भारत की विदेश नीति भारत के राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने के लिए विश्व के अन्य राज्यों के साथ भारत के संबंधों का नियमन करती है। यह विभिन्न कारकों द्वारा निर्धारित होता है, जैसे- भूगोल, इतिहास और परंपरा, सामाजिक बनावट, राजनैतिक संगठन, अंतर्राष्ट्रीय स्थिति, आर्थिक स्थिति, सैन्य शक्ति, जनता की राय तथा नेतृत्व’।
भारतीय विदेश नीति के सिद्धांत
1. विश्व शांति को बढ़ावा देना
भारतीय विदेश नीति का उद्देश्य, अंतर्राष्ट्रीय शांति व सुरक्षा को बढ़ावा देना है। संविधान का अनुच्छेद 51 (राज्य के नीति निदेशक) भारतीय राज्य को, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व शांति बनाए रखने, राष्ट्रों के मध्य सम्मानजनक व न्यायपूर्ण संबंध बनाए रखने, अंतर्राष्ट्रीय विधियों व संधि शर्तों के प्रति आदर रखने अंतर्राष्ट्रीय विवादों के निबटारों में मध्यस्थता करने का निर्देश देता है। राष्ट्र के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए शांति आवश्यक है। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “शांति हमारे लिए एक उत्साहजनक आशा ही नहीं है, यह एक आपात आवश्यकता है।”
2. गैर-उपनिवेशवाद
भारत की विदेश नीति औपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद का विरोध करती है। भारत का विचार है कि औपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद, साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा कमजोर राष्ट्रों के शोषण को बढ़ावा देता है और अंतर्राष्ट्रीय शांति को प्रभावित करता है। भारत ने औपनिवेशवाद के सभी रूपों के परिशोधन की वकालत की है तथा एफ्रो-एशियाई देशों, जैसे- इंडोनेशिया, मलाया, ट्यूनिशिया, अल्जीरिया, घाना, नामीबिया तथा अन्य देशों के स्वतंत्रता आंदोलनों का समर्थन किया है। इस प्रकार भारत ने एफ्रो-एशियाई देशों के औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी ताकतों, जैसे- इंग्लैंड, फ्रांस, हॉलैंड, पुर्तगाल तथा अन्य के विरुद्ध उनके संघर्ष में पूर्ण-भाईचारे का प्रदर्शन किया है। वर्तमान नव-उपनिवेशवाद तथा नव-साम्राज्यवाद का भी भारत ने विरोध किया है।
3. गैर-नस्लवाद
नस्लवाद के सभी रूपों का विरोध, भारतीय विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू है। भारत के अनुसार, नस्लवाद (लोगों के बीच नस्ल के आधार पर विभेद) औपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद की तरह, श्वेतों द्वारा अश्वेतों का शोषण, सामाजिक असमानता तथा विश्व शांति के बढ़ावे में विघ्न डालने को बढ़ावा देता है। भारत ने दक्षिण अफ्रीका में अल्पसंख्यक श्वेत शासन की नस्लवाद की नीति (दक्षिण अफ्रीका में गैर-यूरोपीय समूहों के विरुद्ध आर्थिक व राजनीतिक भेदभाव की नीति) की प्रचंड आलोचना की है। नस्लवाद की नीति के विरोध के परिणामस्वरूप 1954 में दक्षिण अफ्रीका के साथ कूटनीतिक संबंधों में भी कड़वाहट आ गई। भारत ने, जिम्बाबवे (पूर्व में रोडेशिया) तथा नामीबिया की श्वेत शासन से मुक्ति संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
4. गुटनिरपेक्षता
