समस्थैतिकता तथा शरीर का संगठन

जैसा कि सर्वविदित है, विभिन्न रासायनिक तत्वों के परमाणुओं (atoms) से जीव पदार्थ के विभिन्न अणु (molecules) बनते हैं, फिर विभिन्न जैविक अणुओं के संघठन से जीव पदार्थ (protoplasm) और इसकी सुसंघठित इकाइयाँ अर्थात् कोशिकाएँ (cells) बनती हैं तथा बहुकोशिकीय जीवों में विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ सुसंघठित होकर अपने-अपने ऊतक (tissues) बनाती हैं, और फिर भिन्न-भिन्न ऊतक मिलकर कई प्रकार के सुसंघठित अंग (organs) बनाते हैं। अन्त में परस्पर जुड़े और मिलकर काम करने वाले भिन्न-भिन्न अंग शरीर में कई प्रकार के अंग-तन्त्र (organ systems) बनाते हैं। अंग तन्त्र मिलकर पूर्ण शरीर बनाते हैं। प्रत्येक अंग तन्त्र शरीर की एक या अधिक विशिष्ट जैव-क्रियाओं (vital activities) को अन्जाम देता है।

मानव शरीर के विभिन्न अंग तन्त्र, इनमें सम्मिलित अंग तथा इनके कार्य संक्षेप में निम्नलिखित होते हैं-

1. अध्यावरणी तन्त्र (Integumentary System) : त्वचा तथा इससे सम्बन्धित रचनाएँ। यह तन्त्र शरीर का आवरण बनाता है और इसकी सुरक्षा का काम करता है।

2. पेशीय तन्त्र (Muscular System): समस्त पेशियाँ। इन्हीं से शरीर का गमन (locomotion) एवं विभिन्न अंगों की गतियाँ (movements) होती हैं।

3. कंकाल तन्त्र (Skeletal System): पूरा कंकाल। यह शरीर का अवलम्बन ढाँचा (supporting framework) बनाता है, कोमल अंगों की सुरक्षा करता है तथा पेशियों को जुड़ने का स्थान देता है।

4. पाचन तन्त्र (Digestive System): इसमें हमारे मुख से गुदा तक फैली आहारनाल (alimentary canal) के विभिन्न भाग तथा इससे सम्बन्धित पाचन ग्रन्थियाँ आती हैं। ये सब अंग निम्नलिखित होते हैं-

(i) मुख एवं मुखगुहा, (ii) जिह्वा, (iii) दाँत, (iv) लार ग्रन्थियाँ, (v) ग्रसनी, (vi) ग्रासनली, (vii) आमाशय, (viii) आँत, (ix) यकृत, (x) अग्न्याशय तथा (xi) पित्ताशय।

इस तन्त्र का कार्य वातावरण से भोजन-ग्रहण करने, भोजन को पचाने तथा भोजन के अपचयित भाग का मल के रूप में परित्याग करना होता है।

5. परिसंचरण तन्त्र (Circulatory System) : इसमें हृदय, रुधिरवाहिनियाँ तथा लसिकावाहिनियाँ आती हैं। यह तन्त्र पूर्ण शरीर में विभिन्न पदार्थों का संवहन करता है। कोशिकाओं के लिए आवश्यक लाभदायक पदार्थों को कई अंगों से अवशोषित करके यह पूर्ण शरीर में वितरित करता है और कोशिकाओं में बने अपजात पदार्थों को पूर्ण शरीर से एकत्रित करके इन्हें उत्सर्जी अंगों में पहुँचाता है।

6. श्वसन तन्त्र (Respiratory System) : इस तन्त्र में नासिका, कण्ठ, वायुनलिकाएँ तथा फेफड़े आते हैं। इस तन्त्र का कार्य हमारी श्वास क्रिया तथा फेफड़ों में निश्वसित (inspired) वायु से ऑक्सीजन (O₂) ग्रहण करना और बदले में निःश्वसन (expiration) की वायु में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) मुक्त करना होता है। बाहरी वायु से ग्रहण की गई 0, के द्वारा ग्लूकोस का विखण्डन करके शरीर कोशिकाएँ ऊर्जा प्राप्त करती हैं।

