आरंभिक मानव : आखिर वे इधर-उधर क्यों घूमते थे?
हम उन लोगों के बारे में जानते हैं, जो इस उपमहाद्वीप में बीस लाख साल पहले रहा करते थे। आज हम उन्हें आखेटक खाद्य संग्राहक के नाम से जानते हैं। भोजन का इंतज़ाम करने की विधि के आधार पर उन्हें इस नाम से पुकारा जाता है। आमतौर पर खाने के लिए वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे, मछलियाँ और चिड़िया पकड़ते थे, फल-मूल, दाने, पौधे-पत्तियाँ, अंडे इकट्ठा किया करते थे।
हमारे उपमहाद्वीप जैसे गर्म देशों में पेड़-पौधों की अनगिनत प्रजातियाँ मिलती हैं। इसीलिए पेंड़-पौधों से मिलने वाले खाद्य पदार्थ भोजन के अत्यंत महत्वपूर्ण स्त्रोत थे।
लेकिन यह सब कर पाना बिल्कुल आसान नहीं था। ऐसे कई जानवर हैं, जो हमसे ज़्यादा तेज़ भाग सकते हैं और बहुत-से जानवर हम से ज़्यादा ताकतवर भी होते हैं। जानवरों के शिकार, चिड़िया या मछलियाँ पकड़ने के लिए बड़ा सतर्क, जागरूक और तेज़ होना पड़ता है। पेड़-पौधों से खाना जुटाने के लिए यह जानना जरूरी होता है, कि कौन-से पेड़-पौधे खाने योग्य होते हैं, क्योंकि कई तरह के पौधे विषैले भी होते हैं। साथ ही फलों के पकने के समय की जानकारी भी ज़रूरी होती है।
आखेटक खाद्य संग्राहक समुदाय के लोगों के एक जगह से दूसरी जगह पर घूमते रहने के पीछे कम से कम चार कारण हो सकते हैं।
पहला कारण यह कि अगर वे एक ही जगह पर ज्यादा दिनों तक रहते तो आस-पास के पौधों, फलों और जानवरों को खाकर समाप्त कर देते थे। इसलिए और भोजन की तलाश में इन्हें दूसरी जगहों पर जाना पड़ता था।
दूसरा कारण यह कि जानवर अपने शिकार के लिए या फिर हिरण और मवेशी अपना चारा ढूँढ़ने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाया करते हैं। इसीलिए, इन जानवरों का शिकार करने वाले लोग भी इनके पीछे-पीछे जाया करते होंगे।
तीसरा कारण यह कि पेड़ों और पौधों में फल-फूल अलग-अलग मौसम में आते हैं, इसीलिए लोग उनकी तलाश में उपयुक्त मौसम के अनुसार अन्य इलाकों में घूमते होंगे।
और चौथा कारण यह है कि पानी के बिना किसी भी प्राणी या पेड़-पौधे का जीवित रहना संभव नहीं होता और पानी झीलों, झरनों तथा नदियों में ही मिलता है। यद्यपि कई नदियों और झीलों का पानी कभी नहीं सूखता, कुछ झीलों और नदियों में पानी बारिश के बाद ही मिल पाता है। इसीलिए ऐसी झीलों और नदियों के किनारे बसे लोगों को सूखे मौसम में पानी की तलाश में इधर-उधर जाना पड़ता होगा। इसके अलावा लोग अपने नाते-रिश्तेदारों या मित्रों से मिलने भी जाया करते होंगे। यहाँ यह स्मरण रखना जरूरी है, कि ये सभी लोग पैदल यात्रा किया करते थे।
पुरातत्त्वविदों को कुछ ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जिनका निर्माण और उपयोग आखेटक-खाद्य संग्राहक किया करते थे। यह संभव है कि लोगों ने अपने काम के लिए पत्थरों, लकड़ियों और हड्डियों के औज़ार बनाए हों। इनमें से पत्थरों के औज़ार आज भी बचे हैं।
