पिछले अध्याय में आपने लेंसों द्वारा प्रकाश के अपवर्तन के बारे में अध्ययन किया है। आप पिछले लेंसों द्वारा बनाए गए प्रतिबिंबों की प्रकृति, स्थिति तथा उनके आपेक्षिक साइज़ के बारे में भी अध्ययन कर चुके हैं। यह ज्ञान मानव नेत्र के अध्ययन में हमारी किस प्रकार सहायता कर सकता है? मानव नेत्र प्रकाश का उपयोग करता है तथा हमारे चारों ओर की वस्तुओं को देखने के लिए हमें समर्थ बनाता है। इसकी संरचना में एक लेंस होता है। मानव नेत्र में लेंस का क्या प्रकार्य है? चश्मों में प्रयोग किए जाने वाले लेंस दृष्टि दोषों को किस प्रकार संशोधित करते हैं? क में हम इन्हीं प्रश्नों पर विचार करेंगे। इस अध्याय
पिछले अध्याय में हमने प्रकाश तथा इसके कुछ गुणों के बारे में अध्ययन किया था। इस अध्याय में हम इन धारणाओं का प्रकृति में कुछ प्रकाशीय परिघटनाओं के अध्ययन में उपयोग करेंगे। हम इंद्रधनुष बनने, श्वेत प्रकाश के वर्णों (रंगों) में परिक्षेपित (विभक्त) होने तथा आकाश के नीले रंग के बारे में भी चर्चा करेंगे।
10.1 मानव नेत्र
मानव नेत्र एक अत्यंत मूल्यवान एवं सुग्राही ज्ञानेंद्रिय है। यह हमें इस अद्भुत संसार तथा हमारे चारों ओर के रंगों को देखने योग्य बनाता है। आँखें बंद करके हम वस्तुओं को उनकी गंध, स्वाद, उनके द्वारा उत्पन्न ध्वनि या उनको स्पर्श करके, कुछ सीमा तक पहचान सकते हैं। तथापि आँखों को बंद करके रंगों को पहचान पाना असंभव है। इस प्रकार समस्त ज्ञानेंद्रियों में मानव नेत्र सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें हमारे चारों ओर के रंगबिरंगे संसार को देखने योग्य बनाता है।
मानव नेत्र एक कैमरे की भाँति है। इसका लेंस-निकाय एक प्रकाश-सुग्राही परदे, जिसे रेटिना या दृष्टिपटल कहते हैं, पर प्रतिबिंब बनाता है। प्रकाश एक पतली झिल्ली से होकर नेत्र में प्रवेश करता है। इस झिल्ली को कॉर्निया या स्वच्छ मंडल कहते हैं। चित्र 10.1 में दर्शाए अनुसार यह झिल्ली नेत्र गोलक के अग्र पृष्ठ पर एक पारदर्शी उभार बनाती है। नेत्र गोलक की आकृति लगभग गोलाकार होती है तथा इसका व्यास लगभग 2.3 cm होता है। नेत्र में प्रवेश करने वाली प्रकाश किरणों का अधिकांश अपवर्तन कॉर्निया के बाहरी पृष्ठ पर होता है। क्रिस्टलीय लेंस केवल विभिन्न दूरियों पर रखी वस्तुओं को रेटिना पर फोकसित करने के लिए आवश्यक फोकस दूरी में सूक्ष्म समायोजन करता है। कॉर्निया के पीछे एक संरचना होती है, जिसे परितारिका कहते हैं। परितारिका गहरा पेशीय डायफ्राम होता है, जो पुतली के साइज़ को नियंत्रित करता है। पुतली नेत्र में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा को नियंत्रित करती है। अभिनेत्र लेंस रेटिना पर किसी वस्तु का उलटा तथा वास्तविक प्रतिबिंब बनाता है। रेटिना एक कोमल सूक्ष्म झिल्ली होती है, जिसमें बृहत् संख्या में प्रकाश-सुग्राही कोशिकाएँ होती हैं। प्रदीप्त होने पर प्रकाश सुग्राही कोशिकाएँ सक्रिय हो जाती हैं तथा विद्युत सिग्नल उत्पन्न करती हैं। ये सिग्नल दृक् तंत्रिकाओं द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचा दिए जाते हैं। मस्तिष्क इन सिग्नलों की व्याख्या करता है तथा अंततः इस सूचना को संसाधित करता है, जिससे कि हम किसी वस्तु को जैसा है, वैसा ही देख लेते हैं।
10.1.1 समंजन क्षमता
अभिनेत्र लेंस रेशेदार जेलीवत पदार्थ का बना होता है। इसकी वक्रता में कुछ सीमाओं तक पक्ष्माभी पेशियों द्वारा रूपांतरण किया जा सकता है। अभिनेत्र लेंस की वक्रता में परिवर्तन होने पर इसकी फोकस दूरी भी परिवर्तित हो जाती है। जब पेशियों शिथिल होती है तो अभिनेत्र लेंस पतला हो जाता है। इस प्रकार इसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है। इस स्थिति में हम दूर रखी वस्तुओं का स्पष्ट देख पाने में समर्थ होते हैं। जब आप आँख के निकट की वस्तुओं को देखते हैं तब पक्ष्माभी पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं। इससे अभिनेत्र लेंस की वक्रता बढ़ जाती है। अभिनेत्र लेस अब मोटा हो जाता है। परिणामस्वरूप, अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी घट जाती है। इससे हम निकट रखी वस्तुओं का स्पष्ट देख सकते हैं।
