न्यायपालिका : अध्याय 4

अखबार पर नज़र डालते ही आपको देश भर की अदालतों द्वारा किए जा रहे कामों की झलक मिलने लगती है। लेकिन क्या आप बता सकते हैं कि हमें इन अदालतों की जरूरत क्यों पड़ती है? जैसा कि आप इकाई 2 में पढ़ चुके हैं, हमारे देश में कानून का शासन चलता है। इसका मतलब यह है कि सभी कानून सभी लोगों पर समान रूप से लागू होते हैं और जब किसी कानून का उल्लंघन किया जाता है तो एक निश्चित प्रक्रिया अपनाई जाती है। कानून के शासन को लागू करने के लिए हमारे पास एक न्याय व्यवस्था है। इस व्यवस्था में बहुत सारी अदालतें हैं जहाँ नागरिक न्याय के लिए जा सकते हैं। सरकार का अंग होने के नाते न्यायपालिका भी भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है। यह इस भूमिका को केवल इसलिए निभा पाती है क्योंकि यह स्वतंत्र है। ‘स्वतंत्र न्यायपालिका’ का क्या मतलब होता है? क्या आपके आसपास की अदालत और नई दिल्ली में स्थित सर्वोच्च न्यायालय के बीच कोई संबंध है? इस अध्याय में आपको इन सवालों के जवाब मिलेंगे।

न्यायपालिका की क्या भूमिका है?

अदालतें बहुत सारे मुद्दों पर फ़ैसले सुनाती हैं। वे यह तय कर सकती हैं कि शिक्षकों को विद्यार्थियों की पिटाई नहीं करनी चाहिए; वे राज्यों के बीच नदियों के पानी के बँटवारे पर फ़ैसला दे सकती हैं; वे किसी अपराध के लिए लोगों को सजा दे सकती हैं। न्यायपालिका के कामों को मोटे तौर पर निम्नलिखित भागों में बाँटा जा सकता है-

विवादों का निपटारा न्यायिक व्यवस्था नागरिकों, नागरिक व सरकार, दो राज्य सरकारों और केंद्र व राज्य सरकारों के बीच पैदा होने वाले विवादों को हल करने की क्रियाविधि मुहैया कराती है।

न्यायिक समीक्षा- संविधान की व्याख्या का अधिकार मुख्य रूप से न्यायपालिका के पास ही होता है। इस नाते यदि न्यायपालिका को ऐसा लगता है कि संसद द्वारा पारित किया गया कोई कानून संविधान के आधारभूत ढाँचे का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून को रद्द कर सकती है। इसे न्यायिक समीक्षा कहा जाता है।

कानून की रक्षा और मौलिक अधिकारों का क्रियान्वयन- अगर देश के किसी भी नागरिक को ऐसा लगता है कि उसके अधिकारों का उल्लंघन हुआ है तो वह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में जा सकता है।

इसकी स्थापना 26 जनवरी 1950 को की गई थी। उसी दिन हमारा देश गणतंत्र बना था। अपने पूर्ववर्ती फेडरल कोर्ट ऑफ़ इंडिया (1937-49) की भाँति यह न्यायालय भी पहले संसद भवन के भीतर चेंबर ऑफ प्रिंसेज में हुआ करता था। इसे 1958 में इस इमारत में स्थानांतरित किया गया।

स्वतंत्र न्यायपालिका क्या होती है?

कल्पना कीजिए कि एक ताकतवर नेता ने आपके परिवार की जमीन पर कब्जा कर लिया है। आप एक ऐसी व्यवस्था में रहते हैं जहाँ नेता किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटा सकते हैं या उसका तबादला कर सकते हैं। जब आप इस मामले को अदालत में ले जाते हैं तो न्यायाधीश भी नेता की हिमायत करता दिखाई देता है।

नेताओं का न्यायाधीश पर जो नियंत्रण रहता है उसकी वजह से न्यायाधीश स्वतंत्र रूप से फ़ैसले नहीं ले पाते। स्वतंत्रता का यह अभाव न्यायाधीश को इस बात के लिए मजबूर कर देगा कि वह हमेशा नेता के ही पक्ष में फैसला सुनाए। हम ऐसे बहुत सारे किस्से जानते हैं जहाँ अमीर और ताकतवर लोगों ने न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयास किया है। लेकिन भारतीय संविधान इस तरह की दखलअंदाजी को स्वीकार नहीं करता। इसीलिए हमारे संविधान में न्यायपालिका को पूरी तरह स्वतंत्र रखा गया है।

इस स्वतंत्रता का एक पहलू है ‘शक्तियों का बँटवारा’। जैसा कि आपने पहले अध्याय में पढ़ा था, यह हमारे संविधान का एक बुनियादी पहलू है। इसका मतलब यह है कि विधायिका और कार्यपालिका जैसी सरकार की अन्य शाखाएँ न्यायपालिका के काम में दखल नहीं दे सकतीं। अदालतें सरकार के अधीन नहीं हैं। न ही वे सरकार की ओर से काम करती हैं।

