कैसे, कब और कहाँ : अध्याय 1

तारीखें कितनी महत्त्वपूर्ण होती हैं?

एक वक्त था जब इतिहासकार तारीख़ों के जादू में ही खोए रहते थे। कब किस राजा की ताजपोशी हुई, कब कौन-सा युद्ध हुआ – इन्हीं तारीखों पर गर्मागर्म बहसें चलती थीं। आम समझ के हिसाब से इतिहास को तारीख़ों का पर्याय माना जाता था। आपने भी लोगों को यह कहते हुए सुना होगा – “इतिहास तो बहुत उबाऊ है भई। बस तारीखें रटते चले जाओ!” क्या इतिहास के बारे में यह धारणा सही है?

इसमें कोई शक नहीं कि इतिहास अलग-अलग समय पर आने वाले बदलावों के बारे में ही होता है। इसका संबंध इस बात से है कि अतीत में चीजें किस तरह की थीं और उनमें क्या बदलाव आए हैं। जैसे ही हम अतीत और वर्तमान की तुलना करते हैं, हम समय का जिक्र करने लगते हैं। हम “पहले” और “बाद में” की बात करने लगते हैं।

रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम अपने आसपास की चीज़ों पर हमेशा ऐतिहासिक सवाल नहीं उठाते। हम चीज़ों को स्वाभाविक मानकर चलते हैं। मानो जो कुछ हमें दिख रहा है वह हमेशा से ऐसा ही रहा हो। लेकिन हम सबके सामने कभी-कभी अचंभे के क्षण आते हैं। कई बार हम उत्सुक हो जाते हैं और ऐसे सवाल पूछते हैं जो वाकई ऐतिहासिक होते हैं। किसी व्यक्ति को सड़क किनारे चाय के घूँट भरते देखकर आप इस बात पर हैरान हो सकते हैं कि चाय या कॉफ़ी पीने का चलन शुरू कब से हुआ होगा? रेलगाड़ी की खिड़की से बाहर झाँकते हुए आपके ज़हन में यह सवाल उठ सकता है कि रेलवे का निर्माण कब हुआ? रेलगाड़ी के आने से पहले लोग दूर-दूर की यात्रा किस तरह कर पाते थे? सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए आप यह जानने के लिए उत्सुक हो सकते हैं कि जिस जमाने में अखबार नहीं छपते थे, उस समय लोगों को चीज़ों की जानकारी कैसे मिलती थी।

चित्र 1 – ब्राह्मण ब्रिटेनिया को शास्त्र भेंट कर रहे हैं, जेम्स रेनेल द्वारा तैयार किए गए पहले नक्शे का आवरण चित्र, 1782.

रॉबर्ट क्लाइव ने रेनेल को हिंदुस्तान के नक्शे तैयार करने का काम सौंपा था। भारत पर अंग्रेज़ों की विजय के समर्थक रेनेल को वर्चस्व स्थापित करने की प्रक्रिया में नक्शे तैयार करना बहुत महत्त्वपूर्ण लगता था। इस तसवीर में दिखाया गया है कि भारत के लोग स्वेच्छापूर्वक अपने प्राचीन पवित्र ग्रंथ ब्रिटिश सत्ता की प्रतीक ब्रिटेनिया को सौंप रहे हैं मानो वे उसे भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए आने का आग्रह कर रहे हों।

ये सारे ऐतिहासिक सवाल हमें समय के बारे में सोचने के लिए प्रेरित कर देते हैं। समय को हमेशा साल या महीनों के पैमाने पर ही नहीं देखा जा सकता। कई बार ऐसी प्रक्रियाओं के लिए कोई तारीख तय करना वाकई गलत होता है जो एक लंबे समय तक चलती रहती हैं। भारत में लोगों ने अचानक एक दिन सुबह- सबेरे चाय पीना शुरू नहीं कर दिया था। इसका स्वाद धीरे-धीरे ही उनकी ज़बान पर चढ़ा था। इस तरह की प्रक्रियाओं के लिए कोई स्पष्ट तिथि नहीं हो सकती। इसी तरह हम ब्रिटिश शासन की स्थापना के लिए भी कोई एक तिथि नहीं बता सकते। राष्ट्रीय आंदोलन किस दिन शुरू हुआ या अर्थव्यवस्था या समाज में किस दिन बदलाव आए, यह बताना भी संभव नहीं है। ये सारी चीजें एक लंबे समय में घटती हैं। ऐसे में हम सिर्फ़ एक अवधि की ही बात कर सकते हैं, एक लगभग सही अवधि के बारे में बता सकते हैं जब वे ख़ास बदलाव दिखाई देने शुरू हुए होंगे।

