कानून और सामाजिक न्याय : अध्याय 8

क्या आपको कक्षा 7 का ‘बाज़ार में एक कमीज़’ अध्याय याद है? वहाँ हमने देखा था कि बाज़ारों की श्रृंखला किस तरह कपास उत्पादकों को सुपर बाजार में कमीज़ खरीदने वाले ग्राहक से जोड़ देती है। इस श्रृंखला में हर मोड़ पर क्रय-विक्रय चल रहा था।

कपास पैदा करने वाला छोटा किसान, ईरोड के बुनकर या कपड़ा निर्यात कारखाने के मज़दूर कमीज़ के उत्पादन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल बहुत सारे लोग बाजार में शोषण का शिकार होते हैं। उनके साथ उचित बर्ताव नहीं होता। बाजार में हर जगह लोगों के शोषण की संभावना बनी रहती है, चाहे वे मज़दूर हों, उपभोक्ता हों या उत्पादक हों।

लोगों को इस तरह के शोषण से बचाने के लिए सरकार कुछ कानून बनाती है। इन कानूनों के जरिए इस बात की कोशिश की जाती है कि बाजार में अनुचित तौर-तरीकों पर अंकुश लगाया जाए।

आइए बाजार की एक आम स्थिति को देखें जिसमें कानून बहुत मायने रखता है। मसला मजदूरों के मेहनताना का है। निजी कंपनियाँ, ठेकेदार, कारोबारी लोग आमतौर पर ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाने की कोशिश करते हैं। मुनाफ़े की चाह में कई बार वे मज़दूरों को उनका हक नहीं देते और कई बार तो उनका मेहनताना तक नहीं देते। मज़दूरों को उनका मेहनताना न देना कानून की नज़र में गैर-कानूनी या गलत है। मजदूरों को मेहनताना कम न मिले या उनको वाजिब मेहनताना मिले, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए न्यूनतम वेतन का भी एक कानून बनाया गया है। इस कानून के तहत किसी भी मज़दूर को न्यूनतम वेतन से कम मज़दूरी नहीं दी जा सकती। न्यूनतम वेतन में हर कुछ साल में बढ़ोतरी कर दी जाती है।

जिस तरह मज़दूरों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए न्यूनतम वेतन का कानून बनाया गया है उसी तरह बाजार में उत्पादकों और उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने के लिए भी कानून बनाए गए हैं। इन कानूनों के जरिए मज़दूर, उपभोक्ता और उत्पादक तीनों के संबंधों को इस तरह संचालित किया जाता है कि उनमें से किसी का शोषण न हो।

अहमदाबाद के एक कपड़ा मिल में काम करते मजदूर। बिजली से चलने वाले करघों के साथ बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण 1980 और 1990 के दशकों में ज्यादातर कपड़ा मिल बंद हो गए थे। पावरलूम बिजली से चलने वाले करघों को कहते हैं। यह 4-6 करघों की छोटी इकाई है। इन करघों के मालिक खुद उन पर काम करते हैं और परिवार के लोगों के साथ बाहर के श्रमिकों को भी काम में लगाते हैं। यह जानी हुई बात है कि बिजली से चलने वाले करघों में कार्यस्थितियाँ बहुत खराब होती हैं।

तालिका संख्या । में विभिन्न पक्षों की सुरक्षा से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण कानून दिए गए हैं। उसमें में दिए गए कॉलम (2) और (3) में बताया गया है कि ये कानून क्यों और किसके लिए जरूरी हैं। कक्षा में चर्चा के आधार पर इस तालिका के खाली खानों को भरें।

तालिका 1

कानूनइसकी जरूरत क्यों है?यह कानून किसके हित में है?
न्यूनतम मेहनताना कानून। इसमें यह निश्चित किया गया है कि किसी का भी मेहनताना एक निर्धारित न्यूनतम राशि से कम नहीं होना चाहिए।बहुत सारे मजदूरों को उनके मालिक सही मेहनताना नहीं देते। चूंकि मजदूरों को काम की जरूरत होती है. इसलिए वे सौदेबाजी भी नहीं कर पाते और बहुत कम मजदूरी पर ही काम करने को तैयार हो जाते हैं।यह कानून सारे मन्त्तदूरों, खासतौर से खेत मजदूरों, निर्माण मजदूरों, फैक्ट्री मजदूरों, घरेलू नौकरों आदि के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया है।
कार्यस्थल पर पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था का इंतजाम करने वाले कानून। उदाहरण के लिए, चेतावनी अलार्म, आपातकालीन द्वार आदि सही ढंग से काम कर रहे हो।
चीजों की गुणवत्ता निर्धारित मानकों के अनुरूप होनी चाहिए यह बताने वाले कानून। उदाहरण के लिए, विद्युत उपकरण सुरक्षा मानको के अनुरूप होने चाहिए।विद्युत उपकरणों, भोजन, दवाई आदि की खराब गुणवत्ता के कारण उपभोक्ताओं का जीवन खतरे में पड़ सकता है।
जरूरी चीजों जैसे चीनी, मिट्टी का तेल, अनाज आदि की कीमतों को नियंत्रण में रखने वाले कानून।ऐसे गरीबों के हितों की रक्षा के लिए जो कि इन चीजों की भारी कीमत वहन नहीं कर सकते।
ऐसे कानून जो फैक्ट्रियों को हवा या पानी में प्रदूषण फैलाने से रोकते हैं।
कार्यस्थल पर बाल मजदूरी को रोकने वाले कानून।
मजदूर यूनियन/संगठन बनाने से संबंधित कानूनयूनियनों में संगठित होकर मजदूर अपनी संयुक्त ताकत के सहारे सही वेतन और बेहतर कार्यस्थितियों के लिए आवाज उठा सकते हैं।