अभिनेत्र लेंस की वह क्षमता, जिसके कारण वह अपनी फोकस दूरी को समायोजित कर लेता है, समंजन कहलाती है। तथापि अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी एक निश्चित न्यूनतम सीमा से कम नहीं होती। किसी छपे हुए पृष्ठ को आँख के अत्यंत निकट रखकर उसे पढ़ने का प्रयास कीजिए। आप अनुभव करेंगे कि प्रतिबिंब धुँधला है या इससे आपके नेत्रों पर तनाव पड़ता है। किसी वस्तु को आराम से सुस्पष्ट देखने के लिए आपको इसे अपने नेत्रों से कम से कम 25 cm दूर रखना होगा। वह न्यूनतम दूरी जिस पर रखी कोई वस्तु बिना किसी तनाव के अत्यधिक स्पष्ट देखी जा सकती है, उसे सुस्पष्ट दर्शन की अल्पतम दूरी कहते हैं। इसे नेत्र का निकट-बिंदु भी कहते हैं। किसी सामान्य दृष्टि के तरुण वयस्क के लिए निकट बिंदु की आँख से दूरी लगभग 25 cm होती है। वह दूरतम बिंदु जिस तक कोई नेत्र वस्तुओं को सुस्पष्ट देख सकता है, नेत्र का दूर-बिदु (far Point) कहलाता है। सामान्य नेत्र के लिए यह अनंत दूरी पर होता है। इस प्रकार, आप नोट कर सकते हैं कि एक सामान्य नेत्र 25 cm से अनंत दूरी तक रखी सभी वस्तुओं को सुस्पष्ट देख सकता है। कभी-कभी अधिक आयु के कुछ व्यक्तियों के नेत्र का क्रिस्टलीय लेंस दूधिया तथा धुंधला हो जाता है। इस स्थिति को मोतियाबिंद (cataract) कहते हैं। इसके कारण नेत्र की दृष्टि में कमी या पूर्ण रूप से दृष्टि क्षय हो जाता है। मातियाबिद की शल्य चिकित्सा के पश्चात दृष्टि का वापस लौटना संभव होता है।
10.2 दृष्टि दोष तथा उनका संशोधन
कभी-कभी नेत्र धीरे-धीरे अपनी समंजन क्षमता खो सकते हैं। ऐसी स्थितियों में व्यक्ति वस्तुओं को आराम से सुस्पष्ट नहीं देख पाते। नेत्र में अपवर्तन दोषों के कारण दृष्टि धुँधली हो जाती है।
प्रमुख रूप से दृष्टि के तीन सामान्य अपवर्तन दोष होते हैं। ये दोष हैं- (i) निकट- दृष्टि दोष (Myopia), (ii) दीर्घ-दृष्टि दोष (Hypermetropia) तथा (iii) जरा-दूरदृष्टिता (Presbyopia)। इन दोषों को उपयुक्त गोलीय लेंस के उपयोग से संशोधित किया जा सकता है। हम इन दोषों तथा उनके संशोधन के बारे में संक्षेप में नीचे चर्चा करेंगे।
(a) निकट-दृष्टि दोष
निकट-दृष्टि दोष को निकट-दृष्टिता (Near-sightedness) भी कहते हैं। निकट दृष्टि दोषयुक्त कोई व्यक्ति निकट रखी वस्तुओं को तो स्पष्ट देख सकता है, परंतु दूर रखी वस्तुओं को वह सुस्पष्ट नहीं देख पाता। ऐसे दोषयुक्त व्यक्ति का दूर-बिंदु अनंत पर न होकर नेत्र के पास आ जाता है। ऐसा व्यक्ति कुछ मीटर दूर रखी वस्तुओं को ही सुस्पष्ट देख पाता है। निकट-दृष्टि दोषयुक्त नेत्र में, किसी दूर रखी वस्तु का प्रतिबिंब दृष्टिपटल (रेटिना) पर न बनकर [चित्र 10.2 (b)], दृष्टिपटल के सामने बनता है। इस दोष के उत्पन्न होने के कारण हैं- (i) अभिनेत्र लेंस की वक्रता का अत्यधिक होना अथवा (ii) नेत्र गोलक का लंबा हो जाना। इस दोष को किसी उपयुक्त क्षमता के अवतल लेंस (अपसारी लेंस) के उपयोग द्वारा संशोधित किया जा सकता है। इसे चित्र 10.2 (c) में दर्शाया गया है। उपयुक्त क्षमता का अवतल लेंस वस्तु के प्रतिबिंब को वापस दृष्टिपटल (रेटिना) पर ले आता है तथा इस प्रकार इस दोष का संशोधन हो जाता है।
(b) दीर्घ-दृष्टि दोष
दीर्घ-दृष्टि दोष को दूर-दृष्टिता (Far-sightedness) भी कहते हैं। दीर्घ-दृष्टि दोषयुक्त कोई व्यक्ति दूर की वस्तुओं को तो स्पष्ट देख सकता है, परंतु निकट रखी वस्तुओं को सुस्पष्ट नहीं देख पाता। ऐसे दोषयुक्त व्यक्ति का निकट-बिंदु सामान्य निकट बिंदु (25 cm) से दूर हट जाता है। ऐसे व्यक्ति को आराम से सुस्पष्ट पढ़ने के लिए पठन सामग्री को नेत्र से 25 cm से काफ़ी अधिक दूरी पर रखना पड़ता है। इसका कारण यह है कि पास रखी वस्तु से आने वाली प्रकाश किरणें दृष्टिपटल (रेटिना) के पीछे फोकसित होती हैं, जैसा कि चित्र 10.3 (b) में दर्शाया गया है। इस दोष के उत्पन्न होने के कारण हैं- (i) अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी का अत्यधिक हो जाना अथवा (ii) नेत्र गोलक का छोटा हो जाना। इस दोष को उपयुक्त क्षमता के अभिसारी लेंस (उत्तल लेंस) का उपयोग करके संशोधित किया जा सकता है। इसे चित्र 10.3 (c) में दर्शाया गया है। उत्तल लेंस युक्त चश्मे दृष्टिपटल पर वस्तु का प्रतिबिंब फोकसित करने के लिए आवश्यक अतिरिक्त क्षमता प्रदान करते हैं।
