अन्तः स्त्रावी तंत्र एवं व्याधियाँ

अन्तः स्त्रावी तन्त्र तथा इसकी कार्य-प्रणाली के अध्ययन को अन्तःस्रावी विज्ञान या ऐण्डोक्राइनोलोजी कहते हैं। तन्त्रिका तन्त्र से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इसीलिए, अब एक नयी शाखा, न्यूरोऐण्डोक्राइनोलॉजी (neuroendocrinology) का तीव्र विकास हो रहा है।

मनुष्य तथा अन्य कशेरूकियों में तीन प्रकार की ग्रंथियाँ होती हैं- यथा-

(1) बहिःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Exocrine glands) – इनके द्वारा स्स्रावित पदार्थ इनकी वाहिकाओं में बहकर सम्बन्धित अंग विशेष में ही जाते हैं, इसीलिए, इन्हें वाहिनीयुक्त ग्रंथियाँ (duct glands) भी कहते हैं। यकृत (liver), स्तनियों की स्वेद ग्रन्थियाँ, तैल या सिबेशियस ग्रन्थियाँ, लार ग्रान्थियाँ आदि इनके उदाहरण हैं।

(2) अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine glands) – इनमें ग्रंथि स्राव को लक्ष्य स्थान तक ले जाने के लिए नलिकायें नहीं होती, अतः इन्हें नलिका विहीन ग्रंन्थियाँ कहते हैं। इनसे स्त्रावित पदार्थ, ऊतक द्रव्य के माध्यम से, सीधे रक्त में मुक्त होकर सारे शरीर में फैलते हैं। इन पदार्थो को हार्मोन्स (hormones) कहते हैं। ऐसी ग्रन्थियों में रुधिरवाहिनियाँ अपेक्षाकृत अधिक होती हैं।

(3) मिश्रित ग्रन्थियाँ (Mixed glands) – ये वाहिकायुक्त होती हैं, लेकिन इनमें बहिः एवं अन्तःस्त्रावी दोनों ही प्रकार के भाग या कोशाएँ होती हैं। किन्तु बहिःस्रावी भाग प्रमुख होता है। अग्नाशय (pancreas) एक ऐसी ही ग्रन्थि होती है।

• हार्मोन भोजन में नहीं होते। ये शरीर में ही अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियों या कुछ अन्य अंगों की अन्तःस्रावी कोशाओं द्वारा स्रावित होते हैं। रासायनिक स्तर पर हार्मोन्स मुख्यतः स्टीरॉएड्स या प्रोटीन्स या प्रोटीन्स से व्युत्पन्न पदार्थ होते हैं। स्टीरॉएड हार्मोन्स का आधार पदार्थ कोलेस्ट्रॉल होता है। कुछ हार्मोन्स टाइरोसीन नामक अमीनों अम्ल के व्युत्पन्न पदार्थ (derivatives) होते हैं।

• रुधिर प्रत्येक हार्मोन का पूरे शरीर में संवहन करता है। संवहन के समय हार्मोन अणु, प्लाज्मा-प्रोटीन्स से बँधे होने के कारण, निष्क्रिय अवस्था में रहते हैं, परन्तु रुधिर से ऊतक द्रव्य में जाने वाले अणु सक्रिय होते हैं। कोशाएँ इन्हें ऊतक द्रव्य से ही ग्रहण करती है।

• कुछ हार्मोन्स का शरीर की सारी, लेकिन अधिकांश का शरीर की कुछ सुनिश्चित कोशाओं पर ही अपना पृथक सुनिश्चित प्रभाव होता है। इन कोशाओं को सम्बन्धित हार्मोन्स की लक्ष्य कोशाएँ (target cells) कहते हैं,

• हार्मोनी नियन्त्रण में जहाँ एक ओर कोई हार्मोन अपनी लक्ष्य कोशाओं की कार्यिकी का नियन्त्रण करता है, वहाँ दूसरी ओर लक्ष्य कोशाएँ हार्मोन की स्रावण दर का नियन्त्रण करती हैं। इस प्रकार, नियन्त्रक और नियन्त्रित में पारस्परिक प्रभाव काम करता है। इसी प्रक्रिया को “खींच-तान (Pull and Push)” या पुनर्निवेशन प्रक्रिया (feedback mechanism) कहा जाता है।

