सातवीं शताब्दी के बाद कई राजवंशों का उदय हुआ। मानचित्र । में उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में सातवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच शासन करनेवाले प्रमुख राजवंशों को दिखलाया गया है।
नए राजवंशों का उदय
सातवीं सदी आते-आते उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में बड़े भूस्वामी और योद्धा-सरदार अस्तित्व में आ चुके थे। राजा लोग प्रायः उन्हें अपने मातहत या सामंत के रूप में मान्यता देते थे। उनसे उम्मीद की जाती थी कि वे राजा या स्वामी के लिए उपहार लाएँ, उनके दरबार में हाजिरी लगाएँ और उन्हें सैन्य सहायता प्रदान करें। अधिक सत्ता और संपदा हासिल करने पर सामंत अपने-आप को महासामंत, महामंडलेश्वर (पूरे मंडल का महान स्वामी) इत्यादि घोषित कर देते थे। कभी-कभी वे अपने स्वामी के आधिपत्य से स्वतंत्र हो जाने का दावा भी करते थे।
इस तरह का एक उदाहरण दक्कन में राष्ट्रकूटों का था। शुरुआत में वे कर्नाटक के चालुक्य राजाओं के अधीनस्थ थे। आठवीं सदी के मध्य में एक राष्ट्रकूट प्रधान दंतीदुर्ग ने अपने चालुक्य स्वामी की अधीनता से इंकार कर दिया, उसे हराया और हिरण्यगर्भ (शाब्दिक अर्थ सोने का गर्भ) नामक एक अनुष्ठान किया। जब यह अनुष्ठान ब्राह्मणों की सहायता से संपन्न किया जाता था, तो यह माना जाता था कि इससे याजक, जन्मना क्षत्रिय न होते हुए भी क्षत्रिय के रूप में दुबारा क्षत्रियत्व प्राप्त कर लेगा।
कुछ अन्य उदाहरणों में उद्यमी परिवारों के पुरुषों ने अपनी राजशाही कायम करने के लिए सैन्य-कौशल का इस्तेमाल किया। मिसाल के तौर पर, कदंब मयूरशर्मण और गुर्जर-प्रतिहार हरिचंद्र ब्राह्मण थे, जिन्होंने अपने परंपरागत पेशे को छोड़कर शस्त्र को अपना लिया और क्रमशः कर्नाटक और राजस्थान में अपने राज्य सफलतापूर्वक स्थापित किए। तापूर्वक
राज्यों में प्रशासन
इन नए राजाओं में से कइयों ने महाराजाधिराज (राजाओं के राजा), त्रिभुवन-चक्रवर्तिन (तीन भुवनों का स्वामी) और इसी तरह की अन्य भारी-भरकम उपाधियाँ धारण कीं। लेकिन, इस तरह के दावों के बावजूद, वे अपने सामंतों और साथ-ही-साथ किसान, व्यापारी तथा ब्राह्मणों के संगठनों के साथ अपनी सत्ता की साझेदारी करते थे।
इन सभी राज्यों में उत्पादकों अर्थात् किसानों, पशुपालकों, कारीगरों से संसाधन इकट्ठे किए जाते थे। इनको अकसर अपने उत्पादों का एक हिस्सा त्यागने के लिए मनाया या बाध्य किया जाता था। कभी-कभी इस हिस्से को ‘लगान’ मानकर वसूला जाता था क्योंकि प्राप्त करने वाला भूस्वामी होने का दावा करता था। राजस्व व्यापारियों से भी लिया जाता था।
चार सौ कर !
