हमारे शरीर पर वातावरण में उपस्थित अनेक प्रकार के रोगोत्पादक (pathogenic), विषाणुओं (viruses), जीवाणुओं (bacteria), कवकों (fungi) तथा परजीवी (parasitic) जन्तुओं का आक्रमण (invasion) होता रहता है। इसके अतिरिक्त, वातावरण से अनेक प्रकार के विषैले पदार्थ भी शरीर में पहुँच सकते हैं, जैसे सर्पविष या अन्य जहरीले जन्तुओं का विष, वायु, जल आदि के प्रदूषणकारी विषैले रसायन आदि। शरीर के भीतर भी रोगग्रस्त ऊतकों द्वारा या आक्रमणकारी जीवों द्वारा विषैले पदार्थ मुक्त होते हैं। शरीर के लिए विषैले पदार्थों (toxins) को प्रतिजन (antigens) कहते हैं। सामान्यतया, ऐसी सभी प्रोटीन्स जो शरीर की स्वयं की प्रोटीन्स से भिन्न हैं प्रतिजनों का काम कर सकती हैं।
शरीर में सभी प्रकार के रोगोत्पादक जीवों अर्थात् रोगाणुओं (pathogens) और प्रतिजनों (antigens) के दुष्प्रभाव का प्रतिरोध करके समस्थैतिकता, अर्थात् होमियोस्टैसिस (homeostasis) बनाए रखने की क्षमता होती है। इसे शरीर की प्रतिरक्षा (defence) कहते हैं। प्रतिरक्षा के दो प्रमुख भेद होते हैं- स्वाभाविक एवं उपार्जित।
1. स्वाभाविक प्रतिरक्षा (Innate defence)
2. विशिष्ट या उपार्जित प्रतिरक्षण (Specific defence system)
➤ स्वाभाविक प्रतिरक्षा (Innate Defence)
यह प्राकृतिक और जन्मजात (inborn or inherent) होती है। अतः यह किसी विशेष रोग या विशेष रोगों से शरीर की सुरक्षा- व्यवस्था न होकर सभी प्रकार के रोगों का सामना करने की क्षमता होती है। इसीलिए इसे व्यापक अर्थात् अविशिष्ट (nonspecific) सुरक्षा कहते हैं। इसकी प्रक्रियाओं में विविध प्रकार के रोगोत्पादक आक्रमणकारियों तथा विविध प्रकार के प्रतिजनों में भेद करने की क्षमता नहीं होती।
शरीर की त्वचा बाहर से रोगाणुओं के प्रवेश को रोकती है। स्वेद ग्रन्थियों से निकले पदार्थ शरीर की सतह को अम्लीय बना देते हैं (pH 3.0-5.0)। इसके फलस्वरूप अनेक सूक्ष्मजीव त्वचा पर पनप नहीं सकते। पसीने में एक एन्जाइम भी होता है – लाइसोजाइम* (Iysozyme)। जो कि अनेक जीवाणुओं की कोशिका भित्ति का लयन कर देता है। यही एन्जाइम हमारी आंख, नाक, जीभ की लार में होता है ताकि जीवाणु हमारे अंगों में प्रवेश करके आक्रमण न कर सकें।
हमारी नाक के बाल भी एक छन्ने (Filter) की भांति कार्य करते हैं ताकि सांस लेते वक्त बाहर से आने वाली वायु के साथ जीवाणु बालों में ही रोक लिए जाएं।
इस प्रतिरक्षा में कोई-न-कोई गड़बड़ हो जाती है, जैसे चोट लगने से त्वचा का कट जाना। ऐसे में कोई भी जीवाणु अन्दर प्रवेश कर सकता है। परन्तु ऐसी स्थिति में शरीर की दूसरी प्रतिरक्षा प्रक्रियाएं काम करने लगती हैं जैसे कि प्रदाह या शोध (Inflammation)। प्रदाह के पांच लक्षण हैं – (i) ऊष्मा, (ii) लालपन, (iii) फुलाव, (iv) दर्द, तथा (v) भक्षी कोशिकाओं का आगमन। चोट के आस-पास की रक्त वाहिनियों में फैलाव (dilation) हो जाता है जिसके फलस्वरूप इनकी पारगम्यता बढ़ जाती है तथा भक्षकाणु (phagocytes) निकलकर चोट वाले स्थान पर पहुंचती है और आक्रमणकारी सूक्ष्मजीवों का भक्षण कर लेती हैं। मृत कोशिकाओं के इस प्रकार उत्पन्न समूह