कानून बना देना ही काफी नहीं होता। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होता है कि कानूनों को लागू किया जाए। इसका मतलब यह है कि कानून को लागू किया जाना बहुत जरूरी होता है। जब कोई कानून ताकतवर लोगों से कमज़ोर लोगों की रक्षा के लिए बनाया जाता है तो उसको लागू करना और भी महत्त्वपूर्ण बन जाता है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक मजदूर को सही वेतन मिले, यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार को कार्यस्थलों का नियमित रूप से निरीक्षण करना चाहिए और अगर कोई कानून का उल्लंघन करता है तो उसको सजा देनी चाहिए। अगर मजदूर गरीब या शक्तिहीन है तो आमदनी गँवाने या बदले की कार्रवाई के डर से वह कम वेतन पर भी काम करने को तैयार हो जाता है। मालिक भी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं। वे अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हैं ताकि मजदूरों से कम पैसे में काम कराया जा सके। ऐसी सूरत में यह बहुत जरूरी होता है कि संबंधित कानूनों को अच्छी तरह लागू किया जाए।

इन कानूनों को बनाने, लागू करने और कायम रखने के लिए सरकार व्यक्तियों या निजी कंपनियों की गतिविधियों को नियंत्रित कर सकती है ताकि सामाजिक न्याय सुनिश्चित किया जा सके। इनमें से बहुत सारे कानूनों का जन्म भारतीय संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों से हुआ है। उदाहरण के लिए, शोषण से मुक्ति के अधिकार का अर्थ है कि किसी को भी कम मेहनताना पर काम करने या बंधुआ मजदूर के तौर पर काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। संविधान में यह भी कहा गया है कि 14 साल से कम उम्र के किसी भी बच्चे को किसी कारखाने या खदान या किसी अन्य खतरनाक व्यवसाय में काम पर नहीं रखा जाएगा।

व्यवहार में ये कानून किस तरह सामने आते हैं? ये कानून सामाजिक न्याय की चिंताओं को किस हद तक संबोधित करते हैं? इस अध्याय में हम ऐसे ही कुछ सवालों की पड़ताल करेंगे।

सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 5 से 14 साल की उम्र के 40 लाख से ज़्यादा बच्चे विभिन्न व्यवसायों में नौकरी करते हैं। इनमें से बहुत सारे बच्चे खतरनाक व्यवसायों में हैं। 2016 में संसद ने बाल श्रम (प्रतिषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 में यह संशोधन किया है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के सभी व्यवसायों में तथा किशोरों (14-18 वर्ष) के जोखिमकारी व्यवसायों और प्रक्रियाओं में नियोजन करने पर प्रतिबंध है। बच्चों या किशोरों के नियोजन को अब एक संज्ञेय अपराध बना दिया गया है। 2017 में, एक ऑनलाइन पोर्टल, https://pencil.gov.in, प्लेटफ़ॉर्म फ़ॉर इफेक्टिव इनफ़ोर्समेंट फ़ॉर नो चाइल्ड लेबर (पेंसिल) प्रारंभ हुआ है। यह पोर्टल शिकायतें दर्ज कराने, चाइल्ड ट्रेकिंग तथा राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (एनसीएलपी) के कार्यान्वयन एवं मॉनीटरिंग के लिए है।

भोपाल गैस त्रासदी

24 साल पहले भोपाल में दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी हुई भोपाल में यूनियन कार्बाइड नामक अमेरिकी कंपनी का कारखाना था जिसमें कीटनाशक बनाए जाते थे। 2 दिसंबर 1984 को रात के 2 बजे यूनियन कार्बाइड के इसी संयंत्र से मिथाइल आइसोसाइनाइड (निक) गैस रिसने लगी। यह बेहद जहरीली गैस होती है।

इस दुर्घटना की चपेट में आने वाली अज़ीज़ा सुल्तान : “तकरीबन 12.30 बजे मुझे अपने बच्चे की तेज़ खाँसी की आवाज सुनाई दी। कमरे में हल्की सी रोशनी थी। मैंने देखा कि पूरा कमरा सफ़ेद धुँए से भरा हुआ था। मुझे लोगों की चीखने की आवाजें सुनाई दीं। सब कह रहे थे, ‘भागो, भागो’। इसके बाद मुझे भी खाँसी आने लगी। लगता था जैसे मैं आग में साँस ले रही हूँ। आँखें बुरी तरह जलने लगीं।

तीन दिन के भीतर 8,000 से ज्यादा लोग मौत के मुँह में चले गए। लाखों लोग गंभीर रूप से प्रभावित हुए।

जहरीली गैस के संपर्क में आने वाले ज्यादातर लोग गरीब कामकाजी परिवारों के लोग थे। उनमें से लगभग 50,000 लोग आज भी इतने बीमार है कि कुछ काम नहीं कर सकते। जो लोग इस गैस के असर में आने के बावजूद जिंदा रह गए उनमें से बहुत सारे लोग गंभीर श्वास विकारों, आँख की बीमारियों और अन्य समस्याओं से पीड़ित हैं। बच्चों में अजीबो-गरीब विकृतियाँ पैदा हो रही है। इस चित्र में दिखाई दे रही लड़की इस बात का उदाहरण है।

यह तबाही कोई दुर्घटना नहीं थी। यूनियन कार्बाइड ने पैसा बचाने के लिए सुरक्षा उपायों को जानबूझकर नजरअंदाज किया था। 2 दिसंबर की त्रासदी से बहुत पहले भी कारखाने में गैस का रिसाव हो चुका था। इन घटनाओं में एक मजदूर की मौत हुई थी जबकि बहुत सारे घायल हुए थे।

सबूतों से पूरी तरह साफ़ था कि इस महाविनाश के लिए यूनियन – कार्बाइड ही दोषी है, लेकिन कंपनी ने अपनी गलती मानने से इनकार कर दिया।

इसके बाद शुरू हुई कानूनी लड़ाई में पीड़ितों की ओर से सरकार ने • यूनियन कार्बाइड के खिलान दीवानी मुकदमा दायर कर दिया। 1985 में सरकार ने 3 अरब डॉलर का मुआवजा माँगा था, लेकिन 1989 में केवल 47 करोड़ डॉलर के मुआवजे पर अपनी सहमति दे दी। इस त्रासदी से जीवित बच निकलने वाले लोगों ने इस फ़ैसले के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की, मगर सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस फ़ैसले में कोई बदलाव नहीं किया।