तमिलनाडु में शासन करनेवाले चोल वंश के अभिलेखों में विभिन्न किस्म के करों के लिए 400 से ज़्यादा सूचक शब्द मिलते हैं। सबसे अधिक उल्लिखित कर हैं वेट्टी, जो नकद की बजाए जबरन श्रम के रूप में लिया जाता था, यानी जबरन श्रम और कदमाई यानी कि भू-राजस्व थे। मकान पर छाजन डालने पर लगने वाला कर, खजूर या ताड़ के पेड़ पर चढ़ने के लिए सीढ़ी के इस्तेमाल पर लगने वाला कर, पारिवारिक संपत्ति का उत्तराधिकार हासिल करने के लिए लगने वाले कर, इत्यादि का भी उल्लेख मिलता है।
ये संसाधन राजा की व्यवस्था का वित्तीय आधार बनते थे, साथ ही मंदिरों और दुर्गों के निर्माण में भी इस्तेमाल होते थे। संसाधन उन युद्धों को लड़ने में भी इस्तेमाल होते थे, जिनसे लूट की शक्ल में धन मिलने की तथा जमीन और व्यापारिक मार्गों के प्रयोग की संभावनाएँ बनती थीं।
राजस्व वसूली के लिए पदाधिकारियों की नियुक्ति सामान्यतः प्रभावशाली परिवारों के बीच से ही की जाती थी और प्रायः वंशानुगत होती थीं। सेना में भी ऐसा ही होता था। कई बार राजा के निकट संबंधी ही इन ओहदों पर होते थे।
प्रशस्तियाँ और भूमि-अनुदान
प्रशस्तियों में ऐसे ब्यौरे होते हैं, जो शब्दशः सत्य नहीं भी हो सकते। लेकिन ये प्रशस्तियाँ हमें बताती हैं कि शासक खुद को कैसा दर्शाना चाहते थे मिसाल के लिए शूरवीर, विजयी योद्धा के रूप में। ये विद्वान ब्राह्मणों द्वारा रची गई थीं, जो अकसर प्रशासन में मदद करते थे।
नागभट्ट की ‘उपलब्धियाँ’
कई शासकों ने प्रशस्तियों में अपनी उपलब्धियों का बखान किया है। (आपने पिछले साल गुप्त शासक समुद्रगुप्त की प्रशस्ति के बारे में पढ़ा है।)
संस्कृत में लिखी गई, ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में पाई गई एक प्रशस्ति में प्रतिहार नरेश, नागभट्ट के कामों का वर्णन इस प्रकार किया गया है:
आंध्र, सैंधव (सिध), विदर्भ (महाराष्ट्र का एक हिस्सा) और कलिंग (उड़ीसा का एक हिस्सा) के राजा उनके आगे तभी धराशायी हो गए जब वे राजकुमार थे…
उन्होंने कन्नौज के शासक चक्रयुद्ध को विजित किया… उन्होंने वंग (बंगाल का हिस्सा), अनर्त (गुजरात का हिस्सा), मालवा (मध्य प्रदेश का हिस्सा), किरात (वनवासी), तुरुष्क (तुर्क), वत्स, मत्स्य (दोनों उत्तर भारत के राज्य) राजाओं को पराजित किया…
राजा लोग प्रायः ब्राह्मणों को भूमि अनुदान से पुरस्कृत करते थे। ये ताम्र पत्रों पर अभिलिखित होते थे, जो भूमि पाने वाले को दिए जाते थे।
भूमि के साथ क्या-क्या दिया जाता था?
