मानव संवेदांग एवं व्याधियाँ

मानव शरीर में वातावरण से सूचना एवं ज्ञान प्राप्त करने के लिए पांच संवेदांग अथवा ज्ञानेन्द्रियाँ (Sensory Organs) निम्नवत होते हैं-

• नेत्र (Eyes)
• कर्ण (Ears), नासिका (Nose)
• त्वचा (Skin)
• जिह्वा (Tongue)

इनके द्वारा हम क्रमशः वस्तुओं को देखकर (By sight), ध्वनियों को सुनकर (by hearing), वस्तुओं को सूंघकर (by smelling), वस्तुओं का स्वाद लेकर (by tasting) तथा वस्तुओं को स्पर्शकर (by touching), वातावरणीय सूचनाएँ प्राप्त करते हैं।

कर्ण और श्रवण (The Ear & Hearing)

कर्ण का दो कार्य है- श्रवण ज्ञान तथा शरीर का संतुलन बनाये रखना। यह कार्य आठवीं कपाल तंत्रिका अपने श्रवण भाग (Cochlear Portion) एवं प्रघाण भाग (Vestibular Portion) के तंत्रिकाओं की सहायता से सम्पादित करती है। कान को तीन भागों में विभक्त किया गया है- बाह्य, मध्य एवं अन्तः कर्ण।

(i) बाह्य कर्ण (External Ear) : इसके दो भाग होते हैं- कर्णपाली (Pinna) एवं बाह्य कर्ण के कुहर (External auditory meatus) कर्णपाली अर्थात् पिन्ना ध्वनि तरंगों को एकत्रित करने में सहायता देता है तथा कान की रक्षा करता है। ध्वनि तरंगे बाह्य कर्ण कुहर में से होकर टिम्पेनिक कला अर्थात् कान के परदे तक पहुंचती हैं।

(ii) मध्यकर्ण (Middle ear): इसे टिम्पेनिक गुहा भी कहते हैं। यह एक छोटा सा वायुमय प्रकोष्ठ होता है जो टिम्पेनिक कला के – भीतरी ओर स्थित होता है इस कर्ण में तीन क्रमशः छोटी अस्थियाँ – होती हैं- मैलियस, इंकस एवं स्टैपीज। ज्ञातव्य है कि स्टैपीज अस्थि एवं पेशी होती है। उक्त तीनों कर्णास्थियों से बनी श्रृंखला द्वारा ध्वनि का विकम्पन कर्णपटक (eardrum) से अन्तः कर्ण तक पहुँचता है।

(iii) अन्तः कर्ण (Internal ear): यह टेम्पोरल अस्थि के पेट्रस भाग में स्थित होता हैं। इसमें अनेक गुहाएँ होती है जो सम्मिलित रूप से अस्थि लैबिरिंथ कहलाती है। अस्थिलैबिरिंथ में कला लैबिरिंथ (membranous labarinth) होते हैं, वास्तव में अर्धपारदर्शक झिल्ली की बनी यह कला लैबिरिंथ की अन्तः कर्ण होता है। इनमें सुनने तथा शरीर के नियंत्रण से सम्बन्धित कुछ तंत्रिका अन्तांग होते हैं तथा इसमें एक विशेष प्रकार का तरल पदार्थ होता है।

अस्थि लैबिरिथ के तीन भाग होते हैं- बेस्टिब्यूल, अर्धवृत्त में तीन कैनालें तथा कौक्लिया। प्रत्येक कैनाल के एक छोर पर एक फूला हुआ भाग होता है जो एम्पुला (Ampulla) कहलाता है। इस एम्पुला का कार्य शारीरिक स्थिति के विषय में जानकारी प्रदान करना तथा सेरिबेलम को शारीरिक संतुलन बनाये रखने में सहायता करना है।

कौक्लिया का स्वरूप एक सर्पिल ट्यूब के समान होता है जो घोंघे के कवच के समान स्वयं पर मुड़ी होती है। इससे आठवीं कपाल तंत्रिका के अन्तांग जुड़े रहते हैं। आठवीं कपाल तंत्रिका (Auditory nerve) के दो भाग होते हैं- श्रवण भाग (Cochlear portion) तथा बेस्टिव्यूलर भाग। वेस्टिब्यूल से संतुलन सम्बन्धी बेस्टिव्युलर तंत्रिका निकलती है, जिसका सम्बन्ध सेरीबेलम से होता है। कौक्लियर भाग से श्रवण सम्बन्धी कौक्लियर तंत्रिका निकलती है। इसके तंतु सेरीब्रम के टेम्पोरल पालि से जुड़े होते हैं।

कर्ण रोग (Ear Problems)

कान में भी दूसरे अवयवों की तरह कई तरह की व्याधियाँ होती हैं, जिनमें प्रमुख दर्द, स्त्राव या सुनने से संबंधित होती है।

(i) कान दर्द व स्त्राव : कान दर्द कई कारणों से हो सकता है। कुछ में कारण स्पष्ट दिख जाते हैं, जब ये कान के बाहरी हिस्सों में सूजन या फोड़े के रूप में हों। इसमें स्थानीय व शारीरिक दोनों तरह की रोगाणुनाशक व वेदनाशामक औषधियाँ प्रयोग करते हैं। कई बार कान दर्द कान के मध्य भाग के कारण होता है और सरलता से नहीं दिखता। ठीक से देखने पर बाहरी कान की नली के अन्त में कान का पर्दा दिख सकता है, उसमें सूजन या छेद व पूय (PUS) आता दिख सकता है। यह समस्या कई में बार-बार भी होती है, इसे मध्यकर्ण शोथ (Otitis Media) कहते हैं। यह संक्रमण बहुधा सर्दी या गला खराब होने के बाद कान तक पहुंचता है।