यूनियन कार्बाइड ने कारखाना तो बंद कर दिया, लेकिन भारी मात्रा में विषैले रसायन वहीं छोड़ दिए। ये रसायन रिस-रिस कर जमीन में जा रहे हैं जिससे वहाँ का पानी दूषित हो रहा है। अब यह संयंत्र डाओ कैमिकल नामक कंपनी के कब्जे में है जो इसकी साफ-सफाई का जिम्मा उठाने को तैयार नहीं है।

24 साल बाद भी लोग न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे पीने के साफ पानी, स्वास्थ्य सुविधाओं और यूनियन कार्बाइड के जहर से ग्रस्त लोगों के लिए नौकरियों की माँग कर रहे हैं। उन्होंने यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन एंडरसन को सजा दिलाने के लिए भी आंदोलन चलाया है।

एक मज़दूर की कीमत क्या होती है?

अगर आप भोपाल के महाविनाश की वजहों को समझना चाहते हैं तो सबसे पहले यह जानना पड़ेगा कि यूनियन कार्बाइड ने भारत में ही अपना कारखाना क्यों खोला।

विदेशी कंपनियों के भारत आने का एक कारण यहाँ का सस्ता श्रम है। अगर ये कंपनियाँ अमेरिका या किसी और विकसित देश में काम करें तो उन्हें भारत जैसे गरीब देशों के मज़दूरों के मुकाबले वहाँ के मज़दूरों को ज़्यादा वेतन देना पड़ेगा। भारत में न केवल वे कम कीमत पर काम करवा सकती हैं, बल्कि यहाँ के मज़दूर ज़्यादा घंटों तक भी काम कर सकते हैं। यहाँ मज़दूरों के लिए आवास जैसी दूसरी चीज़ों पर भी खर्चे की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती। इस तरह ये कंपनियाँ यहाँ कम लागत पर ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सकती हैं।

निर्माण स्थलों पर दुर्घटनाएँ आम है। इसके बावजूद सुरक्षा उपकरणों और अन्य सावधानियों को अकसर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

लागत में कटौती के तरीके इससे खतरनाक भी हो सकते हैं। लागत में कमी लाने के लिए सुरक्षा उपायों की अकसर अनदेखी की जाती है। यूनियन कार्बाइड के कारखाने में एक भी सुरक्षा उपकरण या तो सही ढंग से काम नहीं कर रहा था या उनकी संख्या कम थी। 1980 से 1984 के बीच मिक संयंत्र के कामगारों के दल की संख्या 12 से घटाकर 6 की जा चुकी थी। मज़दूरों के लिए सुरक्षा प्रशिक्षण की अवधि तो 6 महीने से घटा कर केवल 15 दिन कर दी गई थी! मिक कारखाने के लिए रात की पाली के मज़दूर का पद ही खत्म कर दिया गया था।

यूनियन कार्बाइड के भोपाल और अमेरिकी संयंत्रों में सुरक्षा व्यवस्था में फ़र्क जानने के लिए नीचे पढ़ें-

“पश्चिम वर्जीनिया (अमेरिका) में कंप्यूटरीकृत चेतावनी और निगरानी व्यवस्था मौजूद थी। भोपाल के यूनियन कार्बाइड कारखाने में गैस के रिसाव के लिए केवल मज़दूरों के अंदाजे के सहारे काम चलाया जाता था। पश्चिम वर्जीनिया में खतरा पैदा होने पर लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने की व्यवस्था मौजूद थी, जबकि भोपाल में ऐसा कुछ नहीं था।”

अलग-अलग देशों के बीच सुरक्षा मानकों में इतने भारी फ़र्क क्यों हैं? और दुर्घटना हो जाने के बाद पीड़ितों को इतना मामूली मुआवजा क्यों दिया जा रहा है?

इस बात का जवाब यह है कि भारतीय मजदूर का मोल अभी भी ज़्यादा नहीं माना जाता। एक मज़दूर जाता है तो फ़ौरन उसकी जगह दूसरा मिल सकता है। हमारे यहाँ बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि थोड़ी सी तनख्वाह के बदले न जाने कितने लोग असुरक्षित स्थितियों में भी काम करने को तैयार हो जाते हैं। मज़दूरों की इस कमज़ोरी का फायदा उठाकर मालिक कार्यस्थल पर सुरक्षा की ज़िम्मेदारी से बच जाते हैं। इस तरह भोपाल गैस त्रासदी के इतने सालों बाद भी मालिकों के बर्बर रवैये के कारण निर्माण स्थलों, खदानों या कारखानों में दुर्घटना की खबरें हर रोज़ आती रहती हैं।

सुरक्षा कानूनों का क्रियान्वयन

कानून बनाने और लागू करने वाली संस्था के नाते यह सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है कि सुरक्षा कानूनों को सही ढंग से लागू किया जाए। सरकार को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि अनुच्छेद 21 में दिए गए जीवन के अधिकार का उल्लंघन न हो। जब यूनियन कार्बाइड संयंत्र में सुरक्षा मानकों की इस तरह खुले आम अवहेलना हो रही थी तो सरकार क्या कर रही थी?