(c) जरा-दूरदृष्टिता
आयु में वृद्धि होने के साथ-साथ मानव नेत्र की समंजन-क्षमता घट जाती है। अधिकांश व्यक्तियों का निकट-बिंदु दूर हट जाता है। संशोधक चश्मों के बिना उन्हें पास की वस्तुओं को आराम से सुस्पष्ट देखने में कठिनाई होती है। इस दोष को जरा-दूरदृष्टिता कहते हैं। यह पक्ष्माभी पेशियों के धीर-धीरे दुर्बल होने तथा क्रिस्टलीय लेंस के लचीलेपन में कमी आने के कारण उत्पन्न होता है। कभी-कभी किसी व्यक्ति के नेत्र में दोनों ही प्रकार के दोष निकट-दृष्टि तथा दूर-दृष्टि दोष हो सकते हैं। ऐसे व्यक्तियों को वस्तुओं को सुस्पष्ट देख सकन के लिए प्रायः द्विफोकसी लसा (Bi-focal lens) की आवश्यकता होती है। सामान्य प्रकार के द्विफोकसी लेसों में अवतल तथा उत्तल दाना लस होत हैं। ऊपरी भाग अवतल लेस हाता है। यह दूर की वस्तुओं का सुस्पष्ट देखने में सहायता करता है। निचला भाग उत्तल लेंस हाता है। यह पास की वस्तुओं को सुस्पष्ट देखने में सहायक होता है। आजकल संस्पर्श लेंस (Contact lens) अथवा शल्य हस्तक्षेप द्वारा दृष्टि दोषों का संशोधन संभव है।
10.3 प्रिज़्म से प्रकाश का अपवर्तन
आप अध्ययन कर चुके हैं कि एक आयताकार काँच के स्लैब से गुज़रने पर प्रकाश किस प्रकार अपवर्तित होता है। समानांतर अपवर्तक पृष्ठों के लिए, जैसा कि काँच के स्लैब में होता है, अपवर्तित किरण आपतित किरण के समानांतर होती है। तथापि, पार्श्व में यह कुछ विस्थापित हा जाती है। किसी पारदर्शी प्रिज़्म से गुजरने पर प्रकाश किस प्रकार अपवर्तित होगा? काँच के एक त्रिभुज प्रिज़्म पर विचार कीजिए। इसके दो त्रिभुजाकार आधार तथा तीन आयताकार पार्श्व-पृष्ठ होते हैं। ये पृष्ठ एक दूसरे पर झुके होते हैं। इसके दो पार्श्व फलकों के बीच के कोण को प्रिज़्म कोण कहते हैं। आइए, अब एक क्रियाकलाप के द्वारा अध्ययन करें कि काँच के त्रिभुज प्रिज्म से गुजरने पर प्रकाश किस प्रकार अपवर्तित होता है।
क्रियाकलाप 10.1
• एक ड्राइंग बोर्ड पर ड्राइंग पिनों की सहायता से सफ़ेद कागज़ की एक शीट लगाइए।
• इस शीट पर काँच का प्रिज़्म इस प्रकार रखिए कि इसका त्रिभुजाकार फलक आधार बन जाए। एक पेंसिल का प्रयोग करके प्रिज़्म की सीमा रेखा खींचिए।
• प्रिज़्म के किसी एक अपवर्तक पृष्ठ AB से कोई कोण बनाती हुई एक सरल रेखा PE खीचिए।
• रेखा PE पर दो पिर्ने, बिंदु P तथा Q पर गाड़िए, जैसा कि चित्र 10.4 में दर्शाया गया है। फलक AC की ओर से P तथा Q पिनों के प्रतिबिंबों को देखिए।
• R तथा S बिंदुओं पर दो और पिनें इस प्रकार गाड़िए कि पिन R तथा S एवं पिन P तथा Q के प्रतिबिंब एक सीधी रेखा में दिखाई दें।
• पिनों तथा काँच के प्रिज़्म को हटाइए।
• रेखा PE प्रिज़्म की सीमा रेखा के बिंदु E पर (चित्र 10.4 देखिए) मिलती है। इसी प्रकार, बिंदुओं, R तथा S को एक रेखा से जोड़िए तथा इस रेखा को इस प्रकार आगे बढ़ाइए कि यह फिल्म के फलक AC से F पर मिले। हम पहले ही देख चुके हैं कि पिनों P तथा Q को मिलाने वाली रेखा फलक AB से E पर मिलती है। E तथा F को मिलाइए।
• प्रिज़्म के अपवर्तक पृष्ठों AB तथा AC पर क्रमशः बिंदुओं तथा F पर अभिलंब खींचिए।
• चित्र 10.4 में दर्शाए अनुसार आपतन कोण (∠i) अपवर्तन कोण (∠r) तथा निर्गत कोषण (∠e) को चिह्नित कीजिए।
PE – आपतित किरण
EF – अपवर्तित किरण
FS – निर्गत किरण
ZA – प्रिज़्म कोण
∠i – आपतन कोण
∠r – अपवर्तन कोण
∠e – निर्गत कोण
∠D – विचलन कोण