(ii) बधिरता (Deafness): यह समस्या कई तरह की होती है। कौक्लियर तंत्रिका की विक्षितियिों के फलस्वरूप तंत्रिका बधिरता उत्पन्न होती है। इसमें इसके बहुत बढ़ने से पहले ही श्रवण यंत्र लगा लेना बेहतर होता है।

(iii) कर्ण के लैबिरिंथ और कैनालों की समस्याओं के कारण सुनने की कमी के अलावा लगातार आवाज (Tinnitus) तथा कभी-कभी आवाज आने की व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके लिए कुशल चिकित्सक की सलाह आवश्यक होता है।

(iii) वेस्टिव्युलर तंत्रिका की विक्षतियों के फलस्वरूप चक्कर (Vertigo) असन्तुलन (diziness), गतिविभ्रण (Ataxia) एवं अक्षिदोलन (Nystagmus) जैसी समस्यायें उत्पन्न होती हैं। बहुत से मामलों में इसमें कोई स्पष्ट कारण नहीं मिलता। इन रोगियों में चक्कर कम करने की दवाइयाँ (Stemetil, Vertin, Cinnarzine) आदि तत्काल आराम कर देती हैं;

नेत्र तथा दृष्टि (The Eye & Sight)

नेत्र अण्डाकार होता है। इसका व्यास लगभग 2.5 सेमी० होता है। नेत्र गोलक कुछ उपांगों द्वारा सुरक्षित रहता है। यथा-

(i) पलकें (Lids) (ii) भौं (Eyebrow)

(iii) श्लेष्मला (conjunctiva)

(iv) अक्षु उपकरण (Lacrimal apparotus)

(i) पलकें (Eyelids):- कोर्निया की सुरक्षा के लिए दो पेशी युक्त पलकें होती हैं। एक तीसरी महीन एवं पेशीविहीन पलक-निमीलक छद (Nictitating membrane) मनुष्य में अवशेषी अंग के रूप में पायी जाती हैं।* पलकों के दोनों कगारों पर बरौनियाँ (Eyelashes) तथा माइबोमियन ग्रंथियाँ पायी जाती हैं। इन ग्रंथियों से तेल सदृश पीले रंग का पदार्थ स्स्रावण होता है जो पलकों के किनारों पर फैला रहता है।

(ii) नेत्र श्लेष्म (Conjunctiva) :- पलकों की भीतरी सतह पर की उपचर्म (Epidermis) पलकों के बीच कोर्निया पर फैली और इसी से समेकित (Fused) होती है। यह पारदर्शक एवं झिल्लीनुमा होती है। इसे नेत्र श्लेष्मा कहते हैं।

(iii) अश्रु या लैक्राइमल ग्रंथियाँ:- ये प्रत्येक नेत्र के बाहरी कोण के निकट तीन ग्रंथियाँ होती हैं। इनसे स्स्रावित जल-सदृश तरल पलकों एवं कोर्नियाँ तथा इसके ऊपर की कन्जंक्टिवा को नम बनाये रखता है और इनकी सफाई करता है। यह एक अश्रु नलिका द्वारा नासावेश्म में पहुँचता रहता है। ज्ञातव्य है कि जन्म के लगभग चार महीने बाद मानव-शिशु में अश्रु ग्रंथियाँ सक्रिय होती हैं।*

नेत्र की गति छः पेशियों द्वारा सम्पन्न होती है, इनमें चार रेक्टस तथा दो तिरछी (Oblique) पेशियाँ होती है।

नेत्र को मुख्यतः सात भागों में विभक्त किया जा सकता है। यथा

(1) दृढ़पटल तथा रक्तकपटल
(2) कोर्निया (Cornea)
(3) आइरिस (Iris)
(4) पुतली (Pupil)
(5) नेत्र लेन्स (Eye-dens)
(6) जलीय द्रव तथा काँच द्रव
(7) रेटिना (Retina)

(1) दृढ़ तथा रक्तक पटल (Sclera & Choroid): मनुष्य का नेत्र लगभग एक खोखले गोले के समान होता है। इसकी, सबसे बाहरी परत, अपारदर्शी, श्वेत तथा दृढ़ (hard) होती है। इसे दृढ़ पटल (Scelerotic) कहते हैं। इसके द्वारा नेत्र के भीतरी भागों की सुरक्षा होती है। दृढ़ पटल के भीतरी पृष्ठ से लगी एक परत या झिल्ली होती है जो काले रंग की होती है। इसे रक्तक पटल (Choroid) कहते हैं। काले रंग के कारण यह प्रकाश को अवशोषित करती है तथा नेत्र के भीतर परावर्तन को रोकती है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि केवल बाहर से आने वाली प्रकाश-किरणें ही रेटिना पर पड़ें।

(2) कोर्निया (Cornea) : दृढ़ पटल के सामने का भाग कुछ उभरा हुआ और पारदर्शी होता है। इसे कोर्निया कहते हैं। नेत्र में प्रकाश इसी भाग से होकर प्रवेश करता है। कोर्निया की आकृति असामान्य होने पर व्यक्ति को धुंधला दिखायी देता है। इसे दृष्टि वैषम्य (Astigmatism) का रोग कहते हैं।*

