आनुवंशिकी एवं मानव

जीवधारियों की आनुवंशिक समानताओं एवं विभिन्नताओं का ज्ञान कराने वाली जीव विज्ञान की शाखा को आनुवंशिक कहते हैं। सर्वप्रथम ग्रेगर जान मेण्डल ने सन् 1866 ई. में अपने प्रयोगों के परिणामस्वरूप सिद्ध किया कि माता-पिता के लक्षण किस प्रकार उनकी सन्तानों में स्थानान्तरित होते हैं। इसी कारण मेण्डल को आनुवंशिकता का जनक माना जाता है। इस सम्बन्ध में मेण्डल द्वारा अधोलिखित नियम प्रतिपादित किये गये। यथा-

(i) प्रभावी गुण का नियम (Law of Dominance)- जब परस्पर विरोधी लक्षण वाले पौधों के बीच संस्करण (cross) कराया जाता है तो उसकी संतानों में विरोधी लक्षणों में से एक लक्षण प्रभावी (dominant) तथा दूसरा अप्रभावी (recessive) होता है, इसे प्रभावी गुण का नियम कहते हैं। जैसे-

नोट-मेण्डल का प्रभावी नियम एकिक नियम नहीं रह गया। इसके अपवाद मिलते हैं।*

(ii) पृथक्करण का नियम (Law of Segregation)- जब दो परस्पर विरोधी शुद्ध आनुवंशिक लक्षण वाले पौधे के बीच संस्करण कराया जाता है तो प्रथम पीढ़ी (F) के सन्तानों (पौधों) में केवल प्रभावी लक्षण का प्रदर्शन होता है परन्तु दूसरी पीढ़ी (F₂) की संतानों में परस्पर विरोधी लक्षणों का एक निश्चित अनुपात (ratio) में (3:1) पुनः पृथक्करण (Segregation) होता है; इस नियम को ही ‘पृथक्करण का नियम’ कहते हैं। इस नियम से स्पष्ट होता है कि प्रथम पीढ़ी में साथ-साथ रहने पर भी गुणों का आपस में मिश्रण नहीं होता है। यथा-

r Rr rr 1 सफेद (rr)
इस प्रकार F2 पीढ़ी में फीनोटाइप अनुपात = 3:1 एवं जीनोटाइप अनुपात 1:2:1 प्राप्त होता है।

(iii) स्वतन्त्र अपब्यूहन का नियम (Law of Independent Assortment)- एक पौधे में उपस्थित सभी लक्षणों के कारक या जीन एकक (Heredity Unit) परस्पर स्वतन्त्र होते हैं और वे स्वतन्त्र रूप से दूसरे पौधे के सभी लक्षणों के जीन से मिलते हैं। यहीं आनुवंशिक एककों (कारकों) के स्वतन्त्र प्रदर्शन का नियम है। इसके अन्तर्गत मेण्डल ने दो जोड़ी परस्पर विरोधी आनुवंशिक लक्षणों का अध्ययन उसकी संतानों में किया, अर्थात् द्विसंकरण (Dihybrid Cross) का अनुशीलन किया; जिसका परिणाम मेण्डल को 9:3:3:1 के अनुपात में मिला।*

मेण्डलीय नियमों से विचलन (Deviations from Mendelian Rules)

एक लक्षण के विपर्यासी (contrasting) रूपों वाली किस्मों के संकरण (Hybridization) से मेण्डल को F₂ पीढ़ी में 3 प्रभावी : 1 अप्रभावी (Recessive) लक्षणप्ररूप (Phenotypes) मिले। इसी प्रकार, दो लक्षणों के लिए भिन्न दो किस्मों के संकरण (द्विसंकर संकरण) से F, पीढ़ी में मेंण्डल को 9:3:3:1 के अनुपात में चार Phenotypes मिले। उक्त दोनों अनुपातों को क्रमशः एक संकर (Monohybrid) एवं द्विसंकर (Dihybrid) अनुपात कहते हैं।

मेण्डल के बाद किये गये अध्ययनों से ज्ञात हुआ कि कई लक्षणों में प्रारूपिक (Typical) (3:1 व 9:3:3:1 का) अनुपात नहीं मिलता है; इनमें इन अनुपातों का 8 रूपांतरण (modification) मिलता है।