शक्तियों के इस बँटवारे को दुरुस्त रखने के लिए यह भी महत्त्वपूर्ण है कि उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार की अन्य शाखाओं का कोई दखल न हो। इसीलिए एक बार नियुक्त हो जाने के बाद किसी न्यायाधीश को हटाना बहुत मुश्किल होता है।

न्यायपालिका की यह स्वतंत्रता अदालतों को भारी ताकत देती है। इसके आधार पर वे विधायिका और कार्यपालिका द्वारा शक्तियों के दुरुपयोग को रोक सकती हैं। न्यायपालिका देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा में भी अहम भूमिका निभाती है क्योंकि अगर किसी को लगता है कि उसके अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो वह अदालत में जा सकता है।

भारत में अदालतों की संरचना कैसी है?

हमारे देश में तीन अलग-अलग स्तर पर अदालतें होती हैं। निचले स्तर पर बहुत सारी अदालतें होती हैं। सबसे ऊपरी स्तर पर केवल एक अदालत है। जिन अदालतों से लोगों का सबसे ज़्यादा ताल्लुक होता है, उन्हें अधीनस्थ न्यायालय या जिला अदालत कहा जाता है। ये अदालतें आमतौर पर जिले या तहसील के स्तर पर या किसी शहर में होती हैं। ये बहुत तरह के मामलों की सुनवाई करती हैं। प्रत्येक राज्य जिलों में बँटा होता है और हर जिले में एक जिला न्यायधीश होता है। प्रत्येक राज्य का एक उच्च न्यायालय होता है। यह अपने राज्य की सबसे ऊँची अदालत होती है। उच्च न्यायालयों से ऊपर सर्वोच्च न्यायालय होता है। यह देश की सबसे बड़ी अदालत है जो नयी दिल्ली में स्थित है। देश के मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के मुखिया होते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले देश के बाकी सारी अदालतों को मानने होते हैं।

निचली अदालत से ऊपरी अदालत तक हमारी न्यायपालिका की संरचना एक पिरामिड जैसी लगती है। ऊपर दिए गए विवरण को पढ़ने के बाद नीचे दिए गए चित्र को भरें।

उच्च न्यायालयों की स्थापना सबसे पहले 1862 में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में की गई ये तीनों प्रेसिडेंसी शहर थे। दिल्ली उच्च न्यायालय का गठन 1966 में हुआ। आज देश भर में 25 उच्च न्यायालय हैं। बहुत सारे राज्यों के अपने उच्च न्यायालय हैं जबकि पंजाब और हरियाणा का एक साझा उच्च न्यायालय चंडीगढ़ में है। दूसरी तरफ चार पूर्वोत्तर राज्यों असम, नागालैंड, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के लिए गुवाहाटी में एक ही उच्च न्यायालय रखा गया है। 1 जनवरी 2019 से आंध्र प्रदेश (अमरावती) और तेलंगाणा (हैदराबाद) में अलग-अलग उच्च न्यायालय हैं। ज्यादा से ज्यादा लोगों के नज़दीक पहुँचने के लिए कुछ उच्च न्यायालयों की राज्य के अन्य हिस्सों में खण्डपीठ (बेंच) भी है।

क्या विभिन्न स्तरों की ये अदालतें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं? जी हाँ। भारत में हमारे पास एकीकृत न्यायिक व्यवस्था है। इसका मतलब यह है कि ऊपरी अदालतों के फ़ैसले नीचे की सारी अदालतों को मानने होते हैं। इस एकीकरण को समझने के लिए अपील की व्यवस्था को देखा जा सकता है। अगर किसी व्यक्ति को ऐसा लगता है कि निचली अदालत द्वारा दिया गया फ़ैसला सही नहीं है, तो वह उससे ऊपर की अदालत में अपील कर सकता है।

अपील की व्यवस्था को समझने के लिए आइए एक मुकदमे पर विचार करें। यह राज्य (दिल्ली प्रशासन) बनाम लक्ष्मण कुमार एवं अन्य का मुकदमा है जो निचली अदालत से सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ा गया।

