जीवों के जनन की क्रिया-विधि पर चर्चा करने से पूर्व आइए, हम एक मूलभूत प्रश्न करें- कि जीव जनन क्यों करते हैं? वास्तव में पोषण, श्वसन अथवा उत्सर्जन जैसे आवश्यक जैव-प्रक्रमों की तुलना में किसी व्यष्टि (जीव) को जीवित रहने के लिए जनन आवश्यक नहीं है। दूसरी ओर, जीव को संतति उत्पन्न करने के लिए अत्यधिक ऊर्जा व्यय करनी पड़ती है। फिर जीव उस प्रक्रम में अपनी ऊर्जा व्यर्थ क्यों करे, जो उसके जीवित रहने के लिए आवश्यक नहीं है? कक्षा में इस प्रश्न के संभावित उत्तर खोजना अत्यंत रोचक होगा।
इस प्रश्न का जो भी उत्तर हो, परंतु यह स्पष्ट है कि हमें विभिन्न जीव इसीलिए दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि वे जनन करते हैं। यदि वह जीव एकल होता तथा कोई भी जनन द्वारा अपने सदृश व्यष्टि उत्पन्न नहीं करता, तो संभव है कि हमें उनके अस्तित्व का पता भी नहीं चलता। किसी प्रजाति में पाए जाने वाले जीवों की विशाल संख्या ही हमें उसके अस्तित्व का ज्ञान कराती है। हर्म कैसे पता चलता है कि दो व्यष्टि एक ही प्रजाति के सदस्य हैं? सामान्यतः हम ऐसा इसलिए कहते हैं, क्योंकि वे एकसमान दिखाई देते हैं। अतः जनन करने वाले जीव संतति का सृजन करते हैं जो बहुत सीमा तक उनके समान दिखते हैं।
7.1 क्या जीव पूर्णतः अपनी प्रतिकृति का सृजन करते हैं?
विभिन्न जीवों की अभिकल्प, आकार एवं आकृति समान होने के कारण ही वे सदृश प्रतीत होते हैं। शरीर का अभिकल्प समान होने के लिए उनका ब्लूप्रिंट भी समान होना चाहिए। अतः अपने आधारभूत स्तर पर जनन जीव के अभिकल्प का ब्लूप्रिंट तैयार करता है। कक्षा 9 में आप पढ़ चुके हैं कि कोशिका के केंद्रक में पाए जाने वाले गुणसूत्रों के डी.एन.ए.-DNA (डि. आक्सीराइबोन्यूक्लीक अम्ल) के अणुओं में आनुवंशिक गुणों का संदेश होता है, जो जनक से संतति पीढ़ी में जाता है। कोशिका के केंद्रक के डी.एन.ए. में प्रोटीन संश्लेषण हेतु सूचना निहित होती है। इस संदेश के भिन्न होने की अवस्था में बनने वाली प्रोटीन भी भिन्न होगी। विभिन्न प्रोटीन के कारण अंततः शारीरिक अभिकल्प में भी विविधता होगी।
अतः जनन की मूल घटना डी.एन.ए. (DNA) की प्रतिकृति बनाना है। डी.एन.ए. की प्रतिकृति बनाने के लिए कोशिकाएँ विभिन्न रासायनिक क्रियाओं का उपयोग करती हैं। जनन कोशिका में इस प्रकार डी.एन.ए. की दो प्रतिकृतियाँ बनती हैं तथा उनका एक-दूसरे से अलग होना आवश्यक है। परंतु डी.एन.ए. की एक प्रतिकृति को मूल कोशिका में रखकर दूसरी प्रतिकृति को उससे बाहर निकाल देने से काम नहीं चलेगा, क्योंकि दूसरी प्रतिकृति के पास जैव-प्रक्रमों के अनुरक्षण हेतु संगठित कोशिकीय संरचना तो नहीं होगी। इसलिए डी.एन.ए. की प्रतिकृति बनने के साथ-साथ दूसरी कोशिकीय संरचनाओं का सृजन भी होता रहता है। इसके बाद डी.एन.ए. की प्रतिकृतियाँ विलग हो जाती हैं। परिणामतः एक कोशिका विभाजित होकर दो कोशिकाएँ बनाती है।
यह दोनों कोशिकाएँ यद्यपि एकसमान हैं, परंतु क्या वे पूर्णरूपेण समरूप हैं? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर करता है कि प्रतिकृति की प्रक्रियाएँ कितनी यथार्थता से संपादित होती हैं। कोई भी जैव-रासायनिक प्रक्रिया पूर्णरूपेण विश्वसनीय नहीं होती। अतः यह अपेक्षित है कि डी.एन.ए. प्रतिकृति की प्रक्रिया में कुछ विभिन्नता आएगी। परिणामतः बनने वाली डी.एन.ए. प्रतिकृतियाँ एकसमान तो होंगी, परंतु मौलिक डी.एन.ए. का समरूप नहीं होंगी। हो सकता है कि कुछ विभिन्नताएँ इतनी उग्र हों कि डी.एन.ए. की नई प्रतिकृति अपने कोशिकीय संगठन के साथ समायोजित नहीं हो पाए। इस प्रकार की संतति कोशिका मर जाती है। दूसरी ओर डी.एन.ए. प्रतिकृति की अनेक विभिन्नताएँ इतनी उग्र नहीं होतीं। अतः संतति कोशिकाएँ समान होते हुए भी किसी न किसी रूप में एक दूसरे से भिन्न होती हैं। जनन में होने वाली यह विभिन्नताएँ जैव-विकास का आधार हैं, जिसकी चर्चा हम अगले अध्याय में करेंगे।
7.1.1 विभिन्नता का महत्व
अपनी जनन क्षमता का उपयोग कर जीवों की समष्टि पारितंत्र में स्थान अथवा निकेत ग्रहण करते हैं। जनन के दौरान डी.एन.ए. प्रतिकृति का अविरोध जीव की शारीरिक संरचना एवं डिज़ाइन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो उसे विशिष्ट निकेत के योग्य बनाती है। अतः किसी प्रजाति (स्पीशीज़) की समष्टि के स्थायित्व का संबंध जनन से है।
परंतु, निकेत में अनेक परिवर्तन आ सकते हैं, जो जीवों के नियंत्रण से बाहर हैं। पृथ्वी का ताप कम या अधिक हो सकता है, जल स्तर में परिवर्तन अथवा किसी उल्का पिंड का टकराना इसके कुछ उदाहरण हैं। यदि एक समष्टि अपने निकेत के अनुकूल है तथा निकेत में कुछ उग्र परिर्वतन आते हैं तो ऐसी अवस्था में समष्टि का समूल विनाश भी संभव है, परंतु यदि समष्टि के जीवों में कुछ विभिन्नता होगी तो उनके जीवित रहने की कुछ संभावना है। अतः यदि शीतोष्ण जल में पाए जाने वाले जीवाणुओं की कोई समष्टि है तथा वैश्विक ऊष्मीकरण (global warming) के कारण जल का ताप बढ़ जाता है तो अधिकतर जीवाणु व्यष्टि मर जाएँगे, परंतु उष्ण प्रतिरोधी क्षमता वाले कुछ परिवर्त ही जीवित रहते हैं तथा वृद्धि करते हैं। अतः विभिन्नताएँ स्पीशीज की उत्तरजीविता बनाए रखने में उपयोगी हैं।
7.2 एकल जीवों में प्रजनन की विधि
क्रियाकलाप 7.1
• 100 mL जल में लगभग 10 g चीनी को घोलिए।
• एक परखनली में इस विलयन का 20 ml. लेकर उसमें एक चुटकी यीस्ट पाउडर डालिए।
• परखनली के मुख को रुई से ढक कर किसी गर्म स्थान पर रखिए।
• 1 या 2 घंटे पश्चात, परखनली से यीस्ट-संवर्ध की एक बूँद स्लाइड पर लेकर उस पर कवर-स्लिप रखिए।
• सूक्ष्मदर्शी की सहायता से स्लाइड का प्रेक्षण कीजिए।
क्रियाकलाप 7.2
• डबल रोटी के एक टुकड़े को जल में भिगोकर ठंडे, नम तथा अँधेरे स्थान पर रखिए।
• आवर्धक लेंस की सहायता से स्लाइस की सतह का निरीक्षण कीजिए।
