उत्सर्जन-तंत्र

प्राणियों की उस कार्य-विधि को जिसके द्वारा वह वर्ज्य पदार्थ तथा विषैले पदार्थो को शरीर से बाहर निकालते हैं, उत्सर्जन (excretion) कहते हैं।” जो अंग उत्सर्जी या वर्ज्य पदार्थो को शरीर से बाहर निकालते हैं उन अंगों को उत्सर्जी अंग (excretory organs) कहते हैं।

उत्सर्जन का महत्व (Importance of Excretion) – (i) शरीर में शरीर के द्रव्यों की संरचना, पी-एच. मान तथा परासरणी दाब बनाए रखता है। (ii) उत्सर्जन द्वारा शरीर में उत्पन्न हानिकारक पदार्थों को शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। (iii) समस्थैतिक (homeostasis) या स्थायी आन्तरिक वातावरण बनाए रखता है। (iv) उत्सर्जी पदार्थो की आवश्यक मात्रा को शरीर में बनाए रखता है। प्राणियों के वर्ज्य पदार्थो को हम दो मुख्य श्रेणियों में बाँट सकते हैं।

(i) कार्बनिक तथा (ii) नाइट्रोजनी।

कार्बनिक वर्ज्य पदार्थ (Organic Waste Products)- यह मुख्य रूप से CO₂ है। कार्बन डाई-ऑक्साइड की प्रकृति अम्लीय होती है। यह अगर कोशिकाओं में रह जाए तो अत्यधिक अम्ल के निर्माण के कारण कोशिकाओं के लिए घातक होती है। यह श्वसन क्रिया के अन्तर्गत बनती है और इसीलिए इसको शरीर के बाहर निकालने की क्रिया श्वसन तन्त्र द्वारा होती है।

नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थ (Nitrogenous Waste Products)- इनमें नाइट्रोजन होती है। इनमें अमोनिया मुख्य है। अमोनिया या इससे सम्बन्धित अन्य नाइट्रोजनी वर्ज्य पदार्थों का निर्माण एवं निष्कासन उत्सर्जन तन्त्र के द्वारा होता है।

मनुष्य के उत्सर्जी अंग

• वृक्क (Kidney) – वृक्क उत्सर्जन के मुख्य अंग होते हैं। वृक्क के बिना मनुष्य, खरगोश तथा उच्च कोटि के स्तनी जीवित नहीं रह सकते। वृक्क शरीर से सभी नाइट्रोजनी उत्सर्जी पदार्थो को बाहर निकालने का कार्य करते हैं।

• त्वचा (Skin) – त्वचा भी एक उत्सर्जन अंग का कार्य करती है। इसके अन्दर स्वेद ग्रन्थियाँ होती हैं जो रुधिर से पानी, यूरिया तथा अन्य लवण की बाहरी सतह पर निष्कासित कर देती हैं।

• फुफ्फुस (Lungs) – फुफ्फुस से कार्बन डाई-ऑक्साइड निष्कासित होती है।

• आंत (Intestine) – आंतों की सबसे अन्दर की परत एपीथीलियमी कोशिकाओं की बनी होती है। ये कोशिकाएं कुछ लवणों का उत्सर्जन करती हैं। ये लवण मल के साथ शरीर के बाहर निकल जाते हैं।

• यकृत (Liver) – यकृत नाइट्रोजनी पदार्थो को निष्कासित करने में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त नाक से भी उत्सर्जी पदार्थ बाहर होते रहते हैं।

मनुष्य में उत्सर्जन (Excretion in Humans)

मनुष्य में मुख्य उत्सर्जी अंग एक जोड़ा वृक्क (Kidney) होता है, जो रुधिर-परिसंचरण से उत्सर्जी उत्पादों को हटाने, साथ ही साथ रुधिर में लाभदायक तत्वों को बनाए रखने के लिए भली-भांति अनुकूलित होते हैं। वृक्क सेम के बीज के आकार के होते हैं। उदरगुहा में कशेरुक दंड के दोनों ओर एक-एक वृक्क स्थित होते है। इसके चारों ओर पेरिटोनियम नामक झिल्ली पायी जाती है। वयस्क मनुष्य में प्रत्येक वृक्क 4 से 5 इंच लम्बा, 2 इंच चौड़ा और लगभग 11/ 2 इंच मोटा होता है। इसका भार लगभग 140 ग्राम होता है। इसका बाहरी धरातल उत्तल (convex) होता है। तथा भीतरी धरातल अवतल (concave)। वृक्क को लम्बाई से काटने पर यह दो भागों में बँट जाती है- बाहरी भाग कॉर्टेक्स (cortex), भीतरी भाग मेडुला (medulla)। मेडूला शंकुरूप रचनाओं से भरा होता है, जिन्हें पिरामिड कहते हैं। प्रत्येक पिरामिड एक थैलीनुमा गुहा में दिष्ट (directed) होती है, जिसे वृक्क पेल्विस (renal pelvis) कहते हैं। वृक्क पेल्विस से मूत्र वाहिनी (ureter) निकलती है। दोनों ओर की मूत्र वाहिनी मूत्राशय (urinary bladder) में खुलती है। प्रत्येक वृक्क में लगभग 1,30,000 सूक्ष्म नलिकाएँ होती हैं, जिन्हें नेफ्रॉन (nephrons) कहते हैं।

