मनुष्यता : अध्याय 3

पाठ प्रवेश

प्रकृति के अन्य प्राणियों की तुलना में मनुष्य में चेतना शक्ति की प्रबलता होती ही है। वह अपने ही नहीं औरों के हिताहित का भी खयाल रखने में, औरों के लिए भी कुछ कर सकने में समर्थ होता है। पशु चरागाह में जाते हैं, अपने-अपने हिस्से का चर आते हैं, पर मनुष्य ऐसा नहीं करता। वह जो कमाता है, जो भी कुछ उत्पादित करता है, वह औरों के लिए भी करता है, औरों के सहयोग से करता है।

प्रस्तुत पाठ का कवि अपनों के लिए जीने-मरने वालों को मनुष्य तो मानता है लेकिन यह मानने को तैयार नहीं है कि ऐसे मनुष्यों में मनुष्यता के पूरे-पूरे लक्षण भी है। वह तो उन मनुष्यों को ही महान मानेगा जिनमें अपने और अपनों के हित चिंतन से कहीं पहले और सर्वोपरि दूसरों का हित चिंतन हो। उसमें वे गुण हों जिनके कारण कोई मनुष्य इस मृत्युलोक से गमन कर जाने के बावजूद युगों तक औरों की यादों में भी बना रह पाता है। उसकी मृत्यु भी सुमृत्यु हो जाती है। आखिर क्या है वे गुण?

मनुष्यता

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
                 मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
                मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
                वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
                उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
                तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
                वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
               तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
               सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य के लिए अनादि जीव क्या डरे?
               वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
                वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
                विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?
अहा ! वही उदार है परोपकार जो करे,
                वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
                सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
                दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
                वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव है खड़े,
               समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
              अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न योंकि एक से न काम और का सरे,
              वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

‘मनुष्य मात्र बंधु है’ यही बड़ा विवेक है,
              पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
               परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद है।
अनर्थ है कि बंधु ही न बंधु की व्यथा हरे,
               वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
             विपत्ति,विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
             अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
             वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे ।।

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प्रश्न-अभ्यास

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

1. कवि ने कैसी मृत्यु को सुमृत्यु कहा है?
Ans.
जिस मनुष्य में अपने और अपनों के हित-चिंतन से पहले और सर्वोपरि दूसरों का हित चिंतन होता है और उसमें वे गुण हों, जिनके कारण कोई मनुष्य मृत्युलोक से गमन कर जाने के बावजूद युगों तक दुनिया की यादों में बना रहे, | ऐसे मनुष्य की मृत्यु को ही कवि ने सुमृत्यु कहा है।

2. उदार व्यक्ति की पहचान कैसे हो सकती है?
Ans.
उदार व्यक्ति की पहचान यह है कि वह इस असीम संसार में आत्मीयता का भाव भरता है। सभी प्राणियों के साथ अपनेपन का व्यवहार करता है, नित्य परोपकार के कार्य करता है, जिसके हृदय में दूसरों के प्रति सहानुभूति और करुणा का भाव होता है। उदार व्यक्ति दूसरों की सहायता के लिए अपने तन, मन और धन को किसी भी क्षण त्याग सकता है, जो दूसरों की प्राणरक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहता है। वह जाति, देश, रंग-रूप आदि का भेद किए बिना सभी को अपना मानता है। वह स्वयं हानि उठाकर भी दूसरों का हित करता है। प्रेम, भाईचारा और उदारता ही उसकी पहचान है।