पत्थर से बने औजारों का उपयोग
बाएं : इंसान के खाने योग्य जड़ों को खोदने के लिए किया जाता था, और दाएं : जानवरों की खाल से बने वस्त्रों को सिलने के लिए किया जाता था।
पत्थर के औज़ारों का उपयोग बाएँ : इंसान के खाने योग्य जड़ों को खोदने के लिए किया जाता था, और दाएँ : जानवरों की खाल से बने वस्त्रों को सिलने के लिए किया जाता था।
यहाँ पत्थरों के औज़ारों के कुछ उपयोग बताए गए हैं। ऐसे कामों की एक सूची बनाओ जिनमें इस तरह के औज़ार काम आते हैं। बताओ कि इनमें से कौन-कौन से काम सामान्य पत्थरों से किए जा सकते हैं। कारण सहित उत्तर दो।
इनमें से कुछ औज़ारों का उपयोग फल-फूल काटने, हड्डियाँ और मांस काटने तथा पेड़ों की छाल और जानवरों की खाल उतारने के लिए किया जाता था। कुछ के साथ हड्डियों या लकड़ियों के मुझे लगा कर भाले और बाण जैसे हथियार बनाए जाते थे। कुछ औज़ारों से लकड़ियाँ काटी जाती थीं। लकड़ियों का उपयोग ईंधन के साथ-साथ झोपड़ियाँ और औज़ार बनाने के लिए भी किया जाता था।
रहने की जगह निर्धारित करना
मानचित्र 2 को देखो। लाल त्रिकोण वाले स्थान वे पुरास्थल हैं जहाँ पर आखेटक-खाद्य संग्राहकों के होने के प्रमाण मिले हैं। इनके अलावा भी और कई स्थानों पर आखेटक खाद्य संग्राहक रहते थे। मानचित्र में सिर्फ़ कुछ गिने-चुने स्थान ही चिह्नित किए गए हैं। कई पुरास्थल नदियों और झीलों के किनारे पाए गए हैं।
चूंकि पत्थर के उपकरण बहुत महत्वपूर्ण थे इसलिए लोग ऐसी जगह ढूँढ़ते रहते थे, जहाँ अच्छे पत्थर मिल सकें। जहाँ लोग पत्थरों से औज़ार बनाते थे, उन स्थलों को उद्योग-स्थल कहते हैं।
हमें इन उद्योग-स्थलों के बारे में जानकारी कैसे मिलती है? आमतौर पर हमें ऐसी जगहों पर पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े मिलते हैं, और ऐसे उपकरण मिलते हैं, जिन्हें लोग इन स्थलों पर छोड़ गए होंगे क्योंकि वे ठीक नहीं बने होंगे। साथ ही औज़ार बनाने के बाद पत्थरों के टूटे-फूटे टुकड़े भी इन स्थलों पर मिलते हैं। कभी-कभी लोग इन स्थलों पर कुछ ज़्यादा समय तक रहा करते थे। ऐसे स्थलों को आवासीय और उद्योग-स्थल कहते हैं।
भीमबेटका (आधुनिक मध्य प्रदेश)
आवासीय पुरास्थल उन्हें कहते हैं जहाँ लोग रहा करते थे। इनमें गुफाओं और कन्दराओं जैसे वे स्थल होते हैं, जिन्हें यहाँ दर्शाया गया है। लोग इन गुफाओं में इसलिए रहते थे, क्योंकि यहाँ उन्हें बारिश, धूप और हवाओं से राहत मिलती थी। ऐसी प्राकृतिक गुफाएँ विंध्य और दक्कन के पर्वतीय इलाकों में मिलती हैं जो नर्मदा घाटी के पास हैं।
क्या तुम बता सकते हो कि रहने के लिए लोगों ने यह जगह क्यों चुनी होगी?
अगर तुम्हें अपने निवास स्थान के बारे में बताना पड़े तो तुम इनमें से कौन-सा नाम चुनोगे?