पहली बात, भारत में सुरक्षा कानून ढीले थे। दूसरा, उन कमजोर सुरक्षा कानूनों को भी ठीक से लागू नहीं किया जा रहा था।

सरकारी अफ़सर इस कारखाने को खतरनाक कारखानों की श्रेणी में रखने को भी तैयार नहीं थे। इस कारखाने को घनी आबादी वाले इलाके में खोलने पर उन्हें कोई ऐतराज नहीं किया। जब भोपाल के कुछ नगर निगम अधिकारियों ने इस बात पर उँगली उठाई कि 1978 में मिक उत्पादन कारखाने की स्थापना सुरक्षा मानकों के खिलाफ़ थी तो सरकार का कहना था कि प्रदेश को भोपाल के संयंत्र में लगातार निवेश चाहिए ताकि रोज़गार मिलते रहें। सरकार की राय में यूनियन कार्बाइड से इस बात की माँग करना असंभव था कि वह साफ़-सुथरी तकनीक या ज़्यादा सुरक्षित प्रक्रियाओं को अपनाए। सरकारी निरीक्षक कारखाने में अपनाई जा रही दोषपूर्ण प्रक्रियाओं को बार-बार मंजूरी देते रहे। जब कारखाने में बार-बार गैस का रिसाव होने लगा और सबको यह बात समझ में आ चुकी थी कि कहीं कुछ भारी गड़बड़ी चल रही है, तब भी निरीक्षकों के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी।

हाल ही में एक ट्रेवल एजेंसी को आदेश दिया गया कि वह अपने कुछ ग्राहकों को 8 लाख रुपए का मुआवजा दे। इन सैलानियों को मुआवज़ा इसलिए दिया जा रहा था क्योंकि कंपनी की लापरवाही के कारण वे डिज्नीलैंड देखने और पेरिस में खरीदारी करने से वंचित रह गए थे। तो फिर भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को जिंदगी भर की पीड़ा और नुकसान के बदले इतना कम मुआवजा क्यों मिला?

कानून बनाने और उनको लागू करने वाली संस्था के लिए यह रवैया सही नहीं है। लोगों के हितों की रक्षा करने की बजाय सरकार और निजी कंपनी, दोनों ही उनकी सुरक्षा को नज़रअंदाज़ करती जा रही थीं।

यह हरगिज़ अच्छी स्थिति नहीं है। जब भारत में स्थानीय और विदेशी व्यवसायी नए-नए कारखाने खोलते जा रहे हैं तो मजदूरों के अधिकारों की रक्षा करने वाले सख्त कानूनों और उनके ज्यादा बेहतर क्रियान्वयन की जरूरत और बढ़ गई है।

पर्यावरण की रक्षा के लिए नए कानून

1984 में हमारे पास पर्यावरण की रक्षा के लिए बहुत कम कानून थे। इन कानूनों को लागू करने की व्यवस्था तो और भी कमज़ोर थी। पर्यावरण को एक ‘मुफ़्त’ चीज़ माना जाता था। किसी भी उद्योग को हवा-पानी में प्रदूषण छोड़ने की खुली छूट मिली हुई थी। चाहे नदियाँ हों, हवा हो या भूमिगत पानी हो पर्यावरण दूषित हो रहा था और लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ किया जा रहा था।

ढीले सुरक्षा मानकों से न केवल यूनियन कार्बाइड को फ़ायदा मिला, बल्कि उसे प्रदूषण से निपटने के लिए पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ा। अमेरिका में यही कंपनी इस ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती थी।

भोपाल त्रासदी ने पर्यावरण के मुद्दों को अगली कतार में ला दिया। कई लाख ऐसे लोग कारखाने से निकली जहरीली गैस का शिकार बन गए थे जो इस कारखाने से किसी भी तरह जुड़े नहीं थे। इससे लोगों को यह अहसास हुआ कि मौजूदा कानून चाहे कितने भी कमज़ोर हों, वे केवल मज़दूरों से ही संबंधित हैं। उनमें उन आम लोगों के अधिकारों पर ध्यान नहीं दिया गया है जो औद्योगिक दुर्घटनाओं के कारण घायल होते हैं।

पर्यावरणवादी कार्यकर्ताओं तथा अन्य लोगों के इस दवाब से निपटने के लिए भोपाल गैस त्रासदी के बाद भारत सरकार ने पर्यावरण के बारे में नए कानून बनाए। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के लिए प्रदूषण फैलाने वालों को ही जिम्मेदार माना जाने लगा। इसके पीछे समझ यह थी कि हमारे पर्यावरण पर अगली पीढ़ियों का भी हक बनता है और उसे केवल औद्योगिक विकास के लिए नष्ट नहीं किया जा सकता।

अदालतों ने स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को जीवन के मौलिक अधिकार का हिस्सा बताते हुए कई महत्त्वपूर्ण फैसले दिए। सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य (1991) के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय – ने कहा कि जीवन का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है और इसमें प्रदूषण मुक्त हवा और पानी का अधिकार भी शामिल है। यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह प्रदूषण पर अंकुश लगाने, नदियों को साफ़ रखने और जो दोषी हैं उन पर भारी जुर्माना लगाने के लिए कानून और प्रक्रियाएँ तय करे।

जनसुविधा के रूप में पर्यावरण

हाल के वर्षों में न्यायालयों ने पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर कई कड़े आदेश दिए हैं। ऐसे कई आदेशों से लोगों की रोजी-रोटी पर भी बुरा असर पड़ा है।

मिसाल के तौर पर, अदालत ने आदेश दिया कि दिल्ली के रिहायशी इलाकों में काम करने वाले उद्योगों को बंद कर दिया जाए या उन्हें शहर से बाहर दूसरे इलाकों में भेज दिया जाए। इनमें से कई कारखाने आसपास के वातावरण को प्रदूषित कर रहे थे। इन कारखानों की गंदगी से यमुना नदी भी प्रदूषित हो रही थी क्योंकि इन कारखानों को नियमों के हिसाब से नहीं चलाया जा रहा था।

अदालत की कार्रवाई से एक समस्या तो हल हो गई, लेकिन एक नई समस्या पैदा भी हो गई कारखानों के बंद हो जाने से बहुत सारे मजदूरों के रोजगार खत्म हो गए। बहुतों को दूर-दराज के इलाकों में जाना पड़ा जहाँ उन कारखानों को दोबारा चालू किया गया था। अब प्रदूषण की समस्या इन नए इलाकों में पैदा हो रही है ये इलाके प्रदूषित होने लगे हैं। मजदूरों की सुरक्षा संबंधी स्थितियों का मुद्दा अभी भी वैसा का वैसा है।