तो फिर लोग इतिहास को तारीखों से जोड़ कर क्यों देखते हैं? इस जुड़ाव की एक वजह है। एक समय था जब युद्ध और बड़ी-बड़ी घटनाओं के ब्योरों को ही इतिहास माना जाता था। यह इतिहास राजा-महाराजाओं और उनकी नीतियों के बारे में होता था। इतिहासकार यह लिखते थे कि कौन-से साल राजा को ताज पहनाया गया, किस साल उसका विवाह हुआ, किस साल उसके घर में बच्चा पैदा हुआ, कौन-से साल उसने कौन-सी लड़ाई लड़ी, वह कब मरा और उसके बाद कब कौन-सा शासक गद्दी पर बैठा। इस तरह की घटनाओं के लिए निश्चित तिथि बताई जा सकती है और इस तरह के इतिहासां में तिथियों का महत्त्व बना रहता है।

जैसा कि पिछले दो साल की इतिहास की किताबों में आपने देखा है, अब इतिहासकार बहुत सारे दूसरे मुद्दों और दूसरे सवालों के बारे में भी लिखने लगे हैं। वे इस बात पर ध्यान देते हैं कि लोग किस तरह अपनी रोजी-रोटी चलाते थे। वे क्या पैदा करते थे और क्या खाते थे। शहर कैसे बने और बाज़ार किस तरह फैले। किस तरह रियासतें बनीं, नए विचार पनपे और संस्कृति व समाज किस तरह बदले।

चित्र 2 – विज्ञापनों से भी पसंद-नापसंद तय होती है।

पुराने विज्ञापनों से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि नए उत्पादों के लिए बाज़ार किस तरह तैयार हुए और किस तरह नयी रुचियाँ चलन में आयीं। 1922 में लिप्टन चाय के लिए तैयार किया गया यह विज्ञापन इस बात की ओर संकेत करता है कि दुनिया भर के शाही लोग यही चाय पीते हैं। इस तसवीर में पीछे की तरफ़ एक भारतीय महल दिखाई दे रहा है जबकि अगले हिस्से में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया का तीसरा बेटा राजकुमार आर्थर घोड़े पर बैठा हुआ है। राजकुमार आर्थर को ड्यूक ऑफ़ कनॉट की पदवी दी गई थी।

कौन-सी तारीखें?

कुछ तारीखों को महत्त्वपूर्ण मानने का पैमाना क्या होता है? हम जो तारीखें चुनते हैं, जिन तारीखों के इर्द-गिर्द हम अतीत की कहानी बुनते हैं, वे अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं होतीं। वे इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं क्योंकि हम कुछ ख़ास घटनाओं को महत्त्वपूर्ण मानकर चलने लगते हैं। अगर अध्ययन का विषय बदल जाता है, अगर हम नए मुद्दों पर ध्यान देने लगते हैं तो महत्त्वपूर्ण तारीखें भी बदल जाती हैं।

