वृद्धि तथा अनुक्रिया

पौधों में वृद्धि, आकार एवं आयतन का चिरस्थायी (irreversible = permanent) वर्धन है जिसके साथ-साथ प्रायः शुष्क भार का तथा जीवद्रव्य (protoplasm) का भी वर्धन होता है। वास्तव में वृद्धि एक अत्यन्त जटिल क्रिया है जिसमें लगभग सभी प्रकार की क्रियाएँ सम्मिलित है। यह अनेकानेक जैविक क्रियाओं (biological activities) का अन्तिम परिणाम है। प्रमुखतः ये क्रियाएँ जीवद्रव्य (protoplasm) की मात्रा बढ़ाने में सहायक होती है। इसी से नई कोशिकाओं, नए ऊतकों तथा नए अंगों का निर्माण होता है और सम्पूर्ण रूप में इस अंग या पौधे का परिमाप बढ़ता है। इस प्रकार सफल उपापचय का अन्तिम परिणाम वृद्धि (growth) कहलाता है।

➤ वृद्धि में विभज्योतकों का कार्य (Functions of Meristems in Growth)

उच्च वर्ग के पौधों में वृद्धि कुछ विशेष भागों में सीमित रहती है। पौधों में विभज्योतक (meristem) कुछ विशेष स्थानों पर पाए जाते हैं। स्थिति के आधार पर विभज्योतक निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं-

(क) शीर्षस्थ विभज्योतक (Apical meristem)
(ख) अन्तर्विष्ट विभज्योतक (Intercalary meristem),
(ग) पार्श्व विभज्योतक (Lateral meristem)।

शीर्षस्थ तथा अन्तर्विष्ट विभज्योतक के कारण पौधे की लम्बाई एवं शाखाओं में वृद्धि होती है। पार्श्व विभज्योतक के फलस्वरूप जड़ एवं तने की मोटाई में वृद्धि होती है।*

वृद्धि सूत्री विभाजन के फलस्वरूप होती है।* विभाजन के फलस्वरूप बनने वाली कोशिकाओं में विवर्धन (enlargement) तथा विभेदन (differentiation) होता है। इसके फलस्वरूप स्थायी ऊतक एवं अंगों का निर्माण होता है। किसी भी अंग की वृद्धि में निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ होती हैं-

(1) कोशिका निर्माण प्रावस्था (Phase of cell forma- tion)-कोशिका विभाजन का क्षेत्र

(2) कोशिका दीर्धीकरण प्रावस्था (Phase of cell elonga- tion)-परिमाप वृद्धि क्षेत्र

(3) कोशिका परिपक्वन प्रावस्था (Phase of cell matura- tion) स्थायी ऊतकों का क्षेत्र

वृद्धि करने वाली एक कोशिका या ऊतक, कोई भाग या अंग अथवा सम्पूर्ण पौधा प्रारम्भ में धीरे-धीरे, फिर अत्यधिक तीव्रता से तथा बाद में मन्द गति से वृद्धि करता है। एक अवस्था में पहुँचकर यह वृद्धि रूक भी सकती है। वृद्धि की गति में कमी एक उच्चतम बिन्दु तक पहुँचने के बाद होती है। जितने समय में यह सब होता है वह वृद्धि की समग्र अवधि (grand period of growth) कहलाती है। रेखाचित्र में यह एक ‘S’ अक्षर के समान, वक्र रेखा के रूप में बनता है। इसे सिग्मॉइड वृद्धि वक्र (Sigmoid grwoth curve) कहते हैं। इसके चार स्पष्ट भाग किए जा सकते हैं-

(1) वह प्रारम्भिक अवस्था में पौधे के शुष्क भार में कमी होती है।
(2) जब वृद्धि दर अत्यन्त तीव्र होती है।
(3) पूर्ण परिपक्व अवस्था प्राप्त करने के कारण वृद्धि रूक जाती है।
(4) वृद्धि दर क्रमशः कम होती जाती है।

पौधे में वृद्धि को बाह्य तथा आन्तरिक कारक प्रभावित करते हैं। बाह्य कारकों के अन्तर्गत-पोषक पदार्थ, जल, ऑक्सीजन, प्रकाश एवं ताप आते हैं जबकि आन्तरिक कारकों के अन्तर्गत पौधे के आनुवंशिक कारक (genetic factors) तथा पादप हॉर्मोन्स (Plant hormones) आते हैं।