7. मूत्रीय अथवा उत्सर्जन तन्त्र (Urinary or Excretory System) : इस तन्त्र में वृक्क (गुर्दे), मूत्रवाहिनियाँ तथा मूत्राशय आते हैं। यह तन्त्र रुधिर से नाइट्रोजनीय तथा अन्य अपजात पदार्थों को ग्रहण करके मूत्र के रूप में इनका परित्याग करता है जिससे कि शरीर के अन्तः वातावरण की सफाई होती रहती है।

8. जनन तन्त्र (Reproductive System) : इसमें पुरुषों एवं स्त्रियों के जनन से सम्बन्धित अंग आते हैं जो निम्नलिखित होते हैं। यथा-

• पुरुष जननांग

(i) वृषण, (ii) अधिवृषण या एपिडिडाइमिस, (iii) शुक्रवाहिनियाँ, (iv) शुक्राशय, (v) प्रोस्टेट ग्रन्थि, (vi) काउपर की ग्रन्थियाँ तथा, (vii) शिश्न।

• स्त्री जननांग

(i) अण्डाशय, (ii) अण्डवाहिनियाँ, (iii) गर्भाशय, (iv) योनि तथा (v) भग।

9. तन्त्रिका तन्त्र तथा सुग्राही (संवेदी) अंग (Nervous System and Sensory Organs) : तन्त्रिका तन्त्र में हमारा मस्तिष्क, सुषुम्ना तथा इनसे सम्बन्धित तन्त्रिकाएँ आती हैं। हमारे नेत्र, कर्ण, नासिका, त्वचा तथा जिह्वा ग्राही अंगों अर्थात् संवेदांगों का काम करते हैं। ये वातावरणीय उद्दीपनों को ग्रहण करके तन्त्रिकाओं को हस्तान्तरित करते हैं। फिर तन्त्रिका तन्त्र इन उद्दीपनों की तथा इनके अनुसार शरीर की प्रतिक्रियाओं की सूचनाओं को प्रसारित करता है।

10. प्रतिरक्षा तन्त्र (Immune System) : इसमें श्वेत रुधिर कणिकाएँ तथा वे लसीकाभ (lymphoid) अंग या ऊतक [थाइमस ग्रन्थि, अस्थि मज्जा, तिल्ली (प्लीहा) एवं लसिका गाँठें] आते हैं, जिनमें इन कणिकाओं का बहुगुणन होता है। यह तन्त्र शरीर पर आक्रमण करने वाले सूक्ष्म रोगोत्पादक जीवों तथा विष पदार्थों को नष्ट या निष्क्रिय करके शरीर की सुरक्षा करता है।

11. अन्तःस्त्रावी तन्त्र (Endocrine System) : इसमें हॉरमोन्स (hormones) का स्रावण करने वाली अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ तथा कुछ अन्य अंग आते हैं। ये ग्रन्थियाँ होती हैं पीयूष (pituitary), थाइरॉइड, पैराथाइरॉइड, अधिवृक्क अर्थात् ऐड्रीनल, पिनियल, थाइमस तथा अग्न्याशय। अन्य अंग मुख्यतः होते हैं- वृषण, अण्डाशय एवं अपरा या आँवल। हॉरमोन हमारे शरीर की वृद्धि और विकास तथा लगभग सभी क्रियाओं का रासायनिक नियन्त्रण करते हैं।

➤ देहभित्ति (Body Wall)

हमारे पूर्ण शरीर पर मोटी देहभित्ति का रक्षात्मक आवरण होता है। इसे दो भागों में बाँटा जा सकता है। यथा-

(i) अध्यावरण (integument)

(ii) अधस्त्वचीय स्तर (Subcutaneous layer)

अध्यावरण में त्वचा (skin) और इससे व्युत्पन्न सरंचनाएँ- रोम (hair), नख (nails) तथा स्वेद एवं तैल ग्रन्थियाँ (sweat and sebaceous glands) -होती हैं। त्वचा और संरचनाएँ अध्यावरणी तन्त्र (Integumentary system) बनाती हैं। शरीर की सुरक्षा के अतिरिक्त, अध्यावरण ताप-नियन्त्रण, उत्सर्जन, विटामिन D के संश्लेषण तथा स्पर्श, पीड़ा, ठण्ड, गर्मी आदि की संवेदनाओं को ग्रहण करने में सहायता करता है।*

