेहूँ भी बेचे। उसे केवल अपने जूते के लिए खरीददार ढूँढ़ना है। एक बार उसने जूते, मुद्रा में बदल लिए तो वह बाज़ार में गेहूँ या अन्य कोई वस्तु खरीद सकता है। चूँकि मुद्रा विनिमय प्रक्रिया में मध्यस्थता का काम करती है, इसे विनिमय का माध्यम कहा जाता है।
मुद्रा के आधुनिक रूप
हमने देखा है कि मुद्रा ऐसी चीज है जो लेन-देन में विनिमय का माध्यम बन सकती है। सिक्कों के चलन से पहले तरह-तरह की चीजें मुद्रा के रूप में इस्तेमाल की जाती थीं। उदाहरण के लिए, बहुत प्रारंभिक काल से ही भारतीय अनाज और पशु का मुद्रा के रूप में इस्तेमाल करते थे। इसके बाद सोना, चाँदी और ताँबे जैसी धातुओं के सिक्कों का चलन हुआ, जिसका चलन पिछली सदी तक रहा।
करेंसी
मुद्रा के आधुनिक रूपों में करेंसी-कागज़ के नोट और सिक्के शामिल हैं। वे चीजें जो पहले मुद्रा के रूप में प्रयोग की जाती थीं, उसके विपरीत आधुनिक मुद्रा बहुमूल्य धातुओं जैसे सोना-चाँदी और ताँबे के बने सिक्कों से नहीं बनी है। अनाज और पशुओं की तरह वे रोज़मर्रा की चीजें भी नहीं है। आधुनिक मुद्रा का इस प्रकार का अपना कोई इस्तेमाल नहीं है।
फिर, इसे विनिमय का माध्यम क्यों स्वीकार किया जाता है? इसे विनिमय का माध्यम इसलिए स्वीकार किया जाता है, क्योंकि किसी देश की सरकार इसे प्राधिकृत करती है।
भारत में भारतीय रिज़र्व बैंक केंद्रीय सरकार की तरफ से करेंसी नोट जारी करता है। भारतीय कानून के अनुसार, किसी व्यक्ति या संस्था को मुद्रा जारी करने की इजाज़त नहीं है। इसके अलावा कानून विनिमय के माध्यम के रूप में रुपये का इस्तेमाल करने की वैधता प्रदान करता है, जिसे भारत में, सौदों में अदायगी के लिए मना नहीं किया जा सकता। भारत में कोई व्यक्ति कानूनी तौर पर रुपयों में अदायगी को अस्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए, रुपया व्यापक स्तर पर विनिमय का माध्यम स्वीकार किया गया है।
बैंकों में निक्षेप
लोग मुद्रा बैंकों में निक्षेप के रूप में भी रखते हैं। किसी समय पर, लोगों को रोज़मर्रा की आवश्यकताओं के लिए कुछ ही करेंसी की ज़रूरत होती है। उदाहरण के लिए, हर महीने के आखिर में वेतन वाले मज़दूरों के पास अतिरिक्त नकद होता है। लोग इस अतिरिक्त नकद का क्या करते हैं? वे इसे बैंकों में अपने नाम से खाता खोलकर जमा कर देते हैं। बैंक ये जमा स्वीकार करते हैं और इस पर सूद भी देते हैं। इस तरह लोगों का धन बैंकों के पास सुरक्षित रहता है और इस पर सूद भी मिलता है। लोगों को अपनी आवश्यकता के अनुसार इसमें से धन निकालने की सुविधा भी उपलब्ध होती है। चूँकि बैंक खातों में जमा धन को माँग के ज़रिए निकाला जा सकता है, इसलिए इस जमा को ‘माँग जमा’ कहा जाता है।
माँग जमा एक अन्य दिलचस्प सुविधा देता है। यह सुविधा इसे मुद्रा का (विनिमय का माध्यम) महत्त्वपूर्ण लक्षण प्रदान करती है। आपने नकद की बजाय चैक से भुगतान के बारे में सुना होगा। चैक से भुगतान के लिए भुगतानकर्त्ता, जिसका किसी बैंक में खाता है, एक निश्चित रकम के लिए चैक काटता है। चैक एक ऐसा कागज़ है, जो बैंक को किसी व्यक्ति के खाते से चैक पर लिखे नाम के किसी दूसरे व्यक्ति को एक ख़ास रकम का भुगतान करने का आदेश देता हैं।
चैक द्वारा भुगतान
जूता निर्माता एम. सलीम को चमड़ा आपूर्तिकर्ता को भुगतान करना है और इसके लिए वह एक विशेष रकम का चैक लिखता है। अर्थात्, जूता निर्माता अपने बैंक को चमड़ा आपूर्तिकर्ता को यह रकम देने का आदेश देता है। चमड़ा आपूर्तिकर्ता यह चैक ले जाकर अपने बैंक खाते में जमा कर देता है। धन एक बैंक खाते से दूसरे बैंक खाते में कुछ दिनों में अंतरित हो जाता है। यह लेन-देन बिना नकद की अदायगी के पूरा हो जाता है।
इस तरह हम देखते हैं कि माँग जमा में मुद्रा के अनिवार्य लक्षण मिलते हैं। माँग जमा के बदले चैक लिखने की सुविधा से बिना नकद का इस्तेमाल किये सीधा भुगतान करना संभव हो जाता है। चूँकि माँग जमाओं को करेंसी के साथ-साथ व्यापक स्तर पर भुगतान का माध्यम स्वीकार किया जाता है, इसलिए आधुनिक अर्थव्यवस्था में इसे भी मुद्रा समझा जाता है।
यहाँ आपको बैंक की भूमिका को याद रखना होगा। बैंकों के लिए इन जमा के बदले कोई भी माँग जमा एवं भुगतान नहीं होगा। मुद्रा के आधुनिक रूप-करेंसी और जमा-आधुनिक बैंक प्रणाली की कार्यप्रणाली से बहुत करीब से जुड़े हुए हैं।
बैंकों की ऋण संबंधी गतिविधियां
