मानव स्वास्थ्य एवं पोषण (Human Health & Nutrition)

जीव-शरीर को “जीवित दशा” में रखने के लिए इसकी कोशाओं में निरन्तर उपापचय (metabolism) होता रहता है। ( उपापचय में निरन्तर प्रयुक्त वाले पदार्थ या “कच्चे माल (raw material)” को जीव अपने बाहरी वातावरण से ग्रहण करता रहता है। इसे जीव का पोषण (nutrition) कहते हैं। ऊर्जा-उत्पादन, वृद्धि एवं मरम्मत के लिए आवश्यक पदार्थ जीवों के पोषक पदार्थ (nutrients) कहलाते हैं।

मनुष्य का भोजन प्रायः कई प्रकार के पोषण पदार्थो तथा कुछ निरर्थक पदाथों का जटिल मिश्रण होता है। जिसे निम्नलिखित सात श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-

(1) कार्बोहाइड्रेटस
(2) प्रोटीन्स
(3) वसाएँ
(4) जल
(5) खनिज तत्व
(6) विटामिन
(7) रेशा

इनमें से जल व खनिज तत्व अकार्बनिक (inorganic) होते हैं और शेष कार्बनिक (organic)। शरीर में कार्बोहाइड्रेट्स, वसाओं तथा प्रोटीन्स की काफी मात्रा प्रयोग की जाती है। अतः इन्हें गुरुपोषक (macronutrients) कहते हैं। लवणों और विटामिनों की बहुत सूक्ष्म मात्रा की ही शरीर में आवश्यकता होती है। अतः इन्हें लघुपोषक (micronutrients) कहते हैं

कार्यात्मक उपयोगिता के आधार पर पोषक पदार्थो को हम चार श्रेणियों में बाँट सकते हैं-

(क) ऊर्जा-उत्पादक (Energy-producers) – इनके ऑक्सीकरण से जैव-क्रियाओं के लिए आवश्यक ऊर्जा प्राप्त की जाती है। ये पदार्थ होते हैं मुख्यतः कार्बोहाइड्रेटस एवं वसाएँ।*

(ख) निर्माण पदार्थ (Building substances) – इनका प्रमुख उपयोग शरीर की रचना एवं मरम्मत के लिए होता है, मुख्यतः प्रोटीन्स।*

(ग) उपापचयी नियंत्रक (Metabolic regulators)- जो जैव-क्रियाओं का नियंत्रण एवं नियमन करते हैं, विटामिन, जल एवं खनिज तत्व।*

(घ) आनुवंशिक पदार्थ (Hereditary substances)- जो आनुवंशिक लक्षणों को एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में ले जाने का काम करते हैं। जैसे-डी.एन.ए और वाइरस में आर.एन.ए.*

कार्बोहाइड्रेट्स (Carbobydrates)

कार्बोहाइड्रेट्स 1:2:1 के अनुपात में कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के यौगिक (CH₂O) होते हैं। इनमें हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन का अनुपात वही होता है जो जल (H₂O) में। अतः रासायनिक रूप से ये जलयोजित कार्बन (hydrated carbon) यौगिक, अर्थात् ऐल्डीहाइडस, कीटोन्स अथवा ऐल्कोहॉल होते हैं।*

• अधिकांश कार्बोहाइडेटस की खपत ईधन पदार्थो के रूप में ऊर्जा-उत्पादन के लिये होती है।* भोजन में कार्बोहाइड्रेटस घुलनशील शर्कराओं (sugars) और अघुनशील मण्ड (starches) के रूप में होते हैं।

• रासायनिक संगठन के आधार पर कार्बोहाइड्रेटस की तीन श्रेणियाँ होती हैं-

(क) मोनोसैकराइडस

• ये सरलतम रंगहीन, घुलनशील तथा मीठे कार्बोहाइड्रेटस होते हैं। इसीलिये इन्हें शर्करायें कहते हैं।