यह चोलों के द्वारा दिए गए एक भूमि अनुदान के तमिल भाग का एक अंश है:
हमने मिट्टी की मेड़ें बनाकर, साथ ही काँटेदार झाड़ियाँ लगाकर भूमि की सीमाओं को चिह्नित कर दिया है। इस भूमि पर ये चीजें हैं: फलदार वृक्ष, पानी, भूमि, बगीचे और फलोद्यान, पेड़, कुएँ, खुली जगह, चरागाह, एक गाँव, बाँबी, चबूतरें, नहरें, खाइयाँ, नदियाँ, दलदली जमीन, हौज़, अन्नागार, मछलियों के तालाब, मधुमक्खियों के छत्ते और गहरी झीलें।
जिसे यह भूमि मिलती है, वह इससे कर वसूली कर सकता है। वह न्यायाधिकारियों द्वारा जुर्माने के तौर पर लगाए गए कर वसूल सकता है, पान के पत्तों पर लगने वाला कर, बुने हुए कपड़ों पर लगने वाला कर, साथ ही साथ वाहनों पर लगनेवाला कर वसूल सकता है। वह पकी ईंटों के बने ऊपरी माले पर बड़े कमरे बनवा सकता है, बड़े और छोटे कुएँ खुदवा सकता है, पेड़ और कॉंटेदार झाड़ियाँ लगवा सकता है, जरूरी हो तो सिंचाई के लिए नहर बनवा सकता है। उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पानी बरबाद न हो और तटबंधों का निर्माण हो।
बारहवीं शताब्दी में एक बृहत् संस्कृत काव्य भी रचा गया, जिसमें कश्मीर पर शासन करने वाले राजाओं का इतिहास दर्ज है। इसे कल्हण नामक एक रचनाकार द्वारा रचा गया। कल्हण ने अपना वृत्तांत लिखने के लिए शिलालेखों, दस्तावेज़ों, प्रत्यक्षदर्शियों के वर्णनों और पहले के इतिहासों समेत अनेक तरह के स्रोतों का इस्तेमाल किया। प्रशस्तियों के लेखकों से भिन्न वह अकसर शासकों और उनकी नीतियों के बारे में आलोचनात्मक रुख दिखलाता है, इसलिए बारहवीं सदी के लिए यह असाधारण ग्रंथ था।
धन के लिए युद्ध
आपने यह गौर किया होगा कि इनमें से प्रत्येक शासक राजवंश का आधार कोई क्षेत्र-विशेष था। वे दूसरे क्षेत्रों पर भी नियंत्रण करने का प्रयास करते थे। एक विशेष रूप से वांछनीय क्षेत्र था-गंगा घाटी में कन्नौज नगर।
गुर्जर-प्रतिहार, राष्ट्रकूट और पाल वंशों के शासक सदियों तक कन्नौज के ऊपर नियंत्रण को लेकर आपस में लड़ते रहे। चूँकि इस लंबी चली लड़ाई में तीन पक्ष थे, इसलिए इतिहासकारों ने प्रायः इसकी चर्चा ‘त्रिपक्षीय संघर्ष’ के रूप में की है।
शासकों ने बड़े मंदिरों का निर्माण करवा कर भी अपनी सत्ता और संसाधनों का प्रदर्शन करने का प्रयास किया। इसलिए जब वे एक-दूसरे के राज्यों पर आक्रमण करते थे, तो मन्दिरों को भी अपना निशाना बनाते थे, जो कभी-कभी बहुत अधिक सम्पन्न होते थे।
अफ़गानिस्तान के ग़ज़नी का महमूद ऐसा ही एक शासक है। उसने धार्मिक पूर्वाग्रह से प्रेरित हो उपमहाद्वीप पर 17 बार (1000-1025 ई.) हमला किया। उसका निशाना थे-संपन्न मंदिर, जिनमें गुजरात का सोमनाथ मंदिर भी शामिल था। महमूद जो धन उठा ले गया, उसका बहुत बड़ा हिस्सा ग़ज़नी में एक वैभवशाली राजधानी के निर्माण में खर्च हुआ।