एक उदाहरण पर विचार कीजिए। भारत में ब्रिटिश इतिहासकारों ने जो इतिहास लिखे उनमें हरेक गवर्नर-जनरल का शासनकाल महत्त्वपूर्ण है। ये इतिहास प्रथम गवर्नर-जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के शासन से शुरू होते थे और आख़िरी वायसरॉय, लॉर्ड माउंटबैटन के साथ खत्म होते थे। अलग-अलग अध्यायों में हम दूसरे गवर्नर-जनरलों- हेस्टिंग्स, वेलेज़्ली, बेंटिक, डलहौजी, कैनिंग, लॉरेंस, लिटन, रिपन, कर्ज़न, हार्डिंग, इरविन – के बारे में भी पढ़ते हैं। इस इतिहास में गवर्नर-जनरलों और वायसरॉयों का कभी न ख़त्म होने वाला सिलसिला ही छाया रहता था। इतिहास की इन किताबों में सारी तारीखों का महत्त्व इन अधिकारियों, उनकी गतिविधियों, नीतियों, उपलब्धियों के आधार पर ही तय होता था। यह ऐसे था मानो इन लोगों के जीवन के बाहर कोई ऐसी चीज़ नहीं थी जिसे जानना महत्त्वपूर्ण हो। इन लोगों के जीवन का क्रम ब्रिटिश भारत के इतिहास में अलग-अलग अध्यायों का विषय बन जाता था।

चित्र 3 – वॉरेन हेस्टिंग्स 1773 में पहले गवर्नर-जनरल बने।

इतिहास की किताबों में गवर्नर-जनरलों के कारनामों, जीवनियों में उनकी गौरवगाथाओं और तसवीरों में उनके भव्य व्यक्तित्व को उभारा जाता था।

क्या हम इसी दौर के इतिहास को अलग ढंग से नहीं लिख सकते? गवर्नर-जनरलों के इस इतिहास के चौखटे में हम भारतीय समाज के विभिन्न समूहों और वर्गों की गतिविधियों पर किस तरह ध्यान दे सकते हैं?

जब हम इतिहास या कोई कहानी लिखते हैं तो उसे टुकड़ों या अध्यायों में बाँट देते हैं। हम ऐसा क्यों करते हैं? ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि हर अध्याय में कुछ सामंजस्य रहे। इसका मकसद कहानी को इस तरह सामने लाना होता है कि उसे आसानी से समझा जा सके और याद रखा जा सके। इस प्रक्रिया में हम सिर्फ़ उन घटनाओं पर जोर देते हैं जो उस कहानी को पेश करने में मददगार होती हैं। जो इतिहास गवर्नर-जनरलों के जीवन के इर्द-गिर्द चलता है उसमें भारतीयों की गतिविधियाँ कोई मायने नहीं रखतीं। उनके लिए वहाँ कोई जगह नहीं होती। तो फिर क्या किया जाए? ज़ाहिर है हमें अपने इतिहास का एक अलग खाका बनाना पड़ेगा। इसका मतलब यह है कि अब तक जिन तिथियों का महत्त्व दिया जा रहा था, वे महत्त्वपूर्ण नहीं रहेंगी। हमारे लिए नयी तिथियाँ महत्त्वपूर्ण हो जाएँगी।

हम अवधियाँ कैसे तय करते हैं?

1817 में स्कॉटलैंड के अर्थशास्त्री और राजनीतिक दार्शनिक जेम्स मिल ने तीन विशाल खंडों में ए हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया (ब्रिटिश भारत का इतिहास) नामक एक किताब लिखी। इस किताब में उन्होंने भारत के इतिहास को हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश, इन तीन काल खंडों में बाँटा था। काल खंडों के इस निर्धारण को ज्यादातर लोगों ने मान भी लिया। क्या आपको भारतीय इतिहास को समझने के इस तरीके में कोई समस्या दिखाई देती है?

इतिहास को हम अलग-अलग काल खंडों में बाँटने की कोशिश क्यों करते हैं?