• अपने एक सप्ताह के प्रेक्षण कॉपी में रिकॉर्ड कीजिए।
यीस्ट की वृद्धि एवं दूसरे क्रियाकलाप में कवक की वृद्धि के तरीके की तुलना कीजिए तथा ज्ञात कीजिए कि इनमें क्या अंतर है।
इस चर्चा के बाद कि जनन किस प्रकार कार्य करता है? आइए, हम जानें कि विभिन्न जीव वास्तव में किस प्रकार जनन करते हैं। विभिन्न जीवों के जनन की विधि उनके शारीरिक अभिकल्प पर निर्भर करती है।
7.2.1 विखंडन
एककोशिक जीवों में कोशिका विभाजन अथवा विखंडन द्वारा नए जीवों की उत्पत्ति होती है। विखंडन के अनेक तरीके प्रेक्षित किए गए। अनेक जीवाणु तथा प्रोटोजोआ की कोशिका विभाजन द्वारा सामान्यतः दो बराबर भागों में विभक्त हो जाती है। अमीबा जैसे जीवों में कोशिका विभाजन किसी भी तल से हो सकता है।
क्रियाकलाप 7.3
• अमीबा की स्थायी स्लाइड का सूक्ष्मदर्शी की सहायता से प्रेक्षण कीजिएण
• इसी प्रकार अमीबा के द्विखंडन की स्थायी स्लाइड का प्रेक्षण कीजिए।
• अब दोनों स्लाइडों की तुलना कीजिए।
परंतु कुछ एककोशिक जीवों में शारीरिक संरचना अधिक संगठित होती है। उदाहरणतः कालाजार के रोगाणु, लेस्मानिया में कोशिका के एक सिरे पर कोड़े के समान सूक्ष्म संरचना होती है। ऐसे जीवों में द्विखंडन एक निर्धारित तल से होता है। मलेरिया परजीवी, प्लैज्मोडियम जैसे अन्य एककोशिक जीव एक साथ अनेक संतति कोशिकाओं में विभाजित हो जाते हैं, जिसे बहुखंडन कहते हैं।
दूसरी ओर यीस्ट कोशिका से छोटे मुकुल उभर कर कोशिका से अलग हो जाते हैं तथा स्वतंत्र रूप से वृद्धि करते हैं जैसा कि हम क्रियाकलाप 7.1 में देख चुके हैं।
क्रियाकलाप 7.4
• किसी झील अथवा तालाब जिसका जल गहरा हरा दिखाई देता हो और जिसमें तंतु के समान संरचनाएँ हों, उससे कुछ जल एकत्र कीजिए।
• एक स्लाइड पर एक अथवा दो तंतु रखिए।
• इन तंतुओं पर ग्लिसरीन की एक बूँद डालकर कवर-स्लिप से ढक दीजिए।
• सूक्ष्मदर्शी के नीचे स्लाइड का प्रेक्षण कीजिए।
• क्या आप स्पाइरोगाइरा तंतुओं में विभिन्न ऊतक पहचान सकते हैं?
सरल संरचना वाले बहुकोशिक जीवों में जनन की सरल विधि कार्य करती है। उदाहरणतः स्पाइरोगाइरा सामान्यतः विकसित होकर छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित हो जाता है। यह टुकड़े अथवा खंड वृद्धि कर नए जीव (व्यष्टि) में विकसित हो जाते हैं। क्रियाकलाप 7.4 के प्रेक्षण के आधार पर क्या हम इसका कारण खोज सकते हैं?
परंतु यह सभी बहुकोशिक जीवां के लिए सत्य नहीं है। वे सरल रूप से कोशिका-दर-कोशिका विभाजित नहीं होते। ऐसा क्यों है? इसका कारण है कि अधिकतर बहुकोशिक जीव विभिन्न कोशिकाओं का समूह मात्र ही नहीं हैं। विशेष कार्य हेतु विशिष्ट कोशिकाएँ संगठित होकर ऊतक का निर्माण करती हैं तथा ऊतक संगठित होकर अंग बनाते हैं, शरीर में इनकी स्थिति भी निश्चित होती है। ऐसी सजग व्यवस्थित परिस्थिति में कोशिका-दर-कोशिका विभाजन अव्यावहारिक है। अतः बहुकोशिक जीवा को जनन के लिए अपेक्षाकृत अधिक जटिल विधि की आवश्यकता होती है।
बहुकोशिक जीवों द्वारा प्रयुक्त एक सामान्य युक्ति यह है कि विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ विशिष्ट कार्य के लिए दक्ष होती हैं। इस सामान्य व्यवस्था का परिपालन करते हुए इस प्रकार के जीवों में जनन के लिए विशिष्ट प्रकार की कोशिकाएँ होती हैं। क्या जीव अनेक प्रकार की कोशिकाओं का बना होता है? इसका उत्तर है कि जीव में कुछ ऐसी कोशिकाएँ होनी चाहिए, जिनमें वृद्धि, क्रम, प्रसरण तथा उचित परिस्थिति में विशेष प्रकार की कोशिका बनाने की क्षमता हो।
7.2.3 पुनरुद्भवन (पुनर्जनन)
पूर्णरूपेण विभेदित जीवों में अपने कायिक भाग से नए जीव के निर्माण की क्षमता होती है। अर्थात यदि किसी कारणवश जीव क्षत-विक्षत हो जाता है अथवा कुछ टुकड़ों में टूट जाता है तो इसके अनेक टुकड़े वृद्धि कर नए जीव में विकसित हो जाते हैं। उदाहरणतः हाइड्रा तथा प्लेनेरिया जैसे सरल प्राणियों को यदि कई टुकड़ों में काट दिया जाए तो प्रत्येक टुकड़ा विकसित होकर पूर्णजीव का निर्माण कर देता है। यह पुनरुद्भवन (चित्र 7.3) कहलाता है। पुनरुद्भवन (पुनर्जनन) विशिष्ट कोशिकाओं द्वारा संपादित होता है। इन कोशिकाओं के क्रमप्रसरण से अनेक कोशिकाएँ बन जाती हैं। कोशिकाओं के इस समूह से परिवर्तन के दौरान विभिन्न प्रकार की कोशिकाएँ एवं ऊतक बनते हैं। यह परिवर्तन बहुत व्यवस्थित रूप एवं क्रम से होता है, जिसे परिवर्धन कहते हैं। परंतु पुनरुद्भवन जनन के समान नहीं है, इसका मुख्य कारण यह है कि प्रत्यक जीव के किसी भी भाग को काटकर सामान्यतः नया जीव उत्पन्न नहीं होता।
7.2.4 मुकुलन
हाइड्रा जैसे कुछ प्राणी पुनर्जनन की क्षमता वाली कोशिकाओं का उपयोग मुकुलन के लिए करते हैं। हाइड्रा में कोशिकाओं के नियमित विभाजन के कारण एक स्थान पर उभार विकसित हो जाता है। यह उभार (मुकुल) वृद्धि करता हुआ नन्हे जीव में बदल जाता है तथा पूर्ण विकसित होकर जनक से अलग होकर स्वतंत्र जीव बन जाता है।
7.2.5 कायिक प्रवर्धन
ऐसे बहुत से पौधे हैं, जिनमें कुछ भाग जैसे जड़, तना तथा पत्तियाँ उपयुक्त परिस्थितियों में विकसित होकर नया पौधा उत्पन्न करते हैं। अधिकतर जंतुओं के विपरीत, एकल पौधे इस क्षमता का उपयोग जनन की विधि के रूप में करते हैं। परतन, कलम अथवा रोपण जैसी कायिक प्रवर्धन की तकनीक का उपयोग कृषि में भी किया जाता है। गन्ना, गुलाब अथवा अंगूर इसके कुछ उदाहरण हैं। कायिक प्रवर्धन द्वारा उगाए गए पौधों में बीज द्वारा उगाए पौधों की अपेक्षा पुष्प एवं फल कम समय में लगने लगते हैं। यह पद्धति केला, संतरा, गुलाब एवं चमेली जैसे उन पौधों को उगाने के लिए उपयोगी है, जो बीज उत्पन्न करने की क्षमता खो चुके हैं। कायिक प्रवर्धन का दूसरा लाभ यह भी है कि इस प्रकार उत्पन्न सभी पौधे आनुवांशिक रूप से जनक पौधे के समान होते हैं।
क्रियाकलाप 7.5
• एक आलू लेकर उसकी सतह का निरीक्षण कीजिए। क्या इसमें कुछ गर्त दिखाई देते हैं?