बैंकों की कहानी को आगे बढ़ाते हैं। बैंक जनता से जो धन जमा खातों में स्वीकार करते हैं, उसका क्या करते हैं? यहाँ एक दिलचस्प क्रियाविधि काम कर रही है। बैंक जमा रकम का एक छोटा हिस्सा अपने पास नकद के रूप में रखते हैं। उदाहरण के लिए, आजकल भारत में बैंक जमा का केवल 15 प्रतिशत हिस्सा नकद के रूप में अपने पास रखते हैं। इसे किसी एक दिन में जमाकर्ताओं द्वारा धन निकालने की संभावना को देखते हुए यह प्रावधान किया जाता है। चूँकि किसी एक विशेष दिन में, केवल कुछ जमाकर्ता ही नकद निकालने के लिए आते हैं, इसलिए बैंक का काम इतने नकद से आराम से चल जाता है।
बैंक जमा राशि के एक बड़े भाग को ऋण देने के लिए इस्तेमाल करते हैं। विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के लिए ऋण की बहुत माँग रहती है। हम इसके बारे में आगे आने वाले खण्डों में और पढ़ेंगे। बैंक जमा राशि का लोगों की ऋण-आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इस तरह, बैंक जिनके पास अतिरिक्त राशि है (जमाकर्ता) एवं जिन्हें राशि की ज़रूरत है (कर्जदार) के बीच मध्यस्थता का काम करते हैं। बैंक जमा पर जो ब्याज देते हैं उससे ज़्यादा ब्याज ऋण पर लेते हैं। कर्जदारों से लिए गए ब्याज और जमाकर्ताओं को दिये गये ब्याज के बीच का अंतर बैंकों की आय का प्रमुख स्रोत है।
साख की दो विभिन्न स्थितियाँ
हमारी रोजमर्रा की गतिविधियों में ऐसे बहुत से लेन-देन होते हैं, जहाँ किसी न किसी रूप में ऋण का प्रयोग होता है। ऋण (उधार) से हमारा तात्पर्य एक सहमति से है जहाँ साहूकार कर्जदार को धन, वस्तुएँ या सेवाएँ मुहैया कराता है और बदले में भविष्य में कर्जदार से भुगतान करने का वादा लेता है। अब हम निम्नलिखित दो उदाहरणों के द्वारा देखते हैं कि ऋण की क्या भूमिका होती है?
(1) त्यौहार का मौसम
अब से दो महीने बाद त्यौहार का मौसम है और जूता निर्माता सलीम के पास शहर के एक बड़े व्यापारी से 3000 जोड़ी जूते की माँग आती है, जिसे उसे एक महीने के अन्दर पूरा करना है। उत्पादन के काम को समय पर पूरा करने के लिए सलीम को सिलाई और चिपकाने के काम के लिए अतिरिक्त मज़दूर रखने की आवश्यकता है। उसे कच्चा माल भी खरीदना है। इन सभी खर्चों को पूरा करने के लिए सलीम दो स्रोतों से ऋण लेता है। पहला, वह चमड़ा व्यापारी को चमड़ा अभी देने का प्रस्ताव रखता है और बाद में भुगतान करने का वादा करता है। दूसरा, वह इस बड़े व्यापारी से 1000 जूतों के लिए अग्रिम भुगतान के रूप में नकद कर्ज लेता है तथा महीना खत्म होने से पहले पूरा ऑर्डर पहुँचाने का वादा करता है।
महीने के आखिर में सलीम जूते पहुँचाने में कामयाब होता है। उसे अच्छा-खासा लाभ भी होता है और वह उधार लिए धन की अदायगी भी कर देता है।
सलीम उत्पादन के लिए कार्यशील पूँजी की जरूरत को ऋण के द्वारा पूरा करता है। ऋण उसे उत्पादन के कार्यशील खर्चों तथा उत्पादन को समय पर पूरा करने में मदद करता है और वह अपनी कमाई बढ़ा पाता है। इस प्रकार ऋण एक महत्त्वपूर्ण तथा सकारात्मक भूमिका अदा करता है।
(2) स्वप्ना की समस्या
एक छोटी किसान स्वप्ना अपनी 3 एकड़ जमीन पर मूँगफली उगाती है। वह इस उम्मीद पर कि फसल तैयार होने पर कर्ज को अदा कर देगी, खेती के खर्चों के लिए साहूकार से ऋण लेती है। फसल पर कीटनाशकों के हमले से फसल बर्बाद हो जाती है। हालाँकि स्वप्ना फसल पर महँगी कीटनाशक दवाइयाँ छिड़कती है, उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। वह साहूकार का कर्ज लौटाने में असफल रहती है और साल के अंदर यह कर्ज बड़ी रकम बन जाता है। अगले साल, स्वप्ना खेती के लिए दुबारा उधार लेती है। इस साल फसल सामान्य रहती है, लेकिन इतनी कमाई नहीं होती कि वह अपना कर्ज वापस कर सके। वह कर्ज में फैस जाती है। उसे कर्ज को चुकाने के लिए अपनी जमीन का कुछ हिस्सा बेचना पड़ता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में साख की मुख्य माँग फसल उगाने के लिए होती है। फसल उगाने में बीज, खाद, कीटनाशक दवाओं, पानी, बिजली, उपकरणों की मरम्मत इत्यादि पर काफी खर्च होता है। इन आगतों को खरीदने और फसल की बिक्री होने के बीच कम से कम 3-4 महीने का अंतराल होता है। आमतौर से किसान ऋतु के आरंभ में फसल उगाने के लिए उधार लेते हैं और फसल तैयार होने के बाद वापस कर देते हैं। उधार की अदायगी मुख्यतः फसल की कमाई पर निर्भर है।