पौधों की संरचना का विकास उनकी आनुवंशिक जीन संरचना पर निर्भर करता है। आनुवंशिक कारक पौधों की लम्बाई, पुष्पन, प्रतिरोध क्षमता आदि को प्रभावित करते हैं। पौधों की वृद्धि कुछ विशेष प्रकार के रासायनिक पदार्थों द्वारा नियन्त्रित होती है, इन्हें पादप हॉर्मोन्स (plant hormones) कहते हैं। हॉर्मोन्स शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सन् 1906 में स्टर्लिंग ने किया था। इन्हें वृद्धि नियन्त्रक पदार्थ भी कहते हैं। वेण्ट (F.W. Went, 1928) के अनुसार, वृद्धि नियन्त्रक पदार्थों की अनुपस्थिति में वृद्धि नहीं होती।

पादप हॉर्मोन्स (Plant Hormones)

पादप हॉर्मोन्स विशेष, जटिल कार्बनिक रासायनिक पदार्थ हैं जो पौधों की विभिन्न क्रियाओं का नियन्त्रण व समन्वयन करते हैं। वृद्धि, पतझड़, पुष्पों का बनना (पुष्पन), फल वृद्धि आदि पर इन हॉर्मोन्स का निश्चित नियन्त्रण रहता है। पादप हॉर्मोन्स को चार वर्गो में बाँटा जा सकता है-

1. ऑक्सिन्स (Auxins),
2. जिबरेलिन्स (Gibberellins),
3. साइटोकाइनिन्स (Cytokinins) तथा
4. वृद्धिरोधक (Growth inhibitors)।

➤ ऑक्सिन्स (Auxins)

वे पदार्थ हैं जो प्ररोह की कोशिकाओं में दीर्घाकरण (elonga- tion) प्रक्रिया को प्रेरित करते है। * इनमें इण्डोल ऐसीटिक एसिड (Indole Acetic Acid = IAA) मुख्य है। यद्यपि ऑक्सिन्स प्रमुखतः दीर्धीकरण को प्रेरित करते हैं, किन्तु अन्य अनेक क्रियाओं को भी प्रभावित करते हैं। अब, प्राकृतिक रूप में पौधे के अन्दर मिलने वाले ऑक्सिन्स के अतिरिक्त समान व्यवहार व रासायनिक संरचना वाले संश्लेषित पदार्थ ज्ञात हैं जो पौधों को बाहर से दिए जा सकते हैं।

उदाहरण –
• IAA = Indone-3-Acetic Acid
• β- NAA = β- Naphthalene Acetic Acid.
• 2- 4D = 2-4 Dichlorophenoxy Acetic Acid.
• IPA = Indole Propionic acid
• IBA = Indole Butyric acid
• PAA- Phenyl acetic acid

उपयोग (Application)

विभिन्न प्रयोगों के आधार पर ऑक्सिन्स के अनेक उपयोग तथा कार्य बताए गए है; जैसे-

(1) वृद्धि दर (growth rate) पर प्रभाव डालते हैं; क्योंकि ये कोशिकीय दीर्धीकरण (elongation) को प्रेरित करते हैं तथा सम्पूर्ण वृद्धि दर पर भी प्रभाव डालते हैं।

(2) ऑक्सिन्स से अनुवर्तन क्रियाएँ (tropic movements) सम्पादित होती है। प्रकाश, गुरुत्वाकर्षण आदि के प्रभाव से जड़ व तनों में होने वाली अनुवर्तन क्रियाएँ ऑक्सिन्स की सान्द्रता से नियन्त्रित होती हैं। वृद्धि बाधित होती है।

(3) शीर्ष प्रमुखता या प्रभाविता (apical dominance) तने के शीर्ष पर उपस्थित वीं कलिका के कारण कक्षस्थ कलिकाओं की

(4) ऊतक तथा अंगों के भिन्नन में ऑक्सिन्स का उपयोग बागवानी में किया जाता है; उदाहरण के लिए लगाई जाने वाली कलम को यदि ऑक्सिन के घोल में पहले से ही डुबा लिया जाए तो उसमें जड़ें शीघ्र व अधिक निकलती हैं।*