• आलू को छोटे-छोटे टुकड़ों में इस प्रकार काटिए कि कुछ में तो यह गर्त हों और कुछ में नहीं।
• एक ट्रे में रुई की पतली पर्त बिछा कर उसे गीला कीजिए। कलिका (गर्त) वाले टुकड़ों को एक ओर तथा बिना गर्त वाले टुकड़ों को दूसरी ओर रख दीजिए।
• अगले कुछ दिनों तक इन टुकड़ों में होने वाले परिवर्तनों का प्रेक्षण कीजिए। ध्यान रखिए कि रुई में नमी बनी रहे।
• वे कौन से टुकड़े हैं, जिनसे हरे प्ररोह तथा जड़ विकसित हो रहे हैं?
इसी प्रकार ब्रायोफिलम की पत्तियों की कोर पर कुछ कलिकाएँ विकसित होकर मृदा में गिर जाती हैं तथा नए पौधे (चित्र 7.5) में विकसित हो जाती हैं।
क्रियाकलाप 7.6
• एक मनीप्लांट लीजिए।
• इसे कुछ टुकड़ों में इस प्रकार काटिए कि प्रत्येक में कम से कम एक पत्ती अवश्य हो।
• दो पत्तियों के मध्य वाले भाग के कुछ टुकड़े काटिए।
• सभी टुकड़ों के एक सिरे को जल में डुबोकर रखिए तथा अगले कुछ दिनों तक उनका अवलोकन कीजिए।
• कौन से टुकड़ों में वृद्धि होती है तथा नई पत्तियाँ निकली हैं।
• आप अपने प्रेक्षणों से क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
7.2.6 बीजाणु समासंघ
अनेक सरल बहुकोशिक जीवों में भी विशिष्ट जनन संरचनाएँ पाई जाती हैं। क्रियाकलाप 7.2 में ब्रेड पर धागे के समान कुछ संरचनाएँ विकसित हुई थीं। यह राइजोपस का कवक जाल है। ये जनन के भाग नहीं हैं, परंतु ऊर्ध्व तंतुओं पर सूक्ष्म गुच्छ (गोल) संरचनाएँ जनन में भाग लेती हैं। ये गुच्छ बीजाणुधानी हैं, जिनमें विशेष कोशिकाएँ अथवा बीजाणु पाए जाते (चित्र 7.6) हैं। यह बीजाणु वृद्धि करके राइजोपस के नए जीव उत्पन्न करते हैं। बीजाणु के चारों ओर एक मोटी भित्ति होती है, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में उसकी रक्षा करती है, नम सतह के संपर्क में आने पर वह वृद्धि करने लगते हैं।
अब तक जनन की जिन विधियों की हमने चर्चा की उन सभी में नई पीढ़ी का सृजन केवल एकल जीव द्वारा होता है। इसे अलैंगिक जनन कहते हैं।
7.3 लैंगिक जनन
हम जनन की उस विधि से भी परिचित हैं, जिसमें नई संतति उत्पन्न करने हेतु दो व्यष्टि (एकल जीवों) की भागीदारी होती है। न तो एकल बैल संतति बछड़ा पैदा कर सकता है, और न ही एकल मुर्गी से नए चूजे उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसे जीवों में नवीन संतति उत्पन्न करने हेतु नर एवं मादा दोनों लिंगों की आवश्यकता होती है। इस लैंगिक जनन की सार्थकता क्या है? क्या अलैंगिक जनन की कुछ सीमाएँ हैं, जिनकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं?
7.3.1 लैंगिक जनन प्रणाली क्यों?
एकल (पैत्रक) कोशिका से दो संतति कोशिकाओं के बनने में डी.एन.ए. की प्रतिकृति बनना एवं कोशिकीय संगठन दोनों ही आवश्यक हैं। जैसा कि हम जान चुके हैं कि डी.एन.ए. प्रतिकृति की तकनीक पूर्णतः यथार्थ नहीं है, परिणामी त्रुटियाँ जीव की समष्टि में विभिन्नता का स्रोत हैं। जीव की प्रत्येक व्यष्टि विभिन्नताओं द्वारा संरक्षित नहीं हो सकती, परंतु स्पीशीज़ की समष्टि में पाई जाने वाली विभिन्नता उस स्पीशीज़ के अस्तित्व को बनाए रखने में सहायक है। अतः जीवों में जनन की कोई ऐसी विधि अधिक सार्थक होगी, जिसमें अधिक विभिन्नता उत्पन्न हो सके।
यद्यपि डी.एन.ए. प्रतिकृति की प्रणाली पूर्णरूपेण यथार्थ नहीं है। वह इतनी परिशुद्ध अवश्य है, जिसमें विभिन्नता अत्यंत धीमी गति से उत्पन्न होती है। यदि डी.एन.ए. प्रतिकृति की क्रियाविधि कम परिशुद्ध होती, तो बनने वाली डी.एन.ए. प्रतिकृतियाँ कोशिकीय संरचना के साथ सामंजस्य नहीं रख पातीं। परिणामतः कोशिका की मृत्यु हो जाती। अतः परिवर्त उत्पन्न करने के प्रक्रम को किस प्रकार गति दी जा सकती है? प्रत्येक डी.एन.ए. प्रतिकृति में नई विभिन्नता के साथ-साथ पूर्व पीढ़ियों की विभिन्नताएँ भी संग्रहित होती रहती हैं। अतः समष्टि के दो जीवों में संग्रहित विभिन्नताओं के पैटर्न भी काफी भिन्न होंगे, क्योंकि यह सभी विभिन्नताएँ जीवित व्यष्टि में पाई जा रही है, अतः यह सुनिश्चित ही है कि यह विभिन्नताएँ हानिकारक नहीं हैं। दो अथवा अधिक एकल जीवों की विभिन्नताओं के संयोजन से विभिन्नताओं के नए संयोजन उत्पन्न होंगे, क्योंकि इस प्रक्रम में दो विभिन्न जीव भाग लेते हैं। अतः प्रत्येक संयोजन अपने आप में अनोखा होगा। लैंगिक जनन में दो भिन्न जीवों से प्राप्त डी.एन.ए. को समाहित किया जाता है।
परंतु इससे एक और समस्या पैदा हो सकती है। यदि संतति पीढ़ी में जनक जीवों के डी.एन.ए. का युग्मन होता रहे, तो प्रत्येक पीढ़ी में डी.एन.ए. की मात्रा पूर्व पीढ़ी की अपेक्षा दोगुनी होती जाएगी। इससे डी.एन.ए. द्वारा कोशिकी संगठन पर नियंत्रण टूटने की अत्यधिक संभावना है। इस समस्या के समाधान के लिए हम कितने तरीके सोच सकते हैं?