• नेफॉन वृक्क की कार्यात्मक इकाई (functional unit of kidney) है।*
• इनको उत्सर्जन इकाई (excretory units) भी कहते हैं।*
• नेफ्रॉन ही रुधिर के रासायनिक संघटन का वास्तविक नियंत्रण करते हैं।*

नेफ्रॉन की संरचना (Structure of nephrons) – प्रत्येक नेफ्रॉन में एक छोटी प्यालीनुमा संरचना होती है, जिसे बोमेन संपुट (Bowman’s capsule) कहते हैं, जो कोर्टेक्स क्षेत्र में स्थित होता है। बोमेन संपुट से एक सूक्ष्म कुंडलित नलिका निकलती है, जो सीधी होकर वृक्क पेल्विस में प्रवेश करती है। फिर यह नलिका चौड़ी होकर एक पाश (loop) बनाती है, जिसे हेनली-लूप कहते हैं।* इसके बाद यह नलिका कोर्टेक्स भाग में जाकर फिर से कुंडलित हो जाती और तब यह एक बड़ी वाहनी में खुलती है, जिसे संग्राहक वाहिनी (collecting duct) कहते है। संग्राहक वाहिनी एक सीधी नली होती है, जिसमें कई नेफ्रॉन की नलिकाएँ खुलती हैं। सभी संग्राहक वाहिनियाँ वृक्क पेल्विस में खुलती है और वृक्क पेल्विस से मूत्रवाहिनी (ureter) निकलता है जो मूत्राशय (urinary bladder) में खुलता है।

वृक्क में रुधिर की आपूर्ति (Supply of blood in kidneys) – वृक्क धमनी (renal artery) रुधिर को वृक्कों के भीतर ले जाती है। प्रत्येक वृक्क में वृक्क धमनी प्रवेश करने के बाद अनेक पतली शाखाओं में बँट जाती है, जिसे वृक्क धमनिकाएँ (arterioles) कहते हैं। ये वृक्क धमनिकाएँ प्रत्येक नेफ्रॉन के बोमेन सम्पुट में प्रवेश करती हैं, जिसे अभिवाही धमनिका (afferent arteriole) कहते है। अभिवाही धमनिका बार-बार विभाजित होकर महीन केशिकाओं (capillaries) का गुच्छा बनाती है, जिसे केशिकागुच्छ या ग्लॉमेरुलस (glomerulus) कहते हैं। केशिकाएँ ग्लॉमेरुलस के बाद पुनः संयोजित होकर अपवाही धमनिका (efferent arteriole) बनाती है। अपवाही धमनिका बोमेन सम्पुट से निकलकर, फिर बार-बार विभाजित होकर, महीन केशिकाओं का जाल बनाती है, जो नेफ्रॉन के विभिन्न नलिका भागों को ढंक लेती है। केशिकाएँ पुनः संयोजित होकर वृक्क शिरिकाएँ (renalvenules) बनाती है, जो वृक्क शिरा (renal vein) में खुलती है। वृक्क शिरा वृक्क से रुधिर को एकत्र कर हृदय में पुनः वापस ले जाती है।

नेफ्रॉन की कार्य विधि (Mechanism of working of Nephrons)

रुधिर से सभी उत्सर्जी पदार्थों को हटाना और आवश्यक पोषक तत्वों को रुधिर में बनाए रखना, ये दोनों ही कार्य वृक्कों के भीतर नेफ्रॉन द्वारा सम्पन्न होते हैं। रुधिर से उत्सर्जी पदार्थों को दो चरणों में हटाया जाता है-
(A) निस्पंदन (filtration) (B) पुनरवशोषण (Reabsorption)।

