राज्यपाल : 26

भारत के संविधान में राज्य में सरकार की उसी तरह परिकल्पना की गई है, जैसे कि केंद्र के लिए। इसे संसदीय व्यवस्था कहते हैं। संविधान के छठे भाग में राज्य में सरकार के बारे में बताया गया है लेकिन यह व्यवस्था जम्मू और कश्मीर राज्य के लिए लागू नहीं होती। इसे विशेष दर्जा प्राप्त है और राज्य का स्वयं का अपना संविधान है।

संविधान के छठे भाग के अनुच्छेद 153 से 167 तक राज्य कार्यपालिका के बारे में बताया गया है। राज्य कार्यपालिका में शामिल होते हैं- राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्रिपरिषद और राज्य के महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल)। इस तरह राज्य में उपराज्यपाल का कोई कार्यालय नहीं होता जैसे कि केंद्र में उपराष्ट्रपति होते हैं।

राज्यपाल, राज्य का कार्यकारी प्रमुख (संवैधानिक मुखिया) होता है। राज्यपाल, केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में भी कार्य करता है। इस तरह राज्यपाल कार्यालय, दोहरी भूमिका निभाता है।

सामान्यतः प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होता है, लेकिन सातवें संविधान संशोधन अधिनियम 1956 की धारा के अनुसार एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल भी नियुक्त किया जा सकता है।

राज्यपाल की नियुक्ति

राज्यपाल न तो जनता द्वारा सीधे चुना जाता है और न ही अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति की तरह संवैधानिक प्रक्रिया के तहत उसका चुनाव होता है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति के मुहर लगे आज्ञापत्र के माध्यम से होती है। इस प्रकार वह केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत होता है लेकिन उच्चतम न्यायालय की 1979 की व्यवस्था के अनुसार, राज्य में राज्यपाल का कार्यालय केंद्र सरकार के अधीन रोजगार नहीं है। यह एक स्वतंत्र संवैधानिक कार्यालय है और यह केंद्र सरकार के अधीनस्थ नहीं है।

संविधान में वयस्क मताधिकार के तहत राज्यपाल के सीधे निर्वाचन की बात उठी लेकिन संविधान सभा ने वर्तमान व्यवस्था यानी राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति को ही अपनाया जिसके निम्नलिखित कारण हैं’ –

1. राज्यपाल का सीधा निर्वाचन राज्य में स्थापित संसदीय व्यवस्था की स्थिति के प्रतिकूल हो सकता है।

2. सीधे चुनाव की व्यवस्था से मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हो सकती है।

3. राज्यपाल सिर्फ संवैधानिक प्रमुख होता है इसलिए उसके निर्वाचन के लिए चुनाव की जटिल व्यवस्था और भारी धन खर्च करने का कोई अर्थ नहीं है।

4. राज्यपाल का चुनाव पूरी तरह से वैयक्तिक मामला है इसलिए इस चुनाव में भारी संख्या में मतदाताओं को शामिल करना राष्ट्रहित में नहीं है।

5. एक निर्वाचित राज्यपाल स्वाभाविक रूप से किसी दल से जुड़ा होगा और वह निष्पक्ष व निस्वार्थ मुखिया नहीं बन पाएगा।

6. राज्यपाल के चुनाव से अलगाववाद की धारणा पनपेगी, जो राजनीतिक स्थिरता और देश की एकता को प्रभावित करेगी।

7. राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति की व्यवस्था से राज्यों पर केंद्र का नियंत्रण बना रहेगा।

8. राज्यपाल का सीधा निर्वाचन, राज्य में आम चुनाव के समय एक गंभीर समस्या उत्पन्न कर सकता है।

9. मुख्यमंत्री यह चाहेगा कि राज्यपाल के लिए उसका उम्मीदवार चुनाव लड़े, इसलिए सत्तारूढ़ दल का दूसरे दर्जे का आदमी बतौर राज्यपाल चुना जाएगा।

इसलिए अमेरिकी मॉडल, जहां राज्य का राज्यपाल सीधे चुना जाता है, को छोड़ दिया गया एवं कनाडा, जहां राज्यपाल को केंद्र द्वारा नियुक्त किया जाता है, संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किया गया।

संविधान ने राज्यपाल के रूप में नियुक्त किए जाने वाले व्यक्ति के लिए दो अर्हताएं निधारित की। वे हैं-

1. उसे भारत का नागरिक होना चाहिए।

2. वह 35 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।

इन वर्षों में इसके अतिरिक्त दो अन्य परंपराएं भी जुड़ गई है-पहला, उसे बाहरी होना चाहिए यानी कि वह उस राज्य से संबंधित न हो जहां उसे नियुक्त किया गया है ताकि वह स्थानीय राजनीति से मुक्त रह सके। दूसरा, जब राज्यपाल की नियुक्ति हो तब राष्ट्रपति के लिए आवश्यक हो कि वह राज्य के मामले में मुख्यमंत्री से परामर्श करे ताकि राज्य में संवैधानिक व्यवस्था सुनिश्चित हो, यद्यपि दोनों परंपराओं का कुछ मामलों में उल्लंघन किया गया है।