(5) फल निर्माण तथा अनिषेकफलन (parthenocarpy) के लिए ऑक्सिन्स को पुष्पन के पश्चात् पौधों पर छिड़का जाता है।* अनिषेकफल (parthenocarpic fruits) बीजरहित (seedless) होते हैं।

(6) पत्तियों, फलों आदि का विलगन (abscission) रोकने के लिए अब ऑक्सिन्स का उपयोग किया जाता है।

(7) अपतृण निवारण (weed killing) के लिए 2-4 D जैसे ऑक्सिन्स का उपयोग किया जाता है। इससे चौड़े पत्ते वाले (द्विबीजपत्री) पौधे, एकबीजपत्री फसल के पौधों के बीच से नष्ट किए जा सकते हैं।

(8) प्रसुप्तावस्था में प्रभाव (Role in dormancy)-ऑक्सिन्स कलिकाओं की वृद्धि में अवरोध उत्पन्न करते हैं; अतः आलू आदि के संचय के समय इनका उपयोग लाभकारी है।*

इस प्रकार कृषि, बागवानी, उद्यान विज्ञान आदि में ऑक्सिन्स का प्रयोग अनेक प्रकार से उपयोगी है।

➤ जिबरेलिन्स (Gibberellins)

इनके प्रभाव से तने के पर्व (internodes) लम्बे होते हैं। इसके अतिरिक्त ये पत्ती का फलक बढ़ाना, पार्श्व कलिका रोधन, पौधे की मोटाई आदि से सम्बन्धित अनेक प्रभाव पैदा करते हैं।

जिबरेलिन्स की खोज कुरोसावा (Kurosawa) नामक वैज्ञानिक ने सन् 1926 ई. में की थी। याबुल्ला तथा सूमिकी (Yabuta and Sumiki) ने इसे जिबरेला फूजीकुरोई (Gibberella fujikuroi) नामक कवक से प्राप्त किया था।*

उपयोग (Application)

अपने प्रभावों के कारण जिबरेलिन महत्वपूर्ण पदार्थ है। जिबरेलिन्स निम्नलिखित क्रियाओं को प्रभावित करते हैं-

(1) कोशिका दीर्धीकरण (Cell elongation)।

(2) अनिषेकफलन (Parthenocarpy) *

(3) कैम्बियम की सक्रियता को बढ़ाना।

(4) बोल्टिंग प्रभाव (Bolting effect)- इसके द्वारा द्विवर्षी पौधे एकवर्षी हो जाते हैं तथा नाटे पौधे लम्बे हो जाते हैं।*

(5) प्रसुप्ति (dormancy) भंग करना तथा बीजों में अंकुरण बढ़ाना। *

(6) अंगूरों का आकार एवं गुच्छों की लम्बाई बढ़ाने में भी जिबरेलिन्स प्रयोग में लाए जाते हैं।

(7) पुष्प एवं फलों के विकास में सहायक होना।

➤ साइटोकाइनिन्स (Cytokinins)

पौधों में ऐसे महत्त्वपूर्ण यौगिक भी उपस्थित होते हैं जो कोशिका विभाजन को प्रेरित करते हैं। इनमें सबसे प्रमुख पदार्थ काइनेटिन (kinetin) समझा जाता है। अब तो ऐसे पदार्थ ज्ञात हो चुके हैं जो काइनेटिन की तरह न्यूक्लिक अम्लों के अपघटन से बनते हैं तथा काइनेटिन समूह के ही यौगिक होते हैं। इस समूह के पदार्थों को ही जो काइनेटिन की तरह कार्य करते हैं, साइटोकाइनिन्स (cytokinins) कहा जाता है। काइनेटिन तथा जिएटिन (zeatin) नामक रसायन साइटोकाइनिन्स का कार्य करते हैं।*

➤ वृद्धिरोधक (Growth inhibitors)

अत्यधिक मात्रा में अथवा अत्यन्त कम मात्रा में वृद्धि पदार्थ स्वयं ही किसी प्रकार की वृद्धि में अवरोध (inhibition) उत्पन्न करते हैं, किन्तु अनेक ऐसे पदार्थ भी पौधों में उपस्थित होते हैं, जो हॉर्मोन्स के प्रभाव को नष्ट अथवा नियमित करते हैं।