भारत जब स्वतंत्र हुआ, उस समय विश्व सैद्धांतिक आधार पर दो भागों में विभाजित था, अमेरिका के नेतृत्व में पूंजीपति भाग तथा भूतपूर्व यू.एस.एस.आर. के नेतृत्व में साम्यवादी भाग। ‘शांति युद्ध’ की इस परिस्थिति में भारत ने किसी भी ओर जाने से इनकार कर दिया तथा गुट निरपेक्षता की नीति को अपनाया। जवाहर लाल नेहरू ने कहा, “हम विश्व की इस एक दूसरे के विरुद्ध ताकत की राजनीति से दूर रहेंगे जिसके परिणाम में विश्व युद्ध हुए तथा पुनः यह, इससे विस्तृत पैमाने पर किसी विनाश को बढ़ावा दे सकती है। मैं सोचता हूं कि भारत युद्ध को टालने में सहायता करने में एक बड़ी भूमिका, और शायद प्रभावशाली भूमिका निभा सकता है। इसलिए यह और अधिक आवश्यक हो जाता है कि भारत किसी भी शक्तिशाली समूह के साथ खड़ा नहीं होगा, जिसके विभिन्न कारण हैं- युद्ध का पूर्ण खतरा और युद्ध की तैयारियां।”
“जब हम कहते हैं कि भारत गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन करेगा, इसका अर्थ है (i) भारत किसी भी समूह में शामिल देश अथवा किसी भी देश के साथ सैन्य सहयोग नहीं करेगा। (ii) भारतीय विदेश नीति की एक स्वतंत्र दिशा होगी; (iii) भारत सभी देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने का प्रयास करेगा।
5. पंचशील
पंचशील अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लिए आचरण के पांच सिद्धांतों को लागू करता है। यह 1954 में जवाहरलाल नेहरू तथा चाउ-एन- लाई, चीन के राष्ट्र प्रमुख के मध्य तिब्बत के संबंध में भारत-चीन संधि की उद्देश्यिका में शामिल हैं। ये पांच सिद्धांत हैं:
(i) एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता के लिए परस्पर सम्मान;
(ii) गैर-आक्रमण;
(iii) एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल न देना;
(iv) समानता व परस्पर लाभ, और;
(v) शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व ।
“भारत ने यह अनुभव किया कि है प्रतिस्पर्धी ताकतों के शक्तिशाली संधियों व संबंधों द्वारा शीत युद्ध के तनावों को कम करना और भय संतुलन बनाने के बजाय पंचशील संप्रभुत्व राष्ट्रों में शांतिपूर्ण सहयोग में उपयोगी है। भारत ने इसे सार्वभौमिकता के सिद्धांत पर आधारित बताया यह शक्ति संतुलन की अवधारणा के विपरीत था।
पंचशील काफी लोकप्रिय हुआ तथा कई राष्ट्रों, जैसे- म्यांमार, भूतपूर्व यूगोस्लाविया, इंडोनेशिया आदि ने इसे अपनाया। पंचशील तथा गुटनिरपेक्षता, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की कल्पना व प्रयोगों में भारत की महान देन है।
6. एफ्रो-एशियाई झुकाव यद्यपि भारत की विदेश नीति में विश्व के सभी राष्ट्रों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की बात कही गई है परंतु इसका एफ्रो- एशियाई देशों के प्रति एक विशेष झुकाव रहा है। इसका उद्देश्य इनके मध्य एकता को बढ़ावा देना है और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में आवाज उठाकर और प्रभावित कर इन्हें सुरक्षित करने का प्रयास करना है। इन राष्ट्रों के आर्थिक विकास के लिए भारत अंतर्राष्ट्रीय सहायता की माँग करता रहा है। 1947 में भारत ने नई दिल्ली में प्रथम एशियाई संबंध सम्मेलन आयोजित किया। 1949 में भारत ने इंडोनेशियाई स्वतंत्रता के ज्वलंत विषय पर एशियाई देशों को एकत्रित किया। भारत ने बांडुंग (इंडोनेशिया) में 1955 में हुए एफ्रो-एशियन सम्मेलन में एक सक्रिय भूमिका निभाई। भारत ने समूह 77 (1964), समूह 15 (1990), आई.ओ.आर.ए.आर.सी. (1995), बी.आई.एस.टी. आर्थिक सहयोग (1997) और सार्क (1985) के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत ने अनेक पड़ोसी राष्ट्रों से ‘बड़े भाई’ का नाम प्राप्त किया है।