हम पहले ही जान चुके हैं कि जैसे-जैसे जीवों की जटिलता बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ऊतकों की विशिष्टता बढ़ती जाती है। उपरोक्त समस्या का समाधान जीवों ने इस प्रकार खोजा जिसमें विशिष्ट अंगों में कुछ विशेष प्रकार की कोशिकाओं की परत होती है, जिनमें जीव की कायिक कोशिकाओं की अपेक्षा गुणसूत्रों की संख्या आधी होती है तथा डी.एन.ए. की मात्रा भी आधी होती है। यह कोशिका विभाजन की प्रक्रिया जिसे अर्द्धसूत्री विभाजन कहते हैं, के द्वारा प्राप्त किया जाता है। अतः दो भिन्न जीवों की यह युग्मक कोशिकाएँ लैंगिक जनन में युग्मन द्वारा युग्मनज (जायगोट) बनाती हैं तो संतति में गुणसूत्रों की संख्या एवं डी.एन.ए. की मात्रा पुनर्स्थापित हो जाती है।
यदि युग्मनज वृद्धि एवं परिवर्धन द्वारा नए जीव में विकसित होता है तो इसमें ऊर्जा का भंडार भी पर्याप्त होना चाहिए। अति सरल संरचना वाले जीवों में प्रायः दो जनन कोशिकाओं (युग्मकों) की आकृति एवं आकार में विशेष अंतर नहीं होता अथवा वे समाकृति भी हो सकते हैं। परंतु जैसे ही शारीरिक डिज़ाइन अधिक जटिल होता है, जनन कोशिकाएँ भी विशिष्ट हो जाती हैं। एक जनन-कोशिका अपेक्षाकृत बड़ी होती है एवं उसमें भोजन का पर्याप्त भंडार भी होता है, जबकि दूसरी अपेक्षाकृत छोटी एवं अधिक गतिशील होती है। गतिशील जनन-कोशिका को नर युग्मक तथा जिस जनन कोशिका में भोजन का भंडार संचित होता है, उसे मादा युग्मक कहते हैं। अगले कुछ अनुभागों में हम देखेंगे कि इन दो प्रकार के युग्मकों के सृजन की आवश्यकता ने नर एवं मादा व्यष्टियों (जनकों) में विभेद उत्पन्न किए हैं तथा कुछ जीवों में नर एवं मादा में शारीरिक अंतर भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं।
7.3.2 पुष्पी पौधों में लैंगिक जनन
आवृतबीजी (एंजियोस्पर्म) के जननांग पुष्प में अवस्थित होते हैं। आप पुष्प के विभिन्न भागों के विषय में पहले ही पढ़ चुके हैं- बाह्वादल, दल (पंखुड़ी), पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर (चित्र 7.7)। पुंकेसर एवं खीकेसर पुष्प के जनन भाग हैं, जिनमें जनन-कोशिकाएँ होती हैं। पंखुड़ी एवं बाह्यदल के क्या कार्य हो सकते हैं?
जब पुष्प में पुंकेसर अथवा स्रीकेसर में से कोई एक जननांग उपस्थित होता है तो पुष्प एकलिंगी (पपीता, तरबूज) कहलाते हैं। जब पुष्प में पुंकेसर एवं स्त्रीकेसर दोनों उपस्थित होते हैं, (गुड़हल, सरसों) तो उन्हें उभयलिंगी पुष्प कहते हैं। पुंकेसर नर जननांग है, जो परागकण बनाते हैं। परागकण सामान्यतः पीले हो सकते हैं। आपने देखा होगा कि जब आप किसी पुष्प के पुंकेसर को छूते हैं तब हाथ में एक पीला पाउडर लग जाता है। स्त्रीकेसर पुष्प के केंद्र में अवस्थित होता है तथा यह पुष्प का मादा जननांग है। यह तीन भागों से बना होता है। आधार पर उभरा-फूला भाग अंडाशय है, मध्य में लंबा भाग वर्तिका है तथा शीर्ष भाग वर्तिकाग्र है, जो प्रायः चिपचिपा होता है। अंडाशय में बीजांड होते हैं तथा प्रत्येक बीजांड में एक अंड-कोशिका होती है। परागकण द्वारा उत्पादित नर युग्मक अंडाशय की अंडकोशिका (मादा युग्मक) से संलयित हो जाता है। जनन कोशिकाओं के इस युग्मन अथवा निषेचन से युग्मनज बनता है, जिसमें नए पौधे में विकसित होने की क्षमता होती है।
अतः परागकणों को पुंकेसर से वर्तिकाग्र तक स्थानांतरण की आवश्यकता होती है। यदि परागकणों का यह स्थानांतरण उसी पुष्प के वर्तिकाग्र पर होता है तो यह स्वपरागण कहलाता है। परंतु एक पुष्प के परागकण दूसरे पुष्प पर स्थानांतरित होते हैं, तो उसे परपरागण कहते हैं। एक पुष्प से दूसरे पुष्प तक परागकणों का यह स्थानांतरण वायु, जल अथवा प्राणी जैसे वाहक द्वारा संपन्न होता है।
परागकणों के उपयुक्त, वर्तिकाग्र पर पहुँचने के पश्चात नर युग्मक को अंडाशय में स्थित मादा-युग्मक तक पहुँचना होता है। इसके लिए परागकण से एक नलिका विकसित होती है तथा वर्तिका से होती हुई बीजांड तक पहुँचती है (चित्र 7.8)1
निषेचन के पश्चात, युग्मनज में अनेक विभाजन होते हैं तथा बीजांड में भ्रूण विकसित होता है। बीजांड से एक कठोर आवरण विकसित होता है तथा यह बीज में परिवर्तित हो जाता है। अंडाशय तीव्रता से वृद्धि करता है तथा परिपक्व होकर फल बनाता है। इस अंतराल में बाह्यदल, पंखुड़ी, पुंकेसर, वर्तिका एवं वर्तिकाग्र प्रायः मुरझाकर गिर जाते हैं। क्या आपने कभी पुष्प के किसी भाग को फल के साथ स्थायी रूप से जुड़े हुए देखा है? सोचिए, बीजों के बनने से पौधे को क्या लाभ है। बीज में भावी पौधा अथवा भ्रूण होता है, जो उपयुक्त परिस्थितियों में नवोद्भिद में विकसित हो जाता है। इस प्रक्रम को अंकुरण कहते हैं (चित्र 7.8)।
क्रियाकलाप 7.7
• चने के कुछ बीजों को एक रात तक जल में भिगो दीजिए।
• अधिक जल को फेंक दीजिए तथा भीगे हुए बीजों को गीले कपड़े से ढककर एक दिन के लिए रख दीजिए। ध्यान रहे कि बीज सूखें नहीं।
• बीजों को सावधानी से खोलकर उसके विभिन्न भागों का प्रेक्षण कीजिए।
• अपने प्रेक्षण की तुलना चित्र 7.9 से कीजिए, क्या आप सभी भागों को पहचान सकते हैं?
