आनुवंशिकी (Genetics) जीव विज्ञान की वह शाखा हैं, जिसमें विभिन्न लक्षणों को नियंत्रित करने वाले कारकों या जीनों के जनकों से संततियों में पारगमन, यानि वंशागति, के नियमों का अध्ययन किया जाता है। लक्षण का तात्पर्य किसी जीव की किसी आकारिकीय, शारीरीय, जैवरासायनिक अथवा व्यावहारिक विशेषता से है। उदाहरणार्थ, मनुष्य में आँखों का रंग, कान पर बालों का होना, हाथ या पैर में छः अंगुलियों का पाया जाना, ऊपरी होंठों का नाक तक फटा होना आदि आकारिकीय लक्षण हैं, आनुवंशिकी में उन नियमों का अध्ययन किया जाता है, जिनके अनुसार विभिन्न लक्षण उत्पन्न करने वाले जीन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाते हैं। जीन वह प्रकार्यात्मक (functional) इकाई है, जो किसी जीव के किसी लक्षण विशेष (Special Character) के परिवर्धन को नियंत्रित करता है।
कोशिकानुवंशिकी (Cytogenetics) का जन्म जीवविज्ञान की दो शाखाओं, कोशिका विज्ञान एवं आनुवंशिकी के संयोग से हुआ। कोशिका विज्ञान में कोशिका की आंतरिक संरचना एवं प्रकार्यात्मक संगठन का अध्ययन किया जाता है। कोशिकानुवंशिकी में कोशिका के उन कोशिकांगों की संरचना एवं प्रकार्य का अध्ययन किया जाता है, जिनमें जीन अथवा आनुवंशिक द्रव्य होता है। परिणामस्वरूप, इन कोशिकांगों, अर्थात् क्रोमोसोमों को वंशागति का भौतिक आधार (physical basis of inheritance) कहा जाता है, और क्रोमोसोमों से सम्बन्धित अध्ययन को कोशिकानुवंशिकी की संज्ञा दी गई है।
आनुवंशिकी एवं कोशिकानुवंशिकी में एक सर्वमान्य तथ्य, जिसकी प्रायः चर्चा नहीं की जाती, यह है कि किसी भी जीव की उत्पत्ति उसी प्रकार के पूर्ववर्ती (pre-existing) जीव से होती है। अतः कोई भी जीव उसी प्रकार के पूर्ववर्ती जीव की सन्तति होता है, और उसका स्वतः उद्भव (Spontaneous generation) नहीं होता हैं।
किन्तु अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य तक करीब-करीब सभी जीव वैज्ञानिकों को विश्वास था कि बहुत सारे आदिम (primitive) जीव, जैसे मक्खी, गुबरैले, अन्य कीड़े, बैक्टीरिया, प्रोटोजोआ आदि, सड़ रहे जैव (organic) पदार्थों से अपने आप उत्पन्न होते हैं। अर्थात् इन जीवों की उत्पत्ति पिछली पीढ़ी के जीवों से न होकर सड़ रहे जैव पदार्थों से स्वतः (spontaneously) होती है। उस समय के वैज्ञानिकों के मन- मस्तिष्क पर स्वतः उद्भववाद का बहुत गहरा प्रभाव था। अतः जब रेडी (Redi, 1621-1697) एवं स्प्लेंजानी (Spllanzani, 1729-1799) ने इस धारणा के विरूद्ध प्रमाण प्रस्तुत किए तो उन प्रमाणों को नकारने का भरसक प्रयास किया गया।
रेडी ने सड़ते मांस को कपड़े से ढककर वयस्क मक्खियों को मांस तक नहीं पहुँचने दिया। ऐसा करने पर सड़ते मांस से मक्खी के डिंब (larva) उत्पन्न नहीं हुए। इस प्रयोग के बाद यह कहा गया कि हो सकता है कि कीड़ों का स्वतः उद्भव न होता हो, परन्तु जीवाणुओं एवं प्रोटोजोआ का स्वतः उद्भव अवश्य होता है।
स्प्लेंजानी ने जैव पदार्थों को फ्लास्कों में देर तक उबाला और इन फ्लास्कों के मुँह को तुरन्त गलाकर बंद कर दिया। कई दिनों के बाद भी फ्लास्क तोड़ने पर उनमें बैक्टीरिया एवं प्रोटोजोआ नहीं पाए गए; अर्थात् इन जीवों का भी स्वतः उद्भव नहीं हुआ।
➤ पूर्वरचनावाद (Preformationism)