Monohybrid में यह रूपान्तरण 1:2:1 व 0:2:1 (Lethal) के रूप में मिलता हैं, जिसे क्रमशः अपूर्ण प्रभाविता (Incomplete dominance) एवं घातक जीन (Lethal Gene) अनुपात कहते है।

➤ Incomplete Dominance

जब किसी जीन के विषमयुग्मजियों (Heterozygotes) में उत्पन्न लक्षणप्ररूप उस जीन के दोनों विकल्पियों के लिए Homozy- gotes में उत्पन्न लक्षणप्ररूप का मध्यवर्ती होता है, तो इस दशा को Incomplete dominance तथा ऐसे विकल्पी को Incompletly dominant कहते हैं; जैसे- स्नैपड्रैगन के लाल पुष्प (RR) एवं सफेद पुष्प (11) में संकरण करने पर F, पीढ़ी में गुलाबी रंग (Rr) के पुष्प का उत्पन्न होना।

➤ घातक जीन (Lethal Gene)

कोई भी घातक जीन (lethal gene) जिन व्यष्टियों (individu- als) में उपयुक्त जीनप्ररूप में उपस्थित होता है, उन सभी की मृत्यु जनन आयु (reproductive age) के पहले ही हो जाती है। अधिकांश घातक जीन अपना घातक प्रभाव केवल समयुग्मज (homozygous) अवस्था में उत्पन्न करते हैं, जबकि विषमयुग्मज (heterozygous) अवस्था में उत्तरजीविता (Survival) अप्रभावित रहती है। ऐसे घातक जीन अप्रभावी घातक (recessive lethal) कहे जाते हैं। परंतु कुछ घातक जीन समयुग्मज तथा विषमयुग्मज दोनों ही अवस्थाओं में घातक प्रभाव पैदा करते हैं, ऐसे जीन प्रभावी घातक जीन (domi- nant lethal gene) कहे जाते हैं; जैसे मानव में इपीलोइया (epiloia) जीन विषमयुग्मज अवस्था में भी असामान्य चर्म वृद्धि, मानसिक असामान्यता तथा बहुत से tumour उत्पन्न करते हैं। इस कारण heterozygotes भी बाल्यावस्था में ही मर जाते हैं। अधिकांश घातक जीन सामान्य वातावरण में भी अपना घातक प्रभाव उत्पन्न करते हैं, परंतु कुछ घातक जीन एक विशेष वातावरण में ही घातक प्रभाव पैदा कर पाते हैं; ऐसे जीनों को सप्रतिबंध घातक जीन (conditional lethal gene) कहते हैं। जब किसी द्विसंकर (dihybrid) की F, पीढ़ी में 9:3:3:1 प्रारूपिक (typical) अनुपात के अलावा कोई अन्य अनुपात मिलता है, तो उसे द्विसंकर अनुपात का रूपांतरण (modi- fication of dihybrid ratio) कहते हैं।

➤ जीन अन्योन्यकरण (Gene Interaction)

मेण्डल ने मटर के जिन सात लक्षणों का अध्ययन किया था, उनमें से प्रत्येक लक्षण केवल एक जीन द्वारा नियंत्रित था। परंतु कई (संभवतः सभी) लक्षण दो (या अधिक) जीनों द्वारा नियंत्रित होते हैं। ऐसे लक्षणों को नियंत्रित करने वाले जीन एक-दूसरे की क्रिया (action) को विभिन्न रूपों में प्रभावित करते हैं; इस दशा को जीन अन्योन्यकरण (gene interaction) कहते हैं। जीन अन्योन्यकरण की खोज बेट्सन (Bateson) एवं पनेट (Punnet) ने 1905 में कुक्कुट (मुर्गी) की कलंगी (कंकत, comb) के आकार की वंशागति (inher- itance) के अध्ययन द्वारा की थी।

Gene Interaction मुख्य रूप से सात प्रकार का होता है। यथा-

1. प्रारूपिक द्विसंकर अनुपात 9:3:3:1 (Typical dihybrid ratio)