(क) आवास
(ख) उद्योग-स्थल
(ग) आवास और उद्योग-स्थल
(घ) अन्य
पुरास्थल
पुरास्थल उस स्थान को कहते हैं जहाँ औजार, बर्तन और इमारतों जैसी वस्तुओं के अवशेष मिलते हैं। ऐसी वस्तुओं का निर्माण लोगों ने अपने काम के लिए किया था और बाद में वे उन्हें वहीं छोड़ गए। ये ज़मीन के ऊपर, अन्दर, कभी-कभी समुद्र और नदी के तल में भी पाए जाते हैं। इन पुरास्थलों के बारे में आपको अगले अध्यायों में बताया जाएगा।
पाषाण औज़ारों का निर्माण
पाषाण उपकरणों को प्रायः दो तरीकों से बनाया जाता था।
1. पत्थर से पत्थर को टकराना। यानी जिस पत्थर से कोई औज़ार बनाना होता था, उसे एक हाथ में लिया जाता था, और दूसरे हाथ से एक पत्थर का हथौड़ी जैसा इस्तेमाल होता था। इस तरह आघात करने वाले पत्थर से दूसरे पत्थर पर तब तक शल्क निकाले जाते हैं जब तक वांछित आकार वाला उपकरण न बन जाए।
2. दूसरे तरीके को ‘दबाव शल्क-तकनीक’ कहा जाता है। इसमें क्रोड को एक स्थिर सतह पर टिकाया जाता है और इस क्रोड पर हड्डी या पत्थर रखकर उस पर हथौड़ीनुमा पत्थर से शल्क निकाले जाते हैं जिससे वांछित उपकरण बनाए जाते हैं।
आग की खोज
मानचित्र 2 में कुरनूल गुफा ढूँढ़ो । यहाँ राख के अवशेष मिले हैं। इसका मतलब यह है कि आरंभिक लोग आग जलाना सीख गए थे। आग का इस्तेमाल कई कार्यों के लिए किया गया होगा जैसे कि प्रकाश के लिए, मांस पकाने के लिए और खतरनाक जानवरों को दूर आदि भगाने के लिए।
आज हम आग का उपयोग किसलिए करते हैं?
बदलती जलवायु लगभग 12,000 साल पहले दुनिया की जलवायु में बड़े बदलाव आए और गर्मी बढ़ने लगी। इसके परिणामस्वरूप कई क्षेत्रों मैं घास वाले मैदान बनने लगे। इससे हिरण, बारहसिंघा, भेड़, बकरी और गाय जैसे उन जानवरों की संख्या बढ़ी, जो घास खाकर जिन्दा रह सकते हैं। ।
जो लोग इन जानवरों का शिकार करते थे, वे भी इनके पीछे आए और इनदेः खाने-पीने की आदतों और प्रजनन के समय की जानकारी हासिल करने लगे। हो सकता है कि तब लोग इन जानवरों को पकड़ कर अपनी ज़रूरत के अनुसार पालने की बात सोचने लगे हों। साथ ही इस काल में मछली भी भोजन का महत्वपूर्ण स्त्रोत बन गई।
इसी दौरान उपमहाद्वीप के भिन्न-भिन्न इलाकों में गेहूँ, जौ और धान जैसे अनाज प्राकृतिक रूप से उगने लगे थे। शायद महिलाओं, पुरुषों और बच्चों ने इन अनाजों को भोजन के लिए बटोरना शुरू कर दिया होगा।
नाम और तिथियाँ
हम जिस काल के बारे में पढ़ रहे हैं, पुरातत्त्वविदों ने उनके बड़े-बड़े नाम रखे हैं। आरंभिक काल को वे पुरापाषाण काल कहते हैं। यह दो शब्दों पुरा यानी ‘प्राचीन’, और पाषाण यानी ‘पत्थर’ से बना है। यह नाम पुरास्थलों से प्राप्त पत्थर के औज़ारों के महत्त्व को बताता है। पुरापाषाण काल बीस लाख साल पहले से 12,000/ साल पहले के दौरान माना जाता है। इस काल को भी तीन भागों में विभाजित किया गया है ‘आरंभिक’, ‘मध्य’ एवं ‘उत्तर’ पुरापाषाण युग। मानव इतिहास की लगभग 99 प्रतिशत कहानी इसी काल के दौरान घटित हुई। जिस काल में हमें पर्यावरणीय बदलाव मिलते हैं. उसे ‘मेसोलिथ’ यानी मध्यपाषाण युग कहते हैं। इसका समय लगभग 12,000 साल पहले से लेकर 10,000 साल पहले तक माना गया है। इस काल के पाषाण औजार आमतौर पर बहुत छोटे होते थे। इन्हें ‘माइक्रोलिथ’ यानी लघुपाषाण कहा जाता है। प्रायः इन औजारों में हड्डियों या लकड़ियों के मुझे लगे हौंसया और आरी जैसे औजार मिलते थे। साथ-साथ पुरापाषाण युग वाले औजार भी इस दौरान बनाए जाते रहे।
अगले युग की शुरुआत लगभग 10,000 साल पहले से होती है। इसे नवपाषाण युग कहा जाता है। अगले अध्याय में तुम नवपाषाण युग के बारे में पढ़ोगे।
नवपाषाण का क्या मतलब होता होगा?