3. कवि ने दधीचि, कर्ण आदि महान व्यक्तियों का उदाहरण देकर ‘मनुष्यता’ के लिए क्या संदेश दिया है?
Ans.
कवि ने दधीचि, कर्ण आदि महान व्यक्तियों का उदाहरण देकर मनुष्यता के लिए यह संदेश दिया है कि प्रत्येक मनुष्य को परोपकार करते हुए अपना सर्वस्व त्यागने से कभी पीछे नहीं हटना चाहिए। इन व्यक्तियों ने दूसरों की भलाई हेतु अपना सर्वस्व दान कर दिया था। दधीचि ने अपनी अस्थियों का तथा कर्ण ने कुंडल और कवच का दान कर दिया था। हमारा शरीर नश्वर है इसलिए इससे मोह को त्याग कर दूसरों के हित-चिंतन में लगा देने में ही इसकी सार्थकता है। यही कवि ने संदेश दिया है।

4. कवि ने किन पंक्तियों में यह व्यक्त किया है कि हमें गर्व-रहित जीवन व्यतीत करना चाहिए?
Ans.
कवि ने दधीचि, कर्ण आदि महान व्यक्तियों का उदाहरण देकर सारी मनुष्यता को त्याग और बलिदान का संदेश दिया है। अपने लिए तो सभी जीते हैं पर जो परोपकार के लिए जीता और मरता है उसका जीवन धन्य हो जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार दधीचि ऋषि ने वृत्रासुर से देवताओं की रक्षा करने के लिए अपनी अस्थियों तक का दान कर दिया। इसी प्रकार कर्ण ने अपने जीवन-रक्षक, कवच-कुंडल को अपने शरीर से अलग करके दान में दिया था। रंतिदेव नामक दानी राजा ने भूख से व्याकुल ब्राह्मण को अपने हिस्से का भोजन दे दिया था। राजा शिवि ने कबूतर के प्राणों की रक्षा हेतु अपने शरीर का मांस काटकर दे दिया। ये कथाएँ हमें परोपकार का संदेश देती हैं। ऐसे महान लोगों के त्याग के कारण ही मनुष्य जाति का कल्याण संभव हो सकता है। कवि के अनुसार मनुष्य को इस नश्वर शरीर के लिए मोह का त्याग कर देना चाहिए। उसे केवल परोपकार करना चाहिए। वास्तव में सच्चा मनुष्य वही होता है, जो दूसरे मनुष्य के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे।

5. ‘मनुष्य मात्र बंधु है’ से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कोजिए।
Ans.
इस कथन का अर्थ है कि संसार के सभी मनुष्य आपस में भाई-भाई हैं इसलिए हमें किसी से भी भेद-भाव नहीं करना | चाहिए। सभी एक ईश्वर की ही संतान हैं। अगर कुछ भेद दिखाई देते भी हैं, तो वे सभी बाहरी भेद हैं और वे भी अपने-अपने कर्मों के अनुसार दिखाई पड़ते हैं। मनुष्य मात्र बंधु हैं इसलिए ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का नारा बुलंद किया जाता है। प्रत्येक मनुष्य को हर निर्बल मनुष्य की पीड़ा दूर करने का प्रयास करना चाहिए। सभी आपस में भाई-चारे की भावना से रहें तथा सभी में प्रेम एवं एकता का संचार हो।

6. कवि ने सबको एक होकर चलने की प्रेरणा क्यों दी है?
Ans.
कवि ने सबको एक होकर चलने की प्रेरणा इसलिए दी है क्योंकि इससे आपसी मेल-भाव बढ़ता है तथा हमारे सभी काम सफल हो जाते हैं। यदि हम सभी एक होकर चलेंगे तो जीवन मार्ग में आने वाली हर विघ्न-बाधा पर विजय पा लेंगे। जब सबके द्वारा एक साथ प्रयास किया जाता है तो वह सार्थक सिद्ध होता है। सबके हित में ही हर एक का हित निहित होता है। आपस में एक-दूसरे का सहारा बनकर आगे बढ़ने से प्रेम व सहानुभूति के संबंध बनते हैं तथा परस्पर शत्रुता एवं भिन्नता दूर होती है। इससे मनुष्यता को बल मिलता है। कवि के अनुसार यदि हम एक-दूसरे का साथ देंगे तो, हम प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकेंगे।