यह बात बहुत पहले से ज्ञात थी कि अधिकांश जन्तुओं की उत्पत्ति नर एवं मादा जंतुओं के संयोग (union) से होती है। किन्तु इस प्रकार से उत्पन्न सन्ततियों (progeny) में नर एवं मादा जनकों (parents) का योगदान अज्ञात एवं विवादास्पद था।
अरस्तू के अनुसार, लैंगिक सन्ततियों का पदार्थ मादा अण्ड (egg) से एवं आकृति नर शुक्र (semen) से प्राप्त होती है। ऐसा विश्वास किया जाता था कि अण्ड एवं शुक्राणु में पदार्थों का आदान- प्रदान या उनका संयोग अथवा संगलन (fusion) होना आवश्यक नहीं था।
नर एवं मादा के संयोग के पश्चात् इस पूर्वोत्पादित (performed) जीव का केवल विकास भर होता है। इस विकास के लिए केवल उचित वातावरण एवं पोषण की आवश्यकता होती है, शुक्राणु अथवा अण्ड में उपस्थित पूर्वोत्पादित एवं अविकसित जीव को शुक्राणुमानव (homunculus) और इस विचारधारा को पूर्वरचनावाद (preformationism) कहा गया।
➤ अनुजननवाद (Epigenesis)
पूर्वरचनावाद (Preformationism) को बहुत बड़ा धक्का भ्रूण परिवर्धन (embryo development) के अध्ययनों से लगा। इन अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ कि वयस्क पौधों एवं जन्तुओं के विभिन्न अंग एवं ऊतक (tissue) भ्रूण (embryo) के एक समान ऊतक से उत्पन्न होते हैं। इससे यह सिद्ध हो गया कि वयस्क जीवों के अंग शुक्राणु अथवा अण्ड में उपस्थित शुक्राणुमानव (homunculus) पूर्वोत्पादित (preformed) अंगों के परिवर्धन (development) से नहीं प्राप्त होते हैं।
भ्रूण के एकसमान ऊतक से वयस्क अंगों के उत्पन्न होने को अनुजननवाद (epigenesis) का नाम दिया गया और वोल्फ (Wolff 1738-1794) को इसका प्रवर्तक माना गया। वोल्फ के मतानुसार वयस्क अंगों की उत्पत्ति रहस्यमय जैविक शक्तियों (life forces) के कारण पूर्णतः नए सिरे से (de novo) होती है। परन्तु वान बेयर (1792-1876) ने यह स्पष्ट किया कि वयस्क अंगों की उत्पत्ति पूर्णतः नई न होकर भ्रूण के ऊतकों के क्रमिक रूपान्तरण से होती है।* वान बेयर का यह मत आधुनिक काल में सर्वमान्य है।*
➤ उपार्जित लक्षणों की वंशागति
अब तक के वैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया था कि किसी भी जीव की उत्पत्ति स्वतः न होकर उसी प्रकार के पूर्ववर्ती जीव से होती है। इसके साथ ही, वयस्क अंगों का विकास भ्रूण के एक समान ऊतकों के रूपांतरण से होता है। परन्तु यह ज्ञात नहीं था कि जनकों के कौन से लक्षण और किस प्रकार से संततियों में जाते हैं।
लैमार्क (1744-1829) ने यह सुझाव दिया कि जनकों के उपार्जित लक्षण (acquired characters) संततियों से संप्रेषित (transmit) होते हैं।* लैमार्क के मतानुसार यदि कोई व्यक्ति व्यायाम द्वारा मजबूत मांसपेशियों का स्वामी बनता है तो उसकी संतान की मांशपेशियाँ भी निश्चय ही मजबूत होंगी। इसके विपरीत, दुर्बल व्यक्ति की संतान भी दुर्बल होगी। इस परिकल्पना (hypothesis) को लैमार्कवाद (Lamarckism) अथवा उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त (Theory of inheritance of acquired characters) कहा जाता है। इस सिद्धान्त के कई प्रसिद्ध समर्थक हुए हैं, जैसे डार्विन (1809- 1882) एवं आधुनिक युग में सोवियत रूस के वैज्ञानिक लाइसेंको एवं उनके समर्थक। परन्तु यह सिद्धान्त पूरी तरह से गलत सिद्ध हो चुका है।
➤ जैविक विकासवाद (Theory of Organic Evolution)