2. द्विकजीन क्रिया – 15:1 (Duplicate gene action)

3. पूरक जीन क्रिया- 9:7 (Complementary gene action)

4. संपूरक जीन क्रिया – 9:3:4 (Supplementary gene action)

5. निरोधी जीन क्रिया – 13:3 (Inhibitory gene action)

6. गोपन जीन क्रिया- 12:3:1 (Masking gen action)

7. बहुलक जीन क्रिया- 9:6:1 (Polymeric gene action)

मानव वंशागति (Human Inheritance)

मानव भी अन्य जन्तुओं की भाँति एक जन्तु है। अतः आनुवंशिकी के नियम मानव पर भी यथावत् लागू होते हैं और इन्हीं के अनुसार आनुवंशिक लक्षण पीढ़ी-दर-पीढ़ी जाते हैं। प्रायोगिक परीक्षण सुविधा न होने के कारण, मानव के आनुवंशिक लक्षणों या विशेषकों का पता लगाने के लिए सर फ्रांसिस गैल्टन ने दो विधियाँ बतायीं-(1) कुछ विशेष आनुवंशिक लक्षणों को प्रदर्शित करने वाले मानव- कुटुम्बों की वंशावलियों (Pedigree or genealogies) का अध्ययन, तथा (2) जुड़वाँ बच्चों अर्थात् यमजों (twins) के अध्ययन से आनुवंशिक एवं उपार्जित (acquired) लक्षणों में भेद स्थापित करना। बाद में, सन् 1908 में, हार्डी एवं वीनवर्ग ने तीसरी विधि बतायी-“पूरे-पूरे जनसमुदाय में आनुवंशिक लक्षणों का निर्धारण।”

जुड़वाँ बच्चे (Twins)*

सामान्यतः मानव मादायें एक बार में एक शिशु को जन्म देती है, परन्तु दो या दो से अधिक शिशुओं के जन्म के उदाहरण भी देखने में आते हैं। यहाँ तक की, कभी-कभी पाँच या छः शिशुओं के जन्म (Quintuplets) के दुर्लभ (rare) उदाहरण भी सुनने में आते हैं। गैल्टन ने मानव में तीन प्रकार के यमज का वर्णन किया है। यथा-

(i) भ्रातीय यमज (Fraternal Twins)- इस प्रकार के यमज पृथक शुक्राणुओं द्वारा पृथक अण्डाणुओं के निषेचन से बनते हैं, अतः इन्हें द्वियुग्मनजी (Dizygotic twins) भी कहते हैं।* ये समान लिंग के अथवा पृथक लिंग के हो सकते हैं, किन्तु इनका जीन प्रारूप समान नहीं होता है।*

(ii) समान यमज (Identical twins)- इस तरह के यमज एक जाइगोट के प्रायः प्रथम विदलन (cleavage) के फलस्वरूप बनी संतति-कोशिकाओं के पूरी तरह पृथक होकर अलग-अलग भ्रूणों में विकसित हो जाने से बनते हैं। जो समान लिंग एवं जीन प्रारूप के होते हैं।*

(iii) स्यामीज यमज (Siamese twins)- जब यमज पूरी तरह पृथक न होकर परस्पर जुड़े रहते हैं, तो उसे स्यामीज यमज कहते हैं।*

मानव में आनुवंशिक विशेषक

वैज्ञानिकों ने मनुष्य में 200 से अधिक ऐसे लक्षणों का पता लगाया है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी वंशागत होते रहते हैं। महत्वपूर्ण मानव आनुवंशिक विशेषकों को तालिका में दिया गया है।

उपरोक्त विशेषकों के अतिरिक्त, प्रखर बुद्धि, मूर्खता, धूर्तता, मितव्ययिता, स्वामिभक्ति, वफादारी, हठ, चातुर्य, एवं साहित्य, गणितिक, वैज्ञानिक तथा गायन क्षमताएँ आदि लक्षण मानव में मानसिक विशेषक (mental traits) होते हैं।