हार्मोन्स शरीर की कोशाओं के उपापचय का नियंत्रण करके शरीर की कार्यात्मक क्षमता (functional tempo) बनाये रखते हैं। इस प्रकार, ये वृद्धि एवं विकास, सुरक्षा एवं आचरण, लौगिक लक्षणों एवं जनन आदि का नियन्त्रण करने के अतिरिक्त, बाहरी वातावरण की बदलती हुई दशाओं में शरीर के अन्तःवातावरण को अखण्ड बनाये रखने अर्थात् होमिओस्टैसिस (homeostasis) का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। शरीर कोशाएँ अपना-अपना सामान्य कार्य तभी कर सकती हैं जब अन्तःवातावरण अखण्ड बना रहें, और शरीर का “एक जीव” के रूप में अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब विभिन्न भागों की कोशाओं की क्रियाओं में तालमेल अर्थात् सामंजस्य बना रहे। अतः स्पष्ट है कि जिस प्रकार जीवाणुओं आदि के संक्रमण से संक्रमक तथा विटामिनों की कमी से अपूर्णता (deficiency) रोग होते हैं, हार्मोन्स की गड़बड़ियों से कार्यात्मक रोग (functional diseases) हो जाते हैं। ये गड़बड़ियाँ दो प्रकार की हो सकती हैं- हार्मोन्स का आवश्यक मात्रा से कम स्त्रावण (hyposecretion) या अधिक स्रावण (hypersecretion).

मानव की अन्तः स्त्रावी ग्रंथियाँ

(क) पूर्णतः अन्तःस्त्रावी ग्रंथियाँ

(1) पीयूष ग्रन्थि (Pituitary gland)
(2) थाइरॉइड ग्रन्थि (Thyroid gland)
(3) अधिवृक्क अर्थात् ऐड्रीनल ग्रन्थियाँ
(4) पैराथाइरॉइड ग्रन्थियाँ
( 5) थाइमस ग्रन्थि (Thymus gland)
( 6) पीनियल बॉडी (Pineal body)

(ख) मिश्रित ग्रन्थि –

(1) अग्नाशय (Pancreas)

(ग) अन्य संरचनाएँ-

(1) आमाशय-आंत्रीय श्लेष्मिका
(2) जनद (Gonads) एवं
(3) अपरा (Placenta)।

पीयूष ग्रंथि (Pituitary Gland)

यह कपाल की स्फेनाइड (Sphenoid) हड्डी में एक गड्ढे में स्थित होती है। इसको सेल टर्सिका (cell turcica) कहते हैं। इसका भार लगभग 0.6gm होता है। इसे मास्टर ग्रंथि के रूप में भी जाना जाता है। मनुष्य में यह मक्का के दाने के बराबर, स्त्रियों में कुछ बड़ी और गर्भावस्था में काफी बड़ी होती है। इस ग्रंथि में मुख्यतः दो पालि (Lobes) पाये जाते हैं।

पिट्यूटरी ग्रंथि से स्त्रावित हार्मोन

पश्चपालि (Posterior Lobe) अथवा न्यूरो हाइपोफाइसिस

• वेसोप्रेसिन
• ऑक्सीटोसिन

अग्रपालि (Anterior lobe) अथवा एडीनोहाइपोफाइसिस

• STH-सोमेटोट्रॉफिक हार्मोन
• GTH-गोनेडोट्राफिक हार्मोन
• ACTH-एड्रिनोकार्टिकोट्राफिक हार्मोन
• TSH-थाइरॉइड प्रेरक हार्मोन
• LTH-लूटियोट्रोफिक हार्मोन
• डायबैटोजेनिक हार्मोन
• MSH-मिलैनोसाइड प्रेरक हार्मोन

मध्यपालि (Intermediate Lobe)

• पश्च पालि (Posterior Lobe)- पश्च पालि से दो हार्मोन उत्पन्न होते हैं-

(i) वेसोप्रोसिन तथा (ii) ऑक्सीटोसिन ।

(I) वेसोप्रोसिन अथवा एंटिडाइयूरेटिक हार्मोन – ADH अथवा पिट्रेसिन ADH वृक्क की वाहिनियों एवं कोशिकाओं में जल के अवशोषण को नियन्त्रित करता है और जल-अवशोषण को बढ़ाकर मूत्र के आयतन को कम करता है। इसी कारण इसे मूत्ररोधी या एंटीडाइयूरेटिक कहते हैं। इसकी कमी होने पर मूत्र के साथ पानी की अधिक मात्रा निकलने लगती है जिससे मूत्र पतला व रुधिर गाढ़ा हो जाता है। इससे रुधिर दाब कम हो जाता है। इस रोग को मूत्रलता या डाइयूरेसिस (diuresis) कहते हैं इसे उहकमेह (diabetes insipidus) रोग भी कहते हैं। जिससे बार-बार पेशाब आता है और शरीर से अत्यधिक पानी निकल जाता है। इसकी अधिकता होने पर मूत्र गाढ़ा व रुधिर पतला हो जाता है तथा रुधिर दाब बढ़ जाता है।