• ये जीवों में मुख्यतः षट या पंच-कार्बनीय शर्करायें (hexose or pentose sugars) ही होती हैं।

• षट्-कार्बनीय शर्कराएँ मुख्यतः ग्लूकोज फ्रुक्टोज एवं गैलेक्टोज होती हैं। ये मीठे फलों और शहद में अधिक होती हैं।*

• डी-ग्लूकोज सबसे अधिक पायी जाने वाली महत्वपूर्ण शर्करा होती है। ऊर्जा के लिए मुख्यतः इसी का ऑक्सीकरण होता है। * कारणस्वरूप ग्लूकोज को जीवों का सार्वत्रिक “ईंधन पदार्थ (Fuel Substance)” कहते हैं। * रूधिर में ग्लूकोज की एक निश्चित मात्रा 90 mg सदैव होती हैं और इसीलिए इसे (90-160)mg/BL शर्करा’ (Blood Sugar) भी कहते हैं।* ‘रूधिर जीवतंत्र की पंचकार्बनीय शर्कराओं में राइबोस एवं डीऑक्सीराइबोस सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती हैं, क्योंकि ये क्रमशः RNA एवं DNA नामक आनुवंशिक पदार्थो के संयोजन में भाग लेती हैं।

(ख) डाइसैकराइडस

• ये दो मोनोसैकराइडस इकाइयों से बनते हैं।

• ये शर्कराएँ भी मीठी, जल में घुलनशील और तीन प्रकार की होती हैं-पादपों की माल्टोज एवं सुक्रोज तथा जन्तुओं की लैक्टोज।

• माल्टोज अंकुरित बीजों, सुक्रोज* (गन्ने में) तथा लैक्टोज दुग्ध शर्करा होती हैं।* लैक्टोज की सर्वाधिक प्रतिशत मात्रा मानव माता के दुग्ध में होती हैं।*

(ग) पॉलीसैकराइडस

मोनोसैकराइउस (मुख्यतः ग्लूकोज) के अनेक (दस-से-अधिक, हजारों तक) अणुओं के जुड़ने से लम्बी श्रृंखला वाले अघुलनशील एवं जटिल पॉलीसैकराइड्स का निर्माण होता है। जैसे ग्लाइकोजन* (यकृत में), स्टार्च* (आलू, अनाज) एवं सेलुलोज आदि। ध्यातव्य है कि सेलुलोज पृथ्वी पर सबसे अधिक पाया जाने वाला कार्बनिक यौगिक, बायोपालीमर तथा पॉलीसैकराइड हैं।

कार्बोहाइड्रेटस के कार्य

• ग्लूकोज के रूप में ऊर्जा उत्पादन के लिए ईधन का काम करते हैं।*

• पॉलीसैकराइडस के रूप में कोशाकला और संयोजी ऊतकों की रचना में भाग लेते हैं।

• स्टार्च के रूप में “संचित ईधन’ का काम करते हैं।

• वसा में बदलकर “संचित भोजन” का काम करते हैं।

• RNA एवं DNA के घटक होते हैं।

• सेलुलोज के रूप में पादपों की कोशा-भित्ति बनाते हैं।*

• भारतीय भोजन में शंर्कराओं एवं अन्य कार्बोहाड्रेटस की मात्रा 65% तक होती है।*

• मधुमेह के रोगी भोजन में मिठास के लिये सैकरिन का उपयोग करते हैं।* सैकरिन एक कृत्रिम और शर्करा से कहीं अधिक मीठा पदार्थ होता है, परन्तु शर्करा नहीं होता।

वसाएँ (Fats)

• हमारे भोजन के सारे तैलीय व चर्बीयुक्त अर्थात चिकनाई वाले घटक लिपिड्स होते हैं। कार्बोहाइड्रेटस की भाँति, वसाएँ भी कार्बन, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन के यौगिक होते हैं, परन्तु इनमें कार्बन तथा हाइड्रोजन की मात्रा बहुत अधिक तथा ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम होती है। इसीलिये वसाएँ जल के अणुओं की ओर आकर्षित नहीं होते, अर्थात ये जलान्तक (hydrophobic) और जल में अघुलनशील होते हैं।

