ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : 1

भारत में ब्रिटिश 1600 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी के रूप में, व्यापार करने आए। महारानी एलिजाबेथ प्रथम के चार्टर द्वारा उन्हें भारत में व्यापार करने के विस्तृत अधिकार प्राप्त थे। कंपनी, जिसके कार्य अभी तक सिर्फ व्यापारिक कार्यों तक ही सीमित थे, ने 1765 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा के दीवानी (अर्थात राजस्व एवं दीवानी न्याय के अधिकार) अधिकार’ प्राप्त कर लिए। इसके तहत भारत में उसके क्षेत्रीय शक्ति बनने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। 1858 में, ‘सिपाही विद्रोह’ के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ताज (Crown) ने भारत के शासन का उत्तरदायित्व प्रत्यक्षतः अपने हाथों में ले लिया। यह शासन 15 अगस्त, 1947 में भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक अनवरत रूप से जारी रहा।

स्वतंत्रता मिलने के साथ ही भारत में एक संविधान की आवश्यकता महसूस हुई। 1934 में एम.एन. राय (भारत में साम्यवाद आंदोलन के प्रणेता और आमूल परिवर्तनवादी प्रजातंत्रवाद के समर्थक के दिए गए सुझाव को अमल में लाने के उद्देश्य से 1946 में एक संविधान सभा का गठन किया गया और 26 जनवरी, 1950 को संविधान अस्तित्व में आया। यद्यपि संविधान और राजव्यवस्था की अनेक विशेषताएं ब्रिटिश शासन से ग्रहण की गयी थीं तथापि ब्रिटिश शासन में कुछ घटनाएं ऐसी थीं, जिनके कारण ब्रिटिश शासित भारत में सरकार और प्रशासन की विधिक रूपरेखा निर्मित की गई। इन घटनाओं ने हमारे संविधान और राजतंत्र पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इन घटनाओं का क्रमवार ब्यौरा निम्नानुसार है:

कंपनी का शासन [1773 से 1858 तक ]

1773 का रेगुलेटिंग एक्ट

इस अधिनियम का अत्यधिक संवैधनिक महत्व है, यथा : (अ) भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियमित और नियंत्रित करने की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया यह पहला कदम था, (ब) इसके द्वारा पहली बार कंपनी के प्रशासनिक और राजनैतिक कार्यों को मान्यता मिली, एवं; (स) इसके द्वारा भारत में केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी गयी।

अधिनियम की विशेषताएं

1. इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को ‘बंगाल का गवर्नर जनरल’ पद नाम दिया गया एवं उसकी सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन किया गया। उल्लेखनीय है कि ऐसे पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड वारेन हेस्टिंग्स थे।

2. इसके द्वारा मद्रास एवं बंबई के गवर्नर, बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन हो गये, जबकि पहले सभी प्रेसिडेंसियों के गवर्नर एक-दूसरे से अलग थे।

3. अधिनियम के अंतर्गत कलकत्ता में 1774 में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई, जिसमें मुख्य न्यायाधीश और तीन अन्य न्यायाधीश थे।

4. इसके तहत कंपनी के कर्मचारियों को निजी व्यापार करने और भारतीय लोगों से उपहार व रिश्वत लेना प्रतिबंधित कर दिया गया।

5. इस अधिनियम के द्वारा, ब्रिटिश सरकार का ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स’ (कंपनी की गवर्निंग बॉडी) के माध्यम से कंपनी पर नियंत्रण सशक्त हो गया। इसे भारत में इसके राजस्व, नागरिक और सैन्य मामलों की जानकारी ब्रिटिश सरकार को देना आवश्यक कर दिया गया।

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 की कमियों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद ने एक संशोधित अधिनियम 1781 में पारित किया, जिसे एक्ट ऑफ़ सैटलमेंट के नाम से भी जाना जाता है। इसके बाद एक अन्य महत्वपूर्ण अधिनिमय पिट्स इंडिया एक्ट, 1784′ में अस्तित्व में आया।

अधिनियम की विशेषताएं

1. इसने कंपनी के राजनैतिक और वाणिज्यिक कार्यों को पृथक्- पृथक् कर दिया।

2. इसने निदेशक मंडल को कंपनी के व्यापारिक मामलों के अधीक्षण की अनुमति तो दे दी लेकिन राजनैतिक मामलों के प्रबंधन के लिए नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) नाम से एक नए निकाय का गठन कर दिया। इस प्रकार, द्वैध शासन की व्यवस्था का शुभारंभ किया गया।