(II) आक्सीटोसिन (Oxytocin) या पिटोसिन (Pitocin) – यह गर्भावस्था के अन्तिम काल में गर्भाशय की दीवार की अनैच्छिक पेशियों के संकुचन को प्रेरित करता है अर्थात प्रसव के समय गर्भाशय के फैलने तथा प्रसव के पश्चात गर्भाशय के सिकुड़ने को प्रेरित करता है। यह स्तनधारियों में दुग्ध-स्त्राव को उत्तेजित करता है।*

• अग्रपालि (Anterior Lobe) – यह पूरी पिट्यूटरी ग्रंथि का तीन चौथाई हिस्सा बनाती है। इस भाग से स्रावित हार्मोन्स के स्राव को हाइपोथैलमस नियंत्रित करता है। अधोलिखित हार्मोन इस भाग से स्रावित होते हैं। यथा-

(i) STH हार्मोन (Somatotropic Hormone) – यह शरीर की वृद्धि, विशेषतया हड्डियों की वृद्धि का नियंत्रण करती है। STH की अधिकता से भीमकायत्व (gigantism) एवं एक्रोमिगली (acromegaly) विकार उत्पन्न हो जाते हैं, जिसमें मनुष्य की लम्बाई सामान्य से बहुत अधिक बढ़ जाती है। STH की कमी से मनुष्य में बौनापन (dwarfism) होता है।*

→ बौनापन (dwarfism) – बाल्यकाल में GH के कम स्त्राव से व्यक्ति बौना रह जाता है। इस बौनेपन को एटीलिओसिस (ateleiosis) तथा इन बौनों को मिगेट्स (midgets) कहते हैं।

→ अतिवृद्धि (Gigantism) – बाल्यकाल में GH की अधिकता से बहुत लम्बे तथा हिष्ट-पुष्ट भीमकाय (giant) व्यक्तियों का विकास होता है। इन्हें पिट्यूटेरी जायंट कहते हैं।

→ अग्रातिकायता (acromegaly) – वृद्धिकाल के बाद GH की अधिकता से गोरिल्ला के समान कुरूप भीमकाय (disproportinote giants) व्यक्ति बनते हैं। क्योंकि हड्डियों की लम्बाई में वृद्धि सम्भव नहीं होती तो शरीर लम्बाई में तो बढ़ नहीं पाता अतः हाथ, पांव, चेहरे के कुछ भाग, जबड़े आदि अधिक लम्बे हो जाते हैं। हड्डियाँ मोटाई में बढ़ती हैं जिससे शरीर व चेहरा भद्दा हो जाता है। आँखों के ऊपर व गालों की हड्डियाँ उभर आती हैं। इस अवस्था को एक्रोमीगैली कहते हैं।

→ कभी-कभी कशेरुक दण्ड के झुक जाने से व्यक्ति कुबड़ा हो जाता है। इसे काईफोसिस (kyphosis) कहते हैं।

(ii) GT.H. हार्मोन (Gonadotropic Hormone) – ये हार्मोन नर में वृषण एवं मादा में अंडाशयों को उत्तेजित करते हैं। ये लैंगिक परिपक्वता तथा लैंगिक कार्यों की पूर्णता के लिये अति आवश्यक हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-

(a) फॉलिकिल उत्तेजक हार्मोन (Follicle stimulating hormone FSH) – यह मादा में अंडाशय के फॉलिकिल्स की वृद्धि तथा अण्डों के निर्माण को प्रोत्साहित करता है एवं मादा हार्मोन एस्ट्रोजन (esterogens) के स्त्राव को प्रेरित करता है। नर में शुक्राणुओं तथा शुक्रजनन नलिकाओं का निर्माण इन्हीं के द्वारा प्रेरित होता है।*