स्वप्ना के मामले में फसल बर्बाद हो जाने से कर्ज की अदायगी असंभव हो गई। उसे कर्ज उतारने के लिए अपनी जमीन का कुछ हिस्सा बेचना पड़ा। ऋण ने स्वप्ना की कमाई को बढ़ाने के बजाय उसकी स्थिति बदतर कर दी। इसे आम भाषा में कर्ज-जाल कहा जाता है। इस मामले में ऋण कर्जदार को ऐसी परिस्थिति में धकेल देता है, जहाँ से बाहर निकलना काफी कष्टदायक होता है।
एक स्थिति में ऋण आय बढ़ाने में सहयोग करता है, जिससे व्यक्ति की स्थिति पहले से बेहतर हो जाती है। दूसरी स्थिति में, फसल बर्बाद होने के कारण ऋण व्यक्ति को अपने जाल में फँसा देता है। स्वप्ना को कर्ज उतारने के लिए अपनी जमीन का एक हिस्सा बेचना पड़ता है। स्पष्ट है कि उसकी स्थिति पहले की तुलना में बदतर हुई। ऋण उपयोगी होगा या नहीं, यह परिस्थिति के खतरों और हानि होने पर प्राप्त सहयोग की संभावना पर निर्भर करता है।
ऋण की शर्तें
हर ऋण समझौते में ब्याज दर निश्चित कर दी जाती है, जिसे कर्जदार महाजन को मूल रकम के साथ अदा करता है। इसके अलावा, उधारदाता कोई समर्थक ऋणाधार (गिरवी रखने के लिए) की माँग कर सकता है। समर्थक ऋणाधार ऐसी संपत्ति है, जिसका मालिक कर्जदार है (जैसे कि भूमि, इमारत, गाड़ी, पशु, बैंकों में पूँजी) और इसका इस्तेमाल वह उधारदाता को गारंटी देने के रूप में करता है, जब तक कि ऋण का भुगतान नहीं हो जाता। यदि कर्जदार उधार वापस नहीं कर पाता, तो उधारदाता को भुगतान प्राप्ति के लिए संपत्ति या समर्थक ऋणाधार बेचने का अधिकार होता है। संपत्ति – जैसे कि ज़मीन, बैंकों में जमा पूँजी, पशु इत्यादि समर्थक ऋणाधार के आम उदाहरण हैं, जिनका उपयोग कर्ज लेने के लिए किया जाता है।
ब्याज दर, समर्थक ऋणाधार, आवश्यक कागजात और भुगतान के तरीकों को सम्मिलित रूप से ऋण की शर्तें कहा जाता है। ऋण की शर्तों में एक ऋण व्यवस्था से दूसरी ऋण व्यवस्था में काफी फर्क आ जाता है। कर्ज़ की शर्ते उधारदाता और कर्जदार की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। अगले भाग में ऐसे उदाहरण दिए गए हैं, जहाँ विभिन्न ऋण व्यवस्थाओं में ऋण की शर्ते अलग-अलग हैं।
सहकारी समितियों से ऋण
बैकों के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में सस्ते ऋण का एक अन्य स्रोत सहकारी समितियाँ हैं। सहकारी समिति के सदस्य अपने संसाधनों को कुछ क्षेत्रों में सहयोग के लिए एकत्र करते हैं। कई प्रकार की सहकारी समितियाँ संभव है, जैसे-किसानों, बुनकरों एवं औद्योगिक मजदूरों इत्यादि की सहकारी समितियाँ। कृषक सहकारी समिति सोनपुर के नजदीक एक गाँव में काम करती है। इसके 2300 किसान सदस्य है। यह अपने सदस्यों से जमा प्राप्त करती है। इस जमा पूँजी को ऋणाधार मानते हुए, इस सहकारी समिति ने बैंक से बड़ा ऋण प्राप्त किया है। इस पूँजी का इस्तेमाल सदस्यों को कर्ज देने के लिए किया जाता है। यह ऋण लौटाने के बाद कर्ज़ का दूसरा दौर शुरू किया जा सकता है।
कृषक सहकारी समिति कृषि उपकरण खरीदने, खेती तथा कृषि व्यापार करने, मछली पकड़ने, घर बनाने और अन्य विभिन्न प्रकार के ख़चों के लिए ऋण मुहैया कराती है।
भारत में औपचारिक क्षेत्रक में साख
हमने ऊपर के उदाहरणों में देखा है कि लोग विभिन्न स्रोतों से ऋण प्राप्त करते हैं। विभिन्न प्रकार के ऋणों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है- औपचारिक तथा अनौपचारिक क्षेत्रक ऋण। पहले वर्ग में बैंकों और सहकारी समितियों से लिए कर्ज आते हैं। अनौपचारिक उधारदाता में साहूकार, व्यापारी, मालिक, रिश्तेदार, दोस्त इत्यादि आते हैं। आलेख-1 में आप भारत के ग्रामीण परिवारों के लिए ऋण के विभिन्न स्त्रोतों को देख सकते हैं। क्या अधिक ऋण औपचारिक क्षेत्रक से आ रहा है या अनौपचारिक क्षेत्रक से?भारत में औपचारिक क्षेत्रक में साखहमने ऊपर के उदाहरणों में देखा है कि लोग विभिन्न स्रोतों से ऋण प्राप्त करते हैं। विभिन्न प्रकार के ऋणों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है- औपचारिक तथा अनौपचारिक क्षेत्रक ऋण। पहले वर्ग में बैंकों और सहकारी समितियों से लिए कर्ज आते हैं। अनौपचारिक उधारदाता में साहूकार, व्यापारी, मालिक, रिश्तेदार, दोस्त इत्यादि आते हैं। आलेख-1 में आप भारत के ग्रामीण परिवारों के लिए ऋण के विभिन्न स्त्रोतों को देख सकते हैं। क्या अधिक ऋण औपचारिक क्षेत्रक से आ रहा है या अनौपचारिक क्षेत्रक से?