इसकी भी एक वजह है। हम एक दौर की खासियतों, उसके केंद्रीय तत्वों को पकड़ने

की कोशिश करते हैं। इसीलिए ऐसे शब्द महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं जिनके सहारे हम समय को बाँटते हैं। ये शब्द अतीत के बारे में हमारे विचारों को दर्शाते हैं। वे हमें बताते हैं कि एक अवधि से दूसरी अवधि के बीच आए बदलावों का क्या महत्त्व होता है। मिल को लगता था कि सारे एशियाई समाज सभ्यता के मामले में यूरोप से पीछे हैं। इतिहास की उनकी समझदारी ये थी कि भारत में अंग्रेज़ों के आने से पहले यहाँ हिंदू और मुसलमान तानाशाहों का ही राज चलता था। यहाँ चारों ओर

केवल धार्मिक बैर, जातिगत बंधनों और अंधविश्वासों का ही बोलबाला था।

मिल की राय में ब्रिटिश शासन भारत को सभ्यता की राह पर ले जा सकता था। इस काम के लिए ज़रूरी था कि भारत में यूरोपीय शिष्टाचार, कला, संस्थानों और कानूनों को लागू किया जाए। मिल ने तो यहाँ तक सुझाव दिया था कि अंग्रेज़ों को भारत के सारे भूभाग पर कब्ज़ा कर लेना चाहिए ताकि भारतीय जनता को ज्ञान और सुखी जीवन प्रदान किया जा सके। उनका मानना था कि अंग्रेज़ों की मदद के बिना हिंदुस्तान प्रगति नहीं कर सकता।

इतिहास की इस धारणा में अंग्रेज़ी शासन प्रगति और सभ्यता का प्रतीक था। अंग्रेज़ी शासन से पहले सारा अंधकार का दौर था। क्या इस तरह की धारणा को स्वीकार किया जा सकता है?

क्या इतिहास के किसी दौर को “हिंदू या मुसलमान” दौर कहा जा सकता है? क्या इन सारे दौरों में कई तरह के धर्म एक साथ नहीं चलते थे? किसी युग को केवल उस समय के शासकों के धर्म के हिसाब से तय करने की ज़रूरत क्या है? अगर हम ऐसा करते हैं तो इसका मतलब यह कहना चाहते हैं कि औरों के जीवन और तौर-तरीकों का कोई महत्त्व नहीं होता। हमें याद रखना चाहिए कि प्राचीन भारत में सारे शासकों का भी एक धर्म नहीं होता था।

अंग्रेज़ों द्वारा सुझाए गए वर्गीकरण से अलग हटकर इतिहासकार भारतीय इतिहास को आमतौर पर ‘प्राचीन’, ‘मध्यकालीन’, तथा ‘आधुनिक’ काल में बाँटकर देखते हैं। इस विभाजन की भी अपनी समस्याएँ हैं। इतिहास को इन खंडों में बाँटने की यह समझ भी पश्चिम से आई है। पश्चिम में आधुनिक काल को विज्ञान, तर्क, लोकतंत्र, मुक्ति और समानता जैसी आधुनिकता की ताकतों के विकास का युग माना जाता है। उनके लिए मध्यकालीन समाज वे समाज थे जहाँ आधुनिक समाज की ये विशेषताएँ नहीं थीं। क्या हम अपने अध्ययन के लिए आधुनिक काल की इस अवधारणा को बिना सोचे-विचारे ऐसे ही अपना सकते हैं? जैसा कि आप इस किताब में देखेंगे, अंग्रेज़ों के शासन में लोगों के पास समानता, स्वतंत्रता या मुक्ति नहीं थी। न ही यह आर्थिक विकास और प्रगति का दौर था। बहुत सारे इतिहासकार इस युग को ‘औपनिवेशिक’ युग कहते हैं।

औपनिवेशिक क्या होता है?

इस किताब में आप पढ़ेंगे कि किस तरह अंग्रेज़ों ने हमारे देश को जीता और स्थानीय नवाबों और राजाओं को दबाकर अपना शासन स्थापित किया। आप देखेंगे कि किस तरह उन्होंने अर्थव्यवस्था व समाज पर नियंत्रण स्थापित किया, अपने सारे खर्चों को निपटाने के लिए राजस्व वसूल किया, अपनी जरूरत की चीज़ों को सस्ती कीमत पर खरीदा, निर्यात के लिए महत्त्वपूर्ण फसलों की खेती करायी और इन सारी कोशिशों के कारण क्या बदलाव आए। आप ये भी जानेंगे कि ब्रिटिश शासन के कारण यहाँ की मूल्य-मान्यताओं और पसंद-नापसंद, रीति-रिवाज़ व तौर-तरीकों में क्या बदलाव आए। जब एक देश पर दूसरे देश के दबदबे से इस तरह के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव आते हैं तो इस प्रक्रिया को औपनिवेशीकरण कहा जाता है।