• इन्हें क्लोरोफॉर्म, बेन्जीन, पेट्रोलियम, ऐसीटोन, एल्कोहॉल, ईथर तथा किरोसीन आदि कार्बनिक विलायकों में ही घोला जा सकता है।

• जीवों में तीन प्रकार के वसा पदार्थ होते हैं। इन्हें लिपिड कहते हैं। रासायनिक संयोजन के आधार पर इन्हें निम्नलिखित प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जाता है-

(क) सरल लिपिडस (Simple lipids)

• ये सरल, उदासीन या विशुद्ध वसाएँ होती हैं। इनके अणु अपेक्षाकृत बड़े-बड़े होते हैं। प्रत्येक अणु का संश्लेषण ग्लिसरॉल के एक तथा वसीय अम्लों के तीन अणुओं के ईस्टर बन्धों (ester linkages) द्वारा परस्पर जुड़ने से होता है। इसीलिए इन्हें ट्राइग्लिसराइडस भी कहते हैं।

• किसी वसा के संयोजन में समान या विभिन्न प्रकार के वसीय अम्लों के अणु भाग ले सकते हैं। इसीलिए, वसाएँ भी अनेक प्रकार की होती हैं। घी, तेल, चरबी आदि इनके सामान्य उदाहरण हैं।

• कुछ वसीय अम्लों में दोहरे बन्ध (double bonds) होते हैं जिनके कारण इनमें हाइड्रोजन अणुओं की जितनी संख्या हो. सकती है उतनी नहीं होती। इसीलिये ऐसे वसीय अम्ल और इनसे युक्त वसायें असंतृप्त (unsaturated) तथा अन्य संतृप्त (saturated) कहलाती हैं।

• अधिकांश पादप-वसायें, जैसेकि मूँगफली, तिल, सरसों, सूरजमुखी आदि के तेल असंतृप्त होती है। ये सदा तरल अवस्था में रहती हैं। इनमें अलग से हाइड्रोजन मिलाकर इनसे “वेजीटेबल घी” बनाया जाता है।*

• अधिकांश जन्तु-वसायें (घी, चर्बी, मुक्खन आदि) संतृप्त होती हैं, क्योंकि इनमें दोहरे बन्ध वाले वसीय अम्ल नहीं होते। इसीलिये ये जाड़ों में ठोस या अर्धठोस हो जाती हैं। भोजन में इनकी लगातार अधिकता से ऐथरोस्क्लीरोसिस नामक रोग हो जाता हैं।

• वसाओं के विखण्डन से भी ऊर्जा मुक्त होती है। इनमें O2 कम होने के कारण इनका ऑक्सीकरण अधिक होता है। अतः ये कार्बोहाइड्रेटस की तुलना में दुगुनी से कुछ अधिक ऊर्जा मुक्त करती हैं।

• शरीर में अवशोषित होने वाले आवश्यकता से अधिक सारे पोषक पदार्थो से भण्डारण के लिये वसा का संश्लेषण कर लिया जाता है। इनका अधिकांश भण्डारण विशिष्ट वसीय ऊतकों (adipose – tissues) में होता है। आवश्यकता पड़ने पर ऊर्जा के लिए संचित भोजन के रूप में इनका सबसे अधिक महत्व होता है।

• अधिकांश पादप वसाओं में असंतृप्त वसीय अम्लों की – बहुतायत होती है। अतः इनके गलनांक कम होते हैं। इसीलिए सामान्य ताप (25°C) पर ये तरल बनी रहती हैं और इन्हें तैल (Oils) कहा जाता है। सरसों, तिल, सूरजमुखी, जैतून, कुसुम – (safflowers), सोयाबीन, तोरिया (rape-seed), मकई, मूंगफली, बिनौले (cottonseeds), अलसी (linseed) आदि के तैल ऐसे ही तैल होते हैं। इन्हें पचाना अपेक्षाकृत सरल होता है। कुछ पादप बसाओं का गलनांक, जैसे कि नारियल (Coconut) के तैल का, संतृप्त वसाओं की अधिकता के कारण, अधिक होता है जिससे ये – बसाएँ कम ताप पर जम जाती हैं।