भारतीय रिज़र्व बैंक ऋणों के औपचारिक स्त्रोतों की कार्यप्रणाली पर नज़र रखता है। उदाहरण के लिए, हमने देखा कि बैंक अपनी जमा का एक न्यूनतम नकद हिस्सा अपने पास रखते हैं। आर. बी. आई. नजर रखता है कि बैंक वास्तव में नकद शेष बनाए हुए हैं। आर.बी.आई. इस पर भी नज़र रखता है कि बैंक केवल लाभ अर्जित करने वाले व्यावसायियों और व्यापारियों को ही ऋण मुहैया नहीं करा रहे, बल्कि छोटे किसानों, छोटे उद्योगों, छोटे कर्जदारों इत्यादि को भी ऋण दे रहे हैं। समय-समय पर, बैंकों द्वारा आर.बी.आई. को यह जानकारी देनी पड़ती है कि वे कितना और किनको ऋण दे रहे हैं और उसकी ब्याज की दरें क्या है?
अनौपचारिक क्षेत्रक में ऋणदाताओं की गतिविधियों की देखरेख करने वाली कोई संस्था नहीं है। वे ऐच्छिक दरों पर ऋण दे सकते हैं। उन्हें नाजायज़ तरीकों से अपने पैसे वापस लेने से रोकने वाला कोई नहीं है।
औपचारिक ऋणदाताओं की तुलना में अनौपचारिक क्षेत्रक के ज़्यादातर ऋणदाता कहीं अधिक ब्याज वसूल करते हैं। इसलिए, अनौपचारिक ऋण कर्जदाता को अधिक महँगा पड़ता है।
ऋण की ऊँची लागत का अर्थ है कर्जदार की आय का अधिकतर हिस्सा ऋण की अदाएगी में ही खर्च हो जाता है। इसलिए, कर्जदारों के पास अपने लिए कम आय बचती है (जैसा कि हमने सोनपुर के श्यामल के मामले में देखा)। कुछ मामलों में ऋण की ऊँची ब्याज दरों के कारण कर्ज वापस करने की रकम कर्जदार की आय से भी अधिक हो जाती है। इसके कारण ऋण का बोझ बढ़ जाता है (जैसा कि हमने सोनपुर की रमा के मामले में देखा) और व्यक्ति ऋण-जाल में फँस जाता है। ऐसा भी संभव है कि जो लोग कर्ज लेकर अपना उद्यम शुरू करना चाहते हैं, वे ऋण की अधिक लागत को देख कर पीछे हट जाएँ।
इन सभी कारणों को देखते हुए बैंकों और सहकारी समितियों को ज़्यादा कर्ज़ देना चाहिए। इसके जरिए लोगों की आय बढ़ सकती है और बहुत से लोग अपनी विभिन्न ज़रूरतों के लिए सस्ता कर्ज़ ले सकेंगे। वे फसल उगा सकते हैं, कोई कारोबार कर सकते हैं, छोटे उद्योग इत्यादि लगा सकते हैं। वे नया उद्योग लगा सकते हैं या वस्तुओं का व्यापार कर सकते हैं। सस्ता और सामर्थ्य के अनुकूल कर्ज देश के विकास के लिए अति आवश्यक है।
औपचारिक और अनौपचारिक साख – किसे क्या मिलता है?
आलेख 2 में शहरी क्षेत्रों के लोगों के लिए ऋण के औपचारिक और अनौपचारिक महत्त्व को दिखाया गया है। आलेख में गरीब से अमीर लोगों को चार भागों में बाँटा गया है। आप देख सकते हैं कि शहरी क्षेत्रों के निर्धन परिवारों की कर्जों की 54 प्रतिशत ज़रूरतें अनौपचारिक स्त्रोतों से पूरी होती हैं। इस की तुलना आप शहरी इलाकों के अमीर परिवारों से कीजिए। आप क्या देखते हैं? उनके केवल 17 प्रतिशत कर्ज अनौपचारिक स्रोतों से जबकि 83 प्रतिशत औपचारिक स्रोतों से हैं। इसी तरह की तस्वीर ग्रामीण क्षेत्रों में भी है। अमीर परिवार औपचारिक ऋणदाताओं से सस्ता ऋण ले रहे हैं, जबकि गरीब परिवारों को कर्ज के लिए बहुत सारा पैसा देना पड़ता है।
इस सबसे क्या पता चलता है? पहला, औपचारिक स्रोत अभी भी ग्रामीण परिवारों की कुल ऋण ज़रूरतों का केवल 50 प्रतिशत पूरा कर पाता है। बाकी ज़रूरतें अनौपचारिक स्रोतों से पूरी होती हैं। अनौपचारिक ऋणदाताओं से लिए गये उधार पर आमतौर से ब्याज की दरें बहुत अधिक होती हैं और यह उधार कर्जदाताओं की आय बढ़ाने का काम कम ही कर पाता है। इसलिए, बैंकों और सहकारी समितियों को अपनी गतिविधियाँ विशेषकर ग्रामीण इलाकों में बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि कर्जदारों की अनौपचारिक स्रोत पर से निर्भरता घटे।
दूसरा, यदि एक तरफ औपचारिक स्रोत के ऋणों का विस्तार होना चाहिए तो दूसरी ओर यह भी ज़रूरी है कि यह ऋण सभी लोगों को प्राप्त हो सके। वर्तमान समय में, अमीर परिवार ही औपचारिक स्रोतों से ऋण प्राप्त करते हैं जबकि गरीब परिवारों को अनौपचारिक स्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। यह ज़रूरी है कि औपचारिक ऋण का अधिक समान वितरण हो, ताकि गरीब परिवार भी सस्ते ऋण का फायदा उठा सकें।
निर्धनों के स्वयं सहायता समूह