(b) ल्यूटिन प्रेरक हार्मोन (Luteinzing hormone-LH) अथवा अन्तराल-कोशिका प्रेरक हार्मोन (Interstitial cell stimulating hormone – ICSH) – स्त्रियों में यह हार्मोन थीका इण्टरना कोशिकाओं को एस्ट्रोजन (esterogen) तथा प्रोजेस्ट्रोन (progesteron) नामक हार्मोन के स्त्राव के लिये प्रेरित करता है, अण्डोत्सर्ग की क्रिया को प्रोत्साहित करता है तथा ग्रेन्युलोसा एवं थीका इण्टरना कोशिकाओं के ल्यूटिनीभवन को नियंत्रित करता है। एस्ट्रोजन तथा प्रोजेस्ट्रॉन मादा की माहवारी को नियन्त्रित करते हैं। नर में ल्यूटिन प्रेरक हार्मोन वृषण की अन्तराल कोशिकाओं (interstitutial cells) या लेडिग की कोशिकाओं को टेस्टोस्टेरोन (testosterone) नामक हार्मोन के स्राव के लिये प्रेरित करता है जिसके द्वारा अतिरिक्त जनन अंगों तथा द्वितीयक लैंगिक लक्षणों का नियमन होता है। शुक्राणु-जनन पर भी इसका प्रभाव होता है।*

गोनेडोट्रॉफिक हार्मोन के स्त्राव का नियन्त्रण – यौवनावस्था से केवल 2-3 वर्ष पहले ही इनका स्त्राव शुरू होता है। हाइपोथैलेमस में स्थित जैनेटिक जैव घड़ी (genetic biological clock) इनके स्त्राव के समय को नियन्त्रित करती है।

• मादा में LH तथा FSH की कमी होने पर अण्डाशय का आकार क्षीण होता जाता है, फॉलिकल्स विनष्ट हो जाते हैं और गर्भाशय तथा योनि लुप्त हो जाते हैं।

• नर में इसकी कमी से जनन-तन्त्र विनष्ट हो जाता है, वृषण पिलपिले तथा अनियमित आकार के हो जाते हैं और सेमिनिफेरस नलिकाएं नष्ट हो जाती हैं। युवावस्था में वृषण उदरगुहा में ही रह जाते हैं। इस प्रकार के नर क्रिप्टोर्किड (cryptorchid) कहलाते हैं।

(iii) ACTH हार्मोन (एड्रिनोकार्टि-कोट्राफिक हार्मोन) – यह ऐड्रीनल ग्रन्थि के कॉर्टिकल भाग से हार्मोन के स्त्राव को प्रभावित करता है। इसकी कमी के कारण ऐड्रीनल ग्रन्थियां विनष्ट हो जाती हैं तथा इसकी अधिकता से रीनल कांटेक्स की वृद्धि अधिक हो जाती है।

(iv) TSH हार्मोन (थाइरॉइड प्रेरक हार्मोन) – इसे थाइरोट्रोपिन – हार्मोन भी कहते हैं। यह भी LH और FSH की भाँति एक ग्लाइकोप्रोटीन होता है। यह थाइराइड ग्रन्थि की वृद्धि एवं स्रावण क्रिया का प्रेरक होता है।

(v) LTH हार्मोन (लूटियोट्रोफिक हार्मोन)- इसे लैक्टोजेनिक हार्मोन अथवा प्रोलेक्टिन भी कहते हैं। यह हार्मोन गर्भित मादा में दुग्ध-निर्माण एवं स्राव को प्रेरित करता है।* यह कॉर्पस ल्यूटियम से प्रोजेस्ट्रॉन नामक हार्मोन के स्त्राव को प्रेरित करता है। इसकी कमी से मादा में दुग्ध-निर्माण नहीं होता।

(vi) डायबैटोजेनिक हार्मोन (Diabetogenic hormone)- यह कार्बोहाईड्रेट के उपाचय को प्रभावित करता है तथा इसका प्रभाव प्रोटीन एवं वसा पर भी होता है। इसका प्रभाव इंसुलिन के ठीक विपरीत होता है।

(vii) M.S.H. हार्मोन (मिलैनोसाइट प्रेरक हार्मोन) – इसका स्त्राव मध्य पिंड से होता है किन्तु मनुष्य में मध्य पिंड के अल्प विकसित होने के कारण इसका स्त्राव अग्र पिट्यूटेरी से ही होता है। निम्न कशेरुकी प्राणियों में यह हार्मोन त्वचा की कोशिकाओं में मिलेनिन रंग के कणों को फैलाकर त्वचा के रंग को गहरा करता है। मध्य पालि (Intermediate lobe) – मानव में यह पालि अविकसित होती है।

थाइरॉइड ग्रंथि (Thyroid Gland)

यह मनुष्य के गले में श्वास नलीय ट्रेकिया के दोनों ओर लैरिंक्स के नीचे गुलाबी-सी H आकार की द्विपालित ग्रंथि होती है। इस ग्रंथि का भार 25-30 ग्राम होता है। स्त्रियों में यह अपेक्षाकृत बड़ी होती है।

