संघर्ष के कारण मैं तुनुकमिज़ाज हो गया – धनराज : अध्याय 14

हॉकी के सुप्रसिद्ध खिलाड़ी धनराज पिल्लै जब पैतींस वर्ष के हो गए, उनका एक साक्षात्कार विनीता पाण्डेय ने लिया था। इस साक्षात्कार का संपादित अंश यहाँ दिया जा रहा है।

विनीता – खिड़की, पुणे की तंग गलियों से लेकर मुंबई के हीरानंदानी पवई कॉम्प्लेक्स तक आपका सफ़र बहुत लंबा और कष्टसाध्य रहा है। उस सफ़र के बारे में कुछ बताएँ।

धनराज – बचपन मुश्किलों से भरा रहा। हम बहुत गरीब थे। मेरे दोनों बड़े भाई हॉकी खेलते थे। उन्हीं के चलते मुझे भी उसका शौक हुआ। पर, हॉकी स्टिक खरीदने तक की हैसियत नहीं थी मेरी। इसलिए अपने साथियों की स्टिक उधार माँगकर काम चलाता था। वह मुझे तभी मिलती, जब वे खेल चुके होते थे। इसके लिए बहुत धीरज के साथ अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था। मुझे अपनी पहली स्टिक तब मिली, जब मेरे बड़े भाई को भारतीय कैंप के लिए चुन लिया गया। उसने मुझे अपनी पुरानी स्टिक दे दी। वह नयी तो नहीं थी लेकिन मेरे लिए बहुत कीमती थी, क्योंकि वह मेरी अपनी थी।

मैंने अपनी जूनियर राष्ट्रीय हॉकी सन् 1985 में मणिपुर में खेली। तब मैं सिर्फ 16 साल का था-देखने में दुबला-पतला और छोटे बच्चे जैसा चेहरा…। अपनी दुबली कद-काठी के बावजूद मेरा ऐसा दबदबा था कि कोई मुझसे भिड़ने की कोशिश नहीं करता था। मैं बहुत जुझारू था-मैदान में भी और मैदान से बाहर भी। 1986 में मुझे सीनियर टीम में डाल दिया गया और मैं बोरिया-बिस्तरा बाँधकर मुंबई चला आया। उस साल मैंने और मेरे बड़े भाई रमेश ने मुंबई लीग में बेहतरीन खेल खेला-हमने खूब धूम मचाई। इसी के चलते मेरे अंदर एक उम्मीद जागी कि मुझे ओलंपिक (1988) के लिए नेशनल कैंप से बुलावा जरूर आएगा, पर नहीं आया। मेरा नाम 57 खिलाड़ियों की लिस्ट में भी नहीं था। बड़ी मायूसी हुई। मगर एक साल बाद ही ऑलविन एशिया कप के कैंप के लिए मुझे चुन लिया गया। तब से लेकर आज तक मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

विनीता – आपका विद्यार्थी जीवन कैसा रहा? अपने स्कूल के दिनों से आपकी किस प्रकार की यादें जुड़ी हैं?

धनराज – मैं पढ़ने में एकदम फिसड्डी था। किसी तरह दसवीं तक पहुँचा, मगर उसके आगे तो मामला बहुत कठिन था। एक बात कहूँ अगर मैं हॉकी खिलाड़ी न होता तो शायद एक चपरासी की नौकरी भी मुझे न मिलती। आज मैं बैचलर ऑफ साइंस या आर्ट्स भले ही न होऊँ पर गर्व से कह सकता हूँ कि मैं बैचलर ऑफ़ हॉकी हूँ। (हँसते हुए)… और मेरी शादी के लिए आप मुझे मास्टर ऑफ़ हॉकी कह सकते हैं।

विनीता – आप इतने तुनुकमिजाज क्यों हैं? कभी-कभी आप आक्रामक भी हो जाते हैं!