7.3.3 मानव में लैंगिक जनन
अब तक हम विभिन्न स्पीशीज़ में जनन की विभिन्न प्रणालियों की चर्चा करते रहे हैं। आइए, अब हम उस स्पीशीज़ के विषय में जानें जिसमें हमारी सर्वाधिक रुचि है, वह है मनुष्या मानव में लैंगिक जनन होता है। यह प्रक्रम किस प्रकार कार्य करता है?
आइए, अब स्थूल रूप से एक असंबद्ध बिंदु से प्रारंभ करते हैं। हम सभी जानते हैं कि आयु के साथ-साथ हमारे शरीर में कुछ परिवर्तन आते हैं। आपने पहले भी कक्षा 8 में शरीर में होने वाले बदलावों के बारे में सीखा। कक्षा 1 से 10 तक पहुँचते-पहुँचते हमारी लंबाई एवं भार बढ़ जाता है। हमारे दाँत जो गिर जाते हैं, दूध के दाँत कहलाते हैं तथा नए दाँत निकल आते हैं। इन सभी परिवर्तनों को एक सामान्य प्रक्रम वृद्धि में समूहबद्ध कर सकते हैं, जिसमें शारीरिक वृद्धि होती है। परंतु किशोरावस्था के प्रारंभिक वर्षों में, कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं, जिन्हें मात्र शारीरिक वृद्धि नहीं कहा जा सकता। जबकि शारीरिक सौष्ठव ही बदल जाता है। शारीरिक अनुपात बदलता है, नए लक्षण आते हैं तथा संवेदना में भी परिवर्तन आते हैं।
इनमें से कुछ परिवर्तन तो लड़के एवं लड़कियों में एकसमान होते हैं। हम देखते हैं कि शरीर के कुछ नए भागों जैसे कि काँख एवं जाँघों के मध्य जननांगी क्षेत्र में बाल-गुच्छ निकल आते हैं तथा उनका रंग भी गहरा हो जाता है। पैर, हाथ एवं चेहरे पर भी महीन रोम आ जाते हैं। त्वचा अक्सर तैलीय हो जाती है तथा कभी-कभी मुँहासे भी निकल आते हैं। हम अपने और दूसरों के प्रति अधिक सजग हो जाते हैं।
दूसरी ओर, कुछ ऐसे भी परिवर्तन हैं, जो लड़कों एवं लड़कियों में भिन्न होते हैं। लड़कियों में स्तन के आकार में वृद्धि होने लगती है तथा स्तनाग्र की त्वचा का रंग भी गहरा होने लगता है। इस समय लड़कियों में रजोधर्म होने लगता है। लड़कों के चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ निकल आती है तथा उनकी आवाज़ फटने लगती है। साथ ही दिवास्वप्न अथवा रात्रि में शिश्न भी अक्सर विवर्धन के कारण ऊर्ध्व हो जाता है।
ये सभी परिवर्तन महीनों एवं वर्षों की अवधि में मंद गति से होते हैं। ये परिवर्तन सभी व्यक्तियों में एक ही समय अथवा एक निश्चित आयु में नहीं होते। कुछ व्यक्तियों में ये परिवर्तन कम आयु में एवं तीव्रता से होते हैं, जबकि अन्य में मंद गति से होते हैं। प्रत्येक परिवर्तन तीव्रता से पूर्ण भी नहीं होता। उदाहरणतः लड़कों के चेहरे पर पहले छितराए हुए से कुछ मोटे बाल परिलक्षित होते हैं, तथा धीरे-धीरे यह वृद्धि एक जैसी हो जाती है। फिर भी इन सभी परिवर्तनों में विभिन्न व्यक्तियों के बीच विविधता परिलक्षित होती है। जैसे कि हमारे नाक-नक्श अलग-अलग हैं, उसी प्रकार इन बालों की वृद्धि का पैटर्न, स्तन अथवा शिश्न की आकृति एवं आकार भी भिन्न होते हैं। यह सभी परिवर्तन शरीर की लैंगिक परिपक्वता के पहलू हैं।
इस आयु में शरीर में लैंगिक परिपक्वता क्यों परिलक्षित होती है? हम बहुकोशिक जीों में विशिष्ट कार्यों के संपादन हेतु विशिष्ट प्रकार की कोशिकाओं की आवश्यकता की बात कर चुके हैं। लैंगिक जनन में भाग लेने के लिए जनन कोशिकाओं का उत्पादन इसी प्रकार का एक विशिष्ट कार्य है तथा हम देख चुके हैं कि पौधों में भी इस हेतु विशेष प्रकार की कोशिकाएँ एवं ऊतक विकसित होते हैं। प्राणियों, जैसे कि मानव भी इस कार्य हेतु विशिष्ट ऊतक विकसित करता है। यद्यपि किसी व्यक्ति के शरीर में युवावस्था के आकार हेतु वृद्धि होती है, परंतु शरीर के संसाधन मुख्यतः इस वृद्धि की प्राप्ति की ओर लगे रहते हैं। इस प्रक्रम के चलते जनन ऊतक की परिपक्वता मुख्य प्राथमिकता नहीं होती। अतः जैसे-जैसे शरीर की सामान्य वृद्धि दर धीमी होनी शुरू होती है, जनन-ऊतक परिपक्व होना प्रारंभ करते हैं। किशोरावस्था की इस अवधि को योवनारंभ (puberty) कहा जाता है।
अतः वे सभी परिवर्तन जिनकी हमने चर्चा की जनन-प्रक्रम से किस प्रकार संबद्ध हैं? हमें याद रखना चाहिए कि लैंगिक जनन प्रणाली का अर्थ है कि दो भिन्न व्यक्तियों की जनन कोशिकाओं का परस्पर संलयन। यह जनन कोशिकाओं के बाहा-मोचन द्वारा हो सकता है जैसे कि पुष्पी पौधों में होता है। अथवा दो जीवों के परस्पर संबंध द्वारा जनन कोशिकाओं के आंतरिक स्थानांतरण द्वारा भी हो सकता है, जैसे कि अनेक प्राणियों में होता है। यदि जंतुओं को संगम के इस प्रक्रम में भाग लेना हो, तो यह आवश्यक है कि दूसरे जीव उनकी लैंगिक परिपक्वता की पहचान कर सकें। यौवनारंभ की अवधि में अनेक परिवर्तन जैसे कि बालों का नवीन पैटर्न इस बात का संकेत है कि लैंगिक परिपक्वता आ रही है।