हम लोग प्रतिदिन भोजन से 100-500 माइक्रोग्राम आयोडीन ग्रहण करते हैं। इसका अधिकांश अंश हम लोग मूत्र के और कुछ मल के माध्यम से प्रतिदिन त्यागते हैं। रक्त के प्रति 100 मिलीलीटर में लगभग 0.3 g आयोडीन रहती है। थाइरॉइड ग्रन्थि दिन भर में लगभग 120 माइक्रोग्राम आयोडीन रक्त से लेकर 40 माइक्रोग्राम आयोडीन वापस रक्त में मुक्त कर देती है और शेष का उपयोग अपने द्वारा स्रावित हार्मोन्स के संश्लेषण में करती है। थाइरॉइड ग्रंथि से दो हार्मोन का स्त्राव होता है। यथा –

(i) लगभग 90% टेट्राआयोडोथाइरोनीन (tetraiodothyronine-T4) या थाइरॉक्सिन

(ii) लगभग 10% ट्राइआयोडोथाइरोनीन (triiodothyronine-T3)

T3 थाइरॉक्सिन से लगभग चार गुना अधिक प्रभावी होता है। इसीलिए, ऊतकों में पहुँचने पर सम्भवतः थाइरॉक्सिन की भी अधिकांश मात्रा T3 में ही बदल जाती है। अतः T4 अधिक महत्वपूर्ण थाइरॉइड हार्मोन होता है।

➤ थाइरॉइड हार्मोन के कार्य

(i) थाइरॉक्सिन सभी उपाचय क्रियाओं की गति का नियंत्रण करता है (मेटाबोलिज्म नियन्त्रक) *

(ii) यह शरीर की सामान्य वृद्धि विशेषतः हड्डियों, बाल इत्यादि के विकास के लिए अनिवार्य हैं।

(iii) जनन-अंगों के सामान्य कार्य इन्हीं की सक्रियता पर आधारित रहते हैं।

(vi) पीयूष ग्रंथि के हार्मोन के साथ मिलकर शरीर के जल- संतुलन का नियंत्रण करते हैं।*

थाइरॉइड की अनियमितताएँ एवं रोग

➤ थाइरॉइड की अल्प क्रियाशीलता (Hypothyroidism)

थाइरॉइड की अल्प क्रियाशीलता प्रायः भोजन में आयोडीन की कमी या मूत्र में आयोडीन के अधिक उत्सर्जन के कारण होती है। इससे शरीर में थाइरॉक्सिन की कमी हो जाती है और मनुष्य में उपाचय की गति धीमी हो जाती है। इससे निम्नलिखित रोग हो जाते हैं-

(i) जड़वामनता (Cretinism) – यह बच्चों में थाइरॉक्सिन की कमी के कारण होता है। उपाचय की धीमी गति के कारण बच्चों की शारीरिक व मानसिक वृद्धि मंद हो जाती है। बच्चे बौने (dwarf) रह जाते हैं। उनके हाथ-पाँव बेमेल और बहुत छोटे रहते हैं। त्वचा मोटी, सूखी-सी व लटकी हुई होती है। तोंद निकली हुई, होंठ मोटे, जीभ मोटी व लटकी हुई तथा चेहरा फूला-फूला होता है। जननांगों का विकास भी पूरा नहीं हो पाता। अतः ये लोग sterile होते हैं। इस दंशा को जड़वामनता या क्रेटिनिज्म कहते हैं। *

(ii) मिक्सीडिमा (Myxoedema) – वयस्क में थाइरॉक्सिन की कमी से न्यूनतम उपापचय गति कम हो जाती है जिससे शरीर का तापक्रम कम हो जाता है, हृदय की गति धीमी हो जाती है, रुधिर-दाब सामान्य से कम हो जाता है, मनुष्य सुस्त एवं थका-थका रहता है, किसी काम में मन नहीं लगता। त्वचा के नीचे ऊतक द्रव के एकत्रित हो जाने से शरीर मोटा व भद्दा हो जाता है तथा त्वचा, पलकें व होंठ मोटे हो जाते हैं। जनदों की क्रिया एवं यौन परिवर्धन की क्रिया भी धीमी हो जाती है। इस अवस्था को मिक्सीडिमा (myxoedema) कहते हैं।*

(iii) सामान्य घेघा या गलगण्ड (Simple goitre) – भोजन में आयोडीन की कमी होने पर थाइरॉइड ग्रन्थि बड़ी होकर फूल जाती है। इससे गर्दन भी फूलकर मोटी व कॉलर जैसी दिखाई देती है। इसे सामान्य घेघा रोग कहते हैं।*