चार्ल्स डार्विन ने बीगिल (Beagle) नामक जहाज पर यात्रा के दौरान मलय द्वीप समूह तथा अन्य स्थानों से एकत्र की गई सामग्री के आधार पर 1859 में ‘स्पेशीज की उद्गम’ (Origin of Species) नामक पुस्तक लिखी।*
डार्विन के अनुसार विभिन्न प्रकार के जीवों की उत्पत्ति जैव विकास (evolution) द्वारा हुई तथा विकास मुख्य रूप से प्राकृतिक वरण (natural selection) के कारण होता है।*
प्राकृतिक वरण जीवों में उपस्थित विविधता (variation) पर क्रिया करता है, इस कारण सबसे अधिक उपयुक्त (किसी वातावरण में सबसे अधिक अनुकूलित, adapted) जीव ही जीवित रह पाते हैं और शेष जीव मर जाते हैं। इस प्रकार जीवों में परिवर्तन होते रहते हैं और कालांतर में नई प्रजातियों का उद्गम होता है। डार्विन के इस सिद्धान्त को प्राकृतिक वरण के कारण योग्यतम की उत्तरजीविता (survival of the fittest due to natural selection) अथवा प्राकृतिक वरण का सिद्धान्त (theory of natural selection) कहा जाता हैं।*
आज डार्विन की प्राकृतिक वरण तथा विकासवाद (evolution- ism) की धारणाएँ तथ्य के रूप में स्थापित हो चुकी हैं। किन्तु डार्विन ने जीवों में उपस्थित विविधता के कारणों में उपार्जित लक्षणों की वंशागति को भी एक कारण माना। डार्विन ने परिकल्पना की कि किसी जीव के प्रत्येक अंग में उस अंग की बहुत छोटी, अदृश्य किन्तु एकदम उस जैसी प्रतियाँ उत्पन्न होती हैं। इन प्रतियों को उन्होंने पैन्जीन अथवा मुकुलक कहा। किसी जीव के सभी अंगों में उत्पन्न पैन्जीन रक्त नलिकाओं तथा जननांगों में जाते हैं। इस प्रकार नर युग्मक द्वारा नर जनक के सभी अंगों में पैंजीन युग्मनज (Zygote) में आते हैं। साथ ही मादा जनक के सभी अंगों के पैंजीन मादा युग्मक द्वारा युग्मनज (Zygote) में जाते हैं। परिवर्धन के दौरान विभिन्न अंगों के पैंजीन भ्रूण के उन अंगों में चले जाते हैं और उन अंगों के आकार-प्रकार का निर्धारण करते हैं।
किसी जीव के शरीर के किसी भी अंग में हुए परिवर्तन के कारण उस अंग के पैंजीन में भी परिवर्तन होगा। परिणामस्वरूप, उसकी संततियों के उस अंग में भी वही परिवर्तन दिखाई पड़ेगा। इस प्रकार डार्विन ने उपार्जित लक्षणों की वंशागति को भौतिक आधार देने का प्रयास किया। इस विचारधारा को पैन्जीनवाद का नाम दिया गया। लेकिन यह धारणा कुछ ही समय बाद निर्मूल सिद्ध हुई।
➤ जननद्रव्यवाद (Germplasm Theory)
डार्विन के बाद के एक वैज्ञानिक बीजमैन (1834-1914) ने चूहों पर प्रयोग द्वारा उपार्जित लक्षणों की वंशागति के सिद्धांत की जाँच की। वे 22 पीढ़ियों तक लगातार चूहों की पूँछ काटते रहे, किन्तु किसी भी पीढ़ी में एक भी पूँछविहीन चूहा पैदा नहीं हुआ। उपार्जित लक्षणों की वंशागति के सिद्धान्त तथा डार्विन के पैन्जीनवाद के अनुसार पूँछविहीन चूहों की संतति पूँछविहीन होनी चाहिए थी, क्योंकि ऐसे चूहों के युग्मकों में पूँछ का पैंजीन या तो अनुपस्थित होता अथवा काफी परिवर्तित होता। परन्तु ऐसा हुआ नहीं। अतः इस प्रयोग से उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त तथा पैन्जीनवाद निर्मूल सिद्ध हुए।