• दूध का घी तथा सूअर एवं पशुओं की चर्बी (lard, tallow) जन्तु वसाएँ होती हैं। संतृप्त वसीय अम्लों की अधिकता के कारण इनका गलनांक अधिक होता है जिसके कारण ये सामान्य ताप में – अर्धठोस, स्नेही (greasy) अवस्था में बनी रहती हैं। इनका पाचन

अपेक्षाकृत कठिन होता है। अतः इन्हें कठोर वसाएँ (hard fats) कहते हैं। कुछ जन्तु वसाओं का गलनांक, जैसे कि मछली के तैल का, असंतृप्त वसीय अम्लों की बहुतायत के कारण कम होता है जिससे ये कम ताप पर भी तरल बनी रहती है।

• तनु कास्टिक सोडा (NaOH) या कास्टिक पोटाश (KOH) द्वारा वसाओं का जल-अपघटन (hydrolysis) करने पर ग्लिसरॉल अगल हो जाता है और साबुन (soap) के रूप में, वसीय अम्लों के सोडियम या पोटैशियम लवण बन जाते हैं। इसे वसाओं का साबुनीकरण (saponification) कहते हैं।

• वसाओं के वसीय अम्लों के ऑक्सीकरण (Oxidation) से एसीटिल सहएन्जाइम ए (acetyl CoA) बनता है जो क्रैब्स चक्र (Krebs’ cycle) में सम्मिलित होकर ऊर्जा उत्पादन के काम आता है, अथवा इससे कीटोनकाय (ketone bodies)- एसीटोऐसीटिक अम्ल (acetoacetic acid), ऐसीटोन (acetone) तथा डी-β- हाइड्रोक्सीबुटाइरेट (D-β-hydroxybutyrate) बन जाते हैं।

• पादप वसाओं के हाइड्रोजनीकरण (hydrogenation) से इनके वसीय अम्लों के दोहरे बॉण्ड (बन्ध) समाप्त हो जाते हैं जिससे ये वनस्पति घी में बदल जाती हैं।*

• वसा-प्रधान भोजन वायु में अधिक समय खुला रहे तो वायु की ऑक्सीजन से वसाओं की अभिक्रिया के फलस्वरुप भोजन विकृतगंधी (rancid) अर्थात् बदबूदार और खट्टा हो जाता है।*

• मनुष्य तथा अन्य स्तनियों में प्रमुख वसा डिपो त्वचा के ठीक नीचे एक अधस्त्वचीय वसा स्तर (subcutaneous fatty layer) के रूप में होता है जिसे पैनिकुलस ऐडिपोसस (panniculus adiposus) कहते हैं। स्त्रियों के स्तनों, ओमेंटा (Omenta) आदि कुछ अन्य भागों में भी छोटी वसा डिपो होती है। अनुमानतः एक 75kg भार वाले व्यक्ति में लगभग 5kg वसा होती है। मोटे व्यक्तियों में वसा की मात्रा 20kg या अधिक हो सकती है। इस वसा के कारण मनुष्य 12 सप्ताह तक का उपवास कर सकता है जबकि यकृत में ग्लाइकोजन के रूप में “आरक्षित ईंधन (reserve fuel)”, अर्थात् ग्लूकोस (glucose), आधे दिन के उपवास में समाप्त हो जाता है।