(3) आइरिस (Iris): कोर्निया के पीछे एक रंगीन एवं अपारदर्शी झिल्ली का पर्दा होता है जिसे आइरिस कहते हैं।

(4) पुतली अथवा नेत्र तारा (Pupil): आइरिस के बीच में एक छिद्र होता है जिसको पुतली कहते हैं। यह गोल तथा काली दिखाई देती है। कोर्निया से आया प्रकाश पुतली से होकर ही लेन्स पर पड़ता है। पुतली की यह विशेषता होती है कि अन्धकार में यह अपने आप बड़ी व अधिक प्रकाश में अपने आप छोटी हो जाती है। इस प्रकार नेत्र में सीमित मात्रा में ही प्रकाश जा पाता है।

(5) नेत्र लेन्स (Eye-lens):  यह आइरिस के ठीक भीतर की ओर, नेत्र गोलक की गुहा में, एक बड़ी-सी रंगहीन, पारदर्शक, एवं स्फटात्मक (crystalline) लचीली रचना होती है। यह उभयोत्तल (Biconvex) होती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ यह कुछ चपटा सा अधिक धना एवं भूरा-सा हो जाता है। इसके बहुत अपारदर्शी हो जाने पर मनुष्य को दिखायी नहीं पड़ता। इस अवस्था को मोतियाबिन्दु (cataracts) रोग की संज्ञा दी गई है।

(6) जलीय द्रव तथा काँच द्रव : कोर्निया एवं नेत्र लेन्स के बीच के स्थान में जल के समान पारदर्शी द्रव भरा रहता है जिसका अपवर्तनांक 1336 होता है। इसे जलीय द्रव (Aqueous humor) कहते हैं। इसी प्रकार लेन्स के पीछे दृश्य-पटल तक का स्थान एक गाढ़े, पारदर्शी एवं उच्च अपवर्तनांक के द्रव से भरा होता हैं इसे काँच द्रव (Vitrous humor) कहते हैं। नेत्र गोलक के वेश्यों (Chombers) में भरे इन द्रव्यों के दबाव से गोलक की दीवारें फैली रहती है और इसके स्तर अपने-अपने स्थान पर सधे रहते हैं। मनुष्य में इसी दबाव के बढ़ जाने को सबलबाय (Glaucoma) का रोग कहते हैं।*

(7) रेटिना (Retina): यह नेत्र का भीतरी तंत्रिका स्तर है, यह अनेक पर्तों का बना होता है। जिनकी रचना तन्तुओं, तंत्रिका कोशिकाओं, शलाकाओं (Rods) और शंकुओं (Cones) से होती हैं। दृष्टि शलाकायें (Rods) मंद प्रकाश में प्रकाश और अंधेरे का ज्ञान कराती हैं। * इसके विपरीत दृष्टि शंकु (Cones) तीव्र प्रकाश में वस्तुओं और विभिन्न रंगों का ज्ञान कराती हैं।

• उल्लू अथवा अनेक रात्रिचर स्तनियों के नेत्रों की रेटिना में शंकु (Cones) नहीं होते हैं। इनमें केवल शलाकाएँ (Rods) पायी जाती है।*

जब किसी वस्तु से निकली प्रकाश- किरणें नेत्र में प्रवेश करती हैं तो, कैमरे के निगेटिव की भाँति, वस्तु की वास्तविक उल्टी तथा छोटी प्रतिमूर्ति (Image) नेत्र की रेटिना पर पड़ती हैं। रेटिना की संवेदी कोशाएँ संवेदित होती है और दृकतंत्रिका (Optic nerve) इस संवेदना को मस्तिष्क में पहुँचाती हैं।

रेटिना पर वस्तु की उल्टी प्रतिमूर्ति क्यों बनती हैं?

मुख्यतः कार्निया तथा ऐक्वस ह्यूमर (Aqueous humor) वस्तु से आयी प्रकाश किरणों को, अपनी-अपनी फोकस दूरी के अनुसार, लगभग दो-तिहाई झुका देती हैं अर्थात इनका अपवर्तन (Refraction) कर देती हैं। फिर जब पुतली (Pupil) से होती हुई ये किरणें लेंस में होकर गुजरती है तो लेन्स इन्हें और अधिक झुका देता है। इसीलिए, रेटिना पर सत्य एवं उल्टी (Real & Inverted) प्रतिमूर्ति पड़ती है।

दृष्टि-ज्ञान की रासायनी (Chemistry of Vision)