दूसरी ओर, दो व्यक्तियों के बीच जनन कोशिकाओं के वास्तविक स्थानांतरण हेतु विशिष्ट अंग अथवा संरचना की आवश्यकता होती है; उदाहरण के लिए शिश्न के ऊर्ध्व होने की क्षमता। स्तनधारियों जैसे कि मानव में शिशु माँ के शरीर में लंबी अवधि तक गर्भस्थ रहता है तथा जन्मोपरांत स्तनपान करता है। इन सभी स्थितियों के लिए मादा के जननांगों एवं स्तन का परिपक्व होना आवश्यक है। आइए, जनन तंत्र के विषय में जानें।
7.3.3 (a) नर जनन तंत्र
जनन कोशिका उत्पादित करने वाले अंग एवं जनन कोशिकाओं को निषेचन के स्थान तक पहुँचाने वाले अंग, संयुक्त रूप से, नर जनन तंत्र (चित्र 7.10) बनाते हैं।
नर जनन-कोशिका अथवा शुक्राणु का निर्माण वृषण में होता है। यह उदर गुहा के बाहर वृषण कोष में स्थित होते हैं। इसका कारण यह है कि शुक्राणु उत्पादन के लिए आवश्यक ताप शरीर के ताप से कम होता है। टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन के उत्पादन एवं सवण में वृषण की भूमिका की चर्चा हम पिछले अध्याय में कर चुके हैं। शुक्राणु उत्पादन के नियंत्रण के अतिरिक्त टेस्टोस्टेरॉन लड़कों में यौवनावस्था के लक्षणों का भी नियंत्रण करता है।
उत्पादित शुक्राणुओं का मोचन शुक्रवाहिकाओं द्वारा होता है। ये शुक्रवाहिकाएँ मूत्राशय से आने वाली नली से जुड़कर एक संयुक्त नली बनाती है। अतः मूत्रमार्ग (urethra) शुक्राणुओं एवं मूत्र दोनों के प्रवाह के उभय मार्ग है। प्रोस्ट्रेट तथा शुक्राशय अपने साव शुक्रवाहिका में डालते हैं, जिससे शुक्राणु एक तरल माध्यम में आ जाते हैं। इसके कारण इनका स्थानांतरण सरलता से होता है साथ ही यह साव उन्हें पोषण भी प्रदान करता है। शुक्राणु सूक्ष्म सरंचनाएँ हैं, जिसमें मुख्यतः आनुवंशिक पदार्थ होते हैं तथा एक लंबी पूँछ होती है, जो उन्हें मादा जनन-कोशिका की ओर तैरने में सहायता करती है।
7.3.3 (b) मादा जनन तंत्र
मादा जनन-कोशिकाओं अथवा अंड-कोशित का निर्माण अंडाशय में होता है। वे कुछ हार्मोन भी उत्पादित करती हैं। चित्र 7.11 को ध्यानपूर्वक देखिए तथा मादा जनन तंत्र के विभिन्न अंगों को पहचानिए।
लड़की के जन्म के समय ही अंडाशय में हज़ारों अपरिपक्व अंड होते हैं। यौवनारंभ में इनमें से कुछ परिपक्व होने लगते हैं। दो में से एक अंडाशय द्वारा प्रत्येक माह एक अंड परिपक्व होता है। महीन अंडवाहिका अथवा फेलोपियन ट्यूब द्वारा यह अंडकोशिका गर्भाशय तक ले जाए जाते हैं। दोनों अंडवाहिकाएँ संयुक्त होकर एक लचीली थैलेनुमा संरचना का निर्माण करती हैं, जिसे गर्भाशय कहते हैं। गर्भाशय, ग्रीवा द्वारा योनि में खुलता है।
मैथुन के समय शुक्राणु योनि मार्ग में स्थापित होते हैं, जहाँ से ऊपर की ओर यात्रा करके वे अंडवाहिका तक पहुँच जाते हैं, जहाँ अंडकोशिका से मिल सकते हैं। निषेचित अंडा विभाजित होकर कोशिकाओं की गंद जैसी संरचना या भ्रूण बनाता है। भ्रूण गर्भाशय में स्थापित हो जाता है, जहाँ यह लगातार विभाजित होकर वृद्धि करता है तथा अंगों का विकास करता है। हम पहले पढ़ चुके हैं कि माँ का शरीर गर्भधारण एवं उसके विकास के लिए विशेष रूप से अनुकूलित होता है। अतः गर्भाशय प्रत्येक माह भ्रूण को ग्रहण करने एवं उसके पोषण हेतु तैयारी करता है। इसकी आंतरिक पर्त मोटी होती जाती है तथा भ्रूण के पोषण हेतु रुधिर प्रवाह भी बढ़ जाता है।
भ्रूण को माँ के रुधिर से ही पोषण मिलता है, इसके लिए एक विशेष संरचना होती है जिसे प्लेसेंटा कहते हैं। यह एक तश्तरीनुमा संरचना है, जो गर्भाशय की भित्ति में धँसी होती है। इसमें भ्रूण की ओर के ऊतक में प्रवर्ध होते हैं। माँ के ऊतकों में रक्तस्थान होते हैं, जो प्रवर्ध को आच्छादित करते हैं। यह माँ से भ्रूण को ग्लूकोज, ऑक्सीजन एवं अन्य पदार्थों के स्थानांतरण हेतु एक बृहद क्षेत्र प्रदान करते हैं। विकासशील भ्रूण द्वारा अपशिष्ट पदार्थ उत्पन्न होते हैं, जिनका निपटान उन्हें प्लेसेंटा के माध्यम से माँ के रुधिर में स्थानांतरण द्वारा होता है। माँ के शरीर में गर्भ को विकसित होने में लगभग 9 मास का समय लगता है। गर्भाशय की पेशियों के लयबद्ध संकुचन से शिशु का जन्म होता है।
7.3.3 (c) क्या होता है जब अंड का निषेचन नहीं होता?