7. राष्ट्रमंडल से संबंध
1949 में, भारत ने राष्ट्रमंडल देशों में अपनी पूर्ण सदस्यता जारी रखने की घोषणा की और ब्रिटिश ताज को राष्ट्रमंडल प्रमुख के रूप में स्वीकार किया। परंतु इस संविधानेत्तर घोषणा ने भारत की संप्रभुता को किसी भी प्रकार प्रभावित नहीं किया क्योंकि राष्ट्रमंडल, स्वतंत्र राष्ट्रों का एक स्वैच्छिक संघ है। इसने भारत के गणतांत्रिक चरित्र को भी प्रभावित नहीं किया क्योंकि भारत न ही ब्रिटिश ताज के प्रति उत्तरदायी/वफादार था और न ही ब्रिटिश ताज भारत के संबंध में किसी भी प्रकार के कार्यों का निर्वाह करता था।
भारत व्यावहारिक कारणों से राष्ट्रमंडल का सदस्य बना रहा। ये माना गया कि उसकी राष्ट्रमंडल सदस्यता उसके आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और अन्य मामलों में लाभकारी होगी। यह सी.एच.ओ.जी.एम. (चोगम) में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत ने 1983 में नई दिल्ली में 24वें राष्ट्रमंडल सम्मेलन की मेजबानी की।
8. संयुक्त राष्ट्र संघ (यू.एन.ओ.) को सहयोग
भारत 1945 में स्वयं संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बन गया। तब से यह संयुक्त राष्ट्र संघ की गतिविधियों व कार्यक्रमों का समर्थन करता है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों तथा सिद्धांतों के प्रति पूर्ण विश्वास व्यक्त किया है। भारत की यू.एन.ओ. में भूमिका के संबंध में कुछ तथ्यः
(i) संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से भारत औपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और नस्लवाद और अब नव-औपनिवेशवाद तथा नव-साम्राज्यवाद के विरुद्ध नीतियां लागू की हैं।
(ii) 1953 में विजयलक्ष्मी पंडित को संयुक्त राष्ट्र आमसभा का अध्यक्ष चुना गया।
(iii) भारत ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा कोरिया, कांगो, अल सल्वाडोर, कंबोडिया, अंगोला, सोमालिया, मोजाम्बीक, सियरा लियोन, यूगोस्लाविया व अन्य में चलाए गए शांति अभियानों में सक्रिय से भाग लिया।
(iv) भारत संयुक्त राष्ट्र के खुले कार्य समूहों (open ended working groups) में सक्रियता से भाग लेता रहा। भारत संयुक्त राष्ट्र को मजबूत करने के लिए बनाए गए कार्य समूह का सह-अध्यक्ष था इसने 1997 में अपनी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र को सौंपी।
(v) भारत कई बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य रह चुका है। अब भारत सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग कर रहा है।
9. निःशस्त्रीकरण
भारत की विदेश नीति हथियारों की दौड़ की विरोधी तथा निरस्त्रीकरण की हिमायती है। यह पारंपरिक व नाभिकीय दो प्रकार के हथियारों से संबंधित है। इसका उद्देश्य शक्तिशाली समूहों के मध्य तनाव कम या समाप्त कर, विश्व शांति तथा सुरक्षा को बढ़ावा देना है और हथियारों के उत्पादन पर होने वाले अनुपयोगी खर्च को रोककर देश के आर्थिक विकास में गतिशीलता लाना है। भारत हथियारों की दौड़ पर नजर रखने व निःशस्त्रीकरण की प्राप्ति के लिए संयुक्त राष्ट्र का मंच इस्तेमाल करता है। भारत ने इस दिशा में पहल करते हुए 1985 में एक छह देशीय सम्मेलन नई दिल्ली में आयोजित किया और नाभिकीय निःशस्त्रीकरण के लिए ठोस प्रस्ताव दिए।
