पाचन-तंत्र के रोग

पाचन-तंत्र से सम्बन्धित बहुत से रोग होते हैं। यहाँ पर प्रतियोगी परीक्षाओं की दृष्टि से परीक्षोपयोगी रोगों का सारगर्भित उल्लेख किया गया है। यथा-

➤ एपेण्डीसाइटिस

बड़ी आंत में पायी जाने वाली रचना वर्मीफार्म एपेण्डिक्स एक अवशेषी अंग है।* लेकिन कभी-कभी यह अपने आकार में बढ़ जाती है, जिससे मनुष्य के पेट के निचले हिस्से में दर्द होने लगता है। इसी बीमारी को एपेण्डिसाइटिस कहते हैं। एपेण्डिसाइटिस हो जाने पर संबंधित व्यक्ति का आपरेशन करके वर्मीफार्म एपेण्डिक्स को काटकर अलग कर दिया जाता है। चूंकि यह एक अवशेषी अंग है अतः इसके शरीर से अलग हो जाने पर मनुष्य के शरीर या उसके पाचन तंत्र पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

➤ पीलिया (Jaundice)

पित्तवर्णक बिलिरूबीन का निर्माण, मृत RBCs के हीमोग्लोबिन से यकृत कोशिकाओं द्वारा किया जाता है। यह रक्त की जगह पित्तरस में मिलता है। पित्तरस के साथ यह आंत्र में जाता है और मल के साथ शरीर से बाहर निकल जाता है। कभी-कभी यकृत कोशिकाओं में एक विषाणु का संक्रमण होने से जब रक्त में इस वर्णक की मात्रा बढ़ जाती है तो शरीर की त्वचा, नाखून, आँखों की झिल्ली इत्यादि का रंग पीला दिखाई देने लगता है। इसे ही पीलिया रोग कहते हैं।

➤ मधुमेह (Diabetes)

इन्सुलिन के अल्प स्रावण से मधुमेह या डाइबिटीज नामक रोग हो जाता है। जब रूधिर में उपस्थित ग्लूकोज शरीर की कोशिकाओं के उपयोग में नहीं आ पाता तब रूधिर में ग्लूकोज की मात्रा बढ़ने लगती है; इसी से मधुमेह या डाइबिटीज रोग होता है। मधुमेह की अत्यंत प्रभावी औषधि का निर्माण कदंब के पेड़ के तत्वों से की गई हैं। इस दवा का निर्माण कदंब पेड़ के तने से प्राप्त होने वाले डाईहाइड्रोसिंकोनिन और केडंबाइन की सहायता से किया गया है तथा इसका विकास जयपुर के वैज्ञानिक सुरेश शर्मा ने किया है। मधुमेह के इलाज के लिए अब तक काम में ली जा रही दवाएं इसके कारणों को और बढ़ाने में सहयोग करते हैं। जबकि इस नई दवा से इन कारणों से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी। ज्ञातव्य है कि भारत में 6% लोग मधुमेह से ग्रसित हैं। इसलिए भारत को मधुमेह की राजधानी भी कहा जाता है। विस्तृत अध्ययन के लिए देखें- असंक्रामक रोग अध्याय।

• कनपेड़ (Mumps) नामक वाइरस जनित रोग में लार की पैरोडिट ग्रंथि में सूजन आ जाता है।

➤ हाइपोग्लाइसीमिया (Hypoglycemia)

इन्सुलिन के अतिस्त्रावण के फलस्वरूप रूधिर में ग्लूकोज की मात्रा कम होने लगती है। जिससे ‘हाइपोग्लाइसीमिया’ नामक रोग हो जाता है। इसरोगमें तंत्रिका तंत्र एवं रेटिना कोशिकाओं को ऊर्जा कम मात्रा में मिल पाती है। इस रोग से जनन क्षमता तथा दृष्टि-ज्ञान कम होने लगता है। व्यक्ति को अधिक थकावट तथा ऐठन मालूम होती है। उपवास या शारीरिक परिश्रम के समय कभी-कभी बेहोशी आ जाती है; इसे ही ‘इन्सुलिन आघात’ (Insulin Shock) कहते हैं।

➤ कब्ज (Constipation)