धनराज – इस बात का संबंध मेरे बचपन से जुड़ा हुआ है। मैं हमेशा से ही अपने आपको बहुत असुरक्षित महसूस करता रहा। मैंने अपनी माँ को देखा है कि उन्हें हमारे पालन-पोषण में कितना संघर्ष करना पड़ा है। मेरी तुनुकमिजाजी के पीछे कई वजहें हैं। लेकिन मैं बिना लाग-लपेट वाला आदमी हूँ। मन में जो आता है, सीधे-सीधे कह डालता हूँ और बाद को कई बार पछताना भी पड़ता है। मुझसे अपना गुस्सा रोका नहीं जाता। दूसरे लोगों को भी मुझे उकसाने में मजा आता है। मुझे जिंदगी में हर छोटी-बड़ी चीज के लिए जूझना पड़ा, जिससे मैं चिड़चिड़ा हो गया हूँ। साथ-ही-साथ मैं बहुत भावुक इनसान भी हूँ। मैं किसी को तकलीफ़ में नहीं देख सकता। मैं अपने दोस्तों और अपने परिवार की बहुत कद्र करता हूँ। मुझे अपनी गलतियों के लिए माफ़ी माँगने में कोई शरम महसूस नहीं होती।

विनीता – आपके परिवार की आपके लिए क्या अहमियत है?

धनराज – सबसे अधिक प्रेरणा मुझे अपनी माँ से मिली। उन्होंने हम सब भाई-बहनों में अच्छे संस्कार डालने की कोशिश की। मैं उनके सबसे नज़दीक हूँ। मैं चाहे भारत में रहूँ या विदेश में, रोज रात में सोने से पहले माँ से जरूर बात करता हूँ। मेरी माँ ने मुझे अपनी प्रसिद्धि को विनम्रता के साथ सँभालने की सीख दी है। मेरी सबसे बड़ी भाभी कविता भी मेरे लिए माँ की तरह हैं और वह भी मेरे लिए प्रेरणा-स्रोत रही हैं।

विनीता – आपने सबसे पहले कृत्रिम घास (एस्ट्रो टर्फ़) पर हॉकी कब खेली?

धनराज – मैंने सबसे पहले कृत्रिम घास तब देखी जब राष्ट्रीय खेलों (नेशनल्स) में भाग लेने 1988 में नयी दिल्ली आया। मुझे याद है कि किस तरह सोमय्या और जोक्विम कार्वाल्हो मुझे एक कोने में ले जाकर कृत्रिम गुर बता रहे थे। और जब वे बताने में लगे हुए थे, घास पर खेलने के गर बता रहे छू रहा था। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि विज्ञान इस कदर तरक्की कर सकता है, जिससे कृत्रिम घास तक उगाई जा सके !

विनीता- हर युवक का यह सपना होता है कि उसके पास एक कार हो। आपके पास अपनी पहली कार कब आई?

धनराज – मेरी पहली कार एक सेकेंड हैंड अरमाडा थी, जो मुझे मेरे पहले के इम्प्लॉयर ने दी थी। तब तक मैं काफ़ी नामी खिलाड़ी बन चुका था। मगर यह कोई जरूरी नहीं कि शोहरत पैसा साथ लेकर आए ! मैं तब भी मुंबई की लोकल ट्रेनों और बसों में सफ़र करता था। क्योंकि टैक्सी में चढ़ने की हैसियत मुझमें नहीं थी। मुझे याद है, एक बार किसी फ़ोटोग्राफ़र ने एक भीड़ से भरे रेलवे स्टेशन पर मेरी तसवीर खींचकर अगली सुबह अखबार में यह खबर छाप दी कि ‘हॉकी का सितारा पिल्लै अभी भी मुंबई की लोकल ट्रेनों में सफर करता है।’ उस दिन मैंने महसूस किया कि मैं एक मशहूर चेहरा बन चुका हूँ और मुझे लोकल ट्रेनों में सफ़र करने से बचना चाहिए। लेकिन मैं कर ही क्या सकता था? मैं जो भी थोड़ा बहुत कमाता, उससे अपना परिवार चलाना पड़ता था। धीरे-धीरे पैसे जमा करके बहन की शादी की और अपनी माँ के लिए हर महीने पुणे पैसा भेजना शुरू किया। आज मेरे पास एक फ़ोर्ड आइकॉन है, जिसे मैंने सन् 2000 में खरीदा था। मगर वह किसी कॉरपोरेट हाउस का दिया हुआ तोहफ़ा नहीं, बल्कि मेरी मेहनत की गाढ़ी कमाई से खरीदी हुई कार है।

विनीता – सफलता का आपके लिए क्या महत्त्व है? हॉकी को आपने इतना कुछ दिया, इसके बदले आपको क्या मिला?