युद्ध करने वाले दूसरे राजाओं में चाहमान भी थे, जो बाद में चौहान के रूप में जाने गए। वे दिल्ली और अजमेर के आस-पास के क्षेत्र पर शासन करते थे। उन्होंने पश्चिम और पूर्व की ओर अपने नियंत्रण-क्षेत्र का विस्तार करना चाहा, जहाँ उन्हें गुजरात के चालुक्यों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गहड़वालों से टक्कर लेनी पड़ी। चाहमान शासक पृथ्वीराज तृतीय (1168-1192), जिसने सुलतान मुहम्मद गोरी नामक अफ़गान शासक को 1191 में हराया, लेकिन दूसरे ही साल 1192 में उसके हाथों हार गया। to
चोल राज्य – नज़दीक से एक नज़र
उरैयूर से तंजावूर तक
चोल वंश सत्ता में कैसे आया? कावेरी डेल्टा में मुट्टरियार नाम से प्रसिद्ध एक छोटे-से मुखिया परिवार की सत्ता थी। वे कांचीपुरम के पल्लव राजाओं के मातहत थे। उरइयार के चोलवंशीय प्राचीन मुखिया परिवार के विजयालय ने नौवीं सदी के मध्य में मुट्टरियारों को हरा कर इस डेल्टा पर कब्जा जमाया। उसने वहाँ तंजावूर शहर और निशुम्भसूदिनी देवी का मंदिर बनवाया।
विजयालय के उत्तराधिकारियों ने पड़ोसी इलाकों को जीता और उसका राज्य अपने क्षेत्रफल तथा शक्ति, दोनों रूपों में बढ़ता गया। दक्षिण और उत्तर के पांड्यन और पल्लव के इलाके इस राज्य का हिस्सा बना लिए गए। राजराज प्रथम, जो सबसे शक्तिशाली चोल शासक माना जाता है, 985 में राजा बना और उसी ने इनमें से ज़्यादातर क्षेत्रों पर अपने नियंत्रण का विस्तार किया। उसने साम्राज्य के प्रशासन का भी पुनर्गठन किया। राजराज के पुत्र राजेंद्र प्रथम ने उसकी नीतियों को जारी रखा और उसने गंगा घाटी, श्री लंका तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों पर हमला भी किया। इन अभियानों के लिए उसने एक जलसेना भी बनाई।
भव्य मंदिर और कांस्य मूर्तिकला
राजराज और राजेंद्र प्रथम द्वारा बनवाए गए तंजावूर और गंगईकोंडचोलपुरम के बड़े मंदिर स्थापत्य और मूर्तिकला की दृष्टि से एक चमत्कार हैं।
चोल मंदिर अकसर अपने आस-पास विकसित होने वाली बस्तियों के केंद्र बन गए। ये शिल्प-उत्पादन के केंद्र थे। ये मंदिर शासकों और अन्य लोगों द्वारा दी गई भूमि से भी संपन्न हो गए थे। इस भूमि की उपज उन सारे विशेषज्ञों का निर्वाह करने में खर्च होती थी, जो मंदिर के आस-पास रहते और उसके लिए काम करते थे- पुरोहित, मालाकार, बावर्ची, मेहतर, संगीतकार, नर्तक, इत्यादि। दूसरे शब्दों में, मंदिर सिर्फ़ पूजा-आराधना के स्थान नहीं थे- वे आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के केंद्र भी थे। मंदिर के साथ जुड़े हुए शिल्पों में सबसे विशिष्ट था- कांस्य प्रतिमाएँ बनाने का काम। चोल कांस्य प्रतिमाएँ संसार की सबसे उत्कृष्ट कांस्य प्रतिमाओं में गिनी जाती हैं।
ज्यादातर प्रतिमाएँ तो देवी-देवताओं की ही होती थीं, लेकिन कुछ प्रतिमाएँ भक्तों की भी बनाई गई थीं।
कृषि और सिंचाई