चूहों पर किए गए उपरोक्त प्रयोग के आधार पर बीजमैन ने 1892 में सुझाव दिया कि किसी जीव के शरीर के ऊतकों को दो भाँगों में बाँटा जा सकता हैः (1) जननद्रव्य एवं (2) कायद्रव्य। कायद्रव्य में शरीर के वे सारे ऊतक शामिल होते हैं, जो कि जीव के विभिन्न जीवन क्रियाओं के होने के लिए आवश्यक होते हैं। परन्तु इन ऊतकों का लैंगिक जनन में कोई भी योगदान नहीं होता है। परिणामस्वरूप, कायद्रव्य में हुए परिवर्तन अगली पीढ़ी में नहीं जा सकते हैं। जननद्रव्य उन ऊतकों को कहते हैं, जिनसे युग्मक (gemete) बनते हैं। अतः जननद्रव्य में हुए परिवर्तन अगली पीढ़ी में अवश्य जाते हैं। इस प्रकार जननद्रव्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाता है, परन्तु कायद्रव्य उसी पीढ़ी तक सीमित रहता है।
वीजमैन का जननद्रव्य सिद्धान्त (Germplasm theory) मूलतः सही है। परन्तु जननद्रव्य और कायद्रव्य में कोई आधारभूत अंतर नहीं होता है, केवल उनके प्रकार्य भिन्न होते हैंः जननद्रव्य युग्मक पैदा करता है, जबकि कायद्रव्य युग्मक पैदा नहीं करता। इसके साथ ही, हम जानते हैं कि बैक्टीरिया, प्रोटोजोआ आदि एककोशी जीवों में जननद्रव्य एवं कायद्रव्य का होना असंभव है। बहुत सी फसलों में अलैंगिक जनन होता है, और उनमें कायद्रव्य का ही एक हिस्सा जननद्रव्य का प्रकार्य करता है। वीजमैन का मुख्य योगदान पैंजीनवाद तथा उपार्जित लक्षणों की वंशागति के सिद्धान्तों को असत्य सिद्ध करना तथा जननद्रव्य की महत्ता को बताना था।
मेण्डेल के नियम (Laws of Mendel)
मेण्डेल (Mendel, 1822-1884) से पूर्व के वैज्ञानिकों का विश्वास था कि संतति (progeny) के लक्षण (character) दोनों जनकों के लक्षणों के सम्मिश्रण (mixture) से प्राप्त होते हैं। इसके फलस्वरूप, संतति के लक्षण दोनों जनकों के लक्षणों के मध्यवर्ती होते हैं। जैसें, यदि चीनी के अधिक मीठे घोल में घोल की मात्रा के बराबर पानी मिलाया जाए तो प्राप्त घोल की मिठास पानी से अधिक किन्तु पहले के घोल से कम होगी। वैज्ञानिकों की यह धारणा थी कि आनुवंशिक द्रव्य (genetic material) एक तरल पदार्थ (सम्भवतः रक्त) होता है, जिससे कि सम्मिश्रण वंशागति (blending inheritance) संभव होती है। इस प्रकार की सम्मिश्रण वंशागति से संतति के मात्रिक (quantitatives) लक्षणों, जो कि साधारणतया जनकों के लक्षणों के मध्यवर्ती होते हैं, की वंशागति (inheritance) का आसानी से स्पष्टीकरण किया जा सकता था। परन्तु सन्तति के उन लक्षणों, जो कि एक या दूसरे जनक के समान थे, कि वंशागति की व्याख्या के लिए वैज्ञानिकों ने एक जनक द्वारा अधिक या कम योगदान और यहां तक कि निषेचन (fertilization) के समय वायु की दिशा आदि का भी सहारा लिया।
परन्तु पौधों के संकरण के प्रयोगों में F2 सन्तति में प्राप्त अत्यधिक विविधता का स्पष्टीकरण सम्मिश्रण वंशागति से संभव नहीं था, क्योंकि इसके अनुसार F2 में भी F1 के समान ही एकसमानता होनी चाहिए थी। यदि उपरोक्त उदाहरण में दो घोलों के मिश्रण से प्राप्त घोल को कई गिलासों में बाँटा जाए तो सभी गिलासों में एक समान मिठास होगी न कि अलग-अलग। इसी प्रकार दो जनक के लक्षणों के सम्मिश्रण से प्राप्त F1 पीढ़ी की सन्ततियों ( F2 पीढ़ी) के लक्षण भी F1 पीढ़ी की तरह एक समान होने चाहिए। इसलिए सम्मिश्रण वंशागति गलत मानी जाती है और वैज्ञानिकों द्वारा त्याग दी गई है।