राज्यपाल के पद की शर्ते

संविधान में राज्यपाल के पद के लिए निम्नलिखित शर्तों का निर्धारण करता है-

1. उसे न तो संसद सदस्य होना चाहिए और न ही विधानमंडल का सदस्य। यदि ऐसा कोई व्यक्ति राज्यपाल नियुक्त किया जाता है तो उसे सदन से उस तिथि से अपना पद छोड़ना होगा, जब से उसने राज्यपाल का पद ग्रहण किया है।

2. उसे किसी लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए।

3. बिना किसी किराये के उसे राजभवन (कार्यालय) उपलब्ध होगा।

4. वह संसद द्वारा निर्धारित सभी प्रकार की उपलब्धियों, विशेषाधिकार और भत्तों के लिए अधिकृत होगा।

5. यदि वही व्यक्ति दो या अधिक राज्यों में बतौर राज्यपाल नियुक्त होता है तो ये उपलब्धियां और भत्ते राष्ट्रपति द्वारा तय मानकों के हिसाब से राज्य मिलकर प्रदान करेंगे।

6. कार्यकाल के दौरान उनकी आर्थिक उपलब्धियों व भत्तों को कम नहीं किया जा सकता।

2008 में संसद ने राज्यपाल का वेतन 36,000 रु. से बढ़ाकर 1.10 लाख प्रतिमाह कर दिया है।

राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल को भी अनेक विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां प्राप्त हैं। उसे अपने शासकीय कृत्यों के लिए विधिक दायित्व से निजी उन्मुक्ति प्राप्त होती हैं। अपने कार्यकाल के दौरान उसे आपराधिक कार्यवाही (चाहे वह व्यक्तिगत क्रियाकलाप हो) की सुनवाई से उन्मुक्ति प्राप्त है। उसे गिरफ्तार कर कारावास में नहीं डाला जा सकता है। यद्यपि दो महीने के नोटिस पर व्यक्तिगत क्रियाकलापों पर उनके विरुद्ध नागरिक कानून संबंधी कार्यवाही प्रारंभ की जा सकती है।

कार्यभार ग्रहण करने से पहले राज्यपाल सत्यनिष्ठा की शपथ लेना है। शपथ में राज्यपाल प्रतिज्ञा करते हैं-

(अ) निष्ठापूर्वक दायित्वों का निर्वहन करेगा।

(ब) संविधान और विधि की रक्षा संरक्षण और प्रतिरक्षा करेगा।

(स) स्वयं को राज्य की जनता के हित व सेवा में समर्पित करेगा।

राज्यपाल को शपथ, संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दिलवाते हैं। उनकी अनुपस्थिति में उपलब्ध वरिष्ठतम न्यायाधीश शपथ दिलवाते हैं।

किसी अन्य व्यक्ति को भी राज्यपाल के पद के दायित्वों का निर्वहन करने पर इसी प्रकार की शपथ लेनी होती है।

राज्यपाल की पदावधि

सामान्यतया राज्यपाल का कार्यकाल पदग्रहण से पांच वर्ष की अवधि के लिये होता है किंतु वास्तव में वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है। इसके अलावा वह कभी भी राष्ट्रपति को संबोधित कर अपना त्यागपत्र दे सकता है।

उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि राज्यपाल के ऊपर राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत का मामला न्यायपूर्ण नहीं है। राज्यपाल के पास न तो कार्यकाल की सुरक्षा है और न ही कार्यालय की निश्चिंतता है। उसे राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय वापस बुलाया जा सकता है।

संविधान ने ऐसी कोई विधि नहीं बनाई है, जिसके तहत राष्ट्रपति, राज्यपाल को हटा दे। इसलिए वी.पी. सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार (1989) ने उन सभी राज्यपालों से त्यागपत्र मांग लिया था, जिन्हें कांग्रेस सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था। अंततः कुछ राज्यपालों को बदला गया था, जबकि कुछ को बने रहने दिया गया। यही प्रक्रिया 1991 में दोहराई गई, जब पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी। वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर सरकार द्वारा नियुक्त चौदह राज्यपालों को बदल दिया गया था।

राष्ट्रपति, एक राज्यपाल को उसके बचे हुए कार्यकाल के लिए किसी दूसरे राज्य में स्थानांतरित कर सकते हैं। इसी तरह एक राज्यपाल, जिसका कार्यकाल पूरा हो चुका है, को भी उसी राज्य या अन्य राज्य में दोबारा नियुक्त किया जा सकता है।