अधस्त्वचीय स्तर तन्तुयुक्त अन्तराली (areolar) तथा वसीय (adipose) ऊतकों का बना होता है। इसे सतही प्रावरण (superficial fascia) भी कहते हैं। इसके नीचे कंकाल पेशियाँ (skeletal muscles) होती हैं जिन्हें यह त्वचा से जोड़ने का काम करता है। प्रत्येक कंकाल पेशी पर भी एक तन्तुयुक्त आवरण होता है। जिसे भीतरी प्रावरण (deep fascia) कहते हैं।

➤ देहगुहा तथा आन्तरांग (Body Cavity and Internal Organs)

हमारे शरीर के कई अंगों में छोटी-छोटी गुहाएँ होती हैं, जैसे कि नासिका की नासा गुहाएँ (nasal cavities), मुखगुहा (oral cavity), कपाल गुहा (cranial cavity) आदि, परन्तु सबसे बड़ी गुहा हमारे शरीर के धड़ (trunk) भाग में, रीढ़ की हड्डी अर्थात् कशेरुकदण्ड (backbone or vertebral column) के आगे, गरदन से गुदा तक फैली होती है। इस गुहा को देहगुहा या सीलोम या स्प्लैक्निक गुहा (Coelom or Splanchnic cavity) कहते हैं।* हमारी खोपड़ी में बन्द मस्तिष्क (brain) तथा कशेरुकदण्ड में बन्द मेरुरज्जु (spinal cord) को छोड़कर, अन्य अधिकांश अंग इसी गुहा में स्थित होते हैं। इन सब अंगों को सम्मिलित रूप से आन्तरांग या विसरा (internal organs or viscera) कहते हैं।

देहगुहा में एक रंगहीन एवं चिपचिपा, लसिका-समान (lymph- like) तरल भरा होता है जिसे देहगुहीय या सीलोमिक द्रव्य (coelomic fluid) कहते हैं। यह तरल आन्तरांगों को नम, चिकना तथा यथास्थान बनाए रखकर इन्हें थोड़ा-बहुत हिलने-डुलने की स्वतन्त्रता देता है। देहगुहा खुली गुहा नहीं होती, वरन् एक महीन, पारदर्शक एवं चमकीली सीरमी झिल्ली (serous membrane) में बन्द होती है जिसे

देहगुहीय उपकला या पेरिटोनियम (coelomic epithelium or peritoneum) कहते हैं। यह झिल्ली भ्रूणीय मीसोडर्म (embryonic mesoderm) से व्युत्पन्न चपटी, शल्की (squamous) कोशिकाओं के इकहरे स्तर के रूप में होती है। स्पष्ट है कि आन्तरांग देहगुहीय द्रव्य (coelomic fluid) में निलम्बित नहीं होते; पेरिटोनियम इन्हें द्रव्य के सम्पर्क से पृथक् रखती है।

गुम्बद के आकार की एक मांसल अनुप्रस्थ पट्टी देहगुहा को दो प्रमुख भागों में बाँटती है- ऊपर की ओर, वक्ष भाग में छोटी वक्षगुहा (thoracic cavity) तथा नीचे की ओर, उदर भाग में बड़ी उदरीय या पेरिटोनियल गुहा (abdominal, perivisceral or peritoneal cavity) । इस विभाजक पट्टी को तन्तुपट अर्थात् डायफ्राम (diaphragm) कहते हैं। यह श्वेत संयोजी ऊतक तथा पेशियों की बनी होती है। यह हमारी श्वास क्रिया के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है।*

➤ वक्षगुहा (Thoracic Cavity)

वक्षगुहा निम्नलिखित दो पृथक गुहाओं में विभक्त होती है। यथा-

(i) हृदयावरणी (Pericardial cavity)

(ii) फुफ्फुसावरणी (Pleural cavities)

भ्रूण (embryo) में हृदय का विकास होते समय वक्षगुहा का एक छोटा भाग इससे पृथक् होकर हृदय को बन्द कर लेता है। इस भाग को पेरिकार्डियल गुहा कहते हैं। इसमें (pericardial mem- brane) तथा इसमें बन्द देहगुहीय द्रव्य को हृदयावरणी द्रव्य (pericardial fluid) कहते हैं। हृदयावरणी झिल्ली के भीतरी, हृदय से संलग्न भाग को अधिहृद्रस्तर अर्थात् एपिकार्डियम (epicardium) तथा बाहरी भाग को हृदयावरण अर्थात् पेरिकार्डियम (pericardium) कहते हैं।