हमने कुछ स्थानों के नाम दिए हैं। अगले अध्यायों में तुम्हें ऐसे अनेक नाम मिलेंगे। अक्सर हम पुराने स्थानों के लिए उन नामों का प्रयोग करते हैं, जो आज प्रचलित हैं, क्योंकि हमें ज्ञात नहीं है कि उस काल में इनके क्या नाम रहे होंगे।
साथ ही वे यह भी सीखने लगे होंगे कि यह अनाज कहाँ उगते थे और कब पककर तैयार होते थे। ऐसा करते-करते लोगों ने इन अनाजों को खुद पैदा करना सीख लिया होगा।
शैल चित्रकला : इनसे हमें क्या पता चलता है?
जिन गुफाओं में लोग रहते थे, उनमें से कुछ की दीवारों पर चित्र मिले हैं। *इनमें कुछ सुन्दर उदाहरण मध्य प्रदेश और दक्षिणी उत्तर प्रदेश की गुफाओं से मिले चित्र हैं। इनमें जंगली जानवरों का बड़ी कुशलता से सजीव चित्रण किया गया है।
कौन क्या करता था?
हमने पढ़ा कि आरंभिक लोग शिकार तथा फल-मूल का संग्रह किया करते थे। वे पत्थरों के औज़ार और गुफाओं में चित्र बनाते थे। क्या हमें कोई ऐसे साक्ष्य मिलते हैं जिनसे पता चले कि महिलाएँ शिकार करती थीं या पुरुष औज़ार बनाते थे या फिर महिलाएँ चित्रकारी करती थीं और पुरुष फल-मूल इकट्ठा करते थे? वास्तव में, हमें इसका ज्ञान नहीं है। लेकिन दो बातें हो सकती हैं। महिला और पुरुष दोनों ने मिलकर कई काम एक साथ किया होगा। यह भी संभव है, कि कुछ तरह के काम केवल महिलाएँ करती थीं और कुछ केवल पुरुष। इसके अलावा उपमहाद्वीप के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग परम्पराएँ भी रही होंगी।
भारत में शुतुरमुर्ग !
भारत में पुरापाषाण युग के दौरान शुतुरमुर्ग होते थे। महाराष्ट्र के पटने पुरास्थल से शुतुरमुर्ग के अंडों के अवशेष मिले हैं। इनके कुछ छिलकों पर चित्रांकन भी मिलता है। इन अंडों से मनके भी बनाए जाते थे।,
इन मनकों का उपयोग किसलिए किया गया होगा? आज हमें शुतुरमुर्ग कहाँ मिलते हैं?
हुस्गी का सूक्ष्म निरीक्षण
मानचित्र 2 पर हँस्गी ढूंढ़िए। यहाँ पर पुरापाषाण युग के कई पुरास्थल मिले थे। कुछ पुरास्थलों से अलग-अलग कार्यों में लाए जाने वाले कई प्रकार के औजार मिले थे। ये संभवतः आवास और उद्योग-स्थल रहे होंगे। कुछ छोटे पुरास्थलों में भी औजारों के बनाए जाने के प्रमाण मिले हैं। इनमें से कुछ पुरास्थल झरनों के निकट थे। अधिकांश औजार चूना पत्थरों से बनाए जाते थे।
बदलती जलवायु
लगभग 12,000 साल पहले दुनिया की जलवायु में बड़े बदलाव आए और गर्मी बढ़ने लगी। इसके परिणामस्वरूप कई क्षेत्रों में घास वाले मैदान बनने लगे। इससे हिरण, बारहसिंघा, भेड़, बकरी और गाय जैसे उन जानवरों की संख्या बढ़ी, जो घास खाकर जिन्दा रह सकते हैं।