भारत में पर्यावरणीय मुद्दों पर हुए ताज़ा अनुसंधानों से यह बात सामने आई है कि मध्य वर्ग के लोग पर्यावरण की चिंता तो करने लगे हैं, लेकिन वे अक्सर गरीबों की पीड़ा को ध्यान में नहीं रखते। इसलिए उनमें से बहुतों को यह तो समझ में आता है कि शहर को सुंदर बनाने के वास्ते बस्तियों को हटाना चाहिए या प्रदूषण फैलाने वाली फैक्ट्रियों को शहर के बाहर ले जाना चाहिए, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि इससे बहुत सारे लोगों की रोजी-रोटी भी खतरे में पड़ सकती है। जहाँ एक तरफ़ स्वच्छ पर्यावरण के बारे में जागरूकता बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ़ मजदूरों की सुरक्षा के बारे में लोग ज्यादा चिंता नहीं जता रहे हैं।

अब चुनौती ऐसे समाधान ढूँढ़ने की है जिनमें स्वच्छ वातावरण का लाभ सभी को मिल सके। इसका एक तरीका यह है कि हम कारखानों में ज्यादा स्वच्छ तकनीकों और प्रक्रियाओं को अपनाने पर जोर दें। इसके लिए सरकार को भी चाहिए कि वह कारखानों को प्रोत्साहन और मदद दे। उसे प्रदूषण फैलाने वालों पर जुर्माना करना होगा। इस तरह मज़दूरों के रोजगार भी बच जाएँगे और समुदायों व मज़दूरों को सुरक्षित पर्यावरण का अधिकार भी मिल जाएगा।

गाड़ियों से उत्सर्जित धुआँ पर्यावरणीय प्रदूषण का एक बड़ा स्रोत हैं। 1998 के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई फ़ैसलों में यह आदेश दिया कि दिल्ली में डीजल से चलने वाले सभी सार्वजनिक वाहन कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस (सी.एन.जी.) ईंधन का इस्तेमाल करें। इन प्रयासों से दिल्ली जैसे शहरों के वायु प्रदूषण में काफी गिरावट आई है।

लेकिन सेंटर फ़ॉर साइंस ऐण्ड एनवायरनमेंट (नयी दिल्ली) की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि हवा में विषैले पदार्थों का स्तर काफ़ी ऊँचा है। ये विषैले पदार्थ पेट्रोल की बजाय डीजल से चलने वाली बसों/कारों के कारण पैदा हो रहे हैं।

बंद कारखानों के बाहर परेशान मजदूर रोज़गार छिन जाने के बाद बहुत सारे मज़दूर छोटा-मोटा व्यापार या दिहाड़ी मजदूरी करने लगते हैं। कुछ मज़दूरों को पहले से भी छोटे कारखानों में काम मिलता है जहाँ के हालात पहले से भी ज्यादा शोषण भरे होते हैं और जहाँ कानूनों की स्थिति और भी ज्यादा कमज़ोर होती है।

विकसित देश अपने विषैले और खतरनाक उद्योगों को विकासशील देशों में ले जा रहे हैं ताकि इन देशों के कमजोर कानूनों का फ़ायदा उठा सकें और अपने देशों को साफ़-सुथरा रख सकें। दक्षिण एशियाई देश, खासतौर से भारत, बांगलादेश और पाकिस्तान कीटनाशक, ऐस्बेस्टॉस बनाने वाले या जस्ते व सीसे को संसाधित करने वाले कारखानों को बड़े पैमाने पर अपने यहाँ बुला रहे हैं।

निष्कर्ष

चाहे बाज़ार हो, दफ़्तर हो या कोई कारखाना हो बहुत सारी स्थितियों में लोगों को गलत तौर-तरीकों से बचाने के लिए कानून ज़रूरी होते हैं। निजी कंपनियाँ, ठेकेदार, व्यवसायी आदि ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में गलत हथकंडे भी अपनाने लगते हैं। उदाहरण के तौर पर वे मज़दूरों को कम मेहनताना देते हैं, बच्चों से काम करवाते हैं, काम की स्थितियों पर ध्यान नहीं देते या पर्यावरण का खयाल नहीं रखते और इस तरह आस-पास के लोगों को भी नुकसान पहुँचाते हैं।

ऐसे में सरकार की एक अहम जिम्मेदारी यह बनती है कि वह निजी कंपनियों के गलत तौर-तरीकों को रोकने और सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए कानून बनाए, उनको लागू करे और उन पर निगरानी रखे। यानी न सरकार को केवल ‘सही कानून’ बनाने चाहिए, बल्कि उनको लागू भी करना चाहिए। अगर कानून कमज़ोर हों और उनको सही ढंग से लागू न किया जाए तो उनसे भारी नुकसान हो सकता है। भोपाल गैस त्रासदी इस बात का सबूत है।

इस दिशा में सरकार की तो ज़िम्मेदारी बनती ही है, आम लोग भी दवाब डालकर निजी कंपनियों और सरकार दोनों को समाज के हित में काम करने के लिए बाध्य कर सकते हैं। जैसा कि हमने पहले देखा, पर्यावरण एक ऐसा विषय है जहाँ लोगों ने जनहित के लिए दवाब डाला है और न्यायालयों ने भी स्वस्थ पर्यावरण के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में जीवन का अभिन्न अंग माना है। इस अध्याय में हमने इस बात पर जोर दिया है कि लोगों को इस बात के लिए आवाज उठानी चाहिए कि स्वस्थ वातावरण की सुविधा सबको मिले। इसी तरह मज़दूर अधिकारों (यानी काम का अधिकार, सही मेहनताना और मानवोचित कार्यस्थितियों का अधिकार) के क्षेत्र में भी अभी हालात काफ़ी खराब हैं। लोगों को इस बात के लिए आवाज उठानी चाहिए कि कामगारों के अधिकारों की रक्षा के लिए सख्त कानून बनाए जाएँ ताकि सबको जीवन का अधिकार मिल सके।

शब्द संकलन

उपभोक्ता : जो व्यक्ति बाजार में बेचने के लिए नहीं बल्कि निजी इस्तेमाल के लिए कोई चीज खरीदता है उसे उपभोक्ता कहा जाता है।