पहाड़ी क्षेत्र में जहाँ पानी में आयोडीन की कमी होती है अधिकांश लोगों में घेघा रोग पाया जाता है। ऐसे क्षेत्र घेघा क्षेत्र (goitre belt) कहलाते हैं।

(iv) हाशीमोटो का रोग (Hashimoto’s disease) – इस अवसथा में थाइरॉइड ग्रन्थि का स्राव इतना कम हो जाता है कि स्त्राव को बढ़ाने के लिये दी गयी औषधियाँ शरीर में विष (antigens) का काम करने लगती हैं। इनको नष्ट करने के लिये शरीर में प्रतिविष (antibodies) बनने लगती हैं जो थाइरॉइड को नष्ट कर देते हैं। इसे anti-immune रोग या थाइरॉइड की आत्महत्या (suicide of thyroid) कहते हैं।

रोगोपचार-भोजन में आयोडीन की मात्रा बढ़ाकर तथा आयोडीनयुक्त नमक के प्रयोग से थाइरॉइड की अल्पक्रियाशीलता सम्बन्ध रोगों से बचा जा सकता है।

➤ थाइरॉइड ग्रन्थि की अतिक्रियाशीलता (Hyperthyoidism)

अति स्त्राव के कारण थाइरॉइड ग्रंथि फूल जाती है। इसे एक्सोफ्थैल्मिक गोइटर (exophthalmic giotre) कहते हैं। थाइरोकैल्सिटोनिन हार्मोन (Thyrocalc-itonin) – यह हार्मोन थाइरॉइड के स्ट्रोमा द्वारा स्स्रावित होता है। यह शरीर में कैल्शियम की मात्रा का नियंत्रण करता है। यह हड्डी के विघटन को कम तथा मूल में Cattions के उत्सर्जन को बढ़ाकर रुधिर में Ca की मात्रा को संतुलित रखता है।

पैराथाइरॉइड ग्रंथियाँ (Parathyroid Glands)

पैराथाइरॉइड ग्रन्थियां मटर के दोनों के बराबर चार छोटी एवं गोल रचनाएं हैं। ये थाइरॉइड ग्रन्थि की पृष्ठ सतह में धँसी रहती हैं। कभी-कभी इनकी संख्या 2-6 तक भी होती है। ये ग्रंथियाँ पैराथॉरमोन (Parathormore-PTH) – नामक हार्मोन का स्रावण करती हैं जिसे कोलिप का हार्मोन (Collip’s hormone) भी कहते हैं। यह हार्मोन 84 अमीनो अम्ल अणु की बनी एक प्रोटीन होता है। इसे शुद्ध रूप में सबसे पहले कोलिप (Collip, 1925) ने तैयार किया। यह रक्त में कैल्शियम और फास्फेट आयनों की संख्या का नियमन करके शरीर के अन्तःवातावरण की अखण्डता बनाये रखने अर्थात् होमिओस्टैसिस में महत्वपूर्ण सहयोग देता है। पेशी- संकुचन, प्रेरणा-संवाहन, हृद-स्पंदन, रक्त-स्कंदन (blood caugulation), आस्थि-निर्माण, अण्डाणु-निषेचन आदि अनेक क्रियाओं के लिए E.C.F. अर्थात ऊतक द्रव्य में कैल्शियम की एक आदर्श (optimum) मात्रा – 10 से 11.5 मिग्रा/100 मिली रक्त- आवश्यक होती है। खनिज तत्वों में से इसी की मात्रा शरीर में सबसे अधिक होती है। वयस्क मानव शरीर में लगभग एक किलोग्राम कैल्शियम होता है और इसका 99% अंश हड्डियों में होता है।

रक्त में कैल्शियम की आदर्श मात्रा को बनाये रखने का काम विटामिन ‘डी’ और पैराथॉरमोन मिलकर करते हैं। पैराथॉरमोन आँत में कैल्शियम के अवशोशण को तथा वृक्कों में इसके पुनरावशोषण (reabsorption) और फॉस्फेट के उत्सर्जन को बढ़ाता है। रक्त में कैल्शियम की इस प्रकार बढ़ी मात्रा का उपयोग, विटामिन डी के प्रभाव से, अस्थि-निर्माण में हो जाता है। फिर अस्थियों के नवनिर्मित भागों में से अनावश्यक भाग, पैराथॉरमोन के प्रभाव से गलकर रक्त में कैल्शियम व फास्फेट मुक्त करते है। शरीर में हड्डियों का ऐसा पुननिर्माण (bone remodelling) जीवनभर होता रहता है। इसी से रक्त में कैल्शियम की सामान्य मात्रा बनी रहती है। इसमें पैराथॉरमोन एव विटामिन डी की सहयोगी (synergestic) भूमिकाएँ होती हैं। इसके विपरीत, थाइरोकैल्सिटोनिन हार्मोन हड्डी के विघटन को कम और मूत्र में Ca के उत्सर्जन को बढ़ाकर पैराथॉरमोन से विरोधी (antagonistic) भूमिका निभाता है।