लेकिन, जल्दी ही आप ये समझ जाएँगे कि सारे वर्ग और समूह इन बदलावों को एक ही ढंग से अनुभव नहीं कर रहे थे। इसीलिए, इस किताब को हमारे अतीत (यानी कई अतीतों पर केंद्रित) नाम दिया गया है।

हम किस तरह जानते हैं?

भारतीय इतिहास के पिछले 250 साल का इतिहास लिखने के लिए इतिहासकार कौन-से स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं?

प्रशासन अभिलेख तैयार करता है

अंग्रेज़ी शासन द्वारा तैयार किए गए सरकारी रिकॉर्ड इतिहासकारों का एक महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं। अंग्रेज़ों की मान्यता थी कि चीज़ों को लिखना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। उनके लिए हर निर्देश, हर योजना, नीतिगत फैसले, सहमति, जाँच को साफ़-साफ लिखना ज़रूरी था। ऐसा करने के बाद चीज़ों का अच्छी तरह अध्ययन किया जा सकता था और उन पर वाद-विवाद किया जा सकता है। इस समझदारी के चलते ज्ञापन, टिप्पणी और प्रतिवेदन पर आधारित शासन की संस्कृति पैदा हुई।

अंग्रेज़ों को यह भी लगता था कि तमाम अहम दस्तावेज़ों और पत्रों को सँभालकर रखना जरूरी है। लिहाज़ा, उन्होंने सभी शासकीय संस्थानों में अभिलेख कक्ष भी बनवा दिए। तहसील के दफ्तर, कलेक्टरेट, कमिश्नर के दफ्तर, प्रांतीय सचिवालय, कचहरी-सबके अपने रिकॉर्ड रूम होते थे। महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों को बचाकर रखने के लिए अभिलेखागार (आर्काइव) और संग्रहालय जैसे संस्थान भी बनाए गए।

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में प्रशासन की एक शाखा से दूसरी शाखा के पास भेजे गए पत्रों और ज्ञापनों को आप आज भी अभिलेखागारों में देख सकते हैं। वहाँ आप ज़िला अधिकारियों द्वारा तैयार किए गए नोट्स और रिपोर्ट पढ़ सकते हैं या ऊपर बैठे अफ़सरों द्वारा प्रांतीय अधिकारियों को भेजे गए निर्देश और सुझाव देख सकते हैं। उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में इन दस्तावेज़ों की सावधानीपूर्वक नकलें बनाई जाती थीं।

चित्र 4 – भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार 1920 के दशक में बनाया गया। जब नयी दिल्ली का निर्माण हुआ तो राष्ट्रीय संग्रहालय और राष्ट्रीय अभिलेखागार, दोनों ही वायसरॉय के निवास के नज़दीक बनाए गए थे। इससे पता चलता है कि अंग्रेज़ों की सोच में इन संस्थानों का कितना भारी महत्त्व था।

उन्हें खुशनवीसी के माहिर लिखते थे। खुशनवीसी या सुलेखनवीस ऐसे लोग होते हैं जो बहुत सुंदर ढंग से चीजें लिखते हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक छपाई तकनीक भी फैलने लगी थी। इस तकनीक के सहारे अब प्रत्येक सरकारी विभाग की कार्रवाइयों के दस्तावेज़ों की कई-कई प्रतियाँ बनाई जाने लगीं।

सर्वेक्षण का बढ़ता महत्त्व

औपनिवेशिक शासन के दौरान सर्वेक्षण का चलन भी महत्त्वपूर्ण होता गया। अंग्रेज़ों का विश्वास था कि किसी देश पर अच्छी तरह शासन चलाने के लिए उसको सही ढंग से जानना ज़रूरी होता है।