3. नियंत्रण बोर्ड को यह शक्ति थी कि वह ब्रिटिश नियंत्रित भारत में सभी नागरिक, सैन्य सरकार व राजस्व गतिविधियों का अधीक्षण एवं नियंत्रण करे।

इस प्रकार, यह अधनियम दो कारणों से महत्वपूर्ण था- पहला, भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्र को पहली बार ‘ब्रिटिश आधिपत्य का क्षेत्र’ कहा गया; दूसरा, ब्रिटिश सरकार को भारत में कंपनी के कार्यों और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया।

1833 का चार्टर अधिनियम

ब्रिटिश भारत के केंद्रीयकरण की दिशा में यह अधिनियम निर्णायक कदम था। इस अधिनियम की विशेषतायें निम्नानुसार थीं:

अधिनियम की विशेषताएं

1. इसने बंगाल के गवर्नर जनरल को भारत का गवर्नर जनरल बना दिया, जिसमें सभी नागरिक और सैन्य शक्तियां निहित थीं। इस प्रकार, इस अधिनियम ने पहली बार एक ऐसी सरकार का निर्माण किया, जिसका ब्रिटिश कब्जे वाले संपूर्ण भारतीय क्षेत्र पर पूर्ण नियंत्रण था। लॉर्ड विलियम बैंटिक भारत के प्रथम गवर्नर जनरल थे।

2. इसने मद्रास और बंबई के गवर्नरों को विधायिका संबंधी शक्ति से वंचित कर दिया। भारत के गवर्नर जनरल को पूरे ब्रिटिश भारत में विधायिका के असीमित अधिकार प्रदान कर दिये गये। इसके अंतर्गत पहले बनाए गए कानूनों को नियामक कानून कहा गया और नए कानून के तहत बने कानूनों को एक्ट या अधिनियम कहा गया।

3. ईस्ट इंडिया कंपनी की एक व्यापारिक निकाय के रूप में की जाने वाली गतिविधियों को समाप्त कर दिया गया। अब यह विशुद्ध रूप से प्रशासनिक निकाय बन गया। इसके तहत कंपनी के अधिकार वाले क्षेत्र ब्रिटिश राजशाही और उसके उत्तराधिकारियों के विश्वास के तहत ही कब्जे में रह गए।

4. चार्टर एक्ट 1833 ने सिविल सेवकों के चयन के लिए खुली प्रतियोगिता का आयोजन शुरू करने का प्रयास किया। इसमें कहा गया कि कंपनी में भारतीयों को किसी पद, कार्यालय और रोजगार को हासिल करने से वंचित नहीं किया जायेगा। हालांकि कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के विरोध के कारण इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया।

1853 का चार्टर अधिनियम

1793 से 1853 के दौरान ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किए गए चार्टर अधिनियमों की श्रृंखला में यह अंतिम अधिनियम था। संवैधानिक विकास की दृष्टि से यह अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम था। इस अधिनियम की विशेषतायें निम्नानुसार थींः

अधिनियम की विशेषताएं

1. इसने पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया। इसके तहत परिषद में छह नए पार्षद और जोड़े गए, इन्हें विधान पार्षद कहा गया। दूसरे शब्दों में, इसने गवर्नर जनरल के लिए नई विधान परिषद का गठन किया, जिसे भारतीय (केंद्रीय) विधान परिषद कहा गया। परिषद की इस शाखा ने छोटी संसद की तरह कार्य किया। इसमें वही प्रक्रियाएं अपनाई गईं, जो ब्रिटिश संसद में अपनाई जाती थीं। इस प्रकार, विधायिका को पहली बार सरकार के विशेष कार्य के रूप में जाना गया, जिसके लिए विशेष मशीनरी और प्रक्रिया की जरूरत थी।

2. इसने सिविल सेवकों की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगिता व्यवस्था का शुभारंभ किया, इस प्रकार विशिष्ट सिविल सेवा’ भारतीय नागरिकों के लिए भी खोल दी गई और इसके लिए 1854 में (भारतीय सिविल सेवा के संबंध में) मैकाले समिति की नियुक्त की गई।