एक राज्यपाल पांच वर्ष के अपने कार्यकाल के बाद भी तब तक पद पर बना रह सकता है जब तक कि उसका उत्तराधिकारी कार्य ग्रहण न कर ले। इसके पीछे यह तर्क है कि राज्य में अनिवार्य रूप से एक राज्यपाल रहना चाहिए ताकि रिक्तता की कोई स्थिति पैदा न होने पाए।

राष्ट्रपति को जब यह लगे कि अकस्मात कोई घटना हो रही है, जिसका संविधान में उल्लेख नहीं है तो वह राज्यपाल के कार्यों के निर्वहन के लिए उपबंध बना सकता है, यथा-वर्तमान राज्यपाल का निधन। ऐसी परिस्थिति में संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को अस्थायी तौर पर राज्यपाल का कार्यभार सौंपा जा सकता है।

राज्यपाल की शक्तियां एवं कार्य

राज्यपाल को राष्ट्रपति के अनुरूप कार्यकारी, विधायी, वित्तीय और न्यायिक शक्तियां प्राप्त होती हैं। यद्यपि राज्यपाल को राष्ट्रपति के समान कूटनीतिक, सैन्य या आपातकालीन शक्तियां प्राप्त नहीं होतीं।

राज्यपाल की शक्तियों और उसके कार्यों को हम निम्नलिखित शीषर्कों के अंतर्गत समझ सकते हैं-

1. कार्यकारी शक्तियां।
2. विधायी शक्तियां।
3. वित्तीय शक्तियां।
4. न्यायिक शक्तियां।

कार्यकारी शक्तियां

राज्यपाल की कार्यकारी शक्तियां इस प्रकार हैं-

1. राज्य सरकार के सभी कार्यकारी कार्य औपचारिक रूप से राज्यपाल के नाम पर होते हैं।

2. वह इस संबंध में नियम बना सकता है कि उसके नाम से बनाए गए और कार्य निष्पादित आदेश और अन्य प्रपत्र कैसे प्रमाणित होंगे।

3. वह राज्य सरकार के कार्य के लेन-देन को अधिक सुविधाजनक और उक्त कार्य के मंत्रियों में आवंटन हेतु नियम बना सकता है।

4. वह मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्रियों को नियुक्त करता है। वे सब राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड तथा ओडिशा में राज्यपाल द्वारा नियुक्त जनजाति कल्याण मंत्री होगा।

5. वह राज्य के महाधिवक्ता को नियुक्त करता है और उसका पारिश्रमिक तय करता है। महाधिवक्ता का पद राज्यपाल के प्रर्सादपर्यंत रहता है।

6. वह राज्य निर्वाचन आयुक्त को नियुक्त करता है और उसकी सेवा शर्तें और कार्यावधि तय करता है हालांकि राज्य निर्वाचन आयुक्त को विशेष मामलों या परिस्थितियों में उसी तरह हटाया जा सकता है जैसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को।

7. वह राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को नियुक्त करता है। लेकिन उन्हें सिर्फ राष्ट्रपति ही हटा सकता है, न कि राज्यपाल ।

8. वह मुख्यमंत्री से प्रशासनिक मामलों या किसी विधायी प्रस्ताव की जानकारी प्राप्त कर सकता है।

9. यदि किसी मंत्री ने कोई निर्णय लिया हो और मंत्रिपरिषद ने उस पर संज्ञान न लिया हो तो राज्यपाल, मुख्यमंत्री से उस मामले पर विचार करने की मांग सकता है।

10. वह राष्ट्रपति से राज्य में संवैधानिक आपातकाल के लिए सिफारिश कर सकता है। राज्य में राष्ट्रपति शासन के दौरान उसकी कार्यकारी शक्तियों का विस्तार राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में हो जाता है।

11. वह राज्य के विश्वविघालयों का कुलाधिपति होता है, वह राज्य के विश्वविघालयों के कुलपतियों की नियुक्ति करता है।

विधायी शक्तियां

राज्यपाल, राज्य विधानसभा का अभिन्न अंग होता है। इस नाते उसकी निम्नलिखित विधायी शक्तियां एवं कार्य होते हैं-

1. वह राज्य विधान सभा के सत्र को आहूत या सत्रावसान और विघटित कर सकता है।

2. वह विधानमंडल के प्रत्येक चुनाव के पश्चात पहले और प्रतिवर्ष के पहले सत्र को संबोधित कर सकता है।

3. वह किसी सदन या विधानमंडल के सदनों को विचाराधीन विधेयकों या अन्य किसी मसले पर संदेश भेज सकता है।

4. जब विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद खाली हो तो वह विधानसभा के किसी सदस्य को कार्यवाही सुनिश्चित करने के लिए नियुक्त कर सकता है।

5. राज्य विधानपरिषद के कुल सदस्यों के छठे भाग को वह नामित कर सकता है। जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारिता आंदोलन और समाज सेवा का ज्ञान हो या इसका व्यावहारिक अनुभव हो।

6. वह राज्य विधानसभा के लिए एक आंग्ल-भारतीय समुदाय से एक सदस्य की नियुक्ति कर सकता है।

