समस्थैतिकता (Homeostasis)

नियमित दशा (Steady State)

ज्ञातव्य है कि, मानव शरीर विविध प्रकार के ऊतकों, अंगों तथा अंग-तन्त्रों में व्यवस्थित लगभग 200 प्रकार की खरबों कोशिकाओं का बना होता है और इन्हीं सब कोशिकाओं की सम्मिलित कार्यिकी के फलस्वरूप शरीर का अस्तित्व बना रहता है। ध्यातव्य है कि, प्रत्येक सजीव कोशिका को एक “अत्यधिक सूक्ष्म रासायनिक फैक्ट्री (miniature chemical factory)” की उपमा दी जाती है, क्योंकि इसमें प्रतिपल ऊर्जा उत्पादन के लिए हजारों विघटनात्मक (compound-breaking or catabolic) तथा ऊर्जा खपाने वाली हजारों संश्लेषणात्मक (compound-forming or synthetic or anabolic) अभिक्रियाएँ (reactions) होती रहती हैं, जिन्हें उपापचयी अभिक्रियाएँ (metabolic reactions) कहते हैं। कोशिका के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, कि “ऊर्जा की खपत के बराबर ही ऊर्जा का उत्पादन होता रहे (energy-output equals energy-input)”, तथा ऊर्जा के उत्पादन और इसकी खपत का यह ताल-मेल वातावरण की बदलती हुई भौतिक-रासायनिक दशाओं में भी बना रहे। इसी ताल- मेल को परिवर्तनीय क्रियात्मक सन्तुलन (dynamic functional equilibrium) या नियमित दशा (steady state) कहते हैं। कोशिकाएँ इस दशा को तभी बनाए रख सकती हैं जब-

(1) अपने वातावरण से इन्हें उपापचय (metabolism) में खपने वाले पोषक पदार्थों (ग्लूकोस, ऐमीनो अम्लों, वसीय अम्लों, खनिजों, आदि) ऑक्सीजन (O₂) तथा जल की आवश्यक मात्राएँ बराबर मिलती रहें;

(2) ये उपापचय के फलस्वरूप बने अपशिष्ट पदार्थों (CO₂, अनावश्यक जल तथा नाइट्रोजनीय एवं अन्य अपशिष्टों) को अपने वातावरण में बराबर विसर्जित करती रहें, तथा

(3) उपापचयी अभिक्रियाओं के फलस्वरूप मुक्त होने वाली निरर्थक स्वतन्त्र ऊर्जा विक्षिप्त ऊष्मा (dissipated heat) के रूप में बराबर बाहर निकलती रहे।

➤ समस्थैतिकता (Homeostasis)

जीवधारियों में, वातावरण की भौतिक रासायनिक दशाओं में निरन्तर होते रहने वाले परिवर्तनों के अनुसार, अपने आप को नियमित दशा (steady state) में बनाए रखने की प्राकृतिक अर्थात् अन्तर्निहित (जन्मजात-inherent) क्षमता होती है। जीवधारियों की इसी क्षमता को समस्थैतिकता या समस्थापन अर्थात् होमियोस्टैसिस (Gr., homos = same or similar + stasis = standing) कहते हैं। पारिभाषिक शब्द के रूप में ‘होमियोस्टैसिस’ का प्रथम प्रयोग सन् 1932 में वाल्टर कैनन (Walter Cannon) ने किया। स्पष्ट है कि जीवों में होमियोस्टैसिस स्वस्थ अस्तित्व का मानक है।। अतः यह व्यक्तिगत कोशिकाओं के स्तर पर ही नहीं, वरन् जीव-शरीर के ऊतकीय, अंगीय एवं अंग-तन्त्रीय स्तरों पर तथा समस्त जीव-जगत् के संघठन के अनुक्रमिक स्तरों पर भी काम करता है।

• एककोशिकीय जीवों में समस्थैतिकता

एककोशिकीय जीव जलीय वातावरण के वासी होते हैं। जलीय वातावरण से पदार्थों के आदान-प्रदान को वातावरण की ही बदलती हुई भौतिक-रासायनिक दशाओं के अनुसार नियमित करके ये अपने आप को नियमित दशा (steady state) में बनाए रखते हैं।