3. इसने कंपनी के शासन को विस्तारित कर दिया और भारतीय क्षेत्र को इंग्लैंड राजशाही के विश्वास के तहत कब्जे में रखने का अधिकार दिया। लेकिन पूर्व अधिनियमों के विपरीत इसमें किसी निश्चित समय का निर्धारण नहीं किया गया था। इससे स्पष्ट था कि संसद द्वारा कंपनी का शासन किसी भी समय समाप्त किया जा सकता था।

4. इसने प्रथम बार भारतीय केंद्रीय विधान परिषद में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रारंभ किया। गवर्नर जनरल की परिषद में छह नए सदस्यों में से, चार का चुनाव बंगाल, मद्रास, बंबई और आगरा की स्थानीय प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था।

ताज का शासन [1858 से 1947 तक]

1858 का भारत शासन अधिनियम

इस महत्वपूर्ण कानून का निर्माण 1857 के विद्रोह के बाद किया गया, जिसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या सिपाही विद्रोह भी कहा जाता है। भारत के शासन को अच्छा बनाने वाला अधिनियम नाम के प्रसिद्ध इस कानून ने, ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर दिया और गवर्नरों, क्षेत्रों और राजस्व संबंधी शक्तियां ब्रिटिश राजशाही को हस्तांतरित कर दीं।

अधिनियम की विशेषताएं

1. इसके तहत भारत का शासन सीधे महारानी विक्टोरिया के अधीन चला गया। गवर्नर जनरल का पदनाम बदलकर भारत का वायसराय कर दिया गया। वह (वायसराय) भारत में ब्रिटिश ताज का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि बन गया। लॉर्ड कैनिंग भारत के प्रथम वायसराय बने ।

2. इस अधिनियम ने नियंत्रण बोर्ड और निदेशक कोर्ट समाप्त कर भारत में शासन की द्वैध प्रणाली समाप्त कर दी।

3. एक नए पद, भारत के राज्य सचिव, का सृजन किया गया; जिसमें भारतीय प्रशासन पर संपूर्ण नियंत्रण की शक्ति निहित थी। यह सचिव ब्रिटिश कैबिनेट का सदस्य था और ब्रिटिश अंततः संसद के प्रति उत्तरदायी था।

4. भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यीय परिषद का गठन किया गया, जो एक सलाहकार समिति थी। परिषद का अध्यक्ष भारत सचिव को बनाया गया।

5. इस कानून के तहत भारत सचिव की परिषद का गठन किया गया, जो एक निगमित निकाय थी और जिसे भारत और इंग्लैंड में मुकदमा करने का अधिकार था। इस पर भी मुकदमा किया जा सकता था।

1858 के कानून का प्रमुख उद्देश्य, प्रशासनिक मशीनरी में सुधार था, जिसके माध्यम से इंग्लैंड में भारतीय सरकार का अधीक्षण और उसका नियंत्रण हो सकता था। इसने भारत में प्रचलित शासन प्रणाली में कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया।

1861, 1892 और 1909 के भारत परिषद अधिनियम 1857 की महान क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने महसूस किया कि भारत में शासन चलाने के लिए भारतीयों का सहयोग लेना आवश्यक है। इस सहयोग नीति के तहत ब्रिटिश संसद ने 1861, 1892 और 1909 में तीन नए अधिनियम पारित किए। 1861 का भारत परिषद अधिनियम भारतीय संवैधानिक और राजनैतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अधिनियम था।

1861 के भारत परिषद अधिनियम की विशेषताएं

1. इसके द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने की शुरुआत हुई। इस प्रकार वायसराय कुछ भारतीयों को विस्तारित परिषद में गैर-सरकारी सदस्यों के रूप में नामांकित कर सकता था। 1862 में लॉर्ड कैनिंग ने तीन भारतीयों-बनारस के राजा, पटियाला के महाराजा और सर दिनकर राव को विधान परिषद में मनोनीत किया।

2. इस अधिनियम ने मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों को विधायी शक्तियां पुनः देकर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत की। इस प्रकार इस अधिनियम ने रेगुलेटिंग एक्ट, 1773 द्वारा शुरू हुई केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति को उलट दिया और 1833 के चार्टर अधिनियम के साथ ही अपने चरम पर पहुंच गया। इस विधायी विकास की नीति के कारण 1937 तक प्रांतों को संपूर्ण आंतरिक स्वायत्तता हासिल हो गई।