7. विधानसभा सदस्य की निरर्हता के मुद्दे पर निर्वाचन आयोग से विमर्श करने के बाद वह इसका निर्णय करता है।

8. राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी विधेयक को राज्यपाल के पास भेजे जाने पर :

(अ) वह विधेयक को स्वीकार कर सकता है, या

(ब) स्वीकृति के लिए उसे रोक सकता है, या

(स) विधेयक को (यदि यह धन-संबंधी विधेयक न हो) विधानमंडल के पास पुनर्विचार के लिए वापस कर सकता है। हालांकि राज्य विधानमंडल द्वारा पुनः बिना परिवर्तन के विधेयक को पास कर दिया जाता है तो राज्यपाल को अपनी स्वीकृति देनी होती है, या

(द) विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकता है। एक ऐसे मामले में इसे सुरक्षित रखना अनिवार्य है, जहां राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता है। इसके अलावा यदि निम्नलिखित परिस्थितियां हों तब भी राज्यपाल विधेयक को सुरक्षित रख सकता है।

(i) अधिकारातीत अर्थात संविधान के उपबंधों के विरूद्ध हो।

(ii) राज्य नीति के निदेशक तत्वों के विरूद्ध हो।

(iii) देश के व्यापक हित के विरूद्ध हो।

(iv) राष्ट्रीय महत्व का हो।

(v) संविधान के अनुच्छेद 31क के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित हो।

9. जब राज्य विधानमंडल का सत्र न चल रहा हो तो वह औपचारिक रूप से अध्यादेश की घोषणा कर सकता है। इन विधेयकों की राज्य विधानमंडल से छह हफ्तों के भीतर स्वीकृति होनी आवश्यक है। वह किसी भी समय किसी अध्यादेश को समाप्त भी कर सकता है, यह राज्यपाल का सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है।

10. वह राज्य के लेखों से संबंधित राज्य वित्त आयोग, राज्य लोक सेवा आयोग और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट को राज्य विधानसभा के सामने प्रस्तुत करता है।

वित्तीय शक्तियां

राज्यपाल की वित्तीय शक्तियां एवं कार्य इस प्रकार हैं-

1. वह सुनिश्चित करता है कि वार्षिक वित्तीय विवरण (राज्य-बजट) को राज्य विधानमंडल के सामने रखा जाए।

2. धन विधेयकों को राज्य विधानसभा में उसकी पूर्व सहमति के बाद ही प्रस्तुत किया जा सकता है।

3. बिना उसकी सहमति के किसी तरह के अनुदान की मांग नहीं की जा सकतीं।

4. वह किसी अप्रत्याशित व्यय के वहन के लिए राज्य की आकस्मिकता निधि से अग्रिम ले सकता है।

5. पंचायतों एवं नगरपालिका की वित्तीय स्थिति की हर पांच वर्ष बाद समीक्षा के लिए वह वित्त आयोग का गठन करता है।

तालिका 26.1 राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की वीटो शक्ति की तुलना