यहाँ PE आपतित किरण है, EF अपवर्तित किरण है तथा FS निर्गत किरण है। आप देख सकते हैं कि पहले पृष्ठ AB पर प्रकाश की किरण वायु से काँच में प्रवेश कर रही है। अपवर्तन के पश्चात प्रकाश की किरण अभिलंब की ओर मुड़ जाती है। दूसरे पृष्ठ AC पर प्रकाश की किरण काँच से वायु में प्रवेश करती है। अतः यह अभिलंब से दूर मुड़ती है। प्रिज़्म के प्रत्येक अपवर्तक पृष्ठ पर आपतन कोण तथा अपवर्तन कोण की तुलना कीजिए। क्या यह काँच के स्लैब में हुए झुकाव के समान ही है? प्रिज़्म की विशेष आकृति के कारण निर्गत किरण, आपतित किरण की दिशा से एक कोण बनाती है। इस कोण को विचलन कोण कहते हैं। इस स्थिति में ∠D विचलन कोण है। उपरोक्त क्रियाकलाप में विचलन कोण को चिह्नित कीजिए तथा इसे मापिए।
10.4 काँच के प्रिज़्म द्वारा श्वेत प्रकाश का विक्षेपण
आपने किसी इंद्रधनुष में भव्य वर्णों (रंगों) को देखा और सराहा होगा। सूर्य के श्वेत प्रकाश से हमें इंद्रधनुष के विभिन्न वर्ण (रंग) किस प्रकार प्राप्त हो जाते हैं? इस प्रश्न पर विचार करने से पहले हम फिर से प्रिज़्म से होने वाले प्रकाश के अपवर्तन को देखते हैं। काँच के प्रिज़्म के झुके हुए अपवर्तक पृष्ठ एक रोचक परिघटना दशति हैं। आइए, इसे एक क्रियाकलाप द्वारा देखें।
क्रियाकलाप 10.2
• गत्ते की एक मोटी शीट लीजिए तथा इसके मध्य में एक छोटा छिद्र या एक पतली झिरी बनाइए।
• पतली झिरी पर सूर्य का प्रकाश पड़ने दीजिए। इससे श्वेत प्रकाश का एक पतला किरण पुंज प्राप्त होता है।
• अब काँच का एक प्रिज़्म लीजिए तथा चित्र 10.5 में दर्शाए अनुसार झिरी से प्रकाश को इसके एक फलक पर डालिए।
• प्रिज़्म को धीरे से इतना घुमाइए कि इससे बाहर निकलने वाला प्रकाश पास रखे किसी परदे पर दिखाई देने लगे।
• आप क्या देखते हैं? आप वर्णों की एक आकर्षक पट्टी देखेंगे। ऐसा क्यों होता है?
संभवतः प्रिज़्म ने आपतित श्वेत प्रकाश को रंगों (वर्णा) की पट्टी में विभक्त कर दिया है। इस रंगीन पट्टी के दोनों सिरों पर दिखाई देने वाले वर्षों को नोट कीजिए। परदे पर दिखाई देने वाले वर्षों का क्रम क्या है? दिखाई देने वाले विभिन्न वर्णों का क्रम- बैंगनी (violet), जामुनी (indigo), नीला (blue), हरा (green), पीला (yellow), नारंगी (orange) तथा लाल (red) जैसा कि चित्र 10.5 में दर्शाया गया है। प्रसिद्ध परिवर्णी शब्द VIBGYOR आपको वर्णा के क्रम याद रखने में सहायता करेगा। प्रकाश के अवयवी वर्षों के इस बैंड को स्पेक्ट्रम कहते हैं। हो सकता है कि आप सभी वर्षों को अलग-अलग न देख पाएँ। फिर भी कुछ ऐसा अवश्य है, जा प्रत्येक वर्ण को एक-दूसरे से अलग करता है। प्रकाश के अवयवी वर्षों में विभाजन को विक्षेपण कहते हैं।
आपने देखा कि श्वेत प्रकाश प्रिज़्म द्वारा इसके सात अवयवी वर्णों में विक्षेपित हो जाता है। हमें ये वर्ण क्यों प्राप्त होते हैं? किसी प्रिज़्म से गुज़रने के पश्चात, प्रकाश के विभिन्न वर्ण, आपतित किरण के सापेक्ष अलग-अलग कोणों पर झुकते (मुड़ते) हैं। लाल प्रकाश सबसे कम झुकता है, जबकि बैंगनी सबसे अधिक झुकता है। इसलिए प्रत्येक वर्ण की किरणें अलग-अलग पथों के अनुदिश निर्गत होती हैं तथा सुस्पष्ट दिखाई देती हैं। यह सुस्पष्ट वर्णों का बैंड ही हमें स्पेक्ट्रम के रूप में दिखाई देता है।
आइज़क न्यूटन ने सर्वप्रथम सूर्य का स्पेक्ट्रम प्राप्त करने के लिए काँच के प्रिज़्म का उपयोग किया। दूसरे समान प्रिज़्म उपयोग करके उन्होंने श्वेत प्रकाश के स्पेक्ट्रम के वर्षों को और अधिक विभक्त करने का प्रयत्न किया, किंतु उन्हें और अधिक वर्ण नहीं मिल पाए। फिर उन्होंने चित्र 10.6 की भाँति एक दूसरा सर्व सम प्रिज़्म पहले प्रिज़्म के सापेक्ष उल्टी स्थिति में रखा। इससे स्पेक्ट्रम के सभी वर्ण दूसरे प्रिज़्म से होकर गुज़रे। उन्होंने देखा कि दूसरे प्रिज़्म से श्वेत प्रकाश का किरण पुंज निर्गत हो रहा है। इस प्रेक्षण से न्यूटन को यह विचार आया कि सूर्य का प्रकाश सात वर्षों से मिलकर बना है। कोई भी प्रकाश जो सूर्य के प्रकाश के सदृश स्पेक्ट्रम बनाता है, प्रायः श्वेत प्रकाश कहलाता है।