मेण्डेल ने 1854 से मटर पर संकरण के बहुत से प्रयोग किए जो कि 1866 में प्रकाशित हुए। इन प्रयोगों से मेण्डेल ने निष्कर्ष निकाला कि वंशागति (inheritance) की इकाई तरल द्रव न होकर ठोस कण होते हैं। इस इकाई को मेण्डेल ने कारक (factor) कहा, परन्तु अब इसे जीन (gene) कहते हैं। जीनों का सम्मिश्रण होना तो दूर वे एक दूसरे के गुणों को परिवर्तित भी नहीं करते हैं। मेण्डेल ने आनुवंशिकी के दो सर्वमान्य नियमों (1) विसंयोजन (segregation) तथा (2) स्वतंत्र अपव्यूहन (independent assortment), का प्रतिपादन किया, तथा लक्षणों की प्रभाविता (dominance) का भी स्पष्टीकरण किया। ये दोनों नियम, विशेषकर विसंयोजन का नियम (law of segregation), आनुवंशिकी के मूल आधार हैं; अतः मेण्डेल को आनुवंशिकी (genetics) का जन्मदाता कहा जाता है।*
मेण्डेल के समकालीन वैज्ञानिकों ने उनके कार्य एवं निष्कर्षों की घोर उपेक्षा की और 1900 तक इन नियमों पर आगे कोई भी काम नहीं किया गया। यहां तक कि स्वयं मेंडेल ने भी अपने निष्कर्षों का न तो प्रचार किया और न ही उनसे संबंधित और आँकड़े जुटाए। मेण्डेल के नियमों के पुनरूद्धार तीन वैज्ञानिकों कोरेंस, डि व्रीज एवं शर्माक ने स्वतंत्र रूप से 1900 में किया।* ये वैज्ञानिक भी अपने प्रयोगों द्वारा इन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचे थे। इस प्रकार, संसार को मेण्डेल के नियमों का ज्ञान 1900 में ही हो सका, और तभी से अन्य वैज्ञानिकों ने भी इस विषय पर शोध कार्य शुरू किया। अतः आनुवंशिकी का जन्म 1900 में ही मानना चाहिए यद्यपि इसकी नींव 1866 में ही पड़ गई थी।
कोशिकानुवंशिकी का जन्म
वाल्टर सटन (Walter Sutton) ने 1902 में वंशागति के क्रोमोसोम सिद्धान्त (chromosome theory of heredity) का प्रतिपादन किया।* उस समय तक हुई खोजों के आधार पर सटन ने यह निष्कर्ष निकाला कि कोशिका विभाजन (cell division), निषेचन (fertilization), परिवर्धन (development) एवं जनन (repro- duction) के दौरान क्रोमोसोम्स तथा मेंडेल द्वारा सुझाए गए वंशागति (inheritance) के कारकों (जीनों) का व्यवहार बिल्कुल एकसमान होता है। सटन ने यह भी सिद्ध किया कि यदि जीनों को क्रोमोसोम्स में स्थित माना जाए तो मेण्डेल के नियमों के अनुरूप ही परिणाम प्राप्त होंगे। एक वर्ष बाद (1903 में) बावेरी (Boveri) ने भी यह निष्कर्ष दिया कि परिवर्धन (development) में क्रोमोसोम बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और जीन क्रोमोसोमों में स्थित होते हैं।
इस प्रकार, वंशागति के कारक जीनों और क्रोमोसोम (जो कि एक कोशिकांग, organelle है) में अभिन्न संबंध स्थापित हुआ, और जीव विज्ञान की एक नई शाखा कोशिकानुवंशिकी (cytogenetics) की शुरूआत हुई। कोशिकानुवंशिकी में क्रोमोसोम्स का अध्ययन किया जाता है। चूंकि क्रोमोसोम्स में जीन स्थित होते हैं, अतः क्रोमोसोमों के अध्ययन से जीनों के संबंध में भी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
प्रेषण आनुवंशिकी (Transmission Genetics)
बेट्सन ने सर्वप्रथम 1903 में ‘जेनेटिक्स’ (genetics) शब्द का प्रयोग किया। इसी वर्ष बेट्सन को मटर पर अध्ययन के दौरान दो लक्षणों में सहलग्नता (linkage) के प्रमाण मिले, परन्तु वे इसकी सही व्याख्या नहीं कर सके। 1905 में उन्होंने पनेट (Punnet) के साथ जीन अन्योन्यकरण (gene interaction) का प्रमाण प्रस्तुत किया। इसके बाद, मेंडेलीय अनुपातों (Mendelian ratios) के विभिन्न रूपांतरणों (modificarions) की खोज हुई।