7. व्यक्ति को किस प्रकार का जीवन व्यतीत करना चाहिए? इस कविता के आधार पर लिखिए।
Ans.
व्यक्ति को सदा दूसरों की भलाई करते हुए, मनुष्य मात्र को बंधु मानते हुए तथा दूसरों के हित-चिंतन के लिए अपना सर्वस्व त्यागकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसे अपने अभीष्ट मार्ग की ओर निरंतर सहर्ष बढ़ते रहना चाहिए।

8. ‘मनुष्यता’ कविता के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहता है?
Ans.
मानव जीवन एक विशिष्ट जीवन है क्योंकि मनुष्य के मन में प्रेम, त्याग, बलिदान, परोपकार का भाव होता है। अपने से पहले दूसरों की चिंता करते हुए अपनी शक्ति, अपनी बुधि और अपनी वैचारिक शक्ति का सदुपयोग करना मानव का कर्तव्य है। प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि मानवीय एकता, सहानुभूति, सद्भाव, उदारता और करुणा का संदेश देना चाहता है। वह चाहता है कि मनुष्य समस्त संसार में अपनत्व की अनुभूति करे। वह दीन-दुखियों, जरूरतमंदों के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए तैयार रहे। वह पौराणिक कथाओं के माध्यम से विभिन्न महापुरुषों जैसे दधीचि, कर्ण, रंतिदेव के अतुलनीय त्याग से प्रेरणा ले। ऐसे सत्कर्म करे जिससे मृत्यु उपरांत भी लोग उसे याद करें। उसका यश रूपी शरीर सदैव जीवित रहे। निःस्वार्थ भाव से जीवन जीना, दूसरों के काम आना व स्वयं ऊँचा उठने के साथ-साथ दूसरों को भी ऊँचा उठाना ही मनुष्यता’ का वास्तविक अर्थ है।

(ख) निम्नलिखित का भाव स्पष्ट कीजिए-

1. सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
   वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
   विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
   विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा?

Ans. इन पंक्तियों का भाव है कि प्रत्येक मनुष्य को प्रत्येक मनुष्य के जीवन में समय-असमय आने वाले हर दुख-दर्द में सहानुभूति होनी चाहिए, क्योंकि एक-दूसरे के दुख-दर्द का बोझ सहानुभूति की प्रवृत्ति होने से कम हो जाता है। वास्तव में सहानुभूति दर्शाने का गुण महान पूँजी है। पृथ्वी भी सदा से अपनी सहानुभूति तथा दया के कारण वशीकृता । बनी हुई है। भगवान बुद्ध ने भी करुणावश उस समय की पारंपरिक मान्यताओं का विरोध किया। विनम्र होकर ही किसी को झुकाया जा सकता है। उदाहरणार्थ-फलदार पेड़ तथा संत-महात्मा हमेशा अपनी विनम्रता से ही मनुष्य जाति का उपकार करते हैं।

2. रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में,
   सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
  अनाथ कौन है यहाँ? त्रिलोकनाथ साथ है,
  दयालु दीनबंधु के बड़े विशाल हाथ है।

Ans. कवि के अनुसार समृद्धशाली होने पर भी कभी अहंकार नहीं करना चाहिए। यहाँ कोई भी अनाथ नहीं है क्योंकि ईश्वर ही परमपिता है। धन और परिजनों से घिरा हुआ मनुष्य स्वयं को सनाथ अनुभव करता है। इसका परिणाम यह होता है कि वह स्वयं को सुरक्षित समझने लगता है। इस कारण वह अभिमानी हो जाता है। कवि कहता है कि सच्चा मनुष्य वही है जो संपूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए मरता और जीता है। वह आवश्यकता पड़ने पर दूसरों के लिए अपना शरीर भी बलिदान कर देता है। भगवान सारी सृष्टि के नाथ हैं, संरक्षक हैं, उनकी शक्ति अपरंपार है। वे अपने अपार साधनों से सबकी रक्षा और पालन करने में समर्थ हैं। वह प्राणी भाग्यहीन है जो मन में अधीर, अशांत, असंतुष्ट और अतृप्त रहता है और अधिक पाने की ललक में मारा-मारा फिरता है। अतः व्यक्ति को समृद्धि में कभी अहंकार नहीं करना चाहिए।

3. चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
   विपत्ति, विघ्न जो पढ़ें उन्हें ढकेलते हुए।
   घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
   अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

Ans. इन पंक्तियों का अर्थ है कि मनुष्य को अपने निर्धारित उद्देश्य रूपी मार्ग पर प्रसन्नतापूर्वक विघ्न-बाधाओं से जूझते हुए आगे बढ़ते रहना चाहिए। इस मार्ग पर चलते हुए परस्पर भाई-चारे की भावना उत्पन्न करो, जिससे आपसी भेद-भाव दूर हो जाए। इसके अतिरिक्त बिना किसी तर्क के सतर्क होकर इस मार्ग पर चलना चाहिए।

1. अपने अध्यापक की सहायता से रंतिदेव, दधीचि, कर्ण आदि पौराणिक पात्रों के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिए।
Ans.

रंतिदेव- भारत के प्रसिद्ध राजा थे। एक बार भीषण अकाल पड़ गया। उस अकाल से तालाब और कुएँ सूख गए। फ़सलें सूख गईं। राजकोष में अनाज का भंडार समाप्त हो गया। दयालु राजा रतिदेव से अपनी प्रजा का दुख देखा न गया। आखिर प्रजा के सुख-दुख को वे अपना दुख जो समझते थे। उन्होंने प्रजा को अनाज देना शुरू कर दिया। प्रजा की भारी भरकम संख्या के आगे अनाज कम पड़ने लगा, जो बाद में समाप्त हो गया। राज-परिवार को भी अब अकाल के कारण आधा पेट खाकर गुजारा करना पड़ रहा था। ऐसी स्थिति आ गई कि राजा को भी कई दिनों से भोजन न मिला था। ऐसी स्थिति में जब राजा को कई दिनों बाद खाने को कुछ रोटियाँ मिलीं तभी एक भूखा व्यक्ति दरवाजे पर आ गया। राजा से उसकी भूख न देखी गई और उसे खिला दिया। ऐसी मान्यता है कि उनके कृत्य से प्रभावित होकर ईश्वर ने उनका भंडार अन्न-धन से भर दिया।

दधीचि इनकी गणना भारत के परमदानी एवं ज्ञानी ऋषियों में की जाती है। दधीचि अत्यंत परोपकारी थे। वे तप में लीन रहते थे। उन्हीं दिनों देवराज इंद्र उनके पास आए। साधना पूर्ण होते ही दधीचि ने इंद्र से आने का कारण पूछा। इंद्र ने बताया कि ऋषिवर! आप तो जानते ही हैं कि देवता और दानवों में युद्ध छिड़ा हुआ है। इस युद्ध में दानव, देवों पर भारी साबित हो रहे हैं। देवगण हारने की कगार पर हैं। यदि कुछ उपाय न किया गया तो स्वर्गलोक के अलावा पृथ्वी पर भी दानवों का कब्जा हो जाएगा। ऋषि ने कहा, “देवराज इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? मैं तो लोगों की भलाई की कामना लिए हुए तप ही कर सकता हूँ।” इंद्र ने कहा, “मुनिवर, यदि आप अपनी हड्डियाँ दे दो तो इनसे बज्र बनाकर असुरराज वृत्तासुर को पराजित किया जा सकेगा और देवगण युद्ध जीत सकेंगे। इंद्र की बातें सुनकर दधीचि ने साँस ऊपर खींची जिससे उनका शरीर निर्जीव हो गया। उनकी हड्डियों से बने वज्र से असुर मारे गए और देवताओं की विजय हुई। अपने इस अद्भुत त्याग से दधीचि का नाम अमर हो गया।