चोलों की कई उपलब्धियाँ कृषि में हुए नए विकासों के माध्यम से संभव हुईं। मानचित्र 2 देखिए। गौर कीजिए कि कावेरी नदी बंगाल की खाड़ी में मिलने से पहले कई छोटी-छोटी शाखाओं में बँट जाती है। ये शाखाएँ बार-बार पानी उलीचती हैं, जिससे किनारों पर उपजाऊ मिट्टी जमा होती रहती है। शाखाओं का पानी, कृषि, विशेषतः चावल की खेती के लिए आवश्यक आर्द्रता भी मुहैया कराता है।
हालाँकि तमिलनाडु के दूसरे हिस्सों में कृषि पहले ही विकसित हो चुकी थी, पर पाँचवी आकर ही इस इलाके में बड़े पैमाने पर खेती शुरू हो पाई। कुछ इलाकों में जंगलों को साफ़ किया जाना था और कुछ दूसरे इलाक़ों में ज़मीन को समतल किया जाना था। डेल्टा क्षेत्रों में बाढ़ को रोकने के लिए तटबंध बनाए जाने थे और पानी को खेतों तक ले जाने के लिए नहरों का निर्माण होना था। कई क्षेत्रों में एक साल में दो फ़सलें उगाई जाती थीं।
कई जगहों पर फ़सलों की सिंचाई कृत्रिम रूप से करना ज़रूरी था। सिंचाई के लिए कई पद्धतियाँ अपनाई जाती थीं। कुछ इलाकों में कुएँ खोदे गए। कुछ अन्य जगहों में बारिश के पानी को इकट्ठा करने के लिए विशाल सरोवर बनाए गए। स्मरण रहे कि सिंचाई के काम में योजना की ज़रूरत होती है, जैसे-श्रम और संसाधनों को व्यवस्थित करना, इन कामों की देख-रेख करना और यह तय करना कि पानी का बँटवारा कैसे किया जाए। ज़्यादातर नए शासकों, साथ-ही-साथ गाँवों में रहनेवाले लोगों ने इ ने इन गतिविधियों में सक्रिय रूप दिलचस्पी दिखलाई। से
साम्राज्य का प्रशासन
प्रशासन किस प्रकार संगठित था? किसानों की बस्तियाँ, जो ‘उर’ कहलाती थीं, सिंचित खेती के साथ बहुत समृद्ध हो गई थीं। इस तरह के गाँवों के समूह को ‘नाडु’ कहा जाता था। ग्राम परिषद् और नाडु, न्याय करने और कर वसूलने जैसे कई प्रशासकीय कार्य करते थे।
धनी किसानों को केंद्रीय चोल सरकार की देख-रेख में ‘नाडु’ के काम-काज में अच्छा-खासा नियंत्रण हासिल था। उनमें से कई धनी भूस्वामियों को चोल राजाओं ने सम्मान के रूप में ‘मुर्वेदवेलन’ (तीन राजाओं को अपनी सेवाएँ प्रदान करने वाला वेलन या किसान), ‘अरइयार’ (प्रधान) जैसी उपाधियाँ दीं और उन्हें केंद्र में महत्त्वपूर्ण राजकीय पद सौंपे।
भूमि के प्रकार
चोल अभिलेखों में भूमि की विभिन्न कोटियों का उल्लेख मिलता है।
वेल्लनवगाई : गैर-ब्राह्मण किसान स्वामी की भूमि
ब्रह्मदेय : ब्राह्मणों को उपहार में दी गई भूमि
शालाभोग : किसी विद्यालय के रखरखाव के लिए भूमि
देवदान, तिरुनमट्टक्कनी : मंदिर को उपहार में दी गई भूमि
पल्लिच्चंदम : जैन संस्थानों को दान दी गई भूमि
हमने देखा है कि ब्राह्मणों को पर भूमि-अनुदान समय-समय या ब्रह्मदेय प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप कावेरी घाटी और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्सों में ढेरों ब्राह्मण बस्तियाँ अस्तित्व में आईं।
प्रत्येक ब्रह्मदेय की देख-रेख प्रमुख ब्राह्मण भूस्वामियों की एक सभा द्वारा की जाती थी। ये सभाएँ बहुत कुशलतापूर्वक काम करती थीं। इनके निर्णय, शिलालेखों में प्रायः मंदिरों की पत्थर की दीवारों पर, ब्यौरेवार दर्ज किए जाते थे। ‘नगरम’ के नाम से ज्ञात व्यापारियों के संघ भी अकसर शहरों में प्रशासनिक कार्य संपादित करते थे।