बड़ी आँत में काइम के पीछे खिसकने की दर कम हो जाने से इसमें सूखे व कड़े मल का संचय हो जाता है। इसी को कब्ज कहते हैं। यह प्रायः समय से मलत्याग न करने की बुरी आदत के कारण होता है।

➤ दस्त (Diarrhoea)

कब्ज के विपरीत, यह बड़ी आँत में काइम के जल्दी पीछे खिसक जाने से होता है। यह आँत में वाइरस तथा जीवाणुओं द्वारा संक्रमण या चिन्ता के कारण भी हो जाता है।

➤ जठर शोध (Gastritis)

इस दशा में जठर की श्लेष्मा में सूजन आ जाता है। तीव्र जठरशोध प्रायःक्षोभ के कारण होता है। जैसे-भोजन विषाक्तता, – अत्यधिक मात्रा में मद्यपान, एस्पिरिन आदि कुछ औषधियों का खाली पेट सेवन आदि। संक्रमण की स्थिति में भी यह पाया जा सकता है। इसके कारण अधिजठर प्रदेश में जलन, खट्टी डकारें आना, मचली, यदा-कदा रोगी को रक्त-वमन हो सकता है।

➤ पैप्टिक अल्सर (Peptic Ulcer)

पैप्टिक अल्सर (घाव) पाचन तंत्र का आम रोग है। यह आमाशय तथा डुओडिनम के उन भागों में पाया जाता है जो जठर रस (HCI) की क्रिया के प्रति अनावृत रहते हैं। इसका कारण अनियमित भोजन, परेशानी, चिंता तथा मानसिक आवेश आदि हो सकते हैं। फलतः भोजन के लगभग बीस मिनट बाद दर्द शुरू होता है तथा प्रायः अम्लरोधी औषधियों से अथवा वमन द्वारा कम होता है।

➤ लीवर सिरोसिस

लीवर सिरोसिस लीवर से संबंधित एक बीमारी है, जिसमें मनुष्य की त्वचा एवं मांसपेशियां कड़ी होने लगती है। मनुष्य में यह बीमारी ज्यादा शराब पीने एवं हेपेटाइटिस-बी या सी के वायरस की चपेट में आने से होता है। फिलहाल इससे निजात पाने का एक मात्र उपाय लीवर ट्रांसप्लांट है। लेकिन हाल ही में जापान के वैज्ञानिकों को लीवर सिरोसिस से छुटकारा पाने में अहम कामयाबी हासिल हुई है। लीवर कोशिकाओं के जरिए पैदा होने वाले कॉलजन मैंटीरियल के अति उत्पादन के चलते ही लीवर सिरोसिस की शुरुआत होती हैं जापानी वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान के दौरान एक कृत्रिम अणु एजेंट ‘ए’ तैयार किया जो लीवर कोशिकाओं द्वारा पैदा होने वाले कॉलजन तत्वों के उत्पादन को रोक देता है। एजेंट अणु ‘ए’ तारों के गुच्छों के आकार की लीवर कोशिकाओं से कॉलजन तत्वों के उत्पादन को रोकने में काफी कारगर साबित हुआ है। कॉलजन को अब्जार्ब विटामिन भी कहते हैं।

➤ बावासीर (Ühemeces)

गुदाद्वार के अन्दर चारों ओर की शिराओं के श्लैष्मिकला के नीचे जब उग्रदाह हो जाता है तो उसे पाइल्स की संज्ञा दी जाती है। परिणामस्वरूप वहाँ छोटे-छोटे ट्यूमर्स की तरह प्रतीति होने लगती है। इस अवस्था में मलाशय की शिराएँ (अन्दर और बाहर की) फूल जाती हैं और वह टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती है। यह अत्यधिक विश्राम, चिरकारी कब्ज, अति मद्यपान, मूत्राशय में पथरी बनने के कारण, यकृत में विकृति उत्पन्न होने के कारण तथा रेक्टल शोध आदि के कारण होता है। इसके लिए रोगी को कब्ज से बचना चाहिए। रक्तार्थ (Bleeding piles) में डेफ्लोन जैसी औषधियों का प्रयोग करना चाहिए।