उन्नीसवीं सदी की शुरुआत तक पूरे देश का नक्शा तैयार करने के लिए बड़े-बड़े सर्वेक्षण किए जाने लगे। गांवों में राजस्व सर्वेक्षण किए गए। इन सर्वेक्षणर्णो में धरती की सतह, मिट्टी की गुणवत्ता, वहाँ मिलने वाले पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं तथा स्थानीय इतिहासों व फ़सलों का पता लगाया जाता था। अंग्रेज़ों की राय में किसी इलाके का शासन चलाने के लिए इन सारी बातों को जानना ज़रूरी था। उन्नीसवीं सदी के आख़िर से हर दस साल में जनगणना भी की जाने लगी। जनगणना के ज़रिए भारत के सभी प्रांतों में रहने वाले लोगों की संख्या, उनकी जाति, इलाके और व्यवसाय के बारे में जानकारियाँ इकट्ठा की जाती थीं। इसके अलावा वानस्पतिक सर्वेक्षण, प्राणि वैज्ञानिक सर्वेक्षण, पुरातात्वीय सर्वेक्षण, मानवशास्त्रीय सर्वेक्षण, वन सर्वेक्षण आदि कई दूसरे सर्वेक्षण भी किए जाते थे।

अधिकृत रिकॉर्ड्स से क्या पता नहीं चलता

रिकॉर्ड्स के इस विशाल भंडार से हम बहुत कुछ पता लगा सकते हैं। फिर भी, इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि ये सारे सरकारी रिकॉर्ड हैं।

चित्र 6- बंगाल में मानचित्रण और सर्वेक्षण कार्य चल रहा है। जेम्स प्रिंसेप द्वारा बनाई गई तसवीर, 1832 ध्यान से देखें कि सर्वेक्षण में इस्तेमाल होने वाले सारे उपकरणों को चित्र के अगले हिस्से में दिखाया गया है। चित्रकार इस परियोजना के वैज्ञानिक स्वरूप पर खासतौर से जोर देना चाहता है।

तसवीरों को भी बहुत ध्यान से देखना चाहिए। उनसे हमें चित्रकार की सोच पता चलती है। 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेज़ों द्वारा तैयार की गई सचित्र पुस्तकों में यह तसवीर कई जगह दिखाई देती है। इस तसवीर के नीचे लिखा होता था “बागी सिपाही लूट-खसोट में लगे हुए हैं”। अंग्रेज़ों की नज़र में विद्रोही जनता लालची, दुष्ट और बेरहम थी। इस विद्रोह के बारे में आप अध्याय 5 में पढ़ेंगे।

इनसे हमें यही पता चलता है कि सरकारी अफ़सर क्या सोचते थे, उनकी दिलचस्पी किन चीज़ों में थी और बाद के लिए वे किन चीर्जा को बचाए रखना चाहते थे। इन रिकॉर्ड्स से हमें ये समझने में हमेशा मदद नहीं मिलती कि देश के दूसरे लोग क्या महसूस करते थे और उनकी कार्रवाइयों की क्या वजह थी।

इन बातों को जानने के लिए हमें कहीं और देखना होगा। जब हम ऐसे दसरे स्रोतों की तलाश में निकलते हैं तो उनकी भी कोई कमी नहीं रहती। लेकिन, सरकारी रिकॉर्ड्स के मुकाबले उन्हें ढूँढ़ना ज़रा मुश्किल साबित होता है। इस लिहाज़ से लोगों की डायरियाँ, तीर्थ यात्राओं और यात्रियों के संस्मरण, महत्त्वपूर्ण लोगों की आत्मकथाएँ और स्थानीय बाज़ारों में बिकने वाली लोकप्रिय पुस्तक-पुस्तिकाएँ महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। जैसे-जैसे छपाई की तकनीक फैली, अखबार छपने लगे और विभिन्न मुद्दों पर जनता में बहस भी होने लगी। नेताओं और सुधारकों ने अपने विचारों को फैलाने के लिए लिखा, कवियों और उपन्यासकारों ने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लिखा।