तमिलनाडु के चिंगलपुट जिले के उत्तरमेरुर से प्राप्त अभिलेखों में इस बात का सविस्तार वर्णन है कि ब्राह्मणों की सभा का संगठन कैसा था। सिंचाई के कामकाज, बाग-बगीचों, मंदिरों इत्यादि की देख-रेख के लिए सभा में विभिन्न समितियाँ होती थीं। इनमें सदस्यता के लिए जो लोग योग्य होते थे, उनके नाम तालपत्र के छोटे टिकटों पर लिखे जाते थे और मिट्टी के बर्तन में रख दिए जाते थे और किसी छोटे लड़के को हर समिति के लिए एक के बाद एक टिकट निकालने के लिए कहा जाता था।
अभिलेख और लिखित सामग्री
उत्तरमेरुर अभिलेख के अनुसार सभा की सदस्यताः
सभा की सदस्यता के लिए इच्छुक लोगों को ऐसी भूमि का स्वामी होना चाहिए,
जहाँ से भू-राजस्व वसूला जाता है।
उनके पास अपना घर होना चाहिए।
उनकी उम्र 35 से 70 के बीच होनी चाहिए।
उन्हें वेदों का ज्ञान होना चाहिए।
उन्हें प्रशासनिक मामलों की अच्छी जानकारी होनी चाहिए और ईमानदार होना चाहिए।
यदि कोई पिछले तीन सालों में किसी समिति का सदस्य रहा है तो वह किसी और समिति का सदस्य नहीं बन सकता।
जिसने अपने या अपने संबंधियों के खाते जमा नहीं कराए हैं, वह चुनाव नहीं लड़ सकता।
अभिलेखों में राजाओं और शक्तिसंपन्न पुरुषों के बारे में तो जानकारी मिलती है, लेकिन यह जानना खासा मुश्किल है कि साधारण मर्दों और औरतों का जीवन इन राज्यों में कैसा था? बारहवीं शताब्दी की तमिल कृति, पेरियापूरणम से एक उद्धरण-
अडनूर की सरहदों पर फूस की पुरानी छाजनों वाली छोटी-छोटी झोपड़ियों से अँटा पड़ा ‘पुलाया’ (एक ऐसा समूह, जिसे ब्राह्मण और वेल्लाल प्रतिष्ठित समाज के बाहर मानते थे) लोगों का एक छोटा-सा पुरवा था, जिसमें ओछे किस्म के पेशों में लगे खेतिहर मज़दूर रहते थे। चमड़े की पट्टियों से घिरे हुए झोंपड़ियों के अहातों में छोटे मुर्गे-मुर्गियाँ झुंडों में घूमते रहते थे। गहरे रंग के बच्चे, जो काले लोहे के कंगन पहने हुए थे, छोटे पिल्लों को उठाए उछलते चल रहे थे।… मारूदू पेड़ों की छाया में एक मज़दूरनी ने अपने बच्चे को चमड़े की एक चादर पर सुला दिया। आम के पेड़ भी थे, जिनकी शाखाओं पर नगाड़े लटके हुए थे और नारियल के पेड़ों के नीचे जमीन में बने छोटे गड्ढ़ों में छोटे सिरों वाली कुतियाँ पिल्लों को दूध पिलाने के बाद लेटी हुई थीं। लाल कलगी वाले मुर्गों ने पौ फटने से पहले तगड़े पुलैयार (पुलाया का बहुवचन) को दिन के काम पर जाने की हाँक लगाते हुए बाँग दे दी। धान कूटती लहरदार बालोंवाली पुलाया स्त्रियों के गाने की आवाज़ रोज़ाना कांजी वृक्ष की छाया में फैलती थी।…
यह भी पढ़ें : प्रारंभिक कथन – हज़ार वर्षों के दौरान हुए परिवर्तनों की पड़ताल : अध्याय 1
फिर से याद करें
1. जोड़े बनाओ:
साम्राज्य | क्षेत्र |
गुर्जर-प्रतिहार | पश्चिमी दक्कन |
राष्ट्रकूट | बंगाल |
पाल | गुजरात और राजस्थान |
चोल | तमिलनाडु |
Ans.