कर्ण यह अत्यंत पराक्रमी, वीर और दानी राजकुमार था। वह कुंती का पुत्र और अर्जुन का भाई था जो सूर्य के वरदान से पैदा हुआ था। सूर्य ने उसकी रक्षा हेतु जन्मजात कवच-कुंडल प्रदान किया था जिसके कारण उसे मारना या हराना कठिन था। कर्ण इतना दानी था कि द्वार पर आए किसी व्यक्ति को खाली हाथ नहीं लौटने देता था। महाभारत युद्ध में कर्ण ने दुर्योधन का साथ दिया। कर्ण को पराजित करने के लिए कृष्ण और इंद्र ने ब्राह्मण का रूप धारण कर उससे कवच और कुंडल माँगा। कर्ण समझ गया कि यह उसे मारने के लिए रची गई एक चाल है फिर भी उसने कवच-कुंडल दान दे दिया और अपनी मृत्यु की परवाह किए बिना अपना वचन निभाया।

2. ‘परोपकार’ विषय पर आधारित दो कविताओं और दो दोहों का संकलन कीजिए। उन्हें कक्षा में सुनाइए।
Ans.
‘परोपकार’ विषय पर आधारित कविताएँ और दोहे-

कविता औरों को हसते देखो मनु, हँसो और सुख पाओ।
अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ।
छात्र पुस्तकालय से ‘कामायनी’ लेकर कविता पढ़ें। (जयशंकर प्रसाद कृत ‘कामायनी’ से)

दोहे यों रहीम सुख होत है, उपकारी के संग ।
बाँटन वारे को लगै, ज्यो मेहदी को रंग ।।
तरुवर फल नहिं खात है, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।

1. अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की कविता ‘कर्मवीर’ तथा अन्य कविताओं को पढ़िए तथा कक्षा में सुनाइए।
Ans.

देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं।
रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं।
काम कितना ही कठिन हो किंतु उकताते नहीं।
भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं।
हो गए इक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले।
आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही।
सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही।
हो गए इक आन में उनके बुरे दिन भी भले।
सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले-फले ।।
(‘अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध”)

2. भवानी प्रसाद मिश्र की ‘प्राणी वही प्राणी है’ कविता पढ़िए तथा दोनों कविताओं के भावों में व्यक्त हुई समानता को लिखिए।
Ans.
भवानी प्रसाद मिश्र की कविता ‘प्राणी वही प्राणी है’ छात्र पुस्तकालय से या इंटरनेट से प्राप्त करें और दोनों कविताओं के भावों की तुलना स्वयं करें।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

1. ‘विचार लो कि मर्त्य हो’ कवि ने ऐसा क्यों कहा है? इसे सुमृत्यु कैसे बनाया जा सकता है?

Ans. कवि ने मनुष्य से मर्त्य होने की बात इसलिए कही है क्योंकि-

  • मानव शरीर नश्वर है। इस संसार में जिसका भी जन्म हुआ उसे एक न एक दिन अवश्य मरना है।
  • मनुष्य चाहकर भी अपनी मृत्यु को नहीं टाल सकता है।

मनुष्य अच्छे-अच्छे कर्म करके और दूसरों के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए परोपकार करके अपनी मृत्यु को सुमृत्यु बना सकता है।

2. कवि किसके जीने और मरने को एक समान बताता है?

Ans. इस नश्वर संसार में हजारों-लाखों लोग प्रतिदिन मरते हैं। इनकी मृत्यु को लोग थोडे ही दिन बाद भूल जाते हैं। ये लोग अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ही जीते हैं। उन्हें दूसरों के दुख-पीड़ा से कुछ लेना-देना नहीं होता है। दूसरों के बारे में न सोचने के कारण ऐसे लोगों की मृत्यु से कुछ लेना-देना नहीं होता है। आत्मकेंद्रित होकर अपनी स्वार्थ हित-साधना में लगे रहने वालों के जीने और मरने को एक समान बताया है।

3. “अखंड आत्मभाव भरने’ के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?