पिछले खंड में हमने देखा कि निर्धन परिवार ऋण के लिए अब भी अनौपचारिक स्रोतों पर निर्भर हैं। ऐसा क्यों है? भारत के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक मौजूद नहीं हैं। जहाँ कहीं मौजूद भी हैं, बैंक से कर्ज लेना अनौपचारिक स्रोत से कर्ज लेने की तुलना में ज़्यादा मुश्किल है। जैसा कि हमने मेघा के मामले में देखा, बैंक से कर्ज लेने के लिए ऋणाधार और विशेष कागजातों की जरूरत पड़ती है। ऋणाधार की अनुपलब्धता एक प्रमुख कारण है, जिससे गरीब बैंकों से ऋण नहीं ले पाते। दूसरी ओर, अनौपचारिक ऋणदाता जैसे साहूकार इन कर्जदारों को व्यक्तिगत स्तर पर जानते हैं और इस कारण अक्सर बिना ऋणाधार के भी ऋण देने के लिए तैयार हो जाते हैं। कर्जदार ज़रूरत पड़ने पर पुराना ऋण चुकाये बिना भी, नया कर्ज लेने के लिए साहूकार के पास जा सकते हैं। लेकिन, महाजन ब्याज की दरें बहुत ऊँची रखते हैं, लेन-देन की लिखा पढ़ी भी पूरी नहीं करते और निर्धन कर्जदारों को तंग करते हैं।
हाल के वर्षों में, लोगों ने गरीबों को उधार देने के कुछ नए तरीके अपनाने की कोशिश की है। इन में से एक विचार ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों विशेषकर महिलाओं को छोटे-छोटे स्वयं सहायता समूहों में संगठित करने और उनकी बचत पूँजी को एकत्रित करने पर आधारित है। एक विशेष स्वयं सहायता समूह में एक-दूसरे के पड़ोसी 15-20 सदस्य होते हैं, जो नियमित रूप से मिलते हैं और बचत करते हैं। प्रति व्यक्ति बचत 25 रुपए से लेकर 100 रुपए या अधिक हो सकती है। यह परिवारों की बचत करने की क्षमता पर निर्भर करता है। सदस्य अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए छोटे कर्ज समूह से ही कर्ज ले सकते हैं। समूह इन कर्जों पर ब्याज लेता है लेकिन यह साहूकार द्वारा लिए जाने वाले ब्याज से कम होता है। एक या दो वर्षों के बाद, अगर समूह नियमित रूप से बचत करता है, तो समूह बैंक से ऋण लेने के योग्य हो जाता है। ऋण समूह के नाम पर दिया जाता है और इसका मकसद सदस्यों के लिए स्वरोजगार के अवसरों का सृजन करना है। उदाहरण के लिए, सदस्यों को छोटे-छोटे कर्ज अपनी गिरवी ज़मीन छुड़वाने के लिए, कार्यशील पूँजी की जरूरतें (बीज, खाद, बाँस और कपड़े खरीदने के लिए), घर बनाने, सिलाई की मशीन, हथकरघा, पशु इत्यादि संपत्ति खरीदने के लिए दिए जाते हैं।
बचत और ऋण गतिविधियों से संबंधी ज़्यादातर महत्त्वपूर्ण निर्णय समूह के सदस्य स्वयं लेते हैं। समूह दिए जाने वाले ऋण-उसका लक्ष्य, उसकी रकम, ब्याज दर, वापस लौटाने की अवधि आदि के बारे में निर्णय करता है। इस ऋण को लौटाने की ज़िम्मेदारी भी समूह – की होती है। एक भी सदस्य अगर ऋण वापस नहीं लौटाता तो समूह के अन्य सदस्य इस मामले को गंभीरता से लेते हैं। इसी कारण, बैंक निर्धन महिलाओं को ऋण देने के लिए तैयार हो जाते हैं जब वे अपने को स्वयं सहायता समूहों में संगठित कर लेती हैं, यद्यपि उनके पास कोई ऋणाधार नहीं होता।
इस तरह, स्वयं सहायता समूह कर्जदारों को ऋणाधार की कमी की समस्या से उबारने में मदद करते हैं। उन्हें समयानुसार विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं के लिए एक उचित ब्याज दर पर ऋण मिल जाता है। इसके अतिरिक्त यह समूह ग्रामीण क्षेत्रों के गरीबों को संगठित करने में मदद करते हैं। इससे न केवल महिलाएँ आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो जाती हैं, बल्कि समूह की नियमित बैठकों के ज़रिए लोगों को एक आम मंच मिलता है, जहाँ वह तरह-तरह के सामाजिक विषयों जैसे, स्वास्थ्य, पोषण और घरेलू हिंसा इत्यादि पर आपस में चर्चा कर पाती हैं।
बांग्लादेश का ग्रामीण बैंक
बांग्लादेश ग्रामीण बैंक का उचित ब्याज दरों पर गरीबों की ऋण जरूरतों को पूरा करने का बड़ा सफल इतिहास रहा है। इसकी शुरुआत 1970 में एक छोटे पैमाने से हुई। वर्ष 2018 में ग्रामीण बैंक के अब 9 लाख सदस्य थे जो बांग्लादेश के 81,600 गाँवों में फैले हुए थे। इससे ऋण लेने वाली ज़्यादातर महिलाएँ हैं जिनका संबंध समाज के गरीब तबके से है। इन कर्जदारों ने दिखा दिया है कि न केवल गरीब महिलाएँ भरोसेमंद कर्जदार हैं, बल्कि वे विभिन्न तरह की छोटी आय वाली गतिविधियों को सफलतापूर्वक शुरू करने और चला सकने में सक्षम हैं।
सारांश