गुर्जर-प्रतिहार | गुजरात और राजस्थान |
राष्ट्रकूट | पश्चिमी दक्कन |
पाल | बंगाल |
चोल | तमिलनाडु |
2. ‘त्रिपक्षीय संघर्ष’ में लगे तीनों पक्ष कौन-कौन से थे?
Ans. गुर्जर प्रतिहार, राष्ट्रकूट और पाल
3. चोल साम्राज्य में सभा की किसी समिति का सदस्य बनने के लिए आवश्यक शर्तें क्या थीं?
Ans. चोल साम्राज्य में सभा की किसी समिति का सदस्य बनने के लिए आवश्यक शर्तें नीचे दी गई हैं:
• उस व्यक्ति के पास जमीन होनी चाहिए जिससे लगान वसूली जाती हो।
• अपना मकान होना चाहिए।
• 35 से 70 वर्ष के बीच आयु होनी चाहिए।
• वेदों का ज्ञान होना चाहिए।
• प्रशासन के मामलों का जानकार और इमानदार होना चाहिए।
• अपना और अपने रिश्तेदारों के खाते जमा होना चाहिए।
• पिछले तीन वर्षों में किसी और समिति का सदस्य नहीं होना चाहिए।
4. चाहमानों के नियंत्रण में आनेवाले दो प्रमुख नगर कौन-से थे?
Ans. दिल्ली और अजमेर
आइए समझें
5. राष्ट्रकूट कैसे शक्तिशाली बने?
Ans. पहले राष्ट्रकूट लोग कर्णाटक के चालुक्य के अधीन रहते थे। आठवीं सदी के मध्य में दंतिदुर्ग नाम के एक राष्ट्रकूट मुखिया ने चालुक्य राजा को हटा दिया और स्वयं को राजा घोषित कर दिया।
6. नये राजवंशों ने स्वीकृति हासिल करने के लिए क्या किया?
Ans. कुछ राजाओं ने जनता की स्वीकृति हासिल करने के लिए हिरण्यगर्भ यज्ञ किया। ऐसा माना जाता था कि इस यज्ञ को करने के बाद किसी भी जाति में जन्मा व्यक्ति क्षत्रिय बन जाता था। कुछ राजाओं भव्य मंदिर बनवाए, ताकि जनता में उसकी अच्छी छवि बन सके। कुछ व्यक्तियों ने अपनी सैन्यक्षमता के बल पर नया राज्य बनाया।
7. तमिल क्षेत्र में किस तरह की सिंचाई व्यवस्था का विकास हुआ?
Ans. तमिलनाडु में बड़े पैमाने पर खेती पाँचवीं और छठी शताब्दी में ही जाकर शुरु हुई थी। बाढ़ की रोकथाम के लिए यहाँ बाँध बनाए गए और खेतों तक पानी ले जाने के लिए नहर बनवाए गए। जहाँ भी जरूरत थी, वहाँ कृत्रिम रूप से सिंचाई के लिए कई तरीके अपनाए गए, जैसे कुँआ खुदवाना या फिर वर्षा के पानी को जमा करने के लोए तालाब बनाना। अधिकतर राजाओं और ग्रामीणों ने सिंचाई की सुविधा विकसित करने में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था।
अथवा
तमिल क्षेत्रों में सिंचाई व्यवस्था का विकास निम्न प्रकार से हुआ
1. प्राकृतिक झीलों से सिंचाई की व्यवस्था की गई।
2. अनेक नहरों को निर्मित किया गया।
3. कई तालाबों और होजों को निर्मित किया गया।
4. अनेक क्षेत्रों में नए कुएँ खुदवाए गए।
8. चोल मंदिरों के साथ कौन-कौन सी गतिविधियाँ जुड़ी हुई थीं?