3. बंगाल, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत और पंजाब में क्रमशः 1862, 1866 और 1897 में विधानपरिषदों का गठन हुआ।

4. इसने वायसराय को परिषद में कार्य संचालन के लिए अधिक नियम और आदेश बनाने की शक्तियां प्रदान कीं। इसने लॉर्ड कैनिंग द्वारा 1859 में प्रारंभ की गई पोर्टफोलियो प्रणाली को भी मान्यता दी। इसके अंतर्गत वायसराय की परिषद का एक सदस्य एक या अधिक सरकारी विभागों का प्रभारी बनाया जा सकता था तथा उसे इस विभाग में काउंसिल की ओर से अंतिम आदेश पारित करने का अधिकार था।

5. इसने वायसराय को आपातकाल में बिना काउंसिल की संस्तुति के अध्यादेश जारी करने के लिए अधिकृत किया। ऐसे अध्यादेश की अवधि मात्र छह माह होती थी।

1892 के अधिनियम की विशेषताएं

1. इसके माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त (गैर-सरकारी) सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई, हालांकि बहुमत सरकारी सदस्यों का ही रहता था।

2. इसने विधान परिषदों के कार्यों में वृद्धि कर उन्हें बजट पर बहस करने और कार्यपालिका के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिकृत किया।

3. इसमें केंद्रीय विधान परिषद और बंगाल चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स में गैर-सरकारी सदस्यों के नामांकन के लिए वायसराय की शक्तियों का प्रावधान था। इसके अलावा प्रांतीय विधान परिषदों में गवर्नर को जिला परिषद, नगरपालिका, विश्वविद्यालय, व्यापार संघ, जमींदारों और चैम्बर ऑफ़ कॉमर्स की सिफारिशों पर गैर-सरकारी सदस्यों को नियुक्त करने की शक्ति थी।

इस अधिनियम ने केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों दोनों में गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक सीमित और परोक्ष रूप से चुनाव का प्रावधान किया हालांकि चुनाव शब्द का अधिनियम में प्रयोग नहीं हुआ था। इसे निश्चित निकायों की सिफारिश पर की जाने वाली नामांकन की प्रक्रिया कहा गया।

1909 के अधिनियम की विशेषताएं

इस अधिनियम को मॉर्ले-मिंटो सुधार के सुधार के नाम से भी जाना जाता है (उस समय लॉर्ड मॉर्ले इंग्लैंड में भारत के राज्य सचिव थे और लॉर्ड मिंटो भारत में वायसराय थे)।

1. इसने केंद्रीय और प्रांतीय विधानपरिषदों के आकार में काफी वृद्धि की। केंद्रीय परिषद में इनकी संख्या 16 से 60 हो गई। प्रांतीय विधानपरिषदों में इनकी संख्या एक समान नहीं थी।

2. इसने केंद्रीय परिषद में सरकारी बहुमत को बनाए रखा लेकिन प्रांतीय परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति थी।

3. इसने दोनों स्तरों पर विधान परिषदों के चर्चा कार्यों का दायरा बढ़ाया। उदाहरण के तौर पर अनुपूरक प्रश्न पूछना, बजट पर संकल्प रखना आदि।

4. इस अधिनियम के अंतर्गत पहली बार किसी भारतीय को वायसराय और गवर्नर की कार्यपरिषद के साथ एसोसिएशन बनाने का प्रावधान किया गया। सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा वायसराय की कार्यपालिका परिषद के प्रथम भारतीय सदस्य बने। उन्हें विधि सदस्य बनाया गया था।

5. इस अधिनियम ने पृथक् निर्वाचन के आधार पर मुस्लिमों के लिए सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का प्रावधान किया। इसके अंतर्गत मुस्लिम सदस्यों का चुनाव मुस्लिम मतदाता ही कर सकते थे। इस प्रकार इस अधिनियम ने सांप्रदायिकता को वैधानिकता प्रदान की और लॉर्ड मिंटो को सांप्रदायिक निर्वाचन के जनक के रूप में जाना गया।