सन 1968 में निःशस्त्रीकरण संधि तथा 1996 में सी.टी.बी.टी. हस्ताक्षर न करके भारत ने अपने नाभिकीय विकल्प खुल रखे।
भारत ने निःशस्त्रीकरण संधि एवं सी.टी.बी.टी. का उनके भेदभावपूर्ण व शासनात्मक चरित्र के कारण विरोध किया। ये एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को निरंतर जारी रखती है, जिसमें केवल पांच राष्ट्र (अमेरिका, रूस, चीन, इंग्लैंड और फ्रांस) ही नाभिकीय हथियार रख सकते हैं।
भारतीय विदेश नीति के उद्देश्य
भारत की विदेश नीति के निम्नलिखित उद्देश्य हैं:
1. भारत के महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना एवं तीव्र परिवर्तित अंतर्राष्ट्रयीय परिदृश्य पर नजर रखना, जिससे कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के साथ कदम से कदम मिलाकर चला जा सके।
2. नीति निर्णयन की स्वायत्तता को बनाये रखना तथा स्थायी, समृद्ध एवं सुरक्षित वैश्विक मानदंडों की स्थापना में अहम भूमिका का निर्वाह करना।
3. आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक अभियान को सहयोग व समर्थन देना।
4. भारत के तीव्र आर्थिक विकास एवं वैश्विक निवेश को बढ़ाने वाले अंतर्राष्ट्रीय माहौल को विकसित करना, देश में विज्ञान एवं तकनीकी तथा प्रतिरक्षा को बढ़ावा देने वाले अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को संपन्न करना।
5. पी-5 समूह के देशों के साथ घनिष्ठता से कार्य करना तथा विश्व की महाशक्तियों, यथा- अमेरिका, यूरोपीय समुदाय, जापान, रूस एवं चीन आदि के साथ सामरिक समझौते करना।
6. परस्पर लाभकारी सहयोग के आधार पर पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को बढ़ाना एवं उन्हें सुदृढ़ करना तथा एक-दूसरे को सहयोग पहुंचाने की भावना से कार्य करना।
7. दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन की सुदृढ़ता एवं स्थायित्व के लिये कार्य करना तथा इस क्षेत्र के देशों के आर्थिक हितों को प्रोत्साहित करना।
8. सीमापार आतंकवाद को समाप्त करने का प्रयास करना तथा पाकिस्तान में कार्यरत आंतकवादी ढांचे को समाप्त करना।
9. भारत की पूर्व की ओर देखो की नीति को और पुष्ट करना तथा आसियान के साथ सहयोग करना।
10. खाड़ी क्षेत्र के देशों के साथ सहयोग करना, जहां लगभग 4 मिलियन भारतीय रह रहे हैं और जो तेल और गैस आपूर्ति का मुख्य स्रोत हैं।
11. क्षेत्रीय संगठनों, जैसे- बिम्सटेक, मेकांग-गंगा सहयोग, आईबीएसए और आईओरआर-एआरसी आदि के साथ सहयोगपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देना।
12. जी-20 तथा यूरोपीय समुदाय जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठनों के साथ सहयोग एवं संबंधों को बढ़ावा देना।
13. संयुक्त राष्ट्र परिषद में सुधार और पुनर्गठन तथा वैश्विक व्यवस्था में बहुध्रवीय कल्पना करना जो संप्रभुता और अहस्तक्षेप के सिद्धांतों का पालन करे।
14. विकसित एवं विकासशील विश्व में समान आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक अधिकारों को बढ़ावा देना।
15. वैश्विक नाभिकीय निः संस्त्रीकरण के लिये प्रयास करना तथा इसे समयबद्ध ढंग से प्राप्त करना।