यदि अंडकोशिका का निषेचन नहीं हो तो यह लगभग एक दिन तक जीवित रहती है, क्योंकि अंडाशय प्रत्येक माह एक अंड का मोचन करता है। अतः निषेचित अंड की प्राप्ति हेतु गर्भाशय भी प्रति माह तैयारी करता है। अतः इसकी अंतः भित्ति मांसल एवं स्पांजी हो जाती है। यह अंड के निषेचन होने की अवस्था में उसके पोषण के लिए आवश्यक है, परंतु निषेचन न होने की अवस्था में इस पर्त की भी आवश्यकता नहीं रहती। अतः यह पर्त धीरे-धीरे टूटकर योनि मार्ग से रुधिर एवं म्युकस के रूप में निष्कासित होती है। इस चक्र में लगभग एक मास का समय लगता है तथा इसे ऋतुस्राव अथवा रजोधर्म कहते हैं। इसकी अवधि लगभग 2 से 8 दिनों की होती है।
7.3.3 (d) जनन स्वास्थ्य
जैसा कि हम देख चुके हैं, लैंगिक परिपक्वता एक क्रमिक प्रक्रम है तथा यह उस समय होता है जब शारीरिक वृद्धि भी होती रहती है। अतः किसी सीमा (आंशिक रूप से) तक लैंगिक परिपक्वता का अर्थ यह नहीं है कि शरीर अथवा मस्तिष्क जनन क्रिया अथवा गर्भधारण योग्य हो गए हैं। हम यह निर्णय किस प्रकार ले सकते हैं कि शरीर एवं मस्तिष्क इस मुख्य उत्तरदायित्व के योग्य हो गया है? इस विषय पर हम सभी पर किसी न किसी प्रकार का दबाव है। इस क्रिया के लिए हमारे मित्रों का दबाव भी हो सकता है, भले ही हम चाहें या न चाहें। विवाह एवं संतानोत्पत्ति के लिए पारिवारिक दबाव भी हो सकता है। संतानोत्पत्ति से बचकर रहने का, सरकारी तंत्र की ओर से भी दबाव हो सकता है। ऐसी अवस्था में कोई निर्णय लेना काफ़ी मुश्किल हो सकता है।
यौन क्रियाओं के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव के विषय में भी हमें सोचना चाहिए। हम कक्षा 9 में पढ़ चुके हैं कि एक व्यक्ति से दूस दूसरे व्यक्ति को रोगों का संचरण अनेक प्रकार से हो सकता है, क्योंकि यौनक्रिया में प्रगाढ़ शारीरिक संबंध स्थापित होते हैं। अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि अनेक रोगों का लैंगिक संचरण भी हो सकता है। इसमें जीवाणु जनित, जैसे-गोनेरिवा तथा सिफलिस एवं वाइरस संक्रमण जैसे कि मस्सा (Wart) तथा HIV-AIDS शामिल हैं। लैंगिक क्रियाओं के दौरान क्या इन रोगों के संचरण का निरोध संभव है? शिश्न के लिए आवरण अथवा कंडोम के प्रयोग से इनमें से अनेक रोगों के संचरण का कुछ सीमा तक निरोध संभव है।
यौन (लैंगिक) क्रिया द्वारा गर्भधारण की संभावना सदा ही बनी रहती है। गर्भधारण की अवस्था में स्त्री के शरीर एवं भावनाओं की माँग एवं आपूर्ति बढ़ जाती है एवं यदि वह इसके लिए तैयार नहीं है तो इसका उसके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः गर्भधारण रोकने के अनेक तरीके खोजे गए हैं। यह गर्भरोधी तरीके अनेक प्रकार के हो सकते हैं। एक तरीका यांत्रिक अवरोध का है, जिससे शुक्राणु अंडकोशिका तक न पहुँच सके। शिश्न को ढकने वाले कंडोम अथवा योनि में रखने वाली अनेक युक्तियों का उपयोग किया जा सकता है। दूसरा तरीका शरीर में हार्मोन संतुलन के परिवर्तन का है, जिससे अंड का मोचन ही नहीं होता अतः निषेचन नहीं हो सकता। ये दवाएँ सामान्यतः गोली के रूप में ली जाती हैं, परंतु ये हार्मोन संतुलन को परिवर्तित करती हैं अतः उनके कुछ विपरीत प्रभाव भी हो सकते हैं। गर्भधारण रोकने के लिए कुछ अन्य युक्तियाँ जैसे कि लूप अथवा कॉपर-टी (Copper-T) को गर्भाशय में स्थापित करके भी किया जाता है, परंतु गर्भाशय के उत्तेजन से भी कुछ विपरीत प्रभाव हो सकते हैं। यदि पुरुष की शुक्रवाहिकाओं को अवरुद्ध कर दिया जाए तो शुक्राणुओं का स्थानांतरण रुक जाएगा। यदि स्त्री की अंडवाहिनी अथवा फेलोपियन नलिका को अवरुद्ध कर दिया जाए तो अंड (डिंब) गर्भाशय तक नहीं पहुँच सकेगा। दोनों ही अवस्थाओं में निषेचन नहीं हो पाएगा। शल्यक्रिया तकनीक द्वारा इस प्रकार के अवरोध उत्पन्न किए जा सकते हैं। यद्यपि शल्य तकनीक भविष्य के लिए पूर्णतः सुरक्षित है, परंतु असावधानीपूर्वक की गई शल्यक्रिया से संक्रमण अथवा दूसरी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
शल्यक्रिया द्वारा अनचाहे गर्भ को हटाया भी जा सकता है। इस तकनीक का दुरुपयोग उन लोगों द्वारा किया जा सकता है जो किसी विशेष लिंग का बच्चा नहीं चाहते, ऐसा गैरकानूनी कार्य अधिकतर मादा गर्भ के चयनात्मक गर्भपात हेतु किया जा रहा है। एक स्वस्थ समाज के लिए, मादा-नर लिंग अनुपात बनाए रखना आवश्यक है। यद्यपि हमारे देश में भ्रूण लिंग निर्धारण एक कानूनी अपराध है। हमारे समाज की कुछ इकाइयों में मादा भ्रूण की निर्मम हत्या के कारण हमारे देश में शिशु लिंग अनुपात तीव्रता से घट रहा है जो चिंता का विषय है।
हमने पहले देखा कि जनन एक ऐसा प्रक्रम है, जिसके द्वारा जीव अपनी समष्टि की वृद्धि करते हैं। एक समष्टि में जन्मदर एवं मृत्युदर उसके आकार का निर्धारण करते हैं। जनसंख्या का विशाल आकार बहुत लोगों के लिए चिंता का विषय है। इसका मुख्य कारण यह है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण प्रत्येक व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार लाना दुष्कर कार्य है। यदि सामाजिक असमानता हमारे समाज के निम्न जीवन स्तर के लिए उत्तरदायी है तो जनसंख्या के आकार का महत्व इसके लिए अपेक्षाकृत कम हो जाता है। यदि हम अपने आस-पास देखें तो क्या आप जीवन के निम्न स्तर के लिए उत्तरदायी सबसे महत्वपूर्ण कारण की पहचान कर सकते हैं?
आपने क्या सीखा
• अन्य जैव प्रक्रमों के विपरीत किसी जीव के अपने अस्तित्व के लिए जनन आवश्यक नहीं है।
• जनन में एक कोशिका द्वारा डी.एन.ए. प्रतिकृति का निर्माण तथा अतिरिक्त कोशिकीय संगठन का सुजन होता है।
• विभिन्न जीवों द्वारा अपनाए जाने वाले जनन की प्रणाली उनके शारीरिक अभिकल्प पर निर्भर करती है।
• खंडन विधि में जीवाणु एवं प्रोटोजोआ की कोशिका विभाजित होकर दो या अधिक संतति कोशिका का निर्माण करती है।
• यदि हाइड्रा जैसे जीवों का शरीर कई टुकड़ों में बिलग हो जाए तो प्रत्येक भाग से पुनरुद्भवन द्वारा नए जीव विकसित हो जाते हैं। इनमें कुछ मुकुल भी उभर कर नए जीव में विकसित हो जाते हैं।
• कुछ पौधों में कायिक प्रवर्धन द्वारा जड़, तना अथवा पत्ती से नए पौध विकसित होते हैं।
• उपरोक्त अलैंगिक जनन के उदाहरण हैं, जिसमें संतति की उत्पत्ति एक एकल जीव (व्यष्टि) द्वारा होती है।
• लैंगिक जनन में संतति उत्पादन हेतु दो जीव भाग लेते हैं।
• डी.एन.ए. प्रतिकृति की तकनीक से विभिन्नता उत्पन्न होती है, जो प्रजातियों के अस्तित्व के लिए लाभप्रद है। लैंगिक जनन द्वारा अधिक विभिन्नताएँ उत्पन्न होती है।
• पुष्पी पौधों में जनन प्रक्रम में परागकण परागकोश से स्त्रीकेसर के वर्तिकाग्र तक स्थानांतरित होते हैं, जिसे परागण कहते हैं। इसका अनुगमन निषेचन द्वारा होता है।
• योवनारंभ में शरीर में अनेक परिवर्तन आते हैं, उदाहरण के लिए लड़कियों में स्तन का विकास तथा लड़कों के चेहरे पर नए बालों का आना, लैंगिक परिपक्वता के चिह्न हैं।
• मानव में नर जनन तंत्र में वृषण, शुक्राणुवाहिनी, शुक्राशय, प्रोस्टेट ग्रंथि, मूत्र मार्ग तथा शिश्न होते हैं। वृषण शुक्राणु उत्पन्न करते हैं।
• मानव के मादा जनन तंत्र में अंडाशय, डिंबवाहिनी, गर्भाशय तथा योनि पाए जाते हैं।
• मानव में लैंगिक जनन प्रक्रिया में शुक्राणुओं का खी की योनि में स्थानांतरण होता है तथा निषेचन डिम्बवाहिनी में होता है।
• गर्भनिरोधी युक्तियाँ अपनाकर गर्भधारण रोका जा सकता है। कंडोम, गर्भनिरोधी गोलियाँ, कॉपर-टी तथा अन्य युक्तियाँ इसके उदाहरण हैं।
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प्रश्न अभ्यास
1. अलैंगिक जनन मुकुलन द्वारा होता है।
(a) अमीबा
(b) यीस्ट
(c) प्लैज़्मोडियम
(d) लेस्मानिया
Ans. (b) यीस्ट
2. निम्नलिखित में से कौन मानव में मादा जनन तंत्र का भाग नहीं है?