1980 के फ़रवरी महीने में लक्ष्मण कुमार ने 20 वर्षीया सुधा गोयल से विवाह किया था। वे दिल्ली में एक फ्लैट में रहते थे जहाँ लक्ष्मण के भाई और उनके परिवार भी रह रहे थे। 2 दिसंबर 1980 को सुधा की अस्पताल में मौत हो गईं वह जली हुई थी। सुधा के घरवालों ने अदालत में मुकदमा दायर किया। जब निचली अदालत के सामने यह मुकदमा आया तो चार पड़ोसियों को भी गवाह के तौर पर बुलाया गया था। पड़ोसियों ने अपने बयान में कहा कि 1 दिसंबर की रात को उन्होंने सुधा की चीख सुनी थी और मामला जानने के लिए वे बलपूर्वक लक्ष्मण के घर में घुसे। वहाँ उन्होंने देखा कि सुधा की साड़ी से आग की लपटें उठ रही थीं। उन्होंने सुधा को एक बोरे और कम्बल में लपेटकर आग बुझाईं सुधा ने उन्हें बताया कि उसकी सास शंकुतला ने उसके ऊपर मिट्टी का तेल डाला था और लक्ष्मण कुमार ने आग लगाई थी। मुकदमे के दौरान सुधा के परिवार वालों और एक पड़ोसी ने कहा कि सुधा के ससुराल वाले उसके साथ बहुत ज्यादा मारपीट करते थे। उनकी माँग थी कि पहले बच्चे के पैदा होने पर उन्हें एक बड़ी रकम, एक स्कूटर और एक फ्रिज दिया जाए। अपने बचाव में लक्ष्मण और उसकी माँ ने कहा कि सुधा दूध गरम कर रही थी कि तभी उसकी साड़ी में आग लग गईं इन सभी बयानों और साक्ष्यों के आधार पर निचली अदालत ने लक्ष्मण, उसकी माँ शकुंतला और सुधा के जेठ सुभाष चन्द्र को दोषी करार दिया और तीनों को मौत की सज्जा सुनाई।

1983 के नवंबर महीने में तीनों आरोपियों ने इस फ़ैसले के खिलाफ़ उच्च न्यायालय में अपील दायर कर दी। दोनों तरफ़ के वकीलों के तर्क सुनने के बाद उच्च न्यायालय ने फ़ैसला लिया कि सुधा की मौत एक दुर्घटना थी। वह मिट्टी के तेल से जलने वाले स्टोव से जली थी। अदालत ने लक्ष्मण, शकुंतला और सुभाष चन्द्र, तीनों को बरी कर दिया।

शायद आपको कक्षा 7 की किताब में महिला आंदोलन पर केंद्रित चित्र-निबंध याद होगा। उसमें आपने पढ़ा था कि 1980 के दशक में देश भर के महिला संगठन ‘दहेज हत्याओं’ के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे थे। उन्हें इस बात पर दुख था कि अदालतें इस तरह की घटनाओं में दोषियों को दंडित नहीं कर पा रही हैं। उच्च न्यायालय के उपरोक्त फ़ैसले ने ऐसी जागरूक महिलाओं को काफ़ी परेशान कर दिया। उन्होंने कई जगह धरने-प्रदर्शन किए और उच्च न्यायालय के फ़ैसले के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में एक और अपील दायर कर दी। यह अपील ‘इंडियन फेडरेशन ऑफ़ वीमेन लॉयर्स’ नामक संगठन की तरफ़ से दायर की गई थी।

1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने लक्ष्मण और उसकी माँ व भाई को बरी करने के फ़ैसले के खिलाफ़ अपील पर सुनवाई शुरू कर दी। वकीलों के तर्क सुनने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने जो फ़ैसला दिया वह उच्च न्यायालय के फ़ैसले से अलग था। सर्वोच्च न्यायालय ने लक्ष्मण और उसकी माँ को तो दोषी पाया, लेकिन सुभाष चन्द्र को आरोपों से बरी कर दिया क्योंकि उसके खिलाफ़ पर्याप्त सबूत नहीं थे। सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई।

अधीनस्थ अदालतों को कई अलग-अलग नामों से संबोधित किया जाता है। उन्हें ट्रायल कोर्ट या जिला न्यायालय, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, प्रधान न्यायिक मजिस्ट्रेट, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, सिविल जज न्यायालय आदि नामों से बुलाया जाता है।

विधि व्यवस्था की विभिन्न शाखाएँ कौन सी हैं?

दहेज हत्या का यह मामला ‘समाज के विरुद्ध अपराध’ की श्रेणी में आता है। यह आपराधिक/फ़ौजदारी कानून का उल्लंघन है। फ़ौजदारी कानून के अलावा हमारी विधि व्यवस्था दीवानी कानून या सिविल लॉ से संबंधित मामलों को भी देखती है। फ़ौजदारी और दीवानी कानून के बीच फ़र्क को समझने के लिए नीचे दी गई तालिका को देखें।

फौजदारी कानूनदीवानी कानून
ये ऐसे व्यवहार या क्रियाओं से संबंधित है जिन्हें कानून में अपराध माना गया है। उदाहरण के लिए चोरी, दहेज के लिए औरत को तंग करना, हत्या आदि।इसका संबंध व्यक्ति विशेष के अधिकारों के उल्लंघन या अवहेलना से होता है। उदाहरण के लिए जमीन की विक्री, चीजों की खरीदारी, किराया, तलाक आदि से संबंधित विवाद।
इसमें सबसे पहले आमतौर पर प्रथम सूचना रिपोर्ट/प्राथमिकी (एफ. आई.आर. दर्ज कराई जाती है। इसके बाद पुलिस अपराध की जाँच करती है और अदालत में केस फाइल करती है।प्रभावित पक्ष की ओर से न्यायालय में एक याचिका दायर की जाती है। अगर मामला किराये से संबंधित है तो मकान मालिक या किरायेदार मुकदमा दायर कर सकता है।