को मवाद (Pub) कहते हैं। रक्त वाहिनियों का फैलाव हिस्टामीन नामक एक रासायनिक पदार्थ के कारण होता है जो लिम्फ कोशिकाओं से उत्पन्न होता है। इस प्रक्रिया में चोट वाली जगह का ताप भी बढ़ जाता है। यह ताप वृद्धि केवल विशेष स्थान पर सीमित (localised) हो सकती है, या पूरे शरीर में भी हो सकती है। तापमान में वृद्धि आक्रमणकारी जीवाणुओं द्वारा विमुक्त विषाक्त (toxic) पदार्थों के कारण होती है। यह श्वेत रक्त कणिकाओं द्वारा विमुक्त रासायनिक पदार्थों, पायरोजेन्स (pyrogens) के कारण भी हो सकती है।
➤ विशिष्टीकृत प्रतिरक्षा तंत्र (Specific Defence System)
इस प्रतिरक्षा को उपार्जित (acquired) या अनुकूली (adap- tive) प्रतिरक्षा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें प्रत्येक प्रकार के रोगाणु (pathogens) या प्रतिजन (antigen) की पृथक् पहचान करके इसके विनाश की प्रकिया होती है, तथा एक बार किसी भी प्रकार के रोगाणु या प्रतिजन से प्रतिरक्षा के बाद इस विशेष प्रकार के रोगाणु या प्रतिजन की स्मृति (memory) बनी रहती है और अगली बार इसी रोगाणु या प्रतिजन का संक्रमण होने पर प्रतिरक्षा प्रक्रिया अधिक तीव्र और अधिक शीघ्रतापूर्वक होती है। इस प्रकार किसी रोग विशेष के एक बार हो जाने पर शरीर में इस रोग के लिए स्थाई प्रतिरक्षा स्थापित हो जाती है।
ज्ञातव्य है कि सन 1884 में मेशिनकॉफ (Metchnkoff) ने प्रतिरक्षा का कोशिकावाद (cellular theory of immunity) प्रस्तुत किया। उन्होंने पाया कि भक्षण कोशिकाएं (phagocytes) संक्रमण करने वाली कोशिकाओं का भक्षण करती हैं।
इसके विपरीत सन 1890 में बेहरिंग तथा कितासातो ने पाया कि ऐसे व्यक्ति या जन्तु के रक्त में (सीरम में) जो किसी रोग से पीड़ित हो चुका हो, ऐसे पदार्थ पाए जाते हैं जो उस विशेष रोग के रोगाणु द्वारा उत्पन्न विषाक्त पदार्थों (toxins) को निष्क्रिय कर देते हैं। ये पदार्थ ऐण्टिटॉक्सिन (Anti-toxins) कहलाए। सीरम में पाया जाने वाला यही पदार्थ प्रतिरक्षी (antibody) कहलाया। प्रतिरक्षा का यह वाद ह्यूमोरलवाद (Humoral theory) कहलाया।
कालान्तर में पता चला कि जीवधारियों की प्रतिरक्षा में दोनों प्रकार की विधियां अपनायी जाती हैं। इस प्रकार, प्रतिरक्षा तन्त्र (Immune system) दो प्रकार का होता है (i) ह्यूमोरल प्रतिरक्षा तन्त्र (Humoral immune responses – HIR), (ii) कोशिका मध्यस्थज प्रतिरक्षा तन्त्र (Cell-mediated immune responses- CMI), इस प्रणाली की सबसे विशेष बात यह है कि इसमें अपनी तथा बाहरी कोशिकाओं में विभेदन की क्षमता होती है। बाहर से आने वाली कोशिकाएं या अन्य कोई पदार्थ प्रतिजनी (antigen) कहलाता है। इसके जवाब में प्रतिरक्षी तन्त्र प्रतिरक्षी (antibodies) उत्पन्न करता है। अधिकांश प्रतिजन प्रोटीन या कार्बोहाइड्रेटयुक्त बड़े अणु होते हैं। सभी प्रतिजनी, जीवाणु नहीं होते। परागकण प्रतिरोपित