पौधों में प्रसुप्तावस्था (dormancy) ऐसे ही वृद्धिरोधकों के कारण समझी जाती है। इन पदार्थों को सम्मिलित रूप से डॉरमिन (dormin) कहा जाता है। ऐसा ही एक पदार्थ टरपोलाइनिक अम्ल (terpolinic acid) है। पहले इसे एबसीसिक अम्ल (ABA = abscissic acid) कहा जाता था। इसे बहुत-से पौधों में पार्श्व कलिकाओं (lateral buds) की प्रसुप्तावस्था (dormancy) के लिए उत्तरदायी माना गया है। यह पदार्थ ऑक्सिन्स तथा जिबरेलिन्स के प्रभाव को अवरोधित (inhibit) करता है। इसके अतिरिक्त सोलेनिडीन (solanidine) आलू के कन्दों (potato tubers) में कलिका प्रस्फुटन (bud sprouting) को रोकता है। एथिलीन (ethylene) एक गैसीय हार्मोन है। यह वृद्धिरोधक का कार्य करती है। यह पौधों में सामान्यतया पुष्पन को कम करती है (अनन्नास को छोड़कर)। यह फलों को पकाने वाला हॉर्मोन है।*

➤ एथिलीन के कार्य (Roles of Ethylene)

एथिलीन के निम्नलिखित मुख्य कार्य है-

1. यह कच्चे फलों जैसे-केला, आम, संतरा आदि को शीघ्र पका देने में सहायता करती है। इसलिए इसे फल पकाने वाला हारमोन (ripening hormone) भी कहते हैं।*

2. यह पत्तियों, फूलों एवं फलों में विलगनपर्त (abscission layer) के निर्माण को उत्तेजित (stimulate) करती है।*

3. यह तने की लम्बाई में वृद्धि-रोधक, मोटाई अर्थात् व्यास को बढ़ाने एवं गुरुत्वानुवर्तन गति (geotropism) को नष्ट करने का कार्य करती है।

4. यह अधोकुंचन अथव उपरिवृद्धिवर्तन (epinasty) को नियन्त्रण (control) करने में सहायता करती है।

5. यह मादा पुष्पों की संख्या में वृद्धि करती है और नर पुष्पों की संख्या कम करती है।*

6. एथिलीन शिखाग्र प्रभाविता (apical dominance) को उत्तेजित करती है।

7. यह प्रायः पौधों में पुष्पन को कम करती है परन्तु अनन्नास (pine apple) में पुष्पन को तीव्र करती है।

8. यह नई जड़ों के बनने में उत्तेजक (stimulant) का कार्य करती है।

9. यह भूमिगत तनों में वृद्धि को एवं बीजों के अंकुरण को उत्तेजित करती है। परन्तु स्प्राउटिंग (sprouting) के बाद पत्तियों एवं तने की वृद्धि को रोकती है।

एथिलीन गैस का प्रयोग सीधे रूप से करने में परेशानी होती है क्योंकि यह उड़नशील है। अतः आजकल औद्योगिक स्तर पर सीधे गैस का प्रयोग न करके उसके स्थान पर विघटन होकर एथिलीन प्रदान करने वाले पदार्थ इथेफोन (2-chloroethyl phosphonic acid) का प्रयोग किया जाता है।

➤ एबसिसिक एसिड के कार्य (Roles of ABA)

1. यह पत्तियों, फलों एवं पुष्पों में विलगन पर्त (abscission layer) का निर्माण करके विलगन में सहायता करता है।*

2. यह बीजों एवं कलियों को सुप्तावस्था (dormant) में बनाये रखने में सहायता करता है अर्थात् कलियों की वृद्धि एवं बीजों के अंकुरण को रोकता है।*

3. ABA रन्ध्रों को बन्द करके वाष्पोत्सर्जन को कम करने में मदद करता है।

4. यह पत्तियों के पर्णहरिम, प्रोटीन तथा न्यूक्लिइक अम्ल को नष्ट करके इन्हें पीला कर देता है।

5. सामान्यतः यह वृद्धि निरोधक का कार्य करता है। जिबरेलिन द्वारा उत्तेजित वृद्धि को भी यह रोकता है।