इंद्रधनुष, वर्षा के पश्चात आकाश में जल के सूक्ष्म कणों में दिखाई देन वाला प्राकृतिक स्पेक्ट्रम (चित्र 10.7) है। यह वायुमंडल में उपस्थित जल की सूक्ष्म बूँदों द्वारा सूर्य के प्रकाश के परिक्षेपण के कारण प्राप्त होता है। इंद्रधनुष सदेव सूर्य के विपरीत दिशा में बनता है। जल की सूक्ष्म बूँदें छोटे प्रिज़्मों की भाँति कार्य करती हैं। सूर्य के आपतित प्रकाश को ये बूँदें अपवर्तित तथा विक्षेपित करती हैं, तत्पश्चात इसे आंतरिक परावर्तित करती है। अंततः जल की बूँद से बाहर निकलते समय प्रकाश को पुनः अपवर्तित (चित्र 10.8) करती हैं। प्रकाश के परिक्षेपण तथा आंतरिक परावर्तन के कारण विभिन्न वर्ण प्रेक्षक के नेत्रों तक पहुँचते हैं।
यदि सूर्य आपकी पीठ की ओर हो और आप आकाश की ओर धूप वाल किसी दिन किसी जल प्रपात अथवा जल के फव्वारे से देखें तो आप इंद्रधनुष का दृश्य देख सकते हैं।
10.5 वायुमंडलीय अपवर्तन
आपने संभवतः कभी आग या भट्टी अथवा किसी ऊष्मीय विकिरक के ऊपर उठती गरम वायु के विक्षुब्ध प्रवाह में धूल के कणों की आभासी, अनियमित, अस्थिर गति अथवा झिलमिलाहट देखी होगी। आग के तुरंत ऊपर की वायु अपने ऊपर की वायु की तुलना में अधिक गरम हो जाती है। गरम वायु अपने ऊपर की ठंडी वायु की तुलना में हल्की (कम सघन) होती है तथा इसका अपवर्तनांक ठंडी वायु की अपेक्षा थोड़ा कम होता है, क्योंकि अपवर्तक माध्यम (वायु) की भौतिक अवस्थाएँ स्थिर नहीं है, इसलिए गरम वायु में से होकर देखने पर वस्तु की आभासी स्थिति परिवर्तित होती रहती है। इस प्रकार यह अस्थिरता हमारे स्थानीय पर्यावरण में लघु स्तर पर वायुमंडलीय अपवर्तन (पृथ्वी के वायुमंडल के कारण प्रकाश का अपवर्तन) का ही एक प्रभाव है। तारों का टिमटिमाना बृहत् स्तर की एक ऐसी ही परिघटना है। आइए, देखें इसकी व्याख्या हम किस प्रकार कर सकते हैं।
तारों का टिमटिमाना
तारों के प्रकाश के वायुमंडलीय अपवर्तन के कारण ही तारे टिमटिमाते प्रतीत होते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करने के पश्चात पृथ्वी के पृष्ठ पर पहुँचने तक तारे का प्रकाश निरंतर अपवर्तित होता जाता है। वायुमंडलीय अपवर्तन उसी माध्यम में होता है, जिसका क्रमिक परिवर्ती अपवर्तनांक हो, क्योंकि वायुमंडल तारे के प्रकाश को अभिलंब की ओर झुका देता है। अतः तारे की आभासी स्थिति उसकी वास्तविक स्थिति से कुछ भिन्न प्रतीत होती है। क्षितिज के निकट देखने पर (चित्र 10.9) कोई तारा अपनी वास्तविक स्थिति से कुछ ऊँचाई पर प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त जैसा कि ऐसी ही परिस्थिति में पिछले अनुभाग में वर्णन किया जा चुका है, तारे की यह आभासी स्थिति भी स्थायी न होकर धीरे-धीरे थोड़ी बदलती भी रहती है, क्योंकि पृथ्वी के वायुमंडल की भौतिक अवस्थाएँ स्थायी नहीं हैं। चूँकि, तारे बहुत दूर हैं, अतः वे प्रकाश के बिंदु-सोत के सन्निकट हैं, क्योंकि तारों से आने वाली प्रकाश किरणों का पथ थोड़ा-थोड़ा परिवर्तित होता रहता है। अतः तारे की आभासी स्थिति विचलित होती रहती है तथा आँखों में प्रवेश करने वाले तारों के प्रकाश की मात्रा झिलमिलाती रहती है, जिसके कारण कोई तारा कभी चमकीला प्रतीत होता है तो कभी धुँधला. जो कि टिमटिमाहट का प्रभाव है।
ग्रह क्यों नहीं टिमटिमाते? ग्रह तारों की अपेक्षा पृथ्वी के बहुत पास हैं और इसीलिए उन्हें विस्तृत सोत की भाँति माना जा सकता है। यदि हम ग्रह को बिंद-साइज़ के अनेक प्रकाश सोतों का संग्रह मान लें तो सभी बिंदु साइज़ के प्रकाश-सोतों से हमारे नेत्रों में प्रवेश करने वाले प्रकाश की मात्रा में कुल परिवर्तन का औसत मान शून्य होगा, इसी कारण टिमटिमाने का प्रभाव निष्प्रभावित हो जाएगा।
अग्रिम सूर्योदय तथा विलंबित सूर्यास्त