दृष्टि संवेदना ग्रहण करने का काम नेत्रों की रेटिना की रॉडस एवं कोन्स कोशाएँ अपनी रंगाओं (Pigments) की सहायता से करती है। रॉडस के बाहरी खण्ड में दृष्टि पर्पिल (visual Purple) नामक चमकीली पिंगमेंट होती है। इसका रासायनिक नाम रोडोप्सिन (Rhodopsin) है। यह हीमोग्लोबिन की भाँति, एक प्रोटीन तथा एक पिगमेंट पदार्थ के संयोजन से बनती है। प्रोटीन को ऑप्सिन (Opsin) या स्कोटॉप्सिन (Scotopsin) तथा पिगमेंट पदार्थ को रेटिनीन (Retinene) कहते हैं। तीव्र प्रकाश में रोडोप्सिन समाप्त या निष्क्रिय हो जाता है। मंद प्रकाश में रोडोप्सिन का ऑप्सिन और रेटिनीन में विखण्डन हो जाता है। यही रासायनिक परिवर्तन दृष्टि संवेदना होती है। अँधेरे में रॉडस, एन्जाइमों की सहायता से, ऑप्सिन और रेटिनीन से वापस रोडोप्सिन का संश्लेषण कर लेती हैं। इसीलिए, उजाले से एकाएक अंधेरे स्थान में जाने पर हमें कुछ देर के लिए कुछ भी नहीं दिखायी देता। फिर धीरे-धीरे, रोडोप्सिन के पुनः संश्लेषण हो जाने के कारण, दिखायी देने लगता है। इसी प्रकार, अँधेरे से एकाएक उजाले में जाने पर हमें चकाचौंध लगती है और साफ दिखायी नहीं देता, क्योंकि रोडोप्सिन का पूर्ण विघटन हो जाने पर ही कोन (Cone) क्रियाशील हो पाते हैं। अँधेरे में कुछ देर बाद दिखायी देने तथा एकाएक उजाले में आने पर चकाचौंध लगने का एक अन्य कारण पुतली (Pupil) का फैलना और छोटा होना भी है।

रेटिनीन का प्रमुख घटक विटामिन A (Retinol) होता है अतः इस विटामिन की कमी होने पर रोडोप्सिन का संश्लेषण कम होने से मंद प्रकाश में दिखायी देना बंद हो जाता है, जिसे रतौंधी (Night blindness) कहते हैं।*

प्रमुख नेत्रदोष (Eye defects)

शरीर के अन्य अंगों की तरह आंखों को भी कई तरह की व्याधियाँ प्रभावित करती हैं, किंतु सामान्य रूप से मिलने वाली व्याधियाँ कुछ ही हैं। जो निम्नवत हैं :-

➤  दूर दृष्टिता (Long Sight or Hypermetropia)

नेत्र गोलक (Eye balls) का व्यास कम होने पर दूरदर्शिता हो जाता है। इसमें केवल दूर की वस्तुओं को ही साफ देखा जा सकता है, क्योंकि पास की वस्तुओं से आयी प्रकाश की किरणें अपवर्तन के बाद केन्द्रीभूत होने से पहले ही रेटिना पर पड़ जाती हैं, अर्थात फोकस बिन्दु रेटिना के पीछे हो जाता है। फलतः पास की वस्तुएँ धुँधली दिखायी देती हैं। इस दोष के निवार्णार्थ व्यक्ति को उत्तल लेन्स (convex lens) वाला चश्मा लगाना पड़ता है।

➤ निकट दृष्टिता (Short Sight or Myopia)

इस दोष में नेत्र के गोलक के कुछ बड़े हो जाने या कार्निया अथवा लेन्स के अधिक उत्तल (Canvex) हो जाने के कारण फोकस बिन्दु एवं रेटिना के बीच की दूरी बढ़ जाती है। अतः पास की वस्तुएँ तो साफ दिखाई देती हैं, परन्तु दूर की वस्तुएँ धुँधली। दूर की वस्तुओं को देखने के लिए ऐसे व्यक्तियों को अवतल (Cancave lens) लेन्स वाला चश्मा लगाना पड़ता है।

➤ जरादूरदृष्टिता (Presbyopia)

वृद्धावस्था में लेन्स अथवा सिलियरी पेशियों की लचक घट जाती है, कारणस्वरूप समीपवर्ती वस्तुओं का प्रतिबिम्ब अच्छी तरह फोकस नहीं हो पाता। इस प्रकार मूलतः विकार सामंजस्य में होता है। रोगी दूर की वस्तुएँ देखने में सक्षम होता है, ऐसा रोगी पढ़ते समय पुस्तक को आँखों से बहुत दूर रखता है। उत्तल लैंस चश्में के प्रयोग से रोगी को लाभ होता है,

➤ श्लेष्लेमाशोथ (Conjunctivities)

कंजक्टाइवा का शोथ विभिन्न सूक्ष्म जीवों के फलस्वरूप होता है तथा यह तीव्र अथवा चिकारी हो सकता है, प्रभावित नेत्र में जलन तथा किरकिरापन अनुभव होता है, पलकें सूज जाती हैं तथा कंजंक्टाइवा लाल हो जाता है। आँखों से अश्रु बहने लगते हैं, रोगी प्रकाश सहन नहीं कर पाता है, यह दशा प्रकाश असह्राता (photophobia) कहलाती है, चिकित्सा का उद्देश्य संक्रमण समाप्त करना होता है।

➤ रोहा (Trachoma)

यह वाइरस जनित आँख की कॉर्निया का रोग है, इसमें आँखें लाल हो जाती हैं, कॉर्निया में वृद्धि हो जाती हैं, जिससे रोगी निद्राग्रस्त-सा लगता है। आँख में दर्द बना रहता है। पानी आता है तथा दृष्टि कमजोर हो जाती है। इसके निवार्णार्थ एन्टीबायोटिक और मलहम का प्रयोग करना चाहिए।

➤ मोतियाबिंद (Cataracts)