6. यह आलू के कन्द बनने में सहायता करता है।

7. यह कोशिका-विभाजन एवं कोशिका-दीर्घन दोनों को रोकता है।

8. ABA एमाइलेज विकर के संश्लेषण को रोकता है फलस्वरूप बीजों का अंकुरण भी रुक जाता है।

हॉर्मोन और जीवन चक्र (Hormones and Life Cycle)

पादप-हॉर्मोन्स, जन्तुओं में बनने वाले हॉर्मोन्स की भाँति विशिष्ट नहीं होते। इनका प्रभाव सभी ऊतकों व अंगों में समान होता है। अभी तक ज्ञात लगभग सभी पादप-हॉर्मोन्स मुख्यतः

पौधों के वृद्धि कर रहे भागों में उत्पन्न होते हैं, जैसे-जड़ व तने के विभज्योतकी ऊतक (meristematic tissues), वृद्धि कर रही तरुण पत्तियाँ तथा विकसित हो रहे बीज व फल, आदि में। पौधों की कोई भी क्रिया केवल एक हॉर्मोन्स से नियन्त्रिण नहीं होती। हॉर्मोन्स वास्तव में समाकलनी कर्मक (integrating agents) हैं, जो पौधों में किसी विशेष प्रतिक्रिया (reaction) के लिये आवश्यक हैं, जैसे- साइटोकाइनिन (cytokinin), कलिकाओं की प्रसुप्ति (dormancy) दूर करने के लिये आवश्यक है, परन्तु उससे आगे की वृद्धि को यह नियन्त्रित नहीं करता। हॉर्मोन्स शायद ही अकेले रहकर कार्य करते हैं, पौधों में वृद्धि तथा विकास इनकी पारस्परिक क्रियाओं (in- teractions) का परिणाम है।

पादप-हॉर्मोन्स की क्रियाशीलता (Activity of Plant Hormones)

पादप-हॉर्मोन्स की क्रियाशीलता के विषय में निम्नलिखित तथ्य प्रमुख हैं-

(1) पौधों पर यद्यपि एक हॉर्मोन के कुछ अपने विशिष्ट प्रभाव (characteristic effects) होते हैं, परन्तु इसके कुछ अन्य प्रभाव भी होते हैं। इस प्रकार एक हॉर्मोन से अनेक अनुक्रियाएँ हो सकती है।

(2) किसी हॉर्मोन के कारण विशेष अनुक्रिया (response) दूसरे कारकों पर निर्भर करती है, जैसे-दूसरे हॉर्मोन्स की उपस्थिति, ऊतक की उस हॉर्मोन के प्रति संवेदनशीलता (sensitivity) तथा हॉर्मोनरहित अन्य कारक (nonhormonal other factors), आदि।

(3) पौधों के विभिन्न भागों में हॉर्मोन्स का प्रभाव भी विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न होता है।

(4) पौधों में वृद्धि एवं विकास विभिन्न हॉर्मोन्स द्वारा प्रभावित व नियन्त्रित होता है।

(5) पौधों में हॉर्मोन्स द्वारा होने वाली अनुक्रिया, किसी हॉर्मोन की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति की अपेक्षा, विभिन्न हॉर्मोन्स के बदलते अनुपात का परिणाम है।

(6) पौधों की कार्यिकी पर हॉर्मोन की सान्द्रता का सीधा प्रभाव होता है, जैसे-ऑक्सिन की कम सान्द्रता जड़ों में वृद्धि को बढ़ाती है, परन्तु अधिक सान्द्रता वृद्धि को घटाती है। इस प्रकार, एक हॉर्मोन वर्धक (promoter) तथा निरोधक (inhibitor) दोनों रूप में कार्य कर सकता है।*

हॉर्मोन्स का निर्माण स्थल एवं परिवहन

ऑक्सिन्स का निर्माण विभज्योतकी ऊतकों (meristematic tissues) में होता है। अन्य हॉर्मोन्स के विपरीत ऑक्सिन का स्थानान्तरण संवहन ऊतक से न होकर एक कोशा से दूसरी कोशा में होता हुआ नीचे की ओर आता है। यह सक्रिय स्थानान्तरण (Active transport) है, जिसमें ऊर्जा प्रयुक्त होती है। यह क्रिया एकदिशीय (unidirectional) होती है तथा ऑक्सिन का प्रभाव भी मुख्यतः स्थानीय (localised) होता है।*