पैराथाइरॉइडस की अनियमितताएँ एवं रोग

➤ अल्पस्त्रावण (Hyposecretion)

पैराथॉरमोन की कमी शरीर में प्रायः नहीं होती। कमी होने पर ऊतक द्रव्य में कैल्शियम की मात्रा कम (हाइपोकैल्सीमिया) और फॉस्फेट की मात्रा अधिक हो जाती है। इससे पेशियों और तन्त्रिकाओं में अनावश्यक उत्तेजना के कारण पेशियों में ऐंठन और कम्पन होने लगता है। कभी-कभी ऐच्छिक पेशियों में लम्बे समय तक के लिए संकुचन हो जाता है। इसे टिटैनी (tetany) रोग कहते हैं। अधिकांश रोगी, कंठ की पेशियों में ऐसा संकुचन हो जाने के कारण, साँस नहीं ले पाते और मर जाते हैं। बचपन में अल्पस्रावण से वृद्धि रुक जाती है तथा दाँतों, हड्डियों, बालों एवं मस्तिष्क का पूरा विकास नहीं हो पाता। विटामिन डी के सेवन से राहत मिलती हैं।

➤ अतिस्त्रावण (Hypersecretion)

यह ग्रन्थियों की अतिवृद्धि से प्रायः हो जाता है। इससे हड्डियाँ गलकर कोमल, कमजोर व भंगुर हो जाती हैं। इसे ओस्टिओपोरोसिस का रोग कहते हैं। ऊतक द्रव्य में कैल्शियम की मात्रा के बढ़ जाने (हाइपरकैल्सीमिया) से तन्त्रिकाएँ एवं पेशियाँ क्षीण हो जाती है, मूत्र की मात्रा बढ़ जाने से प्यास बढ़ जाती है, भूख मर जाती है, कब्ज हो जाती है, सिर दर्द होने लगता है तथा वृक्कों में पथरी (kidney-stones) पड़ जाने की सम्भावना हो जाती है। ग्रन्थियों के बढ़े हुए भागों को काटकर हटा देने पर ही रोगों से मुक्ति मिलती है।

➤ अधिवृक्क ग्रंथियाँ (Adrenal Glands)

प्रत्येक वृक्क के शीर्ष पर पीले भूरे रंग की 4-6 ग्राम की टोपी के समान अधिवृक्क या ऐड्रीनल ग्रंथि लगी रहती है। इस ग्रंथि के दो भाग होते हैं यथा-

ऐड्रीनल ग्रंथि

(A) ऐड्रीनल कॉट्रेक्स

• मिनरैलो कॉर्टिकोइडस – एल्डोस्टीरोन
• ग्लूकोकॉर्टिकोइडस – कॉर्टिसोल, कॉर्टिकोस्टीरोन
• लिंग हार्मोन – ऐन्डोजेन्स , ईस्ट्रेजेन्स

(B) एड्रीनल मेडयूला

• ऐड्रीनैलीन या ऐपीनैफ्रीन
• नॉरऐड्रीनैलीन या नॉरऐपीनैक्रीन

➤ ऐड्रीनल कॉट्रेक्स द्वारा स्त्रावित हार्मोन

ऐड्रीनल कॉट्रेक्स की कोशिकायें लगभग 50 हार्मोन स्रावित करती हैं। इनको सामूहिक रूप से कार्टिकोस्टिराइडस (corticosteroids) कहते हैं। इनको तीन विशिष्ट समूहों में बाँटा गया है-लिंग-हारमोन्स, ग्लूकोकॉर्टिकॉइड्स तथा मिनरैलोकॉर्टिकॉइड्स। सभी हार्मोन वसा में घुलनशील स्टीराइडस होते हैं।

(i) ग्लूकोकॉर्टिकोएड्स जिनमें, कॉर्टिसोल तथा कॉर्टिकोस्टीरॉन मुख्य हैं। इनका मुख्य कार्य भोजन के विभिन्न अवयवों के उपाचय, यकृत में ग्लाइकोजेनेसिस, प्रोटीन से ग्लूकोस का निर्माण, जल तथा इलेक्ट्रोलाइट्स का शरीर में वितरण आदि का नियन्त्रण है।