इस अध्याय में हमने मुद्रा के आधुनिक रूपों और बैंकिग प्रणाली से इसके संबंधों को देखा। एक तरफ़ जमाकर्ता अपना धन बैंकों में रखते हैं, दूसरी तरफ कर्जदार बैंकों से ऋण लेते हैं। आर्थिक गतिविधियों के लिए ऋण की जरूरत होती है। जैसा कि हमने देखा, ऋण के सकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं या कुछ परिस्थितियों में वे कर्जदार की स्थिति और बदतर कर सकते हैं। ऋण विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध होता है। ये औपचारिक और अनौपचारिक दोनों तरह के स्रोत हो सकते हैं। औपचारिक और अनौपचारिक ऋणदाताओं में ऋण की शर्तों में बहुत फर्क हो सकता है। वर्तमान समय में, अमीर परिवार औपचारिक स्रोतों से ऋण लेते हैं जबकि गरीबों को अब भी अनौपचारिक स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। यह अनिवार्य है कि औपचारिक क्षेत्र के कुल ऋणों में वृद्धि हो, ताकि महँगे अनौपचारिक ऋण पर से निर्भरता कम हो। साथ ही, बैंकों और सहकारी समितियों इत्यादि से गरीबों को मिलने वाले औपचारिक ऋण का हिस्सा बढ़ना चाहिए। ये दोनों कदम विकास के लिए ज़रूरी हैं।
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अभ्यास
1. जोखिम वाली परिस्थितियों में ऋण कर्जदार के लिए और समस्याएँ खड़ी कर सकता है। स्पष्ट कीजिए।
Ans. इस कथन में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं की अधिक जोखिम वाली परिस्थितियों में ऋण कर्जदार के लिए एक बड़ी समस्या बन सकता है। उदाहरस्वरूप, एक छोटा किसान जमीन के एक छोटे टुकड़े पर खेती करता है जिससे उसके परिवार का जीवन निर्वाह भी बड़ी मुश्किल से हो पाता है। खेती के खर्चों को पूरा करने के लिए वह किसी साहूकार से कर्ज लेता है इस आशा में की खेती की फसल को बेचकर वह साहूकार का कर्ज वापस कर देगा लेकिन किसी भी कारण वर्ष वर्षा के अधिक होने या ना होने के कारण फसल अच्छी नहीं हो पाती है तो इस परिस्थिति में उसका कर्ज बढ़ती हुई एक रकम बन जाएगा जिसे चुका ना उसके लिए और भी मुश्किल हो जाएगा।
2. मुद्रा आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की समस्या को किस तरह सुलझाती है? अपनी ओर से उदाहरण देकर समझाइए।
Ans. वस्तु विनिमय प्रणाली में मुद्रा का प्रयोग किए बिना सीधे वस्तुओं का आदान-प्रदान किया जाता था । ऐसी स्थिति में माँगों का दोहरा संयोग होना आवश्यक था । उदाहरण के लिए, यदि किसी कपड़ा व्यापारी को चावल चाहिएं तो उसे ऐसे किसान को खोजना होगा, जो चावल के बदले कपड़े खरीदना चाहता हो। इस समस्या का समाधान मुद्रा का प्रयोग करके किया जाता है। मुद्रा माँगों के दोहरे संयोग की समस्या को समाप्त कर देती है। मुद्रा विनिमय प्रक्रिया में मध्यस्थता का काम करती है, इसे विनिमय का माध्यम भी कहा जाता है।
अथवा
मुद्रा, वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय में बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है जैसे:
(1) आप मुद्रा द्वारा बाज़ार से जो सामान खरीदना चाहते हैं जैसे कपड़ा, बर्तन, जूते आदि आसानी से खरीद सकते हैं।
(2) आप मुद्रा द्वारा किसी भी कारीगर से चाहे वह बढ़ई हो, लौहार हो, मकान बनाने वाला मिस्त्री हो, अपनी आवश्यकता के अनुसार काम ले सकते है।
(3) मुद्रा आपको आवश्यकताओं के दोहरे संयोग की समस्या से भी बचाती है फर्ज़ करो एक कपड़े बेचने वाला गेहूँ खरीदना चाहता है। पहले तो उसे कपड़े खरदीने वाला व्यक्ति ढूँढना पड़ेगा और फिर उसे देखना पड़ेगा कि ऐसा व्यक्ति है। इस प्रकार इस लेन-देन में संयोगों की आवश्यकता पड़ती है। पहले तो कपड़े खरीदने वाला व्यक्ति ढूंढा जाए और दूसरे वह गेहूँ बेचने के लिए तैयार हो। कहाँ हो, जो एक तरफ तो कपड़े खरीदना चाहता हो और दूसरी तरफ गेहूँ बेचना चाहता परंतु मुद्रा के प्रयोग से कपड़े बनाने वाला किसी को भी अपना कपड़ा बेचकर मुद्रा प्राप्त कर सकता है और इस मुद्रा से जहाँ से चाहे गेहूँ खरीद सकता है। ऐसे में मुद्रा द्वारा दोहरे संयोग की समस्या पैदा ही नहीं होती और वह मुद्रा के प्रयोग से अपने-आप ही हल हो जाती है।
3. अतिरिक्त मुद्रा वाले लोगों और जरूरतमंद लोगों के बीच बैंक किस तरह मध्यस्थता करते हैं?
Ans. लोग बैंको के साथ अनेक प्रकार से जुड़े होते हैं। बैंक विभिन्न लोगों के पैसे अपने यहाँ जमा रखता है। जिन लोगों के पास अतिरिक्त मुद्रा होती है, वे बैंक में अपनी धनराशि जमा करके रखते हैं। जिन्हें ऋण की आवश्यकता होती है वैसे लोग बैंक जाते हैं और बैंकों से उचित दर में ऋण लेते है। और बैंक अपने पास जमा राशि से ऐसे लोगों को ऋण मुहैया कराता है। इस प्रकार कर्ज के रूप में प्राप्त धन से कर्जदार अपना काम कर पाता है। अतः इस तरह से बैंक अतिरिक्त मुद्रा वाले लोगों और जरूरतमंद लोगों के बीच मध्यस्थता का काम करता है।
4. 10 रुपये के नोट को देखिए। इसके ऊपर क्या लिखा है? क्या आप इस कथन की व्याख्या कर सकते हैं?