6. इसने प्रेसिडेंसी कॉरपोरेशन, चैंबर्स ऑफ कॉमर्स, विश्वविद्यालयों और जमींदारों के लिए अलग प्रतिनिधित्व का प्रावधान भी किया।

भारत शासन अधिनियम, 1919

20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश सरकार ने पहली बार घोषित किया कि उसका उद्देश्य भारत में क्रमिक रूप से उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था। क्रमिक रूप से 1919 में भारत शासन अधिनियम बनाया गया, जो 1921 से लागू हुआ। इस कानून को मांटेग-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है (मांटेग भारत के राज्य सचिव थे, जबकि चेम्सफोर्ड भारत के वायसराय थे)।

अधिनियम की विशेषताएं

1. केंद्रीय और प्रांतीय विषयों की सूची की पहचान कर एवं उन्हें पृथक् कर राज्यों पर केंद्रीय नियंत्रण कम किया गया। केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों को, अपनी सूचियों के विषयों पर विधान बनाने का अधिकार प्रदान किया गया। लेकिन सरकार का ढांचा केंद्रीय और एकात्मक ही बना रहा।

2. इसने प्रांतीय विषयों को पुनः दो भागों में विभक्त किया- हस्तांतरित और आरक्षित । हस्तांतरित विषयों पर गवर्नर का शासन होता था और इस कार्य में वह उन मंत्रियों की सहायता लेता था, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी थे। दूसरी ओर आरक्षित विषयों पर गवर्नर कार्यपालिका परिषद की सहायता से शासन करता था, जो विधान परिषद के प्रति उत्तरदायी नहीं थी। शासन की इस दोहरी व्यवस्था को द्वैध (यूनानी शब्द डाई-आर्की से व्युत्पन्न) शासन व्यवस्था कहा गया। हालांकि यह व्यवस्था काफी हद तक असफल ही रही।

3. इस अधिनियम ने पहली बार देश में द्विसदनीय व्यवस्था और प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था प्रारंभ की। इस प्रकार भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्विसदनीय व्यवस्था यानी राज्यसभा और लोकसभा का गठन किया गया। दोनों सदनों के बहुसंख्यक सदस्यों को प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से निर्वाचित किया जाता था।

4. इसके अनुसार, वायसराय की कार्यकारी परिषद के छह सदस्यों में से (कमांडर-इन-चीफ़ को छोड़कर) तीन सदस्यों का भारतीय होना आवश्यक था।

5. इसने सांप्रदायिक आधार पर सिखों, भारतीय ईसाईयों, आंग्ल-भारतीयों और यूरोपियों के लिए भी पृथक् निर्वाचन के सिद्धांत को विस्तारित कर दिया।

6. इस कानून ने संपत्ति, कर या शिक्षा के आधार पर सीमित संख्या में लोगों को मताधिकार प्रदान किया।

7. इस कानून ने लंदन में भारत के उच्चायुक्त के कार्यालय का सृजन किया और अब तक भारत सचिव द्वारा किए जा रहे कुछ कार्यों को उच्चायुक्त को स्थानांतरित कर दिया गया।

8. इससे एक लोक सेवा आयोग का गठन किया गया। अतः 1926 में सिविल सेवकों की भर्ती के लिए केंद्रीय लोक सेवा आयोग का गठन किया गया।

9. इसने पहली बार केंद्रीय बजट को राज्यों के बजट से अलग कर दिया और राज्य विधानसभाओं को अपना बजट स्वयं बनाने के लिए अधिकृत कर दिया।

10. इसके अंतर्गत एक वैधानिक आयोग का गठन किया गया, जिसका कार्य दस वर्ष बाद जांच करने के बाद अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना था।

साइमन आयोग

ब्रिटिश सरकार ने नवंबर 1927 में (यानि निर्धारित समय से दो वर्ष पूर्व ही) नए संविधान में भारत की स्थिति का पता लगाने के लिए सर जॉन साइमन के नेतृत्व में सात सदस्यीय वैधानिक आयोग के गठन की घोषणा की। आयोग के सभी सदस्य ब्रिटिश थे, इसलिए सभी दलों ने इसका बहिष्कार किया। आयोग ने 1930 में अपनी रिपोर्ट पेश की तथा द्वैध शासन प्रणाली, राज्यों में सरकारों का विस्तार, ब्रिटिश भारत के संघ की स्थापना एवं सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था को जारी रखने आदि की सिफारिशें कीं।