जो लोग इन जानवरों का शिकार करते थे, वे भी इनके पीछे आए और इनके खाने-पीने की आदतों और प्रजनन के समय की जानकारी हासिल करने लगे। हो सकता है कि तब लोग इन जानवरों को पकड़ कर अपनी जरूरत के अनुसार पालने की बात सोचने लगे हों। साथ ही इस काल में मछली भी भोजन का महत्वपूर्ण स्रोत बन गई।
खेती और पशुपालन की शुरुआत
इसी दौरान उपमहाद्वीप के भिन्न-भिन्न इलाकों में गेहूँ, जौ और धान जैसे अनाज प्राकृतिक रूप से उगने लगे थे। शायद महिलाओं, पुरुषों और बच्चों ने इन अनाजों को भोजन के लिए बटोरना शुरू कर दिया होगा। साथ ही वे यह भी सीखने लगे होंगे कि यह अनाज कहाँ उगते थे और कब पककर तैयार होते थे। ऐसा करते-करते लोगों ने इन अनाजों को खुद पैदा करना सीख लिया होगा। इस प्रकार धीरे-धीरे वे कृषक बन गए होंगे।
इसी तरह लोगों ने अपने घरों के आस-पास चारा रखकर जानवरों को आकर्षित कर उन्हें पालतू बनाया होगा। सबसे पहले जिस जंगली जानवर को पालतू बनाया गया वह कुत्ते का जंगली पूर्वज था। धीरे-धीरे लोग भेड़, बकरी, गाय और सूअर जैसे जानवरों को अपने घरों के नज़दीक आने को उत्साहित करने लगे। ऐसे जानवर झुण्ड में रहते थे और ज़्यादातर घास खाते थे। अक्सर लोग अन्य जंगली जानवरों के आक्रमण से इनकी सुरक्षा किया करते थे और इस तरह धीरे-धीरे वे पशुपालक बन गए होंगे।
क्या तुम बता सकती हो कि सबसे पहले कुत्तों को ही पालतू क्यों बनाया गया?
घरेलूकरण की प्रक्रिया
लोगों द्वारा पौधे उगाने और जानवरों की देखभाल करने को ‘बसने की प्रक्रिया’ का नाम दिया गया है। अपनाए गए ये पौधे तथा जानवर अक्सर जंगली पौधों तथा जानवरों से भिन्न होते हैं। इसकी वजह यह है कि बसने की प्रक्रिया की दिशा में अपनाए गए पौधों या जानवरों का लोग चयन करते हैं। उदाहरण के तौर पर लोग उन्हीं पौधों तथा जानवरों का चयन करते हैं जिनके बीमार होने की संभावना कम हो। यही नहीं, लोग उन्हीं पौधों को चुनते हैं जिनसे बड़े दाने वाले अनाज पैदा होते हैं; साथ ही जिनकी मजबूत डंठले अनाज के पके दानों के भार को संभाल सकें। ऐसे पौधों के बीजों को संभालकर रखा जाता है ताकि फिर से उगाने के लिए उनके गुण सुरक्षित रह सकें।
उन्हीं जानवरों को आगे प्रजनन के लिए चुना जाता है, जो आमतौर पर अहिंसक होते हैं। इसलिए हम देखते हैं कि पाले गए जानवर तथा कृषि के लिए अपनाए गए पौधे, जंगली जानवरों तथा पौधों से धीरे-धीरे भिन्न होते गए। मिसाल के तौर पर जंगली जानवरों की तुलना में पालतू जानवरों के दाँत और सींग छोटे होते हैं। इन दाँतों को देखो। इनमें से कौन-सा जंगली सूअर का है और कौन-सा पालतू सूअर का?