निस्यंदन (Filtration) – निस्यंदन की क्रिया ग्लॉमेरुलस में सम्पन्न होती है। प्रत्येक मिनट में रक्त का करीब एक लीटर जिसमें 500ml प्लाज्मा होता है, इन ग्लोमेरुलसों से होकर बहता है, इसका लगभग 100ml (10%) भाग छनता है। अभिवाही धमनिका (afferent arteriole), जिसका व्यास अपवाही धमनिका (efferent arteriole) से अधिक होता है, इसलिए ग्लॉमेरुलस में रक्त का दबाव बढ़ जाता है, जिसके फलस्वरूप छनने की क्रिया इसी उच्च दाब पर सम्पन्न होती है। उच्च दाब पर इस छनने की क्रिया को अल्ट्राफिल्ट्रेशन (Ultra-filtration) कहते है। अल्ट्राफिल्टेशन द्वारा रुधिर की प्लाविका (plasma) से ग्लॉमेरुलस द्वारा जल, ग्लूकोस, मिनरल लवण आदि छान लिया जाता है। केवल रुधिर कोशिकाएँ एवं प्लाविका प्रोटीन नहीं छन पाती और रुधिर में ही रह जाती है। छनने हुए द्रव को निस्यंद (filtrate) कहते हैं। निस्यंद बोमेन सम्पुट की गुहा में एकत्रित होता है जहाँ से यह नेफ्रॉन की नलिका में चला जाता है। इस निस्यंदन के कारण रुधिर के बहुत अधिक लाभदायक पदार्थ भी छान लिए जाते है, परन्तु अगले चरण में यह लाभदायक पदार्थ पुनः रुधिर में मिल जाते है। इस प्रकार के चयनात्मक निस्यंदन को डाइएलिसिस (dialysis) कहते हैं।

पुनरावशोषण (Reabsorption)- बोमेन सम्पुट में छनने के बाद रुधिर नेफ्रॉन के बाहर मौजूद कोशिकाओं के जाल से होकर प्रवाहित होता है। नेफ्रॉन की विभिन्न नलिकाओं से गुजरते वक्त निस्यंद में उपस्थित अनेक लाभदायक तत्वों को नलिकाओं के चारों ओर मौजूद रुधिर कोशिकाओं द्वारा पुनः सोख (absorb) कर रुधिर परिसंचरण में लौटा दिया जाता है। इसी क्रिया को पुनरावशोषण (reabsonption) कहते हैं। निस्यंद से अधिकांश जल का अवशोषण परासरण (osmosis) द्वारा होता है। अन्य अवशोषित होने वाले लाभदायक तत्व हैं- ग्लूकोस, विटामिन, हार्मोन, मिनरल लवण इत्यादि। हाल की खोजों से पता चला है कि 100ml निस्यंद से लगभग 99ml द्रव्य पुनरावशोषित हो जाता है। उत्सर्जी पदार्थ नेफ्रॉन से वृक्क पेल्विस में जाता है और वहाँ से मूत्र वाहिनी द्वारा मूत्राशय में जाकर एकत्र होता है, जहाँ से वह मूत्रमार्ग द्वारा समय-समय पर शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। इसे मूत्र (urine) कहा जाता है।

मूत्र का सामान्य संघटन
अवयव
प्रतिशत मात्रा
1. जल
95%
2. यूरिया
2%
3. प्रोटीन वसा शर्करा एवं दूसरे कोलॉइड्स
1.3%
4. यूरिक अम्ल
0.05%
5. क्रियोटिनीन
0.1%
6. सोडियम (Na)
0.35%
7. कैल्सियम (Ca)
0.015%
8. पोटैशियम (K)
0.15%
9. मैग्नीशियम (Mg)
0.006%
10. क्लोरीन (CI)
0.6%
11. SO4
0.18%
12. PO4
0.27%

इनके अतिरिक्त मूत्र में अत्यल्प मात्रा में अमोनिया, क्रियेटिन, हिप्यूरिक अम्ल, सीसा, अमीनो अम्ल, आर्सेनिक, आयोडीन एवं नाइट्रोजन भी पाये जाते हैं।

मनुष्य का मूत्र पारदर्शी एवं हल्के पीले रंग का द्रव होता है। इसका पीला रंग हीमोग्लोबिन के अपघटन से बने यूरोक्रोम नामक वर्णक के कारण होता है, * जबकि इसकी गंध का कारण इसमें उपस्थित कार्बनिक पदार्थ होते हैं।

एक सामान्य वयस्क व्यक्ति में 24 घण्टे में लगभग 1.5 ली. मूत्र बनता है। सामान्यतया मूत्र की मात्रा मनुष्य द्वारा ग्रहण किये गये जल की मात्रा, भोजन की प्रकृति, उसकी शारीरिक एवं मानसिक स्थिति तथा वातावरणीय ताप पर निर्भर करती है। सामान्यतया ताजा मूत्र अम्लीय प्रकृति का होता है, (PH 4.5) इसका आपेक्षिक घनत्व जल से थोड़ा अधिक होता है।