• मानव उपभोग के लिए वसाएँ (Fats for Human Consumption): बीते समय में मनुष्य अधिक मेहनतकश होता था और घी तथा अन्य जन्तु वसाओं को पचा लेता था। वर्तमान मैं कम मेहनतकश होने के कारण मानव आहार में पहले वनस्पति घी (vegetable ghee or margarine) के उपयोग का चलन हुआ। इसे विविध पादप वसाओं (oils) के दोहरे बन्धों के हाइड्रोजनीकरण (hydrogenation) द्वारा बनाया जाता है। अब डॉक्टर शोधित पादप तैलों (refined vegetable oils) के उपयोग की सलाह देते हैं, क्योंकि ये शरीर में कोलेस्ट्रॉल (cholesterol) की मात्रा घटाते हैं। ऐसे तैलों को “बहुअसंतृप्तों की प्रचुरता (rich in polyunsaturates)” वाले तैलों के रूप में प्रचारित किया जाता है।*

(ख) संयुक्त लिपिडस (Compound lipids)- संयुक्त लिपिड्स वसीय अम्लों, ऐल्कोहलों तथा कुछ अन्य पदार्थों से बने यौगिक होते हैं। क्रियात्मक रूप से ये संरचनात्मक लिपिड्स (Structural lipids) होते हैं जो जैव कलाओं (biological membranes) की रचना में मुख्यतः भाग लेते हैं। इस श्रेणी के वसीय पदार्थ- फास्फोलिपिड्स, ग्लाइकोलिपिड, मोम (wax) तथा लाइपोप्रोटीन्स होते हैं।

• फास्फोलिपिडस कोशा-भित्ति तथा अन्य झिल्लीनुमा कोशीय अंगकों की रचना और कार्यो में भाग लेते हैं। लिसाइथिन तथा सिफैलिन नामक फास्फोलिपिडस तंत्रिका ऊतकों, यकृत कोशाओं, अण्डपीत, पेशियों आदि में पायी जाती हैं।

• ग्लाइकोलिपिडस सभी कोशाओं की कोशाकला की बाहरी सतह पर होते हैं।

• मोम (wax) के एक अणु में एक वसीय अम्ल का अणु’ एक ऐल्कोहॉल अणु से जुड़ा होता है। यह सामान्य वसाओं से भी अधिक जलान्तक (hydrophobic) होता है। अतः सेब, नाशपाती आदि फलों पर, कीटों आदि अनेक जन्तुओं के शरीर पर, बालों, फर तथा ऊन आदि पर मोम का महीन, जलरोधक आवरण होता है।*

• लाइपोप्रोटीन्स प्रोटीन अणुओं से जुड़ी सामान्य वसायें होती हैं। रुधिर में वसाओं का संचरण इसी रूप में होता है।*

(ग) व्युत्पन्न लिपिड्स (Derived Lipids) – ये लिपिड उपापचय (lipid metabolism) के दौरान बनने वाले विविध पदार्थों से व्युत्पन्न विशेष प्रकार के लिपिड सदृश यौगिक होते हैं। इनकी दो प्रमुख श्रेणियाँ होती हैं।

(A) टर्पीन्स (terpenes) तथा (B) आइकोसैनॉइड्स (icosanoids)

(A) टर्पीन्स (Terpenes)

ऐसीटिल सहएन्जाइम ए (acetyl CoA) के संघनन (condensation) से एक 5-कार्बनीय हाइड्रोकार्बन का अणु, बनता है जिसे आइसोप्रीन (isoprene) कहते हैं। आइसोप्रीन अणु अनेक विभिन्न प्रकार के जैव अणुओं का पूर्ववर्ती (Precursor) होता हैं जिन्हें टर्पीन्स या टर्षिनाइड्स (terpenoids) या आइसोप्रीनॉइड्स (isoprenoids) कहते हैं। विविध टर्पीन्स के संश्लेषण में आइसोप्रीन के दो या अधिक अणु भाग लेते हैं। स्टीरॉइड (steroid) हॉरमोन्स तथा अन्य स्टीरॉइड पदार्थ, वसा में घुलनशील विटामिन (fat-soluble vitamins), कई प्रकार के वर्णक पदार्थ (pigments) तथा पादपों के गन्ध पदार्थ (fragrant compounds) टपर्पीन्स ही होते हैं।