लेकिन ये सारे स्रोत उन लोगों ने रचे हैं जो पढ़ना-लिखना जानते थे। इनसे हम यह पता नहीं लगा सकते कि आदिवासी और किसान, खदानों में काम करने वाले मज़दूर या सड़कों पर जिंदगी गुज़ारने वाले गरीब किस तरह के अनुभवों से गुज़र रहे थे।

अगर हम थोड़ी और कोशिश करें तो हम इस बारे में भी जान सकते हैं। जैसे-जैसे आप इस किताब में आगे बढ़ेंगे, आपको यह बात समझ में आने लगेगी।

यह भी पढ़ें : मानव संसाधन : अध्याय 5

फिर से याद करें

1. सही और गलत बताएँ-

(क) जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, तीन काल खंडों में बाँट दिया था। (सही)

(ख) सरकारी दस्तावेज़ों से हमें ये समझने में मदद मिलती है कि आम लोग क्या सोचते हैं। (गलत)

(ग) अंग्रेज़ों को लगता था कि सही तरह शासन चलाने के लिए सर्वेक्षण महत्त्वपूर्ण होते हैं। (सही)

आइए विचार करें

2. जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को जिस तरह काल खंडों में बाँटा है, उसमें क्या समस्याएँ हैं?
Ans. 
1817 में स्कॉटलैंड के अर्थशास्त्री और राजनीतिक दार्शनिक तीन विशाल खंडों में ‘ए हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया नामक एक किताब लिखी। इस किताब में उन्होंने भारत के इतिहास को हिंदू, मुसलिम और ब्रिटिश इन तीन काल खंडों में बाँटा था। काल खंडों के इस निर्धारण को ज्यादातर लोगों ने मान भी लिया। लेकिन जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को जिस तरह काल खंडों में बांटा है, उसमें

निम्नलिखित समस्याएँ हैं:

(क) इतिहास के किसी दौर को “हिंदू काल” या “मुस्लिम काल’ का नाम नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इन सारे दौरों में कई तरह के धर्म एक साथ प्रचलित थे। उदाहरण के लिए भारत में हिंदू तथा मुस्लिम धर्म के साथ-साथ बोद्ध धर्म तथा जैन धर्म भी प्रचलित रहे।

(ख) किसी युग को केवल उस समय के शासकों के धर्म के हिसाब से तय करना भी उचित नहीं है। इसका अर्थ यह है कि अन्य लोगों के जीवन तथा रीति रिवाजों का कोई महत्व नहीं था। वैसे भी प्राचीन भारत में सभी शासकों का धर्म भी एक नहीं था। गुप्त शासक हिंदू धर्म को मानते थे तो अशोक तथा कनिष्क बौद्ध धर्म के अनुयायी थे।

3. अंग्रेज़ों ने सरकारी दस्तावेज़ों को किस तरह सुरक्षित रखा?
Ans.
अंग्रेजों ने सरकारी दस्तावेजों को निम्नलिखित प्रकार से सुरक्षित रखा था

1. सभी शासकीय संस्थानों में अभिलेख कक्ष बनवाए।

2. तहसील के दफ्तर, कलेक्टरेट, कमिश्नर के दफ्तर, प्रांतीय सचिवालय, कचहरी-सभी के लिए। अपने-अपने रिकॉर्ड रूम (कक्ष) बनवाए।

3. महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के लिए अभिलेखागार और संग्रहालय जेसे संस्थान भी बनवाए।