अगर व्यक्ति दोषी पाया जाता है तो उसे जेल भेजा जा सकता है और उस पर जुर्माना भी किया जा सकता है।
अदालत राहत की व्यवस्था करती है। उदाहरण के लिए अगर मकान मालिक और किरायेदार के बीच विवाद है तो अदालत यह आदेश दे सकती है कि किरायेदार मकान को खाली करे और बकाया किराया चुकाए।

क्या हर व्यक्ति अदालत की शरण में जा सकता है?

सिद्धांततः भारत के सभी नागरिक देश के न्यायालयों की शरण में जा सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को अदालत के माध्यम से न्याय माँगने का अधिकार है। जैसा कि आपने पीछे पढ़ा है, न्यायालय हमारे मौलिक अधिकारों की रक्षा में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर किसी नागरिक को ऐसा लगता है कि उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो वह न्याय के लिए अदालत में जा सकता है। अदालत की सेवाएँ सभी के लिए उपलब्ध हैं, लेकिन वास्तव में गरीबों के लिए अदालत में जाना काफी मुश्किल साबित होता है। कानूनी प्रक्रिया में न केवल काफ़ी पैसा और कागजी कार्यवाही की जरूरत पड़ती है, बल्कि उसमें समय भी बहुत लगता है। अगर कोई गरीब आदमी पढ़ना-लिखना नहीं जानता और उसका पूरा परिवार दिहाड़ी मज़दूरी से चलता है तो अदालत में जाने और इंसाफ़ पाने की उम्मीद उसके लिए बहुत मुश्किल होती है।

इसी बात को ध्यान में रखते हुए 1980 के दशक में सर्वोच्च न्यायालय ने जनहित याचिका (पी.आई.एल.) की व्यवस्था विकसित की थी। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय तक ज्यादा से ज्यादा लोगों की पहुँच स्थापित करने के लिए प्रयास किया है। न्यायालय ने किसी भी व्यक्ति या संस्था को ऐसे लोगों की ओर से जनहित याचिका दायर करने का अधिकार दिया है जिनके अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। यह याचिका उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में दायर की जा सकती है। न्यायालय ने कानूनी प्रक्रिया को बेहद सरल बना दिया है। अब सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के नाम भेजे गए पत्र या तार (टेलीग्राम) को भी जनहित याचिका माना जा सकता है। शुरुआती सालों में जनहित याचिका के माध्यम से बहुत सारे मुद्दों पर लोगों को न्याय दिलाया गया था। बंधुआ मजदूरों को अमानवीय श्रम से मुक्ति दिलाने और बिहार में सजा काटने के बाद भी रिहा नहीं किए गए कैदियों को रिहा करवाने के लिए जनहित याचिका का ही इस्तेमाल किया गया था।

क्या आप जानते हैं कि सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में बच्चों को दोपहर का जो भोजन (मिड-डे मील) दिया जाता है उसकी व्यवस्था भी एक जनहित याचिका के फलस्वरूप ही हुई थी। दाई ओर दिए गए चित्रों को देखें और नीचे दिए गए विवरण को पढ़ें।

चित्र 1 : वर्ष 2001 में राजस्थान और उड़ीसा में पड़े सूखे की वजह से लाखों लोगों के सामने योजन का भारी अमान पैदा हो गया था।

चित्र 2 : सरकारी गोदाम अनाज से भरे पड़े थे। बहुत सारा गेहूँ चूहों की भेंट चढ़ गया था।

चित्र 3: इस स्थिति को देखते हुए पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पी.यू.सी.एल.) नामक एक संगठन ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की। याचिका में कहा गया था कि संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन के मौलिक अधिकारों में पोजन का अधिकार भी शामिल है। राज्य की इस दलील को भी गलत साबित कर दिया गया कि उसके पास संसाधन नहीं है। इसका आधार यह था कि सरकारी गोदाम अनसन से भरे हुए थे। तब सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि सबको भोजन उपलब्ध कराना राज्य का दायित्व है।

चित्र 4 : लिहाजा सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि वह नए रोजगार पैदा करें, राशन को सरकारी दुकानों के जरिए सस्ती दर पर मोजन उपलब्ध कराए और बच्चों को स्कूल में दोपहार का भोजन दिया जाए। न्यायालय ने सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन के बारे में रिपोर्ट करने के लिए दो खाद्य आयुक्तों को भी नियुक्त किया।