उत्पादक : ऐसा व्यक्ति या संस्थान जो बाजार में बेचने के लिए चीजें बनाता है। कई बार उत्पादक अपने उत्पादन का कुछ हिस्सा निजी इस्तेमाल के लिए भी रख लेते हैं, उदाहरण के लिए, किसान।

निवेश : भविष्य में उत्पादन बढ़ाने/सुधारने के लिए नई मशीनरी या इमारत या प्रशिक्षण पर खर्च होने वाला पैसा।

मजदूरों की यूनियन : मजदूरों का संगठन। आमतौर पर मजदूर यूनियनें कारखानों और दफ्तरों में दिखाई देती हैं लेकिन अन्य किस्म के मजदूरों की भी यूनियनें हो सकती हैं, जैसे घरेलू नौकरों की यूनियन। यूनियन के नेता अपने सदस्यों की ओर से मालिकों के साथ सौदेबाजी और बातचीत करते हैं। मजदूर यूनियनें वेतन, श्रम नियमावली, नियुक्ति, बर्खास्तगी और पदोन्नति से संबंधित नियमों, लाभों और कार्यस्थल सुरक्षा आदि मुद्दों पर काम करती हैं।

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अभ्यास

1. दो मजदूरों से बात करके पता लगाएँ कि उन्हें कानून द्वारा तय किया गया न्यूनतम वेतन मिल रहा है या नहीं। इसके लिए आप निर्माण मजदूरों, खेत मजदूरों, फ़ैक्ट्री मजदूरों या किसी दुकान पर काम करने वाले मजदूरों से बात कर सकते हैं।
Ans.
मजदूरों से बात करके यही पता चलता है कि सरकार द्वारा निश्चित वेतन या तो उन तक पहुँचता ही नहीं है और मिलता भी है तो वह भी बहुत देर से और आधा-अधूरा।

2 विदेशी कंपनियों को भारत में अपने कारखाने खोलने से क्या फ़ायदा है?
Ans.
विदेशी कंपनियों को फायदा-

1. भारत में सस्ता श्रम मिलता है।

2. भारत में सस्ती दरों पर भूमि उपलब्ध होती है।

3. भारत में विशाल बाज़ार उपलब्ध होता है।

4. भारत में उदार और अनुकूल सरकारी नीतियों का फायदा मिलता है जिससे उनका लाभ बढ़ता है।

5. सुरक्षा नियमों का पूरा पालन करने पर कम खर्च आता है।

अथवा

विदेशी कंपनियों के भारत में अपने कारखाने खोलने का फ़ायदा यह है कि यहाँ का सस्ता श्रम है। अगर ये कंपनियाँ अमेरिका या किसी और विकसित देश में काम करें तो उन्हें भारत जैसे गरीब देशों के मज़दूरों के मुकाबले वहाँ के मजदूरों को ज़्यादा वेतन देना पड़ेगा। भारत में न केवल वे कम कीमत पर काम करवा सकती हैं, बल्कि यहाँ के मजदूर ज्यादा घंटों तक भी काम कर सकते हैं। यहाँ मजदूरों के लिए आवास जेसी दूसरी चीज़ों पर भी खर्च की ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती। इस तरह ये कंपनियाँ यहाँ कम लागत पर ज्यादा मुनाफा कमा सकती हैं। विदेशी कंपनियों द्वारा भारत में कारखाने खोलने का एक उच्च फ़ायदा यह है कि उन्हें भूमि, मशीनों तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं पर और सुरक्षा इंतजामों पर भी बहुत कम धन खर्च करना पड़ता है।

3. क्या आपको लगता है कि भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को सामाजिक न्याय मिला है? चर्चा करें।
Ans
. भोपाल गैस त्रासदी पीड़ियों को कुछ मुआवजा दिया गया था। लेकिन किसी के जीवन की कीमत रुपये पैसों में नहीं आँकी जा सकती है। कई लोग तो इतनी बुरी तरह अपाहिज हो चुके थे कि उनके लिए इन पैसों का कोई उपयोग नहीं है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को सामाजिक न्याय नहीं मिला है।

अथवा

विश्व की सबसे बड़ी गैस दुर्घटना 2 दिसंबर, 1984 को भोपाल में हुई। एक अमेरिकन कंपनी यूनियन कार्बाइड ने भोपाल में अपना एक कारखाना लगाया जिसमें पेस्टीसाइड का उत्पादन होता था। 2 दिसंबर 1984 को आधी रात को इस कारखाने से बहुत अधिक मात्रा में गैस रिसाव होना शुरू हो गया। इस दुर्घटना में लगभग 8000 लोग मारे गए तथा लगभग 50 हजार गरीब परिवार बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुए। ये लोग अभी भी काम करने योग्य नहीं हो पाए हैं। हजारों बच्चे अपाहिज हो गए। यह त्रासदी दुर्घटना नहीं थी, बल्कि सुरक्षा उपायों की कमी के कारण ऐसा हुआ। परंतु कंपनी ने इसकी जिम्मेदारी लेने से मना कर दिया। इसके पश्चात् कानूनी लड़ाई शुरू हुई ओर सरकार ने कंपनी के खिलाफ दीवानी मुकद्द‌मा दायर किया। 1985 में सरकार ने कंपनी से 3 अरब डॉलर का मुआवजा मांगा था, लेकिन 1989 में केवल 47 करोड़ डॉलर के मुआवजे पर अपनी सहमति दे दी। इस त्रासदी में जीवित बच गए लोग सर्वोच्च न्यायालय में गए, परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस निर्णय को बनाए रखा। 7 जून, 2010 को भोपाल की एक अदालत ने गैस रिसाव के मामले में सात आरोपियों को अर्थदंड के साथ दो-दो वर्ष के कारावास की सजा दी। यह सजा पर्याप्त नहीं थी, इसीलिए इसकी व्यापक तौर पर आलोचना की गई।