(a) अंडाशय
(b) गर्भाशय
(c) शुक्रवाहिका
(d) डिंबवाहिनी
Ans. (a) अंडाशय
3. परागकोश में होते हैं
(a) बाह्यदल
(b) अंडाशय
(c) अंडप
(d) पराग कण
Ans. (d) पराग कण
4. अलैंगिक जनन की अपेक्षा लैंगिक जनन के क्या लाभ हैं?
Ans. लैंगिक जनन निम्नलिखित कारणों से अलैंगिक जनन की अपेक्षा लाभकारी है:
(i) लैंगिक जनन में नर और मादा से प्राप्त होने वाले नर युग्मक और मादा युग्मक के निषेचन से लैंगिक जनन होता है चूँकि ये दो भिन्न प्राणियों से प्राप्त होते हैं इसलिए संतान विशेषताओं की विविधता को प्रकट करते हैं।
(ii) विभिन्नताओं के बनने के साथ नए लक्षण उतपन्न होते हैं। इससे स्पीशीज़ के उद्भव में सहायता मिलती है। इसलिए यह विकास के लिए आवश्यक है।
(iii) लैंगिक जनन अलैंगिक जनन पर एक उन्नति/बढ़ावा है।
(iv) लैंगिक जनन से गुणसूत्रों के नए जोड़े बनते हैं। इससे विकासवाद की दिशा को नए आयाम प्राप्त होते हैं। इससे जीवों में श्रेष्ठ गुणों के उतपन्न होने के अवसर बढ़ते है।
5. मानव में वृषण के क्या कार्य हैं?
Ans. मानव में वृषण के कार्य निम्न हैं
- शुक्राणु का निर्माण करना।
- टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन का स्राव करना।
6. ऋतुस्राव क्यों होता है?
Ans. निषेचन नहीं होने की स्थिति में अंडाशय की अंत:भित्ति की मांसल एवं स्पोंजी परत जैसी संरचना की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि यह अंड के निषेचन होने की अवस्था में उसके पोषण के लिए आवश्यक होता है। अतः यह परत धीरे-धीरे टूटकर योनि मार्ग से रुधिर एवं म्यूकस के रूप में निष्कासित होती है। इस चक्र में लगभग एक मास का समय लगता है, इसे ऋतुस्राव या रजोधर्म कहते हैं।
7. पुष्प की अनुदैर्ध्य काट का नामांकित चित्र बनाइए।
Ans.
8. गर्भनिरोधन की विभिन्न विधियाँ कौन सी हैं?
Ans. गर्भनिरोधन की विधियाँ निम्नलिखित हैं-
- यांत्रिक अवरोध (Physical Barrier Method)- ताकि शुक्राणु अंडकोशिका तक न पहुँच सकें। शिश्न को ढकने वाले कंडोम अथवा योनि में रखने वाले अनेक युक्तियाँ; जैसे-लूप अथवा कॉपर-टी (copper-T) को गर्भाशय में स्थापित करना।
- हार्मोन संतुलन को परिवर्तन- ये दवाएँ मादा सामान्यतः गोली के रूप में लेती हैं, जिससे हॉर्मोन संतुलन में परिवर्तन हो जाता है तथा अंड का विमोचन ही नहीं होता है। अतः निषेचन नहीं हो पाता है।
- शल्य क्रिया तकनीक (Surgical Method)- यदि पुरुष की शुक्रवाहिकाओं को अवरुद्ध कर दिया जाए तो शुक्राणुओं का स्थानांतरण रुक जाएगा। यदि मादा की अंडवाहिनी अथवा फेलोपियन नलिका को अवरुद्ध कर दिया जाए, तो अंड (डिंब) गर्भाशय तक नहीं पहुँच सकेगा। दोनों ही अवस्थाओं में निषेचन नहीं हो पाएगा।
9. एककोशिक एवं बहुकोशिक जीवों की जनन पद्धति में क्या अंतर है?
Ans. (a) एक-कोशिक जीवों में जनन सामान्यत: अलैंगिक जनन द्वारा होता है। इसकी विभिन्न विधियाँ निम्नलिखित प्रकार से हैं: द्विखंडन, बहुखंडन, मुकुलन, समसूत्री विभाजन, असमसूत्री विभाजन। यह एकल पैतृक होता है।
नोट: इन एक-कोशिक जीवों में अधिकतर में लैंगिक जनन भी होता है।
(b) बहुकोशिक जीवों में अधिकतर में लैंगिक जनन होता है। यह द्वि-पैतृक होता है तथा इसमें युग्मक बनने तथा उनके संयोग करने की आवश्यकता भी पड़ती है। उनमें युग्मों के बनने के लिए गौनेड, युग्मकजननि की आवश्यकता होती है।
नोट: बहुकोशिक जीवों में पौधों, निम्न प्रकार के अकशेरुकियों में अलैंगिक जनन भी होता है।
10. जनन किसी स्पीशीज़ की समष्टि के स्थायित्व में किस प्रकार सहायक है?
Ans. अपनी जनन क्षमता के कारण जीवों की समष्टि पारितंत्र में अपना स्थान अथवा निकेत ग्रहण करने में सक्षम होते हैं। जनन के दौरान डी.एन.ए प्रतिकृति का अविरोध जीव की शारीरिक संरचना एवं डिजाइन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, जो उसे विशिष्ट निकेत के योग्य बनाती है। अतः किसी प्रजाति (स्पीशीज़) की समष्टि के स्थायित्व का संबंध जनन से है।
11. गर्भनिरोधक युक्तियाँ अपनाने के क्या कारण हो सकते हैं?
Ans. गर्भनिरोधक युक्तियाँ अपनाने के निम्न कारण हैं
- अनचाहे गर्भधारण की संभावना को रोकना।
- लैंगिक संचरण द्वारा HIV AIDS, गनोरिया, सिफलिस, मस्सा (Wart) आदि रोगों से बचाव।
- बच्चों के बीच उपयुक्त अंतर के लिए।
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