बसने की प्रक्रिया पूरी दुनिया में धीरे-धीरे चलती रही। यह करीब 12,000 साल पहले शुरू हुई। वास्तव में आज हम जो भोजन करते हैं वो इसी बसने की प्रक्रिया की वजह से है। कृषि के लिए अपनाई गई सबसे प्राचीन फ़सलों में गेहूँ तथा जौ आते हैं, उसी तरह सबसे पहले पालतू बनाए गए जानवरों में कुत्ते के बाद भेड़-बकरी आते हैं।
एक नवीन जीवन-शैली
तुम किसी पौधे के बीज को बो कर देखो, तुम पाओगी कि इसे विकसित होने में कुछ वक्त लगता है। इसमें कुछ दिन, महीने या फिर साल तक लग सकता है। इसलिए जब लोग पौधे उगाने लगे तो उनकी देखभाल के लिए उन्हें एक ही जगह पर लंबे समय तक रहना पड़ा था। बीज बोने से लेकर फ़सलों के पकने तक, पौधों की सिंचाई करने, खरपतवार हटाने, जानवरों और चिड़ियों से उनकी सुरक्षा करने जैसे बहुत-से काम शामिल थे। कटाई के बाद, अनाज का उपयोग बहुत संभाल कर करना पड़ता था।
अनाज को भोजन और बीज, दोनों ही रूपों में बचा कर रखना आवश्यक था, इसलिए लोगों को इसके भंडारण की बात सोचनी पड़ी। बहुत-से इलाकों में लोगों ने मिट्टद्धी के बड़े-बड़े बर्तन बनाए, टोकरियाँ बुनीं या फिर जमीन में गड्डा खोदा। क्या तुम्हें लगता है कि शिकारी या भोजन-संग्रह करने वाले बर्तन बनाते और उनका प्रयोग करते होंगे? अपने जवाब का कारण बताओ।
जानवर : चलते-फिरते ‘खाद्य-भंडार’
जानवर बच्चे देते हैं जिससे उनकी संख्या बढ़ती है। अगर जानवरों की देखभाल की जाए तो उनकी संख्या तो बढ़ती ही है साथ ही उनसे दूध भी प्राप्त हो सकता है जो भोजन का एक अच्छा स्रोत है। यही नहीं जानवरों से हमें मांस भी मिलता है। दूसरे शब्दों में, पशु-पालन भोजन के ‘भंडारण’ का एक तरीका है।
भोजन के अतिरिक्त जानवरों से और क्या-क्या मिल सकता है?
आज जानवरों का उपयोग किस लिए होता है?
आओ, आरंभिक कृषकों और पशुपालकों के बारे में पता करें ?
मानचित्र 2 देखो। क्या तुम्हें कई नीले वर्ग दिख रहे हैं? पता है, इनमें से प्रत्येक बिंदु उस जगह को दर्शाता है, जहाँ पुरातत्त्वविदों को शुरुआती कृषकों और पशुपालकों के होने के साक्ष्य मिले हैं। ये पूरे उपमहाद्वीप में पाए गए हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण पश्चिमोत्तर क्षेत्र में, आधुनिक कश्मीर में, और पूर्वी तथा दक्षिण भारत में पाए गए हैं।
वास्तव में ये निर्दिष्ट स्थान कृषकों और पशुपालकों की बस्तियाँ थीं या नहीं, इसे जाँचने के लिए वैज्ञानिक खुदाई में मिले पौधों और पशुओं की हड्डियों के नमूनों का अध्ययन करते हैं। इनमें से सबसे रोचक जले हुए अनाज के दानों के अवशेष हैं। ऐसा लगता है कि ये गलती से या फिर जानबूझ कर जलाए गए होंगे। वैज्ञानिक इन अनाज के दानों की पहचान कर सकते हैं। इस तरह हमें पता चलता है कि इस उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में बहुत सारी फ़सलें उगाई जाती रही होंगी। वैज्ञानिक विभिन्न जानवरों की हड्डियों की भी पहचान कर सकते हैं।
स्थायी जीवन की ओर
पुरातत्त्वविदों को कुछ पुरास्थलों पर झोपड़ियों और घरों के निशान मिले हैं। जैसे कि बुर्जहोम (वर्तमान कश्मीर में) के लोग गड्ढे के नीचे घर बनाते थे जिन्हे गर्तवास कहा जाता है। इनमें उतरने के लिए सीढ़ियाँ होती थीं। इससे उन्हें ठंढ के मौसम में सुरक्षा मिलती होगी। पुरातत्त्वविदों को झोपड़ियों के अंदर और बाहर दोनों ही स्थानों पर आग जलाने की जगहें मिली हैं। ऐसा लगता है कि लोग मौसम के अनुसार घर के अंदर या बाहर खाना पकाते होंगे।