इस दशा में लैंस आंशिक रूप से अथवा पूर्णतः अपारदर्शी हो जाता है। कैटेरेक्ट अनेक कारणों से हो सकता है, उदाहरणतः क्षति, मधुमेह तथा वृद्धावस्था। वृद्धावस्था में व्यपजननीय परिवर्तनों के फलस्वरूप होने वाला कैटेरेक्ट, जरा कैटेरेक्ट (senile cataract) कहलाता है, इस दशा में लैंस का उच्छेदन करना होता है और लैंस के स्थान पर कृत्रिम लैंस प्रतिस्थापित कर दिया जाता है (IOL- Intra Ocular lens Transplantation)। इसके बाद दृष्टि बहुत अच्छी हो जाती है और बहुत कम नम्बर के चश्मे से सामान्य दृष्टि मिल जाती है।

ग्लोकोमा (Glaucoma)

नेत्र-गोलक के वेश्मों में भरे तरल पदार्थो के कारण जब अन्तः नेत्र तनाव (Intra-ocular tension) बढ़ जाता है, तो उस दशा को ग्लोकोमा की संज्ञा प्रदान की जाती है। इस दशा में नेत्र के अग्र कक्ष का तरल निष्कासन नहीं हो पाता है। फलतः दृष्टि तंत्रिका पर दबाव के कारण दृष्टि शनैः शनैः क्षीण हो जाती है। इसका उपचार निम्न प्रकार से किया जाता है- नेत्र-तारे को संकीर्ण करने के लिए तारा संकोचक औषधियाँ (miotic drugs), सिकाई, मूत्रक (diuretics) औषधियाँ। इन औषधियों के प्रयोग से अन्तःनेत्र तनाव कम होता है। इसके अलावा तीव्र ग्लोकोमा की स्थिति में एक अन्तः नेत्र आपरेशन (Trephining) द्वारा एक सूक्ष्म छिद्र बनाया जाता है, जिसका उद्देश्य अग्र कक्ष के तरल को स्थायी निकास प्रदान करना है।

एस एल टी क्या है? – ग्लूकोमा रोग के कारण आँखों की ज्योति भी जा सकती है, परन्तु अब एस एल टी तकनीक, ग्लूकोमा के रोगियों के लिए वरदान बनकर आई है। एस एल टी का पूर्ण अर्थ है – सेलेक्टिव लेसरटेक्यूलोप्लास्टी।

आँख की कार्यक्षमता एक द्रव के निकलने पर निर्भर करती है जिसे चिकित्सीय भाषा में ‘एक्वयस ह्यूमर’ कहते हैं। इस द्रव के निकलने में अस्वाभाविक व्यवधान आने पर ग्लूकोमा रोग हो जाता है। इस द्रव के पर्याप्त मात्रा में न निकलने के कारण नेत्रों पर दबाव बढ़ने लगता है जिससे नेत्रों की तन्त्रिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं तथा आगे चलकर दृष्टिहीनता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

एस एल टी तकनीक के अन्तर्गत आधुनिक लेसर प्रणाली द्वारा आँख की उन विशिष्ट कोशिकाओं को ही लक्ष्य बनाया जाता है, जो आँखों में दबाव को कम करने में सहायता करती हैं। एस एल टी द्वारा ग्लूकोमा का इलाज लगभग 15-20 मिनट में पूरा हो जाता है। इस तकनीक में आँखों की ऊतकों को कोई हानि नहीं पहुँचती है। इलाज की प्रक्रिया शुरु करने से पहले आँख को सुन्न किया जाता है। इसके बाद ‘स्लिट लैम्प माइक्रोस्कोप’ का प्रयोग किया जाता है। पुनः एस एल टी तकनीक से उन कोशिकाओं को लक्ष्य बनाया जाता है, जो आँखों के संजाल में एक्वयस ह्यूमर के बहाव को बन्द कर देती हैं। इस विधि से ऑपरेशन के बाद एक दिन के भीतर ही आँखों पर दबाव कम हो जाता है।

➤ दृष्टि वैषम्य (Astigmatism)

इस रोग में अपवर्तन (refraction) दोषपूर्ण होने के कारण प्रकाश की किरणें रेटिना में एक बिन्दु पर केन्द्रित नहीं हो पाती। कारण यह है कि इस दशा में लैंस की उत्तलता अनियमित होती हैं तथा इसके वक्रों में परिवर्तन आ जाता है। उपचार के लिए रोगी को ऐसे लैंस वाला चश्मा दिया जाता है जो इस वक्र परिवर्तन का पूरक हो तथा इस प्रकार दृष्टि दोष की क्षतिपूर्ति कर सकें।

➤ कॉर्निया रोपण (Corneal Grafting)

विकारग्रस्त तथा अपारदर्शी कॉर्निया के स्थान पर सामान्य कॉर्निया रोपित करना, कॉर्निया रोपण कहलाता है। कॉर्निया हाल ही में निष्कासित अथवा दान किए गए नेत्र से प्राप्त किया जाता है, प्रतिस्थापित कॉर्निया द्वारा रोगी पुनः देखने में समर्थ हो जाता है, आजकल कॉर्निया बैंक (corneal bank) भी स्थापित किए जा चुके हैं।

➤ दृष्टिहीनता (Blindness)