• जन्तुओं में समस्थैतिकता (Homeostasis in Animals) स्पंज तथा नाइडेरिया जैसे निम्न कोटि के संघ वाले जन्तु भी जल के वासी होते हैं और इनमें शरीर की कोशिकाओं का इस जल से सीधा सम्पर्क बना रहता है। अतः इन जन्तुओं में भी समस्थैतिकता कोशिकीय स्तर पर ही होती है। उच्च कोटि के जन्तुओं, विशेषतः कशेरुकियों (vertebrates), में शरीर की कोशिकाएँ ऊतकों, अंगों एवं अंग-तन्त्रों में संघठित होती हैं और इनका शरीर के बाहरी वातावरण से सीधा सम्पर्क नहीं होता। अतः वातावरण से पदार्थों का आदान-प्रदान शरीर के विशिष्ट अंग तन्त्र करते हैं; पाचन तन्त्र वातावरण से पोषक पदार्थ तथा श्वसन तन्त्र ऑक्सीजन (0₂) ग्रहण करता और उत्सर्जन तन्त्र शरीर के अपशिष्ट पदार्थों का वातावरण में विसर्जन करता है। सन् 1856 में क्लॉडी बरनार्ड (Claude Bernard) ने स्पष्ट किया कि ये जन्तु जल में वास करते हों या भूमि पर, इनमें बाह्य वातावरण (external environment) के अतिरिक्त शरीर के भीतर पूर्ण शरीर में फैला एक तरल अन्तः वातावरण (internal environment) होता है। इस तरल को बाह्य कोशिकीय तरल (extra cellular fluid-ECF) कहते हैं। यह एक-दूसरे से जुड़े तीन उपखण्डों (sub-segments) में बँटा होता है-रुधिर (blood), लसिका (lymph) तथा ऊतक द्रव्य (inter cellular or Tissue fluid)। ऊतक द्रव्य ऊतकों में कोशिकाओं के चारों ओर होता है। अतः – कोशिकाएँ विभिन्न प्रकार के आवश्यक पदार्थों-पोषक पदार्थों, – ऑक्सीजन (O₂), खनिज आयनों, विटामिनों, हारमोन्स आदि को ऊतक द्रव्य से ग्रहण करती हैं तथा इसी द्रव्य में अपने सारे अपशिष्ट – पदार्थों का विसर्जन करती हैं। रुधिर शरीर के विभिन्न ऊतकों एवं अंगों के बीच इन सभी पदार्थों के परिवहन का काम करता हैं।* लसिका कुछ अपशिष्ट पदार्थों को ऊतक द्रव्य से रुधिर में पहुँचाने का काम करता है।* ध्यातव्य है कि बहुकोशिकीय जन्तुओं में कोशिकाएँ कुशलतापूर्वक कार्य करने के लिए अपने-आप को नियमित दशा में तभी बनाए रख सकती हैं, जब ऊतक द्रव्य में भौतिक रासायनिक दशाएँ एक आदर्श सीमा (optimum range) में बनी रहें। अतः स्पष्ट है कि अन्तः वातावरण की स्थायी नियमित दशा इन जन्तुओं के अस्तित्व के लिए आवश्यक होती है।

➤ समस्थैतिकता स्वः नियामक होती है (Homeostasis is Self-regulatory)

शरीर के बाह्य अथवा अन्तःवातावरण में होते रहने वाले भौतिक-रासायनिक परिवर्तनों के प्रभावों को निष्प्रभावी करने हेतु हमारी क्रियाओं में होते रहने वाले परिवर्तन हमारी प्रतिक्रियाएँ (reactions or responses) कहलाती हैं। जब वातावरणीय प्रभाव से किसी अंग या ऊतक की कार्यिकी असामान्य हो जाती है तो अन्य अंगों या ऊतकों की प्रतिक्रियाएँ प्रभावित अंग या ऊतक की कार्यिकी की सामान्य दशा को पुनः स्थापित करती है। ये प्रतिक्रियाएँ चाहे हमारे विवेक पर आधारित चेतन अर्थात् ऐच्छिक (voluntary) हों, चाहे अनैच्छिक (involuntary) इनका, प्रयोजन समस्थैतिकता को बनाए रखने का होता है और समस्थैतिकता का यह नियमन शरीर में स्वतः निरन्तर होता रहता है; हमें इसका आभास तक भी नहीं होता। इस प्रकार समस्थैतिकता स्वः नियामक होती है।*

जैसा कि उपरोक्त दृष्टान्तों से स्पष्ट है, समस्थैतिकता एक ऐसी जटिल प्रक्रिया होती है जिसमें जनन तन्त्र (reproductive system) के अतिरिक्त, अन्य सभी अंग-तन्त्रों के कार्यों में अधिकतम् सामंजस्य अर्थात् समन्वयन (co-ordination) आवश्यक होता है। जब तक समस्थैतिकता बनी रहती है, शरीर की कोशिकाएँ वातावरणीय दशाओं के बदलते रहने पर भी, दक्षतापूर्वक अपना काम करके शरीर को जीवित दशा में बनाए रखती हैं। इस प्रकार, समस्थैतिकता में शरीर की प्रत्येक कोशिका का योगदान होता है, और प्रत्येक कोशिका इससे लाभान्वित होती है। किसी भी ऊतक, अंग या अंग-तन्त्र का समस्थैतिकता में योगदान किसी कारण से गड़बड़ा जाता है तो शरीर रोगीला हो जाता है और इसकी मृत्यु भी हो सकती है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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