Ans. पूजा का स्थान होने के साथ साथ मंदिर तरह तरह की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक गतिविधियों का केंद्र बन जाता था।
अथवा
चोल मंदिरों के साथ निम्नलिखित गतिविधियाँ जुड़ी हुई थीं
1. चोल मंदिर अकसर अपने आस-पास विकसित होने वाली बस्तियों के केन्द्र बन गए।
2. ये शिल्प उत्पादन के केन्द्र थे।
3. ये मंदिर शासकों और अन्य लोगों द्वारा दी गई भूमि से भी सम्पन्न हो गए थे।
4. मंदिर के लिए काम करने वालों में पुरोहित, मालाकार, बावर्ची, मेहतर, संगीतकार, नर्तक इत्यादि प्रमुख थे।
5. मंदिर सिर्फ पूजा-आराधना का ही केन्द्र नहीं थे, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन । के केन्द्र भी
थे।
आइए विचार करें
9. मानचित्र 1 को दुबारा देखें और तलाश करें कि जिस प्रांत में आप रहते हैं, उसमें कोई पुरानी राजशाहियाँ (राजाओं के राज्य) थीं या नहीं?
Ans. मानचित्र 1 का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि जिस राज्य में हम रहते हैं, वहाँ इन्द्रप्रस्थ नामक राजशाही स्थापित थी, जिसे हम दिल्ली के नाम से जानते हैं।
इसके अतिरिक्त अन्य राजशाही और वर्तमान प्रांत का नाम इस प्रकार से है
साम्राज्य | वर्तमान प्रांत |
राजशाही | बांग्लादेश |
गुर्जर प्रतिहार | गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश |
पाल | बंगाल, बिहार |
उत्कल | उड़ीसा |
पूर्वी चालुक्य | आन्ध्र प्रदेश |
राष्ट्र कूट | महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक |
चोल | तमिलनाडु |
चेर | केरल |
पाण्ड्य | दक्षिणी तमिलनाडु |
10. जिस तरह के पंचायती चुनाव हम आज देखते हैं, उनसे उत्तरमेरुर के ‘चुनाव’ किस तरह से अलग थे?
Ans. वर्तमान समय के पंचायत चुनाव उत्तरमेरुर के चुनाव में अन्तर –
वर्तमान समय के पंचायत चुनाव
(1) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के द्वारा चुनाव
(ii) मतदाता अपने पसंद के उम्मीदवारों को मत देता है।
उत्तरमेरुर के चुनाव
(i) लॉटरी पद्धति द्वारा विभिन्न समितियों के सदस्य चुने जाते थे।
(ii) चुनाव पूर्ण रूप से प्रत्याशियों के भाग्य पर निर्भर था।
11. इस अध्याय में दिखलाए गए मंदिरों से अपने आस-पास के किसी मौजूदा मंदिर की तुलना करें और जो समानताएँ या अंतर आप देख पाते हैं, उन्हें बताएँ।
Ans. असमानताएँ – इस अध्याय में दिखलाए गए मंदिर द्रविड़ शैती के स्थापत्य कला द्वारा निर्मित हैं, लेकिन वर्तमान के अधिकांश मंदिर बेसर शैली स्थापत्य कला द्वारा निर्मित हैं। बेसर शैली में द्रविड़ और नागर शैली का सम्मिश्रण होता है।
समानताएँ – इन दोनों मंदिरों में समानता यह है कि इन दोनों मंदिरों के गर्भ गृह में ही मूर्ति स्थित होती है।
12. आज के समय में वसूले जाने वाले करों के बारे में और जानकारी हासिल करें। क्या ये नकद के रूप में हैं, वस्तु के रूप में हैं या श्रम सेवाओं के रूप में?
Ans. वर्तमान समय में प्रत्यक्ष कर और अप्रत्यक्ष कर के रूप में कर वसूल किए जाते हैं। प्रत्यक्ष कर के रूप में आय कर, सम्पत्ति कर, उत्तराधिकारी कर, मृत्यु कर आदि। अप्रत्यक्ष कर के रूप में उत्पादन शुल्क, बिक्री कर आदि प्रमुख हैं।
वर्तमान समय में सभी कर नकद अथवा चेक के द्वारा जमा किए जाते हैं तथा किसी भी कर का भुगतान वस्तु के रूप में अधवा श्रम सेवाओं के रूप में नहीं लिया जाता है
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