संसार में एक करोड़ से अधिक अंधे व्यक्ति हैं, अनुमान है कि यदि समय पर आधुनिक अंधता निरोधी उपाय तथा औषधियों या सर्जरी द्वारा आवश्यक अन्य चिकित्सा उपलब्ध हो पाती तो उनमें से आधे से अधिक को अंधेपन से बचाया जा सकता था। स्मरणीय है कि भारत में निवार्य अथवा निरोध्य अंधता के मूल्य कारण ट्रेकोमा, चेचक, तथा अन्य संक्रमण, विटामिन A की कमी, कैटेरेक्ट तथा चिरकारी सरल ग्लोकोमा है। संसार के अन्य उष्ण तथा विकासशील देशों में भी अंधता सामान्य है। उपरोक्त के अतिरिक्त इन देशों में कुछ अन्य कारणों से भी अंधता होती है, उदाहरणतः औंकोसकिंएसिस (onchocerciasis), यह रोग मध्य एशिया तथा अफ्रीका में अधिक पाया जाता है। यह डांस अथवा नैट (gnat) नामक कीट द्वारा फैलता है तथा इसे नदी अंधता (river blindness) भी कहते हैं,

अंधता के कुछ अन्य कारण निम्नलिखित हैं- चोट तथा दुर्घटना, उचित बचाव के बिना अत्यधिक प्रकाश के प्रति अनावरण (उदाहरणतः वेल्डिंग करने वाले व्यक्ति, पर्वतारोही), मीथेनोलयुक्त शराब अथवा स्पिरिट का सेवन ।
परावर्तन असामान्यता, अश्रु उपकरण अवरोध तथा अश्रु कोष शोथ के विषय में इस अध्याय में पहले ही लिखा जा चुका है।

लेसिक लेसर के उपयोग

अनेक प्रकार के लेसर किरणों का विकास किया जा चुका है। इनका उपयोग जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हो रहा है और चिकित्सा विज्ञान भी इससे अछूता नहीं है। नेत्रों की चिकित्सा में जिस लेसर का सबसे अधिक उपयोग हो रहा है, उसका नाम है लेसिक लेसर। अभी तक आँखों के तीन दोषों का इलाज चश्मा लगाना ही रहा है। ये तीन विकार हैं- दूर की वस्तु का स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ना (मायोपिया), पास की वस्तु का स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ना (हाइपरमेट्रोपिया) और पास की वस्तु का धुँधला दिखाई पड़ना (एस्टिग्मेटिज्म)।

चश्में के उपयोग से अनेक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। यदि दोनों आँखों के चश्मे भिन्न हैं, तो समस्या उत्पन्न हो सकती है। कांटेक्ट लेंस लगाने से भी कई समस्याएं उत्पन्न होती हैं और आँखों में संक्रमण का खतरा बना रहता है। लेसिक लेसर के उपयोग से इन सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है।

जिह्वा (Tongue)

जिह्वा मुख्यतः स्वाद ज्ञानेन्द्रिय है। इसका अधिकांश भाग पेशियों का बना होता है। जिह्वा की श्लेष्मिक कला स्वस्थ व्यक्ति में अर्द्ध तथा गुलाबी होती है। जिस पर स्वाद-कलिकाएँ (Taste-buds) होती हैं। प्रत्येक स्वाद कालिका में लगभग 50 स्वादग्राही कोशिकाएँ (gustatory receptors) होती है। प्रत्येक स्वादग्राही कोशिका किसी विशेष प्रकार के पदार्थ के प्रति संवेदनशील होती है। ज्ञातव्य है कि स्वाद-संवेदना रासायनिक संवेदना (chemore ception) होती हैं। अतः इसके लिए भोजन कणों का मुख ग्रासनी गुहिका की लार एवं श्लेष्म में घुलना आवश्यक होता है।

जिह्वा के विभिन्न भाग चार विभिन्न प्रकार के स्वादों के प्रति अलग-अलग संवेदनशील होते हैं। यथा-

• जिह्वा के किनारों पर स्थित स्वाद कलिकायें – खट्टेपन

• जिह्वा के आधार पर स्थित स्वाद कलिकायें – कड़वेपन

• जिह्वा के शीर्ष पर स्थित स्वाद कलिकायें – मीठापन

• जिह्वा के पार्श्व तथा शीर्ष पर स्थित स्वाद कलिकायें- नमकीन

जिह्वा का स्वाद संवेदन पाँचवी, सातवीं तथा नवीं कपाल तन्त्रिकाओं द्वारा ग्रहण होता है और इसकी गतियाँ बारहवीं कपाल तन्त्रिका से सम्बन्धित होती हैं।

जिह्वा के रोग

स्वाद संवेदन अत्यन्त कोमल होता है, जुकाम अथवा मुख, आमाशय तथा आन्त्र पथ के विकारों की दशा में स्वाद संवेदन कम हो जाता है।

➤ जिह्वाशोथ (Glossitis)

जिह्वा का शोथ तीव्र अथवा चिरकारी हो सकता है। तीव्र शोथ में जिह्वा के पृष्ठ पर व्रण पाये जाते हैं तथा स्पर्श असह्य होता है, चिरकारी जिह्वा शोथ अन्य चिरकारी दशाओं में हो सकता है, उदाहरणतः चिरकारी अपच (chronic indigestion) तथा संक्रमित दांत। ऐसी दशा में जिह्वा स्थूल तथा फीकी (pale) होती है तथा दांतों – के दबाव के कारण किनारों में गहरे निशान पड़ जाते हैं। सामान्य स्वास्थ्य सुधारने तथा मुख की सफाई में सावधानी रखने पर चिरकारी – जिल्ह्वाशोध समाप्त हो सकता है।

श्वेतशल्कता (Leukoplakia)-इस दशा में जीभ पर सफेद मोटे धब्बे पाए जाते हैं। मुख की श्लेष्मिक कला तथा मसूड़ों पर भी ये पाए जा सकते हैं। यह दशा प्रायः धूम्रपान करने वाले व्यक्तियों में पायी जाती है।