वायुमंडलीय अपवर्तन के कारण सूर्य हमें वास्तविक सूर्योदय से लगभग 2 मिनट पूर्व दिखाई देने लगता है तथा वास्तविक सूर्यास्त के लगभग 2 मिनट पश्चात तक दिखाई देता रहता है। वास्तविक सूर्योदय से हमारा अर्थ है, सूर्य द्वारा वास्तव में क्षितिज को पार करना। चित्र 10.10 में सूर्य की क्षितिज के सापेक्ष वास्तविक तथा आभासी स्थितियाँ दर्शाई गई हैं। वास्तविक सूर्यास्त तथा आभासी सूर्यास्त के बीच समय का अंतर लगभग 2 मिनट है। इसी परिघटना के कारण ही सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य की चक्रिका चपटी प्रतीत होती है।
10.6 प्रकाश का प्रकीर्णन
प्रकाश तथा हमारे चारों ओर की वस्तुओं के बीच अन्योन्यक्रिया के कारण ही हमें प्रकृति में अनेक आश्चर्यजनक परिघटनाएँ देखने को मिलती हैं। आकाश का नीला रंग, गहरे समुद्र के जल का रंग, सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य का रक्ताभ दिखाई देना, कुछ ऐसी अदभुत परिघटनाएँ हैं, जिनसे हम परिचित हैं। पिछली कक्षा में आपने कोलॉइडी कर्णा द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के विषय में अध्ययन किया है। किसी वास्तविक विलयन से गुज़रने वाले प्रकाश किरण पुंज का मार्ग हमें दिखाई नहीं देता। तथापि, किसी कोलॉइडी विलयन में जहाँ कर्णो का साइज़ अपेक्षाकृत बड़ा होता है, यह मार्ग दृश्य होता है।
10.6.1 टिंडल प्रभाव
पृथ्वी का वायुमंडल सूक्ष्म कणों का एक विषमांगी मिश्रण है। इन कर्णो में धुआँ, जल की सूक्ष्म बूँदें, धूल के निलंबित कण तथा वायु के अणु सम्मलित होते हैं। जब कोई प्रकाश किरण पुंज ऐसे महीन कणों से टकराता है तो उस किरण पुंज का मार्ग दिखाई देने लगता है। इन कणों से विसरित प्रकाश परावर्तित होकर हमारे पास तक पहुँचता है। कोलॉइडी कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन की परिघटना टिंडल प्रभाव उत्पन्न करती है, जिसके विषय में आप कक्षा 9 में पढ़ चुके हैं। जब धुएँ से भरे किसी कमरे में किसी सूक्ष्म छिद्र से कोई पतला प्रकाश किरण पुंज प्रवेश करता है तो इस परिघटना को देखा जा सकता है। इस प्रकार, प्रकाश का प्रकीर्णन कर्णा को दृश्य बनाता है, जब किसी घने जंगल के वितान (canopy) से सूर्य का प्रकाश गुजरता है तो टिंडल प्रभाव को देखा जा सकता है। जंगल के कुहासे में जल की सूक्ष्म बूँदें प्रकाश का प्रकीर्णन कर देती हैं।
प्रकीर्णित प्रकाश का वर्ण, प्रकीर्णन करने वाले कणों के साइज़ पर निर्भर करता है। अत्यंत सूक्ष्म कण मुख्य रूप से नीले प्रकाश को प्रकीर्ण करते हैं, जबकि बड़े साइज के कण अधिक तरंगदैर्ध्य के प्रकाश को प्रकीर्ण करते हैं। यदि प्रकीर्णन करने वाले कणों का साइज़ बहुत अधिक है तो प्रकीर्णित प्रकाश श्वेत भी प्रतीत हो सकता है।
10.6.2 स्वच्छ आकाश का रंग नीला क्यों होता है?
वायुमंडल में वायु के अणु तथा अन्य सूक्ष्म कणों का साइज दृश्य प्रकाश की तरंगदैर्ध्य के प्रकाश की अपेक्षा नीले वर्ण की ओर के कम तरंगदैर्ध्य के प्रकाश को प्रकीर्णित करने में अधिक प्रभावी है। लाल वर्ण के प्रकाश की तरंगदैर्ध्य नीले प्रकाश की अपेक्षा लगभग 1.8 गुनी है। अतः, जब सूर्य का प्रकाश वायुमंडल से गुजरता है, वायु के सूक्ष्म कण लाल रंग की अपेक्षा नीले रंग (छोटी तरंगदैर्ध्य) को अधिक प्रबलता से प्रकीर्ण करते हैं। प्रकीर्णित हुआ नीला प्रकाश हमारे नेत्रों में प्रवेश करता है। यदि पृथ्वी पर वायुमंडल न होता तो कोई प्रकीर्णन न हो पाता, तब आकाश काला प्रतीत होता। अत्यधिक ऊँचाई पर उड़ते हुए यात्रियों को आकाश काला प्रतीत होता है, क्योंकि इतनी ऊँचाई पर प्रकीर्णन सुस्पष्ट नहीं होता।
संभवतः आपने देखा होगा कि ‘खतरे’ के संकेत (सिग्नल) का प्रकाश लाल रंग का होता है। क्या आप इसका कारण जानते हैं? लाल रंग कुहरे या धुएँ से सबसे कम प्रकीर्ण होता है। इसीलिए, यह दूर से देखने पर भी लाल रंग का ही दिखलाई देता है।
आपने क्या सीखा
• नेत्र की वह क्षमता जिसके कारण वह अपनी फोकस दूरी को समायोजित करके निकट तथा दूरस्थ वस्तुओं को फोकसित कर लेता है, नेत्र की समंजन क्षमता कहलाती है।
• वह अल्पतम दूरी जिस पर रखी वस्तु को नेत्र बिना किसी तनाव के सुस्पष्ट देख सकता है, उसे नेत्र का निकट बिंदु अथवा सुस्पष्ट दर्शन की अल्पतम दूरी कहते हैं। सामान्य दृष्टि के वयस्क के लिए यह दूरी लगभग 25 cm होती है।