धनराज – कुछ रुपये ईनाम में मिले थे, मगर आज खिलाड़ियों को जितना मिलता है, उसके मुकाबले में पहले कुछ नहीं मिलता था। मेरी पहली जिम्मेदारी थी परिवार में आर्थिक तंगी को दूर करना और उन सबको एक बेहतर जिंदगी देना। विदेश में जाकर खेलने से जो कमाई हुई, उससे मैंने 1994 में पुणे के भाऊ पाटिल रोड पर दो बेडरूम का एक छोटा सा फ़्लैट खरीदा। घर छोटा जरूर है पर हम सबके लिए काफी है। 1999 में महाराष्ट्र सरकार ने मुझे पवई में एक फ्लैट दिया। वह ऐसा घर है जिसे खरीदने की मेरी खुद की हैसियत कभी नहीं हो पाती।

विनीता – सेलेब्रिटीज़ के साथ एक ही मंच पर बैठना कैसा लगता है?

धनराज – बहुत अच्छा! जब हम राष्ट्रपति से मिले तब यह महसूस हुआ कि हम कितने खास हैं। हॉकी ही है जिसके चलते हर जगह प्रतिष्ठा मिली।

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प्रश्न – अभ्यास

साक्षात्कार से

1. साक्षात्कार पढ़कर आपके मन में धनराज पिल्लै की कैसी छवि उभरती है? वर्णन कीजिए।
Ans.
जैसे कि साक्षात्कार में उल्लेख किया गया है, धनराज पिल्लै दुबली कद काठी के हैं। वे बहुत जुझारू स्वभाव के हैं व अपने आपको बहुत असुरक्षित महसूस करते हैं। बचपन का समय संघर्षपूर्ण होने के कारण वे तुनुकमिज़ाजी हैं। इन्हें गुस्सा अधिक आता है। वे अपने घर परिवार की बहुत इज्जत करते हैं। पहले वे अपनी पढ़ाई-लिखाई को लेकर खुद को हीन समझते थे, लेकिन बाद में हॉकी से मिली प्रसिद्धि के बाद उन्हें खुद पर गर्व है।

2. धनराज पिल्लै ने जमीन से उठकर आसमान का सितारा बनने तक की यात्रा तय की है। लगभग सौ शब्दों में इस सफ़र का वर्णन कीजिए।
Ans.
पिल्ले ने ज़मीन से उठकर आसमान का सितारा बनने तक का सफर तय किया है। उनके पास अपने लिए एक हॉकी स्टिक तक खरीदने के पैसे नहीं थे। शुरुआत में मित्रों से उधार लेकर और बाद में अपने बड़े भाई की पुरानी स्टिक से उन्होंने काम चलाया लेकिन आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई। अंत में मात्र 16 साल की उम्र में उन्हें मणिपुर में 1985 में जूनियर राष्ट्रीय हॉकी खेलने का मोका मिला। इसके बाद इन्हें सन् 1986 में सीनियर टीम में स्थान मिला। उस वर्ष अपने बड़े भाई के साथ मिलकर उन्होंने मुंबई लीग में अपने बेहतरीन खेल से खूब धूम मचाई। अंततः 1989 में उन्हें ऑलविन एशिया कप केप के लिए चुना गया। उसके बाद वे लगातार सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ते रहे और उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

3. ‘मेरी माँ ने मुझे अपनी प्रसिद्धि को विनम्रता से सँभालने की सीख दी है’- धनराज पिल्लै की इस बात का क्या अर्थ है?
Ans.
धनराज पिल्लै का यह कहना ‘मेरी माँ ने मुझे अपनी प्रसिद्धि को विनम्रता से संभालने की सीख दी है। का तात्पर्य है कि मनुष्य चाहे कितनी भी सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ जाए उसे कभी घमंड नहीं करना चाहिए और किसी को अपने से छोटा नहीं समझना चाहिए। माँ की इसी सीख को उन्होंने जीवन में अपनाया है।