• पेचिश, हिपेटाइटिस, गलसुआ (Mumps), हैजा तथा टायफॉइड जैसे पाचन तंत्र प्रभावित रोगों का वर्णन संक्रामक रोग के अध्याय में किया गया है।

मानव कंकाल, पेशी एवं व्याधियाँ (Human Skeleton, Muscles & Diseases)

इसमें आपको मानव कंकाल, पेशी एवं व्याधियाँ के बारे में बताया जाएगा। तो आइए हम विस्तार से सबके बारे में जानते हैं-

मानव-कंकाल (Human Skeleton)

मानव (तथा अन्य कशेरुकी जन्तुओं) में पूरे शरीर को साधने तथा उसकी आकृति को बनाये रखने के लिए, शरीर के भीतर अस्थियों का जो ढांचा होता है उसे कंकाल (Skeleton) कहते हैं। मानव का कंकालीय ढांचा एक विशेष प्रकार के संयोजी ऊतक का बना होता है जिसे कंकाल ऊतक (Skeletal tissue) कहते हैं। यह कंकाल ऊतक दो प्रकार का होता है उपास्थि (Cartilage) एवं अस्थि (Bone)।

कार्टिलेज अन्य संयोजी ऊतक के समान भ्रूण की मीजोडर्म से उत्पन्न होती हैं। इसका मैट्रिक्स कॉण्ड्रिन होता है, जो कण्ड्रोम्यूको- प्रोटीन का बना होता है। इसमें श्वेत कोलैजन व पीले इलास्टिक तन्तुओं का जाल सा फैला होता है जो कार्टिलेज को दृढ़ता व लोच प्रदान करते हैं।

अस्थियों का 38% भाग ओसीन (Ossein) नामक प्रोटीन से तथा 62% भाग अकार्बनिक लवणों (मुख्यतः कैल्शियम फॉस्फेट तथा मैग्नीशियम फॉस्फेट) का बना होता है, जिसके कारण अस्थियाँ ठोस तथा कठोर होती हैं।

अस्थियों के निर्माण में दो प्रकार की कोशिकाओं का योग रहता है ओस्टियोब्लास्ट तथा ओस्टियोक्लास्ट । ओस्टियोब्लास्ट से अस्थि का निर्माण होता है तथा ओस्टियोक्लास्ट कोशिकायें अस्थि का विनाश करती हैं। इस प्रकार यह सम्भव होता है कि अस्थि का ठोस भाग भी बन सके तथा उसमें अवकाश गुहाएं और नलिकाएं भी प्रकट हो सकें।

अस्थि का विकास दो प्रकार से होता है कार्टिलेज में अथवा संयोजी ऊतक तन्तुओं से बनी एक झिल्ली में। कार्टिलेज अस्थि में (जैसे-दीर्घ अस्थियाँ) रक्त वाहिकाएं नहीं होती जबकि संयोजी ऊतक की तन्तु से बनी कला अस्थियों (membrane bones) जैसे चपटी अस्थियों; में रक्त वाहिकायें भली प्रकार सम्भरित रहती हैं।

दीर्घ अस्थियों में मज्जागुहा (medullary cavity) पायी जाती है, जिसमें अस्थिमज्जा (Bone Marrow) होती है। अस्थि मज्जा दो प्रकार की होती है- लाल और पीली अस्थि मज्जा। लाल अस्थि मज्जा में रक्त की लाल और श्वेत दोनों कोशिकाएँ बनती हैं तथापि लाल रक्त कोशिकाओं का बाहुल्य होता है। पीत-अस्थिमज्जा में वसा, रक्त वाहिकाएँ तथा जालीय ऊतक होता है।

अस्थि, शरीर के सभी संयोजी ऊतकों में सबसे अधिक कड़ी होती है। इसमें 50% जल तथा 50% ठोस पदार्थ होता है।

➤ कंकाल-तंत्र (Skeleton System)

• मनुष्य के अस्थियों द्वारा निर्मित अंतः कंकाल तंत्र में कुल 206 अस्थियाँ होती हैं जबकि शिशु अवस्था में 300 अस्थियाँ पायी जाती हैं।

• समस्त अस्थियों में सबसे छोटी अस्थि स्टेपीज (कान में) तथा सबसे बड़ी अस्थि फीमर (जाँघ में) है।