• दृष्टि के सामान्य अपवर्तक दोष हैं- निकट-दृष्टि, दीर्घ-दृष्टि तथा जरा-दूरदृष्टिता। निकट-दृष्टि (निकट दृष्टिता – दूर रखी वस्तु का प्रतिबिंब दृष्टिपटल के सामने बनता है।) को उचित क्षमता के अवतल लेंस द्वारा संशोधित किया जाता है। दीर्घ-दृष्टि (दूरदृष्टिता – पास रखी वस्तुओं के प्रतिबिंब दृष्टिपटल के पीछे बनते हैं।) को उचित क्षमता के उत्तल लस द्वारा संशाधित किया जाता है। वृद्धावस्था में नेत्र की समंजन क्षमता पट जाती है।
• श्वेत प्रकाश का इसके अवयवी वणों में विभाजन विक्षपण कहलाता है।
• प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण आकाश का रंग नीला तथा सूर्योदय एव सूर्यास्त के समय सूर्य रक्दाभ प्रतीत होता है।
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प्रश्न अभ्यास
1. मानव नेत्र अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी को समायोजित करके विभिन्न दूरियां पर रखी वस्तुओं को फोकसित कर सकता है। ऐसा हो पाने का कारण है।
(a) जरा-दूरदृष्टिता
(b) समंजन
(c) निकट-दृष्टि
(d) दीर्घ-दृष्टि
Ans. (b) समंजन
2. मानव नेत्र जिस भाग पर किसी वस्तु का प्रतिबिंब बनाते हैं वह है-
(a) कॉर्निया
(b) परितारिका
(c) पुतली
(d) दृष्टिपटल
Ans. (d) दृष्टिपटल
3. सामान्य दृष्टि के वयस्क के लिए सुस्पष्ट दर्शन की अल्पतम दूरी होती है, लगभग-
(a) 25 m
(b) 2.5 cm
(c) 25 cm
(d) 2.5 m
Ans. (c) 25 cm
4. अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी में परिवर्तन किया जाता है-
(a) पुतली द्वारा
(b) दृष्टिपटल द्वारा
(c) पक्ष्माभी द्वारा
(d) परितारिका द्वारा
Ans. (c) पक्ष्माभी द्वारा
5. किसी व्यक्ति को अपनी दूर की दृष्टि को संशोधित करने के लिए- 5.5 डाइऑप्टर क्षमता के लेंस की आवश्यकता है। अपनी निकट की दृष्टि को संशोधित करने के लिए उसे +1.5 डाइऑप्टर क्षमता के लेंस की आवश्यकता है। संशोधित करने के लिए आवश्यक लेंस की फोकस दूरी क्या होगी-
(i) दूर की दृष्टि के लिए
Ans. लेंस की क्षमता = – 5.5 डाइऑप्टर हम जानते हैं की
लेंस की फोकस दूरी = 1/लेंस की क्षमता = 1/(-55)m = 100/(-55)cm = -18cm
(ii) निकट की दृष्टि के लिए।
Ans. लेंस की क्षमता = +1.5 डाइऑप्टर हम जानते हैं की
लेंस की फोकस दूरी = 1/लेंस की क्षमता = 1/(+1.5)m = 100/(+1.5)cm = 66cm
6. किसी निकट-दृष्टि दोष से पीड़ित व्यक्ति का दूर बिंदु नेत्र के सामने 80 cm दूरी पर है। इस दोष को संशोधित करने के लिए आवश्यक लेंस की प्रकृति तथा क्षमता क्या होगी?
Ans. निकट दृष्टि दोष से पीड़ित व्यक्ति के सामने वस्तु अनंत पर होनी चाहिए-
u = – ∞
v = – 80 cmलेंस
सूत्र द्वारा(1/v) – (1/u) = 1/f
-1/80 – 1/∞ = 1/f
1/f = -1/80
f = -80cm = – 0.8 m
P = 1/f
P = 1/(-0.8)
P = – 1.25D
अतः इस दोष को संशोधित करने के लिए -1.25 D क्षमता वाले एक अवतल लेंस का प्रयोग करना चाहिए।
7. चित्र बनाकर दर्शाइए कि दीर्घ दृष्टि दोष कैसे संशोधित किया जाता है। एक दीर्घ दृष्टि दोषयुक्त नेत्र का निकट बिंदु । m है। इस दोष को संशोधित करने के लिए आवश्यक लेंस की क्षमता क्या होगी? यह मान लीजिए कि सामान्य नेत्र का निकट बिंदु 25 cm है।
Ans. हम जानते हैं कि दीर्घ-दृष्टि दोष युक्त नेत्र दूर की वस्तुओं को तो स्पष्ट देख लेता है, लेकिन नजदीक की वस्तुओं को स्पष्ट नहीं देख पाता है, इसके निवारण के लिए उचित क्षमता का उत्तल लेंस प्रयुक्त करते हैं ताकि पास से आने वाली प्रकाश किरणें रेटिना पर फोकसित हो जाए।
यह उत्तल लेंस 25cm पर रखी वस्तु N’ का आभासी प्रतिबिंब N बना देता है। अब पीड़ित आँख N बिंदु से आने वाली प्रकाश किरणों को रेटिना पर फोकसित कर देता है।
u = -25 cm
v = -100 cm
सूत्र द्वारा(1/v) – (1/u) = 1/f
1/(-100) – 1/(-25) = 1/f
1/f = 1/25 – 1/100
1/f = (4-1)/100
1/f = 3/100
f = 33.3cm
f = 0.33m
P = 1/f
P = 1/0.33m
P = + 3.0 D
8. सामान्य नेत्र 25 cm से निकट रखी वस्तुओं को सुस्पष्ट क्यों नहीं देख पाते?