बहुत सारी जगहों से पत्थर के औज़ार भी मिले हैं। इनमें से कई ऐसे हैं, जो पुरापाषाणयुगीन उपकरणों से भिन्न हैं। इसीलिए इन्हें नवपाषाण युग का माना गया है। इनमें वे औज़ार भी हैं, जिनकी धार को और अधिक पैना करने के लिए उन पर पॉलिश चढ़ाई जाती थी। ओखली और मूसल का प्रयोग अनाज तथा वनस्पतियों से प्राप्त अन्य चीज़ों को पीसने के लिए किया जाता था। आज हजारों साल बाद भी ओखली और मूसल का प्रयोग अनाज पीसने के लिए किया जाता है। उसी तरह प्राचीन प्रस्तरयुगीन औज़ारों का निर्माण और प्रयोग लगातार होता रहा। कुछ औज़ार हड्डियों से भी बनाए जाते थे।
नवपाषाण युग के पुरास्थलों से कई प्रकार के मिट्टी के बर्तन मिले हैं। कभी-कभी इन पर अलंकरण भी किया जाता था। बर्तनों का उपयोग चीज़ों को रखने के लिए किया जाता था। धीरे-धीरे लोग बर्तनों का प्रयोग खाना बनाने के लिए भी करने लगे। चावल, गेहूँ तथा दलहन जैसे अनाज अब आहार का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए थे। इसके साथ-साथ अब लोग कपड़े भी बुनने लगे थे। इसके लिए कपास जैसे आवश्यक पौधे उगाए जा सकते थे।
क्या ये परिवर्तन हर जगह एक साथ ही आ गए होंगे? ऐसी बात नहीं है। एक तरफ़ जहाँ कई जगहों पर स्त्री-पुरुष शिकार और भोजन-संग्रह करने का काम करते रहे थे वहीं अन्य लोगों ने हज़ारों सालों के दरम्यान धीरे-धीरे खेती और पशुपालन को अपना लिया। बहुत जगह लोग मौसम के मुताबिक बदल-बदल कर अपनी जीविका चलाया करते थे।
सूक्ष्म-निरीक्षण
मेहरगढ़ में जीवन-मृत्यु
मानचित्र 2 में मेहरगढ़ ढूँढ़ो। यह ईरान जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण रास्ते, बोलन दरें के पास एक हराभरा समतल स्थान है। मेहरगढ़ संभवतः वह स्थान है, जहाँ के स्त्री-पुरुषों ने, इस इलाके में सबसे पहले जौ, गेहूँ उगाना और भेड़-बकरी पालना सीखा।
यहाँ विभिन्न प्रकार के जानवरों की हड्डियाँ मिलीं। इनमें हिरण तथा सूअर जैसे जंगली जानवरों तथा भेड़ और बकरियों की हड्डियाँ हैं।
मेहरगढ़ के घर का चित्र।
मेहरगढ़ में इसके अलावा चौकोर तथा आयताकार घरों के अवशेष भी मिले हैं। प्रत्येक घर में चार या उससे ज़्यादा कमरे हैं, जिनमें से कुछ संभवतः भंडारण के काम आते होंगे।
मत्यु के बाद सामान्यतया मृतक के सगे संबंधी उसके प्रति सम्मान जताते हैं। लोगों की आस्था है कि मृत्यु के बाद भी जीवन होता है। इसीलिए कब्रों में मृतकों के साथ कुछ सामान भी रखे जाते थे। मेहरगढ़ में ऐसी कई कब्रें मिली हैं। एक कब्र में एक मृतक के साथ एक बकरी को भी दफ़नाया गया था। संभवतः इसे परलोक में मृतक के खाने के लिए रखा गया होगा।
यह भी पढ़ें: क्या ,कब, कहां और कैसे? : अध्याय-1
अन्यत्र
अपने एटलस में फ्रांस ढूँढ़ो। यह चित्र फ्रांस की एक गुफा का है। इस पुरास्थल की खोज लगभग 100 साल पहले चार स्कूली छात्रों ने की थी। इस तरह के चित्र लगभग 20,000 साल पहले से लेकर 10,000 साल पहले के बीच बनाए गए होंगे। इनमें कई जानवरों के चित्र हैं। इनमें जंगली घोड़े, गाय, भैंस, गैंडा, रेनडीयर, बारहसिंघा और सूअरों को गहरे चमकीले रंगों से चित्रित किया गया है।
इन रंगों को लौह अयस्क और चारकोल जैसे खनिज पदार्थों से बनाया जाता था। यह संभव है कि इन चित्रों को उत्सवों के अवसर पर बनाया जाता था या फिर इन्हें शिकारियों द्वारा शिकार पर निकलने से पहले कुछ अनुष्ठानों के लिए बनाया गया होगा।
क्या तुम इन्हें बनाने का कोई और कारण बता सकते हो?