उत्सर्जी अंग (Excretory Organs)
• ज्वाला कोशिकाएँ (Flame Cells)
प्लैटी हैल्मीनथीज
• रेनेट कोशिकाएँ (Renettee Cells)
एस्केहेल्मिनथीज
• नेफ्रीडिया (Nephridia)
एनेलिडा
• केबर का अंग (Keber’s organ)
मोलस्का (यूनियो)
• मैल्पीघियन नलिकाएँ (Malpighian tubules)
कीट (आर्थोपोडा)
• कोक्सल ग्रन्थिया (Coxcal gland)
क्रस्टेशियन (प्रॉन)
• क्लोरेगोगन कोशिका (Chloragogen Cell)
केंचुआ

उत्सर्जन में यकृत का योगदान

अनावश्यक अमीनों अम्ल को यकृत यूरिया में बदलता है। यह क्रिया दो भागों में सम्पन्न होती है- (a) डी एमीनेशन (b) यूरिया का निर्माण।

यकृत कोशिकाओं में अनावश्यक अमीनों अम्लों को ऑक्सीजन की उपस्थिति में तोड़ा जाता है। यह क्रिया आक्सीडेटिव डीएमीनेशन कहलाती है। इसमें अमोनिया बनती है जैसे- एलेनीन के दो अणु आक्सीजन के एक अणु से संयोग कर अमोनिया तथा पाइरुविक अम्ल के दो-दो अणु बनाते है, बाद में पाइरुविक अम्ल क्रेब्स चक्र में पहुँचकर ऊर्जा उत्पादन करता है। अन्य प्रकार के कार्बनिक अंश वसीय अम्लों, ग्लाइकोजन आदि में बदले जा सकते हैं।

इसके अलावा यकृत कोशिकाओं में अमोनिया तथा CO₂ मिलकर ऑर्निथीन चक्र (Ornithine cycle) द्वारा यूरिया का अवशोषण करते हैं। इस चक्र को क्रेब्स हेन्सेलीट चक्र भी कहते हैं।

कशेरुकियों के विभिन्न उत्सर्जी अंग एवं उनके कार्य
उत्सर्जी अंग
कार्य
1. वृक्क (kidney)
नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थ, जल की अतिरिक्त मात्रा एवं टॉक्सिंस को बाहर करना।
2. यकृत (liver)
अमोनिया को यूरिया में बदलना।
3. त्वचा (skin)
जल, खनिज लवण, स्वेद तथा कुछ मात्रा में नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थो को शरीर से बाहर करना।
4. फेफड़े (lungs)
CO₂ एवं जल को जल वाष्प के रूप में बाहर करना।
5. आंत्र (intestine)
अनपचे भोजन एवं अन्य उत्सर्जी पदार्थो को मल के रूप में बाहर करना।

➤ मूत्र निर्माण एवं हार्मोन नियंत्रण

वृक्क के कार्यों या मूत्र निर्माण का नियंत्रण हार्मोन द्वारा होता है। ये निम्नलिखित हैं-

1. वेसोप्रेसिन (Vasopressin) – पिट्यूटरी ग्रंथि की पश्च पालि से स्स्रावित वेसोप्रेसिन हार्मोन एंटीडाइयूरेटिक (antidiuretic) होता है। इसकी अधिकता से वृक्क नलिकाओं (distal convoluted tubules तथा collecting tubules) द्वारा जल अवशोषण की गति बढ़ जाती है। इससे मूत्र की मात्रा कम हो जाती है और मूत्र अधिक सान्द्र होता है। इसकी कमी से मूत्र में जल की मात्रा अधिक हो जाती है। अतः मूत्र कम सान्द्र व मात्रा अधिक होता है।

2. मिनरल कॉरटिकोस्टीरॉयड (Mineral-corticosteroid) ग्लूकोकॉरटिकोस्टीरॉयड (Glucocorticosteroid) हार्मोन – ये एडीनल कॉर्टेक्स से स्स्रावित होते हैं तथा मूत्र में जल व सोडियम की मात्रा का नियन्त्रण करते है। इनकी कमी के कारण मूत्र में जल व सोडियम की मात्रा बढ़ जाती है जिसके कारण एडिसन रोग (Adison’s disease) हो जाता है।

3. एल्डोस्टेरोन (Aldosteron) – यह भी एड्रीनल कॉर्टेक्स से स्रावित होता है और मूत्र में सोडियम व पोटेशियम के उत्सर्जन को प्रभावित करता है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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