Ans. 10 रुपये के नोट पर निम्न पंक्ति लिखी होती है, ” केन्द्रीय सरकार द्वारा प्रत्याभूत मैं धारक को दस रुपये अदा करने का वचन देता हूँ।” इस कथन के बाद रिजर्व बैंक के गवर्नर का दस्तखत होता है। यह कथन दर्शाता है कि रिजर्व बैंक को केंद्र सरकार ने यह नोट छापने का अधिकार दिया है और रिजर्व बैंक ने उस करेंसी नोट पर एक मूल्य तय किया है जो देश के हर व्यक्ति और हर स्थान के लिये एक समान होता है। केंद्रीय सरकार की यह अनुमति ही इस नोट को अधिकृत करैंसी का रूप प्रदान करती है।
5. हमें भारत में ऋण के औपचारिक स्रोतों को बढ़ाने की क्यों जरूरत है?
Ans. औपचारिक ऋण वे हैं जो बैंकों या सहकारी समितियों से प्राप्त होते हैं जबकि अनौपचारिक ऋण वे हैं जो साहूकारों, व्यापारियों, मित्रों एवं रिश्तेदारों आदि से प्राप्त होते हैं। भारत में लगभग 48% ऋण अनौपचारिक सेक्टर से आता है। कई लोग ऐसे हैं जिनकी पहुँच ऋण के औपचारिक सेक्टर तक नहीं है। ऐसे लोग अक्सर सूदखोरों के चक्कर में पड़ जाते हैं जो गरीबों को दबाने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाते हैं। ऐसे लोगों को गरीबी के कुचक्र से निकालने के लिए उन तक ऋण के औपचारिक स्रोतों को पहुँचाना जरूरी हो जाता है। इससे गाँवों और दूर दराज के इलाकों में सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुधारने में भी मदद मिलेगी।
6. गरीबों के लिए स्वयं सहायता समूहों के संगठनों के पीछे मूल विचार क्या हैं? अपने शब्दों में व्याख्या कीजिए।
Ans. स्वयं सहायता समूहों का गठन वैसे गरीबों के लिये किया जाता है जिनकी पहुँच ऋण के औपचारिक स्रोतों तक नहीं है यह समूह विशेषकर महिलाओं के लिए बहुत हितकारी होते हैं। कई ऐसे कारण हैं जिनसे ऐसे लोगों को बैंक या सहकारी समिति से ऋण नहीं मिल पाता है। अशिक्षा और जागरूकता के अभाव से उनकी समस्या और भी बढ़ जाती है। एक स्वयं सहायक समूह में 15 से 20 सदस्य होते हैं जो हर महीने अपनी बचत राशि का या उसके कुछ राशि को आत्मनिर्भर गुट बनाकर जमा करते रहते हैं। धीरे-धीरे यह राशि काफी बड़ी रकम बन जाती है। स्वयं सहायता समूह ऐसे लोगों को छोटा ऋण देती है ताकि उनकी आजीविका चलती रहे। इसके अलावा स्वयं सहायता समूह ऐसे लोगों में ऋण भुगतान की आदत भी डालती है।
7. क्या कारण हैं कि बैंक कुछ कर्जदारों को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं होते?
Ans. बैंक कुछ कर्जदारों को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं होते । जो कर्जदार ऋण की शर्ते पूरी नहीं कर पाते, बैंक उन्हें कर्ज नहीं देते । ब्याज दर, संपत्ति और कागजात की माँग और भुगतान के तरीके, इन सबको मिलाकर ऋण की शर्ते कहा जाता है। बैंक ऋण से औपचारिकता है। अगर औपचारिकताएँ पूरी न हों तो बैंक ऋण नहीं दे पाते।
अथवा
कोई भी बैंक किसी व्यक्ति की ऋण अदायगी की क्षमता के आधार पर ही ऋण देता है। बैंक किसी भी जोखिम वाले काम के लिये ऋण नहीं देते हैं। और जब कर्जदार किसी ऐसे व्यक्ति को उपलब्ध कराने में असमर्थ रहता है जो उसके कर्ज न चुकाने पर उसका कर्ज चुका सके इस स्थिति में भी बैंक उसे कर्ज नहीं देते हैं। इसलिये बैंक कुछ चुनिंदा लोगों को ही ऋण देते हैं।
कुछ मुख्य बिंदु:
- 1कर्जदार बैंकों को अपनी आय का प्रमाण देने में असमर्थ हो।
- सिक्योरिटी के रूप में कुछ उपलब्ध नहीं करवा सके।
- कोई गारंटी लेने वाला नहीं हो।
8. भारतीय रिजर्व बैंक अन्य बैंकों की गतिविधियों पर किस तरह नजर रखता है? यह जरूरी क्यों है?