आम आदमी के लिए अदालत तक पहुँचना ही न्याय तक पहुँचना होता है। अदालतें नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्याख्या में एक अहम भूमिका निभाती हैं। जैसा कि आपने उपरोक्त उदाहरण में देखा है, अदालत ने ही संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करने के बाद यह कहा था कि जीवन के अधिकार में भोजन का अधिकार भी शामिल होता है। इसीलिए अदालत ने राज्य को आदेश दिया कि वह दोपहर के भोजन की योजना (मिड-डे मील) सहित सभी लोगों को भोजन मुहैया कराने के लिए आवश्यक कदम उठाए।

लेकिन अदालत के कुछ फ़ैसले ऐसे भी रहे हैं जिन्हें लोग आम आदमी के लिए नुकसानदेह मानते हैं। उदाहरण के लिए, गरीबों के आवास अधिकार जैसे मुद्दों पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का मानना है कि बस्तियों/झुग्गी-झोंपड़ियों को बेदखल करने के बारे में अदालत द्वारा दिए गए हाल के फ़ैसले पुराने फ़ैसलों के विरुद्ध हैं। हाल के फ़ैसलों में झुग्गी वासियों को शहर में घुसपैठियों की तरह देखा जा रहा है।

ओल्गा टेलिस बनाम बम्बई नगर निगम के मुकदमे में न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण फ़ैसला दिया। इस फ़ैसले में अदालत ने आजीविका के अधिकार को जीवन के अधिकार का हिस्सा बताया। नीचे इस फ़ैसले के कुछ अंश दिए गए हैं। इन्हें पढ़ने पर पता चलता है कि न्यायाधीशों ने जीवन के अधिकार को आजीविका के अधिकार से किस तरह जोड़कर देखा।

अनुच्छेद 21 द्वारा दिए गए जीवन के अधिकार का दायरा बहुत व्यापक है। ‘जीवन’ का मतलब केवल जैविक अस्तित्व बनाए रखने से कहीं ज्यादा होता है। इसका मतलब केवल यह नहीं है कि कानून के द्वारा तय की गई प्रक्रिया जैसे मृत्युदंड देने और उसे लागू करने के अलावा और किसी तरीके से किसी की जान नहीं ली जा सकती। जीवन के अधिकार का यह एक आयाम है। इस अधिकार का इतना ही महत्त्वपूर्ण पहलू आजीविका का अधिकार भी है क्योंकि कोई भी व्यक्ति जीने के साधनों यानी आजीविका के बिना जीवित नहीं रह सकता।

किसी व्यक्ति को पटरी या झुग्गी बस्ती से उजाड़ देने पर उसके आजीविका के साधन फौरन नष्ट हो जाते हैं। यह एक ऐसी बात है जिसे हर मामले में साबित करने की जरूरत नहीं है। प्रस्तुत मामले में आनुभविक साक्ष्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि याचिकाकर्ता झुग्गियों और पटरियों पर रहते हैं क्योंकि वे शहर में छोटे-मोटे काम-धंधों में लगे होते हैं और उनके पास रहने की कोई और जगह नहीं होती। वे अपने काम करने की जगह के आसपास किसी पटरी पर या झुग्गियों में रहने लगते हैं। इसलिए अगर उन्हें पटरी या झुग्गियों से हटा दिया जाए तो उनका रोजगार ही खत्म हो जाएगा। इसका निष्कर्ष यह निकलता है कि याचिकाकर्ता को उजाड़ने से वे अपनी आजीविका से हाथ धो बैठेंगे और इस प्रकार जीवन से भी षचित हो जाएँगे।

जबकि पहले वाले फ़ैसलों (जैसे 1985 में ओल्गा टेलिस बनाम बम्बई नगर निगम के मुकदमे में दिया गया फ़ैसला) में झुग्गी वासियों की आजीविका बचाने का प्रयास किया जा रहा था।

न्याय तक आम लोगों की पहुँच को प्रभावित करने वाला एक मुद्दा यह है कि मुकदमे की सुनवाई में अदालतें कई साल लगा देती हैं। इसी देरी को ध्यान में रखते हुए अकसर यह कहा जाता है कि ‘इंसाफ में देरी यानी इंसाफ़ का कत्ल ।’

भारत में न्यायधीशों की संख्या

न्यायालय का नामस्वीकृत पदकार्यरतरिक्त
उच्चतम न्यायालय34340
उच्च न्यायालय1079655424
जिला और अधीनस्थ न्यायालय22644175095135

इस चित्र में 22 मई 1987 को मारे गए हाशिमपुरा के 43 मुसलमानों के कुछ परिजन दिखाई दे रहे हैं। ये परिवार पिछले 31 साल से न्याय के लिए संघर्ष किए थे। मुकदमा शुरू होने में जो इतना विलंब हुआ, उसके कारण सितंबर 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह मामला उत्तर प्रदेश से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया था। इसमें प्रोविंशियल आर्ड काँस्टेब्युलरी (पी.ए.सी.) के 19 लोगों पर हत्या और अन्य आपराधिक मामलों के आरोप में मुकदमे चलाए थे। इस मुकदमे में 2007 तक केवल तीन गवाहों के बयान दर्ज किए गए थे। अंत में, 31 अक्तूबर 2018 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने आरोपियों को दोषी ठहराया। (24 मई 2007 को प्रेस क्लब, लखनऊ में लिया गया फोटो।)

इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतांत्रिक भारत में न्यायपालिका ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। न्यायपालिका ने कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियों पर अंकुश लगाया है और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा की है। संविधान सभा के सदस्यों ने एक ऐसी न्यायपालिका का बिलकुल सही सपना देखा था जो पूरी तरह स्वतंत्र हो। यह हमारे लोकतंत्र का एक बुनियादी पहलू है।

शब्द सकलन

बरी करना : जब अदालत किसी व्यक्ति को उन आरोपों से मुक्त कर देती है जिनके आधार पर उसके खिलाफ़ मुकदमा बलाया गया था तो उसे बरी करना कहा जाता है।

अपील करना : निचली अदालत के फैसले के विरुद्ध जब कोई पक्ष उस पर पुनर्विचार के लिए ऊपरी न्यायालय में जाता है तो इसे अपील करना कहा जाता है।

मुआवजा : किसी नुकसान या क्षति की भरपाई के लिए दिए जाने वाले पैसे को मुआवजा कहा जाता है।

बेदखली : अभी लोग जिस जमीन/मकानों में रह रहे हैं, यदि उन्हें वहाँ से हटा दिया जाता है तो इसे बेदखली कहा जाएगा।

उल्लंघन : किसी कानून को तोड़ने या मौलिक अधिकारों के हनन की क्रिया को उल्लंघन कहा गया है।

यह भी पढ़ें : संसद तथा कानूनों का निर्माण : अध्याय 3

अभ्यास

1. आप पढ़ चुके हैं कि ‘कानून को कायम रखना और मौलिक अधिकारों को लागू करना’ न्यायपालिका का एक मुख्य काम होता है। आपकी राय में इस महत्त्वपूर्ण काम को करने के लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र होना क्यों जरूरी है?
Ans.
अगर न्यायपालिका पर राजनेताओं की पकड़ हो जाएगी तो कोई भी जज स्वतंत्र फैसले नहीं ले पाएगा। ऐसा होने से जज को हमेशा राजेताओं के पक्ष में निर्णय लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। ऐसे में न्यायपालिका के लिए कानून को कायम रखना और मौलिक अधिकारों को लागू करना लगभग असंभव हो जाएगा। इसलिए न्यायपालिका का स्वतंत्र होना जरूरी है।

अथवा

न्यायपातिका सरकार का एक महत्वपूर्ण अंग होता है। यह कानून को क्रायम रखता है और मौलिक अधिकारों को लागू करता है। न्यायपालिका को संविधान का रक्षक कहा जाता है। लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बहुत महत्व होता है. न्यायपालिकाओं की स्वतंत्रता अदालतों को भारी ताकत देती है। इसके आधार पर वे विधायिका और कार्यपालिका द्वारा शक्तियों के दुरुपयोग को रोक सकती हैं। न्यायपातिका देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों एक रक्षा में भी अहम भूमिका निभाती है क्योंकि अगर किसी को लगता है कि अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो वह अदालत में जा सकता है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता से अभिप्राय यह है कि न्यायपालिका पर किसी भी प्रकार की कोई रोक टोक न ही वह संपूर्ण रूप से अपना हर कार्य कर सके। संविधान की व्याख्या का अधिकार मुख्य रूप से न्यायपालिका के पास ही होता है। इस नाते यदि न्यायपालिका को ऐसा लगता है कि संसद द्वारा पारित किया गया कोई कानून संविधान के आधारभूत ढाँचे का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून की रद्द कर सकती है। अगर न्यायपालिका स्वतंत्र है तभी वह निष्पक्ष निर्णय ले सकती है और नागरिकों को निष्पक्ष न्याय मिल सकता है।

2. अध्याय 1 में मौलिक अधिकारों की सूची दी गई है। उसे फिर पढ़ें। आपको ऐसा क्यों लगता है कि संवैधानिक उपचार का अधिकार न्याययिक समीक्षा के विचार से जुड़ा हुआ है?
Ans.
संवैधानिक उपचारों का अधिकार एक विशेष प्रकार का अधिकार है। इस अधिकार के बिना मूल अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं है। यह अधिकार नागरिकों को इस बात के लिए अधिकृत करता है कि यदि राज्य किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप करता हे या उनका हनन करता है. ती वह नागरिक न्यायालय की शरण में जा सकता है। नागरिकों द्वारा मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायालय की शरण में आने पर न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार – पृच्छा तथा उत्प्रेषण आदि रिट जारी कर सकता है। इस प्रकार संवैधानिक उपचारों का अधिकार हमारे मूल अधिकारों का संरक्षक होने के नाते एक अति विशिष्ट अधिकार है।