राष्ट्रपतिराज्यपाल
सामान्य विधेयकों से संबंधितसामान्य विधेयकों से संबंधित
प्रायेक साधारण विधेयक जब वह संसद के दोनों सदनों, चाहे अलग- अलग या संयुक्त बैठक से पारित होकर आता है तो उसे पराष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा जाता है। इस मामले में उसके पास तीन विकल्प हैं-प्रत्येक साधारण विधेयक को विधानमंडल के सदन या सदनों द्वारा पहले या दूसरे मौके में पारित कर इसे राज्यपाल के सम्मुख प्रस्तुत किया जाएगा। राज्यपाल के पास चार विकल्प हैं-
1. वह विधेयक को स्वीकृति दे सकता है फिर विधेयक अधिनियम बन जाता है।1. वह विधेयक को स्वीकृति प्रदान कर सकता है विधेयक फिर अधिनियम बन जाता है।
2. वह विधेयक को अपनी स्वीकृति रोक सकता है ऐसी स्थिति में विधेयक समाप्त हो जाएगा और अधिनियम नहीं बन पाएगा।2. वह विधेयक को अपनी स्वीकृति रोक सकता है तब विधेयक समाप्त हो जाएगा और अधिनियम नहीं बन पाएगा।
3. वह सदन के पास विधेयक को विचारार्थ भेज सकता है, यदि विधेयक को बिना किसी परिवर्तन के फिर से दोनों सदनों द्वारा पारित कराकर राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाए तो राष्ट्रपति को उसे स्वीकृति अवश्य देनी होती है। इस तरह राष्ट्रपति के पास केस स्थगन वीटो का अधिकार है।3. वह सदन के पास विधेयक को विचारार्थ भेज सकता है यदि विधेयक को बिना किसी परिवर्तन के फिर से दोनों सदनों द्वारा पारित कराकर राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेजा जाए तो राज्यपाल को उसे स्वीकृति अवश्य देनी होती है। इस तरह राज्यपाल के पास केवल स्थगन वीटो का अधिकार है।
4. जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखा जाता है तो राष्ट्रपति के पास तीन विकल्प होते हैं-
(अ) वह विधेयक को स्वीकृति दे सकता है जिसके बाद वह अधिनियम बन जाएगा,
(ब) वह विधेयक को अपनी स्वीकृति रोक सकता है, फिर विधेयक खत्म हो जाएगा और अधिनियम नहीं बन पाएगा,
(स) वह विधेयक को राज्य विधानपरिषद के सदन या सदनों के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता है। सदन द्वारा छह महीने के भीतर इस पर पुनर्विचार करना आवश्यक है। यदि विधेयक को कुछ सुधार या बिना सुधार के राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए दोबारा भेजा जाए तो राष्ट्रपति इसे देने के लिए बाध्य नहीं है; वह स्वीकृत कर भी सकता है और नहीं भी।
4. वह विधेयक को राष्ट्रपति की केवल के लिए सुरक्षित रख सकता है। जब राज्यपाल राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए किसी विधेयक को सुरक्षित रखता है तो उसके बाद विधेयक को अधिनियम बनाने में उसकी कोई भूमिका नहीं रहती। यदि राष्ट्रपति द्वारा उस विधेयक को पुनर्विचार के लिए सदन या सदनों के पास भेजा जाता है और उसे दोबारा पारित कर फिर राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है यही राष्ट्रपति स्वीकृति देता है तो यह अधिनियम बन जाता है। इसका तात्पर्य है कि अब राज्यपाल की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
धन विधेयकों के बारे में
संसद द्वारा पारित प्रत्येक वित्त विधेयक को जब राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है तो उसके पास दो विकल्प होते हैं-कोई भी वित्त विधेयक जब राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कर राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाता है तो उसके पास तीन विकल्प होते हैं-
1. वह विधेयक को स्वीकृति दे सकना है ताकि वह अधिनियम बन जाए।1. वह विधेयक को अपनी स्वीकृति दे सकता है, तब विधेयक अधिनियम बन जाता है।
2. वह स्वीकृति न दे तब विधेयक समाप्त हो जाएगा और अधिनियम नहीं बन पाएगा।2. वह विधेयक को अपनी स्वीकृति रोक सकता है जिससे विधेयक समाप्त हो जाता है और अधिनियम नहीं पाता है।
3. इस प्रकार राष्ट्रपति धन विधेयक को संसद को पुनर्विचार के लिए नहीं लौटा सकता। सामान्यतः राष्ट्रपति वित्त विधेयकों को संसद में पुरः स्थापित होने के स्वरूप को स्वीकृति दे देता है क्योंकि इस उसकी पूर्व अनुमति से प्रस्तुत किया गया होता है। जब वित्त विधेयक किसी राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को विचारार्थ भेजा जाता है तो राष्ट्रपति के पास दो विकल्प होते हैं-
(अ) वह विधेयक को अपनी स्वीकृति दे सकता है, ताकि विधेयक अधिनियम बन सके,
(ख) वह उसे अपनी स्वीकृति रोक सकता है। तब विधेयक खत्म हो जाएगा और अधिनियम नहीं बन पाएगा। राष्ट्रपति वित्त विधेयक को राज्य विधान सभा के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता (जैसा कि संसद के मामले में)
3. वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख सकता है। इस तरह राज्यपाल वित्त विधेयक को पुनर्विचार के लिए राज्य विधान सभा को वापस नहीं कर सकता। सामान्यतः उसकी पूर्व अनुमति के बाद विधानसभा द्वारा पुरः स्थापित वित्त विधेयक को वह स्वीकृति दे देता है। जब राज्यपाल राष्ट्रपति के विचारार्थ वित्त विधेयक को सुरक्षित रखता है तो इस विधेयक के क्रियाकलाप पर फिर उसकी कोई भूमिका नहीं रहती। यदि राष्ट्रपति विधेयक को स्वीकृति दे दे, तो यह अधिनियम बन जाता है। इसका अर्थ है कि राज्यपाल की स्वीकृति अब आवश्यक नहीं है। इस है कि आगे चलकर राज्यपाल की मंजूरी आवश्यक नहीं है।

तालिका 26.2 अध्यादेश निर्माण में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल के अधिकारों की तुलना