4. जब हम कानूनों को लागू करने की बात करते हैं तो इसका क्या मतलब होता है? कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी किसकी है? कानूनों को लागू करना इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?
Ans.
किसी कानून को अमल में लाने को कानून लागू करना कहते हैं। कानून को लागू करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है। यदि कोई कानून ठीक से लागू ना किया जाए तो वह बेकार साबित होता है। इसलिए कानू को लागू करना महत्वपूर्ण है।

अथवा

सरकार के तीन अंग हैं विधानपालिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका। कानून निर्माण का मुख्य विधानपालिका है। परंतु केवल कानून निर्माण ही पर्याप्त नहीं है। कानून को लागू करना भी उतना ही आवश्यक है। कानून को प्रभावशाली ढंग से लागू न करने के कारण उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है। कानूनों को कार्यपालिका लागू करती है। कार्यपालिका यह देखती है कि सभी लोग कानूनों का उचित ढंग से पालन करें तथा जो व्यक्ति कानूनों का उल्लंघन करता है. उसे सजा दी जाती है। उदाहरण के लिए न्यूनतम वेतन कानून का कोई लाभ नहीं है. जब तक सरकार यह नहीं देखती कि मजदूरों को उस कानून के अनुसार वेतन मिल रहा है या नहीं और यदि कोई व्यक्ति इस कारण का उल्लघन करता है, तो सरकार उसे सजा दें।

5. कानून के जरिए बाजारों को सही ढंग से काम करने के लिए किस तरह प्रेरित किया जा सकता है? अपने जवाब के साथ दो उदाहरण दें।
Ans.
बाजार को नियंत्रित करने का कानून एक महत्वपूर्ण कारक है। बाजार से संबंधित सभी निर्णय बाजार वालों पर ही नहीं छोड़े जा सकते। उदाहरण के लिए यह आवश्यक है कि न्यूनतम वेतन कानून उचित ढंग से लागू हो कानून के अभाव में निजी कंपनियां तथा व्यवसायी अधिक मुनाफा कमाने के लिए बहुत कम वेतन देते हैं। न्यूनतम वेतन कानून के कारण यह आवश्यक है कि मालिक मज़दूरों को उचित न्यूनतम वेतन दें। उपभोक्ता तथा उत्पादक के हितों की रक्षा करने वाले कानून भी है। ये कानून मजदूर, उपभोक्ता तथा उत्पादक के परस्पर संबंधों को निर्धारित करते हैं। इन कानूनों के कारण कोई किसी का शोषण नहीं कर सकता। इस प्रकार ये कानून ये व्यवस्था करते है कि बाज़ार निष्पक्ष ढंग से अपना कार्य करें।

6. मान लीजिए कि आप एक रासायनिक फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर हैं। सरकार ने कंपनी को आदेश दिया है कि वह वर्तमान जगह से 100 किलोमीटर दूर किसी दूसरे स्थान पर अपना कारखाना चलाए। इससे आपकी जिंदगी पर क्या असर पड़ेगा? अपनी राय पूरी कक्षा के सामने पढ़कर सुनाएँ।
Ans.
जिस रासायनिक फैक्ट्री में में काम करता हूं, वह वर्तमान जगह से 100 किलोमीटर दूर किसी दूसरे स्थान पर अपना कारखाना ले गई है। इससे मेरा जीवन बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इसलिए मेरे सामने दी ही विकल्प बचते है। या तो में नौकरी छोड़ दूं, या उस फैक्ट्री के नजदीक रहने के लिए चला जाऊँ। परंतु फैक्ट्री के नजदीक रहने से प्रदूषण की समस्या के साथ- साथ मजदूरों की सुरक्षा आवश्यकताएं भी पहले की तरह बनी रहेगी।

7. इस इकाई में आपने सरकार को विभिन्न भूमिकाओं के बारे में पढ़ा है। इनके बारे में एक अनुच्छेद लिखें।
Ans.
सरकार लोगों से संबंधित जन सुविधाओं का प्रबंध करती है। साफ पानी उपलब्ध करवाती है। स्वास्थ्य से संबंधित सभी प्रकार की सुविधाएं प्रदान करती है। सफाई व्यवस्था का ध्यान रखती हैं। सरकार कानूनों का निर्माण करती है तथा सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए उन्हें लागू करती है। सरकार मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन बनाती है। सरकार कार्य की उचित परिस्थितियां तथा सुरक्षा के उपायों का प्रबंध करती है। पर्यावरण की रक्षा के लिए नहीं कारणों का निर्माण करती है। सरकार नदियों की सफाई का ध्यान रखती हैं तथा प्रदूषण फैलाने वालों को कड़ी सजा देती है।

8. आपके इलाके में पर्यावरण को दूषित करने वाले स्रोत कौन से हैं? (क) हवा; (ख) पानी और (ग) मिट्टी में प्रदूषण के संबंध में चर्चा करें। प्रदूषण को रोकने के लिए किस तरह के कदम उठाए जा रहे हैं? क्या आप कोई और उपाय सुझा सकते हैं?
Ans.
पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले तत्त्व निम्नलिखित हैं:-

धुएँ से पर्यावरण प्रदूषित होता है:

1. बसों, कारों तथा अन्य वाहनों में ईंधन के प्रयोग से पर्यावरण खराब होता है।

2. जल प्रदूषण पर्यावरण की एक अन्य समस्या है। फैक्ट्री से निकलने वाला कचरा पानी में मिल जाता है, जिससे प्रदूषण बढ़ता है।

3. धुएँ के कारण वायु प्रदूषण भी होता है।

प्रदूषण को कम करने के उपायः

1. सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक वाहनों में सी० एन० जी का प्रयोग करने का आदेश दिया।

2. फैक्ट्रियों में सफाई का विशेष ध्यान रखने के निर्देश दिये गए हैं।

3. प्रदूषण फैलाने वाले को दंडित करने का प्रावधान है।

4. पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए नए कानून बनाये गए हैं।