Ans. पक्ष्माभी पेशियाँ (Ciliary muscles) अभिनेत्र लेंस की फोकस दूरी को एक निश्चित न्यूनतम सीमा से कम नहीं कर पातीं। इसलिए सामान्य नेत्र भी स्पष्ट दर्शन की न्यूनतम दूरी 25cm से कम पर रखी वस्तुओं को सुस्पष्ट नहीं देख पाती हैं।
9. जब हम नेत्र से किसी वस्तु की दूरी को बढ़ा देते हैं तो नत्र में प्रतिबिंब-दूरी का क्या होता है?
Ans. नेत्र के सामने किसी वस्तु को 25cm तथा अनंत के बीच कहीं भी रखें, प्रतिबिंब सदैव रेटिना पर ही बनेगा। अत: नेत्र से वस्तु की दूरी बढ़ाने पर भी प्रतिबिंब-दूरी अपरिवर्तित रहता है।
10. तार क्यों टिमटिमाते हैं?
Ans. तारों से आने वाले प्रकाश का वायुमंडलीय अपवर्तन के कारण तारे टिमटिमाते हुए प्रतीत होते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करने के बाद तारे के प्रकाश को विभिन्न अपवर्तनांक वाले वायुमंडल से गुजरना होता है, इसलिए प्रकाश का लगातार अपवर्तन होते रहने के कारण प्रकाश की दिशा बदलती रहती है, जिससे तारे टिमटिमाते हुए प्रतीत होते हैं।
11. व्याख्या कीजिए कि ग्रह क्यों नहीं टिमटिमाते।
Ans. हम जानते हैं कि ग्रह तारों की अपेक्षा पृथ्वी के बहुत पास हैं और ये प्रकाश के विस्तृत स्रोत की भाँति माने जाते हैं। यदि हम ग्रह को बिंदु आकार के अनेक प्रकाश स्रोतों का संग्रह मान लें तो सभी बिंदु आकार के प्रकाश स्रोतों से हमारी आँखों में आने वाले प्रकाश की मात्रा में कुल परिवर्तन का औसत मान शून्य होगा, जिसके कारण ग्रहों के टिमटिमाने का प्रभाव लगभग शून्य हो जाता है।
12. किसी अंतरिक्ष यात्री को आकाश नील की अपेक्षा काला क्या प्रतीत होता है?
Ans. आकाश का नीला रंग पृथ्वी पर स्थित वायुमंडल के सूक्ष्म कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण होता है। अंतरिक्ष यात्री को आकाश नीले की अपेक्षा काला इसलिए दिखाई देता है, क्योंकि वे अत्यधिक ऊँचाई पर पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं, जहाँ वायुमंडल नहीं होता। परिणामस्वरूप प्रकाश का प्रकीर्णन नहीं हो पाता है और आकाश काला प्रतीत होता है।
13. सूर्योदय के समय सूर्य रक्ताभ क्यों प्रतीत होता है?
Ans. सूर्योदय के समय सूर्य क्षितिज के पास होता है, जहाँ से आने वाले प्रकाश को वायुमंडल की मोटी परतों से होकर गुजरना पड़ता है तथा अधिक दूरी तय करनी पड़ती है। नीले तथा कम तरंगदैर्घ्य के प्रकाश का अधिकांश भाग कणों द्वारा प्रकीर्णित हो जाता है और सिर्फ अधिक तरंगदैर्ध्व वाले प्रकाश जैसे लाल रंग ही हम तक पहुँचता है। अतः सूर्य रक्ताभ प्रतीत होता है।
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1. नेत्र की समंजन क्षमता से क्या अभिप्राय है?
Ans. अभिनेत्र लेंस की वह क्षमता जिसके कारण वह अपनी फोकस दूरी को समायोजित करके निकट तथा दूरस्थ वस्तुओं को रेटिना पर फोकसित कर लेता है, नेत्र की समंजन क्षमता कहलाती है। समंजन क्षमता के कारण ही नेत्र भिन्न-भिन्न दूरियों पर रखी वस्तुओं का स्पष्ट प्रतिबिंब रेटिना पर बना पाता है।
2. निकट दृष्टिदोष का कोई व्यक्ति 1.2m से अधिक दूरी पर रखी वस्तुओं को सुस्पष्ट नहीं देख सकता। इस दोष को दूर करने के लिए प्रयुक्त संशोधक लेंस किस प्रकार का होना चाहिए?
Ans.यह निकट दृष्टिदोष है, जिसे दूर करने के लिए उचित क्षमता का अवतल लेंस लेना चाहिए।
3. मानव नेत्र की सामान्य दृष्टि के लिए दूर बिंदु तथा निकट बिंदु नेत्र से कितनी दूरी पर होते हैं?
Ans. मानव नेत्र की सामान्य दृष्टि के लिए दूर बिंदु अनंत पर तथा निकट बिंदु नेत्र से 25cm की दूरी पर होता है, जिसे सुस्पष्ट दर्शन की न्यूनतम (या अल्पतम) दूरी भी कहते हैं।
4. अंतिम पंक्ति में बैठे किसी विद्यार्थी को श्यामपट्ट पढ़ने में कठिनाई होती है। यह विद्यार्थी किस दृष्टिदोष से पीड़ित है? इसे किस प्रकार संशोधित किया जा सकता है?
Ans. यह विद्यार्थी निकट-दृष्टि दोष से पीड़ित है। इसे संशोधित करने के लिए उचित क्षमता वाले अवतल (अपसारी) लेंस का प्रयोग किया जाता है।