• इन अस्थियों को आपस में जोड़ने का कार्य लिगामेन्ट (Ligament) द्वारा सम्पन्न होता है।

मानव-कंकाल को दो प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है-

(i) अक्ष-कंकाल (Axial Skeleton)

(ii) उपांग कंकाल

(i) अक्ष-कंकाल (Axial Skeleton)

इसके चार भाग होते हैं

1. खोपड़ी (Skull) – यह गर्दन के ऊपर स्थित सिर (Head) का कंकाल है। इसका ऊपरी भाग दृढ़तापूर्वक स्थायी रूप से जुड़ी हुई आठ अस्थियों का बना हुआ एक बॉक्स होता है जिसे कपाल (Cranium) कहते हैं। मानव का मस्तिष्क इसी के भीतर सुरक्षित रहता है। खोपड़ी के शेष भाग में ऊपरी एवं नीचे के जबड़े (Jaws) तथा कण्ठिका अस्थि (Hyoid bone) सहित 15 अस्थियाँ होती हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक कान के भीतरी भाग में कान के परदे के पीछे एक के बाद एक तीन बहुत छोटी अस्थियाँ होती हैं जो कान के परदे के कम्पन्नों को भीतरी-कान (Inner ear) तक ले जाती हैं।

• इस प्रकार खोपड़ी में कुल (8+14+1+6=29) अस्थियाँ होती हैं जिसका विवेचन अधोलिखित है। यथा-

2. मेरुदण्ड (Vertebral Column)- मेरुदण्ड को रीढ़ (Backbone) भी कहते हैं। यह ऊपर गर्दन से लेकर नीचे पुच्छ-अस्थि (Tail bone) तक फैला हुआ 33 अस्थियों का स्तम्भ होता है जिसकी प्रत्येक अस्थि को कशेरुका (Vertebra) कहते हैं। इसे पाँच भागों में बाँटा जा सकता है-

1. गर्दन (Cervical)7 कशेरुक
2. वक्ष (Thoracic)12 कशेरुक
3. कटि (Lumber)5 कशेरुक
4. त्रिक् (Sacral)5 कशेरुक
5. अनुत्रिकास्थि (Coccyx)4 कशेरुक
योग 33

वयस्क मानव में कूल्हे (सैक्रल एवं कॉसिक्स) के 5 तथा 4 कशेरुका परस्पर पूर्णतः जुड़कर दो अस्थियाँ, त्रिकास्थि (Sacrum) तथा अनुत्रिकास्थि (coccyx) – बनाती हैं। इस प्रकार वयस्क मानव के मेरुदण्ड में कुल 26 अस्थियाँ होती हैं।

(3) पसलियाँ (Ribs) इसकी कुल संख्या 12 जोड़ी अर्थात् 24 होती हैं। प्रत्येक पसली वक्ष के सामने की ओर उरोस्थि (Sternum) से तथा पीछे की ओर किसी एक वक्ष कशेरुका (thoracic vertebra) से जुड़ी होती है। ये सभी पसलियाँ मिलकर लगभग बेलनाकार एवं पिंजड़ा (cage) बनाती हैं, जिसमें फेफड़े तथा हृदय स्थित होते हैं।

ऊपर की ओर से प्रथम 7 जोड़ों की 14 पसलियाँ सामने की ओर सीधे उरोस्थि से जुड़ती हैं, इन्हें मुख्य अथवा यथार्थ पसलियाँ (True ribs) कहते हैं। इसके बाद 8वें, 9 वें तथा 10वें जोड़े की पसलियों के सामने के सिरे क्रमशः अपने ऊपर की पसली से जुड़े होते हैं। इन्हें गौण पसलियाँ (false ribs) कहते हैं। अन्तिम 11वें तथा 12वें जोड़े की पसलियां केवल पीठ तक सीमित रहती हैं—अर्थात् ये सामने उरोस्थि से नहीं जुड़ती। इन्हें चाल्य पसलियां (floating ribs) कहते हैं।