वर्ष 1909 में जोहैन्सन (Johannsen) ने पहली बार मात्रात्मक लक्षणों (quantitative characters) में विविधता का आनुवंशिक (genetic) एवं वातावरणीय आधार (environmental basis) प्रस्तुत किया। इसी आधार पर जीनप्ररूप (genotype) एवं लक्षणप्ररूप (phenotype) धारणाओं का जन्म हुआ। जोहैन्सन ने शुद्ध वंशक्रम सिद्धान्त (pureline theory) को भी जन्म दिया।* ज्ञातव्य है कि एक सहयुग्मजी (homozygous) तथा स्वपरागित (self-pollinated) पौधे की सन्ततियों को शुद्ध वंशक्रम (pureline) कहते हैं।*
यूल (Yule) ने 1906 में मात्रात्मक लक्षणों की व्याख्या के लिए बहुकारकों (multiple factors) की परिकल्पना की। इस धारणा के अनुसार कई जीन एक ही लक्षण को प्रभावित करते हैं; प्रत्येक जीन का प्रभाव अल्प (small) होता है, तथा सभी जीनों का प्रभाव आपस में योगशील (additive) होता है। यह सिद्धान्त कालांतर में मात्रात्मक वंशागति (quantitative inheritance) का आधार बना।*
इसके एक वर्ष बाद (1910 में) टी. एच. मार्गन (Morgan) ने ड्रोसोफिला नामक फलमक्खी में श्वेताक्ष (white eye) लक्षण की वंशागति का अध्ययन किया। प्राप्त परिणामों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि श्वेताक्ष जीन ड्रोसोफिला के एक्स-क्रोमोसोम (X- – chromosome) पर स्थित होता हैं। इस प्रकार, सटन एवं बावेरी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त की मोर्गन ने पुष्टि की और सर्वप्रथम एक जीन की एक निश्चित क्रोमोसोम पर स्थिति प्रमाणित की जा सकी। इस अध्ययन से लिंग सहलग्नता (sex linkage) तथा सहलग्नता (linkage) का पता चला, जिनके आधार पर आगे चलकर विभिन्न जीवों में क्रोमोसोम चित्रण (chromosome mapping) किया गया। मोर्गन को इस तथा अन्य कार्यों के लिए 1934 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जैवरासायनिक आनुवंशिकी (Biochemical Genetics)
ब्रिटेन के एक चिकित्सक आर्किबोल्ड गैरड (Garrod) ने 1909 में ‘उपापचय में अन्तर्जात त्रुटि’ (Inborn Errors in Metabolism) नामक पुस्तक में मनुष्य के कई वंशागत रोगों का वर्णन किया। उनका निष्कर्ष था कि इस प्रकार के रोगी मनुष्यों में कुछ विशिष्ट एन्जाइम्स की कमी होती है, जिससे उनका उपापचय (metabolism) सामान्य नहीं होता है।
इस सन्दर्भ में, बीडिल (Beadle) एवं टैटम (Tatum) ने न्यूरोस्पोरा नामक कवक पर विस्तृत अध्ययन से यह सिद्ध किया कि ‘प्रत्येक जीन एक विशेष एन्जाइम’ (One gene → One Enzyme) उत्पादित करता है। यह एन्जाइम एक विशेष जैवरासायनिक अभिक्रिया (biochemical reaction) का नियंत्रण करता है। यह अध्ययन जैवरासायनिक (biochemical) आनुवंशिकी का आधार माना जाता हैं। इससे सर्वप्रथम जीन द्वारा लक्षण पैदा करने की क्रियाविधि (Gene Expression) के बारे में ज्ञान हुआ। इस कार्य के लिए बीडिल एवं टैटम (तथा लेडरबर्ग, Lederberg, एक अन्य कार्य के लिए) को 1958 में नोबेल पुरस्कार दिया गया।
मुलर (Muller) ने 1927 में एक्स-किरणों (X-rays) द्वारा ड्रोसोफिला में जीन उत्परिवर्तन (mutation) पैदा किया। इस प्रकार उन्होंने मनुष्य द्वारा जीन में इच्छानुसार परिवर्तन कर सकने की संभावना प्रमाणित की एवं उसके लिए एक विधि प्रदान की। इसी वर्ष (1927 में) थोड़े समय बाद स्टैंडलर (Stadler) ने जौ में एक्स- किरणों द्वारा उत्परिवर्तन प्रेरित कर मुलर के परिणामों की पुष्टि की। इस कार्य के लिए मुलर को 1946 में नोबेल पुरस्कार से अलंकृत किया गया।
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