3. नीचे तीनों स्तर के न्यायालय को दर्शाया गया है। प्रत्येक के सामने लिखिए कि उस न्यायालय ने सुधा गोयल के मामले में क्या फ़ैसला दिया था? अपने जवाब को कक्षा के अन्य विद्यार्थियों द्वारा दिए गए जवाबों के साथ मिलाकर देखें।

Ans. निचली अदालत : निचली अदालत ने सुधा के पति, सास और जेठ को दोषी माना और मौत की सजा सुनाई।

उच्च न्यायालय : 1983 में तीनों आरोपियों ने निचली अदालत के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील दायर की। वकीलों के तर्क सुनकर उच्च न्यायालय ने फैसला लिया कि सुधा की मौत एक दुर्घटना थी, वह स्टॉव से आग लगने के कारण जली थी। इसलिए उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय : इसके बाद उच्च न्यायालय के खिलाफ इंडियन फेडरेशन ऑफ वीमेन लॉयर्स ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की। 1985 में यह सुनवाई शुरु हुई। वकीलों के तर्क सुनने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने लक्ष्मण तथा उसकी मां को दोषी पाया और सुभाष चंद्र जो कि सुधा के जेठ था सबूत न होने के कारण उसे बरी कर दिया। बाकि दोनों को उम्र कैद की सजा सुनाई।

4. सुधा गोयल मामले को ध्यान में रखते हुए नीचे दिए गए बयानों को पढ़िए। जो वक्तव्य सही है उन पर सही का निशान लगाइए और जो गलत हैं उनको ठीक कीजिए।

(क) आरोपी इस मामले को उच्च न्यायालय लेकर गए क्योंकि ये निचली अदालत के फैसले से सहमत नहीं थे।
Ans. सही

(ख) वे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ़ उच्च न्यायालय में चले गए।
Ans. गलत, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अंतिम होता है. इसके खिलाफ कोई किसी न्यायालय में नहीं जा सकता।

(ग) अगर आरोपी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से संतुष्ट नहीं हैं तो दोबारा निचली अदालत में जा सकते हैं।
Ans. गलत, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद उच्च न्यायालय या निचली अदालत में नहीं जा सकते।

5. आपको ऐसा क्यों लगता है कि 1980 के दशक में शुरू की गई जनहित याचिका की व्यवस्था सबको इंसाफ दिलाने के लिहाज से एक महत्त्वपूर्ण कदम थी?
Ans.
कानूनी प्रक्रिया लंबी और महंगी होती है। इसलिए अधिकतर लोग (खासकर गरीब तबके के लोग) अदालतों तक पहुँच ही नहीं पाते हैं। ऐसे लोगों को अक्सर न्याय से वंचित रहना पड़ता है। जनहित याचिका की व्यवस्था ऐसे लोगों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। इसके अनुसार, कोई भी व्यक्ति आम आदमी की समस्या को लेकर हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर सकता है ताकि लोगों को न्याय मिल सके। इसलिए मुझे लगता है कि जनहित याचिका की व्यवस्था सबको इंसाफ दिलाने के लिहाज से एक महत्वपूर्ण कदम थी।

6. ओल्गा टेलिस बनाम बम्बई नगर निगम मुकदमे में दिए गए क्रिसले के अंशों को दोबारा पदिए। इस फैसले में कहा गया है कि आजीविका का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा है। अपने शब्दों में लिखिए कि इस बयान से जजों का क्या मतलब या?
Ans.
ओल्गा टेलिस बनाम बम्बई नगर निगम मुकदमे में दिए गए फैसले के कहा गया है कि आजीविका का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा है।

इस बयान से जजों का निम्नलिखित मतलब था:

ओल्गा टेलिस तथा मुंबई मुंसिपल मुकद्द‌मे में आजीविका का आधार जीवन के अधिकार के भाग के रूप में स्थापित हुआ। जीवन के अधिकार का वर्णन संविधान के अनुच्छेद 21 में किया गया है। अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। परंतु यह जीवन के अधिकार का एक पक्ष है। जीवन के अधिकार का दूसरा पक्ष आजीविका कमाने के अधिकार से संबंधित है, क्योंकि कोई भी मनुष्य आजीविका के साधनों के बिना जीवित नहीं रह सकता। इस प्रकार आजीविका कमाने का जीवन के अधिकार का भाग है। ओल्गा टेतिस तथा मुंबई मुंसिपल मुकद्दमे में यही निष्कर्ष निकाला गया। यह निर्णय झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले लोगों के आजीविका कमाने के अधिकार की रक्षा करता है।

अथवा

आजीविका का अधिकार जीवन के अधिकार का हिस्सा:

1. कानून के द्वारा तय की गयी प्रक्रिया जैसे मृत्युदंड देने और उसे लागू करने के अलावा और किसी तरीके से किसी की जान नहीं ती जा सकती।।