ऊतक आदि सभी बाहरी पदार्थ प्रतिजनी होते हैं। प्रतिरक्षी तन्त्र की कोशिकाएँ – लिम्फ कोशिकाएँ प्रतिरक्षी तंत्र में मुख्य भूमिका अदा करती हैं। लाल अस्थि मज्जा में बनने के बाद वहीं रह जाने वाली कोशिकाएं B कोशिकाएँ कहलाती हैं, और जो थाइमस में चली जाती है वे T कोशिकाएँ कहलाती हैं। शरीर के विभिन्न प्रतिजनों (Antigens) के लिए विभिन्न B कोशिकाएँ होती हैं। परन्तु इसके सक्रियता के लिए प्रतिजन द्वारा उत्तेजन आवश्यक होता है। ज्यों ही कोई प्रतिजन शरीर में आता है, उसके लिए विशिष्टीकृत B कोशिका से अनेक प्लाज्मा कोशिकाएँ (plasma cells) बनती हैं जो कि 2000 अणु/सेकण्ड की दर से प्रतिरक्षियों (antibodies) का निर्माण करती हैं।
T कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं मारक T कोशिकाएँ (Killer T Cells) तथा सहायक T कोशिकाएँ (Helper T Cells) मारक T कोशिकाएँ प्रतिरक्षी कोशिकाओं के निर्माण में सहायक होती हैं।
एक और प्रकार की T कोशिकाएं होती हैं- सप्रेसर (suppressor) T कोशिकाएं, जो अपनी ही कोशिकाओं को मारने से रोकती हैं। जब प्रतिजन द्वारा आक्रमण होता है, तो B और T कोशिकाएं प्रेरित होकर असंख्य लड़ाकू कोशिकाओं के अलावा स्मृति कोशिकाएं (memory cells) भी बनाती हैं। * यदि दोबारा आक्रमण होता है, तो ये स्मृति कोशिकाएं पुनः लड़ाकु कोशिकाएं बनाती हैं। स्मृति कोशिकाएं काफी लम्बे समय तक जीवित रहती हैं। ये प्लीहा तथा लिम्फगांठों में संचित रहती हैं। यही कारण है कि कई रोग एक बार होने के बाद दोबारा नहीं होते। इसे सक्रिय प्रतिरक्षण (active immunity) कहते हैं।*
जब किसी विशेष रोग के प्रति प्रतिरक्षियों का निर्माण अत्यन्त धीमा हो, या बिल्कुल न हो तो दूसरे जीवधारी में प्रतिजन को अन्तःक्षेपित करते हैं। जिससे उसमें प्रतिरक्षियां उत्पन्न हो जाती हैं। उस जीवधारी के खून से सीरम अलग कर देते हैं। प्रतिरक्षी-युक्त इस ‘सीरम को ऐण्टिसीरम (antiserum) कहते हैं। इसका अन्तःक्षेपण रोगी व्यक्ति में किया जाता है। रोग से सुग्राही व्यक्ति को प्राप्त इस प्रकार का प्रतिरक्षण निष्क्रिय प्रतिरक्षण (passive immunity)’ कहलाता है।
इम्यून प्रतिरक्षा में चिकित्सीय सहायता (Medical Aid in Immune Defence)
➤ टीकाकरण (Vaccination)
शरीर पर एक बार किसी जीव या प्रतिजन का प्रकोप हो जाने पर इससे उत्तेजित होने वाले विशिष्ट लिम्फोसाइट्स की संख्या लसिका अंगों में बहुत बढ़ जाती है। दूसरे शब्दों में, इस विशेष प्रकोप या रोग के लिए शरीर की प्रतिरक्षा पूर्णरूपेण स्थापित और बलवती हो जाती है। अतः दुबारा, इस प्रकोप या रोग के होने की सम्भावना कम हो जाती है। कई प्रकार के घातक रोगों से बचने के लिए, अब चिकित्सा-विज्ञान में ऐसे रोगों के लिए शरीर की प्रतिरक्षा पहले से ही स्थापित करने की विधियाँ ज्ञात हैं। ऐसी एक विधि में किसी रोग के रोगाणुओं को मारकर या प्रभावहीन बनाकर, या सम्बन्धित प्रतिजन को प्रभावहीन बनाकर, शरीर में पहुँचा देते हैं। इसे टीका लगाना (vaccination) कहते हैं। इससे शरीर में रोगों से सम्बन्धित प्रतिरक्षी पदार्थ अर्थात् ऐन्टीबॉडीज बन जाते हैं और प्रतिरक्षण स्थापित हो जाता है। इंग्लैण्ड के वैज्ञानिक, एडवर्ड जेनर (Edward Jenner, 1798) ने चेचक (small pox) की रोकथाम के लिए चेचक के प्रभावहीन विषाणु (virus) का टीका लगाकर टीकाकरण प्रारम्भ किया। टाइफॉइड, कुकुर-खाँसी (Whooping cough or patussis), डिप्थीरिया (diphtheria) आदि जीवाणु-जनित (bac- terial) रोगों के लिए मरे हुए सम्बन्धित जीवाणुओं के टिटेनस आदि के लिए प्रभावहीन प्रतिजनों के तथा पोलियो, पीतज्वर, खसरा, चेचक आदि विषाणुजनक (viral) रोगों के लिए सम्बन्धित विषाणुओं को प्रभावहीन बनाकर इनके टीके लगाए जाते हैं। डिप्थीरिया, कुकुर खाँसी तथा टिटेनस (tetanus) से बचाव के लिए बच्चों को DPT नामक त्रिगुण टीका (triple vaccine) लगाते हैं। इसी प्रकार, बच्चों को यक्ष्मा अर्थात् क्षयरोग (tuberculosis) से बचाव के लिए BCG का टीका लगाया जाता है।
➤ चेष्ट एवं निश्चेष्ट प्रतिरक्षा (Active and Passive Immunity)
टीका लगाने के बाद शरीर में अपनी प्रतिरक्षण प्रतिक्रियाओं द्वारा ही उपयुक्त ऐन्टीबॉडीज का संश्लेषण होता है। इसे इसीलिए चेष्ट प्रतिरक्षा (Active Immunity) कहते हैं। कुछ रोगों से बचाव के लिए उपयुक्त ऐन्टीबॉडीज (antibodies) प्रयोगशालाओं में तैयार करके रोग की सम्भावना से पहले ही, शरीर में इन्जेक्ट कर दिए जाते हैं। किसी ऐसे व्यक्ति के रुधिर सीरम (blood serum) को भी, जो रोग से प्रभावित होकर ठीक हो गया हो, दूसरे व्यक्ति के शरीर में इन्जेक्ट कर सकते हैं, क्योंकि इस सीरम में उपयुक्त ऐन्टीबॉडीज होते हैं। ऐसे रूधिर सीरम को एण्टीसीरम (Antiserum) कहते हैं। इसमें उपस्थित एन्टीबॉडीज कुछ समय के लिए शरीर में सक्रिय बने रहते हैं। यदि इस बीच सम्बन्धित रोगाणु या प्रतिजन शरीर में पहुँच जाते हैं तो इन्हें ये ऐन्टीबॉडीज नष्ट कर देते हैं। इसे शरीर की निश्चेष्ट (passive) प्रतिरक्षा कहते हैं। इसकी खोज सन् 1890 में एमिल वान बेहरिंग (Emil Von Behring) ने पशुओं में टिटेनस (tetanus) तथा मनुष्य में डिप्थीरिया (diphtheria) नामक रोगों की रोकथाम के प्रयास के दौरान की।
प्रतिरक्षी तन्त्र का व्यतिक्रम (Malfunction of Immune System)
➤ ऐलर्जी (Allergy)
यह प्रतिरक्षण का एक महत्वपूर्ण पार्श्व-प्रभाव (side effect) होता है। यदि किसी ऐसे प्रतिजन की, जिसके लिए प्रतिरक्षण तन्त्र अतिसंवेदनशील (Hypersensitive) हो चुका है, बहुत-सी मात्रा अचानक शरीर में पहुँचकर फैलती है, तो कुछ ही मिनटों में, प्रायः पूर्ण शरीर में, तीव्र एवं असाधारण (abnormal) या विपथगामी (aberrani) प्रतिरक्षण प्रतिक्रिया होने लगती है। सभी ऊतकों में, प्रदाह (inflammation) प्रतिक्रिया के फलस्वरूप, पूरा शरीर फूल सकता है या त्वचा पर दाने उभर आते हैं। इसे ऐलर्जी कहते हैं। इसमें ऊतकों की विस्तृत क्षति और व्यक्ति की मृत्यु तक हो सकती है। कुछ लोगों को दवाइयों, सौन्दर्य प्रसाधनों (cosmetics), रंगों, आदि से प्रायः सीमित ऐलर्जी हो जाती है। ऐलर्जी उत्पन्न करने वाले पदार्थों को ऐलर्जेन्स (allergens) भी कहते हैं। कभी-कभी अपने ही शरीर में बनने वाले किसी पदार्थ या अपने ही शरीर के किसी ऊतक के प्रति – प्रतिरक्षण तन्त्र अतिसंवेदनशील होकर ऐलर्जी उत्पन्न कर देता है। इसे स्वप्रतिरक्षण (autoimmunity) कहते हैं।
यह भी पढ़ें: उत्सर्जन तंत्र की व्याधियाँ
1 thought on “मानव प्रतिरक्षा एवं रोग”