16. भारतीय डायस्पोरा (diaspora) के साथ निकटता से सतत आधार पर अन्योन्य क्रिया ताकि भारत के साथ इनके संबंधों को मजबूती प्रदान की जा सके और भारत के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में इनकी अहम् भूमिका को मान्यता प्रदान की जा सके।
भारत की ‘पूरब की ओर देखो’ नीति
“भारत की पूरब की ओर देखो नीति” पहली बार 1992 में तत्कालीन प्रधान मंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने अपनाई। तब से यह नीति भारत की विदेश नीति का प्रमुख अंग बन चुकी है। यह नीति भारत की विश्व दृष्टि तथा उभरती हुई अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में भारत के स्थान के प्रति उसकी सोच में एक रणनीतिक बदलाव की ओर संकेत करती है। इसका जोर भारत के पडोसी दक्षिण-पूर्वी तथा पूर्वी एशिया के देशों के साथ सहयोग बढ़ाना है।
यह नीति विविध क्षेत्रों में बहुमुखी प्रयासों को प्रोत्साहित करती है, जैसे-उन्नत संचार, व्यापार एवं निवेश प्रोत्साहन तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान। इस नीति के अंतर्गत जो महत्वपूर्ण प्रगति हुई है वह चीन, बांग्लादेश, म्यांमार, थाईलैंड तथा अन्य आसियान देशों के साथ संवाद/व्यापार स्थापित/शुरू करना है।
इस नीति को विभिन्न क्षेत्रिय समूहों/संगठनों, जैसे- आसियान पूर्व एशिया सम्मेलन, बिम्सटेक (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic co-opera- tion-BIMSTEC) आदि के साथ रचनात्मक सहयोग को आगे बढ़ाना है।
इस नीति जो कि पहले मात्र एक आर्थिक पहलकदमी मानी जा रही थी, के अनेक राजनीतिक तथा क्षेत्रीय आयात सामने आए हैं इसके चलते भारत के दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों के साथ रणनीतिक, सैन्य, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा लोगों के स्तर पर ऐतिहासिक एवं सभ्यतागत संबंध पुनर्जीवित हुए हैं।
भारत का गुजराल सिद्धांत
गुजराल सिद्धात भारत की विदेश नीति का एक मील का पत्थर है। इसका प्रतिपादन 1996 में तत्कालिक देवगौड़ा सरकार के विदेश मंत्री आई.के. गुजराल ने किया था।
यह सिद्धांत इस बात की वकालत करता है कि भारत दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा देश होने के नाते अपने छोटे पड़ोसियों को एकतरफा रियायतें दे। दूसरे शब्दों में, यह सिद्धांत गैर-पारस्परिकता के सिद्धांत के आधार पर अपने छोटे पड़ोसियों के प्रति भारत के नमनशील दृष्टिकोण के आधार पर सूत्रित किया गया है। यह भारत में अपने पडोसियों के साथ सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों को सबसे अधिक महत्व देता है।
यह सिद्धांत वास्तव में भारत के अपने निकटतम पड़ोसियों के साथ वैदेशिक संबंधों को स्थापित करने के लिए एक पाँच सूत्री पथ मानचित्र (रोड मैप) है।
ये पाँच सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:
1. बांग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल तथा श्रीलंका जैसे पड़ोसियों के साथ भारत को पारस्परिकता की अपेक्षा नहीं करके इन्हें नेक नियति से वह सब कुछ प्रदान करना चाहिए जो कि भारत कर सकता है।
2. किसी भी दक्षिण एशियाई देश को क्षेत्र के किसी अन्य देश में हितों के खिलाफ अपनी भूमि का उपयोग नहीं करने देना चाहिए।
3. किसी भी देश को दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नही करना चाहिए।
4. सभी दक्षिण एशियाई देशों को एक-दूसरे की क्षेत्रीय शंतिपूर्ण द्विपक्षीय वार्ताओं के माध्यम से हल करना चाहिए।