राष्ट्रपति राज्यपाल
1. वह किसी अध्यादेश को केवल तभी प्रख्यापित कर सकता है जब संसद के दोनों सदन या कोई एक सदन सत्र में न हो। दूसरे उपबंध से अभिप्राय है कि राष्ट्रपति तब भी कोई अध्यादेश प्रख्यापित कर सकता है जब केवल एक सदन सत्र में हो क्योंकि कोई भी विधि दोनों सदनों द्वारा पारित की जानी होती है न कि एक सदन द्वारा1. वह किसी अध्यादेश को तभी प्रख्यापित कर सकता है, जब विधानसभा (एक परिषदीय व्यवस्था में) सत्र में न हो या सत्र में (बहुसदस्यीय व्यवस्था) विधानमंडल के सदन सत्र में न हों। दूसरी व्यवस्था कानून के अध्यादेश के बारे में तब लागू होती है जब केवल एक सदन (बहुसदनीय व्यवस्था) सत्र में न हो क्योंकि विधेयक का दोनों सदनों द्वारा पारित होना जरूरी है।
2. वह किसी अध्यादेश को तभी प्रख्यापित कर सकता है, जब वह देखे कि ऐसी परिस्थितियां बन गई कि त्वरित कदम उठाना आवश्यक है।2. जब वह इस बात से संतुष्ट हो कि अब ऐसी परिस्थितियां आ गई हैं, कि तुरंत कदम उठाया जाना जरूरी है तो वह अध्यादेश प्रख्यापित कर सकता है।
3. अध्यादेश निर्माण शक्ति के मामले में उसे संसद के सह-अस्तित्व में के समान शक्ति है। अर्थात वह उन्हीं विषयों अध्यादेश जारी करता है, जिनके संबंध में संसद विधि बनाती है।3. अध्यादेश निर्माण की उसकी शक्ति राज्य विधानपरिषद के सह अस्तित्व के रूप में है, यानी वह उन्हीं मुद्दों पर अध्यादेश जारी करता है, जिन पर विधान मंडल को विधि बनाने का अधिकार है।
4. उसके द्वारा जारी कोई अध्यादेश उसी तरह प्रभावी है, जैसे संसद द्वारा निर्मित कोई अधिनियम ।4. उसके द्वारा जारी अध्यादेश की शक्ति राज्य विधानमंडल द्वारा जारी अधिनियम के समान होती है।
5. संसद द्वारा पारित किसी अधिनियम की सीमाओं के बराबर ही उसके द्वारा जारी अध्यादेश की सीमाएं है। इसका मतलब उसके द्वारा जारी अध्यादेश अवैध हो सकता है, यदि वह संसद द्वारा बना सकने योग्य न हो।5. उसके द्वारा अध्यादेश की मान्यता राज्य विधानपरिषद के अधिनियम के बराबर है। अर्थात उसके द्वारा जारी अध्यादेश यदि विधानमंडल द्वारा पारित करने की सीमा में नहीं होगा तो वह अवैध हो जाएगा।
6. वह एक अध्यादेश को किसी भी समय वापस कर सकता है।6. वह एक अध्यादेश को किसी भी समय वापस कर सकता है।
7. उसकी अध्यादेश निर्माण की शक्ति स्वैच्छिक नहीं है, इसका मतलब वह कोई विधि बनाने या किसी अध्यादेश को वापस लेने का काम केवल प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद के परामर्श पर ही कर सकता है।7. उसकी अध्यादेश निर्माण की शांति स्वैच्छिक नहीं है। इसका मतलब वह कोई विधि बनाने या किसी अध्यादेश को वापस लेने का काम केवल मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कर सकता है।
8. उसके द्वारा जारी अध्यादेश को संसद के दोनों सदनों के सभापटल पर रखा जाना चाहिए चाहिए।8. उसके द्वारा जारी अध्यादेश को पुनर्निर्मित करने के लिए उसे विधानमंडल के दोनों सदनों (द्विसदनीय व्यवस्था में) के सामने प्रस्तुत करना चाहिए।
9. उसके द्वारा जारी अध्यादेश संसद का सत्र प्रारंभ होने के छह माह उपरांत समाप्त हो जाता है। यह उस स्थिति में पहले भी समाप्त हो जाता है, जब संसद के दोनों सदन इसे अस्वीकृत करने का संकल्प पारित करे।9. उसके द्वारा जारी अध्यादेश राज्य विधानमण्डल का सत्र प्रारंभ होने के छह सप्ताह उपरांत समाप्त हो जाता है। यह इससे पहले भी समाप्त हो सकता है, यदि राज्य विधान सभा इसे अस्वीकृत करे और विधान परिषद (जहां हो) इस अस्वीकृति को सहमति प्रदान करे।
10. उसे अध्यादेश बनाने में किसी निर्देश की आवश्यकता नहीं होती।10. यह बिना राष्ट्रपति से निर्देश के निम्न तीन मामलों में अध्यादेश नहीं बना सकता यदि –
(अ) राज्य विधानमंडल में इसकी प्रस्तुति के लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक हो,
(ब) यदि वह समान उपबंधों वाले विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आवश्यक माने ।
(स) यदि राज्य विधानमंडल का अधिनियम ऐसा हो कि राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना यह अवैध हो जाए।

तालिका 26.3 क्षमादान के मामले में राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की तुलनात्मक शक्तियां