स्टीरॉइडस (Steroids) ये वसा में घुलनशील ऐसे लिपिड पदार्थ होते हैं जिनमें वसीय अम्ल नहीं होते। जन्तुओं में कोलेस्ट्रॉल नामक स्टीरॉइड व्यापक रूप से पाया जाता है

रुधिर में कोलेस्ट्रॉल, अन्य प्रमुख लिपिड्स के साथ, ऐसी छोटी-छोटी गोल बूँदों के रूप में संचरित होता है जिन पर प्रोटीन्स का खोल होता है। इन बूँदों को लाइपोप्रोटीन्स (lipoproteins) कहते हैं। ये मुख्यतः दो प्रकार की होती है- लघु घनत्व लाइपोप्रोटीन्स (low density lipoproteins-LDL) तथा दीर्घ घनत्व लाइपोप्रोटीन्स (high density lipoproteins-HDL)। कोलेस्ट्रॉल की मात्रा LDL में लगभग 5% तथा HDL में लगभग 20% होती है। अतः LDL रुधिर में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ाने तथा HDL इसे घटाने का काम करती है।

आजकल कई औषधि-निर्माता नर हॉरमोन अर्थात टेस्टोस्टीरॉन से मिलते-जुलते ऐसे कृत्रिम स्टीरॉइड पदार्थ बना रहे हैं जिनके उपयोग से पेशियों और अस्थियों के विकास, साहस, शक्ति, मनोबल आदि में अत्यधिक बढ़ोत्तरी हो जाती हैं। इन्हें इसीलिये उपचयी स्टीरॉइडस (anabolic steroids) कहते हैं। प्रतियोगिताओं को जीतने के लिये विश्व स्तर के खिलाड़ी इन स्टीरॉइडस का प्रायः अवैध उपयोग करते हैं।*

(B) आइकोसैनॉइड्स (Icosanoids) : लाइनोलीक (linoleic) तथा लाइनोलीनिक (linolenic) नाम के दो वसीय अम्ल मनुष्य तथा अन्य स्तनियों के लिए अनिवार्य (essential) होते हैं, अर्थात् ये केवल भोजन से ही प्राप्त होते हैं। इनमें से लाइनोलीक अम्ल का विशेष महत्त्व होता है, क्योंकि इससे ऐरैकिडोनिक (arachidonic) नाम के वसीय अम्ल का संश्लेषण किया जाता है। ऐरैकिडोनिक अम्ल से फिर मुख्यतः निम्नलिखित तीन प्रकार के महत्त्वपूर्ण यौगिक – आइकोसैनॉइड्स-बनते हैं जो कोशिकाओं से ऊतक द्रव्य में स्स्रावित होकर स्थानीय हॉरमोन्स का काम करते हैं-

1. थॉम्बोक्सेन्स (Thromboxanes) : ये रुधिर की प्लेट्लेट्स (Platelets) में बनकर स्स्रावित होते हैं और रक्तजामन (blood cloting) में सहायता करते हैं।

2. ल्यूकोट्रीन्स (Leucotrienes): ये श्वेत रुधिर कणिकाओं (ल्यूकोसाइट्स -leucocytes-WBCs) में बनकर स्स्रावित होते हैं और वायु नलियों की दीवार की पेशियों में संकुचन को प्रेरित करके श्वास क्रिया में सहायता करते हैं। इनकी बहुतायत में दमा (asthma) हो सकता है।

3. प्रोस्टैग्लैंडिन्स (Prostaglandins) : ये वीर्य, स्त्रियों के रज (menstrual fluid) तथा कई ऊतकों के ऊतक द्रव्य में स्रावित होते हैं। चक्रीय AMP (cyclic AMP : CAMP) के बनने, रजोधर्म तथा प्रसव के समय गर्भाशय की पेशियों के संकुचन, सोने-जागने, शरीर ताप को बढ़ाने तथा स्थानीय पीड़ा की उत्पत्ति आदि प्रक्रियाओं में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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