2. जीवन के अधिकार का इतना ही महत्त्वपूर्ण पहलू आजीविका का अधिकार भी है, कोई भी व्यक्ति आजीविका के बिना जीवित नहीं रह सकता।

3. इस मुकदमें में याचिकाकर्ता झुग्गियों और पटरियों में रहते हैं और उन्हें वहाँ से हटाने की माँग की जा रही है। 4. अगर उन्हें झुग्गियों या पटरी से हटा दिया जाए तो उनका रोजगार भी खत्म हो जाएगा और वे अपनी आजीविका से हाथ धो बैठेंगे। इस प्रकार वे जीवन के अधिकार से भी वंचित हो जाएँगे।

7. ‘इंसाफ़ में देरी बानी इंसाफ का कत्ल’ इस विषय पर एक कहानी बनाइए।
Ans.
इस विषय पर आप ऐसे व्यक्ति की कहानी बना सकते हैं जिसे झूठे केस में गिरफ्तार कर लिया जाता है। फिर किसी न किसी बहाने उसे 30 वर्षों तक जेल में रखा जाता है। आखिर में 30 वर्षों के बाद अदालत उसे निर्दोष पाती है और बाइज्जत बरी कर देती है। देरी से न्याय मिलने के कारण उस व्यक्ति के जीवन के 30 बहुमूल्य वर्ष बरबाद हो जाते हैं। जेल से बाहर आने के बाद उसे पता चलता है कि उसके परिवार में कोई भी जीवित नहीं बचा है। उसके लिए आगे बवी पहाड़ जैसी जिंदगी काटना मुश्किल साबित होता है।

अथवा

श्रीमान शंकर एक सरकारी कर्मचारी थे। सेवानिवृत्ति के पश्चात् वे अपने पुरतेनी मकान में रहने आए जो उन्होंने अब तक किराये पर दिया हुआ था उन्होंने किराएदारों से मकान खेती करने को कहा लेकिन उन्होंने मकान खाली नहीं किया। किराएदारों ने श्रीमान शंकर को कहा कि यदि वह मकान खली कराना चाहते हैं तो कोर्ट से नोटिस लाएं। श्रीमान शंकर को मज़बूरी में किराये पर रहना पड़ा और उन्होंने किरायएदारों के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। 5 साल तक केस तड़ने के बाद जिला अदालत ने मकान मालिक के पक्ष में फैसला सुनाया और वे मुकदमा जीत गए। किराएदारों ने जिला अदालत के फैसले के प्रति असहमति व्यक्त करते हुए हाई कोर्ट में अपील दायर कर दी। लगातार तारीखे पड़ने लगीं और न्याय होने में 10 साल ओर गुजर गए। श्रीमान शंकर सेवानिवृति के बाद 15 साल तक किराए के मकान में रहें, अदालतों के चक्कर लगते रहे। उन्होंने महसूस किया कि न्याय में विलंब एक प्रकार से न्याय का निषेध ही था।

8. अगले पन्ने पर शब्द संकलन में दिए गए प्रत्येक शब्द से वाक्य बनाइए।
Ans.
बरी करना : अगर किसी पर कोई मुकदमा चल रहा हो और वह उस पर लगे आरोपों से वह मुक्त हो जाए, उसे बरी कर देते है।

अपील करना : किसी न्यायालय के द्वारा सुनाया गया फेसला अगर किसी व्यक्ति को सही ना लगे तो वह उससे उच्च न्यायालय में जाकर उस फेसले के खिलाफ अपील कर सकता है।

मुआवजा : किसी प्रकार की क्षति की भरपाई के लिए दिए जाने वाले पैसे को मुआवजा कहते है।

बेदखली : किसी जमीन, घर, संपत्ति पर जब किसी का अधिकार नहीं रहता उसे बेदखली करना कहते है।

उल्लंघन : बनाए गए नियमों का पालन न करना उल्लंघन कहलाता है।

9: यह पोस्टर भोजन अधिकार अभियान द्वारा बनाया गया है।
इस पोस्टर को पढ़ कर भोजन के अधिकार के बारे में सरकार के दायित्वों की सूची बनाइए। इस पोस्टर में कहा गया है कि” भूखे पेट भरे गोदाम! नहीं चलेगा, नहीं चलेगा !!” इस वक्तव्य को पृष्ठ 61 पर भोजन के अधिकार के बारे में दिए गए चित्र निबंध से मिला कर देखिए।

Ans.  हर व्यक्ति को जीवन का अधिकार है। लेकिन जीवन जीने के लिए भोजन आवश्यक होता है। अगर किसी व्यक्ति को खाना ही नहीं मिलेगा तो वह मर भी सकता है। भूखा मरता व्यक्ति कोई भी गलत चीज़ करने के लिए तैयार रहता है। इससे समाज में असामाजिक तत्व पैदा होते है। सरकार जो उन सभी व्यक्तियों के लिए कोई न कोई योजना बनानी चाहिए। उन्हें रोजगार, भत्ता, खाद्य पदार्थ देने चाहिए।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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