Ans. अखंड आत्मभाव भरने के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि लोग एक-दूसरे से वैमनस्य, ईष्र्या, द्वेष आदि भाव न रखें और सारी दुनिया के लोगों के साथ एकता अखंडता बनाए रखने हेतु सभी को अपना भाई मानें। प्रायः लोग जाति-धर्म, भाषा क्षेत्रवाद, संप्रदाय आदि की संकीर्णता में फँसकर मनुष्य को भाई समझना तो दूर मनुष्य भी नहीं समझते हैं। कवि इसी संकीर्णता का त्याग करने और सभी के साथ आत्मीयता बनाने की बात कर रहा है।

4. मनुष्य किसी अन्य को अनाथ समझने की भूल कब कर बैठता है?

Ans. यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि धन आते ही उसके मन में घमंड का भाव आ जाता है। वह अहंकार पूर्ण बातें और आचरण करने लगता है। धन देखकर कुछ लोग उसकी चाटुकारिता करने लगते हैं। ऐसे में वह धनवान व्यक्ति खुद को बलशाली समझने लगता है। धन और बल का मेल होते ही वह अनैतिक आचरण पर उतर आता है। वह दूसरों को अपने से कमजोर और अनाथ समझने लगता है।

5. हमें किसी को अनाथ क्यों नहीं समझना चाहिए?

Ans. हमें किसी को इसलिए अनाथ नहीं समझना चाहिए क्योंकि जिस ईश्वर से शक्ति और बल पाकर हम स्वयं को सनाथ समझते हुए दूसरों को अनाथ समझते हैं वही ईश्वर दूसरों की मदद के लिए भी तैयार रहता है। उसके लंबे हाथ मदद के लिए सदैव आगे बढ़े रहते हैं। वह अपनी अपार शक्ति से सदा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहता है, इसलिए हमें दूसरों को अनाथ नहीं समझना चाहिए।

6. उशीनर कौन थे? उनके परोपकार का वर्णन कीजिए।

Ans. उशीनर गांधार के राजा थे। उन्हें शिवि के नाम से भी जाना जाता है। एक बार जब वे बैठे थे तभी एक कबूतर बाज से भयभीत होकर शिवि की गोद में आ दुबका। इसी बीच बाज शिवि के पास आकर अपना शिकार वापस माँगने लगा। जब राजा ने कबूतर को वापस देने से मना किया तो उसने राजा से कबूतर के वजन के बराबर माँस माँगा। राजा ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। एक कबूतर पर दया करने के कारण राजा प्रसिद्ध हो गए।

7. कवि ने महाविभूति किसे कहा है और क्यों?

Ans. कवि ने मनुष्य की सहनशीलता को महाविभूति कहा है। इसका कारण यह है कि सहानुभूति के कारण मनुष्य दूसरों के दुख की अनुभूति करता है और उसे परोपकार करने की प्रेरणा मिलती है। यदि मनुष्य के भीतर सहानुभूति न हो तो कोई व्यक्ति चाहे सुखी रहे या दुखी वह उदासीन रहेगा और वह परोपकार करने की सोच भी नहीं सकता है।

8. अपने लिए जीने वाला कभी मरता नहीं’ कवि ने ऐसा क्यों कहा है?

Ans. ‘अपने लिए जीने वाला कभी नहीं मरता’ कवि ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि जो व्यक्ति परोपकार करते हैं, दूसरों की भलाई में लगे रहते हैं तथा अपने-पराए का भेद किए बिना दूसरों के काम आते हैं, ऐसे व्यक्ति अपने कार्यों के माध्यम से अमर हो जाते हैं। ऐसे लोग मरकर भी दूसरों की चर्चा में रहते हैं। ऐसा लगता है कि वे अब भी जीवित हैं।

9. कवि ने सफलता पाने के लिए मनुष्य को किस तरह प्रयास करने के लिए कहा है?