9. पहले पर्यावरण को किस तरह देखा जाता था? क्या अब सोच में क कोई बदलाव आया है? चर्चा करें।
Ans.
जब भोपाल गैस त्रासदी हुई थी, तब पर्यावरण सुरक्षा के लिए बहुत ही कम नियम थे। जो भी थोड़े बहुत कानून थे, उनका पालन नहीं होता था। लोग पर्यावरण को एक मुफ्त मिलने वाली वस्तु समझते थे। हर उद्योग बिना किसी डर के हवा और पानी को प्रदूषित करता था। कुल मिलाकर कहें तो पर्यावरण के लिए कोई इज्जत ही नहीं थी।

लेकिन अब प्रदूषण को लेकर कई कानून बन चुके हैं। अब तो वाहनों को भी नियमित अंतराल पर प्रदूषण फिटनेस की जाँच करानी होती है।

10. प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर. के. लक्ष्मण इस कार्टून के जरिए क्या कहना चाह रहे हैं? इसका 2016 में बनाए गए उस कानून से क्या संबंध है जिसको पृष्ठ 105 पर आपने पढ़ा था।

बच्चों पर इस तरह बोझ डालना कितनी बुरी बात है। देखो, मुझे अपने बेटे की मदद के लिए इस लड़के को नौकरी पर रखना पड़ा!
Ans
. प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर० के० लक्ष्मण इस कार्टून द्वारा बच्चों को मज़दूरी एवं शोषण से बचाने के लिए लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। इस कार्टून में एक व्यंग्य द्वारा में यह बताया गया है कि अभी भी बच्चों के साथ किस प्रकार का शोषण किया जाता है। इस कार्टून के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया गया है. कि हम अपने बच्चों को तो शोषण से बचाना चाहते हैं, परंतु स्वयं ही दूसरे बच्चों का शोषण करते हैं। अक्तूबर, 2006 में सरकार ने बाल मजदूरी निरोधक कानून में संशोधन करके 14 साल तक के किसी भी बच्चे को घरेलू नौकर बनाने, या किसी ढाबे, चाय की दुकान अथवा किसी रेस्टोरेंट में नौकर बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया।

पाठ के बीच में पूछे जाने वाले प्रश्न-उत्तर

1: न्यूनतम वेतन के लिए कानून की जरूरत क्यों पड़ती है ?
Ans.
मजदूरों को सही मेहनताना मिले, इसके लिए न्यूनतम वेतन के लिए कानून बनाया गया है। इस कानून के अंतर्गत किसी भी मज़दूर को न्यूनतम वेतन से कम मजदूरी नहीं दी जा सकती और न्यूनतम वेतन में समय-समय पर वृद्धि की जाती है। निश्चित रूप से ये कानून मजदूरों के हित में है।

2: पता लगाएँ :

(क) आपके राज्य में निर्माण मज़दूरों के लिए तय न्यूनतम वेतन क्या है?
Ans
. हमारे राज्य में निर्माण मज़दूरों के लिए तय न्यूनतम वेतन 8000 है।

(ख) क्या आपको निर्माण मज़दूरों के लिए तय न्यूनतम वेतन सही, कम या ज्यादा लगता है?
Ans. निर्माण मज़दूरों के लिए तय न्यूनतम वेतन कम है।

(ग) न्यूनतम वेतन कौन तय करता है?
Ans. न्यूनतम वेतन राज्य सरकार तय करती है।

3: आपको ऐसा क्यों लगता है कि किसी फैक्ट्री में सुरक्षा कानूनों को लागू करना बहुत महत्त्वपूर्ण होता है
Ans.
  किसी भी फैक्ट्री में सुरक्षा कानून लागू करना महत्वपूर्ण है क्योंकि कोई भी व्यक्ति जहाँ अपना समय दे रहा है, सारा दिन मेहनत करता है, वहाँ उन्हें किसी भी प्रकार की परेशानी न हो इस बात का ध्यान उस फैक्ट्री के मालिक को रखना बहुत जरूरी होता है। यह उसका प्रथम कार्य होता है कि वह काम रहे मजदूरों को किसी प्रकार की दुर्घटना का सामना न करना पड़े, उन्हें शारीरिक रूप से ऐसा कोई नुकसान न हो। और यह सब बात ज्यादा जरूरी तब समझी इसका एक उदाहरण भी है:- भोपाल गैस त्रासदी। जहां गैस रिसाव होने के कारण 8000 लोग मारे गए थे।

4: ‘स्वच्छ वातावरण एक जनसुविधा है’, क्या आप इस बयान की व्याख्या कर सकते हैं ?
Ans.
स्वच्छ वातावरण निस्संदेह एक जनसुविधा है। स्वच्छ वातावरण से गाँव व शहरों में रहने वाले लोगों को स्वच्छ वायु प्रदान हो सकेगी, जोकि जीवन के लिए आवश्यक है। वातावरण को प्रदूषित होने से बचाया जान चाहिए, ज्यादातर बीमारियाँ वातावरण दूषित होने की वजह से ही फैलती है। उद्योगों एवं कारखानों से निकलने वाले विषैले रसायन पदार्थों को नदी में नहीं फेंकना चाहिए। लोगों को अपने घरों में ही शौचालयों की व्यवस्था करनी चाहिए।

5: हमें नए कानूनों की जरूरत क्यों है?
Ans.
पर्यावरण को स्वच्छ बनाये रखने के लिए नए कानूनों की जरूरत है ताकि हमें स्वच्छ पानी व हवा मिलती रहें। जो लोग पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं, उन्हें कानून अनुसार सजा देने के लिए नए कानूनों की जरूरत है।

6: कंपनियों और ठेकेदार पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन कैसे कर पाते हैं?
Ans.
पर्यावरण कानूनों को उचित ढंग से लागू नहीं किया जाता। यदि कोई कंपनी या ठेकेदार पर्यावरण कानून को तोड़ता भी है. तो उसके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई नहीं हो पाती। सरकारी अधिकारी रिश्वत लेकर कंपनी या ठेकेदार के साथ नरम व्यवहार करते हैं।

मेरा नाम सुनीत कुमार सिंह है। मैं कुशीनगर, उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ। मैं एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हूं।

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