शेष वक्षगुहा को संयोजी ऊतक की बनी एक सँकरी, मध्यवर्ती विभाजक पट्टी (partition) दायीं-बायीं प्ल्यूरल गुहाओं में बाँट देती है जिनमें अपनी-अपनी ओर के फेफड़े बन्द रहते हैं। इस विभाजक पट्टी को मध्यावकाश अर्थात् मिडियास्टिनल स्थान (mediasti- num) कहते हैं। पेरिकार्डियल गुहा, श्वासनाल, ग्रासनली, थाइमस ग्रन्थि तथा कुछ बड़ी रुधिरवाहिनियाँ इसी स्थान में स्थित होती हैं। प्रत्येक प्ल्यूरल गुहा के सीरमी आवरण के भीतरी फेफड़ों से संलग्न भाग को आन्तरांगीय फुफ्फुसावरण या विसरल प्ल्यूरा (Visceral pleura) तथा बाहरी, देहभित्ति से संलग्न भाग को भित्तीय अर्थात् पैराएटल प्ल्यूरा (Parietal pleura) कहते हैं।

➤ उदर गुहा (Abdominal Cavity)

डायफ्राम से गुदा तक फैले, देहगुहा के शेष भाग को उदरगुहा (abdominal cavity) कहते हैं। इसे पेरिटोनियल गुहा (Peritoneal cavity) तथा इसमें भरे तरल को

पेरिटोनियल द्रव्य (peritoneal fluid) भी कहते हैं। इसका सबसे निचला कुछ भाग श्रोणिमेखला (Pelvic girdle) की हड्डियों से घिरा होता है। अतः इस भाग को श्रोणिगुहा (Pelvic cavity) तथा पूर्ण उदरगुहा को उदरीयश्रोणि गुहा (abdominopelvic cavity) कहा जा सकता है। इस गुहा का बाहरी सीरमी आवरण देहभित्ति से संलग्न रहता है। इसे भित्तीय उदरछद या पैराएटल पेरिटोनियम (parietal peritoneum) कहते हैं। भीतरी सीरमी आवरण विविध आन्तरांगों के चारों ओर संलग्न होने के लिए बँटा होता है। इसे आन्तरांगीय उदरछद या विसरल पेरिटोनियम (visceral peritoneum) कहते हैं। अधिकांश आन्तरांगों का उदरछद दोहरी सीरमी झिल्ली की दोहरी पट्टियों द्वारा भित्तीय उदरछद से जुड़ा होता है। इन पट्टियों को आंत्रयोजनियाँ अर्थात् मीसेन्ट्रीज (mesenteries) कहते हैं। ये आन्तरांगों को यथास्थान साधे रखती हैं। लचीली होने के कारण ये आन्तरांगों को हिलने-डुलने की सुविधा देती हैं, परन्तु परस्पर टकराने से रोकती हैं।

➤ आन्तरांग एवं इनकी स्थितियाँ (Visceral Organs & their locations)