राष्ट्रपति राज्यपाल
1. वह केन्द्रीय विधि के विरूद्ध किसी अपराध के लिए दोष सिद्ध ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रतिलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश का निलंबन, परिहार या लघुकरण कर सकता है।1. वह राज्य विधि के तहत किसी अपराध में सजा प्राप्त व्यक्ति को वह क्षमादान कर सकता है या दंड को स्थगित कर सकता है।
2. वह सजा-ए-मौत को क्षमा कर सकता है, कम कर सकता है या स्थगित कर सकता है या बदल सकता है। एकमात्र उसे ही यह अधिकार है कि वह मृत्युदंड की सजा को माफ कर दे।2. वह मृत्युदंड की सजा को माफ नहीं कर सकता, चाहे किसी को राज्य विधि के तहत मौत की सजा मिली भी हो, तो भी उसे राज्यपाल की बजाए राष्ट्रपति से क्षमा की याचना करनी होगी। लेकिन राज्यपाल इसे स्थगित कर सकता है या पुनर्विचार के लिए कह सकता है।
3. वह कोर्ट मार्शल (सैन्य अदालत) के तहत सजा प्राप्त व्यक्ति की सजा माफ कर सकता है, कम कर सकता है या बदल सकता है।3. उसे इस प्रकार की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है।

न्यायिक शक्तियां

राज्यपाल की न्यायिक शक्तियां एवं कार्य इस प्रकार हैं-

1. राज्य के राज्यपाल को उस विषय संबंधी, जिस विषय पर उस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, किसी विधि के विरूद्ध किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दण्ड को क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबत, परिहार या लघुकरण की शक्ति होगी।

2. राष्ट्रपति राज्यपाल द्वारा संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति से विचार किया जाता है।

3. वह राज्य उच्च न्यायालय के साथ विचार कर जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण और प्रोन्नति कर सकता है।

4. वह राज्य न्यायिक आयोग से जुड़े लोगों की नियुक्ति भी करता है (जिला न्यायाधीशों के अतिरिक्त) इन नियुक्तियों में वह राज्य उच्च न्यायालय और राज्य लोक सेवा आयोग से विचार करता है।

अब, हम राज्यपाल की तीन महत्वपूर्ण शक्तियों (वीटो शक्ति, अध्यादेश निर्माण और क्षमादान शक्ति) का विस्तार से राष्ट्रपति की तुलना में अध्ययन करेंगे।

राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति

भारत के संविधान में राज्य में भी केंद्र की तरह संसदीय व्यवस्था स्थापित की गई है। राज्यपाल को नाममात्र का कार्यकारी बनाया गया है, जबकि वास्तविकता में कार्य मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो राज्यपाल अपनी शक्ति, कार्य को मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कर सकता है; सिर्फ उन मामलों को छोड़कर जिनमें वह अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है। (मंत्रियों की सलाह के बगैर)।

राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों का अंदाजा लगाते हुए हम इन्हें अनुच्छेद 154, 163 एवं 164 के उपबंधों से समझ सकते हैं-

(अ) राज्य की कार्यकारी शक्तियां राज्यपाल में निहित होंगी। ये संविधान सम्मत कार्य सीधे उसके द्वारा या उसके अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा संपन्न होंगे (अनुच्छेद 154)।

(ब) अपने विवेकाधिकार वाले कार्यों के अलावा (अनुच्छेद 163) अपने अन्य कार्यों को करने के लिए राज्यपाल को मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद से सलाह लेनी होगी।

(स) राज्य मंत्रिपरिषद की विधानमंडल के प्रति सामूहिक जिम्मेदारी होगी (अनुच्छेद 164)। यह उपबंध राज्य में राज्यपाल की संवैधानिक बुनियाद के रूप में है।

उपर्युक्त से यह स्पष्ट है कि राज्यपाल की स्थिति, राष्ट्रपति की तुलना में निम्नलिखित दो मामलों में भिन्न है-

1. संविधान में इस बात की कल्पना की गई थी कि राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर कुछ स्थितियों में काम करे, जबकि राष्ट्रपति के मामले में ऐसी कल्पना नहीं की गई।

2. 42वें संविधान संशोधन (1976) के बाद राष्ट्रपति के लिए मंत्रियों की सलाह की बाध्यता तय कर दी गई, जबकि राज्यपाल के संबंध में पर इस तरह का कोई उपबंध नहीं है।

संविधान में स्पष्ट किया गया है कि यदि राज्यपाल के विवेकाधिकार पर कोई प्रश्न उठे तो राज्यपाल का निर्णय अंतिम एवं वैध होगा, इस संबंध में इस आधार पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता कि उसे विवेकानुसार निर्णय लेने का अधिकार था या नहीं। राज्यपाल के संवैधानिक विवेकाधिकार निम्नलिखित मामलों में है-