• साक्षात्कार से आगे

1. ध्यानचंद को हॉकी का जादूगर कहा जाता है। क्यों? पता लगाइए।
Ans.
ध्यानचंद को हॉकी का जादूगर कहा जाता है क्योंकि जैसे जादूगर अपने दावपंचों से हमारी ही आँखों के सामने न जाने क्या-क्या करतब कर दिखाता है और हम दाँतों तले उंगली दबा लेते हैं वैसे ही ध्यानचंद भी हॉकी खेलने में माहिर हैं। कोई भी ऐसा दावपेंच नहीं जो उन्हें न आता हो। कोई भी हॉकी में उन्हें मात नहीं दे सकता।

2. किन विशेषताओं के कारण हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल माना जाता है?
Ans.
हॉकी का खेल काफी पहले जमाने से भारत में खेला जाता रहा है। इसे राजा-महाराजाओं से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों के लोग भी बड़े चाव से खेला करते थे। आज भी इस खेल के प्रति रुचि देश एवं विदेशों में बना हुआ है। इस खेल को खेलने में अधिक पैसों की जरूरत नहीं पड़ती है। पुराने जमाने के लोग पेड़ों की टहनियों से इस खेल को खेला करते थे। यह खेल वर्षों से लगातार आगे ही बढ़ता जा रहा है। यह सीमित संसाधन में खेला जाने वाला खेल है। इसलिए इसे भारत का राष्ट्रीय खेल माना जाता है।

3. आप समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं में छपे हुए साक्षात्कार पढ़ें और अपनी रुचि से किसी व्यक्ति को चुनें, उसके बारे में जानकारी प्राप्त कर कुछ प्रश्न तैयार करें और साक्षात्कार लें।
Ans.
विद्यार्थी इसे स्वयं करेंगे।

अनुमान और कल्पना

1. ‘यह कोई ज़रूरी नहीं कि शोहरत पैसा भी साथ लेकर आए’-क्या आप धनराज पिल्लै की इस बात से सहमत हैं? अपने अनुभव और बड़ों से बातचीत के आधार पर लिखिए।
Ans
. हम धनराज पिल्ले के इस बात से सहमत हैं कि कोई जरूरी नहीं कि शोहरत पैसा भी साथ लेकर आए। उनका यह कथन बिलकुल सच है क्योंकि धनराज को स्वयं जितनी शोहरत मिली उतना पैसा प्राप्त नहीं हुआ। वे काफ़ी समय तक आम लोगों की भाँति लोकल ट्रेनों में सफर करते रहे, जिसे देखकर लोग हैरान होते थे। हमारे देश में कई ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें प्रसिद्ध व्यक्तियों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा है। मसलन प्रेमचंद, मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का उदाहरण ले सकते हैं। इन जैसे महान व्यक्तियों का जीवन आर्थिक तंगी के बीच व्यतीत हुआ है।

2. (क) अपनी गलतियों के लिए माफ़ी माँगना आसान होता है या मुश्किल ?

(ख) क्या आप और आपके आसपास के लोग अपनी गलतियों के लिए माफी माँग लेते हैं?

(ग) माफ़ी माँगना मुश्किल होता है या माफ़ करना? अपने अनुभव के आधार पर लिखिए।

Ans. (क) अपनी गलतियों के लिए माफ़ी माँगना कठिन होता है, क्योंकि हमें दूसरे के सामने अपने स्वाभिमान को झुकाना पड़ता है। माफ़ी माँगने का अर्थ है किसी के सामने झुकना अपने को छोटा बनाना।

(ख) नहीं, कई बार लोग गलती मानने को तैयार नहीं होते वे गलतियों करते है. साथ ही साथ अकड़ भी दिखाते हैं।

(ग) माफ़ी माँगना आसान है, जबकि माफ करना उससे ज्यादा कठिन है। माफ़ी माँगना इसलिए आसान है क्योंकि माफ़ माँगने के लिए एक बार झुककर अपने स्वाभिमान को झुकाना पड़ता है जबकि कभी-कभी माफ़ करना ज्यादा कठिन होता है क्योंकि जब कोई अपराध बड़ा होता है तो उस परिस्थिति में माफ़ कर पाना माफी मांगने से ज्यादा कठिन होता है। कभी-कभी माफ़ करने वाला कई बार बिना माफ़ी माँगे ही माफ़ कर देता है।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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