घ्राणेन्द्रियाँ (Olfactory Receptors)

गंध के उद्दीपन को ग्रहण करने वाले अंग को घ्राणेन्द्रियां कहते हैं। नाक की गुहा या नासावेश्म घ्राणेन्द्रि का काम करती है। घ्राण तंत्रिका – घ्राण अन्तांगों को सम्भरित करती है। इस तंत्रिका के तन्तु नासावेश्म की श्लेष्मिक कला के ऊपरी भाग में स्थित होते हैं। नाक का यह भाग घ्राण प्रदेश (Olfactory region) कहलाता है। यहाँ के सूक्ष्म तन्तु घ्घ्राण बल्ब (Olfactory bulb) के तंतुओं से मिले रहते हैं। घ्राण बल्ब से गंघ संवेदना सेरीव्रम के टेम्पोरल पालि में स्थित घ्राण केन्द्र में पहुँचता है, जहाँ पर घ्राण संवेदना ग्रहण किया जाता है।

• घ्राण प्रदेश के श्लेष्मिका कला के नीचे बोमैन ग्रंथि पायी जाती हैं। इनसे स्स्रावित जल-सदृश श्लेष्म हवा के साथ आये गन्धकणों को घुलाता है और तभी घ्राण कोशाएँ गंध से प्रभावित होती है।

• कुछ स्तनियों में गन्ध द्वारा भोजन की पहचान में सहायता हेतु जैकोब्सन अंग (Jacobson organs) पाये जाते हैं।

• कुछ स्तनियों जैसे कुत्ता एवं बिल्ली आदि में मनुष्य की अपेक्षाकृत घ्राणेन्द्रिया काफी विकसित होती हैं।

त्वचा (The Skin)

त्वचा शरीर की सतह का एक सुरक्षात्मक आवरण है तथा यह उन गुहाओं की उपकला के सातत्य में होती हैं जिनके द्वार त्वचा पर खुलते हैं। त्वचा के अनेक कार्य होते हैं। यथा-

• इसमें स्पर्शतन्त्रिका अंतांग (tactile nerve endings) स्थित होते हैं।

• यह शरीर के तापमान के नियंत्रण में सहायक होती है।

• शरीर से निकलने वाली गर्मी का मुख्य भाग त्वचा से ही निकलता है।

• यह शरीर से होने वाली जल हानि को नियंत्रित करती है,

• इसमें उत्सर्जी, स्स्रावी तथा अवशोषी गुण पाये जाते हैं,

• यह सूर्य के प्रकाश में विटामिन D का निर्माण करती है।

त्वचा को दो स्तरों में विभाजित किया गया है- (i) उपत्वचा (Epidermis) (ii) डर्मिस (Dermis)। त्वचा से सम्बन्धित परीक्षोपयोगी तथ्य अधोलिखित हैं। यथा-

• उपत्वचा अर्थात इपीडर्मिस में रक्त वाहिकाएँ नहीं पायी जाती हैं।

• रोम तथा नख (nails) इपीडर्मिस कोशिकाओं के रूपान्तरण से बनाते हैं।

• संवेदी तंत्रिकाओं के तंत्रिका अंतांग स्पर्श पिण्ड (tactile bodies) डर्मिस में स्थित होते हैं।

• स्वेद ग्रंथियाँ डर्मिस में पायी जाती हैं, जिनसे स्वेद या पसीना निकलता है। यह स्त्राव अनुकम्पी तंत्रिकाओं द्वारा नियंत्रित होता है।

• त्वचा में स्थित छोटी कोशाकार (Sebaceous glands) पायी जाती है, जिससे वसामय स्त्राव सीबम (Sebum) स्स्रावित होता है। यह पदार्थ रोमों को मृद, चिकना तथा चमकदार बनाये रखता है।*

• त्वचा के नीचे स्थित वसा ऊतक (एपिडोस ऊतक), शरीर के प्रमुख वसा डिपों हैं।

• त्वचा, बाल तथा नख में केराटिन (Keratins) नामक प्रोटीन पायी जाती है।*

• मनुष्य एवं जन्तुओं की त्वचा कोशिकाओं में 7- डीहाइड्रोकोलेस्ट्रॉल पायी जाती हैं, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों के प्रभाव से कोलोकैल्सीफेरॉल अर्थात विटामिन डी में बदल जाती है।*

• रोम, नख तथा स्वेद ग्रंथियाँ त्वचा के उपांग (appendages) माने जाते हैं।

• पसीने में लाइसोजाइम नामक विषाणु नाशक एन्जाइम पाया जाता है।*

त्वचा के रोग (Skin diseases)

त्वचा का मानसिक गतिविधि से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध होता है कि इसे आवेशों का दर्पण कहा जा सकता है। त्वचा अनेक ऐसे संक्रामण अथवा अन्य रोगों में भी प्रभावित हो सकती हैं जिनमें त्वचा विस्फोट (rashes) उत्पन्न होता है। यथा-

➤ एक्जिमा (Eczema)