1. राष्ट्रपति के विचारार्थ किसी विधेयक को आरक्षित करना।

2. राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।

3. पड़ोसी केंद्रशासित राज्य में (अतिरिक्त प्रभार की स्थिति में) बतौर प्रशासक के रूप में कार्य करते समय ।

4. असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के राज्यपाल द्वारा खनिज उत्खनन की रॉयल्टी के रूप में जनजातीय जिला परिषद को देय राशि का निर्धारण।

5. राज्य के विधानपरिषद एवं प्रशासनिक मामलों में मुख्यमंत्री से जानकारी प्राप्त करना।

उपर्युक्त संवैधानिक विवेकाधिकारों के अतिरिक्त (उदाहरणार्थ, संविधान में उल्लिखित विवेकाधिकारों के बारे में) राज्यपाल, राष्ट्रपति की तरह परिस्थितिजन्य निर्णय ले सकता है (जैसे राजनीतिक स्थिति के मामले में अप्रत्यक्ष निर्णय)। यह सब निम्नलिखित मामलों में संबंधित है-

1. विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में या कार्यकाल के दौरान अचानक मुख्यमंत्री का निधन हो जाने एवं उसके निश्चित उत्तराधिकारी न होने पर मुख्यमंत्री की नियुक्ति के मामले में।

2. राज्य विधानसभा में विश्वास मत हासिल न करने पर मंत्रिपरिषद की बर्खास्तगी के मामले में।

3. मंत्रिपरिषद के अल्पमत में आने पर राज्य विधानसभा को विघटित करना।

इसके अतिरिक्त कुछ विशेष मामलों में राष्ट्रपति के निर्देश पर राज्यपाल के विशेष उत्तरदायित्व होते हैं। ऐसे मामलों में राज्यपाल मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद से परामर्श लेता है और अपने स्वविवेक से निर्णय लेता है। ये इस प्रकार हैं-

1. महाराष्ट्र-विदर्भ एवं मराठवाड़ा के लिए पृथक विकास बोर्ड की स्थापना।

2. गुजरात-सौराष्ट्र और कच्छ के लिए पृथक विकास बोर्ड की स्थापना।

3. नागालैंड-त्वेनसांग नागा पहाड़ियों पर आंतरिक विघ्नों के चलते कानून एवं व्यवस्था के संबंध में।

4. असम-जनजातीय इलाकों में प्रशासनिक व्यवस्था।

5. मणिपुर-राज्य के पहाड़ी इलाकों में प्रशासनिक व्यवस्था।

6. सिक्किम-राज्य की जनता के विभिन्न वर्गों के बीच सामाजिक और आर्थिक विकास के साथ शांति सुनिश्चित करना।

7. अरुणाचल प्रदेश राज्य में कानून एवं व्यवस्था बनाना।

8. कर्नाटक-हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र के लिए एक अलग विकास बोर्ड की स्थापना।

इस तरह संविधान में राज्यपाल कार्यालय के मामले में भारतीय संघीय ढांचे के तहत दोहरी भूमिका तय की गई है। वह राज्य का संवैधानिक मुखिया होने के साथ-साथ केंद्र (अर्थात राष्ट्रपति) का प्रतिनिधि भी होता है।

तालिका 26.4 राज्यपाल से संबंधित अनुच्छेद, एक नजर में

अनुच्छेवविषय-वस्तु
153राज्यों के राज्यपाल
154राज्य की कार्यपालक शक्ति
155राज्यपाल की नियुक्ति
156राज्यपाल का कार्यकाल
157राज्यपाल के नियुक्त होने के लिए अर्हता
158राज्यपाल कार्यालय के लिए दशाएँ
159राज्यपाल द्वारा शपथ ग्रहण
160कतिपय आकस्मिक परिस्थितियों में राज्यपाल के कार्य
161राज्यपाल को क्षमादान आदि की शक्ति
162राज्य की कार्यपालक शक्ति की सीमा
163मंत्रीपरिषद का राज्यपाल को सहयोग तथा सलाह देना
164मंत्रियों से संबंधित अन्य प्रावधान जैसे नियुक्ति, कार्यकाल तथा वेतन इत्यादि
165राज्य का महाधिवक्ता
166राज्य की सरकार द्वारा संचालित कार्यवाही
167राज्यपाल को सूचना देने इत्यादि का मुख्यमंत्री का दायित्व
174राज्यपाल का राज्य विधायिका के किसी अथवा दोनों सदनों को संबोधित करने अथवा संदेश देने का अधिकार
175राज्यपाल द्वारा विशेष संबोधन
176विधेयक पर सहमति (राज्यपाल द्वारा राज्य विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर स्वीकृति प्रदान करना)
200राज्यपाल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख लेना
201राज्यपाल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख लेना
213राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति
217राज्यपाल की उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति द्वारा सलाह लेना
233राज्यपाल द्वारा जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति
234राज्यपाल द्वारा न्यायिक सेवा के लिए नियुक्ति (जिला न्यायाधीशों को छोड़कर)

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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