आओ याद करें
1. इन वाक्यों को पूरा करो।
(क) आखेटक-खाद्य संग्राहक गुफाओं में इसलिए रहते थे क्योंकि यहां उन्हें बारिश, धूप और हवाओं से राहत मिलती थी।
(ख) घास वाले मैदानों का विकास 12000 साल पहले हुआ।
(ग) आरंभिक लोगों ने गुफाओं की दीवारों पर चित्र बनाए।
(घ) हुँस्गी में चुने के पत्थर से औज़ार बनाए जाते थे।
2. उपमहाद्वीप के आधुनिक राजनीतिक मानचित्र को पृष्ठ 136 पर देखो। उन राज्यों को ढूँढ़ो जहाँ भीमबेटका, हुँस्गी और कुरनूल स्थित हैं। क्या तुषार की रेल इन जगहों के पास से होकर गई होगी?
Ans. भीमबेटका – आधुनिक मध्य प्रदेश में
हुँस्गी – कर्नाटक
कुरनूल-आंध्र प्रदेश में
हां, तुषार की रेल इन जगहों के पास से होकर गई होगी, क्योंकि ये स्थान उसकी यात्रा के मार्ग में ही पड़ते हैं।
3. आखेटक-खाद्य संग्राहक एक स्थान से दूसरे स्थान पर क्यों घूमते रहते थे? उनकी यात्रा और आज की हमारी यात्रा के कारणों में क्या समानताएँ या क्या भिन्नताएँ हैं?
Ans. शिकारी-खादय संग्राहक समुदाय के लोग मुख्य रूप से चार कारणों से घूमते रहते थे। ये कारण निम्नलिखित थे-
1. भोजन की तलाश – जब वे एक ही जगह पर अधिक दिनों तक रहते थे तो वे वहां के पौधों, फलों और जानवरों को खाकर समाप्त कर देते थे। इसलिए और भोजन की तलाश में उन्हें दूसरी जगहों पर जाना पड़ता था।
2. जानवरों का पीछा करना- मांस खाने वाले जानवर अपने शिकार के लिए तथा हिरण और मवेशी अपना चारा ढूंढ़ने के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाया करते थे। अतः इन जानवरों का शिकार करने वाले लोगों को उनके पीछे-पीछे जाना पड़ता था।
3. फल-फूलों के अलग- अलग मौसम-पेड़ों ओर पौधों में फल-फूल अलग-अलग मौसम में आते हैं। इसीलिए लोग उनकी तलाश में उपयुक्त मौसम के अनुसार स्थान-स्थान पर घूमते रहते थे।
4. पानी की तलाश- पानी के बिना किसी भी प्राणी या पेड़-पोधों का जीवित रहना संभव नहीं है और पानी झीलों, झरनों तथा नदियों में ही मिलता है। यह ठीक है कि कई नदियों और झीलों का पानी कभी नहीं सूखता, फिर भी झीलों और नदियों में पानी बारिश के बाद ही मिल पाता है। इसीलिए ऐसी झीलों तथा नदियों के किनारे बसे लोगों को सूखे मौसम में पानी की तलाश में इधर- उधर जाना पड़ता था।
यात्रा के कारणों में समानताएं – आज भी चरवाहे अपने जानवरों के लिए चारे और पानी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं।
यात्रा के कारणों में असमानताएं –
(1) आज का मानव स्वयं अनाज उगाता है। उसे भोजन के लिए स्थान-स्थान पर घूमना नहीं पड़ता।
(2) आज व्यापारी व्यापार के लिए स्थान-स्थान की यात्रा करते हैं।
(3) आज हम विभिन्न स्थानों पर रहने वाले अपने रिश्तेदारों तथा मित्रों से मिलने के लिए यात्रा करते हैं।
4. आज तुम फल काटने के लिए कौन-से औज़ार चुनोगे? वह औज़ार किस चीज़ से बना होगा?
Ans. आज फल काटने के लिए हम चाकू या छुरी का प्रयोग करेंगे। यह औज्ञार लोहे अथवा स्टील से बना होगा।
5. आखेटक-खाद्य संग्राहक आग का उपयोग किन-किन चीजों के लिए करते थे? क्या तुम आज आग का उपयोग इनमें से किसी चीज़ के लिए करोगे !
Ans. शिकारी-खादय संग्राहक आग का प्रयोग कई प्रकार से करता था-
(1) प्रकाश के लिए
(2) मांस पकाने के लिए
(3) खतरनाक जानवरों को दूर भगाने के लिए
हां, आज भी हम आग का उपयोग प्रकाश के लिए तथा माँस पकाने के लिए करते हैं।
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