महत्वपूर्ण आनुवंशिक रोगों की वंशागति

➤ रंजकहीनता (Albinism)*

अन्य स्तनियों की भाँति, मानव में त्वचा, बालों एवं आँखों की पुतली का रंग मिलैनिन (Melanin) नामक रंगा-पदार्थ की उपस्थिति के कारण होता है।* अतः मिलैनिन की अनुपस्थिति में त्वचा सफेद-सी, बाल सफेद तथा पुतलियाँ, रक्त कोशिकाओं के कारण, गुलाबी या लाल दिखाई देती हैं। इसी दशा को रंजकहीनता कहते हैं। शरीर में मिलैनिन रंग के संश्लेषण हेतु टाइरोसिनेज (tyrosinase) एन्जाइम की आवश्यकता होती है जो एक प्रबल (dominant) जीन के प्रभाव से बनता है। अतः इस जीन का साथी, अप्रबल (recessive) जीन रंजकहीनता का जीन होता है। स्पष्ट है कि रंजकहीनता उन व्यक्तियों में प्रदर्शित होती है जिनमें दोनों सुप्त जीन (एक पिता से दूसरा माता से) मिल जाते हैं। मानव की सभी प्रजातियों (reces) में लगभग 20,000 लोगों में एक रंजकहीन (albino) होता है। यदि रंजकहीनता के जीन को हम “a” से प्रदर्शित करें और इसके साथी प्रबल जीन को “A” से तो एक रंजकहीन पुरुष और संकर (hybrid) नारी की संन्तानों में इस लक्षण की वंशागति निम्न के अनुसार होगी।

➤ एल्कैप्टोनूरिया (Alkaptonuria)*

एन्जाइम्स की कमी से मनुष्यों में अनेक जन्मजात उपापचयी रोग वंशागत होते हैं। ऐसे रोगों में सबसे पहले गैराड (Garrod, 1909) ने ऐल्कैप्टोनूरिया की खोज की। शरीर-कोशिकाओं में फीनाइलऐलैनीन एवं टाइरोसीन के उपयोग से सम्बन्धित उपाचय के एक चरण में होमोजेन्टीसिक अम्ल (Homogentisic acid) बनता है। स्वस्थ मनुष्य में इस अम्ल का, पूर्ण उपाचय द्वारा उपयोग हो जाता है। ऐल्कैप्टोनूरिया के रोगी इस अम्ल का आगे विखण्डन नहीं कर पाते। अतः रक्त में इसकी मात्रा बढ़ जाती है। जोड़ों में इसके जमाव से गठिया का रोग (arthritis) हो जाता है। फिर मूत्र में इस अम्ल का उत्सर्जन होने लगता है। हवा लगते ही ऐसा मूत्र काला पड़ जाता है। यह दशा इस रोग का सूचक होती है।

होमोजेनेटीसिक अम्ल के विखण्डन के लिए आवश्यक एन्जाइम एक प्रबल जीन के नियंत्रण में संश्लेषित होता है। अतः जिस मनुष्य में सम्बन्धित जीन दोनों ही अप्रबल होते हैं वही ऐल्कैप्टोनूरिया का रोगी होता है।

➤ फीनाइलथायोकार्बेमाइड के स्वाद की क्षमता

यह नाइट्रोजन, कार्बन और गन्धक का एक यौगिक है जो स्वाद में तीखा होता है। लगभग 30% लोगों में इसके स्वाद की क्षमता नहीं होती। इस क्षमता का विकास भी एक प्रबल जीन (T) के कारण होता है। अतः जिन सदस्यों में इसके दोनों अप्रबल जीन (tt) पहुँच जाते हैं उनमें इस स्वाद की क्षमता का विकास नहीं होता।

➤ हैंसियाकार-रुधिराणु एनीमिया (Sickle-cell Anaemia)*

इस रोग से प्रभावित रोगी के रक्त में ऑक्सीजन की कमी होने पर, रोगी के अधिकांश लाल रुधिराणु, हीमोग्लोबिन की विशेष आणविक रचना के कारण, सिकुड़कर हैंसियाकार और निरर्थक हो जाते हैं जिससे रोगी की मृत्यु हो सकती है। यह रोग भी अप्रबल जीन के कारण होता है।