अथवा

अंग्रेजों को यह लगता था कि तमाम अहम दस्तावेजों और पत्रों को संभालकर रखना जरूरी है। लिहाजा उन्होंने सभी शासकीय संस्थानों में अभिलेख कक्ष भी बनवा दिए। तहसील के दफ्तर, कलेक्टरेट कमिश्रर के दफ्तर, प्रांतीय सचिवालय तथा कचहरी सभी के अपने रिकॉर्ड रूम होते थे। महत्वपूर्ण दस्तावेजों को बचाकर रखने के लिए अभिलेखागार और संग्रहालय जैसे संस्थान भी बनाए गए। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में प्रशासन की एक शाखा से दूसरी शाखा के पास भेजे गए पत्रों और ज्ञापनों को आप आज भी अभिलेखागारों में देख सकते हैं। वहाँ आप जिला अधिकारियों द्वारा तैयार किए गए नोट्स और रिपोर्ट पढ़ सकते हैं। इस समय तक इन दस्तावेजों की सावधानीपूर्वक नकलें भी बनाई जाने लगी। इन्हें बहुत ही सुंदर ढंग से हाथ से लिखा जाता था। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक छपाई की तकनीक आ जाने से सरकारी विभागों की कार्यवाइयों के दस्तावेजों की कई कई प्रतियों बनाई जाने लगीं।

4. इतिहासकार पुराने अखबारों से जो जानकारी जुटाते हैं वह पुलिस की रिपोर्टी में उपलब्ध जानकारी से किस तरह अलग होती है?
Ans.
इतिहासकार पुराने अखबारों से जो जानकारी जुटाते है, वह किसी घटना की लगभग सच्ची जानकारी होती है। जैसे :- कहीं सरकार विरोधी हड़ताल हुई, दंगा हुआ तो उसके लिए सरकार की जो नीति उत्तरदायी रही होगी। अखबार उसी नीति को ही दोष देती है। इसके विपरीत पुलिस की रिपोर्टों में इसके लिए हड़तालियों तथा दंगा करने वालों को ही दोषी ठहराया जाता है। इन रिपोर्टों में सरकार को कोई दोष नहीं दिया जाता। इसका कारण यह है कि पुलिस सरकार के अधीन होती है और वह सरकार के इशारे पर ही काम करती है।

आइए करके देखें

5. क्या आप आज की दुनिया के कुछ सर्वेक्षणों का उदाहरण दे सकते हैं? सोचकर देखिए कि खिलौना बनाने वाली कंपनियों को यह पता कैसे चलता है कि बच्चे किन चीज़ों को ज्यादा पसंद करते हैं। या, सरकार को यह कैसे पता चलता है कि स्कूलों में बच्चों की संख्या कितनी है? इतिहासकार ऐसे सर्वेक्षणों से क्या हासिल कर सकते हैं?
Ans.
आज की दुनिया में सरकारी और निजी दोनों कंपनियां विभिन्न उद्देश्यों के लिए विभिन्न तरीके अपनाती हैं। सरकार 10 साल के अंतराल पर जनगणना सर्वेक्षण करती है। जनसंख्या वृद्धि, शिक्षा, घरेलू व्यवसाय, लिंग अनुपात् जन्म दर मृत्यु दर आदि के बारे में सर्वेक्षण किया जाता है। जब बाजार में नए उत्पाद पेश करने होते हैं तो कंपनियां सर्वेक्षण करती हैं। हर चीज के बारे में पता करती है कि किस युवक की क्या पसंद है। वे उन उत्पादों को कितना प्रयोग में लाते है। खिलौना बनाने वाली कंपनी स्कूल, कॉलेज, मॉल, सार्वजनिक बगीचे, पर्यटक स्थल आदि जैसे सभी स्थानों पर जाकर ऑनलाइन सर्वेक्षण और ऑफलाइन सर्वेक्षण से जानकारी प्राप्त कर सकती है क्योंकि किसी भी देश का अच्छे ढंग से

ग्रासन चलाने के लिए और उसकी हर चीज के बारे में सही जानकारी प्राप्त करने के लिए सर्वेक्षण जरूरी होता है। इतिहासकार ऐसे सर्वेक्षणों से विभिन्न जानकारियां प्राप्त करके लोगों के विचारों और उनकी जिंदगी में आने वाले बदलाव रहन सहन सभी तौर तरीकों को जान सकते है।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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