आयोग के प्रस्तावों पर विचार करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश सरकार, ब्रिटिश भारत और भारतीय रियासतों के प्रतिनिधियों के साथ तीन गोलमेज सम्मेलन किए। इन सम्मेलनों में हुयी चर्चा के आधार पर, ‘संवैधानिक सुधारों पर एक श्वेत-पत्र’ तैयार किया गया, जिसे विचार के लिए ब्रिटिश संसद की संयुक्त प्रवर समिति के समक्ष रखा गया। इस समिति की सिफारिशों को (कुछ संशोधनों के साथ) भारत परिषद अधिनियम, 1935 में शामिल कर दिया गया।

सांप्रदायिक अवार्ड

ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड ने अगस्त 1932 में अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व पर एक योजना की घोषणा की। इसे कम्युनल अवार्ड या सांप्रदायिक अवार्ड के नाम से जाना गया। अवार्ड ने न सिर्फ मुस्लिमों, सिख, ईसाई, यूरोपियनों और आंग्ल- भारतीयों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था का विस्तार किया बल्कि इसे दलितों के लिए भी विस्तारित कर दिया गया। दलितों के लिए अलग निर्वाचन व्यवस्था से गांधी बहुत व्यथित हुए और उन्होंने अवार्ड में संशोधन के लिए पूना की यरवदा जेल में अनशन प्रारंभ कर दिया। अंततः कांग्रेस नेताओं और दलित नेताओं के बीच एक समझौता हुआ, जिसे पूना समझौते के नाम से जाना गया। इसमें संयुक्त हिंदू निर्वाचन व्यवस्था को बनाए रखा गया और दलितों के लिए स्थान भी आरक्षित कर दिए गए।

भारत शासन अधिनियम, 1935

यह अधिनियम भारत में पूर्ण उत्तरदायी सरकार के गठन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। यह एक लंबा और विस्तृत दस्तावेज था, जिसमें 321 धाराएं और 10 अनुसूचियां थीं।

अधिनियम की विशेषताएं

1. इसने अखिल भारतीय संघ की स्थापना की, जिसमें राज्य और रियासतों को एक इकाई की तरह माना गया। अधिनियम ने केंद्र और इकाइयों के बीच तीन सूचियों-संघीय सूची (59 विषय), राज्य सूची (54 विषय) और समवर्ती सूची (दोनों के लिये, 36 विषय) के आधार पर शक्तियों का बंटवारा कर दिया। अवशिष्ट शक्तियां वायसराय को दे दी गईं। हालांकि यह संघीय व्यवस्था कभी अस्तित्व में नहीं आई क्योंकि देसी रियासतों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था।

2. इसने प्रांतों में द्वैध शासन व्यवस्था समाप्त कर दी तथा प्रांतीय स्वायत्तता का शुभारंभ किया। राज्यों को अपने दायरे में रह कर स्वायत्त तरीके से तीन पृथक् क्षेत्रों में शासन का अधिकार दिया गया। इसके अतिरिक्त अधिनियम ने राज्यों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की। यानि गवर्नर को राज्य विधान परिषदों के लिए उत्तरदायी मंत्रियों की सलाह पर काम करना आवश्यक था। यह व्यवस्था 1937 में शुरू की गई और 1939 में इसे समाप्त कर दिया गया।

3. इसने केंद्र में द्वैध शासन प्रणाली का शुभारंभ किया। परिणामतः संघीय विषयों को स्थानांतरित और आरक्षित विषयों में विभक्त करना पड़ा। हालांकि यह प्रावधान कभी लागू नहीं हो सका।

4. इसने 11 राज्यों में से छह में द्विसदनीय व्यवस्था प्रारंभ की। इस प्रकार, बंगाल, बंबई, मद्रास, बिहार, संयुक्त प्रांत और असम में द्विसदनीय विधान परिषद् और विधानसभा बन गईं। हालांकि इन पर कई प्रकार के प्रतिबंध थे।

5. इसने दलित जातियों, महिलाओं और मजदूर वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन की व्यवस्था कर सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था का विस्तार किया।