Ans. कवि ने सफलता पाने के लिए मनुष्य को प्रोत्साहित करते हुए कहा है कि मनुष्य तुम अपने लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाओ। तुम्हारी सहायता के लिए अनेक देवता रूपी मनुष्य खड़े हैं। इसके अलावा तुम परस्पर एक-दूसरे की मदद करते हुए उठो और सभी को साथ लेकर बढ़ते चलो। इससे कोई मंजिल यो लक्ष्य प्राप्त करना कठिन नहीं रह जाएगा।

10. ‘रहो न यों कि एक से न काम और का सरे’ के माध्यम से कवि क्या सीख देना चाहता है?

Ans. रहो न यों कि एक से न काम और का सरे’ के माध्यम से कवि मनुष्य को यह सीख देना चाहता है कि हे मनुष्य! तुम इस तरह से स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बन मत जियो कि दूसरों के सुख-दुख से कोई लेना-देना ही न रह जाए और तुम संवेदनहीनता की पराकाष्ठा छू लो। कवि चाहता है कि मनुष्य को एक-दूसरे को सहारा देना चाहिए, मदद करनी चाहिए ताकि उसका रुका काम भी बन जाए। वह चाहता है कि सभी परोपकारी बन जाएँ।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

1. ‘मनुष्यता’ कविता में कवि ने मनुष्य के किस कृत्य को अनर्थ कहा है और क्यों ?

Ans. ‘मनुष्यता’ कविता में कवि ने मनुष्य को यह बताने का प्रयास किया है कि सभी मनुष्य आपस में ई ई हैं। इस सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि सबको जन्म देने वाला ईश्वर एक है। पुराणों में भी इस बात के प्रमाण हैं कि सृष्टि का रचनाकार वही एक है। वह सारे जगत का अजन्मा पिता है। फिर मनुष्य-मनुष्य में थोड़ा-बहुत जो भेद है। वह उसके अपने कर्मों के कारण है परंतु एक ही ईश्वर या आत्मा का अंश उनमें समाए होने के कारण सभी एक हैं। इतना जानने के बाद भी कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य की अर्थात् अपने भाई की मदद न करे और उसकी व्यथा दूर न करे तो वह सबसे बड़े अनर्थ हैं। इसका कारण यह है कि ऐसा न करके मनुष्य अपनी मनुष्यता को कलंकित करता है।

2. ‘मनुष्यता’ कविता की वर्तमान में प्रासंगिकता स्पष्ट कीजिए।

Ans. मनुष्यता कविता हमें सच्चा मनुष्य बनने की राह दिखाती है। मनुष्य को इस कविता द्वारा सभी मनुष्यों के अपना भाई मानने, उनकी भलाई करने और एकता बनाकर रखने की सीख दी गई है। कविता के अनुसार सच्चा मनुष्य वही है जो सभी को अपना समझते हुए दूसरों की भलाई के लिए ही जीता और मरता है। वह दूसरों के साथ उदारता से रहता है और मानवीय एकता को दृढ़ करने के लिए प्रयासरत रहता है। वह खुद उन्नति के पथ पर चलकर दूसरों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। वर्तमान में इस कविता की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है क्योंकि आज दुनिया में स्वार्थवृत्ति, अहंकार, लोभ, ईर्ष्या, छल-कपट आदि बढ़ रहा है जिससे मनुष्य-मनुष्य में दूरी बढ़ रही है।

3. ‘मनुष्यता’ कविता में वर्णित उशीनर, दधीचि और कर्ण के उन कार्यों का उल्लेख कीजिए जिससे वे मनुष्य को मनुष्यता की राह दिखा गए।