उपरोक्त विवरण के अनुसार, हमारा मस्तिष्क खोपड़ी में तथा मेरुरज्जु कशेरुकदण्ड में बन्द होती है। वक्ष भाग में हृदय, फेफड़े, श्वासनाल तथा ग्रासनली स्थित होती है। शेष अधिकांश आन्तरांग उदरगुहा में होते हैं। इनमें सबसे ऊपर तन्तुपट अर्थात् डायफ्राम के ठीक नीचे, दाई ओर, चॉकलेटी रंग का बड़ा यकृत (liver) होता है। शरीर का सबसे बड़ा आन्तरांग होने के कारण यह गुहा का अधिकांश भाग घेरे रहता है।* डायफ्राम के ठीक पीछे ही, बाई ओर, मोटा एवं सफेद आमाशय (stomach) होता है। यह आगे ग्रासनली से तथा पीछे आँत (intestine) से जुड़ा होता है। इसे सीधे रखने वाली प्रमुख आन्त्रयोजनी अर्थात् मीसेन्ट्री वसायुक्त होती है। इसे महाओमेन्टम (greater omentum) कहते हैं। आमाशय एवं डायफ्राम के बीच में यकृत के बाई ओर अण्डाकार-सी गहरी लाल प्लीहा (spleen) होती है। आँत अत्यधिक लम्बी एवं कुण्डलित होती है। इसका प्रथम भाग “U” की आकृति की ग्रहणी (duodenum) होती है जिसकी दो भुजाओं के बीच पीली-सी, शाखान्वित ग्रन्थि होती है जिसे अग्न्याशय (pancreas) कहते हैं। आहारनाल के कई भाग आन्त्रयोजनी अर्थात् मीसेन्ट्री-जैसी झिल्लियों द्वारा निकटवर्ती आन्तरांगों से जुड़े रहते हैं। ऐसी प्रत्येक झिल्ली को ओमेन्टम (Omentum) कहते हैं। आँत के पीछे की ओर, पीठ की दीवार तथा भित्तीय उदरछद के बीच सेम के बीज के आकार के गुर्दे या वृक्क (kid- neys) होते हैं। स्पष्ट है कि ये उदरगुहा के बाहर होते हैं और उदरछद से घिरे नहीं होते। दाहिना वृक्क बाएँ से थोड़ा ऊपर की ओर स्थित होता है। एक छोटी-सी पीली एवं अण्डाकार अधिवृक्क या ऐड्रीनल ग्रन्थि (adrenal gland) प्रत्येक वृक्क के ऊपरी छोर पर टोपी की भाँति ढकी रहती है। प्रत्येक वृक्क से एक पतली मूत्रवाहिनी (ureter) निकलकर श्रोणिगुहा में स्थित बड़े से मूत्राशय (urinary bladder) में खुलती है। पुरुषों में मूत्राशय मलाशय के ठीक आगे होता है। स्त्रियों में यह गर्भाशय के नीचे योनि के ठीक आगे स्थित होता है। इससे एक पेशीय मूत्रमार्ग (urethra) निकलकर पुरुषों में शिश्न के शिखर पर तथा स्त्रियों में भगशिश्न एवं योनि छिद्र के बीच प्रकोष्ठ (vesti- bule) में खुलता है।

स्त्रियों की श्रोणिगुहा में, गर्भाशय के इधर-उधर, एक-एक छोटा अण्डाशय (ovary) होता है। प्रत्येक अण्डाशय के निकट स्थित एक रोमाभि कीपनुमा रचना से एक अण्डवाहिनी (oviduct) प्रारम्भ होती है और तिरछी मध्य रेखा की ओर बढ़कर मध्य में स्थित मोटे एवं शंक्वाकार से पेशीयुक्त गर्भाशय (uterus) में खुल जाती है। गर्भाशय का सँकरा भाग नीचे की ओर होता है और एक नाल में उभरा रहता है जिसे योनि (vagina) कहते हैं। नालस्वरूप योनि मूत्राशय एवं मलाशय के बीच में स्थित होती है और टाँगों के बीच आगे की ओर एक प्रकोष्ठ (vestibule) में स्थित योनि छिद्र (vagi- nal orifice) द्वारा बाहर खुलती है।

पुरुष के जनद अर्थात् वृषण (testis) उदरगुहा के बाहर, टाँगों के बीच में आगे की ओर स्थित एक वृषण कोष (scrotal sac) में लटके होते हैं। प्रत्येक वृषण से एक शुक्रवाहिनी (vas deferens) निकलकर, वृषण कोष को श्रोणिगुहा से जोड़ने वाली सँकरी वक्षण नाल (inguinal canal) में से होती हुई, श्रोणिगुहा में पहुँचती है और मध्य रेखा की ओर मुड़कर अपनी ओर की मूत्रवाहिनी के चारो ओर एक फन्दा बनाती हुई अपनी ओर की शुक्राशय (seminal vesicle) नामक ग्रन्थि की छोटी-सी नलिका में खुल जाती है। इन दोनों के मिलने से एक छोटी-सी सहनलिका बनती है जिसे स्खलन नलिका (ejaculatory duct) कहते हैं। दोनों ओर की स्खलन नलिकाएँ मूत्राशय से निकलने वाले मूत्रमार्ग (urethra) में खुलती हैं। मूत्रमार्ग लम्बा होता है और शिश्न (penis) में होता हुआ इसके शिखर पर मूत्रोजनन छिद्र (urinogenital orifice) द्वारा बाहर खुलता है। शिश्न एक स्पंजी दण्डनुमा संरचना होती है जो टाँगों के बीच में आगे की ओर वृषण कोष पर लटकी रहती है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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