5. सभी दक्षिण देशों को अपने विवाद शांतिपूर्ण द्विपक्षीय वार्ताओं के माध्यम से हल करना चाहिए।
गुजराल ने स्वयं स्पष्ट किया था, “गुजराल सिद्धांत के पीछे तर्क यह था कि हमें उत्तर एवं पश्चिम से चूँकि दो मैत्रीपूर्ण पड़ोसियों का सामना करना था। अतः हमें अन्य निकटतम पड़ोसियों के साथ पूर्ण शांति’ की स्थिति सुनिश्चित करनी थी।”
भारत का परमाणु सिद्धांत
भारत ने 2003 में अपना परमाणु सिद्धांत अंगीकार किया। इस सिद्धांत की प्रमुख विशेषताएं निम्नवत हैं:
1. विश्वसनीय न्यूनतम प्रतिरोधक का निर्माण एवं अनुरक्षण
2. “पहले उपयोग नहीं” की मुद्रा-परमाणविक अस्त्र का उपयोग तभी किया जाएगा जब भारतीय भू-भाग पर अथवा भारतीय सुरक्षा बलों पर कहीं भी परमाणविक आक्रमण हुआ हो।
3. पहले हमले का परमाणविक प्रत्युत्तर अत्यंत सघन होगा और उसे इस प्रकार संचालित किया जाएगा कि शत्रु पक्ष को अपूर्णीय और अस्वीकार्य स्तर की क्षति हो।
4. परमाणविक प्रत्युतर आक्रमण के लिए सिर्फ राजनीतिक नेतृत्व ही अधिकृत होगा, जिसमें नियंत्रण में न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी होगी।
5. गैर-परमाणविक देशों के खिलाफ परमाणु अस्त्रों का उपयोग नहीं।
6. तथापि भारत के खिलाफ बड़े हमले अथवा भारतीय सुरक्षा बलों के खिलाफ कहीं भी हमले में यदि जैविक अथवा रासायनिक अस्त्रों का उपयोग किया जाता है तो भारत के पास परमाणु अस्त्रों से प्रत्युत्तर देने का विकल्प उपलब्ध होगा।
7. परमाणु एवं प्रक्षेपास्त्र संबंधी सामग्री तथा प्रौद्योगिकी के निर्यात पर कड़ा नियंत्रण जारी रहेगा, फिसाइल मेटेरियल कट् ऑफ ट्रीटी निगोसिएशन (Fissile Material Cutoff Treaty Negotiations) में सहभागिता तथा परमाणु परीक्षणों पर रोक जारी रहेगी।
8. परमाणुमुक्त विश्व के लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता जारी रहेगी और इसके लिए विश्वस्तरीय सत्यापन योग्य तथा भेदभाव मुक्त परमाणु निःशस्त्रीकरण के विचार को आगे बढ़ाया जाएगा।
न्युक्लियर कमांड अथॉरिटी के अंतर्गत एक राजनीतिक परिषद् तथा एक कार्यकारी परिषद् होती है। राजनीतिक परिषद् के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं। यही वह निकाय है जो परमाणु अस्त्रों के उपयोग के लिए अधिकृत कर सकती है।
कार्यकारी परिषद् के अध्यक्ष राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार होते हैं। यह न्युक्लियर कमांड अथॉरिटी को निर्णय लेने के लिए जरूरी सूचनाएँ (इनपुट) प्रदान करती है तथा राजनीतिक परिषद् द्वारा किए गए निर्देशों को कार्यान्वयन करती है।
सुरक्षा के लिए मंत्रिमंडलीय समिति (CCS) में भारत के परमाणु सिद्धांत के कार्यान्वयन संबंधी प्रगति की समीक्षा की। इस समिति ने वर्तमान आदेशात्मक एवं नियंत्रणकारी संरचनाओं, तत्परता का स्तर, प्रत्याक्रमण के लिए रणनीति निर्माण तथा सावधानी और लांच के विभिन्न चरणों के लिए संचालन प्रक्रिया आदि की समीक्षा की। समिति ने कुल तैयारी की स्थिति पर संतोष व्यक्त किया।
समिति ने रणनीति बलों के प्रशासन एवं प्रबंधन के लिए सर्वोच्च कमांडर (कमांडर इन चीफ), रणनीति बल कमान की नियुक्ति की स्वीकृति दी। इस समिति ने जवाबी परमाणु आक्रमण के लिए कमान की वैकल्पिक कड़ियों की व्यवस्था की भी समीक्षा की और अपनी स्वीकृति दी।
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