6. इसने भारत शासन अधिनियम, 1858 द्वारा स्थापित भारत परिषद को समाप्त कर दिया। इंग्लैंड में भारत सचिव को सलाहकारों की टीम मिल गई।

7. इसने मताधिकार का विस्तार किया। लगभग दस प्रतिशत जनसंख्या को मत का अधिकार मिल गया।

8. इसके अंतर्गत देश की मुद्रा और साख पर नियंत्रण के लिये भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना की गई।

9. इसने न केवल संघीय लोक सेवा आयोग की स्थापना की बल्कि प्रांतीय सेवा आयोग और दो या अधिक राज्यों के लिए संयुक्त सेवा आयोग की स्थापना भी की।

10. इसके तहत 1937 में संघीय न्यायालय की स्थापना हुई।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947

20 फरवरी, 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोषणा की कि 30 जून, 1947 को भारत में ब्रिटिश शासन समाप्त हो जाएगा। इसके बाद सत्ता उत्तरदायी भारतीय हाथों में सौंप दी जाएगी।

इस घोषणा पर मुस्लिम लीग ने आंदोलन किया और भारत के विभाजन की बात कही। 3 जून, 1947 को ब्रिटिश सरकार ने फिर स्पष्ट किया कि 1946 में गठित संविधान सभा द्वारा बनाया गया संविधान उन क्षेत्रों में लागू नहीं होगा, जो इसे स्वीकार नहीं करेंगे। उसी दिन 3 जून, 1947 को वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने विभाजन की योजना पेश की, जिसे माउंटबेटन योजना कहा गया। इस योजना को कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 बनाकर उसे लागू कर दिया गया।

अधिनियम की विशेषताएं

1. इसने भारत में ब्रिटिश राज समाप्त कर 15 अगस्त, 1947 को इसे स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया।

2. इसने भारत का विभाजन कर दो स्वतन्त्र डोमिनयनों-संप्रभु राष्ट्र भारत और पाकिस्तान का सृजन किया, जिन्हें ब्रिटिश राष्ट्रमंडल से अलग होने की स्वतंत्रता थी।

3. इसने वायसराय का पद समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर दोनों डोमिनयन राज्यों में गवर्नर-जनरल पद का सृजन किया, जिसकी नियुक्ति नए राष्ट्र की कैबिनेट की सिफारिश पर ब्रिटेन के ताज को करनी था। इन पर ब्रिटेन की सरकार का कोई नियंत्रण नहीं होना था।

4. इसने दोनों डोमिनियन राज्यों संविधान सभाओं को अपने देशों का संविधान बनाने और उसके लिए किसी भी देश के संविधान को अपनाने की शक्ति दी। सभाओं को यह भी शक्ति थी कि वे किसी भी ब्रिटिश कानून को समाप्त करने के लिए कानून बना सकती थीं, यहां तक कि उन्हें स्वतंत्रता अधिनियम को भी निरस्त करने का अधिकार था।

5. इसने दोनों डोमिनयन राज्यों की संविधान सभाओं को यह शक्ति प्रदान की कि वे नए संविधान का निर्माण एवं कार्यान्वित होने तक अपने-अपने सम्बन्धित क्षेत्रों के लिए विधानसभा बना सकती थीं। 15 अगस्त, 1947 के बाद ब्रिटिश संसद में पारित हुआ कोई भी अधिनियम दोनों डोमिनयनों पर तब तक लागू नहीं होगा, जब तक कि दोनों डोमिनियन इस कानून को मानने के लिए कानून नहीं बना लेंगे।

6. इस कानून ने ब्रिटेन में भारत सचिव का पद समाप्त कर दिया। इसकी सभी शक्तियां राष्ट्रमंडल मामलों के राज्य सचिव को स्थानांतरित कर दी गईं।

7. इसने 15 अगस्त, 1947 से भारतीय रियासतों पर ब्रिटिश संप्रभुता की समाप्ति की भी घोषणा की। इसके साथ ही आदिवासी क्षेत्र समझौता संबंधों पर भी ब्रिटिश हस्तक्षेप समाप्त हो गया।

तालिका 1.1 अंतरिम सरकार (1946)