जिबरेलिन का निर्माण तरुण पत्तियों, कलिकाओं, बीजों तथा जड़ों में होता है और इसका परिवहन जाइलम व फ्लोएम दोनों के द्वारा होता है। अतः यह पूरे पौधे को प्रभावित करता है।* साइटोकाइनिन्स का निर्माण मुख्यतः जड़ शीर्ष पर तथा विकसित हो रहे बीजों में होता है। अतः ये प्रायः जड़ों के जाइलम से होकर तने में आते हैं।

पौधों में एबसिसिक अम्ल (ABA) का संश्लेषण, कैराटिनॉयड्स से होता है। * एक बार बनने के बाद यह जाइलम, फ्लोएम तथा मृदूतक कोशाओं द्वारा पूर्ण पौधे में जाता है। इस प्रकार जिबरेलिन तथा साइटोकाइनिन्स की भाँति एबसिसिक अम्ल (ABA) का स्थानान्तरण भी अध्रुवीय (non-polarised) होता है।

एथिलीन का निर्माण मिथिओनीन (methionine) नामक ऐमीनो अम्ल से होता है।* आवृतबीजी पौधों के सभी भागों में एथिलीन का निर्माण होता है, परन्तु यह वायु में विशेषतः जड़ों, प्ररोह शीर्ष विभज्योतक, पर्व जीर्णावस्था वाले पुष्प तथा पक रहे फलों (ripening fruits) से मुक्त होती है। एथिलीन का स्थानान्तरण वायु के माध्यम से होता है।

दीप्तिकालिता (Photoperiodism)

पौधों के फलने-फूलने, वृद्धि, प्रजनन एवं उनके भौगोलिक वितरण पर प्रकाश की अवधि (duration of light) का प्रभाव पड़ता है। पौधों द्वारा प्रकाश की अवधि तथा समय के प्रति अनुक्रिया को ही “दीप्तिकालिता” (photoperiodism) कहते हैं। दूसरे शब्दों में दिन व रात के परिवर्तनों के प्रति कार्यिकीय अनुक्रियाएँ (physiological responses) ही ‘दीप्तिकालिता’ कहलाती है। दीप्तिकालिता (photoperiodism) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम गार्नर तथा एलार्ड (Garner and Allard, 1920) ने किया।

प्रकाश के (duration) के आधार पर पौधों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है।

(i) लम्बे दिन वाले पौधे (Long-day plants) : ये 12 घंटे से अधिक के प्रकाश काल में पुष्पन करते हैं जैसे-मूली, गेहूँ (बसंत जाति), चुकन्दर इत्यादि।

(ii) छोटे दिन वाले पौधे (Short day-plants) : ये 12 घंटे से कम दिन और अधिक रात्रि अवधि को पाकर ही पुष्पन करते हैं जैसे- सोयाबीन, तम्बाकू।

(iii) दिन उदासीन पौधे (Day Neutral plants): इनके पुष्पन पर दिन एवं रात्रि की अवधि का कोई सुनिश्चित प्रभाव नहीं होता है जैसे- कपास*, मटर* इत्यादि।

बसन्तीकरण (Vernalization)

बसन्तीकरण जल अवशोषित बीजों (water soaked seeds), थोड़े अंकुरित बीजों अथवा नवांकुरों (seedlings) को कुछ समय के लिये दिया गया निम्न ताप उपचार (low temperature treat- ment) है, जिसके कारण उनमें पुष्पन का समय शीघ्रता से आता है।

चोआर्ड (Chouard, 1960) के अनुसार पौधों में द्रुतशीतल उपचार (chilling treatment) द्वारा पुष्पन क्रिया के शीघ्रता से होने की क्षमता को बसन्तीकरण (vernalization) कहते हैं। बसन्तीकरण शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम टी.डी. लाइसेन्को ने किया था। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार बसन्तीकरण की क्रिया में वर्नेलिन (vernalin) नामक पदार्थ बनता है। किन्तु यह पदार्थ अभी तक पृथक नहीं किया जा सका है।

यह भी पढ़ें : कोशिकीय श्वसन

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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