Ans. भारत में भारतीय रिजर्व बैंक केंद्रीय सरकार की तरफ से करेंसी नोट जारी करता है। इसके साथ-साथ यह अन्य बैंकों की गतिविधियों पर नजर रखता है। भारतीय रिज़र्व बैंक यह देखता है कि बैंक वास्तव में नकद शेष बनाए हुए हैं। बैंक केवल लाभ बनाने वाली इकाइयों और व्यापारियों को ही ऋण मुहैया नहीं करा रहे, बल्कि छोटे किसानों, छोटे उद्योगों, छोटे कर्जदारों को भी ऋण दे रहे हैं। समय-समय पर बैंकों को (आर.बी.आई) को यह जानकारी देनी पड़ती है कि वे कितना और किनको ऋण दे रहे हैं और उसकी ब्याज की दरें क्या हैं। यह इसलिए जरूरी है, ताकि ऋण की सुविधा सभी को मिलती रहे।
अथवा
भारतीय रिजर्व बैंक भारत का केंद्रीय बैंक है। यह भारत के बैंकिंग सेक्टर के लिये नीति निर्धारण का काम करता हैं और ऋणों के औपचारिक स्रोतों की कार्यप्रणाली पर नजर रखता है। बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डालते हैं इसलिये बैंकिंग सेक्टर के लिए सही नियम और कानून की जरूरत होती है। रिजर्व बैंक उन पर अनेक ढंग से नजर रखता है:
- रिजर्व बैंक इस बात का ध्यान रखता है कि प्रत्येक बैंक ने Minimum Cash Balance अपने पास रखा है या नहीं।
- रिजर्व बैंक इस बात पर भी नजर रखता है कि बैंक छोटे ऋण प्राप्त करने वालों को भी ऋण दे रहे हैं या लाभ कमाने के लिए सिर्फ उद्योगपतियों को ही ऋण तो नहीं दे रहे हैं।
- रिजर्व बैंक इस बात पर भी ध्यान रखता है की ऋण की दर क्या है ताकि किसी के साथ कोई अन्याय ना हो सके और कोई ठगा न जाए।
9. विकास में ऋण की भूमिका का विश्लेषण कीजिए।
Ans. किसी भी देश के विकास में ऋण की अहम भूमिका होती है। क्योंकि ज्यादातर व्यवसायों को आगे बढ़ाने के लिये कभी न कभी ऋण की आवश्यकता पड़ती है। ऋण के बिना किसी छोटी कंपनी को एक बड़ी कंपनी में नहीं बदलना एक चुनौतपूर्ण कार्य है। ऋण के अभाव में किसान खेती को बड़े पैमाने पर नहीं कर सकते हैं। ज्यादातर लोग ऋण के बिना घर या कार नहीं खरीद सकते हैं। जिनका की देश के विकास पर बड़ा असर पड़ता है। अगर ऋण की दर कम है तो वह जनसाधारण के लिए लाभकारी सिद्ध हो सकता है।
10. मानव को एक छोटा व्यवसाय करने के लिये ऋण की जरूरत है। मानव किस आधार पर यह निश्चित करेगा कि उसे यह ऋण बैंक से लेना चाहिये या साहूकार से? चर्चा कीजिए।
Ans. मानव को सबसे पहले विभिन्न कर्जदाताओं के ब्याज दर की तुलना करनी चाहिए। उसके बाद उसे गिरवी की मांग और ऋण अदायगी की शर्तों की तुलना करनी चाहिए। मानव को उसी कर्जदाता से ऋण लेना चाहिए जो सबसे कम ब्याज दर मांग रहा हो, कम कीमत वाली गिरवी पर तैयार हो और ऋण अदायगी की आसान शर्ते रख रहा हो।
11. भारत में 80 प्रतिशत किसान छोटे किसान हैं, जिन्हें खेती करने के लिए ऋण की जरूरत होती है।
(क) बैंक छोटे किसानों को ऋण देने से क्यों हिचकिचा सकते हैं?
Ans. बैंक छोटे किसानों को ऋण देने में हिचकिचाते हैं इसके मुख्य कारण हैं क्योंकि न तो उन किसानों के पास आय का प्रमाण पत्र होता है और न कर्ज के बदले में ऋणाधार उपलब्ध कराने के लिए कोई संपत्ति।
(ख) वे दूसरे स्रोत कौन हैं, जिनसे छोटे किसान कर्ज ले सकते हैं।
Ans. क्योंकि छोटे किसानों को बैंक आसानी के ऋण नहीं देते है इसलिए उनको अनौपचारिक ऋणदाताओं से ऋण लेना पड़ता है जैसे साहूकार, व्यापारी आदि।
(ग) उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए कि किस तरह ऋण की शर्तें छोटे किसानों के प्रतिकूल हो सकती हैं।
Ans. आमतौर में अनौपचारिक ऋणाधर सूद की दर ज्यादा रखते है ताकि ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके और कभी अगर किसान की फसल खराब हो जाए तो उस कर्ज के कारण उसे अपनी जमीन से भी काथ धोना पड़ता है।
(घ) सुझाव दीजिए कि किस तरह छोटे किसानों को सस्ता ऋण उपलब्ध कराया जा सकता है।
Ans. छोटे किसानों को यदि कर्ज बैंकों द्वारा या सहकारी समितियों द्वारा दिया जाए तो वे अधिक सूद की मार और साहूकारों के शोषण से बच सकते हैं।
12. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें
(क) किसान परिवारों को ऋण की अधिकांश जरूरतें अनौपचारिक स्रोतों से पूरी होती हैं।
(ख) ऊंची दर पर लिए गए ऋण की लागत ऋण का बोझ बढ़ाती है।
(ग) भारतीय रिजर्व बैंक केन्द्रीय सरकार की ओर से करेंसी नोट जारी करता है।
(घ) बैंक जमीन पर देने वाले ब्याज से ऋण पर अधिक ब्याज लेते हैं।
(ड) ज़मीन का टुकड़ा सम्पत्ति है जिसका मालिक कर्जदार होता है जिसे वह ऋण लेने के लिए गारंटी के रूप में इस्तेमाल करता है, जब तक ऋण चुकता नहीं हो जाता।
13. सही उत्तर का चयन करें-
(क) स्वयं सहायता समूह में बचत और ऋण संबंधित अधिकतर निर्णय लिए जाते हैं –
• बैंक द्वारा
• सदस्यों द्वारा
• गैर सरकारी संस्था द्वारा
Ans. सदस्यों द्वारा
(ख) ऋण के औपचारिक स्रोतों में शामिल नहीं है –
• बैंक
• सहकारी समिति
• नियोक्ता
Ans. नियोक्ता