हीमोग्लोबिन की आणविक संरचना में चार पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलायें होती हैं। दो समान ऐल्फा (alpha-x) श्रृंखलायें तथा दो समान बीटा (beta-ẞ) श्रृंखलायें। बीटा श्रृंखलाओं के प्रथम स्थान पर अमीनो अम्ल सदैव वैलीन (valine) का अणु होता है। सामान्य हीमोग्लोबिन (HbA) की बीटा श्रृंखलाओं के छठे स्थान पर अमीनो अम्ल ग्लूटैमीन (glutamine) का अणु होता है। इस ग्लूटैमीन का संश्लेषण एक प्रबल जीन (dominant gene) के नियंत्रण में होता है। जब कभी इस जीन का साथी अप्रबल जीन (recessive allele) होता है तो इसके नियंत्रण में बीटा श्रृंखलाओं में छठे स्थान पर ग्लूटैमीन के बजाय, वैलीन के अणु का संश्लेषण होने लगता है। ऐसे हीमोग्लोबिन के अणु में, ऑक्सीजन संवहन की क्षमता कम होती है क्योंकि, प्रथम स्थान का वैलीन अणु, छठे स्थान के वैलीन अणु से जुड़ जाता है। इसके कारण हीमोग्लोबिन अणु की आकृति विकृत हो जाती है और यह ऑक्सीजन का संवहन नहीं कर पाता।* इस प्रकार, बीटा श्रृंखलाओं में छठे स्थान पर वैलीन वाला हीमोग्लोबिन (HbS) त्रुटिपूर्ण और निरर्थक होता है। जिन लाल रुधिराणुओं के हीमोग्लोबिन अणु ऐसे, त्रुटिपूर्ण होते हैं, उनकी स्वयं की आकृति, O2 की कमी में, विकृत होकर हैंसियाकार हो जाती हैं। इसी रोग को हैसियाकार- रुधिराणु ऐनीमिया कहते हैं।*

इस आनुवंशिक रोग का पता सर्वप्रथम 1949 में नील एवं बीट द्वारा लगाया गया था। इस रोग की वंशागति को अधोलिखित प्रकार से समझा जा सकता है।

इस रोग की वंशागति में प्रबल जीन “A” की, अप्रबल या सुप्त जीन “S” पर, अपूर्ण प्रभावित (incomplete dominace) होती है। अतः समयुग्मजी प्रबल (Homozygous dominat) जीनोटाइम वाले व्यक्तियों के सारे लाल रुधिराणुओं में सामान्य हीमोग्लोबिन (HbA) होता है। समयुग्मजी अप्रबल (Homozy- gous resessive) जीनोटाइप वाले व्यक्तियों के सारे लाल रुधिराणुओं में त्रुटिपूर्ण हीमोग्लोबिन (HbS) होता है, परन्तु विषयुग्मजी (heterozyous) जीनोटाइप के अर्थात् संकर (hybrid) व्यक्तियों के कुछ प्रतिशत लाल रुधिराणुओं में त्रुटिपूर्ण हीमोग्लोबिन होता है। यदि अधिक मेहनत का काम न करें तो संकर व्यक्ति सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते हैं। इस वंशागति को चित्र से समझा जा सकता है-

➤ फीनाइलकीटोनूरिया (Phenylketonuria-PKU)

इस रोग में, फीनाइलऐलैनीन को टाइरोसीन नामक अमीनो अम्ल में बदलने वाले एन्जाइम, फीनाइलऐलैनीन हाइड्रोक्सीलेज * (phenylaline hydroxylase) की कमी होती है। अतः रक्त में फीनाइलऐलैनीन की मात्रा बढ़ जाती है। कुछ अन्य प्रतिक्रियाओं द्वारा फीनाइलपारुविक अम्ल में बदलकर फीनाइलऐलैनीन मूत्र से निकलने लगता है। ऊतकों में, विशेषतः तांत्रिक ऊतक में, फीनाइलऐलैनीन के जमाव से बच्चों में अल्पबुद्धिता (mental dificiency) हो जाती है।* स्पष्ट है कि जिन व्यक्तियों में इस एन्जाइम से सम्बन्धित दोनों जीन सुप्त होते हैं, में यह रोग होता है। लगभग 18,000 व्यक्तियों में से एक में यह रोग होता है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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