(ii) मिनरैलोकॉर्टिकोइड्स (Mineralocorticoids)– इनमें सबसे प्रमुख हार्मोन होता है ऐल्डोस्टीरोन (Aldosterone)। यह “लवण प्रतिधारक (salt-retaining)” हार्मोन होता है, क्योंकि इसके प्रभाव से ECF और रुधिर में सोडियम, पोटैशियम एवं क्लोराइड आयनों (Na+, K+ and Cl) की, तथा इन्हीं के अनुसार जल की, उपयुक्त मात्रा बनी रहती है। मूत्र या पसीने के साथ अधिक सोडियम निकल जाने पर शरीर में जल की अत्यधिक कमी हो सकती है। ऐल्डोस्टीरोन वृक्कों में सोडियम, और कुछ सीमा तथा क्लोराइड, आयनों के पुनरवशोषण (reabsorption) तथा पोटैशियम आयनों (K+) के उत्सर्जन को बढ़ावा देकर रक्त में उपयुक्त परासरणी दाब (osmotic pressure) बनाये रखता है। रक्त की मात्रा और रक्त-दाब का सामान्य बने रहना इसी परासरणी दाब पर निर्भर करता है।

(iii) लिंग हार्मोन्स (Sex-hormones) – ऐड्रीनल कॉटेंक्स तथा जनदों (gonads) का विकास भ्रूण के समान भागों से होता है। अतः ऐड्रीनल कॉर्टेक्स से भी प्रत्येक व्यक्ति में कुछ नर हार्मोन अर्थात् ऐन्ड्रोजेन्स (androgens) और, अति सूक्ष्म मात्रा में, मादा हॉरमोन्स अर्थात् ईस्ट्रोजेन्स (estrogens) स्स्रावित होते हैं। इनमें नर हार्मोन, डीहाइड्रोएपीऐन्ड्रोस्टीरोन (dehydroepiandrosterone), की मात्रा सबसे अधिक होती है। ये हार्मोन्स पेशियों तथा जननांगो के विकास को प्रेरित करते हैं।

ऐड्रीनल मेड्यूला द्वारा स्त्रावित हार्मोन

एड्रीनल मेडयूला की क्रोमैफिन कोशिकाएँ टाइरोसिन नामक एमीनो अम्ल से दो हार्मोन बनाती हैं-

(i) ऐड्रीनेलीन या ऐपीनैफ्रीन
(ii) नॉरऐड्रीनैलीन या नॉरऐपीनैफ्रीन

(i) ऐड्रीनैलीन (Adrenalin) – यह हार्मोन अनुकम्पी तन्त्रिका तन्त्र से नियन्त्रित होने वाली क्रियाओं को नियमित करता है। यह कार्यकारी अंगों (effector organs) को प्रभावित करता है। कार्यकारी अंगों पर प्रभावी होने के कारण ऐड्रीनैलीन अरेखित पेशियों को उत्तेजित करता है जिससे त्वचा व आंतरागों में रुधिर वाहिनियों एवं कोशिकाओं की दीवार सिकुड़ जाती है। इससे रुधिर दाब बढ़ जाता है, हृदय की धड़कन तीव्र हो जाती है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं, पुतली फैल जाती है, आँखें चौड़ी व फटी-फटी हो जाती हैं, श्वसन-गति भी तीव्र हो जाती है और पसीना बहुत अधिक आने लगता है। अश्रु एवं पित्तरस अधिक मात्रा में निकलता है, रुधिर का थक्का जल्दी बनता है। साथ ही यकृत में संचित ग्लाइकोजन ग्लूकोस में बदलकर रुधिर में आने लगता है।

वास्तव में ऐड्रीनैलीन हमें संकटकालीन परिस्थितियों का सामना करने के लिये तैयार करता है। गुस्से या डर के समय उत्पन्न होने वाले हाव-भाव ऐड्रीनैलीन के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं। ऐड्रीनैलीन का चिकित्सा में बहुत महत्व है। इसको हृदय में अंतःक्षिप्त करके (injecting) कभी-कभी रुके हुए हृदय में हृत् स्पंदन प्रारम्भ किया जा सकता है।

(ii) नॉरऐड्रीनैलीन (Noradrenaline) – यद्यपि इसका प्रभाव भी कुछ-कुछ ऐड्रीनैलीन के समान होता है। यह effector organs के केलव a-receptors पर कार्य करता है। किन्तु इससे हृदय की गति तीव्र नहीं होती और न रुधिर दाब ही बढ़ता हैं। इसकी उपस्थिति में रुधिर वाहिनियाँ फैल जाती हैं।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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