(4) उरोस्थि (Sternum or Breast-bone)- यह लम्बी एवं चपटी अस्थि, वक्ष के बीच में गर्दन के नीचे से पेट के ऊपर तक स्थित होती है। पसलियों के सामने के सिरे इसी की लम्बाई के अनुदिश दोनों ओर से जुड़े होते हैं।

• इस प्रकार अक्ष-कंकाल में कुल (29+26+24+1=80) अस्थियाँ होती हैं।

(ii) उपांग-कंकाल (Appendicular Skeleton)

इसके दो भाग होते हैं-

(1) पादों की अस्थियाँ (Bones of the limbs): मानव कंकाल में दो अग्रपाद (forelimbs) सामान्य भाषा में हाथ तथा दो पश्चपाद (hind limbs) अर्थात् पैर होते हैं। दोनों अग्रपादों की अस्थियाँ परस्पर एक समान एवं दोनों पश्चपादों की अस्थियाँ परस्पर एक समान होती हैं। अग्रपादों एवं पश्चपादों की अधिकांश अस्थियाँ भी एक-समान होती हैं।

प्रत्येक अग्रपाद के ऊपरी-भाग (Upper arm) में एक लम्बी अस्थि ह्यूमरस (Humerus), तथा नीचे के भाग (Lower arm) में दो लम्बी अस्थियाँ, रेडिअस (Radius) तथा अलना (Ulna) होती हैं।

हाथ तथा पंजे के बीच प्रत्येक कलाई (Wrist) में छोटी-छोटी 8 अस्थियाँ होती हैं, जिन्हें कारपल्स (Carpals) कहते हैं।

इसके आगे प्रत्येक पंजे में पांच लम्बी अस्थियाँ, मेटाकार्पल्स (Metacarpals) होती हैं।

पंजे के बाद चार उंगलियों में प्रत्येक में से तीन-तीन अंगुलास्थियाँ (Phalanges) तथा अंगूठे में दो अंगुलास्थियाँ होती हैं।

इस प्रकार दोनों अग्रपादों में कुल 60 अस्थियाँ होती हैं।

इसी प्रकार प्रत्येक पश्चपाद (legs) के ऊपरी भाग (जाँघ) में एक लम्बी अस्थि, फीमर (Femur), निचले भाग (पैर) में दो लम्बी अस्थियाँ, टिबिया (Tibia) तथा फिबुला (Fibula) पायी जाती हैं।

इसके नीचे प्रत्येक टखने में 7 अस्थियाँ, टार्सल्स (Tarsals) तथा प्रत्येक पंजे में 5 मेटाटार्सल्स (Metatarsals) होती हैं। प्रत्येक पैर की चार उंगलियों में तीन-तीन अंगुलास्थियाँ (Phalanges) तथा प्रत्येक अंगूठे में दो अंगुलास्थियाँ (Phalanges) होती हैं।

इनके अतिरिक्त प्रत्येक पश्चपाद में घुटने पर एक टोपीनुमा अस्थि होती है, जिसे पैटेला (Patella) कहते हैं।

इस प्रकार दोनों पश्चपादों में कुल 60 अस्थियाँ होती हैं।

2. मेखलाओं (Girdles) की अस्थियाँ: मेखलाएँ कंकाल का वह भाग हैं, जो पादों की अस्थियों को अक्ष-कंकाल से जोड़ती हैं। बाहों को कन्धे पर जोड़ने वाले भाग को अंशमेखला (Pectoral girdle) तथा टाँगों को कूल्हे पर जोड़ने वाले भाग को श्रोणिमेखला (Pelvic girdle) कहते हैं।

अंशमेखला में एक लम्बी अस्थि हंसुली (Clavicle) तथा पीछे पीठ की ओर एक तिकोनी चपटी अस्थि स्कन्धास्थि (Scapula)अर्थात् दोनों बाहों के लिए कुल 4 अस्थियाँ होती हैं।

• श्रोणिमेखला, दाहिनी ओर एवं बायीं ओर की एक-एक अस्थि को मिलाकर बनती है, जिन्हें नितम्ब अस्थियाँ (Hip Bones) कहते हैं।

• इस प्रकार दोनों मेखलाओं में कुल 6 अस्थियाँ होती हैं। उपांग कंकाल में 60+60+6 = 126 अस्थियाँ होती हैं।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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