Ans. ‘मनुष्यता’ कविता में वर्णित उशीनर, दधीचि और कर्ण द्वारा किए गए कार्य इस प्रकार हैं-
उशीनर – इन्हें राजा शिवि के नाम से भी जाना जाता है। राजा उशीनर ने अपनी शरण में आए एक कबूतर की रक्षा के लिए अपने शरीर से उसके वजन के बराबर माँस बाज को दे दिया। इस तरह दयालुता का अनुकरणीय कार्य किया।

दधीचि – महर्षि दधीचि ने दानवों को पराजित करने के लिए अपने शरीर की हड्डयाँ दान दे दीं जिनसे बज्र बनाकर दानवों को युद्ध में हराया गया और मानवता की रक्षा की गई।

कर्ण – कर्ण अत्यंत दानी वीर एवं साहसी योद्धा था। उसने ब्राह्मण वेशधारी श्रीकृष्ण और इंद्र को अपना कवच-कुंडल दान दे दिया। यह दान बाद में उसके लिए जानलेवा सिद्ध हुआ।
इस प्रकार उक्त महापुरुषों ने अनूठे कार्य करके मानवता की रक्षा की और त्याग एवं परोपकार करके मनुष्य को मनुष्यता की राह दिखाई।

मैथिलीशरण गुप्त (1886-1964)

1886 में झाँसी के करीब चिरगाँव में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त अपने जीवनकाल में ही राष्ट्रकवि के रूप में विख्यात हुए। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। संस्कृत, बांग्ला, मराठी और अंग्रेज़ी पर इनका समान अधिकार था।

गुप्त जी रामभक्त कवि हैं। राम का कीर्तिगान इनकी चिरसंचित अभिलाषा रही। इन्होंने भारतीय जीवन को समग्रता में समझने और प्रस्तुत करने का भी प्रयास किया।

गुप्त जी की कविता की भाषा विशुद्ध खड़ी बोली है। भाषा पर संस्कृत का प्रभाव है। काव्य की कथावस्तु भारतीय इतिहास के ऐसे अंशों से ली गई है जो भारत के अतीत का स्वर्ण चित्र पाठक के सामने उपस्थित करते हैं।

गुप्त जी की प्रमुख कृतियाँ है-साकेत, यशोधरा, जयद्रथ वध।

गुप्त जी के पिता सेठ रामचरण दास भी कवि थे और इनके छोटे भाई सियारामशरण गुप्त भी प्रसिद्ध कवि हुए।

शब्दार्थ और टिप्पणियाँ

मर्त्य – मरणशील

पशु-प्रवृत्ति  – पशु जैसा स्वभाव

उदार – दानशील / सहृदय

कृतार्थ – आभारी / धन्य

कीर्ति – यश

कूजती –  मधुर ध्वनि करती

क्षुधार्त – भूख से व्याकुल

रंतिदेव – एक परम दानी राजा

करस्थ – हाथ में पकड़ा हुआ / लिया हुआ

दधीचि – एक प्रसिद्ध ऋषि जिनकी हत्रियों से इंद्र को वज्र बना था

परार्थ – जो दूसरों के लिए हो

अस्थिजाल – हड्डियों का समूह

उशीनर – गंधार देश का राजा

क्षितीश – राजा

स्वमांस – अपने शरीर का मांस

कर्ण – दान देने के लिए प्रसिद्ध कुंती पुत्र

महाविभूति – बड़ी भारी पूँजी

वशीकृता – वश में की हुई

मदांध – जो गर्व से अंधा हो

वित्त – धन-संपत्ति

परस्परावलंब – एक-दूसरे का सहारा

आम्तर्य-अंक   – देवता की गोद

अपंक – कलंक -रहित

स्वयंभू – परमात्मा / स्वयं उत्पन्न होने वाला

अंतरैक्य – आत्मा की एकता / अंत:करण की एकता

प्रमाणभूत – साक्षी

अभीष्ट – इच्छित

अतर्क – तर्क से परे

सतर्क पंथ – सावधान यात्री

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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