यह त्वचा की बहुधा पाई जाने वाली जीर्ण व्याधि हैं। यह पैरों के ऊपरी भाग में या गर्दन के पीछे मिलती है, इसके अतिरिक्त यह शरीर पर अन्य जगहों पर भी हो सकती है। दीर्घकालीन खुजली और धीरे-धीरे त्वचा में स्थायी परिवर्तन जैसे त्वचा को मोटा हो जाना, भूरा पड़ जाना, कभी-कभी मवाद बनाना, कभी पानी जैसा स्त्राव निकलना, कभी दर्द, कभी जलन आदि लक्षण मिलते हैं। आधुनिक दृष्टिकोण से इसे एलर्जिक व्याधि मानकर उपचार किया जाता है। स्टेरॉइड (Steroid) समूह के मलहमों के लगाने से तत्काल आराम मिलता है, किंतु व्याधि बहुधा यथावत् बनी रहती है।

➤ रजत त्वचा (Psoriasis)

सोरिएसिस त्वचा की एक प्रचलित महत्वपूर्ण जीर्ण व्याधि है। इसमें त्वचा की परतों के बीच आपसी संबंध ढीले हो जाने से ऊपरी परते निकलती रहती हैं और कई स्थानों पर लाल-लाल चकत्ते से बनते रहते हैं। चॉदी के वर्क जैसी त्वचा की परतों का निकलना इसका प्रमुख लक्षण है। इस व्याधि के होने में मानसिक तनाव की भी काफी भूमिका होती है एतदर्थ उस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये। यह विशेषकर घुटने व कोहनी के जोड़ों के पास से शुरू होती है। चेहरे कपाल, वक्ष और उदर पर भी यह बहुत फैल सकती है। अधिकांश में यह व्याधि ठंड में अधिक बढ़ती है। इसकी चिकित्सा बहुत दुःसाध्य है।

➤ पित्ती (Urticaria)

स्थानिक पित्ती अर्थात अर्टीकेरिया ऐसे पदार्थों के सम्पर्क में आने से होती हैं जिनमें क्षोभकारी तत्व विद्यमान हों (उदाहरणतः बर्र दंश, ततैया दंश और बिच्छू बूटी से सम्पर्क) अथवा जिनके प्रति कोई व्यक्ति संवेदनशील या एलर्जिक हो (उदाहरणतः सौन्दर्य प्रसाधन तथा कपड़े धोने के कुछ पाउडर)। सार्वदैहिक पित्ती ऐसा भोजन खाने से होती है जिसके प्रति कोई व्यक्ति संवेदनशील हो, ऐसा भोजन बहुधा प्रोटीनयुक्त होता है (यथा अंडा, मछली)। इसमें लगातार लाल चकत्ते, जलन, खुजली आते-जाते रहते हैं और यह समस्या महीनों या वर्षों रह सकती है। इसके चिकित्सा के लिए एन्टी एलर्जिक औषधियों-एविल, सेट्रीजिन आदि दी जाती हैं।

➤ मत्स्य त्वचा (Ichthyosis)

यह एक जन्म-जात त्वचा रोग है जिसमें त्वचा मत्स्य त्वचा का रूप ले लेता है। इसमें त्वचा बहुत रूखी रहती है, उस पर कड़े छिलके से महसूस होते हैं, जो विशेषकर सर्दियों में काफी कष्ट कर होते हैं। इसमें ग्लिसरीन एवं वैसलीन का प्रयोग आरामदायक होता है।

➤ एथलीट फुट (Athlete’s foot)

यह ट्राइकोफाइटोन नामक कवक जनित रोग है, जिसका संक्रमण जमीन से होता है। यह रोग त्वचा के मुलायम हिस्से को प्रवाहित करता है, खासकर अंगुलियों के बीच में।*

➤ हर्पीज (Herpes)

यह त्वचा का वाइरस संक्रमित रोग है, जो दो प्रकार का होता है-हर्पीज जोस्टर एवं हर्पीज जेनीटेलिस।

किसी नस (Nerve) के प्रसार की दिशा में दाने, द्रव युक्त विस्फोट, दाह एवं वेदना आदि लक्षणों से युक्त व्याधि हर्पीज जोस्टर कहलाती है जबकि शिश्न मुण्ड (Glans Penis) पर नन्हें- नन्हें दाने का निकलना हर्पीज़ जेनीटेलिस की संज्ञा से जाना जाता है। उक्त दोनों प्रकार के रोग के लिए चिकित्सा विशेषज्ञ से सलाह आपेक्षित होता है।

• वाइरस जनित त्वचा रोग हैं- खसरा (Measels), छोटी माता (Chicken pox), बडी माता (Small pox) एवं हर्पीज आदि।

• जीवाणु जनित मुख्यः त्वचा रोग हैं- फुंसिया (Boils), कुष्ठ (Leprosy) एवं सिफलिस आदि।

कवक जनित मुख्य त्वचा रोग हैं-

• खाज (Scabies) – यह रोग एकेरस स्केबीज (Acarus scabies) नामक कवक से होता है। इसमें त्वचा में खुजली होती है तथा सफेद दाग पड़ जाते हैं।*

• गंजापन (Baldness) – यह टिनिया केपिटिस (Taenia capitis) नामक कवक से होता है। * इस रोग से सिर के बालों की ग्रंथियाँ कवक द्वारा नष्ट कर दी जाती हैं जिससे सिर के बाल टूटने लगते हैं। अन्त में मनुष्य गंजा हो जाता है।

• दाद (Ringworm) – यह रोग टाइको फाइटान (Trickophyton) नामक कवक से फैलता है। * कवक त्वचा के अन्दर अपना जाल (mycelia) बना लेते हैं जिससे त्वचा पर लाल रंग – के गोले पड़ जाते हैं।

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मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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