क्र.सं.सदस्यधारित विभाग
1जवाहरलाल नेहरूराष्ट्रमंडल संबंध तथा विदेशी मामले
2सरदार वल्लभभाई पटेलगृह, सूचना एवं प्रसारण
3डॉ. राजेंद्र प्रसादखाद्य एवं कृषि
4जॉन मथाईउद्योग एवं नागरिक आपूर्ति
5जगजीवन रामश्रम
6सरदार बलदेव सिंहरक्षा
7सी.एच. भाभाकार्य, खान एवं ऊर्जा
8लियाकत अली खांवित्त
9अब्दुर-रब-निश्तारडाक एवं वायु
10आसफ अलीरेलवे एवं परिवहन
11सी. राजगोपालाचारीशिक्षा एवं कला
12आई. आई. चुंदरीगरवाणिज्य
13गजनफर अली खानस्वास्थ्य
14जोगेंद्र नाथ मंडलविधि

नोटः अंतरिम सरकार के सदस्य वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य थे। वायसराय परिषद का प्रमुख बना रहा, लेकिन जवाहरलाल नेहरू को परिषद का उपाध्यक्ष बनाया गया।

तालिका 1.2 स्वतंत्र भारत का पहला मंत्रिमंडल (1947)

क्र.सं.सदस्यधारित विभाग
1जवाहरलाल नेहरूप्रधानमंत्री; राष्ट्रमंडल तथा विदेशी मामले; वैज्ञानिक शोध
2सरदार वल्लभभाई पटेलगृह, सूचना एवं प्रसारण, राज्यों के मामले
3डॉ. राजेंद्र प्रसादखाद्य एवं कृषि
4मौलाना अबुल कलाम आजादशिक्षा
5डॉ. जॉन मथाईरेलवे एवं परिवहन
6आर. के. षणमुगम शेट्टीवित्त
7डॉ. बी.आर. अंबेडकरविधि
8जगजीवन रामश्रम
9सरदार बलदेव सिंहरक्षा
10राजकुमारी अमृत कौरस्वास्थ्य
11सी.एच. भाभावाणिज्य
12रफी अहमद किदवईसंचार
13डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जीउद्योग एवं आपूर्ति
14वी.एन. गाडगिलकार्य, खान एवं ऊर्जा

8. इसने भारतीय रियासतों को यह स्वतंत्रता दी कि वे चाहें तो भारत डोमिनियन या पाकिस्तान डोमिनियन के साथ मिल सकती हैं या स्वतंत्र रह सकती हैं।

9. इस अधिनियम ने नया संविधान बनने तक प्रत्येक डोमिनियन में शासन संचालित करने एवं भारत शासन अधिनियम, 1935 के तहत उनकी प्रांतीय सभाओं में सरकार चलाने की व्यवस्था की। हालांकि दोनों डोमिनियन राज्यों को इस कानून में सुधार करने का अधिकार था।

10. इसने ब्रिटिश शासक को विधेयकों पर मताधिकार और उन्हें स्वीकृत करने के अधिकार से वंचित कर दिया। लेकिन ब्रिटिश शासक के नाम पर गवर्नर जनरल को किसी भी विधेयक को स्वीकार करने का अधिकार प्राप्त था।

11. इसके अंतर्गत भारत के गवर्नर जनरल एवं प्रांतीय गवर्नरों को राज्यों का संवैधानिक प्रमुख नियुक्त किया गया। इन्हें सभी मामलों पर राज्यों की मंत्रिपरिषद् के परामर्श पर कार्य करना होता था।

12 . इसने शाही उपाधि से ‘भारत का सम्राट’ शब्द समाप्त कर दिया।

13. इसने भारत के राज्य सचिव द्वारा सिविल सेवा में नियुक्तियां करने और पदों में आरक्षण करने की प्रणाली समाप्त कर दी। 15 अगस्त, 1947 से पूर्व के सिविल सेवा कर्मचारियों को वही सुविधाएं मिलती रहीं, जो उन्हें पहले से प्राप्त थीं।

14-15 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि को भारत में ब्रिटिश शासन का अंत हो गया और समस्त शक्तियां दो नए स्वतंत्र डोमिनियनों-भारत और पाकिस्तान’ को स्थानांतरित कर दी गईं। लॉर्ड माउंटबेटन नए डोमिनियन भारत, के प्रथम गवर्नर-जनरल बने। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई। 1946 में बनी संविधान सभा को स्वतंत्र भारतीय डोमिनियन की संसद के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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